वह तब नहीं था, जब मैं टेम्पो में गोविन्द पुरी में बैठा। डाट की पुलिया के पास करीब पांच सौ मीटर की लम्बाई में सड़क धरती की बजाय चन्द्रमा की जमीन से गुजरती है और जहां हचकोले खाती टेम्पो में हम अपने सिर की खैरियत मनाते हैं कि वह टेम्पो की छत से न जा टकराये, वहीं अचानक वह मुझे टेम्पो चालक की बगल में बैठा दीखा।
कब टेम्पो धीमे हुयी, कब वह आ कर बैठा, यह चन्द्रकान्ता सन्तति के जमाने का रहस्य लगा। पर वह था। वह इतना दुबला था कि जिस चीज का वह बना था उसे डाक्टरी भाषा में डेढ़ पसली कहते हैं। अपनी काया में वजन वह अपनी आवाज और धाराप्रवाह प्रांजल गालियों से डाल रहा था। यह जरूर है कि उसके कुछ ही शब्द मेरे पल्ले पड़ रहे थे। एक गाली-हिन्दी इंटरप्रेटर की जरूरत मुझे महसूस हो रही थी।
वह था गुल्ले। उम्र कुल बारह-तेरह। पर गुल्ले की उपस्थिति ने टेम्पो यात्रा में जान डाल दी थी। मैं करीब दो दशक बाद टेम्पो पर चढ़ा था। अगर गुल्ले न होता तो मेरे गोविन्द पुरी से कचहरी तक के सफर के पांच रुपये बरबाद जाते!
चालक ने एक मोटी धारदार पीक छोड़ी पान की। इम्प्रेसिव! अगर पीक छोड़ने का खेल कॉमनवेल्थ गेम्स में होता तो शर्तिया उसके सारे मैडल इलाहाबाद के टेम्पो चालक जीतते। एक गगरा (गागर भर) पीक छोड़ते हैं एक बार में। पीक छोड़ उसने गुल्ले को कहा – भो@ड़ीके, तेलियरगंज आ रहा है, पीछे सवारी देख।
चलती टेम्पो में सट्ट से गुल्ले आगे से पीछे पंहुच गया। बाई गॉड की कसम; इस पर बहुत धांसू डॉक्यूमेण्टरी बन सकती है। चार सवारी बैठाईं तेलियर गंज में उसने। एक कालिज की लड़की के बगल में बैठा गुल्ले। लड़की कोने की सीट पर बैठी थी। उसके बाद इस्टेट बैंक के पास एक अधेड़ महिला को एडजस्ट किया उसने अपनी जगह। उसकी छोटी लड़की को महिला की गोद में बिठवाया और खुद बिना किसी समस्या के कालिज वाली लड़की के चरणों में बैठ गया।
एक समय छ सीटर टेम्पो में पन्द्रह लोग बैठे थे। टाटा इण्डिका मुझ इकल्ले को ले कर जाती है!
लॉ ऑफ अबण्डेंस (Law of abundance) का प्रत्यक्ष प्रमाण! गुल्ले को तो प्लानिंग कमीशन में होना चाहिये। भारत में प्रतिभायें यूं ही बरबाद होती है!
अगली टेम्पो यात्रा का संयोग न जाने कब होगा। कब अवसर मिलेगा मुझे!
मुझे लम्बी पोस्ट लिखना नहीं आता, वरना गुल्ले या चालक का सवारी से अपने शरीर के विशिष्ट अंग को खुजलाते हुये बतियाना। सड़क चलते आदमी को हांक लगाना – कहां जाब्ये, अनवस्टी गेट, अनवस्टी गेट (कहां जाओगे, यूनिवर्सिटी गेट, यूनिवर्सिटी गेट)? आदि का वर्णन तो अनिवार्य हैं टेम्पो की पोस्ट पर!
यद्यपि मैं पूरी तरह स्वस्थ महसूस नहीं कर रहा, पर यायावरी का मन है। अपनी यायावरी फ़ेज का प्रारम्भ मैं छोटी सी टेम्पो यात्रा से करना चाहता था। वह पूरी की! और मैं ढूंढ़ लाया गुल्ले को!
अगली यात्रा करछना के गंगा तट की होगी।
मस्त. एक ही दिन में मिल गया आपको. अगर ज्यादा तकलीफ ना हो तो रोज ही जाया करिये :)
ReplyDeleteबहुते गजब ... आपकी पोस्ट पढ़ कर हमेशा जैसे अपने इलाहाबाद में पहुँच जाता हूँ ... एक दशक से इलाहाबाद से दूर हूँ लेकिन आपके ब्लॉग और लेखन से इलाहाबाद जेहन में सजीव हो उठता है
ReplyDeleteआभार !
गुल्ले को तो प्लानिंग कमीशन में होना चाहिये।
ReplyDeleteचलो यह भ्रम बना रहे कि प्लानिंग कमीशन में गुल्ले नहीं है.
सटीक और सजीव पोस्ट .. इलाहाबाद नज़र आया.
बहुत हिम्मत जुटाई आपने तो पोस्ट का मटेरियल तो मिलना ही था.
ReplyDeleteवाह. इस गुल्ले में तो बहुत रस है.
ReplyDeleteबढ़िया लगा किस्सा-ए-गुल्ले-औ-टैम्पू... करीब आ रहा है करछना... गाड़ी आउटर पर है..
ReplyDeleteड्राइवर की मौन गंभीरता की मुखर अभिव्यक्ति का जिम्मा भी तो होता है, कंडक्टर पर. ड्राइवर, जो निष्काम कर्म की मुद्रा में वाहन चलाते सवारी सहित पूरी दुनिया को हिकारत से देखता है. कंडक्टर ही वह भाग्यशाली है, जिसे ड्राइवर गाली रूपी प्रसाद मिल पाता है और जिसे पाकर वह कभी धन्य-धन्य होता है और कभी गाली को मजाक मान लेने और खुद को मजाक के लिए उपयुक्त पात्र माने जाने से गौरवान्वित होता है.
ReplyDeleteयह ट्रेन से सीधे टेम्पो में काहे बैठ गए ?? बाईगाड भाई जी ! यह आपकी लिखी पोस्ट नहीं लग रही ....
ReplyDeleteगज़ब !
यहां दुष्यंत कुमार याद आते हैं-
ReplyDeleteकौन कहता है आसमां में सूराख नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।
यात्राएं बहुत कुछ देती हैं, उन्हे पाने के लिये सिर्फ एक संवेदनशील, खोजी मन चाहिये।
स्वास्थ्य का ध्यान देना तो जरूरी है, अगर स्वास्थ्य अनुमति दे तभी करछना या बाहर निकलना ठीक रहेगा।
गोपालजी गुप्ता की ई-मेल से प्राप्त टिप्पणी:
ReplyDelete:) बहुत ही निराला लिखा आपने मुझे अपने गाव के दिन याद आ गए .. गुल्ले और टेम्पो की बाकी द्रिश्य (वरना गुल्ले या चालक का सवारी से अपने शरीर के विशिष्ट अंग को खुजलाते हुये बतियाना। सड़क चलते आदमी को हांक लगाना – कहां जाब्ये, अनवस्टी गेट, अनवस्टी गेट (कहां जाओगे, यूनिवर्सिटी गेट, यूनिवर्सिटी गेट)?) जो आपने जो छोड़ दी यह हमें और पढने को मिलती तो और हलचल होती... धन्यवाद्
बड़े भाई, अपनी वकालत के पहले दस साल रोज टेम्पो यात्रा की है और अब भी कभी कभी करते हैं। गुल्ले का रेखाचित्र खींचने का प्रयास तो आप भी कर सकते थे।
ReplyDeletejai ho gulle.
ReplyDeleteजो अनिवार्य था इस पोस्ट के लिये वही बात आपने लघु कर दी जी
ReplyDeleteआगे लिखियेगा, अभी तो टैम्पो का सफर कर ही रहे हैं आप
प्रणाम
बहुत लम्बा अरसा बीत गया इस तरह के रोमांचक यात्राओं से वंचित हुए..
ReplyDeleteआपके इस सजीव वर्णन ने आनंदित कर दिया..
आभार.
गजब की दृष्टि पायी है आपने। बारंबार सलामी...।
ReplyDeleteOh what a wonderful post! I read and re - read it.
ReplyDeleteYou revived 36 year old memories!
Cut to 1974
Place: Bokaro
Occasion: Reported for duty on my first job as a trainee at Bokaro Steel plant.
Commuted 13 KM every day from our hostel to the Steel plant main gate.
Boarded tempos/minibuses/auto rickshaws/Taxis, whatever was available, whichever came first and whichever went the way we wanted to go.
I remember these "Gulle" type "conductors, acting as pimps to procure more and more passengers to somehow "adjust" inside the vehicle.
Believe it or not, I have actually been one of 7 passengers in an auto rickshw on one occasion and one of 13 in an Ambassador car.
I was much thinner those days and that perhaps helped.
If I was lucky, I got space for one buttock on someone's lap.
If unlucky my lap had to accommodate another's buttock.
This was called "adjusting".
Our "gulla" was much braver than your Gulla.
He sat at the extreme left end of the front seat of a rickety Ambassador, keeping the front left door partially open to provide space for himself as he sat perched precariously on just half of one buttock and holding the roof of the car with one hand for support and using the other hand to wave and shout out the destination and route hoping for addtional victims to stuff inside the taxi.
The Driver himself would sit with his body turned by nearly 90 degrees so that his back was firmly supported by the closed front left door and his neck used to be turned sideways so that he could keep his eyes firmly on the road. His ankels were also turned partially to be able to operate the foot pedals.
Not a single accident! We always reached in time.
No ticket formalities. Just pay cash as you alight at any place along the route. No fixed bus stops.
And yes, the cursing and swearing was no less loud and no less colourful.
But, I didn't know too much Hindi at that time and so never knew which part of the anatomy of which person, male or female he was referring to as he mouthed his 'gaalis".
Thanks for this opportunity to reminisce a little.
Am in a hurry this evening. So my apologies for this quick comment in English rather than in Hindi.
Regards
G Vishwanath
इलाहाबाद को इतनी जीवंतता से शायद ही किसी ने महसूसा हो।
ReplyDelete---------
मिलिए तंत्र मंत्र वाले गुरूजी से।
भेदभाव करते हैं वे ही जिनकी पूजा कम है।
`बाई गॉड की कसम; इस पर बहुत धांसू डॉक्यूमेण्टरी बन सकती है।'
ReplyDeleteकाश कि श्य़ांम बेनिगल बगल में होता :)
तो यह है 'ज्ञान-दान' की नई शैली।
ReplyDelete''मुझे लम्बी पोस्ट लिखना नहीं आता, वरना गुल्ले या चालक का सवारी से अपने शरीर के विशिष्ट अंग को खुजलाते हुये बतियाना। सड़क चलते आदमी को हांक लगाना – कहां जाब्ये, अनवस्टी गेट, अनवस्टी गेट (कहां जाओगे, यूनिवर्सिटी गेट, यूनिवर्सिटी गेट)? आदि का वर्णन तो अनिवार्य हैं टेम्पो की पोस्ट पर!''
सब कुछ लिखने के बाद भी न लिख पाने की मासूम विवशता का प्रकटीकरण।
कण्डक्टरी मैंने भी की है किन्तु यह पोस्ट पढ कर अपने आप पर शर्म आ रही है। खुद को 'पिछडा हुआ कण्डक्टर' पा रहा हूँ। गुल्ले का अपराधी अनुभव कर रहा हूँ - ऐसा कुछ भी न कह/कर सका जो महानृ गुल्ले ने किया/कहा।
ज्ञान-दान' की नई शैली
ReplyDeleteबैरागी जी से सहमत
डर तो यह है कि कहीं आपको चस्का न लग जाये टेम्पो से चलने का। योजना आयोग के सदस्यों को संसाधनो के समुचित संदोहन के लिये गुल्ले के साथ टेम्पो में घूमना पड़ेगा।
ReplyDelete