Tuesday, July 31, 2007

सुरियांवां, देवीचरण, टाई और नमकीन!


देवी चरण उपाध्याय तो उम्मीद से ज्यादा रोचक चरित्र निकले! कल की पोस्ट पर बोधिसत्व जी ने जो देवीचरण उपाध्याय पर टिप्पणी की, और उसको ले कर हमने जो तहकीकात की; उससे इस पोस्ट का (हमारे हिसाब से रोचक) मसाला निकल आया है.

Monday, July 30, 2007

सुरियांवां के देवीचरण उपाध्याय के रेल टिकट


देवीचरण उपाध्याय सुरियांवां के थे. बोधिस्त्व के ब्लॉग में सुरियांवां का नाम पढ़ा तो उनकी याद आ गयी. मैं देवीचरण उपाध्याय से कभी नहीं मिला. मेरी ससुराल में आते-जाते थे. वहीं से उनके विषय में सुना है.

जो इस क्षेत्र को नहीं जानते उन्हे बता दूं - इलाहाबाद से रेल लाइन जाती है बनारस. वह सुरियांवां के रास्ते जाती है. ज्ञानपुर, औराई उसके पास हैं. जिला है भदोही. ये स्थान पहले बनारस के अंतर्गत आते थे. मेरा ससुराल है औराई के पास.

Sunday, July 29, 2007

शांती की पोस्ट पर मेरे माता-पिताजी का लगाव


कल मैने शांती पर एक पोस्ट पब्लिश की थी. कुछ पाठकों ने ब्लॉगरी का सही उपयोग बताया अपनी टिप्पणियों में. मैं आपको यह बता दूं कि सामान्यत: मेरे माता-पिताजी को मेरी ब्लॉगरी से खास लेना-देना नहीं होता. पर शांती की पोस्ट पर तो उनका लगाव और उत्तेजना देखने काबिल थी. शांती उनके सुख-दुख की एक दशक से अधिक की साझीदार है. अत: उनका जुड़ाव समझमें आता है.
कल मेरे घर में बिजली 14 घण्टे बन्द रही. अत: कुछ की-बोर्ड पर नहीं लिख पाया. मैने कागज पर अपने माता-पिता का इंवाल्वमेण्ट दर्ज किया है, वह आपके समक्ष रख रहा हूं.

SHANTI FOLLOWUP


Saturday, July 28, 2007

समाज में तरक्की तो है – नेवस्टी गया है मोनू


शांती मेरे घर में बरतन-पोंछा करने आती है. जाति से पासी. नेतृत्व के गुण तलाशने हों तो किसी कॉरपोरेट के सीईओ को झांकने की जरूरत नहीं, शांती में बहुत मिलेंगे. एक पूरी तरह अभावग्रस्त परिवार को अपने समाज में हैसियत वाला बना दिया है. हाड़तोड़ मेहनत करने वाली. कभी-कभी सवेरे 4-5 बजे आ जाती है. मेरी मां से कहती है "जब्बै मुरगा बोला, उठि गये. का करी, सोचा कामै पर चली." करीब 12-15 घरों में काम करती है. कुल 2500-3000 तक कमाती है. पैसा बचाना, बच्चों को पढ़ाना, सरकार की किस स्कीम से क्या लाभ मिल सकता है यह जानकारी रखना, नगरपालिका और सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगा काम करा लेना, जरूरत पड़े तो 25-50 रुपये दक्षिणा देकर काम करा लेना यह सब शांती को आता है. बाकी बिरादरी के लोग मड़ई में रहते हों, पर शांती ने तीन कमरे का पक्का मकान बना लिया है.

पढ़ी-लिखी नहीं है शांती. सो शब्द उसके अपने गढ़े हैं. अनुसूचित जाति को कहती है सुस्ती जाति. सुस्ती जाति के वैधानिक लाभ और राजनैतिक दाव-पेंच समझती है. अपने वोट की कीमत भी जानती है वह. उसकी बड़ी लड़की बी.ए. तक पढ़-लिख कर शिक्षामित्र बन गयी है. शांती शिक्षामित्र नहीं कह पाती. कहती है छिच्छामित्र. छिच्छामित्र बन जाने से बिरादरी में शांती का दबदबा बढ़ गया है.

बच्चे अच्छे से पाले हैं शांती ने. छोटी लड़की कभी-कभी शांती की बजाय बरतन-पोंछा करने आती है. वह अपनी मां की तरह टांय-टांय नहीं बोलती. मधुर स्वर में बोलती है "अंकलजी नमस्ते, आण्टी जी नमस्ते". मैनेरिज्म अभिजात्य हो गये हैं. बच्चों में आकांक्षायें भी शायद श्रमिक वर्ग से परिवर्तित हो मध्यम वर्ग की हो गयी हैं. यह सामाजिक तरक्की है.

शांती का पति लल्लू है. नाम है रंगी. रंगीलाल पन्नी का शौकीन है. पर शांती उसे धेला नहीं देती पीने को. अपना जो कमाता है, उसी में कपट कर पीता है. अन्यथा शांती उससे सारी कमाई ले लेती है. गंगा के कछार में अवैध शराब बनती है. एक दिन रंगी वहीं पी रहा था कि पुलीस की रेड पड़ी. रंगी दो दिन तक भागता फिरा. पुलीस उसे ढ़ूंढ़ नहीं रही थी, फिर भी, केवल डर के मारे भागता रहा. बड़ी मुश्किल से शांती ढ़ूंढ़ कर वापस ला पायी. कभी-कभी रंगी पिनक में रहता है और 3-4 दिन काम पर नहीं जाता. तब शांती भोजन बनाना बन्द कर देती है. रंगी को लाई-चना पर उतार देती है तो झख मार कर काम पर जाता है. मेरे पिता जी बिलानागा रंगी का हाल पूछते हैं "रंगी पन्नी पर है कि काम पर?" शांती हंस कर जवाब देती है "नाहीं बाबू, काम पर ग हयें."

आज मेरी मां से शांती अपने से बताने लगी - "अम्मा मोनू कालि नेवस्टी ग रहा."

यह नेवस्टी क्या है? मुझे कुछ देर बाद समझ आया. उसका लड़का स्कूली पढ़ाई पूरी कर कल यूनिवर्सिटी में भरती होने गया था आगे की पढ़ाई के लिये.

एक ही पीढ़ी का अंतर – मां अनपढ़, बाप पियक्कड़. लड़की छिच्छामित्र. लड़का नेवस्टी जा रहा है.

मित्रों, भारत की तस्वीर बदलती दिख रही है न! मुझे भविष्य पर भरोसा हो रहा है.


Friday, July 27, 2007

मुद्राष्टाध्यायी नामक ग्रंथ रचने की गुहार


शिव कुमार मिश्र ने एसएमएस कर नये पर सशक्त शब्द मुद्राभिषेक से परिचय कराया है. रुद्राष्टाध्यायी के आधार पर रुद्राभिषेक किया जाता है. भगवान शिव का शुक्लयजुर्वेदीय पूजन है यह. पर मुद्राभिषेक क्या है?

उन्होने लिखा है कि अमुक सज्जन थे. हर वर्ष रुद्राभिषेक कराते थे श्रावण मास में. एक बार यह अनुष्ठान करने के पहले ही उनके यहां कर चोरी के कारण छापा पड़ गया. अनुष्ठान टाल दिया गया. अलग प्रकार के पुरोहितों का इंतजाम कर मुद्राभिषेक का विशेष अनुष्ठान महामुद्राभिषेक कराया गया. ग्रह शांति हुई. कृपा की वर्षा हुई. मुद्राभिषेक फलदायी हुआ.

रुद्राष्टाध्यायी लिखित ग्रंथ है. शुक्लयजुर्वेद में आठ अध्यायों में रुद्र पर 200 सूत्र हैं. गीताप्रेस की दुकान से 10-20 रुपये में इसे आप विधि-विधान/अनुवाद सहित खरीद सकते हैं. पुरोहित का इंतजाम न हो तो आप स्वयम पढ़ कर शिवोपासना कर सकते हैं. मुद्राभिषेक के विषय में यही समस्या है कि इसके लिये ग्रंथ लिखित नहीं है. हर देश-काल-विभाग में इसके सूत्र भिन्न-भिन्न हैं. लिहाजा पुरोहित भी भिन्न-भिन्न हैं. पर जैसे आपके पास श्रद्धा हो तो आप रुद्राभिषेक कर सकते हैं, उसी प्रकार आपके पास मुद्रा हो तो आप मुद्राभिषेक कर सकते हैं. बाकी सब इंतजाम होता चला जाता है!

एक अंतर है - रुद्राभिषेक और मुद्राभिषेक में. रुद्राभिषेक सामुहिक कृत्य है. वह आप पुण्य-लाभ के लिये बड़े से बड़े शिव मन्दिर में बहुत से लोगों को निमंत्रण दे कराते हैं. मुद्राभिषेक एकांत में किया जाने वाला अनुष्ठान है. उसमें आप अपने को एकाग्र कर चुप-चाप यज्ञ/पूजन (!) करते हैं और भीड़ का सामुहिक वातावरण उस साधना में बाधक होता है. इसपर अगर और प्रकाश डालना हो तो शिव कुमार मिश्र अपनी रोमन हिन्दी की टिप्पणी में डाल सकते हैं.

मेरे विचार से इतना शब्द-परिचय पर्याप्त है. विश्वास है कि नये शब्द को लोग हाथों हाथ लेंगे. सटायरिस्ट अगर पहले ही इसपर कलम चला चुके हों तो ठीक, वर्ना लिखने को एक उर्वर विषय मिल जायेगा. श्रावण मास आने को है. उसके पहले या उस मास में शायद इस वर्ष कोई सज्जन मुद्राष्टाध्यायी नामक ग्रंथ की रचना कर ही लें. उसपर अगर प्राचीन (या प्राचीन सम्मत) होने का ठप्पा लगवाना हो तो स्वामी निर्मलानन्द सरस्वती (श्री अभय तिवारी) से लगवाया जा सकता है! वे आजकल ऋगयजुर्सामअथर्ववेद की ऋचाओं के ऊपर ही शोध कर भयानक-भयानक निष्कर्ष निकाल रहे हैं. :)

ओर्कुट-चिर्कुट पुराण के प्रणेता पण्डित आलोक पुराणिक, या अन्य कोई धर्म मर्मज्ञ पाठक महोदय; आप सुन रहे हैं कि नहीं? दोनो हाथ धन उलीचते नवयुग के कांवरियों की सेवा में मुद्राष्टाध्यायी ग्रंथ रचने का पुण्य लाभ करें.


Thursday, July 26, 2007

'बना रहे बनारस' – ये लो यूनुस लास्ट सुट्टा!


कल टिप्पणी में यूनुस छैलाइ गये. बना रहे बनारस का केवल झांकी दिखाना उन्हे एक सुट्टे के बाद बीड़ी छीन लेने जैसा लगा. अब पूरे 188 पेज की किताब पेश करना तो फुरसतिया सुकुल जैसे ही कर सकते हैं! फिर भी मैने अपनी पत्नी से विमर्श किया. वे बनारस की हैं. उनका विचार था कि यूनुस जैसे रेगुलर ग्राहक को नाराज नहीं करना चाहिये. पूरी किताब देख कर उन्होने ही सुझाव दिया कि ये लास्ट वाला सुट्टा पिला दो यूनुस को.

तो यूनुस कहीं बीड़ी का ब्राण्ड न बदल लें, उस के डर से बना रहे बनारस का यह अंतिम लेखांश प्रस्तुत है. यह उम्मीद है कि सभी को पसन्द आयेगा:


बना रहे बनारस
(श्री विश्वनाथ मुखर्जी) आजाद शहर

भारत को सन 1947 में आजादी मिली. अब हम आजाद हैं. आजादी का क्या उपयोग है, इसकी शिक्षा लेनी हो तो बनारस चले आइये. बनारसवाले सन 1947 से ही नहीं, अनादिकाल से अपने को आजाद मानते आ रहे हैं. इन्हे नयी व्यवस्था, नया कानून या नयी बात कत्तई पसन्द नहीं. इसके विरुद्ध ये हमेशा आवाज उठायेंगे. बनारस कितना गन्दा शहर है, इसकी आलोचना नेता, अतिथि और हर टाइप के लोग कर चुके हैं,पर यहां की नगरपालिका इतनी आजाद है कि इन बातों का ख्याल कम करती है. खास बनारस वाले भी सोचते हैं कि कौन जाये बेकार सरदर्द मोल लेने. हिन्दुस्तान में सर्वप्रथम हड़ताल 24 अगस्त सन 1790 ई. में बनारस में हुई थी और इस हड़ताल का कारण थी गन्दगी. सिर्फ इसी बात के लिये ही नहीं, सन 1809 ई. में जब प्रथम गृहकर लगाया गया, तब बनारसी लोग अपने घरों में ताला बन्दकर, मैदानों में जा बैठे. शारदा बिल, हिन्दू कोड बिल, हरिजन मन्दिर प्रवेश, गल्ले पर सेल टेक्स और गीता काण्ड आदि मामलों में सर्वप्रथम बनारस में हड़तालें और प्रदर्शन हुये हैं. कहने का मतलब हमेशा से आजाद रहे और उन्हे अपने जीवन में किसी की दखलन्दाजी पसन्द नहीं आती. यहां तक कि वेश-भूषा में परिवर्तन लाना पसन्द नहीं हुआ. आज भी यहां हर रंग के, हर ढ़ंग के व्यक्ति सड़कों पर चलते फिरते दिखाई देंगे. एक ओर तो ऊंट, बैलगाड़ी, भैंसागाड़ी है तो दूसरी ओर मोटर, टेक्सी, लारी और फिटन हैं. एक ओर अद्धी तंजेब झाड़े लोग अदा से टहलते हैं तो दूसरी ओर खाली गमछा पहने दौड़ लगाते हैं.

आप कलकत्ता की सड़कों पर धोती के ऊपर बुशशर्ट पहने या कोट पैण्ट पहनकर पैरों में चप्पल पहनें तो लोग आपको इस प्रकार देखेंगे मानो आप सीधे रांची (पागलखाने) से चले आ रहे हैं. यही बात दिल्ली और बम्बई में भी है. वहां के कुली-कबाड़ी भी कोट-पैण्ट पहने इस तरह चलते हैं जैसे बनारस में आई.ई.आर. के स्टेशन मास्टर. यहां के कुछ दुकानदार ऐसे भी देखे गये हैं जो ताश, शतरंज या गोटी खेलने में मस्त रहते हैं. अगर उस समय कोई ग्राहक आ कर सौदा मांगता है तो वे बिगड़ जाते हैं. का लेब? केतन क लेब? का चाही? केतना चाही? इस तरह के सवाल करेंगे. अगर मुनाफेदार सौदा ग्राहक ने न मांगा, तबियत हुआ दिया, वर्ना माल रहते हुये वह कह देंगे नाहीं हव भाग जा. खुदा न खास्ता ग्राहक की नजर उस सामान पार पड़ गयी तो तो भी उस हालत में कह उठते हैं जा बाबा जा, हमके बेंचे के नाहीं हव.

है किसी शहर में ऐसा कोई दुकानदार? कभी-कभी वे झुंझलाकर माल का चौगुना दाम बता देते हैं. अगर ग्राहक ले लेता है तो वह ठगा जाता है और दूकानदार जट्टू की उपाधि मुफ्त में पा जाता है.

बनारस की सड़कों पर चलने की बड़ी आजादी है. सरकारी अफसर भले ही लाख चिल्लायें, पर कोई सुनता नहीं. जब जिधर से तबियत हुई चलते हैं. अगर किसी साधारण आदमी ने उन्हें छेड़ा तो तुरंत कह उठेंगे तोरे बाप क सड़क हव, हमार जेहर मन होई, तेहर से जाब, बड़ा आयल बाटै दाहिने बायें रस्ता बतावै. जब सरकारी अधिकारी यह कार्य करते हैं तब उन्हें भी कम परेशानियां नहीं होतीं. लाचारी में हार मान कर वे भी इस सत्कार्य से मुंह मोड़ लेते हैं.

सड़क पर घण्टों खड़े रह कर प्रेमालाप करना साधारण बात है, भले ही इसके लिये ट्रैफिक रुक जाये. जहां मन में आया लघु शंका करने बैठ जाते हैं, बेचारी पुलीस देखकर भी नहीं देखती. डबल सवारी, बिना बत्ती की साइकल चलाना और वर्षों तक नम्बर न लेना रोजमर्रे का काम है. यह सब देखते-देखते यहां के अफसरों का दिल पक गया है. पक क्या गया है, उसमें नासूर भी हो गया है. यही वजह है कि वे लोग साधारण जनता की परवाह कम करते हैं. परवाह उस समय करते हैं, जब ये सम्पादक नामधारी जीवाणु उनके पीछे हाथ धो कर पड़ जाते हैं. कहा गया है कि खुदा भी पत्रकारों से डरता है.

मतलब यह कि हिन्दुस्तान का असली रूप देखना हो तो काशी अवश्य देखें. बनारस को प्यार करने वाले कम हैं, उसके नाम पार डींग हांकने वाले अधिक हैं. सभ्यता-संस्कृति की दुहाई देकर आज भी बहुत लोग जीवित हैं, पर वे स्वयम क्या करते हैं यह बिना देखे नहीं समझा जा सकता. सबके अंत में यह कह देना आवश्यक समझता हूं कि बनारस बहुत अच्छा भी है और बहुत बुरा भी.


चलते चलते
1. कल बोधिसत्व का ब्लॉग देखा - विनय पत्रिका. उलटने-पलटने पर कॉम्प्लेक्सिया गया. अपने से कहा - मिस्टर ज्ञानदत्त इतनी बढ़िया हिन्दी तो तुम लिख पाने से रहे. लिहाजा अपने अंग्रेजी के शब्द ठेलने का क्रम ढ़ीला मत करो. भले ही चौपटस्वामी अंग्रेजी का पानी मिलाने पर कितना भी कहें.
2. चेले को बनारस में भेजा 'बना रहे बनारस' खरीदने. दुकान वाला बोला - छप रही है. महीना - डेढ़ महीना लगेगा आने में.

Wednesday, July 25, 2007

'बना रहे बनारस' – श्री विश्वनाथ मुखर्जी


श्री विश्वनाथ मुखर्जी की यह पुस्तक - बना रहे बनारस सन 1958 में भारतीय ज्ञानपीठ, काशी ने छापी थी. उस समय पुस्तक की छपी कीमत है ढ़ाई रुपया. अब भी शायद 30-40 रुपये के आस-पास होगी. इस 188 पेज की पुस्तक में कुल 24 लेख हैं. अर्थात प्रत्येक लेख 7-8 पृष्ठ का है. सभी लेख बनारस से बड़ी सहज और हास्य युक्त शैली में परिचय कराते हैं. मेरे पास तो 1958 की छपी पुस्तक की फोटो कॉपी है.

मैं यहां पुस्तक की लेखक द्वारा लिखी प्रस्तावना प्रस्तुत कर रहा हूं, और फिर पुस्तक के कुछ फुटकर अंश.

बना रहे बनारस की प्रस्तावना:


मैने कहा ---

खुदा को हाज़िर-नज़िर जान कर मैं इस बात को कबूल करता हूं कि बनारस को मैने जितना जाना और समझा है, उसका सही-सही चित्रण पूरी ईमानदारी से किया है. प्रस्तुत पुस्तक जिस शैली में लिखी गयी है, आप स्वयम ही देखेंगे. जहां तक मेरा विश्वास है,किसी नगर के बारे में इस प्रकार की व्यंगात्मक शैली में वास्तविक परिचय देने का यह प्रथम प्रयास है. इस संग्रह के जब कुछ लेख प्रकाशित हुये तब उनकी चर्चा वह रंग लायी कि लेखक केवल हल्दी-चूने के सेवन से वंचित रह गया. दूसरी ओर प्रसंशा के इतने इतने पत्र प्राप्त हुये हैं कि अगर समझ ने साथ दिया होता तो उन्हें रद्दी में बेंच कर कम से कम एक रियायती दर का सिनेमा शो तो देखा ही जा सकता था.

इन लेखों में कहीं-कहीं जन श्रुतियों का सहारा मजबूरन लेना पड़ा है. प्रार्थना है कि इन श्रुतियों और स्मृतियों को ऐतिहासिक तथ्य न समझा जाये. हां, जहां सामाजिक और ऐतिहासिक प्रश्न आया है, वहां मैने धर्मराज बन कर लिखने की कोशिश की है. पुसतक में किसी विशेष व्यक्ति, संस्था या सम्प्रदाय ठेस पंहुचाने क प्रयास नहीं किया गया है, बशर्ते आप उसमें जबरन यह बात न खोजें. अगर कहीं ऐसी बात हो गयी हो या छूट गयी हो तो कृपया पांच पैसे से पन्द्रह नये पैसे के सम्पत्ति दान की सनद मेरे पास भेज दें ताकि अगले संस्करण में अपने आभार का भार आपपर लाद कर हल्का हो सकूं. गालिब के शैरों के लिये आदरणीय बेढबजी का, जयनारायण घोषाल जी की कविताओं के लिये प. शिव प्रसाद मिश्र रुद्र जी का, संगीत सम्बन्धी जानकारी के लिये पारसनाथ सिंह जी का, पाण्डुलिपि संशोधन, धार्मिक-सांस्कृतिक जानकारी के लिये तथा प्रूफ संशोधन के लिये केशर और भाई प्रदीप जी का आभारी हूं.

अंत में इस बात का इकबाल करता हूं, कि मैने जो कुछ लिखा है, होश-हवाश में लिखा है, किसी के दबाव से नहीं. ये चन्द अल्फाज़ इस लिये लिख दिये हैं कि मेरी यह सनद रहे और वक्त ज़रूरत पर आपके काम आये. बस फ़कत ---

बकलमखुद
विश्वनाथ मुखर्जी
सिद्धगिरि बाग
बुद्ध पूर्णिमा, 2015 वि.


पुस्तक के कुछ अंश:

सफाई पसन्द शहर -
...तीर्थ स्थान होने की वजह से यहां गन्दगी काफी होती है. लिहाजा सफाई खर्च (बनाम जुर्माना ) तीर्थयात्री कर के रूप में लिया जाता है. बनारस कितना साफ सुथरा शहर है इसका नमूना गली सड़कें तो पेश करती ही हैं, अखबारों में सम्पादक के नाम पत्र वाले कालम भी "प्रसंशा शब्दों" से रंगे रहते हैं. माननीय पण्डित नेहरू और स्वच्छ-काशी आन्दोलन के जन्मदाता आचार्य विनोबा भावे इस बात के कंफर्म्ड गवाह हैं.
खुदा आबाद रखें देश के मंत्रियों को जो गाहे-बगाहे कनछेदन, मूंडन, शादी और उद्घाटन के सिलसिले में बनारस चले आते हैं जिससे कुछ सफाई हो जाती है; नालियों में पानी और चूने का छिड़काव हो जाता है.
बनारस की सड़कें -
... जब कोई बैलगाड़ी, ट्रक, जीप या टेक्सी इन सड़कों पर से गुजरती है तब हर रंग की हर ढ़ंग की समांतर रेखायें, त्रिभुज और षटकोण जैसे अजीब गरीब नक्शे बन जाते हैं कि जिसका अंश बिना परकाल की सहायता के ही बताया जा सकता है. नगरपालिका को चाहिये कि वह यहां के अध्यापकों को इस बात का आदेश दे दे कि वे अपने छात्रों को यहां की सड़क पर बने हुये इस ज्योमेट्रीका परिचय अवश्य करा दें. सुना है कि काशी के कुछ माडर्न आर्टिस्ट इन नक्शों के सहयोग से प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके हैं.
यहां की सड़कें डाक्टरों की आमदनी भी बढ़ाती हैं. यही वजह है कि अन्य शहरों से कहीं अधिक डाक्टर बनारस में हैं. ... यहां हर 5 कदम पर गढ़्ढ़े हैं. जब इन गढ़्ढ़ों में पहिया फंसेगा तब पेटका सारा भोजन कण्ठ तक आ जायेगा. दूसरे दिन बदनमें इतना दर्द हो जायेगा कि आपको डाक्टर का दरवाजा खटखटाना पड़ेगा.
बनारसी निपटान -
सुबह के समय लोगा प्रात: क्रिया से निवृत्त होते हैं, इस क्रिया को बनारसी शब्द में 'निपटान' कहते हैं. बनारस में नगरपालिका की कृपा से अभी तक भारत की सांस्कृतिक राजधानी और अनादिकाल की बनी नगरी में सभी जगह 'सीवर' नहीं गया है. भीतरी महाल में जाने पर वहां भरी गर्मी की दोपहर को लाइट की जरूरत महसूस होती है. फलस्वरूप अधिकांश लोगों को बाहर जा कर निपटना पड़ता है. निपटान एक ऐसी क्रिया है जिसे बनारसी अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य समझता है. बनारस के बाहर जाने पर उसे इसकी शिकायत बनी रहती है. एक बार काशी के एक प्रकाण्ड पण्डित सख्खर गये. वहां से लौटने पर सख्खर-यात्रा पर लेख लिखते हुये लिखा - 'हवाई जहाज पर निपटान का दिव्य प्रबन्ध था.' कहने का मतलब है कि हर बनारसी निपटान का काफी शौक रखता है.
असली बनारसी -
एक बनारसी सही माने में बनारसी है, जिसके सीने में एक धड़कता हुआ दिल है और उस सीने में बनारसी होने का गर्व है, वह कभी भी बनारस के विरुद्ध कुछ सुनना या कहना पसन्द नहीं करेगा. यदि वह आपसे तगड़ा हुआ तो जरूर इसका जवाब देगा, अगर कमजोर हुआ तो गालियों से सत्कार करने में पीछे न रहेगा. बनारस के नाम पर धब्बा लगे ऐसा कार्य कोई भी बनारसी स्वप्न में भी नहीं कर सकता. ... बनारसी अगर घर के भीतर गावटी का गमछा पहन कर नंगे बदन रहता है तो वह उसी तरह गंगास्नान या विश्वनाथ दर्शन भी कर सकता है. उसके लिये यह जरूरी नहीं कि घर के अन्दर फटी लुंगी या निकर पहन कर रहे और बाहर निकले तो कोट-पतलून में. दिखावा तो उसे पसन्द नहीं. ... आजकल बड़े शहरों में मेहमान आ जाने पर लोग चिढ़ जाते हैं, पर बनारसी चिढ़ता नहीं. ... मस्त रहना बनारसियों का सबसे बड़ा गुण होता है. ....

चलते-चलते: भारतीय सहित्य संग्रह के इस वेब-पेज पर है कि श्री विश्वनाथ मुखर्जी अब स्वर्गीय हैं. उन्होनें शरत चद्र की जीवनी भी लिखी थी. श्री विश्वनाथ मुखर्जी को सादर श्रद्धांजलि.

Tuesday, July 24, 2007

कछुआ और खरगोश की कथा – नये प्रसंग


कछुआ और खरगोश की दौड़ की कथा (शायद ईसप की लिखी) हर व्यक्ति के बचपन की कथाओं का महत्वपूर्ण अंग है. यह कथा ये सन्दर्भ में नीचे संलग्न पावरप्वाइण्ट शो की फाइल में उपलब्ध है. इसमें थोड़े-थोड़े फेर बदल के साथ कछुआ और खरगोश 4 बार दौड़ लगाते हैं और चारों बार के सबक अलग-अलग हैं.

कुछ वर्षों पहले किसी ने -मेल से यह फाइल अंग्रेजी में प्रेषित की थी. इसके अंतिम स्लाइड पर है कि इसे आगे प्रसारित किया जाये. पर यह संतोषीमाता की कथा की तरह नहीं है कि औरों को भेजने से आपको फलां लाभ होगा अन्यथा हानि. यह प्रबन्धन और आत्म विकास से सम्बन्धित पीपीएस फाइल है. इसमें व्यक्तिगत और सामुहिक उत्कष्टता के अनेक तत्व हैं.

बहुत सम्भव है कि यह आपके पास पहले से उपलब्ध हो. मैने सिर्फ यह किया है कि पावरप्वाइण्ट का हिन्दी अनुवाद कर दिया है, जिससे हिन्दी भाषी इसे पढ़ सकें.

आप नीचे के चिन्ह पर क्लिक कर फाइल डाउनलोड कर सकते हैं. हां; अगर डाउनलोड कर पढ़ने लगे, तो फिर टिप्पणी करने आने से रहे! :)

खैर, आप डाउन लोड करें और पढ़ें यही अनुरोध है.


Monday, July 23, 2007

कभी-कभी धुरविरोधी की याद आती है


मैं बेनामी ब्लॉगरी के कभी पक्ष में नहीं रहा. पर मैने धुरविरोधी को; यह जानते हुये भी कि उस सज्जन ने अपनी पहचान स्पष्ट नहीं की है; कभी बेनाम (बिना व्यक्तित्व के) नहीं पाया. मेरी प्रारम्भ की पोस्टों पर धुरविरोधी की टिप्पणियां हैं और अत्यंत स्तरीय टिप्पणियां हैं. धुरविरोधी के अन्य सज्जनों से विवाद हुये होंगे, पर मैने उन सज्जन को अत्यंत संयत और संवेदनशील व्यक्ति पाया. उनकी एक कविता जो राजा-की-मण्डी में अभावग्रस्त मां के विषय में थी; ने मुझे अंतर्मन में दूर तक छुआ. पढते हुये मेरी आंखें नम हो गयी थीं. और ऐसा मैने टिप्पणी में भी स्पष्ट किया था.

मुझे लगता था कि मैं उन सज्जन को भले न जानता होऊं, पर ब्लॉगरी में अन्य लोग जानते होंगे या उनका ई-मेल एड्रेस होगा. जब मैने ब्रेन इंजरी की वेब साइट के लिये जिन लोगों ने सहायता की हामी भरी थी, उनकी शॉर्ट लिस्टिंग की, तो उनमें धुरविरोधी भी थे. पर उनका ई-मेल एड्रेस मिला ही नहीं! शॉर्ट लिस्टिंग और उसके बाद की गतिविधियां तो नॉन-स्टार्टर सी रहीं; पर मुझे पता चला कि शायद किसी के पास इन सज्जन का पता-ठिकाना नहीं है.

धुरविरोधी के मेरे ब्लॉग पर पहले 2 कमेण्ट:
मार्च 1, 2007: ज्ञानदत्त साहब; विरोध किसी को पचता नहीं तो "अहो रूपम अहो ध्वनि" का गान ही ठीक है ना?
वैसे आपके लिये भी मेरे मन में अहो ध्वनि का भाव है.
मार्च 5, 2007: ज्ञानदत्त साहब, मेरे मन मैं आज फिर अहो ध्वनि के भाव आ रहे हैं. लिखते रहिये, धुरविरोधी पढता रह्वेगा. (अब नहीं पढता!)
यह वह सामय था जब मेरा ब्लॉग फीड एग्रेगेटर पर पंजीकृत भी नहीं था. मुझे मालुम भी नहीं था एग्रेगेटर के विषय में! धुरविरोधी कैसे ब्लॉग पर आये, यह वही जाने!
ऐसा नहीं कि मेरी धुरविरोधी से पूर्ण वैचारिक साम्य रहा हो. उदाहरण के लिये मैं नन्दीग्राम के मामले में किसानों पर जुल्म के खिलाफ था, पर मुझे लगता था कि बंगाल का औद्योगीकरण भी जरूरी है. शायद धुरविरोधी ने मेरी संवेदना को समझा था और मैने उनकी. कभी कोई मतभेदात्मक स्थिति नहीं पैदा हुई; जबकि मैने एक ब्लॉग पोस्ट भी लिखी थी नन्दीग्राम पर कितने ब्लॉग बनायेंगे.

यह सब मैं इसलिये लिख रहा हूं कि मुझे धुरविरोधी का ब्लॉग अचानक शांत होना जमा नहीं. उस ब्लॉग पर मेरी भी कुछ टिप्पणियां थीं मेरा भी कुछ अंश था. इसके अतिरिक्त उसकी भाषा मुझे हिन्दी ब्लॉगरी के सर्वथा उपयुक्त लगती थी साहित्यिक आडम्बर से रहित, सरल और भद्र.

मेरा मत है कि ये सज्जन कहीं दूर नहीं गये होंगे. अभी भी पूरे तौर से वर्तमान परिदृष्य के भागीदार नहीं तो दर्शक अवश्य होंगे. कितना अच्छा हो कि प्रॉसेस ऑफ नॉर्मलाइजेशन के तहद अपना ब्लॉग पुन: प्रारम्भ करें. या और भी बेहतर हो अपने ई-मेल पते के साथ ब्लॉग प्रारम्भ करें.

पर मेरा सोचना, मेरा सोचना है. पता नहीं और लोग इसे किस प्रकार से लें.

Sunday, July 22, 2007

एक घायल पिल्ले की पांय-पांय


परसों एक पिल्ला एक कार से टकरा गया. बहुत छोटा नहीं था. कुत्ते और पिल्ले के बीच की अवस्था में था. कार रुकी नहीं. पिल्ला मरा नहीं. जख्मी होकर पांय-पांय करता रहा. शायद अपंग हो जाये. अपंग होने पर मानव का जीवन दुरूह हो जाता है, जानवर के लिये तो और भी कठिन होगा. मेरी भी गाड़ी वहां रुकी नहीं थी. इसलिये पता नहीं पिल्ले को कितनी चोट लगी. पर मन जरूर लगा है.

पिल्ला अचानक गाड़ी की तरफ दौड़ पड़ा था. गलती ड्राइवर की नहीं थी. पर शायद मानव का बच्चा होता तो वह आपात तरीके से ब्रेक लगा कर दुर्घटना बचा लेता.

भारत में सड़कें सभी प्रयोग करते हैं. पैदल, साइकल सवार, वाहन वाले और जानवर - सभी बिना लेन के उसी पर चलते हैं. फुटपाथ की जगह पार्किंग, बिजली के ट्रांसफार्मर, हनुमान जी के मन्दिर और पटरी/ठेले पर दुकान लगाने वाले छेंक लेते हैं. चलने और वाहनों के लिये सड़क ही बचती है. बेतरतीब यातायात में आदमी फिर भी बच जाता है; जानवर मरता या अपंग होता है.

इसी तरह ट्रेनों से कट कर जानवर मरते हैं. पिल्ले की याद तो अब तक है. पर वे जानवर तो हमारे आंकड़े भर बन जाते हैं. फिर यह पता किया जाता है कि कितने पालतू थे और कितने जंगली. आंकड़ों में जंगली जानवर बढ़ रहे हैं. शायद नीलगायों की आबादी बढ़ रही है. एक नीलगाय या पालतू जनवर कट जाने पर कमसे कम आधा घण्टा ट्रेन लेट होती है. आधे से ज्यादा मामलों में इंजन फेल हो जाता है और ट्रेन 2 से ढ़ाई घण्टे लेट हो जाती है. हमारा सारा ध्यान रेलगाड़ी के व्यवधान की तरफ रहता है. जानवर के प्रति सोच या करुणा का भाव तो रहता ही नहीं. साल भर मे एक-आध मामला तो हो ही जाता है जब नीलगाय या भैंसे के कट जाने से गाड़ी पटरी से उतर जाये.

जमीन पर दबाव इतना है कि चरागाह बचे ही नहीं. लोग तालाबों तक को पाट कर खेती कर रहे हैं या मकान बना रहे हैं. जानवर रेल की पटरी के किनारों पर चरने को विवश हैं. चाहे जंगली हों या पालतू. जब ट्रेनों की गति और बढ़ेगी तो शायद पटरी को बाड़ लगा सुरक्षित किया जाये. तब जानवर भी सुरक्षित हो जायेंगे. अभी तो जानवर कट ही जाते है. इसके अलावा पटरी के किनारे कई अपंग जानवर भी दिख जाते हैं जो घायल हो कर बचे रहते हैं जीवन का अभिशाप झेलने को.

जहां आदमी जीने को जद्दोजहद करता हो, जानवर को कौन पूछे? पिल्ले की पांय-पांय की आवाज अभी भी मन में गूंज रही है. कोई और दुख या सुख जब तक उसका स्थान नहीं ले लेता, तब तक गूंजेगी.

Saturday, July 21, 2007

स्टैटकाउण्टर के ओधान कलेन को बिजनेस वीक का अवार्ड

मैने स्टैटकाउण्टर के ओधान कलेन को बिजनेस वीक के वर्ष के बिजनेस ऑंत्रेपिन्योर के लिये वोट देने को 10 जून को अपनी पोस्ट में कहा था.
आज सवेरे अपना मेल बॉक्स खोला तो पता चला को वह बिजनेस वीक का नॉमिनेशन जीत चुका है. बिजनेस वीक के
StatCounter Rakes In the Clicks में यह घोषणा है.
एलेक्सा (जो विजिट्स के आधार पर साइट्स की रैंकिंग करती है, ने स्टैटकाउण्टर को अमेरिका की 34 वीं सबसे ज्यादा विजिट की जाने वाली साइट बताया है. यह एडोब, डेल, वाल-मार्ट, सी-नेट, एक्स्पेडिया और आस्क.कॉम से ज्यादा ट्रेफिक वाली साइट है. स्टैटकाउण्टर बड़ी कम्पनियों को नहीं वरन छोटी कम्पनियों और हम जैसे फ्री में अपने काउण्ट की सुविधा चाहने वालों को सर्विस मुहैया कराती है.

Thursday, July 19, 2007

विश्व बैंक का गवर्नेंस आकलन – भारत बेहतर हुआ है.


विश्व बैंक क्रॉस-कण्ट्री गवर्नेंस मेज़रमेण्ट के 212 राष्ट्रों के सरकार के कामकाज पर 6 आयामों के आंकड़े जारी करता हैं. ये आंकड़े सन 1996 से 2006 तक के उपलब्ध है. इन आंकड़ों को विभिन्न प्रकार से - एक देश के लिये, विभिन्न देशों की तुलना करते हुये, विभिन्न क्षेत्रों के देशों की प्रत्येक आयाम पर तुलना करते हुये - देखा जा सकता है. सन 2006 का अपडेट अभी जुलाई 2007 में जारी हुआ है. अत: इन आंकड़ों पर अर्धारित अनेक लेख देखने को मिलेंगे. एक लेख तो बिजनेस स्टेण्डर्ड में मैने कल ही देखा.

आपके पास सर्फिंग के लिये कुछ समय हो तो विश्व बैंक की उक्त साइट पर जा कर 6 आयामों पर विभिन्न देशों के परसेण्टाइल स्कोर का अवलोकन करें. परसेण्टाइल स्कोर का अर्थ यह है कि उस आयाम पर उतने प्रतिशत देश उस देश से खराब/नीचे हैं. अत: ज्यादा परसेण्टाइल स्कोर यानी ज्यादा बेहतर स्थिति.

बिजनेस स्टेण्डर्ड के लेख में विभिन्न आयामों पर 1996 व 2006 के भारत और चीन के परसेण्टाइल स्कोर की तुलना है. दोनो देश विकास पथ पर अग्रसर हैं और दोनो बड़ी जनसंख्या के राष्ट्र हैं. यह तुलना निम्न सारणी से स्पष्ट होगी:

आयाम भारत चीन
वर्ष 1996 2006 1996 2006
बोलने की आजादी और जवाबदेही 52.2 58.2 4.8 4.8
राजनैतिक स्थिरता 14.9 22.1 34.6 33.2
कुशल शासन 50.7 54 66.8 55.5
नियंत्रण की गुणवत्ता 44.4 48.3 54.1 46.3
कानून का राज 61 57.1 48.1 45.2
भ्रष्टाचार पर नियंत्रण 40.3 52.9 56.3 37.9
साधारण योग 43.9 48.8 44.1 37.2


भारत में अभिव्यक्ति की आजादी, सरकार चुनने की आजादी और सरकार की जनता के प्रति जवाबदेही दुनियां के आधे से ज्यादा देशों से बेहतर है जबकि चीन में शासन आजादी और जवाबदेही को संज्ञान में नहीं लेता. इस आयाम में भारत की दशा पहले से बेहतर हुई है, जबकी चीन की जस की तस है.

राजनैतिक स्थिरता (अर्थात अवैधानिक और हिंसात्मक तरीकों से सरकार गिरने की आशंका का अभाव) के मामले में भारत का परसेप्शन अच्छा नहीं है. पर चीन भी बहुत बेहतर अवस्था में नहीं है. कुल मिला कर भारत में दशा सुधरी है पर चीन में लगभग पहले जैसी है. चीन की स्थिति भारत से बेहतर है.

सरकार की कुशलता (जन सेवाओं की गुणवत्ता/राजनैतिक दबाव का अभाव/सिविल सर्विसेज की गुणवत्ता आदि) में भारत की स्थिति में सुधार हुआ है. यह सुधार मुख्यत: सूचना तंत्र के क्षेत्र में प्रगति के चलते हुआ है. इस मद पर चूंकि चीन की स्थिति खराब हुई है, भारत उसके तुलनीय हो गया है.

सरकार का नियंत्रण (उपयुक्त नीतियों के बनाने और उनके कार्यांवयन जिनसे लोगों के निजी और समग्र प्राइवेट सेक्टर का व्यापक विकास हो) के आयाम में भारत का रिकार्ड अच्छा नहीं रहा है. पर भारत ने इस विषय में स्थिति सुधारी है और चीन की दशा में गिरावट है. कुल मिला कर दोनो देश बराबरी पर आ गये हैं.

पुलीस और कानून के राज के विषय मे भारत की दशा विश्व में अन्य देशों के सापेक्ष पहले से खराब हुई है. अपराध और आतंक के विषय मे हमारा रिकार्ड खराब हुआ है. ऐसा ही चीन के बारे में है. इस मद में भारत की साख चीन से बेहतर है.

भ्रष्टाचार पर नियंत्रण (इसमें छोटा भ्रष्टाचार और व्यापक स्तर पर बड़े निजी ग्रुपों द्वारा सरकार के काम में दखल - दोनो शामिल हैं) के विषय में भारत की दशा में अन्य देशों के मुकाबले व्यापक सकारात्मक परिवर्तन हुआ है. बहुत सम्भव है तकनीकी विकास का इसमें योगदान हो. चीन की दशा में इस आयाम में बहुत गिरावट है.

कुल मिला कर भारत की स्थिति बेहतर हुई लगती है विश्व बैंक के वर्डवाइड गवर्नेन्स इण्डिकेटर्स में.

चीन और कई अन्य देश विश्व बैंक के इस वर्डवाइड गवर्नेन्स इण्डिकेटर्स वार्षिक आकलन से प्रसन्न नहीं हैं और विश्व बैंक के 24 में से 9 कार्यकारी निदेशकों ने इन विवादास्पद इण्डिकेटर्स के खिलाफ अध्यक्ष को लिखा है. पर यह कार्य भविष्य में विश्व बैंक न भी कराये, करने वाले तो अपने स्तर पर कर ही सकते हैं.

यह लेखन उक्त विश्व बैंक के लिंक मे उपलब्ध आंकड़ों का मात्र एकांगी उपयोग है. अन्यथा अनेक देशों के बारे में अनेक प्रकार के निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं. उसके लिये उक्त साइट पर उपलब्ध सामग्री का व्यापक उपयोग करना होगा.