Thursday, April 30, 2009

प्रच्छन्न दार्शनिक


अचानक सड़क के किनारे सामान बेचने वाले से बहुत स्तर ऊपर उठकर मुझे वह संत-दार्शनिक लगने लगे। एक प्रच्छन्न दार्शनिक (दार्शनिक इन डिस्गाइज!)।
आज भी वह वहीं था – नारायण आश्रम के पेवमेण्ट पर बेल के फल लिये। उनके आकार के अनुसार दो ढेरियों में बांट रखा था फलों को। दो पोस्टों में जिक्र कर चुका हूं मकोय वाले बूढ़े का। लिहाजा उनमें कोई नया ब्लॉग मटीरियल नजर नहीं आ रहा था। इतना जरूर लगता था कि यह वृद्ध आस पास से मकोय, आम की कैरी या बेल फल तोड़ कर बेचने बैठ रहा है। यूंही टोह लेने के लिये पूछ लिया – कितना कमा लेते हो?

Philosopherरामसिंह जी।
बूढ़ा ऊपर हाथ उठा कर बोला – जो चाहें वो। वो यानी ईश्वर। फिर बोला – जइसे राखत हयें, वइसे रहत हई (जैसे रख रहे हैं वैसे रह रहा हूं)।

कुछ सोच कर बोला – अब हम चाही कि हमका इन्द्रासन मिलि जाइ त चाहे से थोरउ मिलि जाये। (मेरी चाहने से मुझे इन्द्रासन थोड़े ही मिल जायेगा।)

पर उस बूढ़े बाबा को मेरे रूप में एक श्रोता मिल गया था। उसके बाद देशज सन्तों की बानी (बाबा कबीर भी उनमें थे) इतने फर्राटे से उन बूढ़े ने धाराप्रवाह बोली कि मैं दंग रह गया। अचानक सड़क के किनारे सामान बेचने वाले से बहुत स्तर ऊपर उठकर मुझे वह संत-दार्शनिक लगने लगे। एक प्रच्छन्न दार्शनिक (दार्शनिक इन डिस्गाइज!)। मेरी सारी एकेडमिक्स और अफसरी लिद्द हो गयी उनके समक्ष।

Ram Singh Hutरामसिंह जी की झोंपड़ी जंगल में।
बन्धुवर, कबीर या सुकरात के साथ भी मुलाकात कुछ इसी तरह की होती रही होगी। ये लोग भी सामने वाले के गर्व की हवा फूंक वैसे ही निकालते रहे होंगे और वैसे ही आश्चर्य लगते होंगे।

पहले दोनो बार मैने उन वृद्ध की फोटो बिना उनसे पूछे खींची थी। पर इस बार बाकायदा अनुमति मांगी – एक फोटो ले लूं।

चलते चलते परिचय पूछा। नाम है राम सिंह। आश्रम की वन की पट्टी में वे रहते हैं। उन्हींकी झोंपड़ी के पास दो साल पहले मुझे नीलगाय के दर्शन हुये थे। आप फोटो में राम सिंह जी को और उनकी झोंपड़ी को देखें।

(हमारे प्रच्छन्न दार्शनिक राम सिंह जी बीमार लगते हैं और बुझे से भी। भगवान उन्हें स्वास्थ्य और दीर्घायु दें। … वैसे हम कौन से टिचन्न/टनटनाट हैं; गोड़-मूड़ सब पिरा रहा है!)     


एक पुरानी (१८ फरवरी २००८ की) पोस्ट का पुच्छल्ला:

मैने कहा न कि मेरी पोस्ट से ज्यादा बढ़िया टिप्पणियां होती हैं। कल पुराणिक जी लेट-लाट हो गये। उनकी टिप्पणी शायद आपने न देखी हो। सो यहां प्रस्तुत है -

रोज का लेखक दरअसल सेंसेक्स की तरह होता है। कभी धड़ाम हो सकता है , कभी बूम कर सकता है। वैसे, आलोक पुराणिक की टिप्पणियां भी ओरिजनल नहीं होतीं, वो सुकीर्तिजी से डिस्कस करके बनती है। सुकीर्तिजी कौन हैं, यह अनूप शुक्ल  जानते हैं।
लेख छात्रों के चुराये हुए होते हैं, सो कई बार घटिया हो जाते हैं। हालांकि इससे भी ज्यादा घटिया मैं लिख सकता हूं। कुछेक अंक पहले की कादम्बिनी पत्रिका में छपा एक चुटकुला सुनिये -
संपादक ने आलोक पुराणिक से कहा डीयर तुम मराठी में क्यों नहीं लिखते।
आलोक पुराणिक ने पूछा - अच्छा, अरे आपको मेरे लिखे व्यंग्य इत्ते अच्छे लगते हैं कि आप उन्हे मराठी में भी पढ़ना चाहते हैं।
नहीं - संपादक ने कहा - मैं तुम्हारा मराठी में लेखन इसलिए चाहता हूं कि सारी ऐसी तैसी सिर्फ और सिर्फ हिंदी की ही क्यों हो।


Tuesday, April 28, 2009

बकरी के बच्चे


बड़े प्यारे बकरी के बच्चे (मेमने) दिखे। यूं तो बकरी क्या, सूअर के बच्चे भी प्यारे लगते हैं। पर बकरी में एक निरीहता होती है जो हमें मन और आत्मा से ट्यून करती है।

Lambs बचपन में कहानी सुनते थे – बकरी और उसके तीन बच्चों की। बकरी बच्चों को अपने घर में टटरी (खपच्ची का दरवाजा) लगा बन्द कर चरने जाती थी। तीनों बच्चे चुलबुले थे। नाम था आल-बाल, च्यो-म्यों, गिलोट-मिलोट। शैतानी के चलते उन्होंने लोमड़ी के फुसलाने पर टटरी खोल दी थी। और फिर जाने कैसे जान बची।

भारतीय बाल कहानियां और भारतीय बाल कवितायें यहां का वैल्यू सिस्टम देते हैं बच्चों को। वे मछली का शिकार नहीं सिखाते। बल्कि बताते हैं – मछली जल की रानी है!


Sudesh Kumarश्री सुदेश कुमार: नर्सरी कवितायें और कथायें सामाजिक-आर्थिक असलियत, और प्रबंधन के अनेक सबक सिखाती हैं।

कुछ दिन पहले हमारे महाप्रबन्धक श्री सुदेश कुमार बता रहे थे कि अंग्रेजी नर्सरी राइम “बाबा ब्लैक शीप” असल में सम्पदा के वितरण की असलियत बताती है।

Baa, baa black sheep
Have you any wool?
Yes sir, yes sir.
Three bags full.
One for the master
and one for the dame.
And one for the little boy
who lives down the lane.

इसमें एक हिस्सा मालिक के लिये, एक हिस्सा अपने बीवी (अर्थात खुद) के लिये तय किया गया है। एक तिहाई ही गली में रहने वाले (आम जन) के लिये है। सार्वजनिक सम्पदा का यही वितरण-विधान है!

हमारे भारत में इस छाप की बाल कविता है? शायद नहीं।

खैर, आप बकरी के बच्चों की तस्वीर देखें। और अंग्रेजी बाल साहित्य को आउटराइट कण्डम न करें – एलिस इन वण्डरलैंण्ड नामक पुस्तक प्रबन्धन के कितने महत्वपूर्ण सबक सिखाती है! 


भोलू पांड़े गिरे धड़ाम:

भोलू रेलवे का शुभंकर (मैस्कॉट – mascot) है। उत्तर-मध्य रेलवे के रेल सप्ताह फंक्शन में एक फूले रबर के खिलौने के रूप में वह बड़ा सा लगा था। अपने दम पर  खड़ा। उस दिन गर्म लू के थपेड़े तेज चल रहे थे। भोलू पांडे धड़ाम हो गये हवा की चपेट में। चारों खाने चित! पर तत्काल एक तत्पर रेल कर्मी ने उसे उठाकर खड़ा कर दिया।

घटना से सीख – शुभंकर जो है सो है, रेलगाड़ी तो मुस्तैद रेल कर्मी ही चलाते हैं। रेलवे की मजबूती रेलकर्मियों से है। 

अपडेट: भोलू, एक हाथी को रेलवे का शुभंकर बनाया गया था रेलवे की १५०वीं वर्षगांठ के अवसर पर। यह रेलवे की तरह विशालकाय है, पर हिंसक नहीं वरन मित्रवत है। हाथी रेलवे की तरह लोगों को और सामान को ढोता है। इससे बेहतर शुभंकर क्या होता!

Sunday, April 26, 2009

वोटानुभव


मेरा वोटर कार्ड घर में आलमारी में बन्द था और चाभी पत्नीजी ले कर बोकारो गई थीं। लिहाजा मैने (अपने आलस्य को तार्किक रूप देते हुये) तय किया कि वोट डालने नहीं जाना है। यह तेईस अप्रेल की बात है। 

moody gdp
मेरे ऑब्जर्वेशन:

१. पार्टियों के एजेण्ट अगर पर्चियां न बना कर दें तो चुनाव बन्दोबस्त लोगों का नाम ढूंढ कर बूथ पर भेजने के लिये अपर्याप्त है। मेरे जैसे आठ-दस कस्टमर भी पूरी प्रक्रिया में देरी करा सकते हैं।

२. बूथ-लोकेटर का फंक्शन कम्प्यूटराइज होना चाहिये।

३. एक अल्फाबेटिकल लिस्ट, जो लोकेटर के पास उपलब्ध है, वह बूथ पर भी होनी चाहिये।

४. सम्भव हो तो यह सब नेट पर उपलब्ध होना चाहिये। लोग खुद ही अपना बूथ ऑनलाइन तलाश सकें और पार्टी एजेण्टों का रोल समाप्त हो सके।

पर शाम को सवा चार बजे अचानक मन बना वोट डालने का। मैं दफ्तर का आइडेण्टिटी कार्ड जेब में डाल कर मतदान केन्द्र पर पंहुचा और बूथ-लोकेटर से पूछा कि हमें किस बूथ पर जाना है? वोटर कार्ड न होने की दशा में लोकेटर महोदय को हमारा नाम लिस्ट में तलाशना था। उन्होंने मुझसे कहा कि बाहर बहुत से पार्टी वाले हैं, उनसे पर्ची बनवा लाइये। मैने अपनी बात रखी कि मैं किसी दल वाले के पास क्यों जाऊं? मेरे पास आइडेण्टिटी कार्ड है और इण्डिपेण्डेण्ट विचार रखता हूँ। अत: आप ही लोकेट करें।

लोकेटर महोदय ने ११ बूथ की लिस्टों में मेरा नाम छांटने का असफल काम किया। फिर उनसे लिस्टें ले कर मैने अपना नाम छांटा। तब तक पांच बजने में कुछ ही मिनट रह गये थे। लोकेटर जी ने मुझे झट से बूथ पर जाने को कहा। बूथ में घुसने वाला मैं अन्तिम आदमी था। उसके बाद पांच बजे के अनुसार दरवाजा बन्द कर दिया गया था।

असली ड्रामा बूथ में हुआ। कर्मचारी ने मुझसे पर्ची मांगी। मैने कहा - “लोकेटर जी ने मेरा कोई नम्बर लिख कर तो दिया नहीं। यह जरूर है कि इसी बूथ पर है मेरा नाम। अब आप मुझे वोट डालने दें।”

“हम कहां छांटेंगे आपका नाम। आप वापस जा कर पता कर आयें।”

“वापस तो नहीं जाऊंगा। तब आप कहेंगे कि पांच बजे के बाद आया हूं और वोट देने नहीं देंगे। आप तो अपने पास की लिस्ट में देखें और मुझे वोट देने दें।”

उन कर्मियों ने मुझ नौकरशाह पर सरकारी टरकाऊलॉजी चलाने की पूरी कोशिश की। पर मैने तो कहा कि समय सीमा में वोट डालने आया हूं। खुद ही पता किया है अपना बूथ। लिहाजा वोट डाल कर ही जाऊंगा। बूथ पर एल्फाबेटिकल लिस्ट नहीं थी। ढेरों पन्नों में मेरे नाम की खुजाई शुरू हुई। बाकी कर्मी सामान सील कर जाने की जल्दी में थे। एक ने सुझाव दिया कि किसी वोट न डालने वाले के नाम से इनको वोट देने दो। मैने मना कर दिया – वोट तो अपना ही देना है – फर्जी नहीं। इस बीच एक कॉस्टेबल हडकाने आया मुझे। उसे मैने कहा कि तुम अलग रहो, यह कायदे की बात है और तुम्हारे टांग अड़ाने का काम नहीं है।

खैर, जब मैं नाम ढूंढने के बाद (यहां भी नाम अन्तत: मैने तलाशा) वोट डाल कर निकला तो पांच बज कर इकत्तीस मिनट हो रहे थे। हड़बड़ी में मेरी उंगली पर स्याही का निशान लगाना भी भूल गये थे बूथ कर्मी। पर यह संतोषप्रद था कि उन्होंने मेरा वोटर-अधिकार ट्रेम्पल (trample – पददलित) नहीं किया।   


Friday, April 24, 2009

गर्मियों की तैयारी पर पंकज अवधिया


Pankaj A
श्री पंकज अवधिया ने पिछली साल पोस्ट लिखी थी - छत पर चूने की परत लगाने के विषय में। अपने उस प्रयोग पर आगे का अपडेट दे रहे हैं इस पोस्ट में। आप पायेंगे कि अनेक वनस्पतियां गर्मियों से राहत देने में प्रयोग की जा सकती हैं। आप पंकज जी के लेख पंकज अवधिया लेबल पर सर्च कर भी देख सकते हैं।
पिछली गर्मियो मे आपने छत मे चूने के प्रयोग के विषय मे पढा था। अब समय आ गया है कि इस विषय मे प्रगति के विषय मे मै आपको बताऊँ।

पिछले वर्ष गर्मियों में यह प्रयोग सफल रहा। पर बरसात मे पूरा चूना पानी के साथ घुलकर बह गया। शायद गोन्द की मात्रा कम हो गयी थी। इस बार फिर से चूना लगाने की तैयारियाँ जब शुरु हुयी तो एक कम्प्यूटर विशेषज्ञ मित्र ने डरा दिया। आप जानते ही है कि मधुमेह की वैज्ञानिक रपट पर काम चल रहा है। 500 जीबी की आठ बाहरी हार्ड डिस्क कमरे मे रहती है जिनमे से दो कम्प्यूटर से जुडी रहती है। कमरे मे सैकडों डीवीडी भी हैं। एक हजार जीबी के आँकडो से भरे सामान को चूने के हवाले छोडने पर विशेषज्ञ मित्र ने नाराजगी दिखायी। कहा कि रायपुर की गर्मी मे हार्ड डिस्क और डीवीडी दोनो को खतरा है। मन मारकर एक एसी लेना पडा।

mahanadi मेरे कमरे मे एसी होने से काफी ठंडक हो जाती है पर एक मंजिला घर होने के कारण बाकी कमरे बहुत तपते हैं। रात तक धमक रहती है। इस बार नये-पुराने दोनो प्रयोग किये हैं। एक कमरे के ऊपर चूना लगाया है। दूसरे के ऊपर अरहर की फसल के अवशेष जिन्हे काडी कह देते हैं, को बिछाया है। तीसरे के ऊपर चितावर नामक स्थानीय जलीय वनस्पति को बिछाया है। चौथे कमरे मे वन तुलसा को बिछाया है।

वन तुलसा और चितावर दोनो के अच्छे परिणाम मिल रहे हैं। चितावर का प्रयोग छत्तीसगढ मे आमतौर पर होता है। यह घर को ठंडा रखता है। जहाँ कही भी पानी भरा होता है चितावर अपने आप उग जाता है। लोग मुफ्त की इस वनस्पति को ले आते हैं और साल भर प्रयोग करते हैं। इस वनस्पति के औषधीय उपयोग तो हैं ही साथ ही औद्योगिक इकाईयो से निकलने वाले प्रदूषित जल के उपचार में भी इसका प्रयोग होता है।

वन तुलसा नामक वनस्पति बेकार जमीन मे उगती है खरपतवार के रुप में। छत्तीसगढ के किसानो ने देखा कि जहाँ यह वनस्पति उगती है वहाँ गाजर घास नही उगती है। यदि उग भी जाये तो पौधा जल्दी मर जाता है। माँ प्रकृति के इस प्रयोग से अभिभूत होकर वे अपने खेतों के आस-पास इस वनस्पति की सहायता से गाजर घास के फैलाव पर अंकुश लगाये हुये हैं। अरहर की जगह छत को ठण्डा रखने के लिये इसके प्रयोग का सुझाव किसानो ने ही दिया। उनका सुझाव था कि छत मे इसकी मोटी परत बिछाकर ऊपर से काली मिट्टी की एक परत लगा देने से घर ठंडा रहेगा। एक पशु पालक ने एस्बेस्टस की छत के नीचे रखी गयी गायों को गर्मी से बचाने के लिये कूलर की जगह इसी वनस्पति का प्रयोग किया है। आप चितावर और वन तुलसा के चित्र इन कडियो पर देख सकते है।

चितावर

वन तुलसा

मेरे गाँव के निवासी चितावर का प्रयोग करते रहे हैं। इस बार गाँव मे बन्दरों का अधिक उत्पात होने के कारण अब खपरैल वाले घरों मे टिन की छत लग रही है। टिन के नीचे दिन काटना कठिन है। वे टिन की छत पर चितावर की मोटी परत बिछा रहे है पर बन्दरो का उत्पात किये कराये पर पानी फेर रहा है। गाँव के एक बुजुर्ग ने सलाह दी है कि सीताफल की कुछ शाखाए यदि चितावर के साथ मिला दी जायें तो बन्दर दूर रहेंगे। आपने शायद यह देखा होगा कि बन्दर सभी प्रकार की वनस्पतियो को नुकसान पहुँचाते हैं पर सीताफल से दूर रहते हैं। इस प्रयोग की प्रगति पर मै आगे लिखूंगा।

शायद यह मन का वहम हो पर इन दिनों जंगल मे धूप मे ज्यादा खडे रहना कम बर्दाश्त होता है। मुझे यह एसी का दुष्प्रभाव लगता है। इसमे माननीय बी.एस.पाबला साहब के सुपुत्र बडी मदद करने वाले हैं। उनकी सहायता से एक हजार जीबी के आँकडो को एक डेटाबेस के रुप मे आन-लाइन करने की योजना पर चर्चा हो रही है। जैसे ही यह आन-लाइन होगा सबसे पहले मै एसी से मुक्त होना चाहूँगा।

पंकज अवधिया

(इस लेख पर सर्वाधिकार श्री पंकज अवधिया का है।)


हमने इस साल, पंकज अवधिया जी के पिछली साल के लेख के अनुसार, अपने एक मंजिले मकान की छत पर चूने और फेवीकोल की परत लगाई है। उससे लगता है कि गर्मी कुछ कम है कमरों में।

पंकज जी की उक्त लेख में बताई वनस्पतियों की स्थानीय रूप से उपलब्धता में दिक्कत हो सकती है, पर अगर प्रयोग करने हों तो हर स्थान पर अनेक प्रकार की वनस्पति नजर आती है। यहां कुछ लोगों ने घर की छतों पर लौकी-नेनुआ की बेलें बिछा रखी हैं। वह भी तापक्रम कम करती होगी।   

Tuesday, April 21, 2009

नया रिक्शा और माइक्रोफिनांस


कुछ अर्से से इलाहाबाद में नये डिजाइन के रिक्शे नजर आ रहे हैं। कल रहा न गया। दफ्तर से लौटते समय वाहन रोक कर उसका चित्र लिया। रिक्शे वाले से पूछा कि कैसा है यह रिक्शा? वह बोला - “अच्छा है। साढ़े छ सौ रुपया महीना देना है अठारह महीने के लिये। उसके बाद ॠण समाप्त हो जायेगा। चलाने में अच्छा है – हवा की दिशा के विपरीत चलाने पर थोड़ा जोर ज्यादा लगता है” (अत: मेरे विचार में हवा की दिशा में चलने पर उतना जोर कम लगाना होता होगा)। वैसे मुझे इस रिक्शे की डिजाइन बेहतर एयरोडायनमिक, हल्की और ज्यादा जगह वाली लगी। पुरानी चाल के रिक्शे की बजाय मैं इस पर बैठना पसन्द करूंगा।

New Rickshaw

नये प्रकार का रिक्शा

Rickshaw Venture

रिक्शे के पीछे दी गई सूचनायें

रिक्शे के डिजाइन और उसके माइक्रोफिनांस की स्कीम से मैं बहुत प्रभावित हुआ। रिक्शे के पीछे इस स्कीम के इलाहाबाद के क्रियान्वयनकर्ता – आर्थिक अनुसंधान केन्द्र का एक फोन नम्बर था। मैने घर आते आते उसपर मोबाइल से फोन भी लगाया। एक सज्जन श्री अखिलेन्द्र जी ने मुझे जानकारी दी कि इलाहाबाद में अब तक २७७ इस तरह के रिक्शे फिनान्स हो चुके हैं। अगले महीने वे लोग नये डिजाइन की मालवाहक ट्रॉली का भी माइक्रोफिनांस प्रारम्भ करने जा रहे हैं। रिक्शे के रु. ६५०x१८माह के लोन के बाद रिक्शावाला मुक्त हो जायेगा ऋण से। उसका दो साल का दुर्घटना बीमा भी इस स्कीम में मुफ्त निहित है।

Rickshaw और यह पुरानी चाल का रिक्शा है। सवा दो लोगों की कैपेसिटी वाला। खटाल पर इसका प्रतिदिन का किराया है पच्चीस रुपया। रिक्शाचालक कभी रिक्शा मालिक बनने की सोच नहीं सकता।

अखिलेन्द्र जी ने बताया कि यह रिक्शा, रिक्शा बैंक स्कीम के तहद सेण्टर फॉर रूरल डेवलेपमेण्ट (CRD), नॉयडा/गुवाहाटी के माध्यम से आई.आई.टी. गुवाहाटी का डिजाइन किया है। आर्थिक सहयोग अमेरिकन इण्डियन फाउण्डेशन का है। लोन पंजाब नेशनल बैंक दे रहा है।

क्या साहब! हम तो अपनी मालगाड़ी के नये प्रकार के वैगन, उनकी स्पीड, उनकी लोडेबिलिटी और ट्रैक की क्षमता में ही माथा-पच्ची करते रहते हैं, और ये लोग अस्सी लाख रिक्शावालों की जिन्दगी बदलने के काम में लगे हैं। इन्हें सामान्यत: हम नोटिस भी नहीं करते।

इस माइक्रोफिनांस गतिविधि के बारे में मन में अहो भाव आ रहा है। बाकी, हम तो ब्लॉगर भर हैं, जनमानस को बताने का काम तो स्क्राइब्स को करना चाहिये। वे कर ही रहे होंगे!

(आपको इस रिक्शे का बेहतर व्यू यहां मिल सकता है। और रिक्शा बैंक पर छोटा वीडियो यहां देखें।)


अपडेट: मकोय वाला बूढ़ा आज बेल के फल और कच्ची आम की कैरी ले कर बैठा था। साथ में लाठी थी और कुछ ऊंघ सा रहा था। pavement seller   

Sunday, April 19, 2009

कुछ पुरानी पोस्टें


यह कुछ पुरानी पोस्टें हैं। “मानसिक हलचल” में लेखन विविध प्रकार के हैं। ये तीनों पोस्ट विविध दिशाओं में बहती ठहरी हैं। आप देखने का कष्ट करें।

 
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इन्दारा कब उपेक्षित हो गया?

बचपन में गांव का इँदारा (कुआँ) जीवन का केन्द्र होता था. खुरखुन्दे (असली नाम मातादीन) कँहार जब पानी निकालता था तब गडारी पर नीचे-ऊपर आती-जाती रस्सी (लजुरी) संगीत पैदा करती थी. धारी दार नेकर भर पहने उसका गबरू शरीर अब भी मुझे याद है. पता नहीं उसने इँदारे से पानी निकालना कब बंद किया. इँदारा अब इस्तेमाल नही होता.

आगे पढ़ें।

किस्सा पांडे सीताराम सूबेदार और मधुकर उपाध्याय

सीताराम पांडे वास्तव में थे और उन्होंने यह पुस्तक अवधी में लिखी थी, यह मधुकर जी की पुस्तक की प्रस्तावना से स्पष्ट हो जाता है। सन १९१५ में सर गिरिजाशंकर वाजपेयी ने अपने सिविल सेवा के इन्टरव्यू में यह कहा था कि सीताराम पांडे ने यह किताब उनके दादा को दी थी और उन्होने यह किताब पढी है। पर उसके बाद यह पाण्डुलिपि गायब हो गयी और मधुकर जी काफी यत्न कर के भी उसे ढूढ़ नहीं पाये। तब उन्होने इस पुस्तक को अवधी मे पुन: रचने का कार्य किया।

पूरी पोस्ट पढ़ें।

क्रोध पर नियंत्रण कैसे करें?

क्रोध पर नियंत्रण व्यक्ति के विकास का महत्वपूर्ण चरण होना चाहिये. यह कहना सरल है; करना दुरुह. मैं क्रोध की समस्या से सतत जूझता रहता हूं. अभी कुछ दिन पहले क्रोध की एक विस्फोटक स्थिति ने मुझे दो दिन तक किंकर्तव्यविमूढ़ कर दिया था. तब मुझको स्वामी बुधानन्द के वेदांत केसरी में छ्पे लेख स्मरण हो आये जो कभी मैने पढ़े थे. जो लेखन ज्यादा अपील करता है, उसे मैं पावरप्वाइण्ट पर समेटने का यत्न करता हूं।

पूरी पोस्ट पढ़ें।


कण्ट्रोल पैनल में टैग-क्लाउड दिखाने सम्बन्धी टेम्प्लेट परिवर्तन के बारे में तरुण जी की पोस्ट थी। मैं उसके अनुसार तो नहीं कर पाया – तेक्नोराती टैग साइडबार में सही तौर पर अंट नहीं रहे थे और टेम्प्लेट परिवर्तन भी ठीक से काम नहीं कर रहा था। अंतत: मैने इस पोस्ट का प्रयोग कर यह बनाया (साइडबार में उपयोग देखें): Labelsतरुण जी के ब्लॉग से यह विचार अच्छा मिला कि लेबल की लिस्ट लगाने की बजाय क्लाउड लगाना बेहतर लगता है और जगह भी कम लेता है!


Friday, April 17, 2009

मकोय


Raspberry पेवमेण्ट पर दुकान लगाये मकोय बेचता बूढ़ा

वह लगभग बूढ़ा आदमी सड़क के किनारे बैठा था। उसके पास एक झौआ (अरहर की डण्डी/रंहठा से बना पात्र), एक झोला, तराजू और सामने रखा सामान था। मैने पूछा – “यह क्या है?”

उसे अन्दाज नहीं था कि मैं इतना मूर्ख हो सकता हूं कि वे वस्तुयें न जानूं। दो बार पूछने पर बोला - “मकोय, मकोय रसभरी”।

क्या भाव?

पांच रुपये पाव।

कहां से लाते हो?

मण्डी से।

Raspberry1मकोय

और यह बेल भी मण्डी से लाते हो या यहीं का है? उसने उत्तर नहीं दिया। आसपास के पेड़ों पर  बहुत बेल हैं, वे यहीं के होंगे। मैने उसे आधा किलो मकोय देने को कहा। उसने प्लास्टिक की पन्नी में रख कर तोला – बाट से नहीं, पत्थर के टुकड़े से।

मेरी पत्नी जी सवेरे की सैर में साथ नहीं थी। बूढ़े के पास पूरी मकोय १५०-२०० रुपये से ज्यादा की न रही होगी। पत्नी जी के न होने पर पूरी की पूरी खरीदने की खुराफात कर सकता था, पर जेब में उतने पैसे नहीं थे! सवेरे की सैर में ज्यादा पैसे ले कर जाने का सोचा न था!

बूढ़ा आदमी। मैं मान कर चल रहा हूं कि आस-पास से वह लाया होगा मकोय और बेचने पर सारा पैसा उसकी आय होगी। व्यय में उसका केवल समय होगा। पर समय का क्या आकलन? मैने पूछा – कबसे बैठे हो। उसने बताया - “काफी समय से। छ बजे से।”

पर छ तो अभी बज रहे हैं?

“तब और जल्दी, पांच बजे से।”

उसके पास न घड़ी है न समय का अन्दाज। जिन्दगी बिना समय की गणना के काटने की चीज हो जाये तो कैसा रहे?


पी.आई.डी. मुझे अहसास हो रहा है कि मेरा कैमरा मेरे ब्लॉग के लिये पोस्ट इण्ड्यूसिंग डिवाइस (PID) है। न मैं उस बूढ़े, पेवमेण्ट पर दुकान लगाने वाले की फोटो लेता और न यह पोस्ट बन पाती। बिना फोटो के मुझे कितने पैराग्राफ लिखने पड़ते उसका वर्णन करते। मेरे पास वह क्षमता है? नहीं – नो चांस। लिटेररी आदमी को कैमरा नहीं चाहिये। पर ब्लॉगर के लिये तो कैमरा मस्ट है।

शिवकुमार मिश्र सहमत नहीं होंगे। और अनूप शुक्ल  तो ह्यूमन पोस्ट इंड्यूसर हैं। लोगों को टंकी से उतारने और ब्लॉग वैराज्ञ से विमुख करने में अच्छा रोल अदा करते हैं। उनको भी कैमरा नहीं चाहिये। वैसे आजकल मैं दुनिया मेरी नजर से (अमित जी का ब्लॉग) का फैन हो रहा हूं। खांटी ब्लॉगिंग के दर्शन होते हैं वहां। और उनकी ब्लॉग टेम्प्लेट तो चुराने का मन करता है!


Wednesday, April 15, 2009

सवेरे की हाइपर एक्टिविटी


जिनका सोचना है कि नौकरशाही केवल ऐश करने, हुक्म देने और मलाई चाभने के लिये है; उन्हें हमारे जैसे का एक सामान्य दिन देखना चाहिये।
सवेरे की व्यस्तता बहुत थकाऊ चीज है। वे लोग जो सवेरे तैयार हो कर भागमभाग कर जल्दी काम पर पंहुचते होंगे और फिर काम उन्हें एंगल्फ (engulf – निगल, समाहित) कर लेता होगा; वे मेरी व्यस्तता का अनुमान लगा सकते हैं। मेरे लिये काम पर पंहुचने की भागमभाग इतनी नहीं है, जितनी काम के मुझे ऐज-इज-ह्वेयर-इज बेसिस पर एंगल्फ कर लेने की है। जिनका सोचना है कि नौकरशाही केवल ऐश करने, हुक्म देने और मलाई चाभने के लिये है; उन्हें हमारे जैसे का एक सामान्य दिन देखना चाहिये।

Labourers पर हम ही केवल हाइपर एक्टिविटी (अत्यधिक क्रियाशीलता) के शिकार नहीं हैं। सवेरे की सैर पर मैं एक खण्डहर में रह रहे दिहाड़ी मजदूरों की हाइपर एक्टिविटी देखता हूं। सड़क के किनारे बन रही दुकानों को कभी डिमॉलिश (demolish – ढहाना) कर दिया गया होगा। उन्हीं के खण्डहरों में ये पन्द्रह बीस मजदूर रहते हैं। सवेरे काम पर निकलने के पहले ये नित्यकर्म से निपट रहे होते हैं। दो-तीन सामुहिक चूल्हों पर कुछ मजदूर अपनी रोटियां बना रहे होते हैं। सड़क के उस पार एक सामुहिक नल पर कुछ कुल्ला-मुखारी-स्नान करते देखे जाते हैं। एक दूसरे की दाढ़ी बनाते भी पाया है मैने उन्हें।

Labourers1इन चित्रों में बाहर जितने लोग दीख रहे हैं, उससे ज्यादा इन खण्डहरों के अन्दर हाइपर एक्टिविटी रत रहते हैं।

उनके तसले, फावड़े और अन्य औजार बाहर निकाले दीखते हैं। कहीं कोई सब्जी काटता और कोई आटा गूंथता दीखता है। साधन अत्यन्त सीमित नजर आते हैं उनके पास। पता नहीं उनकी वर्क-साइट कितनी दूर होगी। पैदल ही जाते होंगे – कोई साइकल आदि नहीं देखी उनके पास। अपना सामान वहीं खण्डहर में सीमेण्ट की बोरियों में लपेट-लपाट कर काम पर जाते होंगे।

उन्हें सवेरे पास से गुजरते हुये कुछ क्षणों के लिये देखता हूं मैं। उसके आधार पर मन में बहुत कुछ चलता है। कभी कभी लगता है (और मन भी ललचाता है उनकी मोटी रोटियां सिंकते देख) कि उनके साथ कुछ समय बिताऊं; पर तब मेरा काम कौन करेगा? कौन हांकेगा मालगाड़ियां?

अभी कहां आराम बदा, यह मूक निमंत्रण छलना है।
अभी तो मीलों मुझको, मीलों मुझको चलना है।   


Monday, April 13, 2009

टाटा आइस्क्रीम



Tata Icecream

Tata Icecream2

करीब दो-ढ़ाई दशक पहले अहमदाबाद में रेलवे में किसी की एक शिकायत थी। उसके विषय में तहकीकात करने के लिये मैं अहमदाबाद की आइसक्रीम फेक्टरियों की कार्यप्रणाली का अध्ययन करने के लिये गया था। दो कम्पनियां देखी थीं मैने। एक कोई घरेलू उद्योग छाप कम्पनी थी। उसका नाम अब मुझे याद नहीं। दूसरी वाडीलाल थी। मैं उस समय एक कनिष्ठ अधिकारी था, अत: मुझे बहुत विशेष तरीके से वे फेक्टरियां नहीं दिखाई गई थीं। पर उस छोटी कम्पनी में हाइजीन और साफ-सफाई का अभाव और वाडीलाल का क्वालिटी-कण्ट्रोल और स्वच्छ वातावरण अब भी मुझे याद है।

भोज्य पदार्थों के निर्माण और प्रॉसेसिंग में तब से मैं इन छोटी कम्पनियों के प्रति शंकालु हूं।

Tata Icecream1 कल मुझे टाटा आइस्क्रीम का ठेला दिखा। यह बड़ा विनोदपूर्ण दृष्य था कि टाटा नैनो कार के साथ साथ आइस्क्रीम निर्माण में भी बिना हाई-एण्ड (high-end) विज्ञापनबाजी के उतर गये हैं, और मेरे जैसे अन्तर्मुखी को हवा तक न लगी। पर ठेले के प्रकार को देख कर मैं टाटा-आइस्क्रीम के शेयर तो खरीदने से रहा!

नकलची वस्तुओं का मार्केट भारत में बहुत है। एक बार तो मैं भी “हमाम” साबुन की बजाय “हमनाम” साबुन की बट्टी खरीद कर ला चुका हूं। पता चलने पर उससे नहाने की बजाय कपड़े धोने में प्रयोग किया।

इस प्रकार की आइसक्रीम इस मौसम में वाइरल/बैक्टीरियल इन्फेक्शन को निमन्त्रण देने का निश्चित माध्यम है। फूड सुपरवाइजर और नगरपालिकायें इस निमन्त्रण पत्र के आर.एस.वी.पी. वाले हैं। ढेरों अनियंत्रित शीतल पेय और कुल्फी/आइसक्रीम वाले उग आये हैं हल्की सी गर्मी बढ़ते ही। मीडिया डाक्टर साहब (डा. प्रवीण चोपड़ा) वैसे ही चेता चुके हैं हैजे के प्रति।

मैं सोचता हूं कि टाटा को आइस्क्रीम बिजनेस में उतरना चाहिये। टाइटन की तर्ज पर वे टाइस (TICE) कम्पनी बना सकते हैं। नैनो की तर्ज पर वे साल भर की एडवांस बुकिंग का पैसा ले सस्ती और बढ़िया आइस्क्रीम देने का बिजनेस चला सकते हैं।


Saturday, April 11, 2009

स्वात : आतिश-ए-दोज़ख


गर आतिश-ए-दोज़ख बर रू-ए-जमीं अस्त।

हमीं अस्तो हमीं अस्तो हमीं अस्त!

 Swat
स्वात घाटी का नक्शा और चित्र, गूगल अर्थ से।


SwatFloggingफोटो लॉस एंजेलेस टाइम्स से।

यह पूरी पोस्ट चुरातत्वीय है। मेरा योगदान केवल भावना अभिव्यक्ति का है। आतिश-ए-दोज़ख से (मैं समझता हूं) अर्थ होता है नर्क की आग। बाकी मीन-मेख-मतलब आप निकालें।   


Thursday, April 9, 2009

यशस्वी भव! नकुल!


श्री सिसिल रोड्स की प्रतिमा, विकीपेडिया से। Rhodes'_portrait_bust

सम्भव है आपने सिसिल जॉन रोड्स (१८५३-१९०२) के बारे में पढ़ रखा हो। वे किम्बर्ले, दक्षिण अफ्रीका के हीरा व्यापारी थे और रोडेशिया (जिम्बाब्वे) नामक देश उन्ही का स्थापित है। शादी न करने वाले श्री रोड्स के नाम पर ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में कॉमनवेल्थ देशों और अमेरिका के विद्यार्थियों के लिये छात्रवृत्ति है और उस छात्रवृत्ति को पाने वाले को रोड्स स्कॉलर कहा जाता है। हमारे श्री गोपालकृष्ण विश्वनाथ के सुपुत्र नकुल रोड्स स्कॉलर हैं।

श्री विश्वनाथ इस पोस्ट के माध्यम से नकुल की आगे की पढ़ाई के बारे में बता रहे हैं।


पिछले साल, अनिता कुमारजी के ब्लॉग पर मैने अपने बेटे नकुल के बारे में लिखा था।

Nakul2 नकुल २००७ के, भारत के पाँच रोड्स स्कॉलर (Rhodes Scholars) में से एक है।
पिछले दो साल से ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय (Oxford University) में पढ़ाई कर रहा है।

अगले महीने उसकी दो साल की पढ़ाई पूरी हो रही है और दो साल के बाद  छुट्टियों के लिए घर आ रहा है।

मुझे आप सब मित्रों को यह बताने में अत्यंत हर्ष हो रहा है कि, नकुल को आगे की पढ़ाई के लिए भी, वहीं ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में ही प्रवेश मिल गया है। वह वहां मास्टर्स प्रोग्राम और पी.एच.डी. भी करना चाहता है और उसे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस की दी हुई Clarendon Scholarship भी हासिल हुई है। इसके साथ ब्रिटिश सरकार की दी जा रही  ORS (Overseas Student Scholarship) भी मिली है।


नकुल के फोटोग्राफ्स का स्लाइड-शो:

ट्यूशन फीस, कॉलेज फीस और रहने का खर्च (लिविंग अलाउंस) भी उसे प्राप्त हो जाएगा। अर्थात मुझे मेरी अपनी जेब से कोई खर्च की आवशयकता नहीं पढ़ेगी।

ये छात्रवृत्तियाँ उसे अपनी योग्यता के कारण मिली हैं और इसके लिए उसे दुनिया भर के उत्तम छात्रों से स्पर्धा करनी पढ़ी है।

मेरी चिंताएं अब दूर हो गई हैं। मेरे अपने करीयर का अंत अब सामने है। भविष्य अगली पीढ़ी का है। ईश्वर की बड़ी कृपा है हम पर कि हमें ऐसा बेटा मिला।

अपनी खुशी आप सब से बाँटना चाहता हूँ, ज्ञानजी के ब्लॉग के माध्यम से।

सबको मेरी शुभकामनाएं

Vishwanath in 2008
जी विश्वनाथ, जे पी नगर, बेंगळूरु


Tuesday, April 7, 2009

बाटी


अपनी प्रोबेशनरी ट्रेनिंग के दौरान अस्सी के दशक के प्रारम्भ में जब मैं धनबाद रेलवे स्टेशन से बाहर निकला था तो सुखद आश्चर्य हुआ था कि रेलवे स्टेशन के बाहर ठेलों पर बाटी चोखा मिल रहा था। यह बहुत पुरानी स्मृति है।

उसके बाद तो मैने नौकरी देश के पश्चिमी भाग में की। मालवा में बाटी-चोखा नहीं, दाल-बाफले मिलते थे सामुहिक भोजों में। साथ में लड्डू – जो आटे के खोल में मावा-चीनी आदि राख में गर्म कर बनाये जाते हैं।
Baatiमेरे दफ्तर में सामुहिक भोज के लिये राख से बाटी समेटता एक व्यक्ति।
इनकी विस्तृत विधि तो विष्णु बैरागी जी बतायेंगे।

जब मैं नौकरी के उत्तरार्ध में पूर्वांचल में पंहुचा तो छपरा स्टेशन के बाहर पुन: बाटी के दर्शन हुये। गोरखपुर में हमारे रेल नियंत्रण कक्ष के कर्मी तीन चार महीने में एक बार चोखा-दाल-बाटी का कार्यक्रम रख मुझे इस आनन्ददायक खाने में शरीक करते रहते थे।

मैने वाराणसी रेलवे स्टेशन के बाहर दो रुपये में एक बाटी और साथ में चोखा मिलते देखा। मेरे जैसा व्यक्ति जो दो-तीन बाटी में अघा जाये, उसके लिये चार-छ रुपये में एक जुआर (बार) का भोजन तो बहुत सस्ता है। कहना न होगा कि मैं इस गरीब के खाने का मुरीद हूं।

मैं यह आकलन करने का यत्न कर रहा था कि एक सामान्य व्यक्ति अपनी दैनिक २२००-२४०० कैलोरी की जरूरतें पूरी करने के लिये लगभग कितने पैसे में काम चला सकता है। यह लगा कि उसे भोजन पर लगभग ९००-१००० रुपये खर्च करने होंगे प्रति माह। उसके अनुसार हर महीने २००० रुपये कमाने वाले मजदूर लगभग हैण्ड-टू-माउथ नजर आते हैं। ये लोग राष्ट्र को ६-८% आर्थिक विकास का प्रोपल्शन दे रहे हैं और खुद पेन्यूरी (penury – घोर अभाव) में हैं।

हमारे घर में भरतलाल यदा-कदा तसले में कण्डे (गोबर के उपले) जला कर उसमें बाटी-चोखा बना लेता है (बाटी गैस तंदूर पर भी बनाई जा सकती है।)। साथ में होती है गाढ़ी अरहर की दाल। यह खाने के बाद जो महत्वपूर्ण काम करना होता है, वह है – तान कर सोना।

आपके भोजन में बाटी-चोखा यदा कदा बनने वाला व्यंजन है या नहीं? अगर नहीं तो आप महत्वपूर्ण भोज्य पदार्थ से वंचित हैं।   


Sunday, April 5, 2009

अगले जनम मोहे कीजौ दरोगा


policemanमेरी पत्नी जी की सरकारी नौकरी विषयक पोस्ट पर डा. मनोज मिश्र जी ने महाकवि चच्चा जी की अस्सी साल पुरानी पंक्तियां प्रस्तुत कीं टिप्पणी में -

देश बरे की बुताय पिया - हरषाय हिया तुम होहु दरोगा। (नायिका कहती है; देश जल कर राख हो जाये या बुझे; मेरा हृदय तो प्रियतम तब हर्षित होगा, जब तुम दरोगा बनोगे!)

हाय! क्या मारक पंक्तियां हैं! ए रब; यह जनम तो कण्डम होग्या। अगले जनम मैनू जरूर-जरूर दरोगा बनाना तुसी!


मैने मनोज जी से चिरौरी की है कि महाकवि चच्चा से विस्तृत परिचय करायें। वह अगले जन्म के लिये हमारे दरोगाई-संकल्प को पुष्ट करेगा।  

Friday, April 3, 2009

सरकारी नौकरी महात्म्य


नव संवत्सर प्रारम्भ हो चुका है। नवरात्र-व्रत-पूजन चल रहा है। देवी उपासना दर्शन पूजा का समय है। ज्ञान भी तरह तरह के चिन्तन में लगे हैं – मूल तत्व, म्यूल तत्व जैसा कुछ अजीब चिन्तन। पारस पत्थर तलाश रहे हैं।

RITA
श्रीमती रीता पाण्डेय की पोस्ट। एक निम्न-मध्यवर्गीय यूपोरियन (उत्तरप्रदेशीय) माहौल में सरकारी नौकरी का महत्व, पुत्र रत्नों की आवश्यकता और दहेज के प्रति जो आसक्ति दीखती है - वह अनुभूत सत्य उन्होंने आज लिखा है।

मैं ही छुद्र प्राणी हूं। छोटी-छोटी पारिवारिक समस्याओं में उलझी हूं। कूलर का पंखा और घास के पैड बदलवाये हैं आज। भरतलाल की शादी होने जा रही है। उसकी पत्नी के लिये साड़ी कहां से खरीदवाऊं, अटैची कौन से रंग की हो। इन छोटे छोटे कामों में ही जीवन लगे जा रहा है। व्यर्थ हो रहा है जीवन। मुझे इससे ऊपर उठना ही होगा।

यह सोच जैसे ही मैने सिर ऊपर उठाया – एक महान महिला के दर्शन हुये। वे नवरात्र का नवदिन व्रत करती हैं। रोज गंगा स्नान करती हैं। पैदल जाती हैं। मुहल्ले की रात की शांति की परवाह न करते हुये रात्रि जागरण करवाती हैं। उनके ही अनुसार उन्हें धन का तनिक मोह नहीं है। जो कुछ धन था, उसका सदुपयोग कर घर का फर्श-दीवार संगमरमर से मिढ़वा दिया है। घर ताजमहल बन गया है। सब उनके पति की सरकारी नौकरी का महात्म्य है!

भगवान की कृपा से उनके अनेक हीरे हैं। प्रत्येक को तलाशते कई मोतियों के अभिभावक दहेज नामक मैल की थैलियां लिये घूम रहे हैं। उनकी समस्या है कि किस मोती और कितने मैल को स्वीकार करें। वे बात बात में एक दूसरी महिला को ज्ञान बांटती हैं  – “अरे अब तुम्हारे पति की सरकारी नौकरी लग गयी है, अब एक बच्चे पर क्यों रुक रही हो। अब तो इत्मीनान से पैदा करो।”

इतने महत्वपूर्ण ज्ञान के प्रकाश से आलोकित कर दिया है मुझे कि इस ज्ञान को सर्वत्र फैलाने का मन हो रहा है। भारत के नव युवक-युवतियों उठो, सरकारी नौकरी पर कब्जा करो और हिन्दुस्तान की धरती को पुत्र रत्नों से भर दो। भविष्य तुम्हारा और तुम्हारे पुत्रों का है। उनके माध्यम से सब संपदा तुम्हारी होगी!

जय हिन्द! जय जय! 


श्रीमती रीता पाण्डेय का उक्त धर्मनिष्ठ महिला के विषय में पोस्ट स्क्रिप्ट - पुछल्ला:

फलाने की अविवाहता बिटिया गंगा में डूब गयी थी। दुखद प्रसंग था। पर चर्चा चलने पर इन दिव्य महिला ने कवित्त बखाना:

बिन मारे दुसमन मरे, खड़ी ऊंख बिकाय।
बिन ब्याही कन्या मरे, यह खुशी कहां समाय॥


Wednesday, April 1, 2009

पारस पत्थर


पारस पत्थर साइकॉलॉजिकल कन्सेप्ट है; फिजिकल कन्सेप्ट नही।
आप किसी भी क्षेत्र में लें – ब्लॉगरी में ही ले लें। कई पारस पत्थर मिलेंगे। माटी में दबे या पटखनी खाये!

मै तिलस्म और विज्ञान के मध्य झूलता हूं। एटॉमिक संरचना की मानी जाये तो कोई ऐसा पारस पत्थर नहीं होता है जो लोहे को सोना बना दे। पर मुझे लोग मिले हैं जिनसे मिल कर निरन्तर सनसनी होती है। और हमारी सोच और कृतित्व में जबरदस्त परिवर्तन होते हैं। लोहा से सोना बनने के माफिक ट्रान्सफर्मेशन होता है।

हमारा नया माली आता है और उजड़े बगीचे को चमन बना देता है। वह तत्वीय विश्लेषण संश्लेषण के सिद्धान्त पर नहीं चलता। वह केवल गोल्डन टच देता है। पारस पत्थर का स्पर्श! 

पारस पत्थर साइकॉलॉजिकल कन्सेप्ट है; फिजिकल कन्सेप्ट नही। कोई आश्चर्य नहीं कि अरस्तु मानते रह गये कि तत्व हवा-पानी-आग-मिट्टी के कॉम्बिनेशन से बने हैं। कालान्तर में उनकी इस सोच की हवा निकल गयी जब प्रोटान-न्यूट्रान और उनके सेटेलाइट के रूप में इलेक्ट्रान की परमाणवीय संरचना ने कीमियागरों की सोना बनाने की जद्दोजहद को महज शेखच्चिलीय हाइपॉथिसिस भर बना कर रख दिया। 

Maheshwariji Smallडा. एच. माहेश्वरी जी; एक पारस पत्थर, जिनके जीवित रहते, जिनके साथ पर्याप्त समय न रह पाना मेरी असफलता है।
आज के जमाने में मैं अरस्तू की आउट एण्ड आउट चेला गिरी तो नहीं, पर पारस पत्थर के आइडिया का मेनेजेरियल-स्पिरिचुअल प्रयोग अवश्य करता। या शायद कुछ सीमा में करता भी हूं। 

मैं डिवाइन ग्रेस (ईश्वरीय कृपा) और मिराकेल्स (चमत्कार) पर यकीन करता हूं। वैसे ही जैसे भौतिकी-रसायन के सिद्धान्तों पर यकीन करता हूं। गायत्री मंत्र में भी शक्ति है और रदरफोर्ड के एटॉमिक मॉडल में भी। अपने लिये शब्द प्रयोग करूं तो होगा – दकियानूसी-आधुनिक!

बन्धु, आप किसी भी क्षेत्र में लें – ब्लॉगरी में ही ले लें। कई पारस पत्थर मिलेंगे। माटी में दबे या पटखनी खाये! हो सकता है निष्क्रिय हों सक्रियता क्रमांक ३०००+ पर। या अपनी पारभासित आत्मा की भयानक तस्वीर लगाये हों। उनसे प्वाइण्ट ब्लैंक पूछें तो कहेंगे – हेहेहे, हम कहां, वो तो फलाने हैं! वैसे पारस पत्थर आप बाहर ढ़ूंढ़ने की बजाय अन्दर भी ढ़ूंढ़ सकते हैं। शर्तिया वहां उसे पायेंगे!    


खच्चरीय कर्म-योग


आपने ग्लैमरस घोड़ा देखा होगा। कच्छ के रन के गधे भी बहुत ग्लैमरस होते हैं। पर कभी ग्लैमरस खच्चर/म्यूल देखा है? मैने नहीं देखा।

ग्लैमर शायद शरीर-मन-प्राण के समग्र से जुड़ा है; अपने आप की अवेयरनेस (awareness - जाग्रतावस्था) से जुड़ा है। खच्चर में अवेयरनेस नहीं है। लिहाजा खच्चर ग्लैमरस नहीं होता।

सवेरे की सैर के दौरान मैने दो खच्चर देखे। कूड़े और घास के बीच बड़े शान्त भाव से घास चर रहे थे। उनकी पेशिंयां/पसलियां भी बुझी-बुझी थीं। थोड़ा दिन निकलने पर बोझ ढोने के काम में लगना ही था उन्हें।

बड़े ही अनिक्षुक भाव से उन्होंने अपनी फोटो खिंचवाई।

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किसी कोण से कुछ भी ग्लैमर दिखा आप को चित्र में?

लेकिन ग्लैमर की बात ही क्यों की जाये। ग्लैमर पेज थ्री में स्थान दिला सकता है। ग्लैमर पित्जा का प्रतीक है| पर अगर अपना जीवन-भोजन बथुआ और बजरी की रोटी पर टिका है तो ग्लैमर की क्या सोची जाये। खच्चरीय दृष्टिकोण से; एक आम मध्यवर्गीय जीव की जिन्दगी में ग्लैमर (या जो कहें) तो यही बनता है कि  हम पर पत्थर की पटिया की बजाय रूई लादी जाये। जिससे कम से कम पृष्ठ भाग छिलने से बचा रहे।

यह जीवन काफी हद तक खच्चरीय है। जीवन लदान हेतु है। जीवन है बोझा ढोने का नाम। जीवन ग्लैमर का पर्याय कदापि नहीं!

थोड़ी खच्चरीय-कर्म योग की बात कर ली जाये।

गीता का कर्म-योग:
कर्म पर आपका अधिकार है, फल पर नहीं - यह जीवन-दर्शन का मूल तत्व है।

मूल तत्व पर ध्यान देना चाहिये।
philosophy
खच्चरीय कर्म-योग: 
न कर्म पर आपका अधिकार है, न फल पर। जो जब लादा जाये उसे ले कर जिस दिशा में हांका जाये, सिर झुकाये चल देना, बिना आपत्ति, बिना दुलत्ती झाड़े - यह जीवन-दर्शन का म्यूल तत्व है।

म्यूल* तत्व पर और अधिक ध्यान देना चाहिये।mule * – म्यूल/Mule – खच्चर/टट्टू

अब साहब मालगाड़ी की सतत गणना करने वाला ब्लॉगर खच्चर और लदान पर न लिखेगा तो क्या कामायनी और ऊर्वशी पर लिखेगा! यह जरूर है कि आपने अगर टिप्पणी में ज्यादा मौजियत की; तो हो सकता है पत्नीजी सवेरे की सैर पर हमारे साथ जाने से इंकार कर दें! आखिर यह पोस्ट सवेरे की सैर की मानसिक हलचल का परिणाम है। और पत्नी जी इस प्रकार के ऊटपटांग जीवन-दर्शन के पक्ष में कदापि नहीं।