Wednesday, March 31, 2010

पिज्जा, खिलौना, विकल्प और मानव जीवन

यह प्रवीण पाण्डेय की बुधवासरीय अतिथि पोस्ट है। एक सामान्य घरेलू स्थिति से दर्शन में कैसे उतरा जाता है, वह प्रवीण से सीखने योग्य है:


बच्चों की परीक्षायें समाप्त हुयीं और घर के वातावरण का उत्सवीकरण हो गया। अब युद्धक्षेत्र से लौटे विजयी (लगता तो है) योद्धाओं को उपहार चाहिये। निश्चय हुआ कि पहले वसुधैव कुटुम्बकम् को चरित्रार्थ करते हुये डोमिनो(अमेरिकन) में पिज्जा(इटेलियन) बिना छुरी-काँटा(भारतीय) उड़ाया जायेगा। यहाँ पर छुरी-काँटे का जुझारु उपयोग देखकर या कॉस्ट कटिंग के चलते यह सुविधा डोमिनो ने हटा ली है।

बाबा रामदेव जी का समुचित सम्मान घर में है पर माह में एक दिन हमारी सोच वैश्विक स्तर की हो जाती है।

Sunday, March 28, 2010

डेमी गॉड्स बनने के चांस ही न थे!

Vivek Sahaiभारतीय रेल यातायात सेवा के वार्षिकोत्सव पर गीत गाते श्री विवेक सहाय; सदस्य यातायात, रेलवे बोर्ड।

वह जमाना सत्तर-अस्सी के दशक का था जब सरकारी ग्रुप ए सेवा का बहुत वजन हुआ करता था। मुझे एम वी कामथ का एक अखबार में लेख याद है कि स्कूली शिक्षा में मैरिट लिस्ट में आने पर लड़के देश निर्माण की बजाय सरकारी सेवा में घुस कर अपनी प्रतिभा बरबाद करते हैं। और जब यह लेख मैं पढ़ रहा था, तब सरकारी सेवा में घुसने का मन बना चुका था।

खैर, मेरे मन में सरकारी नौकरी की मात्र जॉब सिक्योरिटी भर मन में थी। यह सत्तर के दशक के उत्तरार्ध और अस्सी के पूर्वार्ध की बात है। पर मेरे बहुत से मित्र और उनके अभिभावक सरकारी अफसरी के ग्लैमर से बहुत अभिभूत थे। दुखद यह रहा कि उनमें से बहुत से लम्बे समय तक रीकंसाइल ही न कर पाये कि वे डेमी गॉड्स नहीं हैं और शेष कर्मचारी उनकी प्रजा नहीं हैं! उनमें से बहुत से अवसाद ग्रस्त हो गये और कई विचित्र प्रकार के खब्ती बन गये।

Friday, March 26, 2010

जीवन की त्रासदी क्या है?

मेरे जीवन की त्रासदी यह नहीं है कि मैं बेइमान या कुटिल हूं। मेरी त्रासदी यह भी नहीं है कि मैं जानबूझ कर आसुरी सम्पद अपने में विकसित करना चाहता हूं। मेरी त्रासदी यह है कि मैं सही आचार-विचार-व्यवहार जानता हूं, पर फिर भी वह सब नहीं करता जो करना चाहिये।

मुझे मालुम है कि ईर्ष्या विनाश का कारण है। मैं फिर भी ईर्ष्या करता हूं। मुझे यह ज्ञात है कि आसुरी सम्पद का एक भाव भी अन्य सभी को मेरे में जगह दिला देता है। मसलन यह हो ही नहीं सकता कि मैं काम और क्रोध से ग्रस्त होऊं, पर मुझमे ईर्ष्या न हो। या मुझमें ईर्ष्या हो, पर काम-क्रोध-मोह-लोभ आदि न हो। आसुरी सम्पद पूरे लॉट में मिलती है। आप फुटकर में भी लें तो पूरा का पूरा कन्साइनमेण्ट आपको मिलना ही है।

Wednesday, March 24, 2010

ईर्ष्या करो, विनाश पाओ!

महाभारत के तीन कारण बताये जाते हैं।

शान्तनु का काम, दुर्योधन की ईर्ष्या और द्रौपदी का क्रोध।

शान्तनु का काम भीष्म-प्रतिज्ञा का कारण बना। दुर्योधन की ईर्ष्या पाण्डवों को 5 गाँव भी न दे सकी। द्रौपदी का क्रोध विनाश पत्र के ऊपर अन्तिम हस्ताक्षर था।

Monday, March 22, 2010

बबूल और बांस

Babool मेरा मुंह तिक्त है। अन्दर कुछ बुखार है। बैठे बैठे झपकी भी आ जा रही है। और मुझे कभी कभी नजर आता है बबूल। कोई भौतिक आधार नहीं है बबूल याद आने का। बबूल और नागफनी मैने उदयपुर प्रवास के समय देखे थे। उसके बाद नहीं।

Friday, March 19, 2010

सतत युद्धक (Continuous Fighter)

छ सौ रुपल्ली में साल भर लड़ने वाला भर्ती कर रखा है मैने। कम्प्यूटर खुलता है और यह चालू कर देता है युद्ध। इसके पॉप अप मैसेजेज देख लगता है पूरी दुनियां जान की दुश्मन है मेरे कम्प्यूटर की। हर पांच सात मिनट में एक सन्देश दायें-नीचे कोने में प्लुक्क से उभरता है:

Wednesday, March 17, 2010

सैंतीस वयस्क वृक्षों की व्यथा

सदियों से कागज, सभ्यताओं के विकास का वाहक बना हुआ है । विचारों के आदान-प्रदान में व सूचनाओं के संवहन में कागज एक सशक्त माध्यम रहा है। समाचार पत्र, पुस्तकें, पत्रिकायें और ग्रन्थ किसी भी सभ्य समाज के आभूषण समझे जाते हैं। यही कारण है कि किसी देश में प्रति व्यक्ति कागज का उपयोग उस देश की साक्षरता दर का प्रतीक है। साक्षरता की पंक्ति में 105 वें स्थान पर खड़े अपने देश में यह उपयोग 7 किलो प्रति व्यक्ति है, वैश्विक औसत 70 किलो व अमेरिका का आँकड़ा 350 किलो है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार साक्षरता व संचार की समस्त आवश्यकताओं की संपूर्ति के लिये यह आँकड़ा 30-40 किलो होना चाहिये।

Monday, March 15, 2010

गंगा किनारे की रह चह

Camel1 घर से बाहर निकलते ही उष्ट्रराज पांड़े मिल गये। हनुमान मन्दिर के संहजन की पत्तियां खा रहे थे। उनका फोटो लेते समय एक राह चलते ने नसीहत दी – जरा संभल कर। ऊंट बिगड़ता है तो सीधे गरदन पकड़ता है।

बाद में यही उष्ट्रराज गंगाजी की धारा पैदल चल कर पार करते दीखे। बड़ी तेजी से नदी पर उग आये द्वीपों को पार करते गये। टापुओं पर लौकी खूब उतरने लगी है। उसका परिवहन करने में इनका उपयोग हो रहा है।

Saturday, March 13, 2010

प्रवीण – जुते हुये बैल से रूपान्तरण

पिछली पोस्ट पर प्रशान्त प्रियदर्शी और अन्तर सोहिल ने प्रवीण पाण्डेय की प्रतिक्रिया की अपेक्षा की थी। प्रवीण का पत्र मेरी पत्नीजी के नाम संलग्न है:

आदरणीया भाभीजी,

पहले आपके प्रश्न का उत्तर और उसके बाद ही ट्रैफिक सर्विस की टीस व्यक्त करूँगा।

Friday, March 12, 2010

बच्चों को पढ़ाना - एक घरेलू टिप्पणी

मेरी पत्नीजी (रीता पाण्डेय) की प्रवीण पाण्डेय की पिछली पोस्ट पर यह टिप्पणी प्रवीण पर कम, मुझ पर कहीं गम्भीर प्रहार है। प्रवीण ने बच्चों को पढ़ाने का दायित्व स्वीकार कर और उसका सफलता पूर्वक निर्वहन कर मुझे निशाने पर ला दिया है।

समस्या यह है कि मेरे ऊपर इस टिप्पणी को टाइप कर पोस्ट करने का भी दायित्व है। smile_sad खैर, आप तो टिप्पणी पढ़ें:


प्रिय प्रवीण,

मुझे तुमसे पूरी सहानुभूति है। बच्चों की चुनौतीपूर्ण मुद्रा से तो और भी आशंकित हूं। तुम्हारा काम (उन्हे पढ़ाने का) वाकई में दुरुह है। यह मैं अपने अनुभव से बता रही हूं। समय के साथ यह चुनौती प्रबल होती जायेगी।

Wednesday, March 10, 2010

बच्चों की परीक्षायें बनाम घर घर की कहानी

मार्च का महीना सबके लिये ही व्यस्तता की पराकाष्ठा है। वर्ष भर के सारे कार्य इन स्वधन्य 31 दिनों में अपनी निष्पत्ति पा जाते हैं। रेलवे के वाणिज्यिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिये अपने सहयोगी अधिकारियों और कर्मचारियों का पूर्ण सहयोग मिल रहा है पर एक ऐसा कार्य है जिसमें मैं नितान्त अकेला खड़ा हूँ, वह है बच्चों की वार्षिक परीक्षायें। पढ़ाने का उत्तरदायित्व मेरा था अतः यह परीक्षायें भी मुझे ही पास करनी थीं।

परीक्षाओं का अपना अलग मनोविज्ञान है पर जो भी हो, बच्चों का न इसमें मन लगता है और न ही उनके लिये यह ज्ञानार्जन की वैज्ञानिक अभिव्यक्ति है। झेल इसलिये लेते हैं कि उसके बाद ग्रीष्मावकाश होगा और पुनः उस कक्षा में नहीं रगड़ना पड़ेगा|

Monday, March 8, 2010

नत्तू पांड़े, नत्तू पांड़े कहां गये थे?

नत्तू पांड़े नत्तू पांड़े कहां गये थे?
झूले में अपने सो रहे थे
सपना खराब आया रो पड़े थे
मम्मी ने हाल पूछा हंस गये थे
पापा के कहने पे बोल पड़े थे
संजय ने हाथ पकड़ा डर गये थे
वाकर में धक्का लगा चल पड़े थे
नत्तू पांड़े नत्तू पांड़े कहां गये थे?!

 

Saturday, March 6, 2010

खतम हो लिये जीडी?

Gyan old नहीं नहीं, यह आप नहीं कह रहे मुझसे। यह मैं कह रहा हूं मुझसे। चौवन साल और ब्रेन सेल्स जरूर घिस रही होंगी। कभी कभी (और यह कभी कभी ज्यादा ही होने लगा है) यह लगता है कि फलाना जाना पहचाना है, पर क्या नाम है उसका? किस जगह उसे देखा है। कहीं पढ़ देख लेते हैं अल्झाइमर या पारकिंसन के बारे में और लगने लगता है कि अपने को डिमेंशिया तो नहीं होता जा रहा।

शारीरिक फैकेल्टीज में गिराव तो चलेबल है। जोड़ों में दर्द, स्पॉण्डिलाइटिस, चश्मे का नम्बर बढ़ना --- यह सब तो होता रहा है। रक्तचाप की दवा भी इस बार बदल दी है डाक्टर साहब ने। वह भी चलता है। पर मेण्टल फैकेल्टीज में गिराव तो बड़ा स्केयरी है। आप को कभी अपने बारे में यह लगता है?

Wednesday, March 3, 2010

कम्प्यूटर/मोबाइल पर हिन्दी

मैने प्रवीण पाण्डेय से विण्डोज मोबाइल में हिन्दी की-पैड Eyron(mobile keyboard) का प्रयोग कर हिन्दी फर्राटे से लिखने का जुगाड़ पूछा। जो उपाय बताया, उसे सरल हिन्दी में कहा जायेगा – अभ्यासयोग। जितना प्रयोग होगा, उतना तेज बनेगा औजार।

मेने सोचा, यह इति होगी ई-मेल वार्तालाप की। पर हिन्दी के प्रयोग पर प्रवीण ने एक अत्यन्त स्तरीय पोस्ट लिख डाली है। आप यह पोस्ट देखें। 

बचपन में हिन्दी वर्णमाला सीखने के बाद जब आंग्लभाषा सीखनी प्रारम्भ की तो वैशाखियाँ हिन्दी की ही थीं। ’Apple’ अभी तक दिमाग में ’एप्पल’ के रूप में धँसा हुआ है। एक भाषा से दूसरी भाषा ’लिप्यंतरण’ (Transliteration) के माध्यम सीखना स्वाभाविक है। अंग्रेजी सीखना अन्य भाषायें सीखने से और भी कठिन था क्योंकि यहाँ जो लिखा जाता है वही बोला नहीं जाता है। दुगुना परिश्रम। सोचा कि अन्तर्राष्ट्रीय भाषा है, परिश्रम तो करना ही पड़ेगा। भौकाल था। कोई कहीं अंग्रेजी में सरपटियाता था तो लगता था कि ज्ञान, फैशन और आकर्षण तीनों एक साथ अवतरित हो गये हैं। एक बार सवारी करने के बाद तो बिना हिन्दी की सहायता के अंग्रेजी के घोड़े सरपट दौड़ाने लगे यद्यपि बोलना सीखने में दो दशक और लग गये।