Monday, April 30, 2007

बाबूभाई कटारा की तरफदारी (?) में एक पोस्ट

मुझे भाजपा और कटारा पर तरस आ रहा है. जब मैं रतलाम में था तो झाबुआ-पंचमहल-दाहोद कांग्रेस के गढ़ हुआ करते थे. मैं आदिवासियों से पूछ्ता था कि देश का प्रधानमंत्री कौन है? तब या तो वे सवाल समझ नहीं पाते थे, या वेस्ता पटेल, कंतिलाल भूरिया अथवा सोमाजी डामोर जैसे स्थानीय कांग्रेसी का नाम लेते थे. उन गरीबों के लिये दुनियां में सबसे बड़े वही थे.

फिर आर.एस.एस.वालों ने वनवासी विकास संघ जैसे प्लेटफार्म से आदिवासियों में पैठ बनाई. मिशनरियों का वर्चस्व कुछ सिमटा. उस क्षेत्र से भाजपा जीतने लगी चाहे मध्यप्रदेश हो या गुजरात.

और अब कटारा ने लोढ़ दिया है! बेचारे आर.एस.एस. के कमिटेड वर्कर मुंह पिटा रहे होंगे. कटारा परमजीत कौर को ले जा रहे थे; सो तो ठीक; शिलाजीत(? - देसी वियाग्रा) काहे को ले जा रहे थे जब पत्नी साथ नहीं जा रही थी? पैसे के लिये भ्रष्ट आचरण तो खास बात नहीं है वह तो चलता है! पकड़े गये, वही गड़बड़ हो गया. पर खांटी दैहिक वासना का भ्रष्टाचार यह अति हो गयी.

मुझमें यह वक्र सोच क्यों है, यह मैं नहीं जानता. जनता कबूतरबाजी-कबूतरबाजी की रट लगाये है और मुझे खोट देसी वियाग्रा में नजर आ रहा है.

एक बाबू रिश्वत ले कर मकान बना लेता है, बच्चों को डाक्टरी/इंजीनियरी पढ़ा देता है. लड़की की ठीक से शादी कर देता है, सुबह शाम मन्दिर हो आता है, सुन्दर काण्ड का पाठ और भागवत श्रवण कर लेता है. यह मानक व्यवहार में फिट हो जाता है.

पर अगर वह पैसा पीटता है, दारू-मुर्गा उड़ाता है, रेड़ लाइट एरिया के चक्कर लगाता है, इधर-उधर मुंह मारता है; तब गड़बड़ है. कटारा देसी वियाग्रा के कारण दूसरे ब्रैकेट में लग रहे हैं. आगे क्या निकलेगा, भगवान जाने.

कैश और क्वैरी या कबूतरबाजी छोटा गुनाह है. उसपर तो सांसद निकाल बाहर किये गये. बड़ा गुनाह है माफियागिरी, औरत को मार कर जला देना, आई.एस.आई. से सांठ-गांठ, मधुमिता शुक्ला जैसे मर्डर, पोलिटिकल दबंगई के बल पर देह/असलाह/नशा आदि के व्यापार चलाना. ऐसे गुनाह करने वाले ज्यादातर छुट्टा घूम रहे हैं. उनकी नेतागिरी बरकरार है या चमक रही है.

ब्लॉगर भाई तलवारें तान सकते हैं. कह सकते हैं कि सरकारी नौकर है, रिश्वत को जस्टीफाई (?) कर रहा है. जरूर चक्कर है. पर ब्लॉगरी का मायने ही यह है कि (मर्यादा में रहते हुये) जो जंचे, लिखा जाये.

Sunday, April 29, 2007

सड़क पर होती शादियां

हिन्दुस्तान में सड़क केवल सड़क नहीं है. जन्म से लेकर परलोक गमन के सभी संस्कार सड़क पर होते हैं. जीवन भी इन्हीं पर पलता है. सचिन तेन्दुलकर से लेकर मुन्ना बजरंगी तक इन्ही सड़कों पर बनते हैं.

लोग ज्यादा हो गये हैं तो स्कूल, मैदान, मैरिज हॉल, धर्मशालायें कम पड़ने लगी हैं. लिहाजा शादियां इन्ही सड़कों पर होती हैं.

समाज के रहन-सहन के मैन्युअल में यह कोडीफाइड है. आपके घर में शादी है तो सड़क पर टेंण्ट गाड़ लो. किसी नगर पालिका, मुहल्ला समिति, पास पड़ोस से पूछ्ने की जरूरत नहीं. और पूछना क्यूं? जब पड़ोस के लाला/सुकुल/गोयल/पासवान जी के पप्पू या गुड्डी की शादी में किसी ने सड़क बन्द करते समय आप को नहीं ग़ांठा तो आपको क्या जरूरत है?

(यह सड़क देख रहे हैं आप। पास में बफे डिनर का कचरा भी था जो मैं केप्चर नहीं कर पाया)

रात भर कान फोड़ू संगीत बजाना, ट्रेफिक की ऐसी तैसी कर देना, सवेरे बचे-खुचे भोजन और थर्मोकोल/प्लास्टिक के इस्तेमाल हुये प्लेट-गिलास-चम्मच सड़क पर बिखेर देना, जयमाल के लिये लगे तख्त-स्टेज-टेण्ट को अगले दिन दोपहर तक खरामा-खरामा समेटना.....यह सब हिन्दू/मुस्लिम पर्सनल लॉ में स्पेसीफाइड है. सवेरा होने पर बरात और टेण्ट हाउस के बन्दे सड़क पर सोते मिलते हैं और गाय-गोरू बचे-खुचे भोजन में मुंह मारते पाये जाते हैं. सवेरे की सैर के जायके में मिर्च घुल जाती है.

प्रवचन देने की तथागती मुद्रा अपनाना बेकार है. जन संख्या बढ़ती रहेगी. सड़क का चीर हरण होता रहेगा और भी फ्रीक्वेंट हो जायेगा.

सड़क आपकी, आपकी, आपकी.
सड़क हमारे बापकी.

Saturday, April 28, 2007

प्लास्टिक पर निर्भरता कम करने के तरीके.

मैं यह क्लिक-इफेक्टिव पोस्ट नहीं लिख रहा। प्लास्टिक के कचरे के बारे में कम ही लोगों ने पढा। पर आप क्लिक के लिए नहीं लिखते हैं। जिस मुद्दे पर आप महसूस करते हैं, उसपर कलम चलानी चाहिये। कम से कम ब्लागिंग है ही इस काम के लिए.
मुझे लगता है की अपना कैरी बैग ले कर बाजार जाना बड़ा ही इफेक्टिव तरीका है प्लास्टिक पर अपनी निर्भरता कम करने का। इसके अलावा निम्न उपाय किये जा सकते हैं:
  1. प्लास्टिक सेशे का प्रयोग कम कर दें। जहाँ तक हो बड़ी क्वान्टिटी में ख़रीदें और कोशिश करें कि वह शीशे के जार में हो.
  2. जो खुला या बिना प्लास्टिक के कंटेनर के मिले, उसे लेने में रूचि दिखाएँ। मसलन अनाज खुला लें और अपने थैले में ही भरवा लें।
  3. घर में रखने के लिए शीशे के जार या स्टील के कंटेनर का प्रयोग करें।
  4. किराने की दुकान का प्रयोग करें अगर सुपर मार्केट/बिग बाजार आप के कैरीबैग को मान्यता नहीं देता। वालमार्ट या बिग बाजार शायद प्लास्टिक के उपयोग को बंद करने वाले अन्तिम लोग हों।
  5. प्लास्टिक का रिप्लेसमेंट तलाशें। कई चीजें कागज, शीशे या लकडी/मिटटी की मिल सकती हैं। प्लास्टिक के खडखडिया कप की बजाय कुल्हड़ को वरीयता दें।
  6. अगर प्लास्टिक का कैरीबैग लेना ही पड़े तो मोटा और मजबूत लें, पतली फट जाने वाली पन्नी नहीं।
  7. आपका प्लास्टिक कम करना आपके सामान्य व्यवहार का अंग हो, कोई मेनिया नहीं।
जरा अपने आस-पास के लैंडफिल का मुआयना करें - कितना बड़ा प्लास्टिक का कब्रिस्तान बनता जा रहा है!

Friday, April 27, 2007

प्लस्टिक का कचरा कब तक चलेगा?

"इकनामिस्ट" में है कि सेनफ्रंसिसको में प्लास्टिक के शॉपिंग बैग पर पाबन्दी लग गयी है. किराना वालों ने इस का विरोध किया है. पर कानून बनाने वालों ने सुनी नहीं. पता नहीं कैसे कानून बनाने वाले हैं वहां. हमारे यहां तो जनता के बिना बोले बहुत कुछ सुन लेते हैं. खैर.

प्लास्टिक का कचरा वास्तव में जिन्दगी तबाह कर रहा है. एक महीना हार्लिक्स और डाबर का च्यवनप्राश सेहत बनाता है पर उनकी बोतल हमारे आगे की सौ पीढ़ियां झेलेंगी. रिसाइकल्ड प्लास्टिक न जाने कौन कौन से स्वास्थ्य नाशक तत्व लिये रहता है. आपमें लम्बा लेख पढ़ने की पेशेंस हो तो बेस्टलाइफ मैगजीन में यह लेख पढ़ें. प्लास्टिक अब भोजन कि चेन को भी प्रदूषित कर रहा है। गायें प्लास्टिक का कचरा खाते देखी जा सकती हैं। पक्षी, समुद्री जीव, मछलियाँ - ये सब प्लास्टिक की चपेट में हैं। वहा दिन दूर नहीं जब मानव शरीर में प्लास्टिक प्रवेश कर जायेगा - या कर ही चुका है। प्लास्टिक कि बोतल से दूध पीते नवजात के दिमाग, प्रतिरोधक क्षमता और प्रजनन अंगों पर प्रभाव पड़ रहा है। केंसर और डायबिटीज के मामले प्लास्टिक प्रदूषण से बढ़ रहे हैं. लेख बड़ी भयानक तस्वीर सामने रखता है।

ड़ेढ़ सौ साल से बने प्लास्टिक का एक छोटा सा हिस्सा ही नष्ट हुआ है. हर साल 60,000,000,000 टन प्लास्टिक बनता है. उसमें से ज्यादातर तो केवल एक बार ही इस्तेमाल किया जाता है. अपने मजे के लिये हम धरती और समन्दर दोनों को कब्रिस्तान बना दे रहे हैं.

एक बड़ी खोज वह होगी जो प्लास्टिक के बायोडिग्रेडेबल बनाने के बारे में होगी. खोजने या उसको कमर्शियल रूप देने वाला बिल गेट्स जैसा धनी बन जायेगा और आगे आने वाली पीढ़ियां उसका गुण गान करेंगी.

तब तक हम क्या करें? घर में तो हमने नियम बना लिया है बाजार जायेंगे तो अपना थैला लेकर जायेंगे. दुकानदार को विनम्रता से मना कर देते हैं कि भैया, आपका कैरी बैग नहीं चाहिये। पर यह तो मात्र आत्मसंतोष के लिए है। समस्या का समाधान तो नहीं है।

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हमारे एक वरिष्ठ अधिकारी हैं, उनका कहना है कि जब वे नार्थ फ्रंटियर रेलवे में असम में पोस्टेड थे तो उनके एक प्लास्टिक के थैले को (जिसमें किताबें थीं) दीमक पूरी तरह चट कर गयीं थीं - थैले समेतप्लास्टिक को बायो डीग्रेडेबल करने के लिए उस दीमक की खोज की जा सकती है

Thursday, April 26, 2007

बहुजन समाज पार्टी ने शिव जी का आशिर्वाद लिया

गौतम बुद्ध, अम्बेडकर, महामाया रोड/नगर/पार्क/क्रासिंग आदि का जमाना शायद पुराना हो गया है. वोट बैंक के गणित का तकाजा ऐसा हुआ कि बसपा ने शंकर जी का आशिर्वाद सेंक्शन करा लिया.

सवेरे घूमने जाती मेरी मां ने खबर दी कि शिव कुटी के एतिहासिक मन्दिर पर बहुजन समाज पार्टी का झण्डा फहरा रहा है. चित्र देखें:

(शिव कुटी में कोटेश्वर महादेव मंदिर का कंगूरा - आयत में बसपा का ध्वज)

शिव कुटी का कोटेश्वर महादेव का मन्दिर उस स्थान पर है जहां वनवास जाते समय भगवान राम ने गंगा पार कर शिवलिंग की स्थापना कर पूजा की थी. तुलसी ने उस विषय में लिखा है:

मुदित नहाइ किन्हि सिव सेवा। पूजि जथाबिधि तीरथ देवा।

राम का शिवलिंग का कोटेश्वर महादेव के रूप में पूजन उनके एक महत अभियान का संकल्प था.

अब जब कोटेश्वर महादेव के पुरी-पुजारी गण; मुफ्त में बंटे बाटी-चोखा और अन्य माल से तृप्त; बसपा का झण्डा शिव मन्दिर पर फहरा रहे हैं, तो समय बदला जानिये मित्रों! बहन जी ने सवर्णों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की वकालत कर एक मुद्दा तो झटक ही लिया है. आगे, जैसी सरकार बनाने में जरूरत पड़े, राम मन्दिर बनाने का मुद्दा भी वे भजपा से हड़प लें तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये. क्या पता टेण्ट में बैठे राम लला का परमानेण्ट निवास बनाने की निमित्त बसपा बन जाये।

कौन कहता है गिरगिट ही रंग बदल सकता है
सियासी दलों को तबियत से निहारो यारों.

Wednesday, April 25, 2007

शिक्षा के क्षेत्र में देश बैक फुट पर है.

सन 2005 में विश्वबैंक ने पड़ताल की थी. उसमें पता चला था कि हमारे देश में 25% प्रतिशत प्राइमरी स्कूल के अध्यापक तो काम पर जाते ही नहीं हैं. बाकी, जो जाते हैं उनमें से आधे कुछ पढ़ाते ही नहीं हैं. तनख्वाह ये पूरी उठाते हैं. यह हालत सरकारी स्कूलों की है. आप यहां पढ़ सकते हैं इस पड़ताल के बारे में. ऐसा नहीं है कि सन 2005 के बाद हालत सुधर गये हों.

मेरे काम में शिक्षकों से वास्ता नहीं पड़ता. पर समाज में मैं अनेक स्कूली अध्यापकों को जानता हूं, जिनके पास विचित्र-विचित्र तर्क हैं स्कूलों में न जाने, न पढ़ाने और पूरी तनख्वाह का हकदार होने के. उनके सामान्य ज्ञान के स्तर पर भी तरस आता है. अच्छा है कि कुछ नहीं पढ़ाते. अज्ञान बांटने की बजाय स्कूल न जाना शायद बेहतर है!

उच्च शिक्षा का भी कोई बहुत अच्छा हाल नहीं है. सामान्य विश्वविद्यालयों को छोड़ दें, तकनीकी शिक्षा के स्तर भी को भी विश्वस्तरीय नहीं कहा जा सकता. द न्यू योर्कर में छपा यह लेख आंखें खोलने वाला है. भारत में 300 से ज्यादा विश्वविद्यालय हैं पर उनमें से केवल दो ही हैं जो विश्व में पहले 100 में स्थान पा सकें. इंफोसिस वाले महसूस करते हैं कि भारत में स्किल्ड मैनपावर की बड़ी किल्लत है. पिछले साल तेरह लाख आवेदकों में से केवल 2% ही उन्हें उपयुक्त मिलें. अमेरिकी मानक लें तो भारत में हर साल 170,000 ईंजीनियर ही पढ़ कर निकलते हैं, न कि 400,000 जिनका दावा किया जाता है. कुकुरमुत्ते की तरह विश्वविद्यालय और तकनीकी संस्थान खुल रहे हैं. उनकी गुणवत्ता का कोई ठिकाना नहीं है. आवश्यकता शायद 100-150 नये आईआईटी/आईआईएम/एआईआईएमएस और खोलने की है और खुल रहे हैं संत कूड़ादास मेमोरियल ईंजीनियरिंग/मेडीकल कॉलेज! उनमें तकनीकी अध्ययन की बुनियादी सुविधायें भी नहीं हैं!

छिद्रांवेषण या दोषदर्शन के पचड़े में फंसना उचित नहीं होगा. पर समाज को बांट कर शिक्षा के क्षेत्र में राजनीति चलाने की बजाय प्राईमरी-सेकेण्डरी-उच्च सभी स्तरों पर शिक्षा में गुणवत्ता और संख्या दोनो मानकों पर बेहतर काम की जरूरत है. वर्ना अर्थ व्यवस्था की आठ-दस प्रतिशत की वृद्धि दर जारी रख पाना कठिन होगा. एक तरफ बेरोजगारों की कतार लम्बी होती चली जायेगी और दूसरी तरफ कम्पनियों को काम लायक लोग नहीं मिलेंगे.

Monday, April 23, 2007

असली खुशी की दस कुंजियां

मैं रेलवे स्टेशन पर जीने वाले बच्चों पर किये गये एक सर्वेक्षण के आंकड़ों से माथापच्ची कर रहा था.

जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा चौंकाया; वह थी कि 68% बच्चे अपनी स्थिति से संतुष्ट थे. बुनियादी जरूरतों के अभाव, रोगों की बहुतायत, पुलीस का त्रास, भविष्य की अनिश्चितता आदि के बावजूद वे अगर संतुष्ट हो सकते हैं, तो प्रसन्नता का विषय उतना सरल नहीं, जितना हम लोग मान कर चलते हैं.

अचानक मुझे याद आया कि मैने प्रसन्नता के विषय में रीडर्स डायजेस्ट में एक लेख पढ़ा था जिसमें कलकत्ता के अभाव ग्रस्त वर्गों में प्रसन्नता का इंडेक्स ऊंचा पाया गया था. मैने उस लेख का पावरप्वाइंट भी तैयार किया था. कम्प्यूटर में वह मैने ढूंढा और रविवार का सदुपयोग उसका हिन्दीकरण करने में किया.

फिलहाल आप, असली खुशी की दस कुंजियां की फाइल का अवलोकन करें. इसके अध्ययन से कई मिथक दूर होते हैं. कहीं-कहीं यह लगता है कि इसमें क्या नयी बात है? पर पहले पहल जो बात सरल सी लगती है, वह मनन करने पर गूढ़ अर्थ वाली हो जाती है. धन किस सीमा तक प्रसन्नता दे सकता है; चाहत और बुद्धि का कितना रोल है; सुन्दरता और सामाजिकता क्यों महत्वपूर्ण हैं; विवाह, धर्म और परोपकार किस प्रकार प्रभावित करते हैं और बुढ़ापा कैसे अभिशाप नहीं है यह आप इस डाउन लोड में पायेंगे।

(चिन्ह पर क्लिक कर डाउन लोड करे)

आप इस पावरप्वाइण्ट की पीडीएफ फाइल यहां भी देख सकते हैं।

Thursday, April 19, 2007

फर्जीवाडा ग्रेड - IV बनाम शिक्षा में ठगी

भारत लाल (मेरा बंगला पियून) ताजा स्कूप लाया है।

उसकी मंगेतर दसवीं में पढ़ती है। मंगेतर का स्कूल "कान्वेंट" स्कूल है। कान्वेंट माने थोड़ी ज्यादा फ़ीस और अंगरेजी मीडियम। इसाई मठ से कोई लेना देना नहीं है कान्वेंट का। स्कूल चलाते होंगे कोई पंडितजी या लालाजी। निम्न मध्यम वर्ग के बच्चों का स्कूल है। स्कूल में बच्चों और पेरेन्ट्स पर रोब तो पड़ना चाहिये। उसके लिए हर १५-२० दिन में एक नाटक होता है। कहा जाता है कि डिप्टी साहब दौरे पर आ रहे हैं। एक साहब दौरे पर आते हैं। मास्टरानियों और बच्चों से पूछते-पाछते हैं। पूरी नौटंकी होती है।

अब ये कौन इलाहबाद का शिक्षा विभाग का डिप्टी डायरेक्टर है जो हर महीने एक गली के प्राइवेट स्कूल में इंस्पेक्शन को पहुंच जाता है?

भारत लाल मंगेतर के साथ बाजार घूम रहा था की मंगेतर ने बताया की फलां सज्जन जो जा रहे हैं वो स्कूल में आते हैं। वो ही डिप्टी डायरेक्टर हैं। भारत लाल भी ठहरा एक नंबर का खुराफाती। वो फलां सज्जन की पूरी जासूसी कर आया। पता चला की वो सज्जन रेलवे में गार्ड हैं। रेलागाडी के ब्रेकवान में बैठ झन्डी दिखाते हैं। स्कूल में इंस्पेक्शन भी कर आते हैं डिप्टी डायरेक्टर बन कर।

यूपोरियन माहौल पूरा नटवरलाल का हैं। कौन कैसे रंग जमा जाएगा, कौन कैसे चूना लगा जाएगा, कौन कब जालसाजी कर जाएगा, कहा नहीं जा सकता। ये तो आप पर है की आप कितना जागरूक और सतर्क रहते हैं। कितना बच निकलते हैं इस तरह के गोरख धंधों से।

पर नटवरलाली इतनी ज्यादा है कि कभी ना कभी तो चूना लगना तय है।
ठगना और ठगाजना
दोनें ही आसुरिक वृत्तियाँ हैं
क्षणिक लाभ और तृष्णा से प्रेरित
कौन किसे ठगता है?
ठगने व ठगेजाने वाले
एक ही तो हैं

Wednesday, April 18, 2007

कंटिया भाग दो: कंटिये में तो हम ही फंस गये हैं.

कल की पोस्ट पर एक दूसरे मिसिर जी ने जो गुगली फैंकी; उससे लगता है कि कंटिये में हम खुद फंस गये हैं. छोटे भाई शिव कुमार मिश्र ने जो रोमनागरी में टिप्पणी दी है पहले मैं उसे देवनागरी में प्रस्तुत कर दूं:

सिस्टम भ्रष्ट है...

और तब तक रहेगा जब तक मिसिराइन अपने को सिस्टम का हिस्सा नहीं मानतीं.... पूरी समस्या यहीं से शुरू होती है कि तथाकथित समाज खुद को सिस्टम का हिस्सा नहीं मानता. हमारे लिये सिस्टम में नेता, सरकारी अफसर, पुलीसवाले और कानून वाले ही हैं... बड़ा आसान है सिस्टम को गाली देना.

सरकारी अफसर अगर घूसखोरी में लिप्त न रहे तो उसके घर वाले उसे कोसते हैं. अगर अपने किसी रिश्तेदार को (जो निकम्मा है) सिफारिश कर के नौकरी न लगवा दे तो कोई उस अफसर से बात नहीं करता. रिश्तेदार यही कहते मिलेंगे कि कुछ नहीं है इस अफसर में आज तक किसी का भला नहीं किया.

भ्रष्टाचार के सबके अपने-अपने खण्ड-द्वीप हैं, और सब अपने द्वीप पर सुख से रहना चाहते हैं...

भ्रष्ट कहने को उंगली जब हम किसी की तरफ उठाते हैं तो पंजे की तीन उंगलियां हमारी तरफ फेस करती हैं. हमारी पिछली पोस्ट की मिसिराइन सिस्टम का अंग हैं इसमें मुझे शक नहीं है. आम आदमी (अगर कोई आम आदमी है तो) जब अपनी सुविधा चाहता है तो भ्रष्टाचार पर चिंतन नहीं करता. जब वह भ्रष्टाचार पर चिंतन करता है तो उसे नेता, सरकारी अफसर, पुलीसवाले और कानून वाले जो भी उससे अलग हैं; ही नजर आते हैं.

पर छोटे भाई शिव कुमार मिश्र ने सरकारी अफसर के घूस खोर न होने की दशा वाली जो बात कही है, उसने मुझे सोचने पर बाध्य किया है. अगर हम (सरकरी अफसर) भ्रष्ट हैं तो फिर कुछ कहने को बचता ही नहीं. पर अगर नहीं हैं; तो चार चीजें हैं

  1. हम चुगद हैं. ईमानदारी के प्रतिमान बुन कर उसमें कैकून की तरह फंसे हैं.
  2. हम लल्लू हैं. भ्रष्ट होने को भी कलेजा और कला चाहिये. ईमानदार हैं तो इसलिये कि कायर हैं.
  3. हम आदर्शवादी शहीद हैं. अपने चुनाव से भ्रष्टता को नहीं अपनाते. फिर भी उसमें अपने को अलग दिखाने का भाव तो होता है. मेरी कमीज दूसरे से सफेद है यह अहसास हमेशा पाले रहना चाहते हैं.
  4. हम जो हैं, सो हैं. दुनियां में हमारे लिये भी स्पेस है. अपनी तृष्णाओं पर हल्की सी लगाम लगा कर जिन्दगी मजे से काट जायेंगे.

अब काफी समय तक अपने बारे में चिंतन चलेगा. कटिये में फंसे रहेंगे. पत्नी को भी परेशान करते रहेंगे; पूछ-पूछ कर कि हम चुगद हैं, लल्लू हैं, शहीद हैं या जो हैं सो हैं. मजे की बात है कि प्राइमा फेसी, पत्नी जी हमें ये चारों बता रही हैं.

अपने खण्ड द्वीप पर मजे में रहने में भी बाधक है यह सोच.

Tuesday, April 17, 2007

कटिया फंसाने को सामाजिक स्वीकृति है यहां

मिसिराइन (कल्पित नाम; फिर भी सभी मिसिर-मिसिराइन जी से क्षमा याचना सहित) हफ्ते भर से फड़फड़ी खा रही थीं. बिजली वाले से किसी बात पर तनी तना हो गयी थी और वह इलेक्ट्रानिक मीटर लगा गया था. मीटर फर्र-फर्र चल रहा था और मिसिराइन का दिल डूबा जा रहा था. वो जिस-तिस से समस्या का समाधान पूछ रही थीं.

मिसिराइन गली (मुहल्ला नहीं लिखूंगा, वह ब्लॉगिंग में एक जमात का नाम है) की लीडर हैं. चुनाव का बखत है. वैसे भी बहुत काम हैं उनको. पार्टी का गली में का प्रचार उनके जिम्मे है. गलत मौके पर यह मीटर पुराण हो गया. अच्छी भली जिन्दगी में यह फच्चर फंस गया. मीटर था कि एक दिन में 14 यूनिट चल रहा था. पहले 4-5 सौ रुपये का बिल आता था; अब दो हजार महीने की चपत पड़ने वाली थी...

आज अचानक रास्ते में दिख गयीं मिसिराइन.उनसे नमस्ते कर आगे चलने पर मैने पत्नी से पूछा क्या समाधान निकला मिसिराइन के मीटर का. पत्नी ने बताया कि सिम्पल सा समाधान निकला. मीटर 4-5 सौ रुपये का चलेगा. बाकी काम एक महीने कटिया फंसा कर होगा. उसके बाद मीटर खराब हो जायेगा बिजली वाले से सेट हो गया है. फिर पुराने मीटर रीडिंग के अनुसार बिल आया करेगा.

राम-राम; कटिया फंसाना क्या उचित है? मैने पूछा.

"इसमें क्या है? बहुत लोग ऐसा कर रहे हैं." पत्नी ने जवाब दिया.

कुछ अटपटा लगा. मैं सोचता था कि गरीब लोग; जिनके पास अथराइज्ड कनेक्शन नहीं हैं वे ही कटिया फंसाते हैं. पर यहां तो सभ्य-सम्पन्न-आदर्श बघारने वाला मध्यवर्ग यह कर रहा है. कटिया फंसाने को सामाजिक स्वीकृति है। ज्यादा कुरेदा जाये तो उसका सैद्धांतिक तर्क भी सामने आ सकता है।

रेलवे के बंगले में रहते यह सब देखने को नहीं मिला था. अब पिताजी के मकान में रहने पर समाज के विभिन्न रंग देखने को मिल रहे हैं. इसे लेकर अपने को (अनुभव के लिये) भाग्यशाली मानूं, या जीवन के पचड़ों से साक्षात्कार होने पर क्षुब्ध महसूस करूं समझ में नहीं आता. खैर, देर सबेर अपने देश-समाज में लौटना ही था. अब नहीं तो अगले दशक में लौटता....

अगले दशक में कटिया रहेगा या नहीं? कटिया न भी रहे समाज में मुफ्तखोरी और सबसिडी की जो लत लग गयी है वह क्या एक दशक में चली जायेगी? शायद नहीं।

यह तो देखना ही था।

Monday, April 16, 2007

ये अखबार की कतरनें क्यों बटोरते हैं लोग?

अखबार में हिन्दी ब्लागिंग के बारे में छप जाये तो सनसनी छा जाती है. नोटपैड एक दिन पहले बताता है कि कल कुछ छ्पने वाला है. अपनी प्रति सुरक्षित करा लें. एक और जगह से विलाप आता है कि अरे हमारे यहां तो फलां पेपर आता नहीं भैया, स्कैन कर एक पोस्ट छाप देना. जिसने अखबार देख लिया, वह दौड़ लगाता है - स्कैन कर पहले छाप देने के लिये. एक और सज्जन कहते हैं कि वे जा रहे हैं देखने कि अखबार के लोकल एडीशन में कवरेज है या नहीं.

यह अखबार-मेनिया कब जायेगा?

हिंदी अखबार, मेरे आकलन में, अपनी साख बहुत कुछ खो चुके हैं. समाज का भला करने की दशा में वे नहीं रहे. दशा क्या बदलेंगे उनके पास दिशा ही नहीं है. कोई अखबार खोल लें; कितनी ओरिजनालिटी है उनमें? ज्यादातर तो थाने की क्राइम फाइल और सरकारी प्रेस विज्ञप्तियों पर जिन्दा हैं. बाकी पी टी आई की खबर पर फोंट/फोटो बदल कर अपना लेबल चस्पां करते हैं. अखबार के मालिक बेहतर लेखन की बजाय बेहतर विज्ञापन की तलाश में रहते हैं.

चिठेरा अपने आंख-कान-दिमाग से कहीं बेहतर खबर या लेख पोस्ट कर सकता है. उसके पास अगर एक-दो मेगा पिक्सेल का कैमरा हो तो फिर कमाल हो सकता है.

हो सकता है कि आज मेरा कथन थोड़ा अटपटा लगे जब हिन्दी के चिठेरे हजार-पांच सौ भर हैं. पर यह संख्या तेजी से बढ़ेगी. ज्योमेट्रिकल नहीं एक्स्पोनेंशियल बढेगी. परसों मैने देख कि मेरा सहायक भी ब्लॉग बनाने लग गया है. चलता पुर्जा जीव है खबरों का पिटारा है. जवान है. वैसी ही सोच है. ऐसे ही लोग बढ़ेंगे.

मेरे विचार से आने वाला लेखन चिठेरों का लेखन होगा. गूगल या अन्य न्यूज-ब्लॉग समेटक (Aggregator) व्यक्तिगत रुचि के अनुसार नेट पर समाचार, एडिटोरियल और विज्ञापन परोसेंगे. फिर (अगर अखबार जिन्दा रहे तो) फलां अखबार फख्र से कहेगा कि फलां धाकड़ चिठेरे ने उसके लिये ये शुभाशीष कहे हैं.

चिठेरों भावी इतिहास तुम्हारा है!

Sunday, April 15, 2007

क्या चुनाव आयोग नव शृजन कर रहा है?

उत्तर प्रदेश में पहले दो चरणों में वोट प्रतिशत गिरा है. यह माना जा रहा है कि यह जनता की उदासीनता के कारण नहीं, बूथ कैप्चरिंग फैक्टर डिस्काउंट करने के कारण है. अगर यह स्वयम-तथ्य (Axiom) सही मान लिया जाये तो जो प्रमेय सिद्ध होता है वह है कि नव शृजन हो रहा है. बिहार में यह होते देखा गया है. वहां का सत्ता पलट जन भावनाओं की अभिव्यक्ति थी जो चुनाव के कमोबेश भय मुक्त आयोजन से सम्भव हो पाई. सामंतवादी, जातिवादी और अपराधी समीकरण वहां मुह की खा गये थे. कुछ लोग कह सकते हैं कि वहां अब भी अराजकता है. पर शृजन की प्रक्रिया मां काली के पदाघात सी नहीं होती. वह क्रांति नहीं, कली की तरह खिलती है. उत्तर प्रदेश भी उसी राह पर चल चुका है. एक हाथी नीला था; वह अचानक गणेश बन गया है. सामाजिक मंथन जैसा कुछ है यह. मंथन से कितना नवनीत निकलेगा यह देखना बाकी है.

यह भी एक स्वयम-तथ्य (Axiom) माना जा सकता है कि अधिकांश नेता चाहे वे जिस भी दल के हों धूर्त होते हैं. चुनाव के बाद वे कैसी पलटी मारेंगे; कहा नहीं जा सकता. इसमें भी सच्चाई है. घूम फिर कर वही लोग हैं पहले इस दल से थे, अब उस दल से हैं. उनमें व्यक्तिगत (और दलों में भी) क्या पक रहा है समय ही बतायेगा. पर इतना जरूर है; अगर लठैतों की वोट डालने में भूमिका कम हो गयी तो उनकी राजनीति में भी भूमिका कम होती जायेगी. उनकी भय की राजनीति से लड़ना कठिन है. यह कठिन काम चुनाव प्रक्रिया कुछ सीमा तक पूरा कर रही है. सामान्य नेताओं के शकुनि वाले खेल को तो सम्भाला जा सकता है. उसके लिये भारतीय प्रजातंत्र काफी हद तक सक्षम है।

इसके अलावा थोक वोट बैंक की राजनीति भी अपनी सीमायें जान रही है. पिछले चुनावों में थोक वोट बैंक से पार्टियों को सीटें तो मिली थीं जनता तो बन्धुआ रही, पर चुन कर आने वाले विधायक बन्धुआ नहीं रहे। वे अपने हित के आधार पर पल्टी मारते गये। थोक वोट बैंक का तिलस्म आगे आने वाले समय में और भी टूटेगा.

माफिया का राज वैसे भी कम होना तय है. देश अगर 7-10 प्र.श. की रफ्तार से तरक्की करेगा तो वह मार्केट की ताकत के बल पर करेगा. उसके लिये जरूरी है कि हत्या-अपहरण-बल प्रयोग आदि का युग समाप्त हो. जब लोगों को पता चल जायेगा कि जीविका के साधन हैं (अर्थात सब कुछ अँधेरा नहीं है); तो यह भी स्पष्ट होगा की वे आतंक की उपेक्षा कर ही मिल सकते हैं, तब आतंक से लड़ने की ताकत भी आ जायेगी लोगों में. बम्बई में यह देखा जा चुका है कि बड़े से बड़े आतंकी हमले के बाद भी शहर के सामान्य होने में ज्यादा वक्त नहीं लगता. देर-सबेर वह बिहार-उत्तर प्रदेश में भी होगा.

मैं यह ग्लास आधा भरा देखने के भाव के वशीभूत लिखा रह हूँ। जरुरत नहीं वह पूर्ण सत्य हो। पर मुझे अभी तो उत्तर प्रदेश का चुनाव आयोजन एक मौन क्रांति का हिस्सा प्रतीत होते हैं।

Saturday, April 14, 2007

विकलांगों को उचित स्थान दें समाज में

भारतीय समाज विकलांगों के प्रति निर्दय है. लंगड़ा, बहरा, अन्धा, पगला, एंचाताना ये सभी शब्द व्यक्ति की स्थिति कम उसके प्रति उपेक्षा ज्यादा दर्शाते हैं. इसलिये अगर हमारे घर में कोई विकलांग है तो हम उसे समाज की नजरों से बचा कर रखना चाहते हैं कौन उपेक्षा झेले.. या यह सोचते हैं कि उस विकलांग को प्रत्यक्ष/परोक्ष ताने मिलें; इससे अच्छा तो होगा कि उसे लोगों की वक्र दृष्टि से बचा कर रखा जाये.

पर क्या यह सोच सही है? ऐसा कर हम उस विकलांग को एक कोने में नहीं धकेल देते? उसके मन में और भी कुंठायें नहीं उपजा देते? सही उत्तर तो मनोवैज्ञानिक ही दे सकते हैं. अपने अनुभव से मुझे लगता है कि विकलांग व्यक्ति को हम जितनी सामान्यता से लेंगे उतना ही उसका भला होगा और उतना ही हम अपने व्यक्तित्व को बहुआयामी बना सकेंगे.

उत्तर-मध्य रेलवे के महाप्रबन्धक श्री बुधप्रकाश का बेटा विकलांग है. पर किसी भी सार्वजनिक अवसर पर वे उसे अपने साथ ले जाना नहीं भूलते. लड़के की विकलांगता उन्हें आत्म-दया से पीड़ित कर उनके व्यक्तित्व को कुंठित कर सकती थी. लेकिन विकलांगता को उन्होने सामान्य व्यवहार पर हावी नहीं होने दिया है. कल हमारे यहां 52 वां रेल सप्ताह मनाया गया. इस समारोह में हमारे महाप्रबन्धक ने उत्कृष्ट कार्य के लिये कर्मचारियों व मंडलों को पुरस्कार व शील्ड प्रदान किये. समारोह में जब वे मंचपर पुरस्कार वितरण कर रहे थे तब उनका बेटा व्हील चेयर पर समारोह का अवलोकन कर रहा था. समारोह के बाद व्हील चेयर पर बाहर जाते समय कुछ अधिक समय लगा होगा - बाहर जाने की जल्दी वाले लोगों को कुछ रुकना पड़ा होगा. पर वह सब एक व्यक्ति को सामान्य महसूस कराने के लिये बहुत छोटी कीमत है.

जरूरी है कि हम किसी को लंगड़ा, बहरा, अन्धा, पगला, एंचाताना जैसे सम्बोधन देने से पहले सोचें और उस व्यक्ति में जो सरल-सहज है, उसे सम्बोधित करें उसकी विकलांगता को नही.

आप अपने आस-पास के विकलांगों को देखें उनकी क्या स्थिति है?

Friday, April 13, 2007

कोंहड़ौरी (वड़ी) बनाने का अनुष्ठान – एक उत्सव

जीवन एक उत्सव है. जीवन में छोटे से छोटा अनुष्ठान इस प्रकार से किया जाए कि उसमें रस आये यह हमारे समाज की जीवन शैली रही है. इसका उदाहरण मुझे मेरी मां द्वारा वड़ी बनाने की क्रिया में मिला।

मैने अपनी मां को कहा कि वो गर्मी के मौसम में, जब सब्जियों की आमद कम हो जाती है, खाने के लिये वड़ियां बना कर रख लें. मां ने उड़द और मूंग की वड़ियां बनाईं. शाम को जब वे सूखी वडियां कपडे से छुड़ा कर अलग कर रहीं थीं तब मैं उनके पास बैठ कर उनके काम में हाथ बटाने लगा. चर्चा होने लगी कि गांव में उडद और कोहंड़े (कद्दू) की वड़ी कैसे बनाई जाती थी।
मेरी माँ द्वारा बनाईं वडियां

मां ने बताया कि कोंहड़ौरी (कोंहड़े व उड़द की वड़ी) को बहुत शुभ माना गया है. इसके बनाने के लिये समय का निर्धारण पण्डित किया करते थे. पंचक न हो; भरणी-भद्रा नक्षत्र न हो यह देख कर दिन तय होता था. उड़द की दाल एक दिन पहले पीस कर उसका खमीरीकरण किया जाता था. पेठे वाला (रेक्सहवा) कोहड़ा कोई आदमी काट कर औरतों को देता था. औरतें स्वयं वह नहीं काटती थीं. शायद कोंहड़े को काटने में बलि देने का भाव हो जिसे औरतें न करतीं हों. पड़ोस की स्त्रियों को कोहंड़ौरी बनाने के लिये आमंत्रित किया जाता था. चारपाई के चारों ओर वे बैठतीं थीं. चारपाई पर कपड़ा बिछाकर, उसपर कोंहड़ौरी खोंटती (घोल टपकाकर वडी बनाती) थीं. इस खोंटने की क्रिया के दौरान सोहर (जन्म के अवसर पर गाया जाने वाला मंगल गीत) गाती रहतीं थीं.

सबसे पहले सात सुन्दर वड़ियां खोंटी जाती थीं. यह काम घर की बड़ी स्त्री करती थी. उन सात वड़ियों को सिन्दूर से सजाया जाता था. सूखने पर ये सात वड़ियां घर के कोने में आदर से रख दी जातीं थीं. अर्थ यह था कि जितनी सुन्दर कोंहड़ौरी है, वैसी ही सुन्दर सुशील बहू घर में आये.

कोंहड़ौरी शुभ मानी जाती थी. लड़की की विदाई में अन्य सामान के साथ कोंहड़ौरी भी दी जाती थी.

कितना रस था जीवन में! अब जब महीने की लिस्ट में वडियां जोड़ कर किराने की दुकान से पालीथीन के पैकेट में खरीद लाते हैं, तो हमें वड़ियां तो मिल जाती हैं पर ये रस तो कल्पना में भी नहीं मिलते.

Thursday, April 12, 2007

नमामि देवि नर्मदे - गंगा किनारे नर्मदा की याद

मैंने अपने जीवन का बहुमूल्य भाग नर्मदा के सानिध्य में व्यतीत किया है। रतलाम मे रहते हुये ओँकारेश्वर रोड स्टेशन से अनेक बार गुजरा हूँ। पर्वों पर ओंकारेश्वर के लिए विशेष रेल गाडियां चलाना और ओंकारेश्वर रोड स्टेशन पर सुविधाएं देखना मेरे कार्य क्षेत्र में आता था। नर्मदा की पतली धारा और वर्षा में उफनती नर्मदा - दोनो के दर्शन किये हैं। यहाँ नर्मदा के उफान को देख कर अंदाज लगा जाता था की ३६ घन्टे बाद भरूच में नर्मदा कितने उफान पर होंगी और बम्बई-वड़ोदरा रेल मार्ग अवरुद्ध होने की संभावना बनती है या नहीं।
रतलाम में अखबारों में नर्मदा का जिक्र किसी किसी रुप में होता ही रहता थाबाँध और डूब का मुद्दा, पर्यावरण के परिवर्तन, नर्मदा के किनारे यदा कदा मगरमच्छ का मिलना - यह सब रोज मर्रा की जिंदगी की खबरें थीएक बार तो हमारे रेल पुल पर काम करने वाले कुछ कर्मचारी नर्मदा की रेती पर सोये थे, रात में पानी बढ़ा और सवेरे उन्होंने अपने को चारों ओर पानी से घिरे एक टापू में पायाउनका कुछ नुकसान नहीं हुआ पर उस दिन की हमारी अनयूजुअल पोजीशन में एक रोचक एंट्री के रुप में यह घटना छपी
(वेगड जी का नर्मदा तट का एक रेखाचित्र जो उनकी पुस्तक में है)
नर्मदा माई को दिल से जोड़ने का काम किया अमृतलाल वेगड जी की किताब - "सौन्दर्य की नदी नर्मदा"* नें. यह पुस्तक बहुत सस्ती थी - केवल ३० रुपये में। पर यह मेरे घर में बहुमूल्य पुस्तकों में से एक मानी जाती है। इसके कुछ पन्ने मैं यदा-कदा अपनी मानसिक उर्वरता बनाए रखने के लिए पढ़ता रहता हूँ। पुस्तक में वेगड जी की लेखनी नर्मदा की धारा की तरह - संगीतमय बहती है। और साथ में उनके रेखाचित्र भी हैं - पुस्तक को और भी जीवन्तता प्रदान करते हुये।
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* मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, भोपाल द्वारा प्रकाशित

Tuesday, April 10, 2007

किस्सा पांडे सीताराम सूबेदार और मधुकर उपाध्याय - पुन: पोस्ट


बहुत पहले जब बीबीसी सुना करता था, मधुकर उपाध्याय अत्यंत प्रिय आवाज हुआ करती थी. फिर उनकी किताब किस्सा पांडे सीताराम सूबेदार की समीक्षा वर्ष २००० मे रतलाम में पढी। समीक्षा इतनी रोचक लगी कि वह पुस्तक दिल्ली से फ्रंटियर मेल के कंडक्टर से मंगवाई।

पहले बात मधुकर जी की कर ली जाये। मधुकर जी से मैं व्यक्तिगत रुप से जान-पहचान नहीं रखता हूँ। उनको बीबीसी पर सुनता था,वही परिचय है। उनकी आवाज अत्यन्त मधुर है। बीबीसी सुनना बंद हो गया तो उनसे भी कट गया। उनके बीबीसी पर भारतीय स्वातंत्र्य के १५० वर्ष होने पर धारावाहिक शृंखला में बोलने और उनकी दांडी यात्रा पुन: करने के विषय में काफी सामग्री मैंने अखबार से काट कर रखी थी, जो अब इधर- उधर हो गयी है। वर्ष २००३-०४ मे उन्हें टीवी चैनल पर समाचार पत्रों की समीक्षा में कई बार देखा था। उनके व्यक्तित्व में ओढ़ी दार्शनिकता या छद्म-बौद्धिकता के दर्शन नही हुये, जो आम पढ़े-लिखे (और सफ़ल?) भारतीय का चरित्र है। फिर पता चला कि मधुकर लोकमत समाचार के ग्रुप एडीटर हो गए हैं। अभी व्हिस्पर न्यूज़ में था कि वहाँ से त्यागपत्र दे दिया है। पता नही सच है या नही। अखबारों में जो बाजार हथियाने की स्पर्द्धा चला रही है, वहा निश्चय ही तनाव देने वाली रही होगी। खैर, पुस्तक पर छपे के अनुसार वे मेरे समवयस्क होंगे। अगर ईश्वर अपना मित्र चुनने की आजादी देते हों तो मैं मधुकर उपाध्याय को चुनना चाहूँगा।
किस्सा पांडे सीताराम सूबेदार (१७९७-१८८०) कम्पनी और फिर अंग्रेज सेना के एक सिपाही की आत्म कथा है जो सूबेदार बन कर पेंशन याफ्ता हुये। सीताराम अवध के थे और उन्होने अपनी आत्म कथा अवधी में वर्ष १८६०-१८६१ मे लिखी। इसका कालांतर में जेम्स नोर्गत ने अगेजी मे अनुवाद किया। यह पुस्तक अत्यंत महत्वपूर्ण है - अंग्रेजों के शासन काल में ब्रिटिश सेना की नौकरी के इच्छुक लोगों के लिए यह अनिवार्य था कि वे यह पुस्तक पढ कर परीक्षा पास करें।
सीताराम पांडे वास्तव में थे और उन्होंने यह पुस्तक अवधी में लिखी थी, यह मधुकर जी की पुस्तक की प्रस्तावना से स्पष्ट हो जाता है। सन १९१५ में सर गिरिजाशंकर वाजपेयी ने अपने सिविल सेवा के इन्टरव्यू में यह कहा था कि सीताराम पांडे ने यह किताब उनके दादा को दी थी और उन्होने यह किताब पढी है। पर उसके बाद यह पाण्डुलिपि गायब हो गयी और मधुकर जी काफी यत्न कर के भी उसे ढूढ़ नहीं पाये। तब उन्होने इस पुस्तक को अवधी मे पुन: रचने का कार्य किया। मेरे जैसे अवधी से कट गए व्यक्ति को अपनी जड़ों से जोड़ने में इस पुस्तक की बड़ी भूमिका है. मैं मधुकर जी की प्रस्तावना से अन्तिम वाक्यांश उधृत करना चाहूँगा - '...लाभ उन लोगों को भी हो सकता है जो इस क्षेत्र के तो हैं पर अपनी बोली से कट गए हैं। उम्मीद है कि यह किताब आपको पसंद आयेगी।'
पुस्तक के आभार पृष्ठ से:
"सीताराम सूबेदार" की कहानी मेरे लिए एक सपने की तरह थी जिसे लेकर मैं कई साल जिया।....." - मधुकर उपाध्याय  
किस्सा पांडे मुझे यह भी अहसास कराती है कि सोच-समझ या उत्कृष्टता पढे-लिखे बुद्धिजीवियों कि बपौती नहीं है। मेरे गांव के छोटे किसान अवधबिहारी तिवारी जब यह कहते हैं 'भइया खेत-जमीन के लग्गे खड़ा होए पर जमीन खुदै फ़सल क हाल कहथ'; तब मुझे सीताराम पांडे जैसे चरित्र कि याद हो आती है. इस किताब में इसी तरह के विचार हैं जो सीतारामजी ने बिना लागलपेट के लिखे हैं।
किस्सा पांडे का किस्सा शुरू होता है गांव से पांडे के पैदल आगरा जा कर सिपाही के रूप में भारती होने से। रस्ते में ठगी प्रथा से रूबरू होने का चित्रण भी है। पुस्तक में सीताराम पांडे की सात बड़ी लड़ाइयां और छः बार गम्भीर घायल होना भी है। ग़दर में उनके अपने बेटे के बाग़ी के रुप में पकडे जाने और उसको गोली मरने के लिए पांडेजी को ही आदेशित होने का प्रसंग भी है। ग़दर क्यों हुआ - इसपर पांडेजी के विचार भी है। मैं पुस्तक के छोटे-छोटे अंश आपके समक्ष रखता हूं।
ठगी का प्रसंग:
....रात मा जब हमरे सब रुकेन तौ हमैं इहै सोचि-सोचि कै बहुत देर तक नींद नहीं आ‌ई कि ई सब ठग हैं! हम जागै कै पूरी कोसिस किहेन लेकिन थोडी देर बाद सो‌इ गयन! कुछै देर बीता कि हमार आंख मुर्गा के बांग अस आवाज से खुलि गय! हम उठि के बैठ गयन तो देखेन कि मजदूरन मा से एक-दु‌इ मन‌ई हमरे लोगन के लगे हैं जे सोवत रहे! हम बहुत जोर से चिल्लायन और हमरे मामा तुरंतै तलवार ल‌इ कै उनकी ओर लपके! ई सब पलक झपकत भय लेकिन तब तक ठग देवनारायन के भा‌ई कै रेसम कै रस्सी से गट‌ई घोंटि चुका रहे और तिलकधारी का बेहोश क‌ई दिहे रहे! मामा तिलकधारी के उपर खडे ठग का काट डारिन और तिलकधारी कै जान बचि गय! यतनी देर मा ठग हमरे मामा कै सोना वाली जंजीर चोरा‌इ लिहिन जेकर दाम अढा‌ई सौ रुपया रहा और तिलकधारी कै तमंचा लै उडै! वहि समय पहरा देय कै जिम्मेदारी तिलकधारी कै रही लेकिन वै सो‌इ गय रहे! ....
बेटे को गोली मरने का प्रसंग:
.....एक दिन लखन‌ऊ के लगे एक घरे मा कयू जने पकरि लिहा ग‌ए! वै सब सिपाही रहे! ओन्हैं पकरि कै, बान्हि कै हमरे रेजीमंट कै कमांडर के आगे पेस किहा गय और अगले रोज सबेरे आडर भय कि सबका गोली मारि दिही जाय! वहि समय फैरिंग पारटी हमरे जिम्मे रही! हम सिपहियन से ओनके नावं और रेजीमंट पूछेन! पांच-छह जने के बाद एक सिपाही वहि रेजीमंट कै नांव लिहिस जेहमा हमार बेटवा रहा! हम ओसे पुछेन कि का ऊ लैट कंपनी कै अनंती राम का जानत है औ उ कहिस कि ई वही कै नांव है! अनंती राम बहुत जने कै नांव होत है यहि मारे हम पहिले ज्यादा ध्यान नहिं दिहेन! दुसरे, हम पहिलेन मानि चुका रहेन कि हमार बेट‌उवा सिंध मा बुखार से मरि गय एहसे बात हमैं नहीं खटकी लेकिन जब ऊ कहिस कि ओकर गांव तिलो‌ई है तौ हमार करेजा हक्क से हो‌इ गय! का ऊ हमरै बेटवा रहा? यहि मा कौनौ सक नही रहि गय जब ऊ हमार नांव ल‌इकै कहिस कि वै हमरे बाबू आंय! फिर ऊ हमसे माफी मांगत हमरे गोडे पै गिरि परा! ऊ अपने रेजीमंट के बाकी सिपहियन के साथे गदर मा चला गय रहा और लखन‌ऊ आ‌इ गय रहा! एक दायं जौन होय क रहा, हो‌इ गय; ओकरे बद ऊ का करत? अगर ऊ भगहूं चाहत तौ कहां जात?

ओन्हैं सब का संझा कै चार बजे गोली मारि जाय का रही औ अपने बेटवा का गोली मारै का काम हमहीं का करे का रहा! ई है किस्मत?......

(खैर, पांडेजी को गोली नहीं मारनी पड़ी। औरों की लाशें जंगल में फैक दी गईं पर वे अपने लडके का दाह संस्कार कर पाये। वे अपने लडके से नाराज जरूर थे पर यह भी था कि बाग़ी होने पर भी उसे बेटा मान रहे थे।)
ग़दर के कारण पर विचार:
.....गदर कै आग मुसलमान लगा‌इन और हिंदू भेडी यस ओनके पीछे-पीछे नदी मा चला ग‌ए! बगावत कै असल कारन ई रहा कि सिपहिन का ताकत कै नसा हो‌इ गय रहा और अफसरन के लगे ओन्हैं रोकै कै ताकत नहीं रही! एसे सिपाही ई समझि लिहिन कि सरकार ओनसे डेरात है जबकि सरकार ओनपै भरोसा करत रही, यहि मारे कुछ नही कहत रही! लेकिन केहु के बेटवा बागी हो‌इ जाय तौ ओहका घरे से नहीं निकारि दीन जात! हमैं लागत है कि यहि गदर के लि‌ए बागी बेटवा का जौन सजा मिली है ओकर असर बहुत दिन तक रही। .....
भ्रष्टाचार पर विचार:
.....बरतानी अफसर ई सुनिकै बहुत गुस्सा हो‌इ जात हैं कि केहू घूस दिहिस है! ओसे पूछा जात है ऊ घूस काहे दिहिस! ओका सायद नहीँ पता होत कि ऊ मन‌ई इहै सोचि कै घूस देत है कि घूस कै कुछ पैसा साहब के लगे जात है! यही मारे ऊ साहब से कुछ कहत नही काहे कि चपरासी से ल‌इकै किलरक तक सब ओसे इहै कहत हैं कि प‌इसा सहबौ क गय है! हम यस कौनो दफ़्तर के बारे मा नहीं सुनेन जहां किलरक ई न कहत होंय कि साहब घूस लेत हैं! वै चाहत हैं कि घूसखोरी चला करै काहे कि ओनकै तौ जिन्नगी यही से चलत है! हमरे गांव कै पटवारी एक रोज हमसे कहिस कि हमरै गलती रही हो‌ई जौन हम्मैं तरक्की नहीं मिली या यतनी देर से मिली!......

व‌इसे बिलैती और हिंदुस्तानी सिपहियन मा ई खुब चलत है और घूस के मामला मा ओनमा कौनो फरक नहीं है! हम जानित है कि साहब लोग घूस नहीं लेते लेकिन हमसे ज्यादा पढा-लिखा कयू मन‌ई दावा से कहत हैं कि साहब लोग घूस लेत हैं! जब वै खुदै इहै काम करत हैं तौ और काव कहिहैं?.....

(क्या सीताराम पांडे आज की बात नहीं कर रहे? डेढ़ सदी बीत गयी पर भ्रष्ट आदमी का चरित्र नहीं बदला!)

Sunday, April 8, 2007

निजी सम्पत्ति - नन्दीग्राम - साम्यवाद - कार्पोरेट कल्चर

टाइटल में चार समूहों में शब्द हैं। ये चारों एक दूसरे से जुडे हैं। नन्दीग्राम का बवाल निजी सम्पत्ति को सरकार द्वारा कब्जा कर लेने के यत्न से उपजी किसानों की कुंठा का हिंसात्मक प्रदर्शन है। साम्यवाद निजी सम्पत्ति को अहमियत नहीं देता है। यह अलग बात है की चीन की संसद ने पिछले महीने यह तय किया है कि निजी सम्पत्ति को वैधानिक दर्जा दिया जाये और निजी सम्पत्ति सार्वजनिक सम्पत्ति के समतुल्य मानी जाये। यह कानून अक्तूबर से लागू होगा। इससे साम्यवादी अवधारणा, वस्तुत:, ध्वस्त हो जाती है। निजी सम्पत्ति का विचार 'वेल्थ क्रियेशन' की मूल अवधारणा है। अगर साम्यवादी सरकार बंगाल में किसानो और उद्योगपतियों को आपस में सौदा कराने देती और केवल फेसिलिटेटर का रोल अदा करती तो बवाल नहीं होता।

कई लोग साम्यवाद/समाजवाद बनाम कारपोरेट कल्चर की बहस छेड़े बैठे हैं। ये लोग बहुत पढे-लिखे है और बौद्धिकता के प्रसंग मे बहुत नेम-ड्रापिन्ग करते हैं। पर विद्वानों के नाम और कोटेशन भर से कुछ सिद्ध नहीं होता। वाहवाही भले मिल जाती हो। बावजूद इसके कि भारत में गरीबी हटाने के नारों पर कई चुनाव जीते गए है; उन नारों से समृद्धि नहीं बढ़ी। नारा देने वाले जरुर सम्पन्न हो गए। एक नुकसान यह हुआ की गरीब-किसान को सब्सिडी की बैसाखी थमा देने से वह पंगु हो गया। किसान को कर्ज दते समय; कर्ज वापस करना है - की अनिवार्यता नहीं समझाई जाती। जब कर्जा पटाने की बारी आती है तो आत्म हत्या के विकल्प के अलावा तैयारी नहीं होती। हो सकता है मेरा यह तर्क अति सरलीकृत हो - पर यह अंशत: सच तो है ही। उद्यम करने से से नहीं, समृद्धि के बंटवारे से खुशहाली आएगी - यह समाजवादी सोच अपनी मौत स्वयं बुलाने का उपक्रम है कार्पोरेट कल्चर समृद्धि बढ़ाने को प्रतिबद्ध होती है। वह यह भी मान कर चलती है की समृद्धि बढने की संभावनाएं अनंत हैं।

मैं यह भी महसूस करता हूँ की कार्पोरेट कल्चर में भारत की परिस्थितियों के अनुसार नए प्रयोग होने चाहियें। हमारी संस्कृति की रिचनेस को देखते हुये बहुत संभावनाएं है। भारत में पारिवारिक कार्पोरेशन बहुत हैं। इनके लाभ भी है व नुकसान भी। इसपर बहस होनी चाहिये। कार्पोरेट कल्चर इस तरह की हो की मध्य वर्ग को बेहतर पनपने का मौका मिले और दलित मध्य वर्ग को (आरक्षण व सरकार की बैसाखी से नहीं, वरन एक सकारात्मक सोच से) नया जोश मिल पाये। मजदूरों की मध्य वर्ग में वर्टिकल एंट्री और तेज हो। पारदर्शिता के नए आयाम खुल पायें। भगवद्गीता और अन्य भारतीय ग्रंथों में प्रबंधन के अनेक तरीके हैं जो हमारी संस्कृति के ज्यादा अनुकूल हैं। उनपर कर्पोरेशनों में और प्रबंधन के संस्थानों मे नयी दृष्टि पड़नी चाहिये.

आगे होगा यही - लोग कार्पोरेट कल्चर से समृद्धि पाएंगे और बौद्धिक मनोविनोद के लिए (या अपने को बुद्धिजीवी प्रमाणित करने के लिए) गरीबी/साम्यवाद/समाजवाद से सम्बद्ध मुद्दों पर भागीदारी करेंगे। ऐसा करने वाले वे अकेले नहीं है। बहुत लोग समग्र रुप से यह आज कर भी रहे हैं।

Friday, April 6, 2007

गंगा एक्शन प्लान के कर्मी


मैं आपका परिचय गंगा एक्शन प्लान के कर्मियों से कराता हूँ। कृपया चित्र देखें। ये चित्र शिव कुटी, इलाहबाद के हैं और गंगा नदी से आधा मील की दूरी पर लिए गए हैं। इस चित्र में जो सूअर हैं वे पास के मकान से नाली में गिराने वाले मैले की प्रतीक्षा करते हैं। जैसे ही पानी का रेला आता है ये टूट पड़ते हैं और आनन फानन में टट्टी खा कर शेष पानी जाने देते हैं। पानी उसके बाद सीधे गंगा नदी में जाता है।
ये सूअर गंगा एक्शन प्लान के कर्मी हैं। गंगा एक्शन प्लान ने इन कर्मियों को कोई तनख्वाह नहीं दी है। फिर भी ये अपना काम मुस्तैदी से करते हैं।
शिव कुटी में सीवेज डिस्पोजल सिस्टम नहीं है। नगर पालिका कुछ कारवाई नहीं करती।
मकान एक के ऊपर एक बने हैं कि सेप्टिक टेंक बनाने की जगहें ही नही हैं लोगों के पास।
जय गंगे भागीरथी पाप ना आवे एकौ रत्ती.

Thursday, April 5, 2007

एक चिठ्ठा गूगल को चुनौती के लिए चाहिए

बिजनेस वीक में "Is Google Too Powerful?" के नाम से बड़ा रोचक लेख है। मैं तर्जुमा करने की स्थिति में अभी नहीं हूं। सो कृपया आप सीधा सोर्स से पढें।

लेख का मतलब यह है कि गूगल्जान (Google+Amazon) 2014 तक इतना पावरफुल हो जाएगा कि दुनिया के आनलाइन नालेज बैंक (फुटकर लोगों की खबर, मनोरंजन, ब्लोग आदि) के इपिक (Evolving Personalized Information Construct) संस्करण से हर एक को मन माफिक माल परोस कर पारम्परिक मीडिया को चौपट कर देगा।

अब यह भी कोई बात हुई - अमेरिकी जाएंट सबको सरपोट जाये? एक चिठ्ठा गूगल को चुनौती के लिए जरूर चाहिए।

बिजनेस
वीक पर पोस्ट किये दो रियेक्शन पढें:

Nickname:
Juhi
Review: They must allow readers to PULL content by letting them participate in content choice, generatiFor newspapers/mags to compete with Google, editors must stop unilaterally deciding what readers should read and PUSHING content to them.on, feedback etc.
Date reviewed: Apr 4, 2007 8:05 AM

Nickname:
journalism junkie
Review: The catch is that nearly all professional news collecting and reporting rests on an advertising model, even NPRs sponsor announcements are ads. Google takes the ad revenue away that supports journalism. What happens to democracy when there's no one around to file FOI requests or check out what's happening at Walter Reed Hospital? We should all worry about this.
Date reviewed: Apr 4, 2007 1:14 AM

Tuesday, April 3, 2007

नारद और हिंदी के हर मर्ज की दवा

मैं अपने एक इंस्पेक्टर को कहा रहा था कि कहीं से दिनकर की उर्वशी खरीद लायें। मेरी प्रति खो गयी है।

मेरे एक गाडी नियंत्रक पास में खडे थे। बोले - साहब आपने पिछली बार दिल्ली भेजा था तो कुछ लोग वहां बात कर रहे थे कि आपकी हिंदी के बारे में अगर कोई प्राबलम हो तो एक साईट इण्टरनेट पर खुली है। नारद के नाम से। कोई कनाडे और दुबई वाले ने मिल कर खोली है। आप तो इन्टरनेट देखते रहते हैं, उनसे नारद पर सहायता ले सकते हैं।

मैं देखता रह गया । नारद की ख्याति फैल रही है। पर किसा रुप में!