Wednesday, April 18, 2007

कंटिया भाग दो: कंटिये में तो हम ही फंस गये हैं.

कल की पोस्ट पर एक दूसरे मिसिर जी ने जो गुगली फैंकी; उससे लगता है कि कंटिये में हम खुद फंस गये हैं. छोटे भाई शिव कुमार मिश्र ने जो रोमनागरी में टिप्पणी दी है पहले मैं उसे देवनागरी में प्रस्तुत कर दूं:

सिस्टम भ्रष्ट है...

और तब तक रहेगा जब तक मिसिराइन अपने को सिस्टम का हिस्सा नहीं मानतीं.... पूरी समस्या यहीं से शुरू होती है कि तथाकथित समाज खुद को सिस्टम का हिस्सा नहीं मानता. हमारे लिये सिस्टम में नेता, सरकारी अफसर, पुलीसवाले और कानून वाले ही हैं... बड़ा आसान है सिस्टम को गाली देना.

सरकारी अफसर अगर घूसखोरी में लिप्त न रहे तो उसके घर वाले उसे कोसते हैं. अगर अपने किसी रिश्तेदार को (जो निकम्मा है) सिफारिश कर के नौकरी न लगवा दे तो कोई उस अफसर से बात नहीं करता. रिश्तेदार यही कहते मिलेंगे कि कुछ नहीं है इस अफसर में आज तक किसी का भला नहीं किया.

भ्रष्टाचार के सबके अपने-अपने खण्ड-द्वीप हैं, और सब अपने द्वीप पर सुख से रहना चाहते हैं...

भ्रष्ट कहने को उंगली जब हम किसी की तरफ उठाते हैं तो पंजे की तीन उंगलियां हमारी तरफ फेस करती हैं. हमारी पिछली पोस्ट की मिसिराइन सिस्टम का अंग हैं इसमें मुझे शक नहीं है. आम आदमी (अगर कोई आम आदमी है तो) जब अपनी सुविधा चाहता है तो भ्रष्टाचार पर चिंतन नहीं करता. जब वह भ्रष्टाचार पर चिंतन करता है तो उसे नेता, सरकारी अफसर, पुलीसवाले और कानून वाले जो भी उससे अलग हैं; ही नजर आते हैं.

पर छोटे भाई शिव कुमार मिश्र ने सरकारी अफसर के घूस खोर न होने की दशा वाली जो बात कही है, उसने मुझे सोचने पर बाध्य किया है. अगर हम (सरकरी अफसर) भ्रष्ट हैं तो फिर कुछ कहने को बचता ही नहीं. पर अगर नहीं हैं; तो चार चीजें हैं

  1. हम चुगद हैं. ईमानदारी के प्रतिमान बुन कर उसमें कैकून की तरह फंसे हैं.
  2. हम लल्लू हैं. भ्रष्ट होने को भी कलेजा और कला चाहिये. ईमानदार हैं तो इसलिये कि कायर हैं.
  3. हम आदर्शवादी शहीद हैं. अपने चुनाव से भ्रष्टता को नहीं अपनाते. फिर भी उसमें अपने को अलग दिखाने का भाव तो होता है. मेरी कमीज दूसरे से सफेद है यह अहसास हमेशा पाले रहना चाहते हैं.
  4. हम जो हैं, सो हैं. दुनियां में हमारे लिये भी स्पेस है. अपनी तृष्णाओं पर हल्की सी लगाम लगा कर जिन्दगी मजे से काट जायेंगे.

अब काफी समय तक अपने बारे में चिंतन चलेगा. कटिये में फंसे रहेंगे. पत्नी को भी परेशान करते रहेंगे; पूछ-पूछ कर कि हम चुगद हैं, लल्लू हैं, शहीद हैं या जो हैं सो हैं. मजे की बात है कि प्राइमा फेसी, पत्नी जी हमें ये चारों बता रही हैं.

अपने खण्ड द्वीप पर मजे में रहने में भी बाधक है यह सोच.

1 comment:

  1. दूसरों का पता नहीं हुज़ूर! हम तो अपने को चतुर्थ श्रेणी ( pun included ) का मानते हैं.

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय