Sunday, April 8, 2007

निजी सम्पत्ति - नन्दीग्राम - साम्यवाद - कार्पोरेट कल्चर

टाइटल में चार समूहों में शब्द हैं। ये चारों एक दूसरे से जुडे हैं। नन्दीग्राम का बवाल निजी सम्पत्ति को सरकार द्वारा कब्जा कर लेने के यत्न से उपजी किसानों की कुंठा का हिंसात्मक प्रदर्शन है। साम्यवाद निजी सम्पत्ति को अहमियत नहीं देता है। यह अलग बात है की चीन की संसद ने पिछले महीने यह तय किया है कि निजी सम्पत्ति को वैधानिक दर्जा दिया जाये और निजी सम्पत्ति सार्वजनिक सम्पत्ति के समतुल्य मानी जाये। यह कानून अक्तूबर से लागू होगा। इससे साम्यवादी अवधारणा, वस्तुत:, ध्वस्त हो जाती है। निजी सम्पत्ति का विचार 'वेल्थ क्रियेशन' की मूल अवधारणा है। अगर साम्यवादी सरकार बंगाल में किसानो और उद्योगपतियों को आपस में सौदा कराने देती और केवल फेसिलिटेटर का रोल अदा करती तो बवाल नहीं होता।

कई लोग साम्यवाद/समाजवाद बनाम कारपोरेट कल्चर की बहस छेड़े बैठे हैं। ये लोग बहुत पढे-लिखे है और बौद्धिकता के प्रसंग मे बहुत नेम-ड्रापिन्ग करते हैं। पर विद्वानों के नाम और कोटेशन भर से कुछ सिद्ध नहीं होता। वाहवाही भले मिल जाती हो। बावजूद इसके कि भारत में गरीबी हटाने के नारों पर कई चुनाव जीते गए है; उन नारों से समृद्धि नहीं बढ़ी। नारा देने वाले जरुर सम्पन्न हो गए। एक नुकसान यह हुआ की गरीब-किसान को सब्सिडी की बैसाखी थमा देने से वह पंगु हो गया। किसान को कर्ज दते समय; कर्ज वापस करना है - की अनिवार्यता नहीं समझाई जाती। जब कर्जा पटाने की बारी आती है तो आत्म हत्या के विकल्प के अलावा तैयारी नहीं होती। हो सकता है मेरा यह तर्क अति सरलीकृत हो - पर यह अंशत: सच तो है ही। उद्यम करने से से नहीं, समृद्धि के बंटवारे से खुशहाली आएगी - यह समाजवादी सोच अपनी मौत स्वयं बुलाने का उपक्रम है कार्पोरेट कल्चर समृद्धि बढ़ाने को प्रतिबद्ध होती है। वह यह भी मान कर चलती है की समृद्धि बढने की संभावनाएं अनंत हैं।

मैं यह भी महसूस करता हूँ की कार्पोरेट कल्चर में भारत की परिस्थितियों के अनुसार नए प्रयोग होने चाहियें। हमारी संस्कृति की रिचनेस को देखते हुये बहुत संभावनाएं है। भारत में पारिवारिक कार्पोरेशन बहुत हैं। इनके लाभ भी है व नुकसान भी। इसपर बहस होनी चाहिये। कार्पोरेट कल्चर इस तरह की हो की मध्य वर्ग को बेहतर पनपने का मौका मिले और दलित मध्य वर्ग को (आरक्षण व सरकार की बैसाखी से नहीं, वरन एक सकारात्मक सोच से) नया जोश मिल पाये। मजदूरों की मध्य वर्ग में वर्टिकल एंट्री और तेज हो। पारदर्शिता के नए आयाम खुल पायें। भगवद्गीता और अन्य भारतीय ग्रंथों में प्रबंधन के अनेक तरीके हैं जो हमारी संस्कृति के ज्यादा अनुकूल हैं। उनपर कर्पोरेशनों में और प्रबंधन के संस्थानों मे नयी दृष्टि पड़नी चाहिये.

आगे होगा यही - लोग कार्पोरेट कल्चर से समृद्धि पाएंगे और बौद्धिक मनोविनोद के लिए (या अपने को बुद्धिजीवी प्रमाणित करने के लिए) गरीबी/साम्यवाद/समाजवाद से सम्बद्ध मुद्दों पर भागीदारी करेंगे। ऐसा करने वाले वे अकेले नहीं है। बहुत लोग समग्र रुप से यह आज कर भी रहे हैं।

5 comments:

  1. ज्ञानदत्त जी

    सही लिखा है, निजी सम्पत्ति का अधिकार यूरोप में 17वीं सदी जॉन लॉके के Two Treatises of Government नामक पेपर के बाद प्रचलन में आया सही मायनों में केप्टलिज़म यहीं से शुरु होता है।

    पंकज

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  2. 'Bauddhik manovinod' ka ye vyaapar hamesha se chalta raha hai.Aur aage bi chalta rahega.

    Bada aasaan hota hai gareebi/samajvaad/samyavaad ki dukaan chalaana.Graahak bane rahte hain.Vyaapari ka kaarobaar barhta rahta hai.

    Marketing ke liye koi khaas koshish ki zaroorat nahin rahti.

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  3. ज्ञान जी,
    जिस देश में करोड़ों का कर्ज़ डकार कर धनवान उद्योगपति न्यायालयों की कृपा से मूछों पर ताव देकर बेशर्मी से घूमते रहते हैं वहां महज़ कुछ हज़ार के कर्ज़ के लिये किसानों द्वारा आत्महत्या करना अलग कहानी की ओर इंगित करता है जिसे शायद आपके फ़ंडे से नहीं समझा जा सकता .

    वरना उसका एक सरल उपचार तो यही है कि उसे यह समझा दीजिए कि वह आत्म-सम्मान को खूंटी पर टांग दे और थोड़ी सी बेशर्मी ओढ़ ले तो सरकार क्या सरकार का बाप भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा .

    पर दिक्कत यह है कि किसान जुड़ा है अपनी ज़मीन से और अपने ज़मीर से . जब वह इस कदर मज़बूर होता है कि उसे कोई और विकल्प नहीं दिखाई देता . वह मौत को गले लगा लेता है . वादाखिलाफ़ी उसकी फ़ितरत में नहीं है. वह जान दे सकता है मान नहीं .

    सबसे बड़ा दुख यह है कि देश का मध्य वर्ग और उच्च-मध्य वर्ग उसकी इस मज़बूरी -- उसके इस बलिदान -- को न समझ कर कॉरपोरेट की तर्ज़ पर निदान सुझाता है . दुख हुआ आपकी यह पोस्ट पढ़ कर . आपने इसे बहुत अज़ब तरह से 'इन्टरप्रेट' किया है .

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  4. प्रियंकर जी, मैं किसान के स्वाभिमान को, जमीन व जमीर से जुड़े होने को चुनौती नहीं दे रहा. मैं आर्थिक अनिवार्यताओं और आवश्यकताओं की बात कर रहा हूं. किसान को भी अगर अपनी आर्थिक दशा सुधारनी है तो निजी सम्पत्ति और पैसे की समझ पानी होगी. और जमीन तथा जमीर से जुडा़ होना उसके आडे़ नहीं आता.
    अभी तो जैसा मेरे किसान मामा कहते हैं - मन्त्री से लेकर सन्त्री तक किसान को चूसते हैं. धन की समझ इस शोषण से मुक्ति दिलायेगी.
    खैर, शायद हम दोनों एक दूसरे को न समझा पायें... पर परस्पर एक दूसरे की कद्र तो कर ही सकते हैं.

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  5. आपकी मधुकर उपाध्याय वाली पोस्ट पर टिप्पणी करना चाहता था, पर वहाँ टिप्पणी करने का लिन्क नही मिला, शायद आपने हटा दिया है..

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय