Wednesday, October 31, 2007

मेरा ब्लॉग लेखन-पठन का विवरण


मेरे ब्लॉग लेखन की पठनीयता के आंकड़े स्टैट काउण्ट के विवरण से स्पष्ट होते हैं। वह लगभग 8 महीने के आंकड़े एक ग्राफ में उपलब्ध करा दे रहा है। आप जरा पेज लोड और विजिटर्स के आकड़ों के ग्राफ का अवलोकन करें:

Stat1'ज्ञानदत्त पाण्डेय की मानसिक हलचल' का स्टैट-काउण्टर ग्राफ

उक्त ग्राफ से स्पष्ट है कि मेरी रीडरशिप उत्तरोत्तर बढ़ी है। पर उसमें कोई सेनसेक्स छाप उछाल नहीं है। यह 'हिन्दू रेट ऑफ ग्रोथ' का परफार्मेंस काफी थकाऊ है और कभी भी स्टॉल बन्द करने को उकसा सकता है।

स्टैट काउण्टर उक्त आंकड़े तो प्रारम्भ से अब तक के दे देता है, पर बाकी विस्तृत आंकड़े केवल अंतिम 500 क्लिक के देता है। पर 500 क्लिक का विश्लेषण भी आपको पर्याप्त सूचनायें देता है। उदाहरण के लिये उनसे यह पता चला है कि मेरे ब्लॉग यातायात की फीड एग्रेगेटरों पर निर्भरता उत्तरोत्तर कम हुई है। इसलिये जब रवि रतलामी यह कहते हैं - "एक चिट्ठाकार होने के नाते मेरे चिट्ठे किसी संकलक पर रहें या न रहें इससे --- मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता... " तो उनकी वर्तमान स्थिति देखते हुये यह सही ही प्रतीत होता है। मेरी स्थिति वह नहीं है। और काफी समय तक वह होने की सम्भावना भी नहीं है। एक रोचक तथ्य यह निकला है कि जबसे आलोक 9-2-11 ने अपने ब्लॉग को लेकर विवाद उछाला है, चिठ्ठाजगत के माध्यम से मिलने वाला यातायात लगभग 20-25% बढ़ गया है। ब्लॉगवाणी से मिले यातायात में कमी नहीं आयी है (3-4% बढ़ा ही है)! नौ-दो-इग्यारह या जाने क्या मैने कही में अंतत: कौन स्कोर करे; या कहीं संजीवनी खा कर नारद आ जाये; फायदा ब्लॉगर को होना है। विवाद से फीड एग्रेगेटर ही नहीं ब्लॉगरी चर्चा में रहती है और लोग सामान्य से कुछ ज्यादा ही पढ़ते हैं। इस विवाद को साधुवाद!

जहां तक मेरे खुद के पोस्ट पढ़ने का रिकार्ड है - मैं लगभग 85% पठन गूगल रीडर के माध्यम से करता हूं। शेष फीड एग्रेगेटर के माध्यम से पढ़ता हूं। गूगल रीडर के पठन का डाटा पिछले 30 दिन का गूगल रीडर देता है। उसके 'ट्रेण्ड' ऑप्शन से पता चलता है कि मैं 114 फीड सब्स्क्राइब करता हूं (इसमें से 90 हिन्दी ब्लॉग्स की हैं)। पिछले 30 दिनों में मैने 1085 पोस्ट पढ़ी हैं। अर्थात लगभग 36 प्रतिदिन। इसमें से लगभग 28 हिन्दी ब्लॉग्स की होंगी। अगर फीड एग्रेगेटर के माध्यम से पढ़ी जाने वाली पोस्टें जोड़ दूं तो लगभग 35 हिन्दी ब्लॉग पोस्ट पढता हूं। यह काम ज्यादातर सवेरे होता है। लोगों के पोस्ट पब्लिश करने का समय भी लगभग वही होता है।

इस विषय में गूगल रीडर के 30 दिन के ग्राफ का अवलोकन करें:

Read1
पिछले 30 दिन में 1085 लेख पढ़े गये। 36 लेख प्रतिदिन औसत।
Read2
सामान्यत: पढने का समय सवेरे का है।
दिन में पढ़ना समय चुरा कर होता है।

मेरा ध्येय उक्त ग्राफों की प्रस्तुति में आत्म प्रदर्शन नहीं, वरन यह बताना है कि अगर आप ब्लॉगिंग को गम्भीरता से लेते हैं तो उनके आंकड़े सतत देखते विश्लेषित करते रहें। वह आप को महत्वपूर्ण आत्म-परिज्ञान (insight) का आधार प्रदान करते हैं।

लगभग यही बात किसी भी आंकड़े के विषय में होती है - बशर्ते वह आंकड़ा किसी अर्थपूर्ण विषय का हो।


समीर लाल जी को धन्यवाद वैज्ञानिक टिप्पणी-विधा के विवरण के लिये। वास्तव में पठन का सही तरीका बताया है उन्होने। समय प्रबन्धन पर भी नायाब पोस्ट है वह!

Tuesday, October 30, 2007

तहलका तारनहार है मोदी का?(!)


बड़े मौके पर तहलका ने एक्स्पोजे किया है। हिन्दू-मुस्लिम मामला सेण्टर स्टेज पर ला दिया है। इससे सबसे प्रसन्न मोदीजी को होना चाहिये। ऑफ-कोर्स वे ऑन द रिकार्ड कह नहीं सकते। (और शायद यह तथ्य समझ में आने पर ब्लॉग पोस्टों में भी मोदी विरोधी स्वर टोन डाउन हो जायें। या हो ही गये हैं! ) 

पर हम जैसे ब्लॉगर के लिये ऑन-ऑफ द रिकार्ड की बॉर्डरलाइन बहुत पतली है। हम अपने मनोभाव व्यक्त कर सकते हैं।

मैं अपनी बात के मूल स्पष्ट कर दूं। गुजरात के ध्रुवीकरण का श्रेय मैं आरएसएस या बजरंग दल या मोदी को नहीं देता। ऐसा श्रेय देना इन्हें ज्यादा भाव देना होगा और गुजरात की जनता का अपमान भी। ध्रुवीकरण जन अभिव्यक्ति है। यह दशकों से चली आ रही मुस्लिम तुष्टीकरण की प्रतिक्रिया स्वरूप है जिसे साबरमती एक्स्प्रेस की दहन की घटना ने चिंगारी प्रदान की। और गुजरात में जो कुछ हो रहा है उसे अगर एक विशेष रंग में पेण्ट भर किया जाता रहा, गुजराती मानस को हेय माना जाता रहा, या मात्र मोदी के बहकावे में आने वाला बताया जाता रहा और निष्पक्ष विवेचना को स्थान न मिला तो ध्रुवीकरण बढ़ता रहेगा। अत: मीडिया या 'मानवतावादी एक्टिविस्ट' ध्रुवीकरण समाप्त करने के लिये उपयुक्त तत्व नहीं हैं। उल्टे ये उस प्रक्रिया को उत्प्रेरित ही कर रहे हैं।  

"आज तक" का 25 अक्तूबर को शाम में किया एसएमएस: Don't miss the most shocking story of the year. Tune in to Aaj Tak and Headlines Today at 7 PM to watch a sting operation that will shake up the establishment.

इस स्टिंग ने शेक -अप तो नहीं किया; स्क्विर्म (squirm - छटपटाना) जरूर किया।  

लादेन जी सोच सकते हैं कि अल-कायदा ने अमेरिका में ट्विन टॉवर ध्वस्त कर इस्लाम की बड़ी सेवा की है, पर सही मायने में इस्लाम को बहुत नुक्सान पंहुचाया है। वैसा ही कुछ गुजरात में हुआ है साबरमती एक्स्प्रेस के दहन से। वैचारिक ध्रुवीकरण हुआ है और तहलका एक्स्पोजे जैसी स्टिंग उसे और पुख्ता कर रहे हैं। (इससे यह अर्थ न निकाला जाये कि यह स्टिंग नहीं होना चाहिये था। स्टिंगर्स को अपना काम करना चाहिये, वर्ना वे पता नहीं क्या करें।)

Polarisation

ध्रुवीकरण बहु आयामी है। बहुत जगह बहुत प्रकार से हो रहा है।...

बुद्धिमान वह है जो ध्रुवीकरण की प्रवृति समझ कर उसका फायदा उठा ले। पर हमारे जैसे तो नफा-नुक्सान के चक्कर में नहीं पड़ते। एक ब्लॉग पोस्ट लिख कर ही मस्त रहते हैं।   

पता नहीं; कोई अगर यह गप उड़ाये कि सुप्रीम कोर्ट जाने के लिये मानवतावादी एक्टिविस्ट को मोदीजी ने फण्ड दिया तो बहुत से लोग विश्वास करने लग जायें।

गुजरात अभी अलग सा है क्योंकि (शायद) वहां धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण की स्थितियाँ बन सकी हैं। लोग पर्याप्त सम्पन्न हो सके हैं कि इस प्रकार के मसले पर सोच सकें। अन्यथा जहां विकट गरीबी है, वहां गरीबी-अमीरी का ध्रुवीकरण हो रहा है और प्रसार पा रहा है। उसके वाहक नक्सली बन्धु हैं। वे अमीरी की प्रतिक्रिया में हाथ धो रहे हैं। कुछ तो इसी आड़ में नये तरह की माफियागिरी कर रहे हैं। 

जातीय आधार पर ध्रुवीकरण बीमारू प्रांतों में नजर आता है। वह भी सामंती समाज की प्रतिक्रिया में उठा है। कम विकास, अराजकता और प्रजातंत्र में पायी वोट की ताकत उसे चिंगारी प्रदान कर रहे हैं। जातीय आधार पर थोक वोट बैंक के भरोसे कई महानुभाव प्रधानमंत्री बनने की लालसा को अपने में हुलसा रहे हैं!  

ध्रुवीकरण बहु आयामी है। बहुत जगह बहुत प्रकार से हो रहा है। अन्य स्थलों पर इसका लाभ ले रहे नक्सली बन्धु या प्रधानमंत्री बनने के लालसा वाले या अन्य मोदीजी से कम कतई नहीं हैं। पर उनकी बात नहीं की जा रही। एक सम्पन्न प्रांत का होने का घाटा है मोदी को।

बुद्धिमान वह है जो ध्रुवीकरण की प्रवृति समझ कर उसका फायदा उठा ले। पर हमारे जैसे तो नफा-नुक्सान के चक्कर में नहीं पड़ते। एक ब्लॉग पोस्ट लिख कर ही मस्त रहते हैं।   


शिवकुमार मिश्र और ज्ञानदत्त पाण्डेय के ब्लॉग पर मेरी पोस्ट देखें - एक ही फॉण्ट से थक गया।

Monday, October 29, 2007

पापा, मैं तो घास छीलूंगा!


मेरे मित्र उपेन्द्र कुमार सिंह का बालक पौने चार साल का है। नाम है अंश। सांवला है तो उसे देख मुझे कृष्ण की याद आती है। चपल भी है और बुद्धिमान भी। जो कहता है उसके दार्शनिक अर्थ भी निकाले जा सकते हैं।Ansh

उपेन्द्र जी का घर रेलवे लाइन के पास है सुबेदारगंज, इलाहाबाद में। वहां से गाड़ियां हर दस मिनट पर निकलती हैं। उन्हें देखना अंश का मुख्य कौतूहल है। एक दिन बहुत देर तक गाड़ियां नहीं आ रही थीं।

पापा, गाड़ियाँ क्यों नहीं आ रहीं?

बच्चे को उत्तर देना चाहिये। सो पापा ने कहा - बेटा, खाना खा रही होंगी।

अंश सोच कर बोला - नहीं, तेल लेने गयी होगी।

उससे पूछा गया तो बताया कि खाना तो आदमी खाते हैं। कार तेल ले कर चलती है। उसी की तरह रेल गाड़ी भी मशीन है। उसको भी चलने के लिये तेल चाहिये!

एक दिन गाड़ियां बहुत आ-जा रही थीं। अंश बोला - पापा गाड़ियां बहुत आ रही हैं। फिर कुछ रुक कर जोड़ा - बहुत आ रही हैं तो खतम हो जायेंगी।

पौने चार साल का बच्चा समझता है कि ट्रेनों की मात्रा असीमित नहीं है। अनंत काल तक तेज बहाव नहीं हो सकता गाड़ियों का। बस हम बड़े ही नहीं समझते कि सुख-दुख बहुत आ रहे हैं तो अंतत खतम होंगे हीAnsh2

एक दिन वह (शायद पढ़ाई से त्रस्त हो कर) बोला - पापा मैं तो पढ़ूंगा नहीं, घास छीलूंगा।

शायद कहीं सुना हो कि पढ़ोगे नहीं तो घास छीलोगे। घास छीलने में हेय भावना का निहितार्थ स्पष्ट नहीं है अंश को। उसके अनुसार पढ़ने का कोई विकल्प है घास छीलना। अंश को यह भी नहीं ज्ञात कि घास छीलना क्या होता है। उसके पिता ने घास छीलना क्या होता है, बताया। और यह भी बताया कि अगर कुशल घास-छीलक होना है तो पढ़ना पड़ेगा। पढ़ने से मुक्ति नहीं है, यह समझकर बड़ी सहजता से उसने स्वीकार कर लिया कि वह पढ़ेगा। 

बाल मन। कितना सहज पर फिर भी किसी परिपक्व के मन से किसी भी तरह कमतर नहीं। शायद बेहतर ही हो - क्लीन स्लेट के साथ जो सोचता है। पूर्वाग्रहों से मुक्त। सूचनाओं को समेटने को आतुर।

मित्रों, हमारा अपने अन्दर का अंश कहां गया?  


यूनुस को मैने दो बार फरमाइश कर कहा कि ढ़ेरों शिशु गीत ठेलें अपने रेडियोवाणी पर। आजकल शायद व्यस्त हैं। ज्ञान बीड़ी पीने-पिलाने भी नहीं आ रहे हैं। वैसे अंतरा चौधरी के गीत उन्होने सुनाये भी हैं। पर और सुनने का मन है। 

अपना यह हाल है कि घर में बच्चे नहीं हैं। पर बच्चों के बारे में सुनना-पढ़ना-लिखना अच्छा लग रहा है।

इसी कड़ी में अभी रजनीश मंगला जी के ब्लॉग पर सरल सा शिशुगीत - 'धोबी आया' सुनने को मिला। हमने उस बहाने दस तक की गिनती भी सीख ली।

कहाँ हो भाई यूनुस!  


Sunday, October 28, 2007

उत्तर प्रदेश में बिजली हड़ताल जो नहीं हुई


जान सांसत में थी उत्तर प्रदेश विद्युत कर्मचारी संघर्ष समिति की हड़ताल की धमकी पर। घर और दफ्तर - दोनो फ्रण्ट पर।

अपनी अम्मा को जब मैने कहा था कि हड़ताल होगी और शायद पानी न आये नल में। बिजली नहीं आये तो बोरवेल से पानी भी न निकाला जा सके। यह जान कर उन्होने कण्टिंजेंसी प्लान बना लिया था बालटी-भगोने तक पानी से भर रखने का। पहले यह 24 अक्तूबर से होने जा रही थी। फिर 26 अक्तूबर हुआ।

सरकार ने एस्मा (Essential Services Maintenance Act) लगाने की धमकी दे दी थी - ऐसा खबरों में था।  

रेलवे के स्तर पर भी आपात योजना बन गयी। अगर ट्रैक्शन की बिजली गयी तो गाड़ियाँ चलेंगी या नहीं और चलेंगी तो कैसे - यह धुकधुकी बढ़ रही थी। हमारे पास तो रेल के पूर्व-पश्चिम तथा उत्तर-दक्षिण दोनो मेन रूट हैं रेल यातायात के। UPPCLऔर दोनो उत्तरप्रदेश से गुजरते हैं। नियंत्रण कक्ष में आपात ड्यूटी तय कर ली गयी थी। पर मामला सरक गया आगे। परसों शाम को पता चला कि हड़ताल फिलहाल तो नहीं है। चैन हुआ कि सप्ताहांत पर झमेला या ट्रेने रुकने का झाम तो नहीं होगा।

कल दोपहर इण्डियन एक्स्प्रेस की साइट पर खबर आयी कि कर्मचारियों ने हड़ताल वापस लेली है। आप चित्र देखें। मजे की बात यह है कि सरकार ने कोई भी कंशेसन नहीं दिया है। कम से कम प्रेस खबर से तो यही साफ होता है।»»

उल्टे प्रेस खबर में यह है कि अनपारा-सी यूनिट के लिये काम प्राइवेट कम्पनी लांको द्वारा कल प्रारम्भ किया जायेगा। यह प्रिंसीपल सचिव (गृह) ने कही है और प्रिंसीपल सचिव (ऊर्जा) तथा यूपीपीसीएल के चेयरमैन भी वहां थे।

ये लांको कौन कम्पनी है - मुझे ठीक से नहीं मालुम। आज ही नेट पर देखा! पर मुझे प्रसन्नता है कि 1000मेगावाट बिजली का अनपारा-सी सन्यंत्र बनने लगेगा। प्राइवेट सेक्टर बनायेगा तो नियत समय - सन 2011 में ऑपरेशनल होने की भी सम्भावना है। Lanco

««लांको इंफ्राटेक के नाम की इस कम्पनी के सम्भावित प्रॉजेक्ट्स में अनपारा-सी का नाम है। इस कम्पनी के शेयर पिछली जुलाई से ढ़ाई गुना बढ़े हैं। (चित्र बायीं तरफ देखें)। हमें ऐसी कम्पनी का पता कभी समय पर नहीं चलता! smile_regular   

पर उत्तर प्रदेश विद्युत कर्मचारी संघर्ष समिति कैसे पीछे हटी? यह जानने का विषय है। मुझे दो बातें लगती हैं -

  1. उत्तरप्रदेश सरकार कड़ा रुख अपनाने में सक्षम है। और
  2. बिजली कर्मियों के साथ जन समर्थन का अभाव है।

पर यही कड़ाई सरकार बिजली चोरी रोकने के अभियान में इन्ही कर्मचारियों को लगाने में करे तो मजा है। तब शायद कर्मचारियों को असली कष्ट हो। लांको के प्रति विरोध तो (शायद) केवल प्रतीकात्मक है। और तभी हड़ताल की धमकी छितरा गयी।


मेरे एक मित्र ने कल शाम बताया कि पावर ग्रिड कार्पोरेशन के लोग उस समय भी तैनात थे किसी भी हड़ताल की आशंका के खिलाफ! कॉर्पोरेशन का लिखित आदेश उन तक नही‍ पंहुचा था।

मित्रों, कभी कभी मुझे भ्रम होता है कि मेरे पास नौकरी नहीं होती तो मैं पत्रकार बन सकता था! यह जो लिख रहा हूं उसका आधा तो खबर में ठेलने लायक है।


Saturday, October 27, 2007

व्योमकेश शास्त्री उर्फ हजारी प्रसाद द्विवेदी - लेख का स्कैन


Gyan(119)मैने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के उक्त शीर्षक वाले लेख पर आर्धारित पोस्ट प्रस्तुत की थी - 'व्योमकेश शास्त्री और बेनाम ब्लॉगरी'
उस पर कुछ मित्रों (रवि रतलामी मुख्य रूप से) ने लेख के स्कैन की मांग की थी। लेख के 4 पृष्ठों का स्कैन नीचे उपलब्ध है। आप बायीं ओर के पुस्तक के फ्रण्ट कवर चित्र पर क्लिक कर 'व्योमकेश.पीडीएफ' फाइल डाउनलोड करें। इस फाइल में चार स्कैन किये पेज हैं जिनमें पूरा लेख है।

स्कैन पेजों की बजाय पीडीएफ फाइल मैं इसलिये प्रस्तुत कर रहा हूं, जिससे डाउनलोड में दशमांश से भी कम डाटा आपके कम्प्यूटर को उतारना पड़े।

(वैसे, अगर आपने लेख नहीं पढ़ा है तो मैं पढ़ने की सिफारिश करूंगा। यह किसी ब्लॉग पोस्ट से कहीं ज्यादा पठनीय है।)


क्या आप अन्दाज लगा सकते हैं - 'कल की फीड एग्रेगेटर - पेप्सी या कोक' वाली एण्टी-आस्था चैनल टाइप पोस्ट पर सामान्य से 60% ज्यादा क्लिक आये। टिप्पणियां करने में जरूर लोग मुक्त नहीं रहे। पर यह स्पष्ट हो गया कि एण्टी-आस्था चैनल भी चलता है!

Friday, October 26, 2007

फीड एग्रेगेटर - पेप्सी या कोक?


प्रसिद्ध मजाक चलता है - कोकाकोला के कर्मचारी को नौकरी से निकाल दिया गया। उसके रक्त सैम्पल में पेप्सी की ट्रेसर क्वांटिटी पायी गयी। गजब की प्रतिद्वन्दिता है दोनो में। गला काट। वही शायद देर सबेर हिन्दी ब्लॉगों के बढ़ते फीड एग्रेगेटरों में होगी।

मैने तीन महीने पहले एक पॉवरप्वॉइण्ट प्रेजेण्टेशन फाइल ठेली थी अपनी पोस्ट 'कछुआ और खरगोश की कथा - नये प्रसंग' के माध्यम से। उस पीपीस फाइल में यह था कि सन 1980 में रोबर्टो गोइजुयेटा ने कोका कोला की कमान सम्भाली थी तब पेप्सी की ओर से जबरदस्त प्रतिद्वन्दिता थी। cokeरोबर्टो ने कोक को पेप्सी की प्रतिद्वन्दिता की मानसिकता से निकाल कर किसी भी पेय - पानी सहित की प्रतिद्वन्दिता में डाला और नतीजे आश्चर्यजनक थे। आप यह पावरप्वॉइण्ट फाइल कोकाकोला के चित्र पर क्लिक कर डाउनलोड कर सकते हैं।»»

कुछ वैसी ही बात हिन्दी ब्लॉगरी के फीड एग्रीगेटरों में दिख रही है। एक के शीर्ष लोगों की फीड दूसरा नहीं दिखा रहा। चक्कर यह है कि फीड एग्रेगेटर को सर्व-धर्म-समभाव छाप समझने की सोच से लिया जा रहा है। उसे बिजनेस प्रतिस्पर्धा - गूगल बनाम याहू या रिलायंस बनाम टाटा जैसा नहीं लिया जा रहा। पता नहीं अंतत: कैसा चले। सब राम धुन गायें या अपनी अपनी तुरही अलग-अलग बजायें। पर ज्यादा परेशान नहीं होना चाहिये।

मेरे ख्याल से प्रतिस्पर्धा - और गलाकाट प्रतिस्पर्धा हो कर रहेगी। लोग अपनी स्ट्रेटेजी बन्द कमरे में बनायें। वह ज्यादा इफेक्टिव रहेगी। और प्रतिद्वन्दी कौन है - वह अवश्य तय करें।

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आप विचारें: फील्ड ब्लॉगवाणी बनाम नारद बनाम चिठ्ठाजगत की सेवा लेते वही 1000 ब्लॉगर नहीं है। फील्ड हिन्दी जानने वाले (केवल हिन्दी के विद्वान नहीं) वे सभी लोग हैं जो अपने को अभिव्यक्त करने की तलब रखते हैं। फील्ड में शायद वे भी हैं जो हिन्दी समझ लेते हैं पर देवनागरी पढ़ नहीं सकते। यह संख्या बहुउउउउउउत बड़ी है। रोबर्टो गोइजुयेटा की तरह पैराडाइम (paradigm - नजरिया) बदलने की जरूरत है।


बी.बी.सी. हिन्दी पर मैथिली गुप्त का एग्रेगेटर के खर्च पर कथन:
इतने खर्चे के पीछे कोई व्यवसायिक उद्देश्य? यह पूछे जाने पर सरकारी नौकरी में भाषायी सॉफ्टवेयर निर्माण के काम से रिटायर मैथिली गुप्त कहते हैं, "ज़िंदगी भर बहुत कमाया है, ब्लॉगवाणी तो अब बुढ़ापे में खुद को व्यस्त रखने का एक साधन भर है. पर भविष्य में एग्रीगेटरों के व्यावसायिक महत्व से इनकार भी नहीं किया जा सकता."


और एग्रेगेटरी के खेल में भी बिलो-द-बेल्ट (below the belt) हिट करने की या हिट खाने की गुंजाइश ले कर चलनी चाहिये। उसे मैं बिजनेस एथिक्स के बहुत खिलाफ नहीं मानता। और जो समझते हैं कि एग्रेगेटरी समाज सेवा है - सीरियस बिजनेस नहीं, उन्हें शायद माइण्ड सेट बदल लेना चाहिये। जब प्रोब्लॉगर का ब्लॉग मात्र ब्लॉग होते हुये $54,000 के ईनाम बांट सकता है तो ब्लॉग एग्रेगेटरी को भविष्य के लिये सीरियस बिजनेस1 मानना ही चाहिये। न मानें तो आप अपने रिस्क पर न मानें! आज की तारीख में एक समाज सेवी एनजीओ चलाना भी सीरियस बिजनेस है। जब यह माइण्ड सेट बदलेगा तो सेवा में वैल्यू-एडीशन चमत्कारिक तरीके से होगा।

चलिये साहब - आज की पोस्ट प्रति-आस्था (Anti-Astha Channel) चैनल छाप ही सही! एक दिन हिट कम भी मिलें तो चलेगा! बस, यही मनाता हूं कि जिन्हे पढ़ना चाहिये, वे पढ़ लें!


1. कोई साइट अगर कुछ हजार से ज्यादा विजिट रोज पा रही है तो मेरे अन्दाज से मात्र विजिट की संख्या के कारण वह बिजनेस में है!

Thursday, October 25, 2007

'जय हिन्द, जय भारत, जय लालू'


कल हमारे यहां उत्तर-मध्य रेलवे में क्षेत्रीय रेल उपभोक्ता सलाहकार समिति की बैठक थी। बैठक होटल कान्हा-श्याम में थी। बैठक में 39 सदस्य आने थे। सारे तो नहीं  आये पर आधे से ज्यादा आ गये। दस सांसद आने थे - केवल एक दिखे। बाकी सरकारी उपक्रमों, व्यापार मण्डलों और यात्री संघों के लोग थे। कुछ सदस्य माननीय रेल मंत्री द्वारा विशेष रूप से नामित थे।

मैं एक ऐसे नामित सदस्य महोदय के बारे में लिख रहा हूं। देखने में ठेठ गंवई। कुर्ता-पाजामा पहने। सन जैसे सफेद छोटे-छोटे बाल। एक खुली शिखा। अपने भाषण में उन्होने स्वयम ही अपनी उम्र 77 वर्ष बतायी और उम्र के हिसाबसे हम सब को (महाप्रबन्धक सहित) आशीर्वाद दिया। अपनी बिहारी टोन में पूरी दबंगई से भाषण दिया। लिखित नहीं, एक्स्टेम्पोर-धाराप्रवाह। जहरखुरानी, साफ-सफाई, गाड़ियों का समयपालन - सभी मुद्दों पर बेलाग और मस्त अन्दाज में बोला उन्होने।

सॉफिस्टिकेशन की वर्जना न हो तो आप श्रोता से अपनी ट्यूनिंग का तार बड़ी सरलता से जोड़ सकते हैं। यह मैने अपने मंत्री लालूजी में बहुत सूक्ष्मता से देखा है और यही मैने इन सज्जन में देखा। उन्हें सुन कर लोग हंसे-खिलखिलाये, पर जो वे सज्जन कहना चाहते थे वह बड़ी दक्षता से सम्प्रेषित कर गये। बुद्धिजीवी की बजाय रस्टिक व्यवहार में भी जबरदस्त ताकत है - यह मैने जाना।

अपना भाषण खत्म करते समय वे सज्जन बोले - 'जय हिन्द, जय भारत, जय लालू!' और कुछ नहीं तो उनके भाषण के इस समापन सम्पुट से ही लोग उन्हें याद रखेंगे। 

मीटिंग के बाद दोपहर का भोजन था। अच्छे होटल (कन्हा-श्याम) में अच्छा बफे लंच। लंच में पर्याप्त विविधता थी। लोग हिल-मिल कर बोलते-बतियाते भोजन कर रहे थे। पर मुझे चूंकि खड़े-खड़े भोजन करने में सर्वाइकल स्पॉण्डिलाइटिस का दर्द होता है; मैं अपना भोजन ले कर एक कक्ष में बैठ कर खाने चला गया।

वापस आ कर जो दृष्य देखा, वह मैं भूल नहीं सकता। सतहत्तर वर्ष की उम्र वाले वे माननीय सदस्य अपने एक साथी के साथ जमीन पर पंजे के बल उकड़ूं बैठे भोजन कर रहे थे! शेष सभी लोग साहबी अन्दाज में खड़े भोजन रत थे। मैने आव देखा न ताव - दन्न से कुछ फोटो अपने मोबाइल से ले लिये। आप जरा उनका अवलोकन करें।   

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जोनल रेलवे उपभोक्ता सलाहकार समिति के सदस्य हम लोगों के सामने बैठे हुये। हमारे 77 वर्षीय सदस्य गेरुआ चौखट में दिख रहे हैं।

Gyan(134)A

भोजन कक्ष में हमारे 77 वर्षीय सदस्य और उनके साथी बैठ कर जमीन पर भोजन करते हुये। अन्य लोग खड़े हो भोजन कर रहे हैं। आप देख रहे हैं तीन सितारा संस्कृति को दिखाया जा रहा ठेंगा। हम तो चाह कर भी ऐसा ठेंगा न दिखा पायें!

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हमारे प्रिय सदस्य का भोजन करते क्लोज-अप (जैसा मेरे मोबाइल कैमरे से आ सकता था)।

मित्रों, माननीय लालू प्रसाद जी एक फिनॉमिनॉ हैं। मैने तो उन्हे बहुत करीब से ऑब्जर्व किया है। वैसा ही एक फिनॉमिनॉ ये सतहत्तर साला सज्जन लगे। बेझिझक-बेलाग! और सॉफिस्टिकेशन की चकाचौंध से तनिक भी असहज नहीं।

आपने ऐसे चरित्र के दर्शन किये हैं?  


मेरे पिताजी का कथन है कि ये लोग मेवेरिक (maverick) हैं। भदेस तरीके से भी भरी सभा का ध्यानाकर्षण करना जानते हैं। वी.के. कृष्ण मेनन भी इस तरह की ध्यानाकर्षण-तकनीक प्रयोग करने में माहिर थे। मुझे कृष्ण मेनन के विषय में जानकरी नहीं है, पर ऊपर वाले यह सज्जन मेवरिक नहीं लगते। वे बस अपने आप में सहज लगते हैं।  

Wednesday, October 24, 2007

एक पुरानी पोस्ट का री-ठेल


मैने हिन्दी ब्लॉग शुरू किया इस साल 23 फरवरी को और पांचवीं पोस्ट छापी 3 मार्च को। हिन्दी लिखने में ही कष्ट था। सो जरा सी पोस्ट थी। शीर्षक था - 'हरिश्चन्द्र - आम जिन्दगी का हीरो'। नये नये ब्लॉगर को पढ़ते भी कितने लोग? फिर भी तीन टिप्पणियाँ आयी थीं - श्रीश की, धुरविरोधी की और रिपुदमन पचौरी जी की। धुरविरोधी तो बेनाम का छूत छुड़ा कर शायद किसी अन्य प्रकार से लिखते पढ़ते हैं। श्रीश तो जबरदस्त ब्लॉगर थे, हैं और रहेंगे। रिपुदमन जी का पता नहीं। शुरुआती पोस्टों पर उनकी टिप्पणियां थीं। पर उनके ब्लॉग आदि का पता नहीं। अगर यह पढ़ रहे हों तो कृपया टिपेरने की कृपा करें।

यह पोस्ट मैं आज री-ठेल रहा हूं। यह 'री-ठेल' शब्द पुन: ठेलने के लिये अलंकारिक लग रहा है!
असल में घर में कुछ और निर्माण का काम कराना है और हरिश्चन्द्र (जिसने पहले घर में निर्माण कार्य किया था) की ढ़ुंढ़ाई मच गयी है। हरिश्चन्द्र मुझे बहुत प्रेरक चरित्र लगा था। आप उस पोस्ट को देखने-पढने की कृपा करें -

'हरिश्चन्द्र - आम जिन्दगी का हीरो'


आपकी आँखें पारखी हों तो आम जिन्दगी में हीरो नजर आ जाते हैं. च्यवनप्राश और नवरतन तेल बेचने वाले बौने लगते है. अदना सा मिस्त्री आपको बहुत सिखा सकता है. गीता का कर्मयोग वर्तमान जिन्दगी के वास्तविक मंच पर घटित होता दीखता है.

आपकी आँखों मे परख हो, बस!
हरिश्चंद्र पिछले महीने भर से मेरे घर में निर्माण का काम कर रहा था. उसे मैने घर के बढाव और परिवर्तन का ठेका दे रखा था. अनपढ़ आदमी है वह. उसमें मैने उसमें कोई ऐब नहीं पाया. काम को सदैव तत्पर. काम चाहे मजदूर का हो, मिस्त्री का या ठेकेदार का, हरिश्चंद्र को पूरे मनोयोग से लगा पाया.

आज काम समाप्त होते समय उससे पूछा तो पता चला कि उसने मजदूरी से काम शुरू किया था. अब उसके पास अपना मकान है. पत्नी व दो लड़कियां छोटी सी किराने की दुकान चलाती है. बड़ी लड़की को पति ने छोड़ दिया है, वह साथ में रहती है. पत्नी पास पड़ोस में ब्यूटीशियन का काम भी कर लेती है. लड़का बारहवीं में पढता है और हरिश्चंद्र के काम में हाथ बटाता है.
मेहनत की मर्यादा में तपता, जीवन जीता - जूझता, कल्पनायें साकार करता हरिश्चंद्र क्या हीरो नहीं है?
मार्च 3'2007

यह छोटी सी पोस्ट तब लिखी थी, जब हिन्दी ब्लॉगरी में मुझे कोई जानता न था और हिन्दी टाइप करने में बहुत मेहनत लगती थी! नये आने वाले ब्लॉगर शायद उस फेज़ से गुजर रहे हों।
आज महसूस हो रहा है कि नये ब्लॉगरों के ब्लॉग पर रोज 4-5 टिप्पणी करने का नियम बना लेना चाहिये। बस उसमें दिक्कत यह है कि फीड-एग्रेगेटरों पर जाना होगा और वहाँ जाने का अर्थ है अधिक पढ़ना! Nerd
सब आदमी ऊर्जा में समीर लाल जी सरीखे तो बन नहीं सकते!

Tuesday, October 23, 2007

व्योमकेश शास्त्री और बेनाम ब्लॉगरी


आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी (अपने अधिदैविक रूप में) या उनके वर्तमान उत्तराधिकारी शायद मेरी इस पोस्ट से नाराज न हों पर हिन्दी के वर्तमान विद्वान मुझे अपात्र मान कर क्षुब्ध हो सकते हैं। मैं जब भी बेनाम ब्लॉगरी की सोचता था तो मन में नाम आता था प. व्योमकेश शास्त्री का। प्रारम्भ में धुरविरोधी को मैं अपने मन में व्योमकेश शास्त्री के रूप में याद किया करता था। आज भी कई बेनाम टिप्पणियाँ इतनी अच्छी होती हैं कि पण्डित व्योमकेश शास्त्री की याद बरबस हो आती है!

बेनाम ब्लॉगरी करने का मेरा भी कई बार मन हुआ है।

मेरा राशि का नाम है "न" से - नागेश्वर नाथ। कई बार नागेश्वर नाथ के नाम से बेनाम ब्लॉगरी का मन किया - विशेषकर विवादास्पद विषयों पर लिखने और टिपेरने के लिये। पर लगा कि अंतत: हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की तरह फंस ही जाऊंगा! वह कार्यक्रम टेक-ऑफ ही नहीं हो सका।

आज मन हुआ है व्योमकेश शास्त्री पर लिखने का। इस नाम को बहुत दशकों पहले चारु चन्द्रलेख पढते समय जाना था। मेरी चारु चन्द्रलेख की प्रति अक्तूबर'1977 की खरीदी हुई है। उसके पहले यह पुस्तकालय से ले कर पढ़ चुका था। फिर शायद द्विवेदी जी की अन्य पुस्तकों की प्रस्तावना में भी यह नाम पढ़ा। नाम से यह तो लग ही गया कि आचार्यजी "व्योमकेश शास्त्री" पेन-नेम ले कर चल रहे हैं। पर व्योमकेश शास्त्री जी का चिठ्ठा आचार्य जी के एक लेख से कालांतर में खुला।Gyan(119)

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का लेख है - 'व्योमकेश शास्त्री उर्फ हजारीप्रसाद द्विवेदी'। आप इसे नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा छापे उनके 'संकलित निबन्ध' (सम्पादक नामवर सिंह) में पढ़ सकते हैं। इसका कॉपीराइट श्री मुकुन्द द्विवेदी के पास है। मैं लेख के कुछ न्यून अंश इस पोस्ट में टीप रहा हूं।

द्विवेदी जी ने अपने मित्र प. भुवनेश्वर मिश्र 'माधव' के आग्रह पर एक लेख ज्योतिष विषय पर उनके पत्र 'सनातन धर्म' के लिये लिखा था। इसमें विश्वपंचांग (जो हिन्दू विश्वविद्यालय से निकलता था और जिसके सम्पादकों में महामनाजी भी थे) की गणना पद्यति की आलोचना थी। सीधे मालवीयजी सरीखे से पंगा लेने से बचने को द्विवेदी जी ने लेखक का नाम दे दिया - व्योमकेश शास्त्री।

पर वह लेख हिट हो गया। उसे लेकर इन्दौर की पंचांग समिती ने एक बड़ा पार्सल भेजा जिसमें ज्योतिष विषयक बड़े काम की पुस्तकें थीं। उसमें व्योमकेश जी को इन्दौर में होने जा रहे 'अखिल भारतीय ज्योतिष सम्मेलन' में आने का निमंत्रण था और 'समग्र भारत में एक सर्वमान्य पद्यति से पंचांग बनाने की विधा तय करने वाली निर्णायक समिति' का बंगाल का प्रतिनिधि माना गया था। मजे की बात थी कि सम्मेलन की अध्यक्षता प. मदनमोहन मालवीय करने जा रहे थे। उन्ही से सीधे बचने को द्विवेदी जी ने अपना नाम व्योमकेश रखा था।

बड़ी उहापोह में पड़े आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी। लगभग मन बना लिया था सम्मेलन में जाने का। पर फिर भी दुविधा थी। मन में था कि मालवीय जी क्या सोचेंगे! सो गुरुदेव रवीन्द्रनाथ के पास गये मार्गदर्शन के लिये। गुरुदेव को सब बता कर बोले -

"मूर्खता से धर्मसंकट पैदा कर लिया है। अब आपकी सलाह मांगने आया हूं। जाऊं या न जाऊं। जाने को कह चुका हूं।"

गुरुदेव ने कहा - "न जाओ। तुममें सत्य के प्रति जितनी आस्था है, उससे कहें अधिक भय और संकोच है। भय और संकोच तुम्हें सत्य का पक्ष नहीं लेने देंगे।"

गुरुदेव फिर बोले - "सत्य बड़ा महसूल चाहता है। तुमने अपना नाम छिपाया, वहीं से तुम गलत रास्ते पर चल पड़े। देखो जब किसी की प्रतिकूल आलोचना करनी हो तो नाम मत छिपाया करो। नाम छिपाना पहली कमजोरी है। फिर वह और कमजोरियों को खींचती जाती है। नाम छिपाना भी सत्य को छिपाना ही है।" .... "सत्य अपना पूरा दाम चाहता है।"

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी सम्मेलन में नहीं गये।

पूरा लेख बड़ा मार्मिक बना है। उसे आप अलग से पढ़ने का कष्ट करें (अगर न पढ़ा हो!)।


अब अपनी बात। अपने में पूरी कमजोरियां होने पर भी व्योमकेश शास्त्री जी के प्रसंग ने अंतत: मुझे नागेश्वर नाथ बनने से बचाया। बतौर नागेश्वर नाथ मैं अत्यंत उद्दण्ड और ठसक से अण्ट-शण्ट लिखता/गरियाता। कोई वर्जना नहीं होती। पर तब मैं शायद बढ़िया लिखने के चक्कर में सत्य की रोज बलि चढ़ाता!

क्या कहना है आपका?


Monday, October 22, 2007

फोटो में केप्शन लगाने की तकनीक



अजित (शब्दचौधरी अजित वडनेरकर) ने टिप्पणी कर फोटो में केप्शन लगाने की तकनीक पूछी है।
मैने विण्डोज़ लाइवराइटर का प्रयोग किया है। आप उसे इस लिंक पर उपलब्ध लिंक से इंस्टॉल कर सकते हैं। विण्डोज़ लाइवराइटर में टेबल बनाने के ऑप्शन हैं। आप टेबल (Table) के एक रो (Row) 2 कॉलम (Column) या 2 रो 1 कॉलम का प्रयोग कर एक खाने में फोटो और दूसरे में कैप्शन लगा सकते हैं।

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caption2
उदाहरण के लिये मैं अपनी फोटो और अपना प्रशस्ति कैप्शन इस प्रकार लगा सकता हूं 1 रो और 2 कॉलम के टेबल में:
Gyan(094)
ज्ञानदत्त पाण्डेय वे ब्लॉगर हैं, जो हिन्दी के शब्द खोजते पाये जाते हैं और न मिलने पर बिना-शर्म अंग्रेजी ठूंस देते हैं!
आप टेबल को राइट, लेफ्ट या सेण्टर एलाइन (Align) भी कर सकते हैं - फार्मेट (Format) में उपलब्ध विकल्पों से। आप टेबल की मोटाई आदि भी सेट कर सकते हैं अन्यथा टेबल बॉर्डर को अदृष्य भी कर सकते हैं। मैने ऊपर टेबल सेण्टर एलाइन और बॉर्डर अदृष्य कर रखा है।
बाकी जद्दोजहद आप करें। उससे आप और बेहतर फॉर्मेटिंग कर पायेंगे!
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मेरी रविवार को छपी पोस्ट जो शायद आपने न पढ़ी हो: प्रसन्न खानाबदोशों का एक झुण्ड। 


Gyan(109) विजयदशमी की शाम को कल नीरज रोहिल्ला (अंतर्ध्वनि ब्लॉग वाले) और उनके मित्र अंकुर मिलने घर पर आये। ह्यूस्टन, टेक्सास से कोई सज्जन ऑब्स्क्योर सी जगह शिवकुटी, इलाहाबाद में मुझसे मिलने आये - यह मेरे और मेरे परिवार के लिये बहुत प्रसन्नता दायक था। दुनियाँ के समतल होते जाने पर हम लोगों ने बहुत आस्था जताई। आप नीरज (दायें) और अंकुर का मेरे घर पर लिया चित्र देखें।
नीरज ने मुझे वैकल्पिक ईन्धन के रूप में गैस हाइड्रेट्स के बारे में जानकारी दी। उसपर मैं आगे पढूंगा और बन पड़ा तो एक-आध पोस्ट ठेलूंगा! मुझे मालूम नहीं कि पंकज अवधिया जी के इसके पर्यावरणीय प्रभाव पर पहले ही कुछ विचार बन चुके हैं या नहीं।   

Sunday, October 21, 2007

प्रसन्न खानाबदोशों का एक झुण्ड


बीस पुरुष-स्त्रियां-बच्चे। साथ में 5-6 गठरियां। कुछ एल्यूमीनियम के बर्तन और बांस की टोकरी। बस इतना भर। जितने वयस्क उतने बच्चे। करछना (इलाहाबाद के समीप) स्टेशन पर किसी गाड़ी की प्रतीक्षारत थे सभी। ऐसा लगता नहीं कि उनका कोई घर होगा कहीं पर। जो कुछ था, सब साथ था। बहुत वृद्ध साथ नहीं थे। सम्भवत उतनी उम्र तक जीते ही न हों।

सभी एक वृक्ष की छाया में इंतजार कर रहे थे। स्त्रियां देखने में सुन्दर थीं। पुरुष भी अपनी सभ्यता के हिसाब से फैशन किये हुये थे। कुछ चान्दी या गिलट के आभूषण भी पहने थे। किसी के चेहरे पर अभाव या अशक्तता का विषाद नहीं था। मेरे लिये यह ईर्ष्या और कौतूहल का विषय था। इतने कम और इतनी अनिश्चितता में कोई प्रसन्न कैसे रह सकता है? पर प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या!

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करछना स्टेशन पर ट्रेन का इंतजार करता खानाबदोशों का एक झुण्ड

(चित्र मैने अपनी ट्रेन की खिड़की से लिया था)

अपरिग्रह का सिद्धांत मुझे बहुत पहले से आकर्षित करता रहा है।

कभी कभी मैं कल्पना करता हूं कि किसी जन्म में मैं छोटा-मोटा ऋषि रहा होऊंगा और किसी पतन के कारण वर्तमान जीवन झेलना पड़ रहा है। इस जीवन में श्राप यह है कि जो दुष्कल्पना मैं औरों के लिये करता हूं वह किसी न किसी प्रकार से मेरे पर ही घटित होती है। दुर्वासा का जो भी अंश बाकी है - वह देर-सबेर स्वयम पर बीतता है। क्रोध सारे तप को खा जाता है।

पर जब अपरिग्रह का स्तर इन खानाबदोशों सा हो जाये; और भविष्य की चिंता ईश्वर (या जो भी कल्पना ये घुमंतू करते हों) के हाथ छोड़ दी जाये; दीर्घायु की न कामना हो न कोई योजना; तो क्या जीवन उनके सा प्रसन्न हो सकता है?

शायद नहीं। नहीं इसलिये कि चेतना का जो स्तर पूर्व जन्म के कर्मों ने दे रखा है - वह खानाबदोशों के स्तर पर शायद न उतरे। मैं चाह कर भी जो कुछ सीख लिया है या संस्कार में आ गया है - उसे विस्मृत नहीं कर सकता।

पर खानाबदोशों जैसी प्रसन्नता की चाह जायेगी नहीं। खानाबदोश जैसा बनना है। शायद एक खानाबदोश ऋषि।

अक्तूबर 20'2007


सवेरे के सवा चार बजे विन्ध्याचल स्टेशन पर मेरी गाड़ी के पास मेला की भीड़ का शोर सुनाई देता है। शक्तिपीठ के स्टेशन पर नवरात्रि पर्व की लौटती भीड़ के लोग हैं वे। गाड़ी दो मिनट के विराम के बाद चलने लगती है। मेरे कैरिज के बाहर आवाजें तेज होती हैं। एक स्वर तेज निकलता है - "भित्तर आवइ द हो!" (अन्दर आने दो भाई) गाड़ी तेज हो जाती है।

एक पूरा कोच मेरे व मेरे चन्द कर्मचारियों के पास है। सब सो रहे हैं। बाहर बहुत भीड़ है। मेरी नींद खुल गयी है। कोच की क्रिवाइसेज से अन्दर आती शीतल हवा की गलन (coolness) में मेरा अपरिग्रह गलता (melt होता) प्रतीत होता है। गाड़ी और तेज हो जाती है....

अक्तूबर 21'2007


Saturday, October 20, 2007

रेल-दुर्घटना का परा-विज्ञान*


परसों सवा तीन बजे 2560,शिवगंगा एक्सप्रेस के पीछे के ब्रेकवान में आग लग गयी। गाड़ी कानपुर से चली थी। चलते ही चन्दारी और चकेरी स्टेशनों के बीच उसे बीच में रोक कर आगे की पूरी गाड़ी प्रचण्ड आग से ग्रस्त अंतिम कोच (ब्रेकवान) से अलग की गयी। आग की लपटें इतनी तेज हो गयी थीं कि ट्रेक्शन की बिजली काटनी पड़ी। शिवगंगा एक्स्प्रेस लगभग 4 घण्टे वहीं खड़ी रही - जब तक कि दो फायर टेण्डर जद्दोजहद कर आग पर काबू कर पाये। सवेरे साढ़े तीन बजे से इस चक्कर में जागना पड़ा। करीब 40 एक्स्प्रेस गाड़ियाँ प्रभावित हुईं। दुर्घटना का कारण तो जांच का विषय है।

ट्रेन में आग की घटना मुझे व्यक्तिगत रूप से विदग्ध करती है। मेरा बेटा उस प्रकार की घटना का शिकार रहा है। पर यहां मैं उसपर कुछ नहीं लिख रहा। मैं यहां एक विचित्र कोण की बात कर रहा हूं।

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यह कानपुर के पास हुई दुर्घटना का नहीं, एक मॉक-फायर (mock fire) का चित्र है।

इस दुर्घटना में कोई हताहत नहीं हुआ। उस ब्रेक-वान वाले कोच में एक व्यक्ति की मौत हृदयगति रुकने से हुई। वह इस दुर्घटना से सम्बन्धित नहीं प्रतीत होती। घटना के बाद यातायात सामान्य होने में करीब 6-8 घण्टे लगे।

पर परसों रात में फिर कंट्रोल के फोन ने जगा दिया। चन्दारी और चकेरी के बीच लगभग उसी स्थान पर जीटी रोड के समपार फाटक पर एक ट्रक ने वाहनों की ऊंचाई नियत करने वाले हाइट गेज को तोड़ दिया। वह गेज 25 किलोवोल्ट के ट्रेक्शन के तारों से उलझ गया। यातायात पुन: बन्द। कुछ इस प्रकार से जैसे उस स्थान के आस-पास अदृष्य ताकत यातायात रोकने को उद्दत हो और हम लोगों की समग्र जागृत ऊर्जा को चुनौती दे रही हो।

ऐसा कई बार अनुभव किया है - एक स्थान पर मल्टीपल घटनाओं का मामला।

बहुत पहले रतलाम-उज्जैन के बीच दोहरी लाइन के खण्ड पर नागदा के समीप रात में एक सैलून की खण्ड में कपलिंग टूट गयी। एक सजग स्टेशन मास्टर ने देख लिया कि गाड़ी के पीछे लगा कैरिज बीच में ही रह गया है। अगर वह सजग न होता तो दूसरी गाड़ी को आने की अनुमति दे देता और भयंकर दुर्घटना में कई जानें जातीं। मौत को शिकार नहीं मिल पाया।

पर क्या वास्तव में? जो गाड़ी स्टेशन मास्टर ने चलाने को अनुमति नहीं दी, वह दूसरी लाइन से चलाई गयी। दूसरी लाइन पर दो पेट्रोल-मेन गश्त कर रहे थे। उन्हे अन्देशा नहीं था कि उलटी दिशा से गाड़ी आ सकती है। दोनो चम्बल नदी के पुल के पहले पटरी के बीचों बीच चल रहे थे। वह ट्रेन उन्हें रौन्दते हुये निकल गयी। मुझे उस घटना पर अपनी खिन्नता की अब तक याद है।

जो ट्रेन, कैरिज व उसमें सोये लोगों को उड़ाती, वह अंतत: लगभग उसी स्थान पर दो अन्य लोगों की बलि ले गयी|Floating Ghost कुछ इस अन्दाज में जैसे मौत वहां पर अपने लिये कोई न कोई शिकार तलाश रही हो!

क्या अदृष्य ताकतों का कोई परा-विज्ञान* है?

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* - परा-विज्ञान शब्द मैने परा-मनोविज्ञान (para-psychology) की तर्ज पर गढ़ा है। मेरा अभिप्राय विज्ञान से इतर तत्वों से है जिनका अस्तित्व विज्ञानसम्मत आधार पर प्रमाणित नहीं है। सामान्य भाषा में कहें तो आत्मा-प्रेत-भूत-देव छाप कॉंसेप्ट (concept)।


1. इस पोस्ट का औचित्य? असल में जेम्स वाटसन के डबल हेलिक्स के चंगुल से निकलने को मैने परा-विज्ञान का सहारा लिया है। विशुद्ध वैज्ञानिकता से दूर; तार्किकता के दूसरे ध्रुव पर जाने में ब्लॉग जगत की पूर्ण स्वच्छन्दता की बढ़िया अनुभूति होती है! लेकिन, कृपया मुझे परा-विज्ञान विषयों का फेनॉटिक न मान लिया जाये!

2. वैसे मैं प्रसन्न हूं कि मनीषा जी ने वेबदुनियां में मेरी लिखित या मौखिक हिन्दी में अंग्रेजी के पैबन्द पर कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं की! इसके लिये उन्हे धन्यवाद।


Friday, October 19, 2007

यह रहा फ्लैश - डा. वाटसन ने माफी मांगी। फिर भी सस्पेण्ड!


मुझे अन्दाज नहीं था कि मेरी पोस्ट इतनी जल्दी (आधे ही दिन में) पुरानी पड़ जायेगी।
नोबल पुरस्कार विजेता डा. जेम्स वाटसन ने अपने विवादास्पद कथन के लिये माफी मांग ली है। पर उसके बावजूद उन्हें कोल्ड स्प्रिंग हार्बर लैब - जहां वे डायरेक्टर, प्रेसिडेण्ट और (वर्तमान में) चांसलर रह चुके हैं - ने उन्हे सस्पेण्ड कर दिया है।
आप कोल्ड स्प्रिंग हार्बर लैब का पन्ना भी देख लें।
डा. वाटसन ने अश्वेतों की अपेक्षा श्वेतों में अधिक बुद्धिमत्ता होने की बात कही थी!

डा. जेम्स वाटसन की बात पची नहीं


डा. जेम्स वाटसन, डी.एन.ए. के अणुसूत्र का डबल हेलिक्स मॉडल देने के लिये विख्यात हैं। उन्हें फ्रांसिस क्रिक और मॉरिस विल्किंस के साथ 1962 में फीजियोलॉजी और मेडीसिन का नोबल पुरस्कार भी मिल चुका है। उन्ही डा. जेम्स वाटसन ने हाल ही में यह कहा है कि अश्वेत लोग श्वेत लोगों की अपेक्षा कम बुद्धिमान होते हैं। इससे बड़ा विवाद पैदा हो गया है।

मैं डा. वाटसन को बड़ी श्रद्धा से देखता था। एक नौजवान की तरह किस प्रकार अपने शोध में वे लीनस पाउलिंग से आगे निकलने का यत्न कर रहे थे - उसके बारे में अपने विद्यार्थी जीवन के दौरान मैने उनके लेखन से पढ़ा था। डा. वाटसन की पुस्तक से प्रभावित हो अपने आप को 'सामान्य से अलग सोच' रखते हुये उत्कृष्ट साबित करने के स्वप्न मैने देखे थे - जो कुछ सच हुये और बहुत कुछ नहीं भी!

पर अब लग रहा है कि उन्यासी वर्षीय डा. वाटसन सठियाये हुये जैसा व्यवहार कर रहे हैं। जाति, लिंग और अपने साथी वैज्ञानिकों सम्बन्धी विवादास्पद बातें कहने में उन्होने महारत हासिल कर ली है। पर उनके अफ्रीका विषयक वक्तव्य ने तो हद ही कर दी। उन्होने कहा कि "हमारी सामाजिक नीतियां इस आधार पर हैं कि अश्वेत बुद्धि में श्वेतों के बराबर हैं, पर सभी परीक्षण इस धारणा के खिलाफ जाते हैं।" शायद विवादास्पद बन कर डा. वाटसन को अपनी नयी हाल में प्रकाशित किताब बेचनी है।

आश्चर्य नहीं कि डा. वाटसन को सब ओर से आलोचना मिल रही है।




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लंदन के साइंस म्यूज़ियम की ओर से आयोजित उस व्याख्यान के कार्यक्रम को भी रद्द कर दिया गया है जिसे डॉक्टर वाटसन संबोधित करने वाले थे.

वाटसन अपनी हाल ही में प्रकाशित किताब के 'प्रमोशन' के लिए इन दिनों ब्रिटेन में हैं और तय कार्यक्रम के मुताबिक शुक्रवार को एक व्याख्यान भी देने वाले थे.

--- बी.बी.सी., हिन्दी

मैं अश्वेतों की प्रतिभा का बहुत मुरीद हूं, ऐसा नहीं है। पर श्वेतों की चौधराहट सिर्फ इस आधार पर कि इस समय उनकी ओर का विश्व प्रगति पर है - मुझे ठीक नहीं लग रही। क्या बढ़िया हो कि इसी जन्म में मैं इस दम्भ का टूटना देख पाऊं।

बुद्धि पर अनुवांशिक और वातावरणीय (genetic and environmental) प्रभाव के विषय में हम पढ़ते रहे हैं। पर उसे एक जाति या रंग के आधार पर समझने का कुत्सित प्रयास होगा - यह विचार मन में नहीं आया था। डा. वाटसन तो नव नात्सीवाद जैसी बात कर रहे हैं।

आप अगर 'नेचर' के इस अंग्रेजी भाषा के ब्लॉग "द ग्रेट बियॉण्ड" की पोस्ट और उसके लिंक देखें तो आपको डबल हेलिक्स के अन्वेंषक प्रति एक अजीब सा क्षोभ होगा। कम से कम मुझे ऐसा हो रहा है।


Thursday, October 18, 2007

डुप्लीकेट सामान बनाने का हुनर


बात शुरू हुई डुप्लीकेट दवाओं से। पश्चिम भारत से पूर्वांचल में आने पर डुप्लीकेट दवाओं का नाम ज्यादा सुना-पढ़ा है मैने। डुप्लीकेट दवाओं से बातचीत अन्य सामानों के डुप्लीकेट बनने पर चली। उसपर संजय कुमार जी ने रोचक विवरण दिया।
संजय कुमार जी का परिचय मैं पहले दे चुका हूं - संजय कुमार, रागदरबारी और रेल के डिब्बे वाली पोस्ट में। उन्होने अपना ब्लॉग तो प्रारम्भ नहीं किया, अपनी व्यस्तता के चलते। पर अनुभवों का जबरदस्त पिटारा है उनके पास और साथ ही रसमय भाषा में सुनाने की क्षमता भी। उसका लाभ मैं इस पोस्ट में ले रहा हूं। 
उन्होने बताया कि लगभग 20 वर्ष पूर्व वे छपरा में बतौर प्रोबेशनर अधिकारी ट्रेनिंग कर रहे थे। खुराफात के लिये समय की कमी नहीं थी। छपरा में स्टॉफ ने बताया कि कोई भी ऐसी नयी चीज नहीं है जो सिवान में न बनती हो। उस समय ट्विन ब्लेड नये चले थे। संजय ने पूछा - क्या ट्विन ब्लेड बनते हैं डुप्लीकेट? खोजबीन के बाद उत्तर मिला - "हां। फलानी फेमस कम्पनी का ट्विन ब्लेड डुप्लीकेट सिवान में बनता है।"
संजय ट्विन ब्लेड बनाने वाले उद्यमी की खोज में सिवान आये। दो 25-30 की उम्र वाले नौजवान उनसे मिलवाये गये। उनके ब्लेड रीसाइकल्ड नहीं थे कि पहली शेव में खुरपी की तरह चलें। नये बने थे और डुप्लीकेट को आसानी से असली की जगह चलाया जा सकता था। नौजवानों ने अपनी "फैक्टरी" भी संजय को दिखाई। केवल ब्लेड ही नहीं, वे डुप्लीकेट टूथ ब्रश और शेविंग क्रीम भी बना रहे थे।
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(संजय कुमार जी डुप्लीकेट सामान के विषय में संस्मरण बताते हुये)
"जब आप लोग इतना हुनर रखते हैं, तो अपनी कम्पनी क्यों नहीं खोलते?" - संजय का उन नौजवानों से तर्कसंगत प्रश्न था।
"आप फलानी फेमस ब्राण्ड की बजाय हमारे किसी ऐसे-वैसे ब्राण्ड का ट्विन ब्लेड खरीदेंगे?" - उन नौजवानों ने उत्तर दिया। "सामान सब अच्छा बनाना आता है हमें। पर बिकेगा नहीं। लिहाजा इस तरह चल रहे हैं।"
बिहार जैसा पिछड़ा प्रांत और सिवान जैसा पिछड़ा जिला। कालांतर में सिवान बाहुबलियों और अपराध के लिये प्रसिद्ध हुआ। वहां बीस साल पहले भी नौजवान हुनर रखते थे कुछ भी डुप्लीकेट सामान बनाने का!
इस हुनर का क्या सार्थक उपयोग है? यह कथा केवल सिवान की नहीं है। देश में कई हिस्सों में ऐसा हुनर है। पर सब अवैध और डुप्लीकेट में बरबाद हो रहा है। नैतिकता का ह्रास है सो अलग। 
संजय कुमार जी का धन्यवाद इसलिये कि उन्होने एक फर्स्ट हैण्ड अनुभव (भले ही बीस साल पुराना हो) मुझे बताया जिसे ब्लॉग पर लिखा जा सके।

मैने कहीं पढ़ा कि हिन्दी ब्लॉगरी में कुछ लोग अभी शैशवावस्था में हैं। ब्लॉग का प्रयोग बतौर डायरी कर रहे हैं। मेरे विचार से अगर ब्लॉग में "मैं" का एलिमेण्ट न हो तो ब्लॉग पढ़ने का क्या मजा? आदमी सीधे शुष्क शोध-प्रबन्ध न पढ़े! इसलिये जान बूझ कर संस्मरणात्मक पोस्ट ठेल रहा हूं - यह भी देखने के लिये कि लोग पढ़ते हैं या नहीं!
और मुझे हिन्दी ब्लॉग जगत में शिशु माना जाये - इससे मस्त और क्या हो सकता है!

Wednesday, October 17, 2007

पीढ़ियों की सोच में अंतर


पिछले शनिवार को मैं लोकभारती प्रकाशन की सिविल लाइंस, इलाहाबाद की दुकान पर गया था। हिन्दी पुस्तकों का बड़ा जखीरा होता है वहां। बकौल मेरी पत्नी "मैं वहां 300 रुपये बर्बाद कर आया"। कुल 5 पुस्तकें लाया, औसत 60 रुपया प्रति पुस्तक। मेरे विचार से सस्ती और अच्छी पेपरबैक थीं। हिन्दी पुस्तकें अपेक्षाकृत सस्ती हैं।

वहां काउण्टर पर लगभग 65 वर्ष के सज्जन थे। दिनेश जी। बातचीत होने लगी। बोले - नये जवान पुस्तक की दुकान पर काम लायक नहीं हैं। डिग्री होती है पर पढ़ना-लिखना चाहते नहीं। पुस्तकों के बारे में जानकारी नहीं रखते। बस यह चाहते हैं कि शुरू में ही 5-7 हजार मिलने लगें। आते बहुत हैं, पर एम्प्लॉयेबल नहीं हैं। मैने भी अदी गोदरेज का कहा सन्दर्भित कर दिया - "जो एम्प्लॉयेबल है वह एम्प्लॉयमेण्ट पा जाता है।" उनसे हाथ मिला कर मैं वापस लौटा। दिनेशजी से बोलचाल का नफा यह हुआ कि डिस्काउण्ट 10-15 रुपये ज्यादा मिल गया।

कल श्री उपेन्द्र कुमार सिन्ह (उनके परिचय के लिये यह पोस्ट देखें) और मैं शाम को कॉफी हाउस गये। कॉफी पीते हुये कॉउण्टर पर दक्षता से काम करते मैनेजर को हम देख रहे थे। चलते समय सिंह साहब ने मैनेजर से बातचीत की। मैनेजर तीस पैंतीस की उम्र का था। नाम बताया बैजू। केरळ का निवासी। हम लोगों ने कॉफी हाउस की सामान्य जानकरी ली। बैजू को श्री सिन्ह ने कहा कि मैं कॉफी हाउस पर लिख चुका हूं। मैने अपना परिचय भी दिया बैजू को - पाण्डेय। बैजू ने समझा कि मैं शायद साम्यवादी हूं। बोले - आप कॉमरेड है! उत्तर में मैने गुनगुना कर 'न' इस अन्दाज में कहा कि वह व्यक्ति समझ न पाये कि मैं 'कॉमरेड' नहीं हूं। भ्रम बना रहे।

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कॉफी हाउस के मैनेजर कामरेड बैजू    कॉफी हाउस में गहमागहमी का माहौल

बैजू ने बताया कि इलाहाबाद का कॉफी हाउस आर्थिक रूप से थोड़ा डगमगाया हुआ है। कुछ रिटायरमेण्ट के करीब बूढ़ों ने काम की क्वालिटी पर ध्यान की बजाय अपने रिटायरमेण्ट का जुगाड़ ज्यादा किया (अभिप्राय अक्षमता और भ्रष्टाचार से था)। मैं कॉमरेड बैजू से भी हाथ मिला कर रवाना हुआ।

फिर सोचा - दिनेश जी नयी पीढ़ी को अक्षम और जल्दी पैसा बनाने को आतुर बता रहे थे। कॉमरेड बैजू पुरानी पीढ़ी को स्वार्थी और भ्रष्ट करार दे रहे थे। दोनो ही असंतुष्ट। बस मैं ही प्रसन्न था कि बैठे बिठाये बिना साम्यवादी प्रतिबद्धता के कॉमरेड बन गया। और दूसरी जगह 10-15 रुपये ज्यादा डिस्कॉउण्ट पा गया।

पीढ़ियों की सोच का अंतर आपने भी अपने अनुभवों में महसूस किया होगा।   


Tuesday, October 16, 2007

कौन बर्बर नहीं है?


प्रत्येक सभ्यता किसी न किसी मुकाम पर जघन्य बर्बरता के सबूत देती है। प्रत्येक धर्म-जाति-सम्प्रदाय किसी न किसी समय पर वह कर गुजरता है जिसको भविष्य के उसके उत्तराधिकारी याद करते संकोच महसूस करते हैं। इस लिये जब कुछ लोग बर्बरता के लिये किसी अन्य वर्ग को लूलूहाते (उपहास करते) हैं - तो मुझे हंसी आती है।

बहुत पढ़ा है हिटलर की नात्सी बर्बरता के बारे में। संघ के बन्धु इस्लाम की आदिकालीन बर्बरता के बारे में अनवरत बोल सकते हैं। नरेन्द्र मोदी को दानवीय कहना तो जैसे फैशन नैतिक अनुष्ठान है। उनके चक्कर में सारे गुजराती बर्बर बताये जा रहे हैं। यहूदियों पर किये गये अत्याचार सर्वविदित हैं। ईसाईयत के प्रारम्भ में यहूदी शासकों ने भी अत्याचार किये। कालांतर में ईसाइयत के प्रचार प्रसार में भी पर्याप्त बर्बरता रही। हिन्दू धर्म में अपने में अस्पृष्यता, जाति और सामंतवाद, नारी उत्पीड़न, शैव-वैष्णव झगड़े आदि के अनेक प्रकरणों में बर्बरता के प्रचुर दर्शन होते हैं।

बर्बरता के बारे में बोलने से पहले गिरेबान में झांकने की जरूरत है।

नेताजी सुभाष बोस अंग्रेजों के खिलाफ सन 1942 में जापानियों के साथ मिल गये थे। सामान्य भारतीय के लिये अंग्रेज विलेन, नेताजी हीरो हैं। तो तार्किक रूप से जापानी मित्र नजर आते हैं। जापानी भारत के मेनलैण्ड पर विजयपताका फहराते नहीं आये। अन्यथा हमारी सोच कुछ और होती - जापानियों के प्रति और शायद नेताजी के प्रति भी।

मनोज दास की एक पुस्तक है - मेरा नन्हा भारत। अनुवाद दिवाकर का है और छापा है नेशनल बुक ट्रस्ट ने।  पेपर बैक की कीमत रु. 75.-

इस पुस्तक में प्रारम्भ के कुछ लेख अण्डमान के बारे में हैं। उन्हें पढ़ें तो जापानी गर्हित बर्बरता के दर्शन होते हैं। मैं आपको एक छोटे अंश का दर्शन कराता हूं:

.....दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया था। जापानियों ने 23 मार्च 1942 को पोर्ट ब्लेयर पर हमला बोल दिया। ....अभागे देशवासियों को दांतपीसते घुसपैठियों के स्वागत के चिन्ह प्रदर्शित करने की जुगत करनी पड़ी। बिन एक भी गोली चलाये बारह घण्टे के अन्दर पूरा अधिकार हो चुका था।... जल्द ही जापानियों को बाजारों में घूमते, जो भी इच्छ हो उसे उठा लेते और किसी भी दुकान से ऐसा करते देखा जाने लगा। ...कुछ को तो अपने चेहरे पर शिकन लाने के लिये थप्पड़ भी खाने पड़े।

....जापानी जुल्फिकार के घर में घुसा और उसने दो अण्डे उठा लिये। पीड़ा से दांत पीसते हुये भी नर्म दिखाते हुये जुल्फिकार को घृष्ट होना पड़ा कि "कृपया एक छोड़ दें, क्यों कि हमारे एक बच्चा है जिसे इसकी जरूरत होती है।" लेकिन जापानी अधिकारी ने उसे धमकाने वाले अन्दाज में देखा कि जुल्फिकार उसे रोकने का साहस तो करे। अचानक जुल्फिकार ने अपनी बन्दूक निकाली और गोली चला दी।

.... जुल्फिकार की गोली तो जापानी के सिर को छूती हुई निकल गयी पर वह जल्दी ही हजारों सैनिकों को ले आया। वे राइफलों से हर दिशा में गोली बरसा रहे थे। रास्ते में आने वाले सभी घरों को आग लगा रहे थे। अंतत: उन्होने जुल्फिकार को पकड़ लिया। ....उसे घसीटा गया, क्रूरता से पीटा गया और गोली मार दी गयी।

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आगे जो विवरण है वह नात्सी बर्बरता से किसी प्रकार कम नहीं है। बहुत से भारतीयों को सामुहिक यातना देने और जापानियों द्वारा उनकी केल्कुलेटेड हत्या के प्रसंग हैं। नेताजी किनके साथ थे! और उन्हे पता भी चला जापानी बर्बरता का या नहीं? (कृपया नीचे बॉक्स देखें) 

मैं नेताजी को गलत नहीं ठहरा रहा। मैं नेताजी के द्वारा प्रयोग किये गये विकल्प को भी गलत नहीं कह रहा। मैं यह  भी नहीं कह रहा कि ब्रिटिश जापानियों से बेहतर थे। मैं केवल यह कह रहा हूं कि बर्बरता किसी एक व्यक्ति-वर्ग-जाति-सम्प्रदाय-देश का कृत्य नहीं है। घर में देख लें - पति पत्नी से बर्बर हो जाता है।

अत: मैं पहले पैरा में लिखी लाइनें पुन: दोहरा दूं - 

इस लिये जब कुछ लोग बर्बरता के लिये किसी अन्य वर्ग को लूलूहाते (उपहास करते) हैं - तो मुझे हंसी आती है।

नेताजी को अण्डमान में देशवासियों से कैसे मिलाया गया:
दिसम्बर 29'1943:
विमान से नेताजी सुभाषचन्द्र बोस निकले और उन लोगों के बीच से गुजरे जिन्हे दो पंक्तियों में खड़े रहने का आदेश दिया गया था। "मानो वे गार्ड ऑफ ऑनर का निरीक्षण कर रहे हों"। जापानी अधिकारी उनके आगे और पीछे मार्च कर रहे थे और कभी कभी बगल में भी रहते थे। उनके पास भारतीयों से बातचीत का कोई अवसर नहीं था। उन्होने जरूर असहज महसूस किया होगा लेकिन वह उनके लिये सवाल उठाने या प्रोटोकॉल का उल्लंघन करने का अवसर शायद नहीं था।
                           ------ मनोज दास, पुस्तक में एक लेख में।


Monday, October 15, 2007

भर्तृहरि, उज्जैन, रहस्यमय फल और समृद्धि-प्रबन्धन


देखिये, हमें पूरा यकीन है कि हमें हिन्दी में कोई जगह अपने लिये कार्व-आउट (carve-out) नहीं करनी है। बतौर ब्लॉगर या चिठेरा ही रहना है - चिठ्ठाकार के रूप में ब्लॉगरी की स्नातकी भी नहीं करनी है। इसलिये अण्ट को शण्ट के साथ जोड़ कर पोस्ट बनाने में हमारे सामने कोई वर्जना नहीं है।

सो अब जुड़ेंगे भर्तृहरी समृद्धि-प्रबन्धन के साथ। जरा अटेंशनियायें।

भर्तृहरि को सन्यासी मिला। (उज्जैन में दो दशक भर आते जाते हमें ही सैंकड़ों सन्यासी मिले थे तो भतृहरी को तो मिला ही होगा!)

उज्जैन का स्मरण होते ही कृष्ण, सान्दीपनि, सुदामा, सान्दीपनि आश्रम में खड़े नन्दी वाला शिवाला, भर्तृहरि की गुफा, भगवान कालभैरव पर तांत्रिकों का अड्डा, मंगलनाथ, सिद्धपीठ, पिंगलेश्वर, पंचक्रोशी यात्रा, दत्त का अखाड़ा, सिन्हस्थ और महाकाल का मन्दिर आदि सबकी याद हो आती है। --- सब का प्रचण्ड विरह है मुझमें। सबका नाम ले ले रहा हूं - अन्यथा कथा आगे बढ़ा ही नहीं पाऊंगा।

Sunday, October 14, 2007

ई-पण्डित को धन्यवाद - विण्डोज़ लाइव राइटर के लिये


विण्डोज़ लाइव राइटर ब्लॉगिंग के लिये बेहतरीन औजार है। आप इसे यहां से डाउनलोड कर सकते हैं। मुझे इसका पता ई-पण्डित (श्रीश - मेरे प्रिय ब्लॉगर) की पोस्ट से चला था। यह पोस्ट श्रीश ने 2 जनवरी को छापी थी पर मुझे बहुत बाद में पता चली। इस औजार का प्रयोग करते मुझे एक महीना हो गया है।

लाइव राइटर डाउनलोड कर इंस्टाल करने के बाद मैने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। मेरी लगभग सभी पोस्टें विण्डोज़ लाइव राइटर पर लिखी जाती हैं और वे मेरे ब्लॉग पर कैसे लगेंगी - यह जानने के लिये उनका प्रिव्यू भी देख लेता हूं।

यह प्रोग्राम अब बीटा 3 स्टेज में है। मैने लेटेस्ट स्टेज़ इंस्टाल कर लिया है। बहुत अच्छा है। जो लोग इण्टरनेट प्रयोग में डाउनलोड किये गये मेगाबाइट्स को लेकर चिंतित रहते हैं पर अपनी पोस्ट की उत्कृष्टता के प्रति भी सजग होते हैं, उनके लिये तो यह और भी महत्वपूर्ण है।

संजय बेंगानी के सुझाव पर:
निश्चय ही विण्डोज़ लाइव राइटर के डेवलपर बन्धु - वे जो भी, जहाँ भी हों, अतिशय धन्यवाद के पात्र हैं। यह सम्पूर्ण मानवता की सेवा है।

एक पंथ दो काज - मैं श्रीश को धन्यवाद भी दे रहा हूं और विण्डोज़ लाइव राइटर की सिफारिश भी कर रहा हूं। इस लाइव राइटर के वेब-लेआउट (जिसमें आप पोस्ट रचते हैं) की खिड़की ऐसी लगती है:

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और लाइव राइटर में प्रिव्यू ऐसा दीखता है:

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ऑफ लाइन लिखने, प्रिव्यू देखने और सरलता से अपने ब्लॉग पर पब्लिश करने के लिये नायाब सहायता है यह। ट्राई कर देखिये (अगर पहले से ही प्रयोग नहीं कर रहे हैं, तो)!


डिवाइडर पर सोने वाला कहाँ सोयेगा?


कुछ दिन पहले मैने पोस्ट लिखी थी उस व्यक्ति के बारे में जो रात में भरे यातायात के बीच राणाप्रताप चौराहे पर रोड-डिवाइडर पर सो रहा था। उसकी गहरी नींद और अपनी नींद की गोली गटकने पर भी न आने वाली नींद की चर्चा मैने उस पोस्ट में की थी। आज सवेरे दफ्तर जाते समय राणाप्रताप चौराहे पर मैने अपने वाहन को रुकवाया। जिस डिवाइडर पर वह व्यक्ति रात में सो रहा था, उसे और ऊंचा कर उसमें क्यारीनुमा स्थान बना दिया गया था। उसमें मिट्टी डाल कर सौन्दर्यीकरण हेतु पौधे लगेंगे। अब तो उसपर कोई सो नहीं सकता।

आप जरा नीचे दोनो चित्र देखें। सामने राणाप्रताप की प्रतिमा है। दाईं ओर उर्ध्व जेब्रा धारियों वाला डिवाइडर पहले का है। उसके ऊपर ईंट की जुड़ाई से ऊंचाई बढ़ाई गयी है। जुड़ाई की गयी ईंटों के बीच नाली जैसा है जिसमें पौधे लगेंगे। ईंटों का मलबा अभी पास में पड़ा भी है। अब वह वहां सोने वाला कैसे सोयेगा?    

Rana1 Rana2
     राणाप्रताप की प्रतिमा लाल अर्ध-वृत्त में घेरी गयी है।

ऐसा ही हाल वर्षा ऋतु में बेघरबार लोगों के सोने का होता है - आज एक ठौर, कल वह गायब। मुझे तो उस डिवाइडर पर सोने वाले की फिक्र हो रही है।

यह भी सम्भव है मित्रों कि वह बेसुध सोने वाला व्यक्ति कोई और ठिकाना पाकर फिर भी गहरी नींद सोये। और हम उसकी सोने की जगह की फोटो ले, ब्लॉग पर छाप, जगह छिन जाने की तकलीफ से अपनी नींद न आने का एक और निमित्त या बहाना स्थापित कर लें।

उसे तो आखिर नींद आनी ही है और हमें तो आखिर नींद नहीं ही आनी है! :-)  


Saturday, October 13, 2007

क्या बतायें - सिनेमा का 'स' तक नहीं आता


संजीत त्रिपाठी ने संजय लीला भंसाली पर लिंक दिये हैं - मेरी उनके प्रति अज्ञानता दूर करने को। पर उन लिंकों पर जाने पर और भी संकुचन हो रहा है। संजय भंसाली बड़े स्तरीय फिल्म निर्देशक लगते हैं। जो व्यक्ति पूरे आत्मविश्वास के साथ कहे कि 'वह सिनेमा के माध्यम से अपनी व्यक्तिगत छटपटाहट व्यक्त कर रहा है और उसकी फिल्मों के माध्यम से विश्व उसके जीवन को समझ या वाद-विवाद कर सकता है' वह हल्का-फुल्का नहीं हो सकता। और हमारा यह हाल है कि कल आलोक पुराणिक के एक कमेण्ट के माध्यम से पहली बार संजय का नाम सुना! उसी पर मैने ब्लिंक (अनभिज्ञता में भकुआ लगना) किया - संजय लीला भंसाली कौन हैं? और फिर मित्रवत सदाशय व्यवहार के नाते संजीत ने लिंक दिये।

संजय लीला भंसाली
(चित्र विकीपेडिया से) Sanjay
"संजय लीला भंसाली की ‘सांवरिया’ की पहली झलक अलसभोर की तरह है, जिसमें कुछ दिखता है और बहुत-सा छिपा रहता है। आप अंग्रेज कवि कोलरिज की अधूरी कविता ‘कुबला खान’ की तरह अलिखित का अनुमान लगाइए। एक अच्छा फिल्मकार दर्शक की कल्पनाशीलता को जगा देता है। अगले प्रोमो में उजाला अधिक होगा और सूर्योदय की रक्तिम आभा होगी। धीरे-धीरे हर प्रोमो दिन के पहर-दर-पहर उजागर करेगा फिल्म को। दीपावली पर प्रदर्शन के समय सूर्य अपनी पूरी आब पर होगा।"
- जयप्रकाश चौकसे दैनिक भास्कर में.

और संजय लीला भंसाली की फिल्में - 'हम दिल दे चुके सनम', 'ब्लैक', 'सावरिया' अथवा 'खामोशी - द म्युजिकल' का नाम भी कल ही सुना। 'देवदास' का नाम इसलिये ज्ञात है कि ऐश्वर्य राय के विषय में पढ़ते हुये और फोटो के माध्यम से पता चल गया था।

कल से ही यह लग रहा है कि कम से कम ब्लॉगरी करने के लिये तो अपनी समझ और अनुभव का दायरा बढ़ाना पड़ेगा। और फिल्म ज्ञान उसमें मुख्य तत्व है; जिसका विस्तार आवश्यक है। ऐसा नहीं कि पहले मैने यह महसूस नहीं किया। दस जून को मैने एक पोस्ट 'फिल्म ज्ञान पर क्रैश कोर्स की जरूरत' नामक शीर्षक से लिखी थी। पर उस समय सब मजे-मजे में लिखा था। प्रतिबद्धता नहीं थी। अब लगता है - सिनेमा का डमीज़ वाला कोर्स होना ही चाहिये।

इस विषय में पहला काम किया है कि दो ठीक से लगने वाले मूवी/बॉलीवुड ब्लॉग्स की फीड सब्स्क्राइब कर ली है। कुछ तो पढ़ा जायेगा इस तरह फिल्मों पर।

कुछ दिनों बाद हिन्दी सिनेमा के नाम पर मैं ब्लिंक नहीं करूंगा! पक्का।


मदर (माँ मीरा - श्री अरविन्द आश्रम) के पास एक रुक्ष साधक आया। वह अपनी साधना में इतना रम गया था कि सुन्दरता, भावुकता, स्नेह और दुख जैसी अनुभूतियों से विरत हो गया था। मदर ने उसे काफी समय तक रोमाण्टिक उपन्यासों को पढ़ने को कहा। वह आश्चर्य में पढ़ गया पर उसने आदेश का पालन किया। कालांतर में उसकी रुक्षता समाप्त हो पायी।

जीवन (हम जैसे सामान्य जनों का छोड़ दें); साधक का भी हो तो भी बैलेंस मांगता है। और वह बैलेंस उसे मिलना चाहिये!


Friday, October 12, 2007

एक कतरा रोशनी


Gyan(041) मेरे घर में मेरे सोने के कमरे में एक जरा सा रोशनदान है। उससे हवा और रोशनी आती है और वर्षा होने पर फुहार। कमरे का फर्श और कभी-कभी बिस्तर गीला हो जाता है वर्षा के पानी से।

एक बार विचार आया था कि इस गलत डिजाइन हुये रोशनदान को पाट दिया जाये। पर परसों लेटे-लेटे सूरज की रोशनी का एक किरण पुंज छत के पास कमरे में दीखने लगा तो मैं मुग्ध हो गया। मुझे लगा कि प्रकृति को कमरे में आने/झांकने का यह द्वार है छोटा रोशनदान।

सहूलियत के चक्कर में प्रकृति को अनदेखा करना; अपने दरवाजे-खिड़कियां-रोशनदान बन्द कर रखना - प्राइवेसी के लिये; यह सामान्य मानव का व्यवहार है।DSCF1902

प्रकृति को अपने पास निमंत्रित करने को कुछ अलग करना पड़ता है! या कम से कम जो हो चुका है; उसे रहने देना भी सही व्यवहार है। मैने पढ़ा है कि जापानी अपने बगीचे बनाते समय स्थान की मूल संरचना से छेड़-छाड़ नहीं करते। यह सीखा जा सकता है।  


यह पोस्ट तो बहुत छोटी हो गयी। मेरे पास अवसर है एक कविता प्रस्तुत करने का। यह श्री शिवमंगल सिन्ह 'सुमन' की लिखी है और 'मिट्टी की बारात में संकलित' है:

ठहराव

तुम तो यहीं ठहर गये

ठहरे तो किले बान्धो

मीनारें गढ़ो

उतरो चढ़ो

उतरो चढ़ो

कल तक की दूसरों की

आज अपनी रक्षा करों,

मुझको तो चलना है

अन्धेरे में जलना है

समय के साथ-साथ ढलना है

इसलिये मैने कभी

बान्धे नहीं परकोटे

साधी नहीं सरहदें

औ' गढ़ी नहीं मीनारें

जीवन भर मुक्त बहा सहा

हवा-आग-पानी सा

बचपन जवानी सा।


Thursday, October 11, 2007

आत्मवेदना: मि. ज्ञानदत्त आपकी हिन्दी बोलचाल में पैबन्द हैं।


ब्लॉग पर हिन्दी में लिखने के कारण शायद मुझसे ठीक से हिन्दी में धाराप्रवाह बोलने की भी अपेक्षा होती है। लोगों के नजरिये को मैं भांप लेता हूं। अत: जब वेब-दुनिया की मनीषाजी ने मुझसे 10-15 मिनट फोन पर बात की तो फोन रख सामान्य होने के बाद जो पहला विचार मन में आया वह था - मिस्टर ज्ञानदत्त, योर स्पोकेन हिन्दी इज सिम्पली प्यूट्रिड (Mr. Gyandutt, your spoken Hindi is simply putrid!)| उन्होने हिन्दी में ही बात प्रारम्भ की थी और उसी में जारी रखने का यत्न भी किया। मैं ही हिन्दी में निरंतरता कायम नहीं रख पाया। उसी का कष्ट है।

यह आत्मवेदना ऐसी नहीं कि पहली बार हो रही हो। धाराप्रवाह हिन्दी में वार्तालाप में विचार रख पाने की हसरत बहुत जमाने से है। यही नहीं, धाराप्रवाह किसी गहन विषय पर अवधी में निरंतर 5 मिनट बोल सकने की चाह तो बाल्यकाल से है।

हिन्दी भाषा के जानकार लिख्खाड़ सज्जन कह सकते हैं मैं भाव खाने के मोड में आ गया हूं। अंग्रेजी में अपने पैबन्दों की चर्चा को इस प्रकार हिन्दी जगत में लिया जाता है कि बन्दा इठला रहा है। पैबन्दों को बतौर मैडल प्रयोग करता है। अपने को अंग्रेजी अभिजात्य से जोड़ता है। Gyan(055) आत्मदया तो छद्म नाम है अपने आप को विशिष्ट दर्शाने के यत्न का। पर जो लोग मुझे पढ़ रहे हैं, वे शायद मेरे हिन्दी प्रयास और प्रेम को नकली न मानें। और वह नकली है भी नहीं। मैने सतत हिन्दी बेहतर लिखने का यत्न किया है और पूरे निश्चय से बेहतर हिन्दी बोलने की क्षमता अर्जित कर रहूंगा। श्रीश और नाहर जी जो अंग्रेजी में अपनी कमी कभी छिपाते नहीं - बौद्धिकता और लेखन में मुझसे बीस ही होंगे। उनके ब्लॉग और उनकी उपलब्धियां मुझे प्रेरित करती हैं।

मनीषा वेब-दुनियां की ओर से मुझसे बात कर रही थीं। अगर वे कुछ लिखेंगी तो शायद यह अवश्य हो कि मैं अपना कथ्य अच्छी तरह हिन्दी में व्यक्त नहीं कर पाया। अंग्रेजी के पैबन्द - जो कई लोगों के लिये फैशन हो; मेरे लिये भाषायी लाचारी दर्शाते हैं।

ऐसा क्यों होता है कि भारत में आपकी उच्च तकनीकी शिक्षा और तत्पश्चात जीविका आपको आपकी भाषा से विमुख करती जाती है। मुझे याद है कि सत्तर के दशक में इंजीनियरिंग की शिक्षा के दूसरे वर्ष में एक गेस्ट लेक्चर था मेरे स्ंस्थान में। वह बी.एच.यू. के गणित के एक प्रोफेसर साहब ने हिन्दी मैं - 'चार और उससे अधिक विमा के विश्व' पर दिया था। उस दिन मैं बिना अंग्रेजी का रत्ती भर प्रयोग किये डेढ़ घण्टे का हिन्दी में धाराप्रवाह और अत्यंत सरस तकनीकी भाषण सुन कर अभिमंत्रित सा महसूस कर रहा था। वैसे अनुभव फिर नहीं हुये।

बाद मे तो नौकरी के दौरान सही गलत आंकड़े ही बने हिन्दी के। हिन्दी ब्लॉग लेखन का यह फेज़ मुझे अवसर प्रदान कर रहा है भाषाई इम्यूरिटी को अन-लर्न करने या टोन डाउन करने का।

और इस विषय में मुझमें संकल्प की कमी नहीं है। यह हो सकता है कि जो मेरी बोलचाल की हिन्दी अंतत: बने; वह सामान्य हिन्दी और साहित्यिक और बुद्धिमानों की हिन्दी से अलग हो। पर वह पैबन्द नहीं होगी।

अभी आप मेरी बोलचाल की हिन्दी पर व्यंग कर सकते हैं। शिव कुमार मिश्र - आपके लिये एक विषय है! बड़े भाई होने का लिहाज न करना!


Tuesday, October 9, 2007

आगरा में आब है!


Gyan(052) आगरा को मैने बाईस वर्ष पहले पैदल चल कर नापा था। तब मैं ईदगाह या आगरा फोर्ट स्टेशन के रेस्ट हाउस में रुका करता था। वहां से सवेरे ताजमहल तक की दूरी पैदल सवेरे की सैर के रूप में तय किया करता था। आगरा फोर्ट के मीटर गेज की ओर फैले संकरे मार्किट में काफी दूर तक पैदल चला करता था। समस्या बिजली जाने पर होती थी, जब लगभग हर दुकान वाला जेनरेटर चलाता था और किरोसीन का धुआं सिरदर्द कर दिया करता था। आगरा फोर्ट से ईदगाह और आगरा कैण्ट स्टेशन तक पैदल भ्रमण करता था और सभी ठेले वालों द्वारा लगाई गयी सामग्री का अवलोकन किया करता था। तब यह समस्या नहीं थी कि कौन हमें पहचानता है और आगे वह हमारे स्टाफ में हमारी आवारागर्दगी के गुण गाता फिरेगा! अब अंतर आ गया है।Gyan(053)

(ऊपर का चित्र आगरा छावनी स्टेशन के बाहर स्टीम-इंजन और दायें का चित्र आगरा छावनी स्टेशन जगमगाहट के साथ।)

आज दशकों बाद आगरा आया हूं। जिस रास्ते पर वाहन से चला हूं, वे बड़े साफ-साफ थे। स्टेशनों पर रेल तंत्र/सुविधाओं का मुआयना करने के अलावा शहर का जो हिस्सा देखा वह निहायत साफ था। चौरस्तों पर दो मूर्तियां देखीं - तात्या टोपे और महारानी लक्ष्मीबाई की। दोनो अच्छी लगीं। आगरा कैण्ट स्टेशन का बाहर का दृष्य भी बहुत खुला-खुला, चमकदार और स्वच्छ था। मन प्रसन्न हो गया। यह अलग बात है कि मैं संकरे और कम साफ इलके में गया नहीं - वहां का कोई काम नहीं था मेरे पास। खरीददारी को मेरी पत्नी गयी थीं। पर वे भी बता रही थीं कि वे जिस भी क्षेत्र में गयीं - कोई बहुत गन्दगी नहीं नजर आयी उन्हे।

Gyan(046) मैं आगरा रेल मण्डल के विषय में लिखना चाहूंगा। यह नया बना मण्डल है जिसमें पहले के 5 विभिन्न जोनल रेलों के 5 मण्डलों के क्षेत्र शामिल किये गये हैं। स्टाफ अलग-अलग मण्डलों से आया होने के कारण यहां कार्य करने की हेट्रोजीनस कल्चर है। अत: पूरे तालमेल की और सुदृढ़ परम्परायें बनने की स्थिति में अभी समय लगेगा। पर जीवंतता सभी में दिखी - मण्डल रेल प्रबन्धक से लेकर सामान्य कर्मचारी तक में। (बायीं बाजू में मण्डल रेल प्रबन्धक दफ्तर के नये उभर रहे ट्रेन नियंत्रण कार्यालय का चित्र)

आगरा और आगरा में स्थित रेल प्रणाली से मैं प्रभावित हुआ। यह कहूं कि आगरा में आग है - शायद अलंकारिक होगा। पर सही शब्द शायद हो - आगरा में आब है!


(यह पोस्ट आगरा में लिखी और वहां से वापसी में 2404 मथुरा-इलाहाबाद एक्स्प्रेस से यात्रा में पब्लिश की जा रही है।)

वापसी की यात्रा प्रारम्भ होने पर प्रतीक से बात हुई - फोन पर। अच्छा लगा। मैं अगर पहले अपनी ई-मेल चेक कर लेता तो शायद आगरा में मिल भी लेते!


ब्लॉगस्पॉट : कृपया टिप्पणी के लिये पॉप-अप खिड़की दें।


ब्लॉगस्पॉट के ब्लॉग में अगर टिप्पणी करनी हो और टिप्पणी देने में लेख को पुन: देखने का मन करे तो लेख का पन्ना फिर खोलना पड़ता है। यह झंझटिया काम है। इससे कई बार टिप्पणी करनी रह जाती है। कई बार टिप्पणी की गुणवत्ता कम हो जाती है।AAA

बेहतर है ब्लॉगस्पॉट के ब्लॉगर बन्धु ब्लॉगर डैशबोर्ड में सेटिंग>कमेण्ट्स>शो कमेंट्स इन अ पॉप अप विण्डो? के लिये "हां" का विकल्प देने का कष्ट करें। इससे हम जैसे कम याद रखने वाले को टिप्पणी करते समय लिखी पोस्ट साथ-साथ देख पाने की सुविधा होती है।

हां, हम जैसे के लिये, जो आंखों पर कम जोर देना चाहते हैं, अगर शो वर्ड वेरीफिकेशन फॉर कमेण्ट्स? वाले विकल्प में "नहीं" स्टोर कर दें तो और भी अच्छा है।

(कृपया चित्र की सेटिंग देखें)


आज रात मैं इलाहाबाद से आगरा जा रहा हूं 2403इलाहाबाद-मथुरा एक्स्प्रेस में। यह पोस्ट ट्रेन में सम्पादित और वहीं से इण्टरनेट पर पोस्ट की जा रही है। इलाहाबाद-मथुरा एक्सप्रेस एक रेगुलर गाड़ी (जिसका टाइमटेबल में अस्तित्व हो) के रूप में 1 जुलाई 2007 से चलाने में मेरा प्रशासनिक योगदान रहा है और उसी ट्रेन में पहली बार ब्लॉग-पोस्ट पोस्ट कर रहा हूं। अपने आप में यह सुखद अनुभूति है। यह छोटी सी पोस्ट बनाने-पोस्ट करने का ध्येय यह अनुभूति लेना ही है!

दाईं ओर चित्र में मेरी पत्नी देर रात में ट्रेन में सोते हुये। वह थोड़ी रुग्ण हैं और हल्का कम्बल ओढ़ कर सो रही हैं।

पुन: सवेरे 6 बजे टुण्डला निकला है। मैं सोचता था कि मेरा सेल-वन का जीपीआरएस कनेक्शन यूं ही है। पर यह पोस्ट करने और टिप्पणी मॉडरेट करने का काम तो कर ही दे रहा है!


Monday, October 8, 2007

गुण्डी

शरारती बच्चा - जो अपने कहे की करे, दूसरे पर रोब जमाये और सामने वाले को तौल कर पीट भी दे, उसे कहते हैं - शैतान या गुण्डा। गुण्डा शब्द में लड़की को शामिल नहीं किया गया है। शायद लड़की से दबंग व्यवहार की अपेक्षा ही नहीं होती। पर छोटी सी पलक ऐसी है। उसे क्या कहेंगे? मैने ज्यादा दिमाग नहीं लगाया और नाम रख दिया - गुण्डी। मैं और मेरी पत्नी उसे गुण्डी कहते हैं।

Palak पलक पड़ोस में रहती है। उसके पिता रिलायंस के किसी फ्रेंचाइसी के पास नौकरी करते थे। वह नौकरी छोड़ कर उन्होने किसी अर्ध सरकारी स्कूल में अकाउण्टेण्ट की नौकरी कर ली है। पड़ोस में उसके पिता-माता एक कमरा ले कर रहते हैं। कमरे में पलक की मोबिलिटी के लिये ज्यादा स्थान नहीं है। सो उसकी माता येन-केन उसे हमारे घर में ठेल देती है।

और पलक पूरी ठसक से हमारे घर में विचरण करती है। यह देख कर कभी खीझ होती है कभी विनोद। तीन साल की पलक घर के हर एक वस्तु को छूना-परखना चाहती है। और जो वह चाहती है वह कर गुजरती है। मेरा गम्भीर-गम्भीर सा चेहरा देख कर मुझसे उसकी बातचीत नहीं होती। लेकिन अगर मुझे मोबाइल निकाले देखती है तो दौड़ कर पास चली आती है और इस आशासे ताकती है कि उसका फोटो खींचा जायेगा। फोटो खींचने पर यह उत्सुकता प्रकट करती है कि उसे फोटो दिखाया जाये। मैं अब सोचता हूं कि यदा कदा कैण्डी या टॉफी के माध्यम से उससे सम्वाद कायम करने का भी यत्न करूं।

अपने से कुछ बड़े बच्चों के साथ भी पलक दबंग है। उनकी चलने नहीं देती। कभी-कभी उन्हे पीट भी देती है। उसे देखना एक अनूठा अनुभव है।  

एक तीन साल की लड़की जो आज पूरी ठसक के साथ गुण्डी है, को घर समाज धीरे-धीरे परिवर्तित करने लगेगा। उसके व्यवहार में दब्बूपन भरने लगेगा लड़की सुलभ लज्जा के नाम पर। "कमर पर हाथ रख कर लड़कों जैसे नहीं खड़े हुआ करते" या "लड़कों जैसे धपर धपर नहीं चला करते" जैसे सतत दिये जाने वाले निर्देश अंतत: व्यवहार बदल ही देंगे।

यह देखने का विषय होगा कि आजसे 10 साल बाद पलक का व्यवहार कैसा होता है!

मेरे अन्दाज से वह गुण्डी तो नहीं रह पायेगी।   

Sunday, October 7, 2007

जीवन में सफलता और असफलता को लिपिबद्ध करने की सोच


failure असफलता कतरा कर नहीं जाती। आंख में झांकती है। प्वाइण्ट ब्लैंक कहती है - "मिस्टर जीडी, बैटर इम्प्रूव"! फटकार कस कर देती है। कस कर देने का मतलब अंग्रेजी में आत्मालाप। सिर झटकने, मेज पर मुक्का मारने, च-च्च करने में हिन्दी की बजाय अंग्रेजी के मैनेरिज्म ज्यादा प्रभावी हैं। असफलता उनका प्रयोग करती है। जब तक आत्मलताड़ और इम्प्रूवमेण्ट का सोच चलता है - तब तक अंग्रेजी के मैनरिज्म चलते हैं। पर जब अवसाद घेरने लगता है तो हिन्दी टेकओवर करने लगती है। अवसाद में करुणा है। वह मातृभाषा में प्रभावी ढ़ंग से बयान होती है। पता नहीं आप लोगों के साथ असफलता का कैसे भाषाई प्रभाव चलता है।

उम्र के साथ असफलता को झेलने की क्षमता कम होती जा रही है। वह जीजीविषा कम जगा रही है, अवसाद ज्यादा बढ़ा रही है। लिहाजा अपने ध्येय स्केल डाउन करने की प्रवृत्ति बन रही है। Gyan(036) एक साधनों की विपन्नता की सीमा पर चल रहे परिवार के लड़के से जीवन शुरू करने वाले मुझ को जितना जमीन पर मिला उतना कल्पना में उड़ने को भी मिला। अत: उड़ना और जमीन पर उतरना मेरे लिये नया नहीं है। 

किसी जमाने में - बहुत पहले स्कूली दिनों में; जब एनरिको फरमी की बायोग्राफी पढ़ रहा था तो नोबल पुरस्कार की सोचता था। मेरे विचार से बहुत से लोग किसी न किसी मुकाम पर वैसा सोचते/उड़ते हैं। उस समय (अंतत:) स्कूली शिक्षा में बोर्ड की मैरिट लिस्ट में आने वाले तथाकथित मेधावी छात्र सरकारी गजटेड अफसरी पर संतोष करने लगे थे। अब वे अमरीका जाने लगे हैं या इंफोसिस ज्वाइन करने लगे हैं। नोबल पुरस्कार से रेलगाड़ी हांकने के बीच असफलताओं-सफलताओं का एक बड़ा जखीरा मेरे पास है। उस जखीरे को टटोलने में बड़ा कष्ट होता है।

फिर भी मन करता है सफलता और असफलता के मेकेनिज्म - जैसे समझा-जिया है - पर लिखूं। आखिर कभी न कभी वह दस्तावेज लिखना ही है। उसमें से काफी अंश पूर्णत व्यक्तिगत होगा। पर बहुत कुछ ऐसा भी होगा जो शेयर किया जाये। फिर लगता है कि हममें क्या सुर्खाब के पर लगे हैं! जो कुछ उनमें लिखा जायेगा, वह किसी न किसी प्रकार से पहले भी लिखा जा चुका है। एक मन होता है कि इस विषय पर जो कुछ पढ़ा है उसपर लिखना प्रारम्भ करूं - ज्यादातर उसमें से मोटीवेशनल लिटरेचर से प्रकटित हुआ है। उस लेखन में अपने अनुभव भी समाहित हो सकते हैं।

कुछ दिन पहले मेरी "दो चेतावनी देती पोस्टें" पर टिप्पणी करते हुये प्रशांत प्रियदर्शी (PD) चेतन भगत और रोबिन शर्मा का नाम ले रहे थे। ये मेरे आदर्श तो नहीं हैं पर इन जैसे अनेक को पढ़ा गुना है। उपनिषद-गीता-मानस से होती हुई एक धारा वर्तमान युग के लेखकों तक आती है। उनको अपने तरीके से चुना जा सकता है। यह सब जरूरी नहीं कि ब्लॉग दुनियाँ को पसन्द आये। जब गान्धीजी पर लोग उलट सोच रख रहे हैं - तब यह लिखना डाइसी (dicey) है।

पर क्या डाइसी नहीं है? 


Saturday, October 6, 2007

पत्ता खड़का - झारखण्ड बन्द


कल शाम मेरी मेज पर सन्देश आया - झारखण्ड बन्द के कारण पूर्व मध्य रेलवे मुख्यालय 11 मेल एक्स्प्रेस ट्रेनों के डायवर्शन (रास्त बदल) और एक ट्रेन को रात भर रोके रखने के लिये कह रहा है. नक्सली बन्द है. कोई झिक झिक नहीं. गाड़ियां रुकेंगी तो रुकेंगी, रास्ता बदल कर जायेंगी तो जायेंगी. यात्री सुरक्षा सर्वोपरि है. पीरियड.

रात में गोमो-बरकाकाना-गरवा रोड-चोपन खण्ड पर चलने वाली रेलगाडियां उस खण्ड पर नहीं डाली गयीं. आने वाले चौबीस घण्टे में भी यही रहेगा. पिछली बार के बन्द में तो हमें एक ट्रेन 4-5 स्टेशन वापस घुम कर लानी पड़ी थी दूसरे रास्ते से भेजने के लिये.   

jharkhandrailsबन्द क्यों और किस प्रकार डिक्लेयर होता है एमसीसी या अन्य नक्सलियों द्वारा? यह जानने के लिये मैं पूर्व-मध्य रेलवे के उच्च अधिकारी से पूछता हूं. वे भी झुंझला कर जवाब देते हैं. बस जी कुछ देर पहले पता चला. वह भी दानापुर मण्डल के एक पुलीस अधिकारी ने बताया. बोकारो - गिरिडीह में अपने रिश्तेदारों से पूछता हूं. जवाब मिलता है कि पता चल जाता है. कभी अखबार में बयान छप जाता है नक्सली लोगों का. कभी वैसे शोर मच जाता है. पर इस बन्द के बारे में उन्हे खबर नहीं थी.

अब नक्सली आकस्मिक स्ट्राइक करना चाहते हैं या विधिवत बन्द करना? यह कोई राजनैतिक बन्द तो है नहीं कि विरोधी पार्टी वाले उसका उल्लंघन का प्रयास करें. हिंसात्मक बन्द का प्रतिकार जब सरकार नहीं कर पाती तो जनता क्या करेगी? लिहाजा शांति से बन्द के विषय में समय से बता दें, जनता स्वत: अनुसरण करेगी. वैसे भी मैने देखा है कि वहां वाहन कारवां में चलते हैं रात में. अकेले विचरण करने का दुस्साहस कम ही वाहन करते हैं.  

ऐसे में प्रचार तो पर्याप्त होना चाहिये बन्द का. बाड़मेर पुलीस के पास ब्लॉग है जो रोज की जिले की गतिविधियां बताता है तो नक्सली ग्रुप के पास ऐसे ब्लॉग क्यों न हों जिन पर बन्द जैसी गतिविधियों की अग्रिम सूचना हो?1 जिस प्रकार से शॉर्ट नोटिस पर बन्द होते हैं उसके अनुसार सूचना स्कैन करने को ही लोग ढ़ेरों क्लिक करेंगे. विचारधारा का प्रसार भी इस तरह से सम्भव है. पता नहीं नक्सली ग्रुप फ्लैट होते विश्व की कितनी तकनीकें प्रयोग करते हैं. अल-कायदा तो बहुत करता प्रतीत होता है. 


1. मैने माओइस्ट रजिस्टेंस, रजिस्टेंस और नक्सल रजिस्टेंस नाम के ब्लॉग पाये हैं जो नक्सली विषय वस्तु रखते हैं. मैं जान बूझ कर इनके लिंक नहीं दे रहा हूं. रजिस्टेंस नामक ब्लॉग पर तो यह लिखा है कि यह ब्लॉग हैक हो चुका है. यद्यपि हैक करने पर उसका डिसफिगरमेण्ट नहीं हुआ है. ये ब्लॉगस्पॉट और वर्डप्रेस पर बने हैं. 

पर ये सभी ब्लॉग साइटें मात्र प्रचार सामग्री या फिर अखबारों की कतरनें (उबासी...) छाप रही हैं. इन ब्लॉगों पर ढेरों लिंक हैं. कहीं पर किसी बन्द की अग्रिम सूचना नहीं दीखती.