Friday, March 30, 2007

अच्छा मित्रों, राम-राम!

महीना भर हिन्दी में लिखने की साध पूरी कर ली. रूटीन काम के अलावा रात में ट्रेन ऑपरेशन से जुड़ी़ समस्याओं के फोन सुनना; कभी-कभी ट्रेन दुर्घटना के कारण गाडि़यों को रास्ता बदल कर चलाने की कवायद करना; और फिर मजे के लिये दो उंगली से हिन्दी टाइप कर ब्लॉग बनाना - थोडा़ ज्यादा ही हो गया. यह चिठेरी इतनी ज्यादा चल नहीं सकती, अगर आपका प्रोफेशन आपसे एक्सीलेन्स की डिमाण्ड रखता हो.

मैं यूं ही चिठ्ठे पर हाइबरनेशन में जा सकता था. पर शायद नहीं. आपको अगर खैनी खाने की लत लग जाये तो उसे छोड़ने का तरीका यही है कि आप एनाउंस करदें कि अब से नहीं खायेंगे. मैने कभी तम्बाकू का सेवन नहीं किया है, पर चिठेरी छोड़ने को वही तकनीक अपनानी होगी. वर्ना एक पोस्ट से दूसरी पर चलते जायेंगे.

मैं यह लिख कर लत छोड़ने का एनाउन्समेंट कर रहा हूं.

नारद की रेटिंग में २-३-४ ग्रेड तक गुंजाइश है. उतना तो मेन्टेन कर ही लेंगे. ब्रेन-इन्जरी पर लिखना है. कई भाइयों ने सहायता का आश्वासन दिया है. तो अपने को तैयार करना ही है.

अभयजी (मैं अभय से अभयजी पर उतर रहा हूं - उनसे पंगे रिजाल्व जो नहीं हो पाये) से विशेष राम-राम कहनी है.

ब्लॉग में लिखने का अनुभव कुछ वैसा था - जैसे रेलवे के अपने कैरिज से निकल कर ट्रेन में गुमनाम सफर करते दोस्त बना रहा होऊं. रेलवे के कम्पार्टमेण्टलाइज्ड जीवन में वह मजा नहीं है. यहां तो ऊर्ध्वाकार सेट-अप में या तो आप अफसर हैं, या आपके ऊपर कोई अफसर है.

अच्छा मित्रों, राम-राम!

भईया, मन्दिर में राम कैद तो नहीं होंगे.

अभय तिवारी ने बडी़ सुन्दर पोस्ट लिखी भगवान राम पर. लेकिन किसी मजबूरी वश पोस्ट में चलते-चलते लीप-पोत दिया. राम मन्दिर अयोध्या में बनाने में आस्था डगमगा गयी. मंदिर में राम बंधक नजर आने लगे.

यह मजबूरी बहुतों की है. लोग मुसलमान यार-दोस्तों की यारी एक पत्थर के मंदिर के नाम पर तोड़ना नहीं चाहते. भारत के धर्म-निरपेक्ष संविधान में आस्था (?) राम पर मूर्त-आस्था से भारी पड़ती है. नहीं तो; विश्व हिन्दू परिषद के भगवाधारियों, तोगड़ियाजी जैसे "श्रिल" आवाज बोलने वालों और त्रिशूल भांजने वाले बजरंगीयों से एलर्जी के चलते; आप राम मंदिर से अपने को अलग कर लेते हैं. कईयों को अपनी मजदूरी पर असर आने की आशंका होती है.

पर राम के विषय में सोच पर यह मजबूरी आडे़ नहीं आने देनी चाहिये.

राम और कृष्ण भारत के अतीत या मिथक नहीं हैं. वे; जो अद्भुत होने जा रहा है; उसकी नींव रखने वाले हैं. मैं इस बारे में श्री अरविन्द का प्रसिद्ध कथन प्रस्तुत कर रहा हूं:
There are four very great events in history , the siege of Troy, the life and crucifixion of Christ, the exile of Krishna in Brindavan and the colloquy with Arjuna on the field of Kurukshetra. The siege of Troy created Hellas, the exile in Brindavan created devotional religion, (for before there was only meditation and worship), Christ from his cross humanised Europe, the colloquy at Kurukshetra will yet liberate humanity.Yet it is said that none of these four events ever happened.
-Sri Aurobindo

यह कथन गीता के विषय में है. पर वही राम के चरित्र पर भी सटीक है.

अत: राम को मन मन्दिर में बिठाना तो है ही; टेण्ट में उपेक्षित रामलला की प्रतिमा से जो अभीप्सा को ठेस लगती है, उसे भी दूर करना है. यह ठेस गली कूचों में उपेक्षित हनूमानजी या शिवजी की पिण्डी से लगने वाली ठेस से तुलनीय नहीं है.

आप यह कह सकते हैं कि मंदिर बनाने में साम्प्रदायिक सद्भाव बिगड़ने का खतरा है (पर इतने बडे़-बडे़ नेता बड़ी तनख्वाह या रुतबा समस्या का समाधान निकालने के लिये ही तो लेते हैं!). और आप यह भी कह सकते हैं कि वर्तमान स्थितियों में मंदिर बनाना फिजिबल नहीं है. पर यह तो न कहिये कि राम वहां कैद हो कर रह जायेंगे. कैद तो हमारी मानसिकता हो सकती है - राम नहीं.

अभय से पंगा लगता है सलटेगा नहीं!

क्रिकेट पर रुदन बेचने का मौसम है मित्र!

शिव मिश्र लिखते हैं कि क्रिकेट पर मीडिया का रुख अच्छा नहीं है. मीडिया माने टीवी वाले. कई दिनों से टीवी वाले माइक और कैमरा ताने हैं. कई आतंकवादी बैनर हेडलाइन दिखा रहे हैं - "शेर हो गये ढेर" या "नाक कटा दी". टीवी पर जो कहते हैं, उसका सार है कि "क्रिकेट वाले अच्छा नहीं खेलते. खिलाडी़ कमर्शियल हो गये हैं. उन्होंने क्रिकेट को बजारू बना दिया है. आदि-आदि."

शिव के अनुसार इन मीडिया वालों ने क्या न्यूज को बजारू नहीं बनाया? अगर न्यूज बजारू बन सकती है तो कुछ भी बजारू बन सकता है. टीवी वाले अब भी क्रिकेट वालों की मदद से प्रोग्राम बेच रहे हैं. उसके लिये अब क्रिकेटरों को बुला कर हार पर चर्चा करते हैं.

क्रिकेट को मीडिया धार्मिक उन्माद की तरह हवा दे रहा है. धार्मिक उन्मादी जिस तरह व्यवहार करते हैं, क्रिकेट के उन्मादी उससे अलग नही हैं.

लोग (मीडिया उनमें शामिल है) जहां हाथ डालते हैं, फेल होते हैं. फेल होना राष्ट्रीय चरित्र है. पर लोग क्रिकेट में फेल होना बर्दाश्त नहीं कर सकते!

अब क्रिकेट टीम हार गयी है. बेचारों को घर जाने दें. कुछ तो रिटायर हो जायेंगे या कर दिये जायेंगे. कुछ अपने होटल-रेस्तरॉ चला लें. लड़कीनुमा औरतों को, जो क्रिकेट के फाईन-लेग पर अपना फाईन लेग चिपका कर मीडिया वालों की टीआरपी रेटिंग बढा़ रही थीं; रैम्प-वैम्प पर जाने दें. झाड़-पोंछ कर निकाले गये पुराने क्रिकेटर जो बहुत बतिया चुके, वे भी अब घर जायें.

टीवी पर जो विश्व कप में हार की चर्चा को फेंटा जा रहा है, उसकी बजाय अमिताभ बच्चन/शाहरुख खान/आमिर खान आदि से नवरतन तेल या कोका कोला बिकवाया जाये.

भगवान के लिये ये जिहाद बन्द हो!

(फुटनोट: शिव मिश्र मेरे छोटे भाई हैं, इसलिये उनके व्यस्त समय में मैं कभी भी धकिया कर घुस जाता हूं और आर्थिक सलाह तो फोकट में लेता हूं. वे सटायर लाज़वाब लिखते हैं. उनसे कह रहा हूं कि ब्लॉग प्रथा का वरण कर लें; पर अभी झिझक रहे हैं.)

Thursday, March 29, 2007

निरालाजी के इलाहाबाद पर क्या गर्व करना?

मुझे एक सज्जन ने पूरे फख्र से टिप्प्णी में कहा है कि वे निराला के इलाहाबाद के हैं. उसपर एक अन्य मित्र ने बेनाम टीप करते हुये निरालाजी की मन्सूर से तुलना की है - "अगर चढ़ता न सूली पर तो वो मन्सूर क्या होता". निराला, जैसा मुझे मालूम है, इलाहाबाद में फक्कडी और बदहाली में जिये (और मरे). पत्नी व पुत्री की अकाल मौत, कौडी़ के मोल अपनी पुस्तकों का कापीराइट बेचना, बेहद पिन्यूरी में जीवन और अनेक प्रकार के दुखों ने उन्हे स्किट्ज़ोफ्रेनिया का मरीज बना दिया था - ऐसा विकीपेडिया पर एन्ट्री बताती है. उनकी कविता की गहराइयों का आकलन करने की मेरी काबलियत नहीं है. पर एक शहर जो ऐसे साहित्यकार को तिल-तिल कर मारता हो - और इलाहाबाद में (जुगाडू़ साहित्यकारों को छोड दें तो) वर्तमान में भी साहित्यकार लोअर मिडिल क्लास जीवन जीने को अभिशप्त होंगे - कैसे निराला पर हक जमाता है?

मैने मन्सूर को भी इन्टर्नेट पर छाना. अल-हुसैन इब्न मन्सूर अल हल्लाज सूफी सम्प्रदाय का था. उसने मक्का, खोरासान और भारत की यात्रायें की थीं. अंत में बगदाद में सेटल हो गया. बगदाद की बजाय बरेली में होता तो शायद बच जाता. बगदाद में उसे कुफ्र बोलने के कारण सूली पर चढा़ दिया गया. सूली पर न चढ़ता तो मन्सूर मन्सूर न होता. निरालाजी भी अगर इलाहाबाद में थपेडे़ न खाते तो इलाहाबाद के आइकॉन न बनते! जो शेर बेनाम सज्जन ने टिप्पणी में लिखा है:
  • kiya daava analahak ka,hua sardar aalam ka

Agar charhta na shooli par,to woh Mansoor kyon hota.

Allahabad Nirala ji tak aakar ruk jaata hai.....

उसका लब्बोलुआब यही है. यह समझनें में मेरी ट्यूब लाइट ने २४ घण्टे से ज्यादा ले लिये. बेनाम जी को निश्चय ही सशक्त समझ है.
निराला जी की ग्रेट्नेस इलाहाबाद के बावजूद आंकी जानी चाहिये. इलाहाबाद को उनकी महानता में हिस्सेदारी न मिलनी चाहिये न वह उसको डिजर्व करता है. जैसे कि मन्सूर की शहादत पर बगदाद का कापीराइट नहीं है.

मेरे इस लेखन से मेरे पिताजी को कष्ट होगा जो इलाहाबादी हैं. पर मुझे तो इलाहाबाद के इतिहास से अटैचमेण्ट नहीं है .

(वर्तमान में इलाहाबाद व उसके आस-पास का अंचल कैसे प्रगति कर रहा है या सड़ रहा है; उसपर फिर कभी लिखूंगा.)

Wednesday, March 28, 2007

सरकारी अफसर की साहित्य साधना

श्रीलाल शुक्ल सरीखे महान तो इक्का-दुक्का होते हैं.
ढेरों अफसर हैं जो अपनी प्रभुता का लाभ ले कर - छोटे दायरे में ही सही - साहित्यकार होने की चिप्पी लगवा लेते हैं. सौ-सवासौ पेजों की एक दो किताबें छपवा लेते हैं. सरकारी प्रायोजन से (इसमें राजभाषा खण्ड की महती भूमिका रहती है) कवि सम्मेलन और गोष्ठी आयोजित करा श्रीफल-शॉल लेते फोटो भी खिचवा लेते हैं अपनी. फोटो और उसकी रपट प्रायोजित त्रैमासिक विभागीय पत्रिका में छ्प जाती है.
अभी, जितनों को जानता हूं, वे ब्लॉग-व्लॉग बनाने के अभियान में नहीं पिले हैं. मेरे विचार से अभी इसमें मेहनत ज्यादा है, मुनाफा कम. शायद जानकारी का भी टोटा है. जब नारद के चिठेरे १०-१२ हजार पार हो जायेंगे, तब साहब का स्टेनो/सुपरवाइजर उनका ब्लॉग बना कर चमकाने लगेगा. नया भरती हुआ कम्प्यूटर जानने वाला लडका उनके ब्लॉग में चार चांद लगायेगा. साहब तो केवल प्रजा-वर्ग में शान से अपना ब्लॉग दिखायेंगे; जैसे वे अभी अपनी ताजा कविता या पुस्तक दिखाते हैं.
मैं रेलवे में ढेरों साहित्यकार-अफसरों को देख चुका हूं. इनकी पुस्तकें तो १-२ पन्ने से ज्यादा नहीं पढ़ पाया. कुछ मेरे पास अब भी हैं. पत्नी नाक-भौं सिकोड़ती है - "पढ़ना नहीं है तो काहे कबाड़ जमा कर रखा है". इन अफसरों के प्रभा मंण्डल में शहर के अच्छे साहित्य के हस्ताक्षर, पत्रकार और बुद्धिजीवी आते हैं. बम्बई में तो ऐसे लोगों के आसपास फिल्म वाले भी दीखते थे. इस प्रभा मण्डल पर बहुत कुछ खर्च करना हो, ऐसा भी नहीं है. भीड़ के महीने में एक दो गाडियों में रिजर्वेशन दिला देना, स्टेशन मैनेजर के वी.आई.पी. कमरे में एक कप चाय के साथ ट्रेन के इन्तजार में बैठने का इन्तजाम करा देना जैसे टिलिर-पिलिर काम करने पड़ते हैं. पत्रकारों को तो उनके बनिया मालिकों ने विज्ञापन कबाड़ने का कोटा भी सौप रखा है. अत: टेण्डर नोटिस या " जहर खुरानों से सावधान" छाप कुछ विज्ञापन दिलवा देने पड़ते हैं. कभी-कभी प्रेस रिलीज से हटकर आन-आफ द रिकार्ड सूचना दे देनी होती है, बस. साहित्यकारों की कुछ पुस्तकें सरकारी खरीद में जोड़नी होती हैं. इसी तरह की छोटी रेवडीयां बांटने से काम चल जाता है.
ऐसे अफसर ज्यादातर विभागीय काम में दक्ष नहीं होते. पर जुगाडू़ बहुत होते हैं. इनका जनसम्पर्क सशक्त होता है. लिहाजा उन्नति भी अच्छी करते हैं. केवल यह जरूर होता है कि इनसे साहिय/समाज/परिवेश को लाभ नहीं होता.
साहित्य में श्रृजक हैं, ईमानदार लेखक हैं, कलम के मजदूर भी हैं. कलम लेकिन जोंक में भी तब्दील हो जाती है - यही मैं कहना चाहता हूं.

Monday, March 26, 2007

आइये हम सब अमेरिका को गरियायें

अमेरिका को गरियाना फैशन है.
आपके पेट में दर्द, कब्ज, बदहजमी है तो अमेरिका को गरियायें. मेकडॉनेल और फास्ट फूड उस की देन है, जिससे यह तकलीफ आपको झेलनी पड़ रही है.

आप विद्यार्थी हैं, परीक्षा में ठीक नहीं कर पा रहे हैं तो अमेरिका को गरियायें. इन्टर्नेट पर इतनी एक्सरेटेड साइट्स वहीं से आई हैं जो आपको भरमाये रहीं और पढने का मौका ही नहीं मिला.

आपका बजट बिगड़ रहा है. क्रेडिट कार्ड का मिनिमम पेमेन्ट भी मारे डाल रहा है - अमेरिका को गरियायें. ललचाने को इतनी तरह की चीजें वह बाजार में न लाया होता तो आपका बैलेंस बना रहता.

लोग स्वार्थी हो रहे हैं - उसके लिये बाजारवाद (यानी अमेरिका)जिम्मेदार है. मौसम बिगड़ रहा है - पर्यावरण दोहन के लिये अमेरिका को कोसें. सारी कमियां विश्ववाद और बाजार (यानी अमेरिका) पर मढ़ कर हम सामुहिक विलाप करें.

इसमें लेटेस्ट है - पत्रकार बेचारों को अखबार की बजाय चिठेरी (ब्लॉगिंग) का माध्यम भी अपनाना पड़ रहा है. अमेरिकी बाजारवाद के चलते अखबार का मालिक उनके मुंह पर पट्टी बांध देता है. जो वो कहे वही लिखना पड़ता है. लिहाजा चिठेरी करनी पड़ती है. अब हिन्दी चिठ्ठों में ऐसा कुछ नजर तो नही आया कि अखबार का मालिक उनके मुंह पर पट्टी चिपका दे. आपको ब्लॉगिंग करनी है तो करें - फ्री है यह. उसके लिये अखबार मालिक/बाजारवाद/अमेरिका को कोसना न जरूरी है, न जायज.

मजे की बात है कि अमेरिका को कोसा जा रहा है; ब्लॉगिंग जस्टीफाई करने को. और ब्लॉगिंग का प्लेटफार्म, फ्री स्पीच का मौका इन्टर्नेट ने दिया है - जो बहुत हद तक अमेरिका की देन है. आप अमेरिका को कोसें, वर्वर राव का महिमा मण्डन करें, टाटा को लतियायें - फ्री स्पीच का प्लेटफार्म है ही इसी के लिये. आप ऐसा करेंगे क्यों कि आप जानते है कि यह सब बिकता है. बाजार को कोसने में बाजार की ही तकनीक!

आइये हम सब मिल कर अमेरिका को गरियाये.

Sunday, March 25, 2007

धन पर श्री अरविन्द


भारतीय मनीषियों व दार्शनिकों ने धन पर बहुत सकारात्मक नहीं लिखा है. माया महा ठगिनी है यही अवधारणा प्रधान रही है. धन को साधना में अवरोध माना गया है. स्वामी विवेकानन्द ने तो अपने गुरु के साथ उनके बिस्तर के नीचे पैसे रख कर उनके रिस्पांस की परीक्षा ली थी.

धन के दैवीय होने की बात तो श्री अरविन्द ने ही की है.

श्री अरविन्द की छोटी सी, पर अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक है माता (The Mother). इसके चौथे अध्याय में धन पर चर्चा है. मैं इसका पहला पैरा आपके सामने रखता हूं:


धन एक विश्वजनीन शक्ति का स्थूल चिन्ह है. यह शक्ति भूलोक में प्रकट हो कर प्राण और जड़ के क्षेत्रों में काम करती है. बाह्य जीवन की परिपूर्णता के लिये इसका होना अनिवार्य है. इसके मूल और इसके वास्तविक कर्म को देखते हुये, यह शक्ति भगवान की है. परंतु भगवान की अन्यान्य शक्तियोंके समान यह शक्ति भी यहां दूसरों को सौप दी गयी है और इस कारण अध:प्रकृति के अज्ञानान्धकार में इसका अहंकार के काम में अपहरण हो सकता है अथवा असुरोंके प्रभाव में आकर विकृत होकर यह उनके काम आ सकती है. मानव अहंकार और असुर जिन तीन शक्तियों से सबसे अधिक आकर्षित होते हैं और जो प्राय: अनाधिकारियों के हाथ में पड़ जाती हैं तथा ये अनाधिकारी जिनका दुरुपयोग ही करते हैं, उन्ही आधिपत्य, धन और काम इन तीन शक्तियों में से एक शक्ति है धन. धन के चाहने या रखने वाले धन के स्वामी तो क्या होते हैं, अधिकतर धन के दास ही होते हैं.....

श्री अरविन्द की पुस्तक का यह अध्याय धन के विषय मे‍ हमारी कई रूढ़ियां दूर करता है. धन के प्रति आसक्ति और अरुचि दोनों ही अहंकारी या आसुरी स्वभाव हैं. हम दरिद्रता में हों तो वेदना न हो और भोग विलास में हों तो असंयम के दास न हों - जब यह सही एटीट्यूड रख कर धन का अर्जन ईश्वरीय कार्य के लिये करेंगे तभी श्रेयस्कर होगा.

आपने न पढ़ी हो तो कृपया यह पुस्तक पढें.

मैं बैटरी वाली साइकल लूंगा!

टाटा की लखटकिया कार आयेगी तो मोटर साइकल वाले अपग्रेड हो कर सड़कें पाट देंगे. सडकें जब गलियों में तब्दील हो जायेंगी (जैसे कि अब नहीं हैं क्या?) तब पतली गली से निकलने को साइकल ही उपयुक्त होगी. अत: मेरा लेटेस्ट चिंतन है कि मैं बैटरी वाली साइकल लूंगा.

इस बारे में मैने फाइनांस मिनिस्टरी (पढ़ें मेरी पत्नी) से चर्चा कर अप्रूवल भी ले लिया है. वहां से अप्रूवल बड़ी मुश्किल से मिलता है. किसी जमाने में उनका नजरिया था कि मापेड पर चलने की बजाय गधे पर सवारी करना ज्यादा बेहतर विकल्प है. पर अब सवेरे की सैर के समय भीड और चांद की सतह वाली सडकें देख कर उन्होंने अपना मत बदल लिया है.

बैटरी वाली साइकल के मार्केट में कई प्लेयर कूदने वाले हैं. एवोन साइकल्स, के ई वी इण्डिया, कैसर आटो मोटो, एटलस साइकल्स, ऐस मोटर्स, इलेक्ट्रोथर्म, हीरो साइकल्स आदि अगले साल भर में डेढ लाख बैटरी वाली साइकलें बाजार में उतार देंगे.

दस पैसे में एक किलोमीटर चलना, कम प्रदूषण, कम स्पीड से कम दुर्घटना का जोखिम, रजिस्ट्रेशन से मुक्ति, पतली गली से मेन्यूवर कर निकल लेने की सुविधा बड़े फायदे हैं इस साइकल के. बस दो बातों की समस्या है. एक तो इन साइकलों का पे-लोड केवल 75 किलो है. अत: अपना वजन कम करना होगा. दूसरे, पत्नी की यह चिंता कि वरिष्ठ प्रशासनिक ग्रेड का सरकारी अफसर साइकल पर चलता कैसा लगेगा कब सिर उठा कर फुंकारने लगेगी और अप्रूवल विड्रा हो जायेगी कहा नहीं जा सकता. कई बार अपनी सहूलियत, सोच और निश्चय पर लोग क्या कहेंगे भारी पड़ जाता है.

बैटरी वाली साइकलें यातायात में गम्भीर योगदान देंगी. इंटरनेशनल हेरल्ड ट्रिब्यून का यह पन्ना देखें.

Saturday, March 24, 2007

टेक एनदर वन ऑन नंदीग्राम

नन्दीग्राम का मसला राजनैतिक रूप से क्या शक्ल लेगा इसपर अदिती फड़नीस ने बढ़िया कयास लगाया है आज के बिजनेस स्टेण्डर्ड में. मैं उसका अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूं:

“………. सीपीएम बलि का बकरा ढूढ़ रही है. मजे की बात है कि यह बलि का बकरा काँग्रेस मुहय्या करायेगी. सीबीआई की नन्दीग्राम मामले पर अंतरिम रपट बड़ी मासूमी से घटना में बाहरी तत्वों का हाथ बताती है.... इस बात के प्रमाण हैं कि सीबीआई को कुछ दंगाइयों को पकड़ने के लिये उत्प्रेरित किया जायेगा जिनपर 14 लोगों की हत्या का इलजाम लगाया जा सके. और भट्टाचारजी (जो 10 साल से पुलीस महकमा देख रहे हैं) को निशाने से बरी कर दिया जायेगा. एक मासूम सी सीबीआई रपट से कांग्रेस सीपीएम को फिग-लीफ प्रदान करेगी जिससे वह मामले में अपना इंवाल्वमेंट छिपा सके.

बदले में सीपीएम को मना लिया जायेगा कि वह् इंश्योरेंश और पेंशन आदि के आर्थिक सुधार के मुद्दों पर अपना रुख नरम रखे.....कुल मिला कर सभी पार्टियां अपने हाथों पर लगा खून बांट लेंगी और सब प्रसन्न हो कर घर जायेंगे.

यानी नन्दीग्राम के 14 लोगों की शहादत का बेनीफिट आर्थिक सुधारों को मिलेगा (शायद) जिसके खिलाफ नन्दीग्राम वाले आन्दोलन कर रहे थे!

ये तो होना ही था वाला गाना आप गा सकते हैं. शिवजी का नन्दी इस पर क्या कहेगा?

"नन्दीग्राम लाल सलाम" : कितने लाल सलाम के ब्लॉग बनायेंगे?

नारद पटा पडा़ है "नन्दीग्राम लाल सलाम" और इसी तरह की चिठ्ठा पोस्टों से. इस एक नन्दीग्राम को मीडिया भी प्रॉमिनेण्टली हाईलाइट कर रहा है. पर और कितने नन्दीग्राम हैं? और केवल कमीनिस्ट ही क्यों, जितने भी तरह के इस्ट वाले हैं, दबंगई में नन्दीग्राम-नन्दीग्राम खेलते हैं. कितने लाल सलाम के ब्लॉग बनायेंगे आप?

लाल सलाम के ब्लॉग बनाने में एक और झगडा है. आप तो केवल ब्लॉगर हैं, हर दमन का विरोध करेंगे. पर जो सडक पर लडा़ई कर रहे हैं, उनकी प्रतिबद्धता का क्या भरोसा है? दमन के विरोधमें लड़ने वाले कब खुद वही खेल खेलने लग जाते हैं - कहना मुश्किल है. जेपी (भगवान उनकी आत्मा को शान्ति दे) के साथ वाले "सिंघासन खाली करो कि जनता आती है" का गायन छोड़ खुद सिंघासन पर बैठ गये. जनता वहीं है, जहां थी. असम में छात्रनेता सत्तासीन हुये और पता नहीं उन सिद्धान्तों का क्या हुआ, जिनकी दुहाई से वे जनता के सिरमौर बने थे. आदिवासियों के मसीहा एक झारखण्डी नेता तो हत्या के मामले में सजा पा रहे हैं. सब कुओं में भांग घुली है तो लाल सलाम का ब्लॉग क्या करेगा?

नन्दीग्राम लाल सलाम वाले चिठ्ठे पर मैं हो आया हूं. उस में जो लिखा है उसके प्रति मैं प्रतिबद्ध नहीं हूं पर वह सही है, इसपर कोई मतभेद भी नहीं है. एक निरीह सी टिप्पणी भी कर दी है उसमें ताकि ये न लगे कि मैं कमीनिस्टों की साइड वाला हूं. पर नन्दीग्राम घिसने से ज्यादा महत्वपूर्ण काम किये जा सकते हैं.

बहुत जगह महाभारतें चल रही हैं. बस यही नही मालूम कि कौन पाण्डव हैं, कौन कौरव. कृष्ण कहां हैं यह भी पता नहीं. ब्लॉगर संजय है या महाभारत लड़ रहा है - यह सोचने का विषय है. फिर कौन पाण्डव कब कौरव बन जाता है - पता ही नहीं चलता.

Friday, March 23, 2007

रेलवे अधिकारियों को लैप- टाप देने जा रही है.

भारतीय रेलवे इस समय बम-बम है. अपने को स्वर्णिम युग में पा रही है. भारतीय अर्थ व्यवस्था के ८-९ प्रतिशत के उछाल के समय को बखूबी भुनाया जा रहा है और इसमें कुछ भी गलत नहीं है. इसके टर्न एराउण्ड को देख कर बहुतों ने खीसें निपोर दी हैं; जो कल तक इसका मर्सिया पढ़ने की तैयारी कर रहे थे. हमारे अधिकारी वर्ग में भी अनेक थे जो इस बात से परेशान थे कि रिटायर होने पर पेंशन मिल पायेगी भी या नहीं. अब सभी "हम हो गये कामयाब" का गीत गा रहे हैं.

रेलवे अब अपने कनिष्ठ प्रशासनिक ग्रेड व ऊपर के अधिकारियों को लैपटाप दे रही है. रु. ५०-५५ हजार में ठीक ठाक मशीन आ जायेगी. कुछ लोग अपनी क्षमता में निश्चय ही वृद्धि कर पायेंगे. कुछ उस दिशा में अग्रसर होंगे. पर अधिकांश की स्थिति में बहुत अंतर आने वाला नहीं लगता. मुझे बिजनेस-वीक में छपे लेख की याद आ रही है जो परसों उनके न्यूजलैटर में मेरे पास आया था. इस लेख में है कि जापान और दक्षिण कोरिया में विश्वस्तरीय आईटी नेटवर्क के बावजूद वहां के कर्मी अपनी कुर्सियों से बंधे बैठे हैं. कारण बताया गया है कि वहां वातावरण कंजरवेटिव है. हमारे यहां भी स्थिति वैसी ही है.

हमारे यहां अफसर कमरे में बैठते हैं. चपरासी बाहर बैठ कर कमरे से आने-जाने वाले ट्रैफिक का प्रबंधन करता है. निर्णय ईमेल से नहीं फाइल पर नोटिंग और करस्पॉण्डेन्स साइड पर १०-१० पन्ने व दर्जनों दस्तखत के बाद होते हैं. दफ्तर में काम के आधार पर नहीं, समय से उपस्थिति के आधार पर कार्यकुशलता को मापा जाता है. ऐसे में लैपटाप बहुत अंतर डाल पायेगा - क्या मालूम. लैपटाप केवल एक औजार है. यह मानसिकता तभी बदल सकता है, जब लोगों में रचनात्मकता हो. सीमायें तोड़ने का जज्बा हो.

एक चमत्कार रेलवे नें कर दिखाया है. राकेश मोहन कमेटी की हाइपोथिसिस कूडे़ के हवाले हो गयी है. लैपटाप सामन्ती मानसिकता में कुछ बदलाव ले आये - यह देखना रोचक होगा.

Thursday, March 22, 2007

केवल भारत का ही कद बढा़ है : बीबीसी का सर्वेक्षण

यूपोरियन भाषा में कहें तो चऊचक खबर है. बीबीसी वल्ड सर्विस और ग्लोब-स्कान के २७ देशों मे २८००० लोगों से किये सर्वेक्षण में निकला है कि भारत ही एकमात्र देश है जिसने पिछले वर्ष में अपना कद व्यापक तौर पर बेहतर किया है. इस सर्वे के अनुसार इज्राइल और ईरान को सबसे नकारात्मक देश माना जाता है.
भारत की स्थिति में महत्वपूर्ण सुधार है. ब्रिटेन, रूस, चीन व फ्रांस की रेटिंग में गिरावट है. संयुक्त राज्य अमेरिका काफी लुढ़का है.
कृपया यह रिपोर्ट देखें. लोग सॉफ्ट-पावर को सकारात्मक और मिलिटरी के प्रयोग तथा उसको बढा़ कर दादागिरी करने वालों को नकारात्मक मानते हैं.

मनमोहन सिंह जी का जयकारा लगाने का "सकारात्मक" मामला बनता है यह.

नौजवानों; यह गलती न करना

गलतियों का भी कोटा होता है. कुछ लोग अपना कोटा जल्दी-जल्दी पूरा करते हैं, फिर उन्नति की राह पर सरपट दौड़ने लगते हैं. कुछ बार-बार एप्लिकेशन देकर अपना कोटा बढ़वाते रहते हैं. हमारे जैसे तो अपरिमित कोटा लेकर आते हैं. गलतियों से फुर्सत ही नहीं मिलती कि उन्नति की राह को झांक भी सकें. हमसे कोई पूछे कि आप करना क्या चाहते हैं? आपके लक्ष्य क्या हैं? तो हम ब्लैंक लुक देते हुये कुछ ये भाव चेहरे पर लायेंगे - "देखते नहीं, गलतियां करने से ही फुर्सत नहीं है. कितनी और करनी बाकी हैं. ऐसे मे लक्ष्य-वक्ष्य की क्या सोचें."

खैर हास्य को विदा कह कर काम की बात की जाये.

मैं धन के प्रति गलत अवधारणा को एक गम्भीर गलती मानता हूं. यह कहा जाता है कि आज का युवा पहले की बजाय ज्यादा रियलिस्टिक है. पर मैने अपने रेल के जवान कर्मचारियों से बात की है. अधिकांश को तो इनवेस्टमेंट का कोई खाका ही नहीं मालूम. ज्यादातर तो प्राविडेण्ट फण्ड में पैसा कटाना और जीवन बीमा की पालिसी लेने को ही इनवेस्टमेंट मानते हैं. बहुत से तो म्यूचुअल फण्ड और बॉण्ड में कोई अन्तर नहीं जानते. स्टाक की कोई अवधारणा है ही नहीं. मैं जब पश्चिम रेलवे के जोनल ट्रेनिंग सेण्टर का प्रधानाचार्य था तो नये भर्ती हुये स्टेशनमास्टरों/गार्डों/ट्रेन ड्राइवरों को पैसे का निवेश सिखाने की सोचता था. पर उस पद पर ज्यादा दिन नहीं रहा कि अपनी सोच को यथार्थ में बदलता.

रेलवे का ग्रुप सी स्टाफ बहुत कमाता है - मैं अवैध कमाई की बात नही कर रहा. पर फिर भी पैसे के प्रति गलत और लापरवाह सोच से वह उन्नति नहीं कर पा रहा है. मेरे विचार से रेलवे इतना विस्तृत है कि पूरे समाज का हुलिया बयान कर सकता है.

जरूरत है कि धन और निवेश के प्रति व्यापक तौर पर नजरिया बदले.

Monday, March 19, 2007

क्या आप मस्तिष्क की चोटों पर वेब साइट बनाने में भागीदारी करेंगे?


(भुसावल के पास सन २००० में भस्म हुये पंजाब मेल के डिब्बे)
मैं ब्रेन-इन्जरी के एक भीषण मामले का सीधा गवाह रहा हूं. मेरा परिवार उस दुर्घटना की त्रासदी सन २००० से झेलता आ रहा है.

मैं जिस दुर्घटना की बात कर रहा हूं, उसमें मेरा बेटा दुर्घटना ग्रस्त था. फरवरी १९’२००० में पंजाब मेल के ६ कोच भुसावल के पास भस्म हो गये थे. एस-८ कोच, जो सबसे पहले जला, और जिसमें मर्चेन्ट नेवी का कोर्स कर रहा मेरा लड़का यात्रा कर रहा था; में १८ यात्री जल मरे. घायलों में सबसे गम्भीर मेरा लड़का था. सौ किलोमीटर प्र.घ. की रफ्तार से दौड़ रही गाडी़ में वह घुटन और जलने से बचने के लिये कोच के दरवाजे तक आया होगा. फिर या तो पीछे की भीड़ के धक्के से, या जान बचाने को वह नीचे गिरा. जब उसे ढूंढा़ गया तब उसके सिर में गम्भीर चोटें थीं और बदन कई जगह से जला हुआ था. वह कोमा में था. कोमा में वह बेहोशी ३ महीना चली. उसके बाद भी ब्रेन इंजरी के लम्बे फिजियोथेरेपिकल/न्यूरो-साइकोलॉजिकल/ सर्जिकल इलाज चले. जो अनुभव हुए वे तो एक पुस्तक बना सकते हैं.

मेरा लड़का अभी भी सामान्य नहीं है. इस दुर्घटना ने हमारी जीवन धारा ही बदल दी है...

दुर्घटना के करीब साल भर बाद मैने उसे कंप्यूटर पर चित्र बनाने को लगाया - जिससे दिमाग में कुछ सुधार हो सके. बहुत फर्क तो नहीं पडा़, पर उसके कुछ चित्र आपके सामने हैं.

बहुत समय से मस्तिष्क की चोटों के मामलों पर इन्टर्नेट पर सामग्री उपलब्ध कराने का विचार मेरे मन में है. सिर में चोट लगने को भारत में वह गंभीरता नहीं दी जाती जो दी जानी चाहिये. कई मामलों में तो इसे पागलपन और ओझाई का मामला भी मान लिया जाता है. चिकित्सा क्षेत्र में भी सही सलाह नहीं मिलती. निमहन्स (National Institute of Mental Health and Neurosciences, Bangalore) में एक केस में तो मैने पाया था कि बिहार के एक सज्जन बहुत समय तक तो आंख का इलाज करा रहे थे और नेत्र-चिकित्सक ने यह सलाह ही नहीं दी कि मामला ब्रेन इन्जरी का हो सकता है. जब वे निमहन्स पंहुचे थे तो केस काफी बिगड़ चुका था...

मैं ब्रेन-इन्जरी के विषय में जानकारी और लोगों के अनुभवों को हिन्दी में इन्टर्नेट पर लाना चाहता हूं. वेब साइट बनाने की मेरी जानकारी शून्य है. जो मैं दे सकता हूं - वह है अपने दैनिक जीवन में से निकाल कर कुछ समय और वेब साइट के लिये सीड-मनी.

क्या आप भागीदारी करेंगे?

Sunday, March 18, 2007

शहर में रहती है नीलगाय


शहर में आपसे 20-25 कदम पर चरती नीलगाय दिख जाये और आपको देख भागने की बजाय फोटो के लिए पोज देने लगे, तो कैसा लगेगा? आज मेरे साथ वही हुआ.

इलाहाबाद में प्रयाग स्टेशन से फाफामऊ को जाने वाली रेल लाइन जब गंगा के पास पंहुचती है तब उस लाइन के दायें 200-250 मीटर की हरित पट्टी है. यह नारायण आश्रम की जमीन है. गूगल-अर्थ में यह साफ दीखती है. ढाई सौ मीटर चौड़ी और आधा किलोमीटर लम्बी इस जंगल की पट्टी में नारायण आश्रम वालों ने गायें पाल रखी हैं.

गायों के साथ चरती आज नीलगाय मुझे दिखी. वैष्णवी विचार के इस आश्रम वालों नें कहीं से पकड़ कर नीलगाय रखी हो – इसकी सम्भावना नहीं है. यह नीलगाय अपने से भटक कर यहां आई होगी. अब शहर के बीच इस जंगल की पट्टी को उसने अपना निवास समझ लिया है.

शहरीकरण नें नील गायों की संख्या में बहुत कमी की है. किसान इसे अपना दुश्मन मानते हैं. ट्रेन परिचालन की रोज की रिपोर्ट में मुझे 2-3 नीलगायों के रेल पटरी पर कट कर मरने की खबरें मिलती हैं. यदा कदा ऐसी घटनाओं से ट्रेन का अवपथन (derailment) भी हो जाता है. ट्रेनें लेट होती हैं सो अलग. अत: रेल महकमे के लिये भी ये सिरदर्द हैं.

पर आज नीलगाय को बीच शहर में स्वच्छन्द विचरते देख बड़ी खुशी हुई. गायों के बीच नीलगाय के लिये भी हमारी धरती पर जगह रहे – यही कामना है.

Saturday, March 17, 2007

कहां से आता है अवसाद? चेहरे पे हंसी देता है कौन?


कहां से आता है अवसाद? चेहरे पे हंसी देता है कौन? मेरे लिये यह कविता का विषय नहीं, जद्दोजहद का विषय रहा है. पिछले महीने भर से मैने अपने एक बहुत करीबी को अवसाद में घिरते देखा है. अवसाद चिकित्सा के साथ साथ सपोर्ट मांगता है. अपने हिन्दुस्तान में चिकित्सा की बजाय ओझाई का सहारा लिया जाता है. व्यक्ति अनिद्रा, अवसाद और व्यग्रता से ग्रस्त हो जाये और उसका तात्कलिक कारण न समझ आये तो उसे भूत-प्रेत और पागलपन की परिधि में मान लिया जाता है.

बचपन में मैने इसी प्रकार की समस्या से ग्रस्त व्यक्ति के परिवारजनों को हनुमान मंदिर के पुजारी की ओझाई की शरण में जाते देखा था.

अवसाद में उतरे व्यक्ति के चेहरे के हाव-भाव भयोत्पादक हो सकते हैं. मेरे एक मित्र जो कभी अवसाद में थे बता रहे थे कि पडो़स की एक छोटी बच्ची ने उनसे, उनके अवसाद के दौर में, बेबाकी से कहा था - अंकल, आपका चेहरा देख कर डर लगता है. नैराश्य और आत्महत्या के विचार चेहरे पर अजीब प्रभाव डालते हैं.

अवसाद में न्यूरोकेमिकल बैलेंस के लिये दवा के साथ साथ प्राणायाम तथा आसन अत्यंत लाभप्रद होते हैं. ये सभी आसान क्रियायें है. इसके साथ कतरा-कतरा ही सही, उत्साह की छोटी मात्रा भी बरबाद नहीं होनी चाहिये. परिवार के लोग अवसादग्रस्त के तनाव को कम करने और उत्साह बढा़नें के लिये महत्वपूर्ण सहायता कर सकते हैं.

पर अंतत: अवसाद में डूबे को स्वयम ही अवसाद से बाहर आना होता है. यह काफी कठिन है, पर असंभव नहीं. मैं सफल हो चुका हूं.

मैने जिस करीबी के अवसाद से यह चिठ्ठा शुरू किया था; आज डेढ़ माह बाद उसके चेहरे पर हंसी आई है. वह सफल हो रहा है अवसाद के खिलाफ.

बडा़ अच्छा लग रहा है!

Friday, March 16, 2007

दुनियां में वेब सेंसरशिप बढ़ रही है


फाइनेन्शियल टाइम्स में रिचर्ड वाटर्स का न्यूज आइटम है कि दुनियां में वेब सेंसरशिप बढ़ रही है. तकनीकी विकास का प्रयोग "उल्टी दिशा में प्रगति" हेतु किया जा रहा है.

हार्वर्ड लॉ स्कूल के OpenNet Initiative नामक प्रॉजेक्ट में यह निष्कर्ष निकाला गया है. दस देश - चीन, ईरान, बर्मा,सऊदी अरेबिया, ट्यूनीसीया, उजबेकिस्तान, तुर्की, बेला रूस, थाई लैण्ड व मिश्र व्यापक पैमाने पर वेब-ब्लॉकिन्ग करते हैं. सेंसर्शिप की नयी तकनीकें - जैसे समय-समय पर विकीपेडिया (चीन में) या गूगल ब्लॉगिंग सेवा (पकिस्तान में) पर पूरी ब्लॉकिन्ग; या "की-वर्ड फिल्टरिंग" के आधार पर संदेहास्पद मेटीरियल ट्रैक करना - प्रयोग में लाई जा रही हैं.

इन्टर्नेट का प्रयोग बढाना व उसपर शिकंजा कसना - दोनो के बीच कशमकश तेज हो गयी है.

Wednesday, March 14, 2007

इँदारा कब उपेक्षित हो गया?


बचपन में गांव का इँदारा (कुआँ) जीवन का केन्द्र होता था. खुरखुन्दे (असली नाम मातादीन) कँहार जब पानी निकालता था तब गडारी पर नीचे-ऊपर आती-जाती रस्सी (लजुरी) संगीत पैदा करती थी. धारी दार नेकर भर पहने उसका गबरू शरीर अब भी मुझे याद है. पता नहीं उसने इँदारे से पानी निकालना कब बंद किया.

इँदारा अब इस्तेमाल नही होता.

गांव में पहले चाँपाकल (हैण्ड पम्प) आया. अब बम्बे (पाइप वाला नल) से पानी आता है. बारिश के मौसम में लोग ढेंकी भी नहीं चलाते - टुल्लू या डीजल से चलने वाला पम्प इस्तेमाल करते हैं. गाँव जाने का अब मन ही नहीं करता. जिस गाँव के साथ यादें जुडी़ हैं, वह गाँव तो है ही नहीं.

खुरखुन्दे अब बुढा़पे की दहलीज पर है. एक शादी के मौके पर मिला था. अब वह एक ठेली चलाता है. लोगों का सामान ढोता है. पालकी का चलन तो उसके बचपन में ही खतम हो गया था. उसके पिता पालकी ले चलते रहे होंगे. वह ठेली ले कर चलता है. यह काम तो पुश्तैनी सा है, पर पानी खींचना बन्द हो गया. इँदारा जो मर गया.

चीन की लडाई के समय से गाँव छूटा है. उस समय सात साल का रहा होऊंगा. इँदारे में पोटैशियम परमैगनेट मिलाने पर लाल हुये पानी को लेकर हवा उडी़ थी कि चीनियों ने पानी में जहर मिला दिया है. चीनियों को जैसे हमारा गाँव ही टार्गेट लगा हो! पानी फिर भी इँदारे का ही पिया गया था. तब इँदारा जीवन का प्रतीक था. अब वह कोई प्रतीक नहीं है.

अब वह उपेक्षित है.

आज, अपने घर के पास मैने एक इँदारा देखा. दौड़ कर मोबाइल के कैमरे से उसके चित्र ले लिये. यह इँदारा भी इस्तेमाल नहीं होता. इसकी गडारी गायब थी. चबूतरा सलामत था. इसके खम्भे पर इसके निर्माण हेतु दान दाताओं के नाम थे. खम्भे की लिखावट का फोन्ट बताता था कि काफी पुराना होगा. कमसे कम ५-६ दशक पुराना. कभी यह भी जीवन का केन्द्र रहा होगा. अब यह सडक पर जाती मोटर साइकलों, ठेलेवालों, इलाहाबाद में कमरा किराये पर लेकर पढने वाले जवान लड़कों, हैलोजन लैम्प की रोशनी, कचरा खलियाते सूअरों और नाई की दुकान का मूक दर्शक भर है. राह चलते लोगों से पूछें कि कोई कुआँ देखा क्या? तो अधिकांश कहेंगे - नहीं तो.

इँदारा पुरातत्व की चीज भी शायद नहीं है. उसमें कुछ लोगों की रुचि होती है. इँदारा बस उपेक्षित भर है.

सेप्टिक टैंक से जलीय तत्व के डिस्चार्ज की समस्या


इलाहाबाद जैसे शहर में सीवेज डिस्पोजल प्रणाली में प्रणाली कम है, सीवेज ज्यादा है. इस शहर में आने पर मैने देखा कि हमारे घर में सेप्टिक टेंक है, पर उसका जलीय डिस्चार्ज का लेवल समय के साथ नगर पालिका की नाली के स्तर से नीचे हो गया है. सड़कें व उसके समान्तर नालियां कालान्तर में ऊंची हो गयी है. और लोगो ने तो सीधा समाधान निकाला है. उन्होने या तो सेप्टिक टेंक बनाये ही नही, या पुराने सेप्टिक टेंक बाईपास कर दिये हैं. घर के कमोड से सारा एफ्लुएन्ट नाली में बहा देते हैं. वह सब अंतत: गंगा में जाता है. मेरे पास निम्न विकल्प हैं:
  1. सारा एफ्लुएन्ट सीधी नाली में बहा कर गंगा के प्रदूषण में अपना इन्क्रीमेंटल योगदान किया जाये.

  2. नगर पालिका के लोगों को बुला कर हर २-३ महीने बाद सारा टेंक साफ कराया जाये. अगर जलीय डिस्चार्ज का लेवल नाली के स्तर से ऊपर होता तो यह काम २-३ वर्षों मे कराना पड़ता. इस विकल्प में नगरपालिका कर्मियों की अक्षमता को साल में ४-६ बार झेलना और उनकी फीस पर ४-६ हजार का सालाना खर्च निहित है.
  3. जलीय एफ्लुएन्ट को हर महीने एक पम्प से निकाल कर नाली में बहा दिया जाये. इस विकल्प में एक बिजली या पैर से चलने वाला पम्प व एक अच्छे फिल्टर की आवश्यकता होगी. बाकी काम खुद किया जा सकता है.

निश्चय ही, तीसरा विकल्प सस्ता व उपयुक्त लगता है. इतना सोचने के बाद मुझे ऑनलाइन/ऑफलाइन मित्रों के सुझावों की दरकार है. कृपया सुझायें कि २००-३०० लीटर जलीय डिस्चार्ज के लिये कौन सा पम्प और इस काम के लिये कैसा फिल्टर उपयुक्त होगा. वह कहां से मिल सकता है?

(चित्र में एक चेम्बर का सेप्टिक टैंक है. चित्र में दर्शाया "Outlet to absorption field" का लेवल नगरपालिका की नाली के लेवल से नीचा है.)

वर्वर राव, इन्टर्नेट और वैश्वीकरण


वर्वर राव पर एक चिठ्ठा पढ़ा. वर्वर राव (या वारा वारा राव) को मैं पीपुल्स वार ग्रुप के प्रवक्ता के रूप में जानता हूं. सत्तर का दशक होता तो मैं उनका भक्त होता. उस समय जयप्रकाश नारायण में मेरी अगाध श्रद्धा थी. कालान्तर में जेपी को वर्तमान के समाजवादी पार्टी/आरजेडी/जेडी(यू) के वर्तमान नेताओं मे "मॉर्फ" होते देखा. उन नेताओं मे से बहुतों के पास "आय के ज्ञात स्रोतों से ज्यादा सम्पत्ति" है. रूस का पतन, बर्लिन की दीवार का ढहना, बिहार/झारखण्ड/ओड़ीसा/आन्ध्र में नक्सली अराजकता आदि ने इस प्रकार के लोगों से मेरा मोहभंग कर दिया है.

मैं वर्वर राव को भ्रष्ट नहीं मानता. पर वे वर्तमान युग के काम के भी नहीं हैं.

वर्वर राव को महिमामण्डित करने वाले; समाजवाद/भूख/आदिवासी लाचारी/किसानों का भोलापन आदि को भावुकता तथा नोस्टाल्जिया की चाशनी में डुबो कर बढिया व्यंजन (लेख) बनाने और परोसने वाले लोग हैं. ऐसे लोग प्रिंट तथा टेलीवीजन पर ज्यादा हैं. मजे की बात है कि वैश्वीकरण के धुर विरोधी (वर्वर राव) का महिमामण्डन वैश्वीकरण के सबसे सशक्त औजार - इन्टर्नेट से हो रहा है! अल कायदा भी वैश्वीकरण के इस तंत्र का प्रयोग विश्व में पलीता लगाने के लिये करता है.

भावुकता तथा नोस्टाल्जिया मुझे प्रिय है. गुलशन नंदा को पढे जमाना गुजर गया - पर उनके नावलों में मजा बहुत आता था. वर्वर राव के बारे में वह मजा नहीं आता. उनपर पढ़ने की बजाय मैं गुरुचरण दास की India Unbound पढ़ना चाहूंगा. उसमें भविष्य की आशायें तो हैं!

(फुटनोट १: वर्वर राव को सामन्तवाद और उपनिवेशवाद से चिढ़ है; मुझे भी है. मनुष्य को दबाना कायरता है. पर वर्वर राव प्रासंगिक नहीं हैं.)

Monday, March 12, 2007

पत्थर पर प्रोफाइल


प्रोफाइल तराशने का काम केवल चिठेरे ही करते हों, ऐसा नहीं है. आज सवेरे की सैर के समय एक सवा बिस्से की जमीन पर बने घर के गेट पर लगे पत्थर पर जो लिखा देखा, वह किसी प्रोफाइल से कम नहीं है. अठारह साल में बने अपने ताज महल पर कितनी हसरत से पत्थर लगाया है इस सज्जन ने!

जरा चित्र देखें!

Saturday, March 10, 2007

टाटा डकैत तो नहीं है


अज़दक जी बहुत बढ़िया लिखते हैं. हमें तो लिखने का एक महीने का अनुभव है, सो उनकी टक्कर का लिखने की कोई गलतफ़हमी नहीं है. लेकिन सोचने में फर्क जरूर है. अपने चिठ्ठे में अजदक ने सिंगूर में टाटा के प्लान्ट के लिये हो रहे जमीन के अधिग्रहण को बदनीयती, धांधली, "जनता का पैसा लुटा कर जनहित का नाटक", जमीन का हड़पना (पढें - डकैती) आदि की संज्ञा दी है.

अब टाटा डकैत तो नहीं है.

पैसा कमाने के दो तरीके हो सकते हैं. एक है डकैती का. यह तरीका इस सिद्धान्त पर टिका है कि धन finite वस्तु है. अगर आपको पैसा चाहिये तो, वह जिनके पास है (व जो ताकतवर नही हैं), उनसे आपको बल पूर्वक छीनना होगा. अजदक के अनुसार यही हो रहा है. इस सिद्धान्त का प्रयोग चोर, पाकेटमार, डकैत, कालाबाजारी करने वाले और कई देश के नेता लोग (ज्ञात स्रोत से ज्यादा सम्पत्ति के मामले वाले लोग इसका उदाहरण हैं) करते है.

पैसा कमाने का दूसरा तरीका इस सिद्धांत पर टिका है कि पैसा असीमित है. उसी तरह जैसे प्रेम, दया, करुणा, प्रसन्न्ता आदि असीमित हैं. पैसा चाहिये तो वह करना होगा जिससे समग्र रूप से वह बढ़े. बिल गेट, टाटा और कई धनी इस सिद्धान्त से पैसा कमाते हैं.

समाजवाद मेरी समझ में नहीं आता. मान लीजिये आज आप पूरी दुनिया की सम्पदा सभी लोगों मे बराबर बांट दें. क्या होगा? कुछ समय के लिये आमोद-प्रमोद और सीधे consumption से जुडा व्यवसाय जूम कर जायेगा, पर दुनिया की समग्र अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में आ जायेगी. दो साल बाद समग्र सम्पदा (जो आज की सम्पदा से कम होगी) फिर उसी अनुपात में बंट जायेगी, जिसमें आज है.

जरूरत धन के समाजवादी बंटवारे की नहीं, धन की समग्र मात्रा बढाने वालों की है. किसान को आप सशक्त बनायें पर टाटा को डकैत बता कर नहीं.

(डिस्क्लेमर - मैं टाटा के पे रोल पर नहीं हूं व टाटा मोटर्स के शेयर भी मेरे पास नहीं हैं. मैं मानवीय सहानुभूति किसानों से रखता हूं. पर उनका कल्याण किसमें है - इसका ब्लूप्रिन्ट मुझे स्पष्ट नहीं है.)

Friday, March 9, 2007

हताशा के पांच महीने बाद



समय सबसे बड़ी दवा है. साथ के चित्र में जो बुजुर्ग दिख रहे हैं वे पिछ्ली मई में हैजे से मरणासन्न थे. अस्पताल में इलाज हुआ तो पता चला कि समय पर चिकित्सा न होने से किडनियों ने काम करना बंद कर दिया है. इन्टेंसिव केयर में हफ़्ते भर और तीन महीने गहन चिकित्सा से किडनियां सामान्य हो पाईं. इधर किडनी ठीक हुयी तो इन बुजुर्ग ने बरसात से गीली जमीन पर पैर रखकर अपनी कूल्हे की हड्डी तोड ली. हड्डी का आपरेशन हुआ. डेढ महीने फ़िर बिस्तर पर रहे. अवसाद के गर्त में जा कर जीने की इच्छा शक्ति खो बैठे. फिर फिजियोथेरेपी ने कमाल किया. वाकर ले कर धीरे धीरे चलने लगे. कुछ मनोबल लौटा. महीने भर वाकर पर रहे. कुछ ताकत बढी तो छडी़ ले चलने लगे. दो महीने बाद छ्डी़ के बिना भी चलने लगे.

लेकिन इलाज की कहानी खत्म नही हुई. एक दिन घर के कुत्ते पर पैर रख दिया. कुत्ते ने काट खाया. डाक्टर की सलाह पर दो एन्टी रेबीज इन्जेक्शन लगे. कुत्ते पर पैर क्यों रखा; इसपर सोचा गया तो लगा कि आंख से शायद कम दिखता है. आंखों के चेक अप में निकला कि दोनो आंखों मे मोतियाबिन्द है. दो हफ़्ते पहले एक आंख का ऑपरेशन कराया गया. अब जब ठीक से दिखने लगा तो बुजुर्ग ने खुद कपडे़ के जूते खरीदे. उन्हे पहन कर सडक पर सवेरे की सैर को दो दिन से निकल रहे हैं. एहतियाद के लिये साथ में मेरा लड़का जाता है. जी हां; ये सज्जन मेरे पिताजी हैं.

अवसाद, हताशा और खुश जिन्दगी में कितने महीनों का अंतर होता है?

Tuesday, March 6, 2007

बहन मायावती की रैली


एक मार्च को लखनऊ में बहन मायावती की रैली थी. पहले वे सवर्णो को मनुवादी कहती थीं. उनके खिलाफ बोलती थीं. सामान्य लगती थीं. पर जब से उनकी पार्टी ने ब्राह्मणों को टैग किया है, तब से मामला क्यूरियस हो गया है. यूपोरियन राजनीति में क्या गुल खिलेगा; उसका कयास लगाना मजेदार हो गया है. सो, उनकी रैली कितनी धमाकेदार रहती है - यह जानने की उत्कंठा मन में थी. मायूसी तब हुई जब उस दिन अखबारों के नेट संस्करण ने रैली को खास भाव नही दिया. अगले दिन अमर उजाला (जो मेरे घर आता है) ने रैली को पेज तीन पर कवर किया. वह भी ब्लैक-ह्वाइट चित्र के साथ.
इस रैली के लिये रेल से भी लोग ले जाये गये थे. दर्जन से भी ज्यादा स्पेशल रेलगाडियां (पूरा किराया देकर) लखनऊ गई थीं. बसों का इन्तजाम तो बेतहाशा था. यह सब पेज तीन पर कवरेज के लिये? इतना कवरेज तो बेमौसम सूखी प्रेस-रिलीज पर भी मिल जाता है. शहर के किसी कोने में तथाकथित एनकाउन्टर को भी पेज तीन पर कलर फोटो के साथ जगह मिलती है.
सब कुछ गड़बड़ सा हो रहा है. इन्फ्लेशन बढ़ रहा है. सीमेण्ट वाले दाम कम करने की हिदायत के बावजूद दाम बढ़ा देते हैं. पंजाब व उत्तराखण्ड में बिना जोर लगाये विपक्ष जीत जाता है. बिहार के कार्यकाल के बिल्कुल उलट, लालू जी रेल में २०,००० करोड़ रुपये का मुनाफा दिखाते हैं. सेन्सेक्स गिरे जा रहा है...
लोग कयास लगा रहे हैं कि मुलायम गये और मायावती आईं. लोगों का कयास रैली के ल्यूकवार्म कवरेज से गड़बड़ाता नजर आता है.
यूपोरियन इलेक्शन को लेकर कई सवाल हैं. क्या मायावती "क्रिटिकल मास" जुटा पायेंगी? क्या उनके बन्दे - विशेषकर सवर्ण - चुनाव बाद जीतकर भी साथ रहेंगे? क्या भाजपा या कॉग्रेस डार्क हॉर्स साबित होंगे? गेंगेस्टर-ब्रिगेड चुनाव आयोग को ठेंगे पर रख सकेगी? क्या बाजार का चमत्कार/बेरोजगारी/"बाबालोगों" की चमकती इमेज फर्क डाल सकेंगे? और कितना?
मुझे लगता है कि चिठेरा समुदाय इन मसलों पर अपनी व्यक्तिगत/सामुहिक राय जरूर रखता होगा. एक बहस बहन मायावती पर चलेगी जरूर! बहनजी (व लालूजी) ऐसे लीडर हैं, जिनके प्रति आप उदासीन भाव तो रख ही नहीं सकते.

Monday, March 5, 2007

चिठेरी (हिन्दी ब्लॉगरी) और विवादास्पद होने का पचड़ा.


ब्लॉगिन्ग की दुनिया की ताकत मुझे तब पता चली थी, जब हजरत मुहम्मद पर कार्टून बनाने के कारण मौत का फतवा दिया जा चुका था. मै वह कार्टून देखना चाहता था. प्रिन्ट और टीवी तो ऐसे पचडे़ में पड़ते नहीं. इन्टर्नेट पर मसाला मिला. भरपूर मिला. ज्यादातर ब्लॉगरों के माध्यम से मिला. ब्लॉगरों के प्रति मेरी इज्जत बढ़ गई.

हिन्दी के चिठेरों में वह जज्बा देखने को नही मिलता. अभी तो सब भूख, गांव की मड़ई, कवितायें, हिन्दुस्तान की बदहाली जैसे नान-कन्ट्रोवर्शियल मुद्दों पर की-बोर्ड चला रहे हैं. कैसे वो तकनीकें जानें जिससे उनका चिठ्ठा चमक सके और उसपर ढेरों क्लिक हों - यही मुख्य जद्दोजहद है. भारत में भी कन्ट्रोवर्शियल मुद्दों पर बहुत कमेंट होते है. रिडिफ पर Francois Gautier के लेख पर जम कर प्रतिक्रियायें थीं.

सो ऐसा नही है कि यह सब हिन्दी में नही लिखा जा सकता. वह भी देर-सवेर होगा. असल में बकौल थॉमस फ्रेडमेन ("The World is Flat") फ्लेट होती दुनिया पहले चकाचौंध करती ही है. हम हिन्दी चिठेरों को अभी तो हिन्दी में फ्लैट दुनियां का नजारा मिला है. जब कुलाचें भरने से जी थक जायेगा, तब Francois Gautier जैसे लेखक भी हिन्दी में आयेंगे. तब हिन्दी चिठेरी हिन्दीवाद-समाजवाद-रूमानियत से उबर कर विश्ववाद में प्रवेश कर जायेगी. वह दिन दूर नहीं है. (कृपया ये लिंक ट्राई करें - Francois Gautier on Rediff  व  Francois Gautier पर मेरा ब्लॉग.)

Saturday, March 3, 2007

नेकी, दरिया और भरतलाल पर श्री माधव पण्डित


भरतलाल शर्मा का केस आपने देखा. हम सब में भरतलाल है. हम सभी अपनी माली हैसियत दिखाना चाहते हैं. हम सब में सामाजिक स्वीकृती और प्रशंसा की चाह है. हम सब समाज के हरामीपन (जो मुफ़्त में आपका दोहन करना चहता है) से परेशान भी हैं.

जब कभी द्वन्द्व में फसें, तब बड़े मनीषियों की शरण लेनी चहिये.

ऐसे में, मुझे माधव पंड़ित की सुध हो रही है. वे श्री अरविन्द आश्रम, पॉण्डिच्चेरी से जुडे़ संत थे. अनेक ग्रंथ हैं उनके. मैं जिस पुस्तक की चर्चा करना चहता हूं, वह छोटी सी है - लाइफ ब्युटीफुल (सुन्दर जीवन). इस सवा सौ पेज की किताब में १२ पेज का खण्ड है - लेसंस इन माई लाइफ. इस खण्ड में ४ छोटे-छोटे लेख हैं. ये लेख श्री पंडित ने एक मित्र के विशेष आग्रह पर लिखे थे. ये लेख अत्यन्त सरल भाषा में हैं. इन लेखों में बहुत कुछ है जो भरतलाल के सिण्डरॉम की दवा है. कुछ अंश देखें:

  1. कभी अपनी वस्तुयें (विशेषकर पैसा) अपने मित्रों और संबंधियों (विशेषकर संबंधियों) को उधार न दें. यद्यपि इन मामलों में पहले हार्दिक धन्यवाद व्यक्त होगा, पर बाद में लौटाते समय सामान्यत: अनिच्छा व कड़वाहट होगी जो संबंधों को तनावग्रस्त कर देगी. अगर आप उपकृत करने की दशा में हैं तो उपहार दें, पर उधार न दें.

  2. रिश्ते स्थायी नहीं होते. हम सोचते हैं कि मित्रता शाश्वत रहेगी, पर वैसा नहीं होता. इसी प्रकार दुश्मनी भी शाश्वत नहीं होती. अत: दुश्मन से व्यवहार में यह ध्यान रखो कि वह आपका मित्र बन जायेगा. और मित्र में भविष्य के शत्रु की संभावनायें देख कर चलो.

  3. दूसरों से अपनी परेशानियों व समस्याओं कीचर्चा उनकी सहानुभूति तथा सहयोग पाने के लिये न करें. एक रिटयर्ड अमेरिकन एडमिरल की सीख पर ध्यान दें - जिनसे आप अपनी तकलीफों की चर्चा करते हैं, उनमें से आधों को कोई फ़िक्र नहीं कि आप पर क्या गुजरती है. शेष आधे लोग उससे बहुत प्रसन्न होते हैं.

  4. यह आम बात है कि हम जिनकी सहायता करते हैं, वे बहुधा हमारे लिये परेशानियां खड़ी करते हैं. हमें लगने लगता है कि इनसे अच्छे वे हैं, जिनके लिये हमने कुछ भी नहीं किया. शायद सहायता पाने वाले की चेतना का कोई अंश ऋणी नहीं होना चाहता. और सहायता करने वाला अगर पाने वाले की कृतज्ञता व धन्यवाद पर अपना हक जमाने लगे तो स्थिति और खराब हो जाती है. अत: नेकी कर दरिया में डालना ही अच्छा है.
  5. बिना कुछ दिये कुछ पाने का सिद्धांत विज्ञापनों में ही सच होता है, वस्तविक दुनिया में नहीं. कुछ पाने के लिये कीमत अदा करनी पड़ती है - हर क्षेत्र में व हर समय. ज्ञान प्राप्त करना हो तो अध्यन करना ही पड़ेगा.शरीर सुगठित बनाना है तो व्यायाम करना ही पडे़गा. अपने ध्येय के लिये आपको कार्य अवश्य करना होगा.

श्री माधव पंडित के उक्त सबक आपको सोचने को बाध्य करते हों तो आप "भरतलाल सिण्डरॉम" की दवा पा जायेंगे.
(चित्र - श्री माधव पंडित, इन्टरनेट से उतारा हुआ)

हरिश्चंद्र - आम जिन्दगी का हीरो


आपकी आँखें पारखी हों तो आम जिन्दगी में हीरो नजर आ जाते हैं. च्यवनप्राश और नवरतन तेल बेचने वाले बौने लगते है. अदना सा मिस्त्री आपको बहुत सिखा सकता है. गीता का कर्म योग वास्तव के मंच पर घटित होता दीखता है.
आपकी आँखों मे परख हो, बस!

हरिश्चंद्र पिछले महीने भर से मेरे घर में निर्माण का काम कर रहा था. उसे मैने घर के addition/alteration का ठेका दे रखा था. अनपढ़ आदमी होने पर भी मैने उसमें कोई ऐब नहीं पाया. काम को सदैव तत्पर. काम चाहे मजदूर का हो, मिस्त्री का या ठेकेदार का, हरिश्चंद्र को पूरे मनोयोग से लगा पाया.

आज काम समाप्त होते समय उससे पूछा तो पता चला कि उसने मजदूरी से काम शुरू किया था. आज उसके पास अपना मकान है. पत्नी व दो लड़कियां छोटी सी किराने की दुकान चलाती है. बड़ी लड़की को पति ने छोड़ दिया है, वह साथ में रहती है. पत्नी पास पड़ोस में ब्यूटीशियन का काम भी कर लेती है. लड़का बारहवीं में पढता है और हरिश्चंद्र के काम में हाथ बटाता है.

मेहनत की मर्यादा में तपता, जीवन जीता - जूझता, कल्पनायें साकार करता हरिश्चंद्र क्या हीरो नहीं है?

भरतलाल की सगाई


भरतलाल शर्मा मेरा सरकारी भृत्य है. उसकी अस्थाई नौकरी लगते ही गांव-देस में उसकी इज्जत बढ गई. पांच हजार की पगार की स्लिप उसने गर्व से सबको दिखाई. सब परिजन-दुर्जन कर्जा मांगने में जुट गये. उसके भाई जो उससे बेगार कराते थे और उसकी सारी मजदूरी हड़प जाते थे, अब उससे हक से/बेहक से पैसा मांगने लगे. बिना मां-बाप का भरतलाल इतना अटेंशन पाकर कुप्पा होगया. लिहाजा बचत का बड़ा हिस्सा धर्मादे में जाने लगा. जो कर्जा उसने दिया उसे कोई चुकाने का नाम ही नही लेता.

सरकारी नौकरी - जो देर सबेर पक्की होने वाली हो, लड़के को जवान होती लड़की के मां-बाप का आदर्श बना देती है. सो पड़ोस की लड़की से बात भी पक्की हो गई. सगाई के समय तक भरतलाल गांव के लोगों को पैसे बांटते-बांटते तंग हो गया था. सगाई में खर्चे की बात आई तो सब किनारा कर गये. उल्टे, भरतलाल को इस बात पर ब्लैकमेल भी करने लगे कि वे सगाई में न आ सकेंगे.

सगाई का पूरा इन्तजाम-खर्च भरतलाल ने किया. परिजनों ने उसे सामाजिक प्रतिष्ठा प्रदान करने की कस कर कीमत वसूली. सारे आये. ठसक कर आवभगत कराई. गांव मे शहर के स्टाइल का ३०० लोगों का भोज भी भरतलाल के खर्चे पर डकारा. सब की मदद करने वाला भरतलाल १५-२० हजार रुपये के नीचे उतर गया. लगभग इतना ही पैसा उसने लोगों को मुसीबत के समय बिना ब्याज के कर्ज दिया था, जो लोगों ने उसका काम पड़ने पर नहीं लौटाया. भरतलाल अब यदा कदा अवसाद से ग्रस्त रहता है, कुछ बुदबुदाता रहता है.

भरतलाल भोन्दू नहीं है. भरतलाल संवेदनशील जीव है. उसकी संवेदना गांव का हरामीपन मारे दे रहा है. गांव का हरामीपन और भरतलाल की संवेदना किस सीमातक जाते हैं, यह देखने की बात होगी.

Thursday, March 1, 2007

शेयर मार्केट धड़ाम



उधर चिदंबरम जी बजट भाषण की तैयारी कर रहे थे, इधर शेयर मार्केट दुबला हुआ जा रहा था. मुन्ना का कहना सही है - भैया, बहुत से दिन सांड़ों के होते हैं; कभी कभी तो भालुओं की भी चांदी कटनी चाहिये. मुन्ना धुर आशावादी है. मैं शेयर मार्केट के बारे में बात कर आशावाद का टानिक उससे लेता हूं. मेरा शेयर मार्केट में ज्यादा स्टेक नहीं है, सो थोडा बहुत तात्कालिक घाटा आशावाद के टानिक के लिये अच्छा है. मुन्ना से बात कर मैं अपने स्टॉक की नैसर्गिक मजबूती के बारे में आश्वस्त हो कर ’मस्त’ हो जाता हूं. बजट की चीर फाड़ की जहमत नहीं उठाता.


चीनी के शेयर अर्से से धडाम हैं. मुझे शरद पवार की सेहत की सलामती और एथेनाल की स्टोरी पर भरोसा है. मुझे यह भी भरोसा है कि देर सबेर पेट्रोल के दाम बढेंगे ही. चीनी भी कब तक कड़वी रहेगी. इसी तरह टाटा का कोरस का सौदा भी रंग लायेगा. हीरो होण्डा की बाइक बिकेगी. महाराष्ट्र स्कूटर की जमीन चमकेगी....


शेयर बाजार धड़ाम होता है, चढने के लिये. असली चीज आशावाद है. मैं मुन्ना का टानिक लेना छोड़ूंगा नहीं.

(फोटो - २८ फरवरी का गंगा तट पर आशावादी सवेरा)