|| MERI MAANSIK HALCHAL ||
|| मेरी (ज्ञानदत्त पाण्डेय की) मानसिक हलचल ||
|| मन में बहुत कुछ चलता है ||
|| मन है तो मैं हूं ||
|| मेरे होने का दस्तावेजी प्रमाण बन रहा है यह ब्लॉग ||
Saturday, November 29, 2008
देश के लिये दौड़
कल रविवार को मुम्बई में देश के लिये दौड़ का आयोजन किया गया है। छत्रपति शिवाजी टर्मिनल से नारीमन हाउस तक फिल्मी सितारे और ह्यूमन राइट एक्टिविस्ट्स इस दौड़ में भाग लेंगे। उसके बाद ताज होटल – ओबेराय होटल - नारीमन हाउस और गेटवे के चारों ओर मानव चेन बना कर “हम होंगे कामयाब” का सामुहिक गायन होगा। हर आदमी-औरत-बच्चा अपने हाथ में भारत का झण्डा लिये होगा। सभी साम्प्रदायिक सद्भाव की शपथ लेंगे।
उसके बाद अगले रविवार को वागा सीमा पर भारत और पाकिस्तान के मशहूर बुद्धिजीवी, कलाकार और सिने हस्तियां इकठ्ठा होंगे और अमन चैन के लिये मोमबत्तियां जलायेंगे।
बहुत सम्भव है इन दोनो कार्यक्रमों को कमर्शियल चैनलों द्वारा लाइव टेलीकास्ट किया जाये। उसके लिये विज्ञापनदाता लाइन लगा रहे हैं। उल्लेखनीय है कि क्रिकेट नहीं टेलीकास्ट हो रहा तो विज्ञापनदाता इन ईवेण्ट्स पर नजर लगाये हैं।
भारत में जो हताशा और मायूसी का माहौल मुम्बई की दुखद घटनाओं के कारण चल रहा है; उसे सुधारने की यह ईमानदार और सार्थक पहल कही जायेगी। लोगों का ध्यान आतंक, खून, विस्फोट, परस्पर दोषारोपण और देश की साझा विरासत पर संदेह से हटा कर रचनात्मक कार्यों की ओर मोड़ने के लिये एक महत्वपूर्ण धर्मनिरपेक्ष कोर ग्रुप (इफभैफ्ट - IFBHAFT - Intellectuals for Bringing Harmony and Fighting Terror) ने यह निर्णय किये। यह ग्रुप आज दोपहर तक टीवी प्रसारण में अपनी रणनीति स्पष्ट करेगा। इस कोर ग्रुप के अनुसार उसे व्यापक जन समर्थन के ई-मेल मिल रहे हैं।
मैं तो यह स्कूप दे रहा हूं। बाकी; ऑफीशियल अनॉउन्समेण्ट्स की आप प्रतीक्षा करें। एक कार्यक्रम बापू की समाधि राजघाट पर भी आयोजित होने की सम्भावना है; जिससे दिल्ली की जनता भी अपनी देश भक्ति को अभिव्यक्ति दे सके।
(नोट – यह विशुद्ध सटायर है। इस पर विश्वास आप अपनी शर्तों पर करें।)
Friday, November 28, 2008
विकल्प क्या है?
कल बहुत सी पोस्टें मुम्बई के आतंकवादी हमले के संदर्भ में हिन्दी ब्लॉग जगत में थीं। बहुत क्षोभ, बहुत गुस्सा था। विगत के कुछ मामलों के चलते एटीएस के मारे गये अफसरों, कर्मियों के प्रति भी आदर भाव नहीं था कई पोस्टों में। एटीएस वाले जब किसी मामले में राजनैतिक दबाव में काम करते हैं, तो उसपर टिप्पणी की जा सकती है। पर जब वे आतंक से भिड़ते जान खो बठें, तो उसका अनादर क्या सही है? देश के लिये जान दी है उन्होंने।
मुझे यह भी लगता है कि बटाला हाउस मामले की तरह इस मामले में भी इण्टरेस्टेड लोग अंतत: आतंकवादियों के पक्ष में कहने के कुछ बिन्दु निकाल लेंगे। इसमें से एक आध आतंकवादी को दंगों का पीड़ित बता कर इस दुर्दान्त कार्रवाई को सॉफ्ट आउटलुक प्रदान किया जायेगा। (फलाने-फलाने ब्लॉग भी दस पंद्रह दिन बाद इस सॉफ्टीकरण वाली पोस्टें लिखने लगेंगे।) चुनाव समीप हैं, लिहाजा, अन्तत: वोट बैंक तोला जाने लगेगा।
इस प्रकार के काण्ड अनियमित रूप से नियमित हो गये हैं। और उनपर रिस्पॉन्स भी लगभग रुटीन से हो गये हैं। क्या किया जा सकता है?
इयत्ता पर श्री आलोक नन्दन जी को पिछले कुछ दिनों से पढ़ रहा हूं। बहुत बढ़िया लिखते हैं। (बढ़िया लेखन के मायने यह नहीं हैं कि उनसे सहमत ही हुआ जाये।) कल उन्होंने यदि सम्भव हो तो गेस्टापू बनाओ के नाम से एक पोस्ट लिखी। भारतीय स्टेट को मजबूत करने के लिये उन्होंने नात्सी जर्मनी के सीक्रेट पुलीस गेस्टापो (Gestapo) जैसे संगठन की आवश्यकता की बात कही है। पर हमारे देश में जिस प्रकार की निर्वाचन व्यवस्था है, उसमें निरंकुशता की बहुत सम्भावना बन जाती है और गेस्टापो का दुरुपयोग होने के चांस ज्यादा हो जाते हैं। क्या इस एक्स्ट्रीम स्टेप से काम चल सकता है?
मुझे मालुम नहीं, और मैं दूर तक सोच भी नहीं पाता। शायद ऐसी दशा रहे तो गेस्टापो बन ही जाये! प्रधानमन्त्री जी फेडरल इन्वेस्टिगेशन अथॉरिटी की बात कर रहे हैं जो पूरे सामंजस्य से आतंक से लड़ेगी। क्या होगी वह?
श्रीमती इन्दिरा गांधी नहीं हैं। उनके जीते मैं उनका प्रशंसक नहीं था। पर आज चयन करना हो तो बतौर प्रधानमंत्री मेरी पहली पसंद होंगी वे। रवि म्हात्रे की हत्या किये जाने पर उन्होंने मकबूल बट्ट को फांसी देने में देर नहीं की थी। अभी तो बहुत लकवाग्रस्त दिखता है परिदृष्य।
क्या किया जाना चाहिये? कल मैने एक आम आदमी से पूछा। उसका जवाब था (शब्द कुछ बदल दिये हैं) - "लतियाये बहुत समय हो गया। विशिष्ट अंग में पर्याप्त दूरी तक डण्डा फिट करना चाहिये। बस।" इतना लठ्ठमार जवाब था कि मैं आगे न पूछ पाया कि किसका विशिष्ट अंग और कौन सा डण्डा? उस जवाब में इतना गुस्सा और इतना नैराश्य था कि अन्दाज लगाना कठिन है।
Thursday, November 27, 2008
काशीनाथ सिंह जी की भाषा
फिर निकल आयी है शेल्फ से काशी का अस्सी । फिर चढ़ा है उस तरंग वाली भाषा का चस्का जिसे पढ़ने में ही लहर आती है मन में। इसका सस्वर वाचन संस्कारगत वर्जनाओं के कारण नहीं करता। लिहाजा लिखने में पहला अक्षर और फिर *** का प्रयोग।
शि*, इतनी वर्जनायें क्यों हैं जी! और ब्लॉग पर कौन फलाने की पत्नी के पिताजी (उर्फ ससुर) का वर्चस्व है! असल में गालियों का उद्दाम प्रवाह जिसमें गाली खाने वाला और देने वाला दोनो गदगद होते हैं, देखने को कम ही मिलता है। वह काशी का अस्सी में धारा प्रवाह दिखता है।
मेरा मित्र अरुणेंद्र ठसक कर ग्रामप्रधानी करता है। उसके कामों में गांव के लोगों का बीच-बचाव/समझौता/अलगौझी आदि भी करना आता है। एक दिन अपने चेले के साथ केवटाने में एक घर में अलगौझी (बंटवारा) करा कर लौटा। चेला है रामलाल। जहां अरुणेन्द्र खुद खड़ा नहीं हो सकता वहां रामलाल को आगे कर दिया जाता है – प्रधान जी के खासमखास के रूप में। और रामलाल, अरुणेंद्र की शुद्ध भदोहिया भाषा में नहा रहा था – “भोस* के रामललवा, अलगौझी का चकरी चल गइल बा। अब अगला घर तोहरै हौ। तोर मादर** भाई ढ़ेर टिलटिला रहा है अलगौझी को। अगले हफ्ते दुआर दलान तोर होये और शामललवा के मिले भूंजी भांग का ठलुआ!” और रामलाल गदगद भाव से हाथ जोड़ खड़ा हो गया है। बिल्कुल देवस्तुति करने के पोज में। … यह प्रकरण मुझे जब जब याद आता है, काशीनाथ सिंह जी की भाषा याद आ जाती है। |
खैर कितना भी जोर लगायें, तोड़ मिलता नहीं काशी की अस्सी की तरंग का। और उसका दो परसेण्ट@ भी अपनी लेखनी में दम नहीं है।
फिर कभी यत्न करेंगे - “हरहर महादेव” के सम्पुट के रूप में सरलता से भोस* का जोड़ पाने की क्षमता अपने में विकसित करने के लिये।
पर यत्न? शायद अगले जन्म में हो पाये!
काशी का अस्सी पर मेरी पिछली पोस्ट यहां है। और इस पुस्तक के अंश का स्वाद अगर बिना *** के लेना हो तो आप यहां क्लिक कर पढ़ें।
@ - "दो परसेण्ट"? यह तो दम्भ हो गया! इस्तेमाल "एक परसेण्ट" का करना चाहिये था।
हां; प्रियंकर जी की पिछली पोस्ट पर की गयी टिप्पणी जोड़ना चाहूंगा -
कुछ मुहं ऐसे होते हैं जिनसे निकली गालियां भी अश्लील नहीं लगती . कुछ ऐसे होते हैं जिनका सामान्य सौजन्य भी अश्लीलता में आकंठ डूबा दिखता है . सो गालियों की अश्लीलता की कोई सपाट समीक्षा या परिभाषा नहीं हो सकती .
उनमें जो जबर्दस्त 'इमोशनल कंटेंट' होता है उसकी सम्यक समझ जरूरी है . गाली कई बार ताकतवर का विनोद होती है तो कई बार यह कमज़ोर और प्रताड़ित के आंसुओं की सहचरी भी होती है जो असहायता के बोध से उपजती है . कई बार यह प्रेमपूर्ण चुहल होती है तो कई बार मात्र निरर्थक तकियाकलाम .
काशानाथ सिंह (जिनके लेखन का मैं मुरीद हूं)के बहाने ही सही पर जब बात उठी है तो कहना चाहूंगा कि गालियों पर अकादमिक शोध होना चाहिए. 'गालियों का उद्भव और विकास', 'गालियों का सामाजिक यथार्थ', 'गालियों का सांस्कृतिक महत्व', 'भविष्य की गालियां' तथा 'आधुनिक गालियों पर प्रौद्योगिकी का प्रभाव'आदि विषय इस दृष्टि से उपयुक्त साबित होंगे.
उसके बाद निश्चित रूप से एक 'गालीकोश' अथवा 'बृहत गाली कोश' तैयार करने की दिशा में भी सुधीजन सक्रिय होंगे .
Wednesday, November 26, 2008
छोटे छोटे पिल्ले चार!
मेरे घर के सामने बड़ा सा प्लॉट खाली पड़ा है। अच्छी लोकेशन। उसके चारों ओर सड़क जाती है। किसी का है जो बेचने की जुगाड़ में है। यह प्लॉट सार्वजनिक सम्पत्ति होता तो बहुत अच्छा पार्क बन सकता था। पर निजी सम्पत्ति है और मालिक जब तक वह इसपर मकान नहीं बनाता, तब तक यह कचरा फैंकने, सूअरों और गायों के घूमने के काम आ रहा है।
रीता पाण्डेय की पोस्ट। आप उनकी पहले की पोस्टें रीता लेबल पर क्लिक कर देख सकते हैं। |
सन्दीप के बताने पर भरतलाल ने अनुमान लगाया कि वह शायद बच्चा देने वाली है। दोनो ने वहां कुछ चिथड़े बिछा दिये। रात में कुतिया ने वहां चार पिल्लों को जन्म दिया। संदीप की उत्तेजना देखने लायक थी। हांफते हुये वह बता रहा था - कुलि करिया-करिया हयेन, हमरे कि नाहीं (सब काले काले हैं, मेरी तरह)| कुतिया बच्चा देने की प्रक्रिया में थी तभी मैने उसके लिये कुछ दाल भिजवा दी थी। सुबह उसके लिये दूध-ब्रेड और दो परांठे भेजे गये।
रात में मेरी चिन्तन धारा अलग बह रही थी। सड़क की उस कुतिया ने अपनी डिलीवरी का इन्तजाम स्वयम किया था। कोई हाय तौबा नहीं। किसी औरत के साथ यह होता तो हड़कम्प मचता – गाड़ी/एम्ब्यूलेंस बुलाओ, डाक्टर/नर्सिंग होम का इन्तजाम करो, तरह तरह के इंजेक्शन-ड्रिप्स और जरा सी देर होती तो डाक्टर सीजेरियन कर चालीस हजार का बिल थमाता। फिर तरह तरह के भोजन-कपड़े-दवाओं के इन्तजाम। और पता नहीं क्या, क्या।
प्रकृति अपने पर निर्भर रहने वालों की रक्षा भी करती है और उनसे ही इन्तजाम भी कराती है। ईश्वर करे; इस कुतिया के चारों बच्चे सुरक्षित रहें।
पुन: – कुतिया और बच्चों के लिये संदीप और भरतलाल ने एक घर बना दिया है। नियम से भोजन देते हैं। कुतिया कोई भी समस्या होने पर अपनी कूं-कूं से इन्हें गुहार लगाने पंहुच जाती है। वह जान गयी है कि यही उसका सहारा हैं। पिल्लों ने अभी आंख नहीं खोली है।
Tuesday, November 25, 2008
धर्मान्तरण के प्रति बदले नजरिया
मेरे सामने खबर है कि अमेरिकी सिनेमा और मनोरंजन जगत के एक सितारे ने धर्मपरिवर्तन कर लिया है। यह मुझे प्रलोभन से प्रेरित लगता है। यह बन्दा कल तक पीडोफीलिया (बच्चों के साथ वासनात्मक कृत्य) का मुकदमा झेल रहा था। अत: अचानक इसके मन में ट्रांसफार्मेशन हुआ हो – विश्वास कर पाना कठिन है।
भारत में जबरन धर्मान्तरण हुआ रहा होगा इस्लामिक, अंग्रेजी, पोर्चुगीज या फ्रांसीसी शासन में। अब वह केवल प्रलोभन से होता है। उसका सही प्रतिकार होना चाहिये, पर वह विचारधारा के स्तर पर अन्य धर्मों से हिन्दू धर्म में धर्मान्तरण की सम्भावनायें तलाशने के सार्थक यत्न से किया जाना चाहिये।
उस्ताद आशीष खान देबशर्मा, उस्ताद अल्लाउद्दीन खान, सरोदवादक के पौत्र। जिन्होंने सन २००६ में अपने को पूर्व बंगाल की ब्राह्मण परंपरा से जोड़ा।
क्रिश्चियानिटी और इस्लाम में यह धर्मान्तरण सक्रिय तरीके से होता है। भारत में वह बिना बल प्रयोग और बिना प्रलोभन के हो तो कोई समस्या ही न हो। पर तब वह "संख्या बढ़ाऊ कार्यक्रम" का हिस्सा नहीं बन सकता।
मैं सोचता था कि हिन्दू धर्म में धर्मान्तरण भूली-भटकी चीज होगी। पर विकीपेडिया का यह पेज तो बहुत से जाने पहचाने नाम गिनाता है जो अब्राहमिक या अन्य धर्मों/नास्तिकता से हिन्दू बने या हिन्दू धर्म में लौटे! इन मामलों में नहीं लगता कि हिन्दू धर्म ने धर्मान्तरण के लिये प्रलोभन या हिंसा का सहारा लिया होगा। उल्टे, हिन्दू धर्म में वापस आने के प्रति निष्क्रिय उपेक्षा भाव के बावजूद यह हुआ है। यह प्रक्रिया सक्रिय और तेज की जाने की आवश्यकता है।
मेरा मानना है कि किसी का धर्मान्तरण नहीं किया जाना चाहिये। और वह कैथोलिक चर्च, जिसका मैं अंग हूं, ने यह माना है कि एक अच्छा व्यक्ति, चाहे किसी भी धार्मिक विचारधारा का हो, मोक्ष पा सकता है।...
और वह सही रूप में तो अन्य धर्म वालों को हिन्दू धर्म के प्रति आकर्षित करने से हो सकता है।
Monday, November 24, 2008
सरकारी बैठक में आशु कविता
चार भारी भरकम पूअरली डिजाइण्ड पावरप्वॉइण्ट के प्रवचन और बीच बीच में चबा चबा कर बोली गयी अंग्रेजी के लम्बे-लम्बे उद्गार। मीटिंग खिंचती चली जा रही थी। पचीस तीस लोगों से खचाखच बैठक में अगर बोरियत पसरी हो तो हम जैसे अफसर मोबाइल निकाल कर परस्पर चुहल के एसएमएस करने लगते हैं।
एक साहब ने मार्क फेबर का फेमस कोटेशन (?) ठेला -
मार्क फेबर ने अपने मासिक इनवेस्टमेण्ट बुलैटिन में अन्तिम रिमार्क के रूप में कहा – “फेडरल सरकार हम सब को $600 का रिबेट दे रही है। अगर वह हम वालमार्ट में खर्च करते हैं तो पैसा चीन चला जायेगा। अगर गैसोलीन पर खर्चते हैं तो अरबिस्तान। हम कम्प्यूटर खरीदने में लगायेंगे तो वह भारत के हिस्से आयेगा। सब्जी/फल खरीदें तो वह मैक्सिको चला जायेगा। एक अच्छी कार खरीदने में लगायें तो वह या तो जापान जायेगा या जर्मनी। कोई बेकार सी चीज खरीदें तो वह ताइवान के हिस्से आयेगा। पर पैसा अमेरिका में ही रहे, इसके लिये एक ही तरीका है – पैसा वैश्याओं और बीयर पर खर्च किया जाये। यही अब अमेरिका में आंतरिक रूप से उत्पादित होता है। मैं अमेरिका के लिये वही योगदान कर रहा हूं” |
उसके बाद एसएमएस की धारा बह निकली। एसएमएस बनाने में झंझट ज्यादा था, सो कुछ समय बाद उनके साथ कागज की पर्चियां आदान-प्रदान होने लगीं।
मेरे उन एसएमएस ठेलक आशुकवि मित्र ने बड़े काम की पर्चियां सरकाईं मेरे पास। एक मीटिंग में चल रही अंग्रेजी पर थी -
अफसर बोले अंग्रेजी, लोग सुनें हरसाय। चल खुसरो घर आपने, बैरन भई सभाय। |
कुछ समय बाद देखा तो वास्तव में वे आशुकवि जी चुपके से सरक लिये थे। पर लंच से कुछ पहले वापस आ गये थे। यह पूछने पर कि वापस कैसे आये, उन्होने अगली पर्ची सरकाई -
प्यादा है, फर्जी बना। मंच बीच शोभाय। कल का बासी ढोकला, सॉस लगा कर खाय। ऊंची कुरसी बैठ कर, मुझको करता ट्रैक। भोजन भी मिलना यहीं, सो खुसरो केम बैक! |
मैने उनकी आशु कविता की प्रशंसा कर दी। उन्होने तड़ से अपनी ओर से मेरी प्रशंसात्मक पर्ची ठेली -
(आप तो, अपने ब्लॉग पर) मुद्दा सीरियस उठाते हैं, कभी न गावें फाग। अप-डाउन (यानी ट्रेन चलाने का काम) को छोड़ कर, भोर लिखेंगे ब्लॉग। छुट भैयों की तुक बन्दी से, आप का कैसा मेल। आप खायें साहित्य का मेवा, हम खायेंगे भेल! |
और साहित्य प्रेम पर आशु-कवि मित्र की अन्तिम पर्ची -
साहित्य प्रेम पर विशेष – (कवि का नाम भूल गये, शायद ओम प्रकाश आदित्य।) एक लाला जी से मेरी मित्रता हुई थी यारों। शुरू में मिले थे हम दोनो सन साठ में। जीवन की समर की राह चुनने के लिये, दोनों ने विचार किया बैठ बाट में। साहित्य की सेवा के लिये मैं घाट पर गया, लाला गये सदरबाजार एक हाट में। लालाजी ने लोहा बेंचा, मैने एक दोहा लिखा। लाला अब ठाठ में हैं, मैं पड़ा हूं खाट में। |
ये मित्र उत्तर-मध्य रेलवे के मुख्य फलाने विषयक अभियंता हैं। रोजी रोटी के फेर में इन्जीनियर न बने होते तो बड़े साहित्यकारों में होते और अब तक कोई क्लासिक रच चुके होते। आप कल्पना कर सकते हैं कि अपनी जीवन्तता पर सीनियर अफसर बनने की जंग नहीं लगने दी है उन्होंने।
रीता पाण्डेय की त्वरित टिप्पणी - लोगों में जब यह प्रतिभा होती है, तब रोजी-रोटी की चिंता इंजीनियरिंग पढ़वाती है। जब रोजी-रोटी का इंतजाम हो जाता है, तब यह प्रतिभा शुष्क हो चुकी होती है!
Saturday, November 22, 2008
नहीं बेचनी।
“इनकी रचना को नए ब्लॉग पर डाल दो . दो धेले में नहीं बिकेगी . आज ज्ञानदत्त नाम बिक रहा है”
मुझे दो धेले में पोस्ट नहीं बेचनी। नाम भी नहीं बेचना अपना। और कौन कहता है कि पोस्ट/नाम बेचने बैठें हैं?
Friday, November 21, 2008
अण्टशण्टात्मक बनाम सुबुक सुबुकवादी पोस्टें
हमें नजर आता है आलू-टमाटर-मूंगफली। जब पर्याप्त अण्टशण्टात्मक हो जाता है तो एक आध विक्तोर फ्रेंकल या पीटर ड्रकर ठेल देते रहे हैं। जिससे तीन में भी गिनती रहे और तेरह में भी। लिहाजा पाठक अपने टोज़ पर (on their toes) रहते हैं – कन्फ्यूजनात्मक मोड में कि यह अफसर लण्ठ है या इण्टेलेक्चुअल?! फुरसतिया वादी और लुक्की लेसते हैं कि यह मनई बड़ा घाघ टाइप है।
जब कुछ नार्मल-नार्मल सा होने लगता है तब जोनाथन लिविंग्स्टन बकरी आ जाती है या विशुद्ध भूतकाल की चीज सोंइस। निश्चय ही कई पाठक भिन्ना जाते हैं। बेनामी कमेण्ट मना कर रखा है; सो एक दन्न से ब्लॉगर आई-डी बना कर हमें आस्था चैनल चलाने को प्रेरित करते हैं – सब मिथ्या है। यह ब्लॉगिंग तो सुपर मिथ्या है। वैसे भी पण्डित ज्ञानदत्त तुम्हारी ट्यूब खाली हो गयी है। ब्लॉग करो बन्द। घर जाओ। कुछ काम का काम करो। फुल-स्टॉप।
हम तो ठेलमठेल ब्लॉगर हैं मित्र; पर बड़े ध्यान से देख रहे हैं; एक चीज जो हिन्दी ब्लॉगजगत में सतत बिक रही है। वह है सुबुक सुबुकवादी साहित्त (साहित्य)। गरीबी के सेण्टीमेण्ट पर ठेलो। अगली लाइन में भले मार्लबरो सुलगा लो। अपनी अभिजात्यता बरकरार रखते हुये उच्च-मध्यवर्ग की उच्चता का कैजुअल जिक्र करो और चार्दोनी या बर्गण्डी– क्या पीते हो; ठसक से बता दो। पर काम करने वाली बाई के कैंसर से पीडित पति का विस्तृत विवरण दे कर पढ़ने वाले के आंसू और टिप्पणियां जरूर झड़वालो! करुणा की गंगा-यमुना-सरस्वती बह रही हैं, पर ये गरीब हैं जो अभावग्रस्त और अभिशप्त ही बने रहना चाहते हैं। उनकी मर्जी!
ज्यादा दिमाग पर जोर न देने का मन हो तो गुलशन नन्दा और कुशवाहा कान्त की आत्मा का आवाहन कर लो! “झील के उस पार” छाप लेखन तो बहुत ही “माई डियर” पोस्टों की वेराइटी में आता है। मसाला ठेलो! सतत ठेलो। और ये गारण्टी है कि इस तरह की ट्यूब कभी खाली न होगी। हर पीढ़ी का हर बन्दा/बन्दी उम्र के एक पड़ाव पर झील के उस पार जाना चाहता है। कौन पंहुचायेगा?!
मन हो रहा है कि “भीगी पलकें” नाम से एक नई आई.ड़ी. से नया ब्लॉग बना लूं। और “देवदास” पेन नेम से नये स्टाइल से ठेलना प्रारम्भ करूं। वैसे इस मन की परमानेंसी पर ज्यादा यकीन न करें। मैं भी नहीं करता!
आलोक पुराणिक जी ने मेरी उम्र जबरी तिरपन से बढ़ा कर अठ्ठावन कर दी है। कहीं सरकारी रिकार्ड में हेर फेर न करवा रहे हों! बड़े रसूख वाले आदमी हैं। पर किसी महिला की इस तरह उम्र बढ़ा कर देखें! ----- |
Thursday, November 20, 2008
जग्गू की गृहस्थी
एक गांव में एक जमींदार था। उसके कई नौकरों में जग्गू भी था। गांव से लगी बस्ती में, बाकी मजदूरों के साथ जग्गू भी अपने पांच लड़कों के साथ रहता था। जग्गू की पत्नी बहुत पहले गुजर गई थी। एक झोंपड़े में वह बच्चों को पाल रहा था। बच्चे बड़े होते गये और जमींदार के घर नौकरी में लगते गये।
सब मजदूरों को शाम को मजूरी मिलती। जग्गू और उसके लड़के चना और गुड़ लेते थे। चना भून कर गुड़ के साथ खा लेते थे।
बस्ती वालों ने जग्गू को बड़े लड़के की शादी कर देने की सलाह दी। उसकी शादी हो गई और कुछ दिन बाद गौना भी आ गया। उस दिन जग्गू की झोंपड़ी के सामने बड़ी बमचक मची। बहुत लोग इकठ्ठा हुये नई बहू देखने को। फिर धीरे धीरे भीड़ छंटी। आदमी काम पर चले गये। औरतें अपने अपने घर। जाते जाते एक बुढ़िया बहू से कहती गई – पास ही घर है। किसी चीज की जरूरत हो तो संकोच मत करना, आ जाना लेने।
----- आप रीता पाण्डेय सम्बन्धित पोस्टें रीता लेबल के लेखों के वर्गीकरण पर देख सकते हैं। |
सबके जाने के बाद बहू ने घूंघट उठा कर अपनी ससुराल को देखा तो उसका कलेजा मुंह को आ गया। जर्जर सी झोंपड़ी, खूंटी पर टंगी कुछ पोटलियां और झोंपड़ी के बाहर बने छ चूल्हे (जग्गू और उसके सभी बच्चे अलग अलग चना भूनते थे)। बहू का मन हुआ कि उठे और सरपट अपने गांव भाग चले। पर अचानक उसे सोच कर धचका लगा – वहां कौन से नूर गड़े हैं। मां है नहीं। भाई भौजाई के राज में नौकरानी जैसी जिंदगी ही तो गुजारनी होगी। यह सोचते हुये वह पुक्का फाड़ रोने लगी। रोते रोते थक कर शान्त हुई। मन में कुछ सोचा। पड़ोसन के घर जा कर पूछा – अम्मां एक झाड़ू मिलेगा? बुढ़िया अम्मा ने झाड़ू, गोबर और मिट्टी दी। साथ में अपनी पोती को भेज दिया।
वापस आ कर बहू ने एक चूल्हा छोड़ बाकी फोड़ दिये। सफाई कर गोबर-मिट्टी से झोंपड़ी और दुआर लीपा। फिर उसने सभी पोटलियों के चने एक साथ किये और अम्मा के घर जा कर चना पीसा। अम्मा ने उसे साग और चटनी भी दी। वापस आ कर बहू ने चने के आटे की रोटियां बनाई और इन्तजार करने लगी।
जग्गू और उसके लड़के जब लौटे तो एक ही चूल्हा देख भड़क गये। चिल्लाने लगे कि इसने तो आते ही सत्यानास कर दिया। अपने आदमी का छोड़ बाकी सब का चूल्हा फोड़ दिया। झगड़े की आवाज सुन बहू झोंपड़ी से निकली। बोली – आप लोग हाथ मुंह धो कर बैठिये, मैं खाना निकालती हूं। सब अचकचा गये! हाथ मुंह धो कर बैठे। बहू ने पत्तल पर खाना परोसा – रोटी, साग, चटनी। मुद्दत बाद उन्हें ऐसा खाना मिला था। खा कर अपनी अपनी कथरी ले वे सोने चले गये।
सुबह काम पर जाते समय बहू ने उन्हें एक एक रोटी और गुड़ दिया। चलते समय जग्गू से उसने पूछा – बाबूजी, मालिक आप लोगों को चना और गुड़ ही देता है क्या? जग्गू ने बताया कि मिलता तो सभी अन्न है पर वे चना-गुड़ ही लेते हैं। आसान रहता है खाने में। बहू ने समझाया कि सब अलग अलग प्रकार का अनाज लिया करें। देवर ने बताया कि उसका काम लकड़ी चीरना है। बहू ने उसे घर के ईंधन के लिये भी कुछ लकड़ी लाने को कहा।
बहू सब की मजूरी के अनाज से एक एक मुठ्ठी अन्न अलग रखती। उससे बनिये की दुकान से बाकी जरूरत की चीजें लाती। जग्गू की गृहस्थी धड़ल्ले से चल पड़ी। एक दिन सभी भाइयों और बाप ने तालाब की मिट्टी से झोंपड़ी के आगे बाड़ बनाया। बहू के गुण गांव में चर्चित होने लगे।
जमींदार तक यह बात पंहुची। वह कभी कभी बस्ती में आया करता था। आज वह जग्गू के घर उसकी बहू को आशीर्वाद देने आया। बहू ने पैर छू प्रणाम किया तो जमींदार ने उसे एक हार दिया। हार माथे से लगा बहू ने कहा कि मालिक यह हमारे किस काम आयेगा। इससे अच्छा होता कि मालिक हमें चार लाठी जमीन दिये होते झोंपड़ी के दायें बायें, तो एक कोठरी बन जाती। बहू की चतुराई पर जमींदार हंस पड़ा। बोला – ठीक, जमीन तो जग्गू को मिलेगी ही। यह हार तो तुम्हारा हुआ।
यह कहानी मेरी नानी मुझे सुनाती थीं। फिर हमें सीख देती थीं – औरत चाहे घर को स्वर्ग बना दे, चाहे नर्क! मुझे लगता है कि देश, समाज, और आदमी को औरत ही गढ़ती है।
--- रीता पाण्डेय
Tuesday, November 18, 2008
बी एस पाबला - जिन्दगी के मेले
कल एक टिप्पणी मिली अमैच्योर रेडियो के प्रयोगधर्मी सज्जन श्री बी एस पाबला की। मैं उनकी टिप्पणी को बहुत वैल्यू देता हूं, चूंकि, वे (टिप्पणी के अनुसार) एक जुनूनी व्यक्ति लगते हैं। अपनी टिप्पणी में लिखते हैं -
"अकेले ही पॉपुलर मेकेनिक जैसी पत्रिकायों में सिर गड़ाये रखना, वो इलेक्ट्रॉनिक कम्पोनेंट्स के लिये दर दर भटकना (हमारे जैसे क्षेत्र में), लिखित जानकारी जुटाना, अमैच्योर रेडियो के लाइसेंस के लिये बार बार टेस्ट देना और फिर एक अनजानी सी भिनभिनाहट के साथ आती हजारों मील दूर से से आवाज ऐसा अनुभव देती थी जैसे अकेले हमीं ने मार्स रोवर बना कर मंगल की सैर की हो!
वह रोमांच यहाँ तीन क्लिक या तीन सेकेंड में ब्लॉग बना कर कहाँ मिलेगा?"
उनके प्रोफाइल से उनका ई-मेल एड्रेस ले कर मैने धन्यवादात्मक ई-मेल किया।
उत्तर में उनका जो ई-मेल आया, उसकी बॉटमलाइन बहुत रोचक है -
"कम्प्यूटर अविश्वसनीय रूप से तेज, सटीक और भोंदू है।
पाबला अविश्वसनीय रूप से धीमा, अस्पष्ट और प्रतिभावान है।
लेकिन दोनों मिलकर, कल्पना-शक्ति से ज़्यादा ताकतवर हैं!!"
इम्प्रेसिव! पर अफसोस, मैं और मेरा कम्प्यूटर मिल कर इतने इमैजिनेटिव और पावरफुल नहीं हैं! यद्यपि किसी जमाने में हम भी टेलीकम्यूनिकेशन इन्जीनियर हुआ करते थे! और धीमेपन में तो हमारी तुलना
मैं पाबला जी को मैच नहीं कर सकता, पर उनके ब्लॉग की प्रतीक्षा करूंगा। उनके ब्लॉग का नाम है – जिन्दगी के मेले। यह ब्लॉग अभी इनविटेशन पर है।
जीवन में जीवंतता के लिये क्या चाहिये? उत्कृष्टता का जुनून (A Passion for Excellence) ही शायद जरूरत है।
Monday, November 17, 2008
ब्लॉगजगत की मिडलाइफ क्राइसिस
मैं देख रहा हूं, ब्लॉग की रेलेवेंस (relevance – प्रासंगिकता) और मिडलाइफ क्राइसिस पर चर्चा होने लगी है। हमारे जैसे के ब्लॉग तो नुक्कड़ का किराना स्टोर थे/हैं; पर चर्चा है कि ब्लॉग जगत के वालमार्ट/बिगबाजार कोहनिया रहे हैं कि चलेंगे तो हम। यह कहा जा रहा है - "एक व्यक्ति के रूप मेँ वेब-लॉग अपनी प्रासंगिकता वैसे ही खो चुका है जैसे एमेच्योर रेडियो या पर्सनल डिजिटल असिस्टेण्ट! मेन स्ट्रीम मीडिया और संस्थाओं ने ब्लॉगजगत से व्यक्ति को धकिया दिया है। ब्लॉग अपनी मूल पर्सनालिटी खो चुके हैं।"
हिन्दी में तो यह मारपीट नजर नहीं आती – सिवाय इसके कि फलाने हीरो, ढ़िमाकी हीरोइन के ब्लॉग की सनसनी होती है यदा कदा। पर चिठ्ठाजगत का एक्टिव ब्लॉग्स/पोस्ट्स के आंकड़े का बार चार्ट बहुत उत्साहित नहीं करता।
...निकोलस कार्र, एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका के ब्लॉग पर
हर रोज हिन्दी में कुल ४०० पोस्टें। कोई आश्चर्य नहीं कि समीर लाल जी अधिकांश पर टिप्पणी करने का जज्बा बरकरार रखे हैं।
तेक्नोराती State of the Blogosphere पर विस्तृत रिपोर्ट दे रहा है। जिसे ले कर बहुत से विद्वान फेंटेंगे। पर जैसे अर्थ क्षेत्र में मंदी है, उसी तरह ब्लॉग क्षेत्र में भी मन्दी की चर्चायें होंगी!
ई-मेल के उद्भव से ले कर अब तक मैने १००-१२५ ई-मेल आईडी बनाये होंगे। उसमें से काम आ रही हैं तीन या चार। उसी तरह १५-२० ब्लॉग बनाये होंगे ब्लॉगस्पॉट/वर्डप्रेस/लाइफलॉगर आदि पर। अन्तत: चल रहे हैं केवल दो – शिवकुमार मिश्र का ब्लॉग भी उसमें जोड़ लें तो। माले-मुफ्त दिल बेरहम तो होता ही है। लोग ब्लॉग बना बना कर छोड़ जा रहे हैं इण्टरनेट पर! इतने सारे ब्लॉग; पर कितना व्यक्ति केन्द्रित मौलिक माल आ रहा है नेट पर?! |
इसको कहते हैं गुलाटीं मारना (somersault)|
चौदह नवम्बर को मैने लिखा था – मिडलाइफ क्राइसिस और ब्लॉगिंग। और आज यह है ब्लॉगजगत की मिडलाइफ क्राइसिस!
Saturday, November 15, 2008
मूंगफली की बंहगी
कल दिन भर कानपुर में था। दिन भर के समय में आधा घण्टा मेरे पास अपना (सपत्नीक) था। वह बाजार की भेंट चढ़ गया। चमड़े के पर्स की दुकान में मेरा कोई काम न था। लिहाजा मैं बाहर मूंगफली बेचने वाले को देखता रहा।
और लगा कि बिना बहुत बड़ी पूंजी के मूंगफली बेचना एक व्यवसाय हो सकता है। सड़क के किनारे थोड़ी सी जगह में यह धकाधक बिक रही थी। स्वस्थ वेराइटी की बड़े दाने की मूंगफली थी।
एक जगह तो बेचने वाला कार्ड बोर्ड की रद्दी और स्कूटरों के बीच सुरक्षित बैठा था। बेचते हुये खाली समय में मूंगफली छील कर वेल्यू-ऐडेड प्रॉडक्ट भी बना रहा था।
ये मूंगफली वाले पता नहीं पुलीसवालों को कितना हफ्ता और कितना मूंगफली देते होंगे। और इलाके का रंगदार कितना लेता होगा!
हम भी यह व्यवसाय कर सकते हैं। पर हमारे साथ एक ही समस्या है – बेचने से ज्यादा खुद न खा जायें।
अनूप शुक्ल की फोटो खींचनी थी। उनसे तो मिलना न हो पाया – यह मूंगफली की बंहगी वालों के चित्र ही खटाक कर लिये। क्या फर्क पड़ता है – खांटी कानपुरिया चित्र हैं।
कल मैने सोचा तो पाया कि समाज सेवा ब्लॉगिंग से कहीं ज्यादा नोबल काम है। पर वह बहुत उत्तम दर्जे का अनुशासन और व्यक्तित्व में सब्लीमेशन (sublimation – अपनी वृत्तियों का उदात्तीकरण) मांगता है। जो व्यक्ति जीवन में प्रबन्धक की बजाय प्रशासक रहा हो – उसके लिये समाज सेवा ज्यादा कठिन कार्य है। पर, मैं गलत भी हो सकता हूं।
कल मुझे आप लोगों ने मेरे और अनूप जी के ब्लॉग पर जन्मदिन की बधाई दीं। उसका बहुत बहुत धन्यवाद। बधाई के चक्कर में पीटर ड्रकर की महत्वपूर्ण बात दब गयी!
Friday, November 14, 2008
मिडलाइफ क्राइसिस और ब्लॉगिंग
मुझे पीटर ड्रकर का “मैनेजिंग वनसेल्फ” (Managing Oneself) नामक महत्वपूर्ण लेख बारम्बार याद आता है। आप इस हाइपर लिंक के माध्यम से यह लेख डाउनलोड कर सकते हैं। पर डाउनलोड करने से ज्यादा महत्वपूर्ण उस लेख को पढ़ना है।
मैं यहां यही कहना चाहता हूं कि अगर आपको सेकेण्ड कैरियर के लिये सप्ताह में १०-१२ घण्टे का सार्थक काम तलाशना हो, और उसमें पैसा कमाने की बाध्यता न हो, तो ब्लॉगिंग एक अच्छा ऑप्शन बन कर सामने आता है। |
इस लेख के उत्तरार्ध में पीटर ड्रकर जिन्दगी के दूसरे भाग की बात करते हैं। लाइफ स्पान बढ़ते जाने और श्रमिक की बजाय नॉलेज वर्कर के रूप में अधिकांश लोगों द्वारा जीवन व्यतीत करने के कारण दूसरा कैरियर बहुत महत्वपूर्ण होता जा रहा है। मैं उनके लेख का एक अंश अनुदित कर रहा हूं -
“मिड-लाइफ क्राइसिस” से अधिकाधिक एग्जीक्यूटिव्स दो चार हो रहे हैं। यह अधिकतर बोरडम (boredom – नीरसता) ही है। पैंतालीस की उम्र में अधिकांश एग्जीक्यूटिव्स अपनी बिजनेस कैरियर के पीक पर महसूस करते हैं। बीस साल तक लगभग एक ही प्रकार का काम करते करते वे अपने काम में दक्ष हो गये होते हैं। पर वे उत्तरोत्तर अपने काम से न संतोष और चुनौती पाते हैं और न बहुत महत्वपूर्ण कर पाने का अहसास। और फिर भी उनके आगे २० से २५ साल और होते हैं, जिनमें उन्हें कार्यरत रहना है। यही कारण है कि आत्म-प्रबन्धन आगे और भी दूसरी कैरियर के बारे में सोचने को बाध्य करने लगा है।
आप दूसरी कैरियर के बारे में ड्रकर के विचार जानने के लिये उनका लेख पढ़ें। मैं यहां यही कहना चाहता हूं कि अगर आपको सेकेण्ड कैरियर के लिये सप्ताह में १०-१२ घण्टे का सार्थक काम तलाशना हो, और उसमें पैसा कमाने की बाध्यता न हो, तो ब्लॉगिंग एक अच्छा ऑप्शन बन कर सामने आता है। पीटर ड्रकर ने जब यह लेख लिखा था, तब ब्लॉगिंग का प्रचलन नहीं था। वर्ना वे इसकी चर्चा भी करते।
उत्तरोत्तर मैं साठ-पैंसठ से अधिक की उम्र वालों को हिन्दी ब्लॉगरी में हाथ अजमाइश करते देख रहा हूं। उस दिन बृजमोहन श्रीवास्तव जी हाइपर लिंक लगाने की जद्दोजहद से दो-चार थे। वे बहुत अच्छा लिखते हैं। एक अन्य ब्लॉग से मैने पाया कि ७१ वर्षीय श्री सुदामा सिंह हिन्दी ब्लॉगरी को ट्राई कर रहे हैं। कई अन्य लोग भी हैं।
ड्रकर के अनुसार जीवन के दूसरे भाग के प्रबन्धन के लिये जरूरी है कि आप दूसरे भाग में प्रवेश से बहुत पहले वह प्रबन्धन करने लगें। पर हमने तो मिडलाइफ क्राइसिस की झेलियत के बाद ब्लॉगरी को काम की चीज पाया। ट्रेन हांकने में पाये तमगे जब महत्वहीन होने लगे तो लेटरल कार्य ब्लॉगिंग में हाथ आजमाइश की। सारी शंका-आशंकाओं के बावजूद अभी भी इसे मिडलाइफ क्राइसिस का सार्थक एण्टीडोट मानने का यत्न जारी है।
आप भी सोच कर देखें।
Thursday, November 13, 2008
सोंइस
कल पहाड़ों के बारे में पढ़ा तो बरबस मुझे अपने बचपन की गंगा जी याद आ गयीं। कनिगड़ा के घाट (मेरे गांव के नजदीक का घाट) पर गंगाजी में बहुत पानी होता था और उसमें काले – भूरे रंग की सोंइस छप्प – छप्प करती थीं। लोगों के पास नहीं आती थीं। पर होती बहुत थीं। हम बच्चों के लिये बड़ा कौतूहल हुआ करती थीं।
मुझे अब भी याद है कि चार साल का रहा होऊंगा – जब मुझे तेज बुखार आया था; और उस समय दिमाग में ढेरों सोंइस तैर रही थीं। बहुत छुटपन की कोई कोई याद बहुत स्पष्ट होती है।
अब गंगा में पानी ही नहीं बचा।
पता चला है कि बंगलादेश में मेघना, पद्मा, जमुना, कर्नफूली और संगू (गंगा की डिस्ट्रीब्यूटरी) नदियों में ये अब भी हैं, यद्यपि समाप्तप्राय हैं। हजार डेढ़ हजार बची होंगी। बंगला में इन्हें शिशुक कहा जाता है। वहां इनका शिकार इनके अन्दर की चर्बी के तेल के लिये किया जाता है।
मीठे पानी की ये सोंइस (डॉल्फिन) प्रयाग के परिवेश से तो शायद गंगा के पानी घट जाने से समाप्त हो गयीं। मुझे नहीं लगता कि यहां इनका शिकार किया जाता रहा होगा। गंगा के पानी की स्वच्छता कम होने से भी शायद फर्क पड़ा हो। मैने अपने जान पहचान वालों से पूछा तो सबको अपने बचपन में देखी सोंइस ही याद है। मेरी पत्नी जी को तो वह भी याद नहीं।
सोंइस, तुम नहीं रही मेरे परिवेश में। पर तुम मेरी स्मृति में रहोगी।
इस वाइल्ड लाइफ ब्लॉग पर मुझे गांगेय डॉल्फिन का यह चित्र मिला है। ब्लॉग ओनर से परमीशन तो नहीं ली है, पर चित्र प्रदर्शन के लिये उनका आभार व्यक्त करता हूं। अगर उन्हें आपत्ति हो तो चित्र तुरत हटा दूंगा।
Tuesday, November 11, 2008
संकठा प्रसाद लौट आये हैं
आजकल मौसम सुहाना हो गया है। मेरी सासू मां ने सवेरे की पूजा और शंखद्वनि के बाद सैर पर जाना शुरू कर दिया है। लोगों से बतियाती घर में घुसती हैं सैर के बाद। और कोई न कोई खबर ले कर आती हैं।
श्रीमती रीता पाण्डेय की; फुरसतिया सुकुल के उकसाने पर, तुरत-फुरत लिखी एक घरेलू वातावरणीय पोस्ट! आपको यह पोस्ट पसन्द आये तो रीता पाण्डेय की नजीर मियां की खिचड़ी का भी अवलोकन करें! |
दो दिन पहले घर में अफनाते हुये घुसीं और बोलीं – “अरे संकठा भाग गया है कहीं। उसकी महतारी रो रो कर जान दे रही है। दस दिन पहले तो संकठा की सगाई हुई थी।” घर में वातावरण अचानक गर्मा गया। भरतलाल (हमारे सरकारी भृत्य) को तुरंत बतौर “वन मैन कमीशन” नियुक्त किया गया – पूरी तहकीकात के लिये।
भरतलाल से जो खबर पता चली, उसके अनुसार संकठा को लड़की पसन्द नहीं थी। सो उसने शादी करने से मना कर दिया, पर बाप की मार के डर से घर से भाग गया। सामान्यत जैसा होता है; महिलायें इस तरह के मामले में पूरी तह तक गये बिना चैन नहीं लेतीं। अत: मैने भी पूरी तरह पड़ताल की ठानी। विभिन्न स्रोतों से जानकारी एकत्र कर जो कहानी बनी, वह शुरू तो रोमांस के साथ हुई, पर समापन दर्द के साथ हुआ।
संकठा खाते पीते परिवार का गबरू जवान – बिल्कुल सलमान खान टाइप बिन्दास छोरा है। सड़क पर निकलता है तो लड़कियां देख कर आहें भरती हैं। संकठा की नजर एक लड़की से उलझ गयी और वह ऐसा लड़खड़ाया कि उसका दिल लड़की की गोदी में जा गिरा। और तो ठीक था पर लड़की उसकी जात बिरादरी से अलग की थी। पर इश्क कहां देखता है जात बिरादरी! संकठा प्रेम नगर की सीढ़ियां चढ़ते गये। लड़की को समोसा – लौंगलता खिलाये। फिर मोटरसाइकल पर बैठा कर प्रेम गली में फर्राटा भरने लगे।
खैर, दुनियां बड़ी कमीनी है। प्रेमियों को जीने कहां देती है। कुछ लोग संकठा के बाप के पास पंहुच गये – “भैया छोरे को खूंटे से बांधो, वर्ना घर की इज्जत डुबोयेगा और बिरादरी की नाक कटेगी सो अलग।” बस, बाप ने पकड़ कर चार लात दिये। संकठा की मां को भी हजार गाली दी - “तुझे तो घर में कण्डे थापने से फुर्सत नहीं है और छोरा हो रहा है आवारा। किसी दिन किसी चुड़ैल को घर ले आया तो गंगा में डूब मरना।”
बाप ने आनन फानन में एक लड़की देखी और संकठा की नकेल कसने को सगाई कर दी। सगाई से पहले संकठा ने एक नाकाम सी कोशिश करते हुये मां से कहा कि “लड़की की लम्बाई छोटी है”। इस पर बड़ा भाई गुर्राया – “तू कौन छ फुट्टा है! लड़की वाले तीन लाख खर्च कर रहे हैं। और वे जण्डइल है साले। चूं-चपड़ की तो वे तुझे काट कर अपट्रान चौराहे पर गाड़ देंगे।” लिहाजा, अपट्रान चौराहे पर गड़ने को अनिच्छुक, सगाई करा संकठा गायब हो गया।
सारी कहानी पर हमारी महरी शान्ती की मेरी सासू मां को दी टिप्पणी थी - “अरे अम्मा, लड़की क लम्बइया नाय छोट बा। दहेजवा छोट लागत होये। दहेजवा तनी बढ़ जाई त लड़की क लम्बइयौ बढ़ि जाई! अउर ऊ हरामी कत्तौं न ग होये। अपने मौसिया के घरे होये। आइ जाई!” (अरे अम्मा, लड़की की लम्बाई नहीं छोटी है। दहेज छोटा लग रहा होगा। दहेज कुछ बढ़ जायेगा तो लड़की की लम्बाई भी बढ़ जायेगी। और वह हरामी कहीं नहीं गया होगा। अपनी मौसी के घर होगा। आ जायेगा।)
पता नहीं संकठा ने क्या अनुभव किया। अपट्रान चौराहे पर गाड़े जाने का भय या दहेज की बढ़ी लम्बाई?
बहरहाल संकठा प्रसाद लौट आये हैं!
Monday, November 10, 2008
भारत – कहां है?
भारत के संविधान या भारत के नक्शे में हम भारत ढूंढते हैं। सन १९४६-५० का कॉन्सेप्ट है वह। नक्शा बना सिरिल रेडक्लिफ के बाउण्ड्री कमीशन की कलम घसेटी से। संविधान बना संविधान सभा के माध्यम से। उसमें विद्वान लोग थे। पर आदि काल से संगम के तट पर विद्वतजन इकठ्ठा होते थे कुम्भ-अर्ध कुम्भ पर और उस समय के विराट सांस्कृतिक – धार्मिक वृहत्तर भारत के लिये अपनी सर्वानुमति से गाइडलाइन्स तय किया करते थे। वह सिस्टम शायद डिसयूज में आ गया है?!
जब मेरे मन में छवि बनती है तो उस वृहत्तर सांस्कृतिक – धार्मिक सभ्यता की बनती है जो बर्मा से अफगानिस्तान तक था। और जिसका अस्तित्व बड़े से बड़े तूफान न मिटा पाये। लिहाजा जब सतीश पंचम जी के हाथ कांपते हैं, राष्ट्रीयता के लिये “भारत” भरने विषय पर; तब मुझे यह वृहत्तर भारत याद आता है। मुझे लगता है कि मेरे जीवन में यह एक पोलिटिकल एण्टिटी तो नहीं बन पायेगा। पर इसे कमजोर करने के लिये जो ताकतें काम कर रही हैं – वे जरूर कमजोर पड़ेंगी।
मुझे भारत के प्राचीन गणतन्त्र (?) होने पर बहुत ज्यादा भरोसा नहीं है। मुझे यह भी नहीं लगता कि वैशाली प्राचीनतम गणतन्त्र था। वह सम्भवत: छोटे राजाओं और सामन्तों का गठजोड़ था मगध की बड़ी ताकत के खिलाफ। लिहाजा मुझे अपरिपक्व लोगों की डेमोक्रेसी से बहुत उम्मीद नहीं है। बेहतर शिक्षा और बेहतर आर्थिक विकास से लोग एम्पावर्ड हो जायें तो बहुत सुन्दर। अन्यथा भरोसा भारत की इनहेरेण्ट स्ट्रेन्थ – धर्म, सद्गुणोंका सम्मान, त्यागी जनों के प्रति अगाध श्रद्धा, जिज्ञासा का आदर आदि पर ज्यादा है।
क्या आपको लगता है कि यूं आसानी से भारत फिस्स हो जायेगा?
Sunday, November 9, 2008
Saturday, November 8, 2008
सनराइज की सेलरी का सदमा
मेरे निरीक्षक श्री सिंह को कल सेलरी नहीं मिली थी। कैशियर के पास एक करोड़ तेरह लाख का कैश पंहुचना था कल की सेलरी बांटने को; पर बैंक से कुछ गूफ-अप (goof-up – बेवकूफियाना कृत्य) हो गया। कुल सत्तर लाख का कैश पंहुचा। लिहाजा सौ डेढ़ सौ लोगों को सेलरी न मिल पाई। पहले तनातनी हुई। फिर जिन्दाबाद-मुर्दाबाद। फॉलोड बाई यूनियन की चौधराहट की गोल्डन अपार्चुनिटी!
सिंह साहेब से यह आख्यान सुन कर मैं सेलरी मिलने में कुछ देरी के कारण उत्पन्न होने वाली प्रचण्ड तड़फ पर अपने विचार बना ही रहा था कि एक प्रॉबेबिलिटी के आधार पर छपास पर पंहुच गया। और सनराइज जी ने क्या दमदार पोस्ट लिखी है – मेरी सेलरी कम कर दो।
एक तारीख को सैलरी नहीं मिलने के कारण मैं सैलरी विभाग में इतनी बार मत्था टेकने जाता हूं कि वहां के अधिकारी भी मुझे पहचानने लगे हैं...कई कर्मचारी तो मेरे दोस्त भी बन गए हैं....कौन कहता है कि समय पर सैलरी नहीं मिलना काफी दुखद होता है ?
...सनराइज जी, छपास पर।
साहेब, यह नियामत है कि (मेरी सेलरी पच्चीस हजार से ज्यादा होने पर भी) मेरे पास क्रेडिट कार्ड नहीं है। किसी अठान-पठान-बैंक से लोन नहीं ले रखा। दाल-चावल के लिये मेरी अम्माजी ने जुगाड़ कर रखा है अगले १००-१२० दिनों के लिये। दिवाली की खरीददारी पत्नी जी निपटा चुकी हैं पिछले महीने। कोई छोटा बच्चा नहीं है जिसका डायपर खरीदना हो। लाख लाख धन्यवाद है वाहे गुरू और बजरंगबली का (वाहे गुरू का सिंह साहब के चक्कर में और बजरंगबली अपने लिये)!
खैर, मेरा यही कहना है कि सनराइज जी ने बड़ा चहुचक लिखा है। आप वह पोस्ट पढ़ें और अपने क्रेडिट-कार्ड को अग्निदेव को समर्पित कर दें। न रहेगा लोन, न बजेगा बाजा!
ॐ अग्नये नमः॥
Thursday, November 6, 2008
ओबामामानिया
ओबामामानिया (Obamamania) शब्द मुझे रीडर्स डाइजेस्ट के नवम्बर अंक ने सुझाया था। इस अंक में लेख में है कि दुनियां भर के देशों में ओबामा को मेक्केन पर वरीयता हासिल है – लोगों की पसन्दगी में।
ओबामा का जो कथन बार बार आया है – वह आउट सोर्सिंग को ले कर है। उनका कहना है - “मैक्केन से उलट , मैं उन कंपनियों को कर में राहत देना बंद कर दूंगा जो ओवरसीज देशों में रोजगार की आउटसोर्सिन्ग करती हैं। मैं यह राहत उन कंपनियों को दूंगा जो अमेरिका में अच्छे रोजगार उत्पन्न करती हैं।”
मुझे नहीं मालुम कि इसका कितना असर भारत छाप देशों पर पड़ेगा। पर यह बढ़िया नहीं लगता। आगे देखें क्या होता है। दो-तीन महीनों में साफ हो जायेगा। वैसे अपना सेन्सेक्स तो आजकल हवा चलते लटकता है। कल भी लटका है। खुलने के बाद सलंग (मालवी शब्द - सतत, एक सीध में) लटका है। पता नहीं ओबामा सेण्टीमेण्ट के चलते है या नहीं? इसको तो जानकार लोग ही बता सकते हैं।
अब पता चलने लगेगा कि दुनियां का ओबामामानिया सही है या नहीं।
और पुछल्ले की तलाश न करें। यह पोस्ट ही पुछल्ला है
Wednesday, November 5, 2008
भविष्य से वर्तमान में सम्पदा हस्तांतरण
थामस एल. फ्रीडमान का न्यूयार्क टाइम्स का ब्लॉग पढ़ना आनन्ददायक अनुभव है। बहुत कुछ नया मिलता है। और वह पढ़ कर मानसिक हलचल बड़ी बढ़िया रेण्डम वाक करती है। बहुत जियें थामस फ्रीडमान। मुझसे दो साल बड़े हैं उम्र में। और समझ में तो सदियों का अन्तर होगा! अपने हाल ही के पोस्ट में उन्होने एक पते की बात कही है। माइकल मण्डेलबाम के हवाले से उन्होने कहा है: “शायद सन १९१७ की रूसी बोल्शेविक क्रान्ति के बाद पहली बार इतना जबरदस्त सम्पदा हस्तांतरण हुआ है, अब! और यह हस्तान्तरण अमीर से गरीब को नहीं, वरन भविष्य की पीढ़ी से वर्तमान पीढ़ी को हुआ है।” आने वाले अर्थव्यवस्था के सुधार के लिये, जो बहुत तनावपूर्ण होने जा रहा है, एक ऐसे राष्ट्रपति की आवश्यकता होगी जो देश को जोश, ऊर्जा और एकजुटता से इकठ्ठा रख कर नेतृत्व प्रदान करे। हमें इस अर्थव्यवस्था के खतरनाक दौर से उबरना है जब "बेबी बूमर्स" रिटायरमेण्ट के कगार पर हैं, और जिन्हें शीघ्र ही सोशल सिक्यूरिटी और अन्तत मैडीकेयर की जरूरत होगी। हम सभी सरकार को अधिक देने और कम पाने वाले हैं - तब तक, जब तक कि इस गड्ढे से उबर नहीं जाते। एक बार ध्यान से सोचें तो यह सच मुंह पर तमाचा मारता प्रतीत होता है। इस समय की भोग लिप्सा के लिये भविष्य पर कर्ज का अम्बार लगा दिया गया। आज के उपभोग के लिये आने वाले कल के जंगल, नदी, तालाब और हवा ऐंठ डाले गये। भविष्य के साथ वर्तमान ने इतनी बड़ी डकैती पहले कभी नहीं की! बड़ा क्राइसियाया (crisis से बना हिन्दी शब्द) समय है। ऐसे में अच्छे नेतृत्व की जरूरत होती है, झाम से उबारने को। और जो लीडरशिप नजर आती है – वह है अपने में अफनाई हुई। कुछ इस तरह की जिसकी अप्राकृतिक आबो हवा से ग्रोथ ही रुक गयी हो। कहां है वह लीडर जी! कहां है वह संकल्प जो भविष्य के लिये सम्पदा क्रीयेट करने को प्रतिबद्ध हो। आइये सोचा जाये!
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Monday, November 3, 2008
नैनो-कार की जगह सस्ते-ट्रैक्टर क्यों नहीं बनते?
मेरे प्रिय ब्लॉगर अशोक पाण्डेय ने एक महत्वपूर्ण बात लिखी है अपनी पिछली पोस्ट पर। वे कहते हैं, कि टाटा की नैनो को ले कर चीत्कार मच रहा है। पर सस्ता ट्रेक्टर बनाने की बात ही नहीं है भूमण्डलीकरण की तुरही की आवाज में। उस पोस्ट पर मेरा विचार कुछ यूं है:
वह बाजारवादी व्यवस्था दिमागी दिवालिया होगी जो ट्रैक्टर का जबरदस्त (?) मार्केट होने पर भी आर-एण्ड-डी प्रयत्न न करे सस्ते ट्रेक्टर बनाने में; और किसानों को सड़ियल जुगाड़ के भरोसे छोड़ दे। सन २००४ में महिन्द्रा ने रु. ९९,००० का अंगद ट्रैक्टर लॉंच किया था। क्या चला नहीं? |
और पुछल्ले में यह मस्त कमेण्ट -
नये ब्लॉगर के लिये क्या ज्ञान दत्त, क्या समीर लाला और क्या फुरसतिया...सब चमेली का तेल हैं, जो नजदीक आ जाये, महक जाये वरना अपने आप में चमकते रहो, महकते रहो..हमें क्या!!!
फुरसतिया और समीर लाल के चमेली का तेल लगाये चित्र चाहियें।
Saturday, November 1, 2008
इण्टेलेक्चुअल्स बड़े “डाइसी” पाठक होते हैं।
ढ़ेरों बुद्धिमान हैं जो दुनियां जहान का पढ़ते हैं। अलावी-मलावी तक के राष्ट्र कवियों से उनका उठना बैठना है। बड़ी अथारिटेटिव बात कर लेते हैं कि फलाने ने इतना अल्लम-गल्लम लिखा, फिर भी उसे फुकर प्राइज मिल गया जब कि उस ढ़िमाके ने तो काल जयी लिखा, फिर भी फुकर कमेटी में इस या उस लॉबी के चलते उसे कुछ न मिल पाया। यह सब चर्चा में सुविधानुसार धर्मनिरपेक्षता/अल्पसंख्यक समर्थन/मानवाधिकार चाशनी जरूर लपेटी जाती है। ऐसे पाठक बहुत विशद चर्चा जेनरेट करते हैं, आपके हल्के से प्रोवोकेशन पर। पर उनका स्नेह दुधारी तलवार की माफिक होता है। कब आपको ही ले गिरे, कहना कठिन है।
बाई-द-वे, सभी इण्टेलेक्चुअल ऐसे नहीं होते। कुछ की वेवलेंथ को आपका एण्टीना पकड़ता भी है। यह जरूर है कि आपकी समझ का सिगनल-टू-न्वॉयज रेशो (signal to noise ratio) कम होता है; कि कई बातें आपके ऊपर से निकल जाती हैं। अब कोई दास केपीटल या प्रस्थान-त्रयी में ही सदैव घुसा रहे, और उसे आलू-टमाटर की चर्चा डी-मीनिंग (de-meaning – घटिया) लगे तो आप चाह कर भी अपनी पोस्टें सुधार नहीं पाते।
असल में, आप जितना अपने में परिवर्तन का प्रयास करते हैं, बुद्धिमानों की आशानुसार; उतना आप वैसा का वैसा ही रह जाते हैं। मन में कोई न कोई विद्रोही है जो मनमौजी बना रहना चाहता है!
खैर, विषय को जरा यू-टर्न दे दिया जाये। सुमन्त मिश्र “कात्यायन” एक बड़े ही बड़े महत्व के पाठक मिले हैं। उनके प्रोफाइल में लिखे उनके इण्टरेस्ट – धर्म/दर्शन/संस्कृति/सभ्यता/सम्प्रदायों का उद्भव… बड़े प्रभावी हैं। समस्या हमारे साथ है, हम यदा-कदा ही उनके मोड में आ कर कुछ लिख सकते हैं। अपनी नियमित मानसिक हलचल तो टमाटर/आलू/टाई/बकरी पर टिक जाती है।
यह अवश्य है कि अपना नित्य लेखन पूर्णत: उथला नहीं हो सकता। क्रौंच पक्षी की टांगें पूरी तरह डूब जायें, इतना गहरा तो होता है। पर उसमें पर्याप्त (?) गहराई होने की भी कोई गारण्टी नहीं दे सकता मैं। लिहाजा ऐसे पाठक केवल तीन कदम साथ चलेंगे, या मैत्री की ट्रॉसंण्डेण्टल (transcendental – उत्तमोत्तम) रिलेशनशिप निभायेंगे; अभी कहना कठिन है।
अजीब है कि ५०० से अधिक पोस्टों के बाद भी आप अपने ब्लॉग और पाठकों की प्रकृति पर ही निश्चयात्मक न हो पायें।
सुमन्त जी का स्वागत है!
चिठ्ठाजगत हर रोज ई-मेल से दर्जन भर नये चिठ्ठों की सूची प्रदान करता है शाम सात बजे। अगर उन्हें आप क्लिक करें और टिप्पणी करने का यत्न करें तो पाते हैं कि लगभग सभी ब्लॉग्स में वर्ड वैरीफिकेशन ऑन होता है। वर्ड-वैरीफिकेशन आपको कोहनिया कर बताता है कि आपकी टिप्पणी की दरकार नहीं है। इस दशा में तो जुझारू टिप्पणीकार (पढ़ें – समीर लाल) ही जोश दिलाऊ टिप्पणी ठेल सकते हैं।
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अमित जी की देखा देखी इंक ब्लॉग ठेलाई, एमएस पेण्ट से: