Friday, December 31, 2010

नैराश्य के हीरो

प्रिण्ट में दो लोगों का वन्दन चल रहा है। विकीलीक्स के श्री असांजे और कंट्रोलर एवम ऑडीटर जनरल श्री विनोद राय। ये हीरो हमें कोई नया पथ नया लक्ष्य नहीं दिखा रहे; केवल आसपास फैली सड़ान्ध और बजबजाहट की परत उघाड़ कर दिखा रहे हैं।

इनमें से कोई आने वाले समय को बदलने का ब्लू-प्रिण्ट नहीं जानता। इनकी जितनी सोचता हूं, उतना मन में नैराश्य उपजता है।

Monday, December 27, 2010

अरविन्द पुन:

DSC02947अरविन्द से मैं सन 2009 के प्रारम्भ में मिला था। गंगा किनारे खेती करते पाया था उसे। तब वह हर बात को पूरा कर वह सम्पुट की तरह बोल रहा था - “और क्या करें, बाबूजी, यही काम है”।

कल वह पुन: दिखा। वहीं। रेत में खेती करता। आसपास मुझ जैसे दो तीन तमाशबीन थे। कोंहड़ा की कतारें बड़ी हो गयी थीं। वह कोंहड़ा के आस पास तीन गढ्ढ़े खोद रहा था - करीब दो हाथ गहराई वाले। उनमें वह गोबर की खाद डालकर कुछ यूरिया डालेगा। कोंहड़े की जड़ इतनी नीचे तक जायेगी। वहां तक उनको पोषक तत्व देगी खाद।

खोदते हुये वह कहता भी जा रहा था - "क्या करें, यही काम है।"

बोल रहा था कि पिछली खेती में नफा नहीं हुआ। उसके पहले की में (जिसकी पहले वाली पोस्ट है) ठीक ठाक कमाई हो गई थी। "अबकी देखें क्या होता है?" 

व्यथित होना अरविन्द के पर्सोना का स्थाई भाव है। कह रहा था कि गंगा बहुत पीछे चली गई हैं; सो खोदना फावड़े से नहीं बन पा रहा। वह यह नहीं कह रहा था कि गंगा इतना पीछे चली गई हैं कि खेती को बहुत जगह मिल गई है!

Saturday, December 25, 2010

होरी, तुम शाश्वत सत्‍य हो!

Photos from Peepli Live_1293189630557‘‘पीपली लाइव‘‘ फिल्‍म देखी । फिल्‍म की विशेषता भारतीय गांव का सजीव व यथार्थ चित्रण है ,जिसमे किसानों की कर्ज में डूबने के बाद आत्‍महत्‍या की बढ़ती प्रवृत्‍ति की पृष्ठ भूमि में कूकरमुत्‍तों की तरह फैले खबरी न्‍यूज चैनलों तथा देश की राजनीति पर करारे व्‍यंग किये गये हैं।

Sunday, December 19, 2010

मोटी-मांऊ

Nattu and Motherनत्तू पांड़े आजकल ननिहाल आये हुये हैं। अब डेढ़ साल के हुये हैं तो कारकुन्नी भी उसी स्तर के हैं। कुछ ज्यादा ही। उनकी नानी मगन भी हैं और परेशान भी रहती हैं। अजब कॉम्बिनेशन है उनकी खुशी और उनकी व्यग्रता का।

नाना; पण्डित ज्ञानदत्त पाण्डेय उन्हे प्रधानमन्त्री बनाना चाहते हैं और वे हैं कि अपनी ठुमुकि चलत वाले फेज़ की गतिविधियां करने में ही व्यस्त हैं। कोई गम्भीरता नहीं दिखा रहे आगे की जिम्मेदारियों के प्रति!

उनको भोजन करना एक प्रॉजेक्ट होता है। एक छोटी सी थाली, जिसमें कटोरी एम्बेडेड है; में उनका खाना निकलता है और उसके साथ होने लगते हैं उनके नखरे – न खाने की मुद्रायें दिखाने वाले। तब घर के सारे लोग उन्हे भोजन कराने में जुट जाते हैं। कोई ताली बजाता है। कोई मुन्नी बदनाम सुनाने लगता है तो कोई जो भी श्लोक याद है, उसका पाठ करने लगता है। यह सिर्फ इस लिये कि नत्तू पांडे का ध्यान बंटे और उनके मुंह में एक कौर और डाल दिया जाये।

Friday, December 17, 2010

सुरेश जोसेफ

SJसुरेश जोसेफ से मैं मिला नही‍। जानता भी नहीं। पर गौरी सक्सेना ने मुझे उनके बारे में बताया।

गौरी मेरी सहकर्मी हैं। वे उत्तर-मध्य रेलवे का सामान्य वाणिज्य प्रबन्धन देखती हैं – वैसे ही जैसे मैं मालगाड़ी प्रबन्धन देखता हूं। परसो‍ उन्होने बताया कि सुरेश जोसेफ उनसे मिलने आ रहे हैं। आयेंगे तो वे मुझे फोन कर मिलवायेंगी। पर जोसेफ के आने पर मैं किसी और काम में व्यस्त था, और मुलाकात न हो सकी।

जोसेफ रेल अधिकारी थे, मेरी तरह के। फिर उन्होने रेलवे छोड़ दी। उसके बाद कोच्ची में एक कण्टेनर टर्मिनल का काम देखा। वह प्रोजेक्ट पूरा होने पर इस साल उन्होने अपनी लड़की की शादी की। अब अपने एक मित्र की एक मारुति स्विफ्ट कार उधार ले कर अकेले भ्रमण पर निकले हैं भारत का। बहुत अच्छी तरह नियोजन कर यात्रा प्रारम्भ की है अक्तूबर’१० के प्रारम्भ में।

Sunday, December 12, 2010

कुछ उभर रही शंकायें

पिछले चार-पांच महीनों में सोच में कुछ शंकायें जन्म ले रही हैं:

    1. लौकी के नीचे दबा सिर अगर मुक्त होती अर्थव्यवस्था सही है, तो छत्तीसगढ़-झारखण्ड-ओडिसा के आदिवासियों की (कम या नगण्य) मुआवजे पर जमीन से बेदखली को सही कहा जा सकता है? माओवादियों या लाइमलाइट तलाशती उन देवियों की तरफदारी को नकारा जाये, तब भी।
    2. मुक्त अर्थव्यवस्था की ओर यत्न करते भारत के डेढ़ दशक से ज्यादा हो गया। आठ-नौ परसेण्ट की ग्रोथ रेट आने लगी है। पर न करप्शन कम हो रहा है न क्राइम। बढ़ता ही नजर आ रहा है। गड़बड़ कहां है?
    3. प्राइवेट सेक्टर प्रॉडक्ट बेचने में बहुत तत्पर रहता है। पर जब सेवायें देने की बात आती है, तो लड़खड़ाने लगता है। चाहे वह प्रॉडक्ट सम्बन्धित सेवायें हों या फिर विशुद्ध सेवायें - सफाई, प्रॉजेट के ठेके, खानपान।
    4. कम्प्यूटरों पर सरकारी दफ्तरों में बेशुमार खर्च है। पर कर्मचारियों की भरमार में काम करने वाले कर्मचारी दीखते ही नहीं। कम्प्यूटर भी मेण्टेन नहीं - न ढंग के एण्टीवाइरस, न स्तरीय प्रोग्राम।

Saturday, December 11, 2010

ओह, गिरिजेश, यही है!

ब्लॉग पर एक सशक्त ट्रेवलॉग - जिसमें सपाटबयानी नहीं संतृप्तबयानी हो, उसका प्रतिमान मिला गिरिजेश राव के कल दिये उनके ब्लॉग के लिंक में:

भाँग, भैया, भाटिन, भाभियाँ, गाजर घास ... तीन जोड़ी लबालब आँखें

आठवाँ भाग मैने पढ़ा इण्टरनेट पर। उसके बाद बाकी सात भाग वर्ड डाक्यूमेण्ट में कॉपी किये। उनका प्रिण्टआउट लिया। और फिर इत्मीनान से पढ़ा।

कौन मुगलिया बादशाह (?) था, जिसने कश्मीर के बारे में कहा था:

‘‘गर फिरदौस बर रुए जमीं अस्त।
हमीनस्तो, हमीनस्तो हमीनस्त’’

Friday, December 10, 2010

ट्रेवलॉग पर फिर

DSC02726मालुम है, लोग सक्षम हैं ट्रेवलॉग आर्धारित हिन्दी में ब्लॉगों के दसियों लिंक ठेल देने में। पर फिर भी विषयनिष्ठ ब्लॉगों की बात करूंगा तो ट्रेवलॉग आर्धारित ब्लॉग उसमें एक जरूर से तत्व होंगे।

बहुत कम यात्रा करता हूं मैं। फिलहाल डाक्टरी सलाह भी है कि न यात्रा करूं रेल की पटरी के इर्द-गिर्द। संकल्प लेने के बावजूद यहां से तीस किलोमीटर दूर करछना भी न जा पाया हूं। फिर भी साध है यात्रा करने और ट्रेवलॉग लिखने की।

ट्रेवलॉग मुझे वह इण्टेलेक्चुअल संतुष्टि देगा, जो आज तक न मिल सकी। और, शर्तिया, साहित्यकार मर्मज्ञ जी, जो कहते हैं कि मैं निरर्थक लिखता हूं, को भी कुछ काम की चीज मिल सकेगी - उनकी कविता के पासंग में/आस पास!

Sunday, December 5, 2010

कैसा था वह मन - आप पढ़ कर देखें!

एक किताब, उपन्यास, वह भी एक नारी का लिखा। पढ़ते समय बहुत से प्रश्न मन में आते हैं - कैसे लिखती हैं उपन्यास वे। कितना वास्तविकता होती है, कितना मिथक। कितनी कोमलता, कितनी सेंसिटिविटी, कितना जबरी की नारीवादिता और कितना अभिजात्य युक्त छद्म। चाहे शिवानी हो, चाहे महाश्वेता देवी। चाहे अरुन्धति रॉय हों। पढ़ते समय इन सब बिन्दुओं पर लेखन को तोलता रहता है मन। और बहुधा अधपढ़ी रह जाती है पुस्तक। 

पर यह उपन्यास - कैसा था वह मन - तो लगभग निरंतर पढ़ गया मैं।

एक छोटे शहर की लड़की, एक मध्यवित्त परिवार के लड़के से व्याही जाती है। लड़का बन गया है अफसर। शायद रेल का। और वह अब उस अफसर के साथ जगह जगह रहती है। बड़े बंगले, उनमें अकेला पन और उनमें नर्सरी राइम्स और बाल कथायें बुनती यह महिला। कुछ अलग सी है यह महिला।

सामान्यत: मैने अफसरों की बीवियों को देखा है। क्लब और महिला समिति में अपने आप को प्रोजेक्ट करने की उधेड़बुन में लिप्त। एक दूसरे की बुराई और अपने को सभ्य बताने की होड़ में जिन्दगी गंवाने वाली औरते। तीज त्यौहार में देशज समझ से अनजान एक अजीब सा अफसरापन दिखाती औरतें। बेकार सी औरतें।

Thursday, December 2, 2010

ट्वीट्स से विशेषज्ञता

डैम! लीक्स और टेप्स के जमाने में इंस्टेण्ट कमेण्ट्स और इंस्टेण्ट विशेषज्ञता का विस्तार हो रहा है। एनडीटीवी का दस बजे का कार्यक्रम देख #बरखागेट पर ट्विटर कमेण्ट्स की भरमार हो गयी है। वाल स्ट्रीट जर्नल का इण्डिया रीयलटाइम का ब्लॉग-छत्ता फटाफट पोस्ट/कमेण्ट/पोल्स दिये जा रहा है।