अरविन्द से मैं सन 2009 के प्रारम्भ में मिला था। गंगा किनारे खेती करते पाया था उसे। तब वह हर बात को पूरा कर वह सम्पुट की तरह बोल रहा था - “और क्या करें, बाबूजी, यही काम है”।
कल वह पुन: दिखा। वहीं। रेत में खेती करता। आसपास मुझ जैसे दो तीन तमाशबीन थे। कोंहड़ा की कतारें बड़ी हो गयी थीं। वह कोंहड़ा के आस पास तीन गढ्ढ़े खोद रहा था - करीब दो हाथ गहराई वाले। उनमें वह गोबर की खाद डालकर कुछ यूरिया डालेगा। कोंहड़े की जड़ इतनी नीचे तक जायेगी। वहां तक उनको पोषक तत्व देगी खाद।
खोदते हुये वह कहता भी जा रहा था - "क्या करें, यही काम है।"
बोल रहा था कि पिछली खेती में नफा नहीं हुआ। उसके पहले की में (जिसकी पहले वाली पोस्ट है) ठीक ठाक कमाई हो गई थी। "अबकी देखें क्या होता है?"
व्यथित होना अरविन्द के पर्सोना का स्थाई भाव है। कह रहा था कि गंगा बहुत पीछे चली गई हैं; सो खोदना फावड़े से नहीं बन पा रहा। वह यह नहीं कह रहा था कि गंगा इतना पीछे चली गई हैं कि खेती को बहुत जगह मिल गई है!
"जिससे खोद रहे हो, वह क्या है?"
"रम्बा कहते हैं।" इस उपकरण को तीन-चार बार रेत में ठोंक कर बाहर रेत निकालता था। "हम लोग फावड़े से ही काम करते हैं। रम्बा से काम करना अटपटा है।"
बढ़िया लगा उपकरण मुझे। उसका वीडियो आप देखें।
अरविन्द का कहना है कि एक कुम्हड़े के पौधे से पच्चीस-तीस फल मिलेंगे। उसके लिये तीन गढ्ढ़े खोदना; फिर खाद/यूरिया डालना और तब सिंचाई/रखवाली! मेहनत की रिटर्न कैसी है? मेरे ख्याल से बहुत कम। उसपर अगर रेट कम रहे तो जय राम जी की! शायद और विकल्प होता तो अरविन्द यह काम नहीं करता। पर मैं गलत भी हो सकता हूं - कई बार होता रहा हूं।
अरविंद को इस साल नफा हो, नुकसान न हो.
ReplyDeletethis type of instrument...named as rambaa is also popular in bihar ....
ReplyDeleteabout 8 to 80 ft depth can easily be achieved ...//
happy new year ..
plz visit my blog too .. sir//
किसान ही एक ऎसा व्यक्ति है जिसमे धैर्य कूट कूट कर भरा है . वह कोई बहीखाता नही रखता . एक एक रुपय करके सौ रुपय लागत मे लगाता है और वही १०० रुपय उसे फ़सल पर इक्ट्ठे मिल जाते है .उसी से वह संतुष्ट रहता है .और उस लागत में उसकी मेहनत शामिल नही होती .
ReplyDeleteअगर ईश्वर ने किसान को धैर्य ना दिया होता तो किसान कब का खेती करना छोड देता . कलपना करे अगर खेत खाली रहे तो क्या होगा ?
वस्तुओं का उत्पादन ऐसे ही होता है। हम उन का उपयोग करते समय यह नहीं जानते हैं कि वास्तव में उन में कितना श्रम लगता है? किसान का जीवन ऐसा ही रहा है।
ReplyDeleteनफा-नुकसान की बात और है लेकिन बहुत स्वास्थ्यवर्धक सब्जी की खेती कर रहे हैं-यह काफी महत्वपूर्ण है.
ReplyDeleteअरविन्द -नाम एक और संजोग कि चिंतन भी एक समान !
ReplyDeleteजब व्यथित होना स्थायी भाव बना ही लिया है तो वर्तमान से उचट जाने का भाव तो दिखाना ही होगा।
ReplyDeleteयह अनछुआ पहलू है ब्लॉग जगत के लिए ....शुभकामनायें भाई जी !
ReplyDelete@ अरविन्द मिश्र - ओह, अगर आप अरविन्द घोष की बात कर रहे हैं; तो श्री अरविंदो जैसा आशावाद और परिस्थितियों से निपटने और उनसे पार जाने की सोच तो कोई और शायद ही दे पाये!
ReplyDeleteशायद इन्हीं सब दुश्वारीयों को देखते हुए खेती को कच्चा सौदा कहा जाता है। पूरी सम्पत्ति खुले आसमान के नीचे रहती है। कब जाड़ा पाला मार जाय, कब बाढ़ आदि से नुकसान हो जाय कुछ कहा नहीं जा सकता।
ReplyDeleteअरविन्द के रम्बा से परिचय रोचक लगा।
शायद सभी किसानों में यह बात सार्वभौमिक होती है.. व्यथित रहने की.. 'इस साल पानी ठीक नहीं पड़ा', खाद मंहगा हो गया, पाला पड़ गया तो गडबड हो जायेगा.... मैं किसी किसान से नहीं मिला आज तक जिसने कहा हो कि अभी तो सब कुछ बढ़िया है.. :)
ReplyDeleteशायद चिंताएं उनके जीवन का इतना अभिन्न अंग होती हैं कि उनके बिना उन्हें कुछ अधूरा सा लगता है.. इसलिए कोइ न कोइ चिंता पाले रखते हैं.. अरविन्द जी खूब कोंहड़ा उपजाएँ और समृद्ध बनें.....
सत्यार्थी जी की बातों ने तो सोचने पर मजबूर कर दिया है। यह सच है कि कोई किसान अपनी उपज के प्रति उत्साहित ढंग से नहीं बताता याकि कहे कि सब बढ़िया है।
ReplyDeleteशायद इसके पीछे वह मानसिकता काम करती है कि जिसमें माना जाता है कि नज़र न लगे कहीं। यहां तक कि बच्चों के चेहरे आदि पर ढिठौना लगाया जाता काजल का ताकि उसे किसी की नजर न लगे।
और वैसे भी बड़े किसानों की बात छोड़ दें तब भी छोटे किसान तो अक्सर ढेर सारी दिक्कतें झेलते रहते हैं।
उनके लिये ही तो प्रेमचंद जी ने लिखा था कि भारतीय किसान अभावों में जन्म लेता है, अभावों में जीता है और अभावों में ही मर जाता है।
अरविन्द मुझे मिले तो उससे पूछूं, ‘प्याज क्यों नहीं बोते, कम-से-कम ट्राई तो कर ही सकते हो! हो सकता है प्याज लगाने से गंगा फिर वहीं आ जाए जहां पहले थी!!’
ReplyDelete@ सतीश चन्द्र सत्यार्थी और सतीश पंचम - अभाव और हाय-हायता अलग अलग चीजें हैं। आप इस पोस्ट के चरित्र करनराम को देखें। उनका चरित्र यूं है-
ReplyDelete"करनराम जी के पास खाने को कुछ हुआ तो ठीक वरना पटसन के फूलों की तरकारी बना कर भी काम चलाते थे। सदा मस्त रहने वाले जीव। किसी भी मेले में उनकी उपस्थिति अनिवार्य बनती थी। चाहे बलिया का ददरी मेला हो या गड़वार के जंगली बाबा के मन्दिर पर लगने वाला मेला हो। बड़े अच्छे गायक थे और ढ़ोल बजाते थे। अभाव में भी रस लेने का इंतजाम उनकी प्रकृति का अंग बना हुआ था। उन्हे अवसाद तो कभी हुआ न होगा। भले ही भूखे पेट रहे हों दिनो दिन।"
आपका कार्य प्रशंसनीय है, साधुवाद !
ReplyDeleteहमारे ब्लॉग पर आजकल दिया जा रहा है
बिन पेंदी का लोटा सम्मान ....आईयेगा जरूर
पता है -
http://mangalaayatan.blogspot.com/2010/12/blog-post_26.html
इन चिंताओं को हाय-हायता तो कभी नहीं कहूँगा.. हाँ, ये हाय-हायता वाला तत्व बड़े किसानों में जरुर होता है.. वो इस डर से अभाव गिनवाते रहते हैं कि कहीं सामने वाला कर्जा-उधार न मांग ले.. छोटे किसानों वाले केस में, जैसा पंचम जी ने कहा, नजर लगने के डर वाली बात ज्यादा नज़र आती है...
ReplyDeleteऔर ये करनराम वाला चरित्र तो हर किसान में थोडा बहुत होता है.. कितना भी रो-कलप ले फिर अंत में एक चिलम गांजा पीके बोलेगा 'सब भले शंकर ठीक करेंगे'.. हमारी तरह गूगल पर 'How to deal with stress' सर्च नहीं करने लगेगा.. :)
ज्ञान जी,
ReplyDeleteकरनराम के जीवनवृत्त से परिचय कराने के लिये धन्यवाद।
वैसे सत्यार्थी जी की बात में दम है कि हाय-हायता वाला तत्व बड़े किसानों में जरुर होता है.. वो इस डर से अभाव गिनवाते रहते हैं कि कहीं सामने वाला कर्जा-उधार न मांग ले......
वैसे दिल्ली में जब किसान रैली हुई थी बड़े दामों के कारण तो सुना है कि वहां बड़े किसान बोलेरो और तमाम महंगी गाड़ियों से मय बीयर-स्काच के आये थे और सब्सिडी की दुहाई दे रहे थे।
इतना श्रम करने के बाद भी संदेह
ReplyDeleteनफा या नुक्सान
प्रणाम
उसपर अगर रेट कम रहे तो जय राम जी की!
ReplyDelete@यही किसान की सबसे बड़ी व्यथा है | फसल के उत्पादन तक मेहनत करें किसान और उसकी फसल की कीमत तय करे बाजार के बिचोलिये |
इस दुनियां में सिर्फ किसान ही एसा है जिसके उत्पादन की कीमत कोई और तय करता है जबकि कोई भी दूसरा उत्पादक अपने उत्पाद की कीमत खुद तय करता है |
अरविंद की मेहनत देख कर कितने सवाल उपजे मन में क्या उसकी फसल तै.ार होने पर कोई चुरा तो नही लेगा ऱखवाली कैसे करता होगा । रम्बा एक न.ा औजार पता चला । शायद गहरे खोद नेश अरविंद यह ब्लॉग पढ पाता तो उसे अच्छा लगता है कि उसके लि.े इतने सारे चिंतित हैं । ईश्वर से प्रार्तना करऊंगी कि उसे इस साल दुगना मुनाफा हो । प्याज वाले तो लूट ही रहे हैं ।
ReplyDeleteअरविन्द का खेत, पकल्ले बे नरियर, जोनाथन बकरी, गुल्ले टेम्पो कंडक्टर जैसे कुछ पोस्ट हैं जो हमेशा याद रहे. क्यों? पता नहीं.
ReplyDeleteअरविन्द से पुनः मिलना अच्छा लगा.
एक गरीब की जिन्दगी से आप ने हम सब का परिचाय करवाया, काश इस बार सब की खेती बहुत अच्छी हो इस की खेती भी खुब अच्छी हो, आप का धन्यवाद
ReplyDeleteअरविंद कमाए और खूब कमाए, यही दुआ कर सकता हूं।
ReplyDeleteसतीश पंचम जी का पहला कथन सही लगता है।
खैर, इस सबसे इतर अगर देखूं तो आपके ब्लॉग का एक और नाम रखने का मन होता है वो है " सामुदायिक रिपोर्टर"
आप न केवल आसपास की जन से जुड़ी खबरें लाते हैं बल्कि तस्वीर और उन तस्वीरों से बनाई हुई स्लाईड शो भी।
पत्रकारिता के आधार पर बस कमी होती है कि किसी सरकारी अफसर या सो कॉल्ड समाजसेवी के वर्सन की।
लेकिन मुद्दे आपके एकदम सटीक होते हैं, हमेशा ही।
जारी रहे आपका यह क्रम/उपक्रम, क्योंकि यह दर्शाता है कि एक अफसर भी कितना जमीनी स्तर पर सोच रखता है।
देश के 40 प्रतिशत किसान खेती छोडने की बात यूँही नहीं करते।
ReplyDeleteअरविन्द जैसी बातें ..शायद भारत के ज्यादातर किसान करते हैं....मेहनत और बहाए पसीने को ना भी जोड़ें तो लागत के पैसे भी नहीं निकलते.
ReplyDeleteयहाँ किसी ने टिप्पणी में कहा "मैं किसी किसान से नहीं मिला आज तक जिसने कहा हो कि अभी तो सब कुछ बढ़िया है.. :) "
क्या पंजाब के किसान भी ऐसा नहीं कहते??...मुझे ज्यादा पता नहीं....पर लगता है,शायद कहते हों...क्यूंकि एक बार मेरे पिताजी चंडीगढ़ के पास किसी गाँव में टूर पर गए थे और वहाँ की गेहूँ की लहलहाती फसलों...किसानो की सुख समृधि और संतुष्टि का जिक्र किया था...
उनकी तर्ज पर ही हर जगह ऐसी कोशिश क्यूँ नहीं की जाती?वैसे सच ये भी है कि वहाँ की जमीन उपजाऊ है और सारे आधुनिक संसाधन मुहैया है..खेती के
उधर किसान को उसकी फसल का वाजिब दाम नहीं मिलता इधेर आम जनता मंहगा फल और अन्न खरीदने को मजबूर है.. बीच का धन जाता किसकी जेब मैं है..?
ReplyDelete.
सामाजिक सरोकार से जुड़ के सार्थक ब्लोगिंग किसे कहते
नहीं निरपेक्ष हम जात से पात से भात से फिर क्यों निरपेक्ष हम धर्मं से..अरुण चन्द्र रॉय
भला हो कि आपका अरविंद गंगा के किनारे रहता है। शुक्र है कि वह महाराष्ट्र या आंध्र प्रदेश में नहीं है, वर्ना आत्महत्या करने के बारे में सोचता।
ReplyDeleteपूरे देश में यही हाल है। खेती और खेती करने वालों को सिलसिलेवार ढंग से अपंग बनाया जा रहा है। उनके उत्पादों का उचित मूल्य नहीं मिल रहा है। पेट पालना मुश्किल है।
विकसित कहे जाने वाले राज्यों में भी किसानों को उनके उत्पाद का उचित मूल्य नहीं, बल्कि बैंकों से कर्ज दिलाया गया। जब उत्पादों का मूल्य ही नहीं तो बेचारा किसान कहां से चुकाए कर्ज? २--३-४ साल तक तो लगा कि महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, पंजाब, हरियाणा का किसान सुखी है, अब उससे कर्ज वापस मांगा जा रहा है तो वह आत्महत्या करने को मजबूर है। शुक्र है कि उप्र-बिहार के किसानों को अभी कर्ज नहीं मिला है- आत्महत्या करने भर को।
इसके बाद सरकार कहने वाली है कि गांव के मूर्ख लोग ढंग से खेती नहीं कर पा रहे हैं, जिससे उत्पादन घटा है और देश में भुखमरी फैल सकती है। अब देश के टाटा, बिड़ला और रिलायंस जैसे सेठों को कृषि क्षेत्र में व्यापक निवेश करना चाहिए, तभी लोगों को भुखमरी से बचाया जा सकता है।
हम भले अनाज सब्जी आसमान छूते दाम पर खरीदते हों,लेकिन किसान के हिस्से जो आता है,उसकी यदि समीक्षा की जाय तो हिम्मत न पड़ेगी किसानी को जीविका बनाने की..
ReplyDeleteaadarniy sir
ReplyDeleteaapne fir ek bar sahsktlekh prastut kiya hai.aapki yah baat ekdam sahi lagi ki ek kisaan ko uske dwara utpadit chijo kikimat tay karna uske haath me nahi .
vastav me sahi mayne me jo hame jivan dene ke liye apna khoon paseena bahata hai uske liye is drishti se kabhi nahi socha gaya aur nahi aage bhi aisa hone ka laxhan dikhta hai.
bhaut hi badhiya aur vicharniy lekh.
dhanyvaad sahit
poonam
...और का करे बाबूजी.. टिप्पणी ही एक काम है :)
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