पिछले चार-पांच महीनों में सोच में कुछ शंकायें जन्म ले रही हैं:
- अगर मुक्त होती अर्थव्यवस्था सही है, तो छत्तीसगढ़-झारखण्ड-ओडिसा के आदिवासियों की (कम या नगण्य) मुआवजे पर जमीन से बेदखली को सही कहा जा सकता है? माओवादियों या लाइमलाइट तलाशती उन देवियों की तरफदारी को नकारा जाये, तब भी।
- मुक्त अर्थव्यवस्था की ओर यत्न करते भारत के डेढ़ दशक से ज्यादा हो गया। आठ-नौ परसेण्ट की ग्रोथ रेट आने लगी है। पर न करप्शन कम हो रहा है न क्राइम। बढ़ता ही नजर आ रहा है। गड़बड़ कहां है?
- प्राइवेट सेक्टर प्रॉडक्ट बेचने में बहुत तत्पर रहता है। पर जब सेवायें देने की बात आती है, तो लड़खड़ाने लगता है। चाहे वह प्रॉडक्ट सम्बन्धित सेवायें हों या फिर विशुद्ध सेवायें - सफाई, प्रॉजेट के ठेके, खानपान।
- कम्प्यूटरों पर सरकारी दफ्तरों में बेशुमार खर्च है। पर कर्मचारियों की भरमार में काम करने वाले कर्मचारी दीखते ही नहीं। कम्प्यूटर भी मेण्टेन नहीं - न ढंग के एण्टीवाइरस, न स्तरीय प्रोग्राम।
प्रजातंत्र जनता के लिये अच्छा है - जी सरकार! सोशल वेलफेयर स्कीमें जनता के फायदे के लिये हैं - बहुत सही साहेब! लिबरलाइजेशन से नौकरियां बनेंगी, समृद्धि बढ़ेगी - यस सर, यस सर! --- भय लगता है कि कोई बुद्धिमान यह भी न कहे कि कुछ रिश्वत, कुछ भ्रष्टाचार बहुत जरूरी है 12% ग्रोथ रेट पाने के लिये; और हम गधेड़े की तरह मुण्डी हिलायेंगे - वाजिब माई बाप, आपका सिर दुख रहा होगा मेरा इतना भला सोच कर, नवरतन तेल लगा कर चम्पी कर दूं क्या!
कभी कोई एक चीज सही बताता है, कभी कोई दूसरी। जितना प्रगति हो रही है, उतना वहीं हैं हम। नदी-जंगल-हवा-पानी सब मरे जा रहे हैं हमें जिन्दा रखने की कवायद में।
इण्टेलेक्चुअल जगलरी; माई फुट!
ग्रोथ रेट ..... यह आकडेबाज़ी ही गर्त मे ले जायेगी हमे .
ReplyDeleteऔर बच्चे स्कूलो में जाते है पहला सवाल यह होता है मास्टर जी आज का बनेगो ......मनपंसद हुआ तो रुक गये वर्ना छुट्टी .
माई फुट कह कर भी गुजारा नही है। इन पर सवाल तो उठने ही चाहिये। जब हम मे नैतिकता ही खो रही है तो सब कुछ ऐसे ही चलेगा। शुभकामनायें।
ReplyDeleteजब तक इस विचार-मंथन से कोई सार्थक परिणाम ना निकले, तब तक ये इंटेलेक्चुअल जगलरी ही है और सभी को मालूम है कि इस विकल्पहीनता की स्थिति में परिणाम कुछ निकलना नहीं.
ReplyDeleteना हमारे पास लोकतंत्र का कोई विकल्प है और ना उदारवादी पूँजीवादी व्यवस्था का. है कि नहीं?
आप आजकल कुछ अग्रेसिव होते जा रहे हो भाई जी ! हार्दिक शुभकामनायें !!
ReplyDeleteराम भरोसे सब चल रहा हे भारत मे....
ReplyDeleteरैदास मेरे फेवरिट हैं। चुपचाप अपनी कठौती के बगल में उम्दा जूते सिलते रैदास। काम 100% टंच और कोई बेईमानी नहीं। यहाँ भूतनाथ मार्केट में सड़क किनारे एक उसी तरह के मोचीराम हैं। उन्हीं से प्रेरणा ली है। ...
ReplyDelete8-9 घंटे ऑफिस में जम कर काम। दूसरों को भी मदद। कुछ नया सोचना और कर जाना। घर पर पढ़ना, बच्चों/पत्नी के साथ हाहाहीही। अगल बगल पर नज़र रखना। समस्याओं पर लोगों को जुटाना। ब्लॉग पर अभिव्यक्त होना। सम्प्रेषण की कोशिश करना। बस। सोचता हूँ कि सभी ऐसे ही करें बिना क्रांति कर देने की ग़फलत पाले तो संसार कितना सुन्दर हो जाय! ...तुम्हारे सोचे से क्या होता है बबुआ! दुनिया इतनी सीधी नहीं... फिर सोच में पड़ जाता हूँ।
आज भले ही मेरी मर्ज़ी का न हो पर... कभी-कभी सोचता हूं कि कल जो बीत गया, आज से वाक़ई बेहतर था कि हमें वहीं ठहर जाना चाहिये था (?)
ReplyDelete`सोशल वेलफेयर स्कीमें जनता के फायदे के लिये हैं'
ReplyDeleteसही है साहब! सिर्फ़ जनता का डेफिनेशन करना टेडी खीर है। जो खीर खा रहा है वो जनता है... बाकी सब तो टेडा है ही :)
भारत में सबकुछ लिबरलाइज हो सकता है लेकिन मक्कारी और दोयम दर्जे पर वाह-वाही करने वालों की गिरोहबंदी खत्म नहीं हो सकती।
ReplyDeleteसरकारी तंत्र में जो कर्मचारी काम करने वाले/लायक हैं उन्हें बेवकूफ़ और बौराया हुआ कहकर उपहास का पात्र बना दिया जाता है। जो नाकारें हैं उनकी मौज है। कहावत है कि जो काम करेगा वही फ़ँसेगा। मोटिवेशन काम न करने के पक्ष में है।
आरक्षण से जो कर्मचारी आये हैं उनको प्राप्त सुरक्षा अनारक्षित वर्ग के भीतर एक खास किस्म की लापरवाही भर देती है। काम करने का ठेका क्या हमने ही ले रखा है क्या?
अर्थव्यवस्था मुक्त हो गयी है, सत्य है। अब सरकार के अलावा और भी नरभक्षक आ गये हैं। सब मुक्त हो गया। क्या, नियन्ताओं ने दिशा के बारे सोचा था। सोचा हो तो सोचा हो, कहा तो नहीं था।
ReplyDeleteवर्तमान आर्थिक नीतियॉं पूरी तरह से पूँजीवादी हैं जो अमीर को अधिक अमीर और गरीब को अधिक गरी बनाती हैं। देश में अरबपतियों की संख्या बढती जागी लेकिन गरीब और गरीबी कम नहीं होगी।
ReplyDeleteये नीतियॉं समाज विरोधी ही नहीं, मनुष्य और मनुष्यता विरोधी भी हैं। ये हमारी सम्वेदनाओं को भोथरी कर रही हैं, हमें स्वार्थी, आत्म केन्द्रित बना रही हैं और 'वसुधैव कुम्टुबकम्' सूत्र की आत्मा को मार रही हैं।
किसी भी लोक कल्याणकारी राज्य की नीतियॉं, बहुसंख्य नागरिकों को ध्यान में रखकर बनाई जानी चाहिए। इस लिहाज से हमारी सारी नीतियों का केन्द्र 'किसान और खेती' होनी चाहिए किन्तु यही क्षेत्र हाशिये पर धकेल दिया गया है। जिस 'क्षेत्र' की सर्वाधिक चिन्ता की जानी चाहिए उसी 'क्षेत्र' के लोग, सर्वाधिक संख्या में आत्महत्याऍं कर रहे हैं।
इसके बाद कुछ भी कहने-सुनने को बाकी नहीं रहता।
आपका दर्द जायज है। आखिर इस दर्द की दवा क्या है? जिस पूंजीवादी व्यवस्था पर हम चल रहे हैं, कम से कम उसमें तो दर्द की दवा नजर नहीं आती। इसका तो आधार ही भ्रष्टाचार है।
ReplyDeleteयदि किसी तरह भ्रष्टाचार को नियंत्रित किया जा सके तो हम उबर सकते हैं भले हमें लोकतंत्र से भी विमुख होना पड़े.
ReplyDelete''नदी-जंगल-हवा-पानी सब मरे जा रहे हैं हमें जिन्दा रखने की कवायद में।'' बिना मिर्च-मसाला के सीधी-सच्ची बात.
ReplyDeleteहम तो तो यही सोच के घबराए जा रहे कि स्कूल का ताला काहे नहीं खुला ?.....किसी ने अब तक यह अपनी टीप में ना पूछा !
ReplyDelete@ज्ञान जी !
ई प्राइमरी स्कूल की फोटू आपने कब और कित्ते बजे कैद की ? कोई खास वजह नहीं ....बस ऐसे ही !
वैसे हम तो आलस्य-देव की तरह के मनई बनने की कोशिश में हैं |बाकी तो ............ माई फुट !
@ प्रवीण त्रिवेदी > ई प्राइमरी स्कूल की फोटू आपने कब और कित्ते बजे कैद की ?
ReplyDeleteकल शाम को। स्कूल बन्द हो चुका था।
मेन्यू पढ़ कर मेरा लड़का बोला कि वह स्कूल में होता तो केवल बुधवार को स्कूल जाता, जब मीठी खीर का टर्न है! :)
केवल भ्रष्टाचार ने इस देश की ....... कर रखी है... लेकिन सब इसी में लगे हैं देश में भागीदार हैं, इसलिये अपना हिस्सा ले जा रहे हैं और सब शामिल हैं जिसको जहां और जिस हैसियत में मिल रहा है लूट रहा है... जिसके हाथ में कुछ नहीं (या फिर एक्सेप्शन) वही लुट रहे हैं>. कुछ नहीं होगा यूं ही चलेगा..
ReplyDeleterespected sir sadar pranam ....school band hai par ye mein dave ke sath keh sakta hoon ki hajiri sare bachon aur massab ki jaroor lagi hogi ......sab bhagwan bharose ....
ReplyDeleteसर जी,
ReplyDeleteआचार संहिता से बंधा हूं। खुल कर कुछ कह नहीं सकता। (आप कहलवा कर ही छोड़ेंगे क्या? किसी दिन पिटवाएंगे आप!)
खुद नहीं कह सकता पर कुछ कवियों की कविताएं तो सुना सकता हूं। सुनेंगे आप?
गहन मृतात्माएं इसी नगर की
हर रात जुलूस में चलतीं,
परन्तु दिन में
बैठती हैं मिलकर, करती हुई षडयंत्र
विभिन्न दफ़्तरों-कार्यालयों, केन्द्रों, घरों में।
....
....
हाय-हाय! मैंने उन्हें देख लिया नंगा
इसकी मुझे सजा मिलेगी। (मुक्तिबोध)
***
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं
‘यह तीसरा आदमी कौन है?’
मेरे देश की संसद मौन है।
धूमिल)
आपने इतने जोर से पैर पटका कि मेरे सर पर रखा कद्दू गिर गया!
ReplyDeleteइण्टेलेक्चुअल जगलरी करने वाला था की गिरिजेश के कमेन्ट पर नज़र पड़ गयी! मेरे मुंह की बात छीन भी ली और उसे बड़ा भी कर दिया!
सात साल से ऑफिस में सुनता आ रहा हूँ ' सिस्टम से मत लड़ो '. वाकई सिस्टम बड़ा ताक़तवर है.
इण्टेलेक्चुअल जगलरी; माई फुट!
ReplyDeleteसप्ताह भर में लौटा हूँ। आते ही यह पोस्ट पढ़ी। उक्त वाक्य बिलकुल सही है। करना है तो जनता के बीच जा कर काम करें। वहीं सही रास्ता मिलेगा।
इण्टेलेक्चुअल जगलरी
ReplyDeleteमुक्त खाली अर्थव्यवस्था हुई होती तो ग्रोथ भरसक हो जाता पर समस्या है कि यहाँ सरकार और पूरा तंत्र ही नैतिकता से मुक्त हो गया है...
ReplyDeleteमाय फूट कहें या योर फूट......... पर समस्याएं सामने कड़ी मुंह चिडा रही हैं..........
ReplyDeleteकुछ कीजिए साहेब, कुछ कीजिए...........
इससे पहले कि सभी किसान आदिवासी खेतिहर मजदूर को गिरमिटया बन कर आस्ट्रेलिया या अमेरिका भेज दिया ... और यहाँ सिर्फ अँगरेज़ (सफ़ेद कॉलर) वाले ही रह जाएँ....... उस से पहले कुछ कीजिए साहेब
माय फूट कहें या योर फूट......... पर समस्याएं सामने कड़ी मुंह चिडा रही हैं..........
ReplyDeleteकुछ कीजिए साहेब, कुछ कीजिए...........
इससे पहले कि सभी किसान आदिवासी खेतिहर मजदूर को गिरमिटया बन कर आस्ट्रेलिया या अमेरिका भेज दिया ... और यहाँ सिर्फ अँगरेज़ (सफ़ेद कॉलर) वाले ही रह जाएँ....... उस से पहले कुछ कीजिए साहेब
आपने इतने जोर से पैर पटका कि मेरे सर पर रखा कद्दू गिर गया!
ReplyDeleteइण्टेलेक्चुअल जगलरी करने वाला था की गिरिजेश के कमेन्ट पर नज़र पड़ गयी! मेरे मुंह की बात छीन भी ली और उसे बड़ा भी कर दिया!
सात साल से ऑफिस में सुनता आ रहा हूँ ' सिस्टम से मत लड़ो '. वाकई सिस्टम बड़ा ताक़तवर है.
respected sir sadar pranam ....school band hai par ye mein dave ke sath keh sakta hoon ki hajiri sare bachon aur massab ki jaroor lagi hogi ......sab bhagwan bharose ....
ReplyDeleteहम तो तो यही सोच के घबराए जा रहे कि स्कूल का ताला काहे नहीं खुला ?.....किसी ने अब तक यह अपनी टीप में ना पूछा !
ReplyDelete@ज्ञान जी !
ई प्राइमरी स्कूल की फोटू आपने कब और कित्ते बजे कैद की ? कोई खास वजह नहीं ....बस ऐसे ही !
वैसे हम तो आलस्य-देव की तरह के मनई बनने की कोशिश में हैं |बाकी तो ............ माई फुट !
वर्तमान आर्थिक नीतियॉं पूरी तरह से पूँजीवादी हैं जो अमीर को अधिक अमीर और गरीब को अधिक गरी बनाती हैं। देश में अरबपतियों की संख्या बढती जागी लेकिन गरीब और गरीबी कम नहीं होगी।
ReplyDeleteये नीतियॉं समाज विरोधी ही नहीं, मनुष्य और मनुष्यता विरोधी भी हैं। ये हमारी सम्वेदनाओं को भोथरी कर रही हैं, हमें स्वार्थी, आत्म केन्द्रित बना रही हैं और 'वसुधैव कुम्टुबकम्' सूत्र की आत्मा को मार रही हैं।
किसी भी लोक कल्याणकारी राज्य की नीतियॉं, बहुसंख्य नागरिकों को ध्यान में रखकर बनाई जानी चाहिए। इस लिहाज से हमारी सारी नीतियों का केन्द्र 'किसान और खेती' होनी चाहिए किन्तु यही क्षेत्र हाशिये पर धकेल दिया गया है। जिस 'क्षेत्र' की सर्वाधिक चिन्ता की जानी चाहिए उसी 'क्षेत्र' के लोग, सर्वाधिक संख्या में आत्महत्याऍं कर रहे हैं।
इसके बाद कुछ भी कहने-सुनने को बाकी नहीं रहता।
भारत में सबकुछ लिबरलाइज हो सकता है लेकिन मक्कारी और दोयम दर्जे पर वाह-वाही करने वालों की गिरोहबंदी खत्म नहीं हो सकती।
ReplyDeleteसरकारी तंत्र में जो कर्मचारी काम करने वाले/लायक हैं उन्हें बेवकूफ़ और बौराया हुआ कहकर उपहास का पात्र बना दिया जाता है। जो नाकारें हैं उनकी मौज है। कहावत है कि जो काम करेगा वही फ़ँसेगा। मोटिवेशन काम न करने के पक्ष में है।
आरक्षण से जो कर्मचारी आये हैं उनको प्राप्त सुरक्षा अनारक्षित वर्ग के भीतर एक खास किस्म की लापरवाही भर देती है। काम करने का ठेका क्या हमने ही ले रखा है क्या?
रैदास मेरे फेवरिट हैं। चुपचाप अपनी कठौती के बगल में उम्दा जूते सिलते रैदास। काम 100% टंच और कोई बेईमानी नहीं। यहाँ भूतनाथ मार्केट में सड़क किनारे एक उसी तरह के मोचीराम हैं। उन्हीं से प्रेरणा ली है। ...
ReplyDelete8-9 घंटे ऑफिस में जम कर काम। दूसरों को भी मदद। कुछ नया सोचना और कर जाना। घर पर पढ़ना, बच्चों/पत्नी के साथ हाहाहीही। अगल बगल पर नज़र रखना। समस्याओं पर लोगों को जुटाना। ब्लॉग पर अभिव्यक्त होना। सम्प्रेषण की कोशिश करना। बस। सोचता हूँ कि सभी ऐसे ही करें बिना क्रांति कर देने की ग़फलत पाले तो संसार कितना सुन्दर हो जाय! ...तुम्हारे सोचे से क्या होता है बबुआ! दुनिया इतनी सीधी नहीं... फिर सोच में पड़ जाता हूँ।
जब तक इस विचार-मंथन से कोई सार्थक परिणाम ना निकले, तब तक ये इंटेलेक्चुअल जगलरी ही है और सभी को मालूम है कि इस विकल्पहीनता की स्थिति में परिणाम कुछ निकलना नहीं.
ReplyDeleteना हमारे पास लोकतंत्र का कोई विकल्प है और ना उदारवादी पूँजीवादी व्यवस्था का. है कि नहीं?