Thursday, February 26, 2009

प्रभुजी, मोहे भुनगा न करो!


insect-fogger प्रभुजी, इत्ती योनियां पार करा कर मानुष तन दियो। प्रभुजी, अब मोहे भुनगा@ न करो!

bug प्रभुजी मोहे प्राइम-मिनिस्टर न बनायो, सांसदी/बिधायकी भी न दिलवायो, नोबल प्राइज क्या, जिल्ला स्तर का शाल-श्रीफल-सवा रुपया न मिल्यो। पर प्रभुजी, मोहे रोल-बैक फ्राम विकासवाद; अब भुनगा न करो!

प्रभुजी, कहो तो पोस्ट ठेलन बन्द करूं। कहो तो सेलिब्रिटी की खड़ताल बजाऊं। मेरो सारो स्तर-अस्तर छीन लो प्रभु; पर मोहे भुनगा न करो!

प्रभुजी किरपा करो। मोहे भुनगा न करो!   


@ लवली कुमारी की "संचिका" ब्लॉग पर पोस्ट देखें:
हम बेचारे भुनगे टाईप ब्लोगर ..कभी स्तरीय लेखन कर ही नही सकते ..

Tuesday, February 24, 2009

दो पार्टी गठबन्धन


BenjaminNetanyahu इज्राइल में १० फरवरी को चुनाव सम्पन्न हुये। अठारवीं नेसेट के लिये ३३ पार्टियों में द्वन्द्व था। एक सौ बीस सीटों की नेसेट में कदीमा (नेता जिपी लिवनी, मध्य-वाम दल) को २८, लिकूद (नेता बेन्जामिन नेतन्याहू, मध्य-दक्षिण दल) को २७, दक्षिण पन्थी अवी लिबरमान के दल इज्राइल बेतेनु को १५, धार्मिक दल शास को ११ और वामपन्थी लेबर दल को १३ सीटें मिलीं। सात अन्य दलों को बाकी २६ सीटें वोटों के अनुपात में बंटीं। इक्कीस दलों को एक भी सीट नहीं मिली।

tzipilivni कोई दल या गठबन्धन सरकार बनाने के ६१ के आंकड़े को छूता नजर नहीं आता।

जो सम्भावनाये हैं, उनमें एक यह  भी है कि कदीमा-लिकूद और कुछ फुटकर दल मिल कर सरकार चलायें। अभी कठोर लेन देन चल रहा है।

जैसा लगता है, भारत में भी दशा यही बनेगी कि कोई बहुमत नहीं पायेगा। पर देश के दोनो बड़े दल (कांग्रेस और भाजपा) मिल कर बहुमत पा सकते हैं। सिवाय “हिन्दुत्व” और “सेक्युलर” के आभासी अन्तर के, इनकी आंतरिक, परराष्ट्रीय अथवा आर्थिक नीतियों में बहुत अन्तर नहीं है। ये दल भी कठोर लेन-देन के बाद अगर कॉमन प्रोग्राम के आधार पर साझा सरकार देते हैं तो वह वृहत गठबन्धन की सरकार से खराब नहीं होगी। congress-bjp

पता नहीं, कदीमा-लिकूद छाप कुछ सम्भव है कि नहीं भारत में। एक अन्तर जो भारत और इज्राइल में है वह यह कि वहां उम्मीदवार नहीं, पार्टियां चुनाव लड़ती हैं और नेसेट में पार्टियों को मिले वोट के अनुपात में स्थान मिलते हैं। पर भारत में यह न होने पर भी दोनो मुख्य दलों का गठबन्धन शायद बेहतर करे, चूंकि दोनो ओर समझदार लोगों की कमी नहीं है।

इज्राइल चुनाव के बारे में आप यहां से जान सकते हैं।       


Saturday, February 21, 2009

वेब २.० (Web 2.0) और रेल महकमा



web2वेब २.० के प्रतीक

मैं अपने ब्लॉग को ले कर रेलवे सर्किल में जिज्ञासाहीनता से पहले कुछ निराश था, अब उदासीन हूं। लगता है रेलवे का जीव अभी भी कम्प्यूटर और इण्टरनेट के प्रयोग में एक पीढ़ी पहले चल रहा है। प्रबन्धन के स्तर पर तो वेब २.० (Web 2.0) की तकनीक का प्रयोग सोचा नहीं जाता।

वेब २.० तकनीक का अर्थ ब्लॉग, विकी, पॉडकास्ट, यू-ट्यूब/नेट आर्धारित स्लाइड शो छाप प्रयोग करना है। अभी तो रेलवे में जो कुछ हाइटेक हैं - वे पेन ड्राइव लिये घूमते हैं, जिसमें वाइरस का जखीरा होता है। कुछ लोगों को रेलवे की पीत-पत्रकारिता आर्धारित ब्लॉग पर जाते देखता हूं। वह चार पन्ने के लुगदी टेबलॉइड का विकल्प है। कुछ अन्य विस्पर की साइट पर पोस्टिंग ट्रान्सफर की कयास लगाने वाली खबरें लेने जाते हैं। पर वेब २.० का रचनात्मक उपयोग तो रेलवे में संस्थागत रूप में नजर नहीं आता।

पिछले हफ्ते उत्तर मध्य रेलवे के महाप्रबन्धक और कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने कानपुर के मालगोदाम का निरीक्षण कर उसमें सुधार की सम्भावनाओं को तलाशने की कोशिश की थी। और मेरे लिये यह सुखद आश्चर्य था कि महाप्रबन्धक मालगोदाम क्षेत्र का गूगल अर्थ से व्यू का प्रिण्ट-आउट ले कर सडक-मार्ग बेहतर करने की सम्भावनायें तलाश रहे थे।  कार्य योजना बनाने में यह प्रयोग बहुत प्रभावी रहा।    

ब्लॉग तकनीक का आंशिक प्रयोग मुझे इण्डियन रेलवे ट्रेफिक सर्विस (IRTS) एसोसियेशन की साइट पर नजर आया (यह साइट बहुधा सर्वर की समस्या से ग्रस्त दिखती है)। आई.आर.टी.एस. के प्रधान के रूप में हैं रेलवे बोर्ड के सदस्य यातायात (Member Traffic - MT)। वे MT's DESK नाम से एक कॉलम लिखते हैं। इसे ब्लॉग पोस्ट के समतुल्य नहीं माना जा सकता - चूंकि इसमें टिप्पणी के रूप में फीडबैक का ऑप्शन नहीं है। आप उनकी यातायात अधिकारी के असमंजस@ (Dilemmas of a Traffic Officer) नामक पोस्ट देखने का कष्ट करें। यह शुष्क सरकारी सम्बोधन नहीं है, इसलिये यह काम का सम्प्रेषण है। । काश यह इण्टरेक्टिव होता! वेब २.० तकनीक की डिमाण्ड होती है कि नेट पर कण्टेण्ट इण्टरेक्टिव तरीके से विकसित हो।

बहुत से शीर्षस्थ लोग अपने संस्थान में नियमित खुले पत्र लिखते हैं। उसकी बजाय वेब २.० तकनीकों का प्रयोग बहुत कारगर रहेगा। इसी बहाने अधिकारी-कर्मचारी वेब तकनीक प्रयोग में हाथ आजमायेंगे और ज्यादा कार्यकुशल बनेंगे। इन तकनीकों के सामुहिक प्रयोग से व्यक्ति की कार्यकुशलता ३-४ गुणा तो बढ़ ही सकती है। मुझे तो ब्लॉगजगत की सिनर्जी की याद आती है। अगर लूज बॉण्ड से जुड़े ब्लॉगर्स रचनात्मक सिनर्जी दिखा सकते हैं तो एक संस्थान में एक ध्येय से जुड़े लोग तो चमत्कार कर सकते हैं।

लोग मिलते नहीं, आदान-प्रदान नहीं करते। वेब २.० तकनीक के प्रयोग से एक नया माहौल बन सकता है। कई बॉस यह सोच कर दुबले हो सकते हैं कि इस इण्टरेक्टिविटी से उनके नीचे के लोग ज्यादा लिबर्टी ले लेंगे और उनकी "खुर्राट" वाली इमेज भंजित हो जायेगी। पर क्रियेटिव - प्रोडक्टिविटी (रचनात्मक उत्पादकता) के लिये कुछ तो भंजित करना होगा ही।



श्रीयुत श्री प्रकाश, सदस्य यातायात।

@ श्रीयुत श्री प्रकाश, रेलवे बोर्ड के सदस्य-यातायात की पोस्ट के अंश का अविकल अनुवाद:

हम आई.आर.टी.एस. ज्वाइन करते हैं --- बहुत सी आशायें और अपेक्षाओं के साथ कि यह “दमदार” और “एलीट” सर्विस है। यह सोच पहले पहल ही ध्वस्त होती है; जब हम नहीं पाते एक बड़ा बंगला; जिसके साथ बड़ा लॉन, स्विमिंग पूल, टेनिस कोर्ट और शोफर चालित गाड़ी और जवाबदेही बिना नौकरी --- जो मिलता है वह इसका उल्टा होता है – कंट्रोल या यार्ड में ट्रेन परिचालन की दिन भर की घिसाई, कमरतोड़ फुटप्लेट निरीक्षण, बहुधा बिना खाना खाये रहना (लदान के और इण्टरचेंज के लक्ष्य जो नित्य चेज करने होते हैं!) और घर लौटने पर इस बात पर लताड़ कि न मूवी दिखाने ले जा पा रहे हैं न बाहर डिनर पर जा पा रहे हैं। --- हम सब ने यह विभिन्न मात्रा में देखा है और हम सब आई.आर.टी.एस. के फण्डामेण्टल्स पर विश्वास खोते प्रतीत होते हैं --- आपको यह कठिन और कन्फ्यूजिंग लग सकता है, पर जैसे जैसे अपने काम में लगना और आत्मविकास करना सीखने लगते हैं, स्थिति सामान्य होने लगती है और समझ में आने लगती है। 


Friday, February 20, 2009

समीरलाल का आंकड़ा


samirlal श्री समीर लाल की २८३ वी पोस्ट “किसी ने देखा तो नहीं” पर जब मैने टिप्पणी की तो वह ६५वीं थी। इसे ले कर उनके ब्लॉग पर ९९९८ टिप्पणियां हो चुकी हैं। जब तक मैं सो कर उठूं, दस हजार पार तो हो ही जायेंगी। अब मैं सोने जा रहा हूं।  

आप दन्न से बजायें ताली। Clapping 2


Wednesday, February 18, 2009

ब्लॉग पोस्ट प्रमुख है, शेष गौण


Photobucketमेरी रेलगाडी का इंजन गायब है। मेरे ब्लॉग पर ऊपर आने वाला स्क्रॉल मैसेज (कि आपका स्वागत है) भी निकाल दिया है। “अटको मत चलते रहो” वाले फ्लिंस्टन जी भी अब नहीं हैं। मेरा ब्लॉगरोल भी अब ऊर्ध्व-स्क्रॉल नहीं होता। ब्लॉग अब सीधे पोस्ट पर ले जाने का यत्न करता है।

यह सब फ्रिल्स मैने बड़े चाव से मन लगा कर संजोये थे। पर यह भी लगता था कि यह ध्यान विकर्षण (distraction) करता है। लोग यह देखने नहीं आते। पाठक पठन सामग्री के लिये आते हैं – जो उन्हे बिना लागलपेट के मिलनी चाहिये। लिहाजा वे सब हटा दिये हैं और पोस्ट की पट्टी भी चौड़ाई में बढ़ा दी है।

यह पहले से महसूस कर रहा था, पर अनुराग मिश्र (Raag) जी की एक टिप्पणी ने उसपर निश्चयात्मक रूप से कार्य करने को बाध्य कर दिया -

धन्यवाद ज्ञानदत्त जी, एक रोचक विषय के लिये। मैं आपका ब्लॉग नित्य गूगल रीडर से पढ़ता हूं। पर यह कष्टकारक है कि जब मैं टिप्पणी करने जाता हूं तो पाता हूं कि आपने ब्लॉग को ढेरों एनीमेशन लिंक्स, जीआईएफ चित्रों और भीषण रंगों से युक्त कर रखा है। अपने पाठकों के लिये कृपया इन फ्लैशी एनिमेशन लिंक्स को हटा दें। यह ध्यान बंटाते हैं।

(टिप्पणी अंश का अनुवाद मेरा है।)

हम कुछ बातों पर बहुत समय से सोचते हैं, पर एक नज (nudge – हल्का धक्का) चाहिये होता है कार्यान्वयन करने के लिये।

खैर, इसी प्रकार मैं कई लोगों के ब्लॉग पर विविधता युक्त चिड़ियाघर देखता हूं। उस सब विकर्षण में सम्प्रेषण गायब हो जाता है। इसके अलावा ब्लॉग पूरी तरह खुलने में भी समय लगता है। … ब्लॉग को ब्लॉग ही रहने दो चिड़ियाघर न करो!

सामान्यीकरण – सिम्प्लीफिकेशन कुंजी है। बेकर-पोस्नर का ब्लॉग इतना सिम्पल ले-आउट वाला है और इतना महत्वपूर्ण! दोनो (गैरी बेकर, रिचर्ड पोस्नर) ओल्डीज हैं! उनकी पोस्टों की गुणवत्ता देखिये – फेण्टाबुलस!BandP    


मेरा ब्लॉग साधारण नेट कनेक्शन से अब २७ सेकेण्ड में डाउनलोड हो रहा है और मुख्य सामग्री (पोस्ट व टिप्पणियां) ५ सेकेण्ड में डाउनलोड हो रहे हैं। यह मापने के लिये आप यह स्टाप-वाच का प्रयोग कर सकते हैं।

Monday, February 16, 2009

ओल्डीज के लिये ब्लॉगिंग स्पेस


बड़े जिद्दी किस्म के लोग हैं। इन्हें अपने प्रॉविडेण्ट फण्ड और रिटायरमेण्ट का पैसा गिनना चाहिये। फेड आउट होने का उपक्रम करना चाहिये। पर ये रोज पोस्ट ठेल दे रहे हैं। ये ओल्डीज क्या लिखना चाह रहे हैं? क्या वह समाज के हित में है? क्या उसके टेकर्स हैं?

मूकज्जी की वाणी एक बार खुलती है तो बहुत कुछ कहती हैं। बहुत से ओल्डीज मूकज्जी हैं, जिन्हें वाणी मिल गयी है।

यह भी नहीं है कि इन्हें बहुत महारत हासिल है। ब्लॉग विधा के तकनीकी पक्ष में तो इनमें से कई लंगड़े ही हैं। विचारों की पटरी भी बहुत नहीं बैठती बहुतों से। पर औरों की तरह ये भी पूरी टेनॉसिटी (tenacity – साहस) से जुटे हैं अपनी अभिव्यक्ति का स्पेस तलाशने। टिक पायेंगे?

समाज में ओल्डीज बढ़ेंगे। इन सबको बड़े बुजुर्ग की तरह कुटुम्ब में दरवाजे के पास तख्त पर सम्मानित स्थान नहीं मिलने वाला। ये पिछवाड़े के कमरे या आउटहाउस में ठेले जाने को अन्तत: अभिशप्त होंगे शायद। पर अपने लिये अगर ब्लॉगजगत में स्थान बना लेते हैं तो ये न केवल लम्बा जियेंगे, वरन समाज को सकारात्मक योगदान भी कर सकेंगे।

इनमें से बहुतों के पास बहुत कुछ है कहने को। के. शिवराम कारंत की मूकज्जी (कन्नड़ में “मूकज्जिय कनसुगलु”, ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त और भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित) की तरह ये जमाने से मूक रहे हैं। पर मूकज्जी की वाणी एक बार खुलती है तो बहुत कुछ कहती हैं। बहुत से ओल्डीज मूकज्जी हैं, जिन्हें वाणी मिल गयी है।

mukajjiमूकज्जी की प्रस्तावना से:

मूकज्जी अपने पोते के माध्यम से इतिहास का ऊहापोह करती अनेक पात्रों की जीवन-गाथा में अपनी समस्त कोमल संवेदनाओं को उड़ेलती है। और हमे सिखाती है कि संसार की सबसे बड़ी शक्ति और मनुष्यता का सबसे बड़ा गुण है करुणा। मूकज्जी मिथ्यात्व और छलनाओं से भरी इन तथाकथित नैतिकताओं को चुनौती देती है और हमें जीवन की यथार्थ दृष्टि प्रदान करती है। मूकज्जी जिसने स्वयं जीवन की वंचना भोगी है। सैक्स और काम के सम्बन्ध में खुलकर बोलनेवाली बन गयी है, वैज्ञानिक हो गयी है।

जब मैं इनको पढ़ता हूं (और कई तो कहेंगे कि मैं भी ओल्डीज में हूं) तो पाता हूं कि उनमें सम्प्रेषण का अटपटापन भले हो, कण्टेण्ट की कोई कमतरी नहीं है। वे जो कह रहे हैं, वह थोडा ट्रेण्डी कम भी हो, सारतत्व में उन्नीस नहीं है।

लेकिन मैं यह लिख क्यों रहा हूं? मैं न शिवराम कारंत बन सकता हूं, न मूकज्जी। मैं शायद अपना स्पेस तलाश रहा हूं।


श्री हेम पाण्डेय ने टिप्पणी की - 

प्रतीक्षा है कुछ ऐसी पोस्ट की जो 'मानसिक हलचल' पैदा करे।

क्या मेरी पोस्टें कुछ हलचल पैदा करती है? या सब में मैं अपना स्पेस तलाशते केवल समय के साथ बहने का ही सहारा लेता हूं?! अगर वह है तो चल न पाऊंगा। स्विमिंग इस उम्र की यू.एस.पी. नहीं है!


Saturday, February 14, 2009

लंगोटान्दोलन!


तीन चार दिन के लिये ब्लॉगजगताविमुख क्या हुआ; अधोवस्त्र क्रान्ति हो गयी! ऐसे ही, जब हम भकुआ थे तब हिप्पियों नें यौनक्रान्ति कर दी थी और हम अछूते निकल गये। तब छात्र जीवन में पिताजी के कहे अनुसार परीक्षा में अंकों के लिये जद्दोजहद करते रह गये। उनकी न मानते, तो सरकारी नौकरी की बजाय (वाया साइकल पर साबुन बेचने के), आज सिरमा कम्पनी के मालिक होते।

आप कलरीपयत्तु जैसे मार्शल आर्ट के मुरीद हों या महात्मागांधी के चेले हों; लंगोट मुफीद है। और कोई उपहार में न भी दे, खरीदना ज्यादा अखरता नहीं

सही समय पर गलत काम करता रहा। वही अब भी कर रहा हूं। लोग पिंक चड्ढ़ी के बारे में गुलाबी पोस्टें ठेल रहे हैं। उन्हें सरसरी निगाह से देख कर ब्लश किये जा रहा हूं मैं। एक विचार यह भी मन में आ रहा है कि जैसे गंगा के कछार में एक सियार हुआं-हुंआ का स्वर निकालता है तो सारे वही ध्वनि करने लगते हैं; वही हाल ब्लॉगस्फीयर का है। पॉपुलर विचार के चहुं ओर पसरते देर नहीं लगती!

प्रमोद मुतल्लिक पिंक प्रकरण से इतनी प्रसिद्धि पा गये, जितनी प्रमोद सिंह “अज़दक” पोस्ट पर पोस्ट ठेल कर भी न पा सके! प्रसिद्धि पाना इण्टेलेक्चुअल के बस का नहीं। उसके लिये ठेठ स्तर का आईक्यू (<=50) पर्याप्त है।

आइंस्टीन को स्वर्ग के दरवाजे पर प्रतीक्षा करते लाइन में तीन बन्दे मिले। समय पास करने के लिये उन्होंने उनसे उनका आई.क्यू. पूछा।

  • पहले ने कहा - १९०। आइंस्टीन ने प्रसन्न हो कर कहा - तब तो हम क्वाण्टम फिजिक्स और रिलेटिविटी पर चर्चा कर सकते हैं।
  • दूसरे ने कहा - १५०। तब भी आइंस्टीन ने प्रसन्न हो कर कहा - अच्छा, आपका न्यूक्लियर नॉनप्रॉलिफरेशन के बारे में क्या सोचना है?
  • तीसरे ने कहा - लगभग ५०। आइंस्टीन प्रसन्नता से उछल से पड़े। बोले - अच्छा, पिंक चड्ढी प्रकरण में आपका क्या सोचना है? क्या यह मुहिम कोई क्रान्ति ला देगी?!

पिंक चड्ढी का मामला ठण्डा पडने वाला है। सो लंगोटान्दोलन की बात करी जाये। नम और उष्णजलवायु के देशों में लंगोट सही साट अधोवस्त्र है। आप कलरीपयत्तु जैसे मार्शल आर्ट के मुरीद हों या महात्मागांधी के चेले; लंगोट मुफीद है। और कोई उपहार में न भी दे, खरीदना ज्यादा अखरता नहीं।Langot

कुछ लोग कहते हैं कि यह उष्णता जनरेट कर स्पर्म की संख्या कम करता है। अगर ऐसा है भी तो भारत के लिये ठीक ही है- जनसंख्या कम ही अच्छी! पर आदिकाल से लंगोट का प्रयोग कर भारत में जो जनसंख्या है, उसके चलते यह स्पर्म कम होने वाली बात सही नहीं लगती। उल्टे यह पुरुष जननांगों को विलायती चड्ढी की अपेक्षा बेहतर सपोर्ट देता है। मैं यह फालतू-फण्ड में नहीं कह रहा। भरतलाल से दो लंगोट मैने खरीदवा कर मंगा भी लिये हैं। फोटो भी लगा दे रहा हूं, जिससे आपको विश्वास हो सके।

आप भी लंगोटान्दोलन के पक्ष में कहेंगे?

मुझे विश्वास है कि न तो गांधीवादी और न गोलवलकरवादी लंगोट के खिलाफ होंगे। पबवादियों के बारे में आइ एम नॉट श्योर। 


Wednesday, February 11, 2009

शब्दों का टोटा


संकल्प: हम भी पटखनी खाने को तैयार हैं!

संकल्पीय शर्त: बशर्ते हजार पांच सौ नये नकोर, ब्लॉग पर प्रयोग योग्य, देशज/संस्कृताइज्ड शब्दों का भण्डार मिल सके।

असल में शब्दों का पड़ रहा है टोटा।1 दफ्तर में पढ़ते हैं फाइलों की सड़ल्ली नोटिंग या घसीटे हुये माई-डियरीय डेमी ऑफीशियल पत्र/सर्कुलर। हिन्दी में कुछ पढ़ने में नहीं आता सिवाय ब्लॉग के। नये शब्दों का वातायन ही नहीं खुलता। wierd मन हो रहा है चार छ महीने की छुट्टी ले पटखनी खाये पड़ जायें और मोटे-मोटे ग्रन्थ पढ़ कर विद्वतापूर्ण ठेलें। बिना मुखारी किये दिन में चार पोस्ट। शेविंग न करें और दस दिन बाद दाढ़ी बड़ी फोटो चफना दें ब्लॉग पर।

शब्दों का भी टोटा है और जिन्दगी भी ढूंढ रही है फुरसत। मालगाड़ी का इन्जन नम्बर नोट करते करते लाख टके की जिन्दगी बरबाद हो रही है। जीनत अम्मान तो क्या, फिल्म की एक्स्ट्रा भी देखने का टाइम नहीं निकल पा रहा।

मिठास है गुम। ब्लॉग की सक्रियता की सैकरीन के लिये शुगर-फ्री की लपेटी पोस्टें लिखे जा रहे हैं।

हम शर्त लगा सकते हैं- अस्सी परसेण्ट ब्लॉगर इसी मनस्थिति में आते हैं। पर कोई हुंकारी थोड़े ही भरेगा! अपनी पोल खोलने के लिये दम चाहिये जी!

पत्नीजी की त्वरित टिप्पणी: बहुत दम है! हुंह! चार महीने की छुट्टी ले कर बैठ जाओगे तो तुम्हें झेलेगा कौन। और चार दिन बाद ही ऊब जाओगे एकान्त से!


1. शब्दों का टोटा यूं है कि पहले उसे अंग्रेजी के शब्दों से पूरा किया जाता था, अब उत्तरोत्तर अवधी के देशज शब्दों से पूरा किया जा रहा है - "लस्तवा भुलाइ गवा" छाप!

Night

और कविता कोश से लिया एक फिल्मी गीत:

मुझ को इस रात की तनहाई में आवाज़ न दो/शमीम जयपुरी

मुझ को इस रात की तनहाई में आवाज़ न दो

जिसकी आवाज़ रुला दे मुझे वो साज़ न दो

आवाज़ न दो...

मैंने अब तुम से न मिलने की कसम खाई है

क्या खबर तुमको मेरी जान पे बन आई है

मैं बहक जाऊँ कसम खाके तुम ऐसा न करो

आवाज़ न दो...

दिल मेरा डूब गया आस मेरी टूट गई

मेरे हाथों ही से पतवार मेरी छूट गई

अब मैं तूफ़ान में हूँ साहिल से इशारा न करो

आवाज़ न दो...


Monday, February 9, 2009

लस्तवइ भुलाइ गये!


मैं फिर गंगा किनारे गया। सब्जियों की खेती देखने नहीं, अपने आप को अनवाइण्ड करने। अपना मोबाइल ले कर नहीं गया – कोई फोन नहीं चाहता था एक घण्टे भर।

एक छोटा बच्चा तेजी से चलता हुआ गया – बोलता जा रहा था – “अले हम त लस्तवइ भुलाइ गये”। (अरे मैं तो रास्ता ही भूल गया।) थोड़ी देर बाद वह अपनी गोल में मिला दिखा।

दो लड़कियां दिखीं – पूनम और गुड़िया। गंगा किनारे क्यारी खोद, खाद डाल कर टमाटर रोप रही थीं। पूनम फावड़े से क्यारी बना कर यूरिया छिड़क रही थी। गुड़िया पौधे रोप रही थी। खनकदार हंसी पूनम की। भाई कहीं गया है। समय बरबाद न हो, इस लिये वे यह काम करने आई हैं।

उन दोनो की अम्मा बीमार है, लिहाजा उन्हें ही यह रुपाई का काम करना है। मेरी पत्नी बातचीत में पूनम से कहती हैं – लड़कियां भी अब आगे बढ़ रही हैं। पूनम तुरंत जवाब देती है –

“लड़कियां ही तो आगे बढ़ रही हैं। लड़के तो बस अपने को लड़का मान कर खुश हैं।”

छठी क्लास पास पूनम का यह बड़ा गूढ़ ऑब्जर्वेशन है।

Poonam legsमैने पूनम का फोटो लिया। पर वह यहां लगाऊंगा नहीं। आप तो उसका गंगा की रेती में क्यारी बनाता फावड़ा देखें।

Rohitइतने में रेत के खेत में चाचा को दोपहर का भोजन दे कर लौटता रोहित दीखता है। घर लौट कर स्कूल जायेगा। चिल्ला गांव में रहता है और शशिरानी पब्लिक स्कूल में पढ़ता है। गली में हर दूसरा स्कूल पब्लिक स्कूल है। जो पब्लिक के लिये हो वह पब्लिक स्कूल।  

एक बुआ और भतीजी दिखीं। वे भी रास्ता भूल गई थीं। जेके देखअ, उहई लस्तवा भूला रहा। (जिसको देखो, वही रास्ता भूला था।)

हमहूं लस्तवा भुलान हई (क्या बताऊं, मैं भी रास्ता भूला हूं)। न केवल कैसे करना चाहता हूं, वरन क्या करना चाहता हूं, यह भी स्पष्ट नहीं है। कौन भाग्यशाली है जो जानता है मुकाम और मार्ग?!


Girirajkishor गिरिराज किशोर जी के ब्लॉग पर एक महत्वपूर्ण पोस्ट है - भाषा का तप त्याग और उपेक्षा। फीड में यह पूरी पोस्ट है पर ब्लॉग पर मात्र रोमनागरी में शीर्षक बचा है।

पता नहीं, उनका ब्लॉग वे मैनेज करते हैं या उनके बिहाफ पर कोई अन्य (वैसे प्रतिटिप्पणियां रोमनागरी में उनकी ही प्रतीत होती हैं)। पर यह बेहतर होगा कि वह हिन्दी की स्थिति विषयक पोस्ट लोग देख पायें। इकहत्तर वर्षीय श्री गिरिराज किशोर अगर ब्लॉग इत्यादि के प्रति प्रो-एक्टिव हैं तो प्रसन्नता का विषय है।

(वैसे यह वर्ड डाक्यूमेण्ट में पांच पेज की फुरसतियात्मक पोस्ट है। पाठक के पेशेंस को परखती हुई!) 


Saturday, February 7, 2009

नया कुकुर



golu new smallनया पिलवा - नाम गोलू पांड़े
भरतलाल (मेरा बंगला-चपरासी) नया कुकुर लाया है। कुकुर नहीं पिल्ला। भरतलाल के भाई साहब ने कटका स्टेशन पर पसीजर (मडुआडीह-इलाहाबाद सिटी पैसेंजर को पसीजर ही कहते हैं!) में गार्ड साहब के पास लोड कर दिया। गार्ड कम्पार्टमेण्ट के डॉग-बाक्स में वह इलाहाबाद आया। गार्ड साहब ने उसे यात्रा में बिस्कुट भी खिलाया। 

परसों यह पिल्ला पशु डाक्टर के पास ले जाया गया। इंजेक्शन लगवाने और दवाई आदि दिलवाने। इन्जेक्शन उसने शराफत से लगवा लिया। दांत बड़े हो रहे हैं, सो वह कालीन चीथने का प्रयास कर रहा है। पिछले साल ही पॉलिश कराये थे फर्नीचर - उनपर भी दांत घिस रहा है। बैठे बिठाये मुसीबत मोल ले ली है। लिहाजा अब गले का पट्टा, चबाने के लिये प्लास्टिक की हड्डी – यह सब खरीदा गया है। मन्थली बजट में यह प्रोवीजन था ही नहीं! पत्नीजी पिलवा से प्रसन्न भी हैं और पैसा जाने से परेशान भी।

भरतलाल का कहना है कि यह किसी मस्त क्रॉस ब्रीड का है। इसकी माई गांव की थी और बाप किसी भदोही के कारपेट वाले रईस का विलायती कुकुर। माई ने दो पिल्ले दिये थे। एक मर गया/गई, दूसरा यह है। सामान्य पिल्ले से डबल काठी का है। मौका पा कर हमारे घर के बाहर पल रहे हम उम्र पिल्लों में से एक को मुंह में दबा कर घसीट लाया। बड़ी मार-मार मची!

कौन ब्रीड है जी यह? इसी को पहेली मान लें!   

कटका स्टेशन से आया पिल्ला

gandhi_karikatura_caricature महात्मा गांधी जी के व्यवहार को लेकर हम जैसे सामान्य बुद्धि के मन में कई सवाल आते हैं। और गांधी जी ही क्यों, अन्य महान लोगों के बारे में भी आते हैं। राम जी ने गर्भवती सीता माता के साथ इतना गलत (?) व्यवहार क्यों किया - उन्हें वाल्मीकि आश्रम में भेज कर? एकलव्य का अंगूठा क्यों कटवाया द्रोण ने? कर्ण और भीष्म का छल से वध क्यों कराया कृष्ण ने? धर्मराज थे युधिष्ठिर; फिर ’नरो वा कुंजरो वा’ छाप काम क्यों किया?

सब सवाल हैं। जेनुइन। ये कारपेट के नीचे नहीं ठेले जाते। इनके बारे में नेट पर लिखने का मतलब लोगों की सोच टटोलना है। किसी महान की अवमानना नहीं। पिछली एक पोस्ट को उसी कोण से लिया जाये! संघी/गांधीवादी/इस वादी/उस वादी कोण से नहीं। मेरी उदात्त हिन्दू सोच तो यही कहती है। केनोपनिषद प्रश्न करना सिखाता है। कि नहीं?

क्या कहेंगे नौजवानों की भाषा में - “गांधी, आई लव यू”?! रिचर्ड अटेनबरॉ की पिक्चर में इस छाप का डायलॉग शायद न हो।          


Thursday, February 5, 2009

पब और प्रार्थना


फुदकती सोच पब और प्रार्थना को जोड़ देती है!1 

Prayersप्रेयर्स एण्ड मेडिटेशंस, द मदर, पॉण्डिच्चेरी; की प्रार्थनाओं में मान्त्रिक शक्ति है!

मैं नहीं जानता पब का वातावरण। देखा नहीं है – बाहर से भी। पर यह समझता हूं कि पब नौजवानों की सोशल गैदरिंग का आधुनिक तरीका है। यह शराब सेवन और धूम्रपान पर आर्धारित है (बंगाल की अड्डा संस्कृति की तरह नहीं, जो शायद लम्बे और गहन बौद्धिक बातचीत से सम्बन्ध रखती है)।

मुझे आशंका है (पर ठीक से पता नहीं) कि पब स्वच्छंद यौन सम्बन्ध के उत्प्रेरक हैं। हों, तो भी मैं उनके उद्दण्ड मुथालिकीय विरोध का समर्थक नहीं। हिन्दू धर्म इस प्रकार की तालीबानिक ठेकेदारी किसी को नहीं देता।

मैं यहां सामाजिक शराब सेवन और धूम्रपान (जिसमें नशीले पदार्थ जैसे मरीजुआना का सेवन शामिल है) के बारे में कहना चाहता हूं। ये सेवन एडिक्टिव (लत लगाने वाले) हैं। अगर आप इनका विरोध करते हैं तो आपको खैनी, पान मसाला और तम्बाकू आदि का भी पुरजोर विरोध करना चाहिये। पर शायद तथाकथित हिन्दुत्व के ठेकेदार पानमसाला और जर्दा कम्पनियों के मालिक होंगे। हनुमान जी के कैलेण्डर जर्दा विज्ञापित करते देखे जा सकते हैं!Depression and sorrow

अनिद्रा और अवसाद की दवाइयों के एडिक्टिव प्रकार से मैं भली प्रकार परिचित हूं। और मैं चाहता हूं कि लोग किसी भी प्रकार की व्यसनी जकड़न से बचें। क्रियायोग अथवा सुदर्शन क्रिया शायद समाधान हैं – और निकट भविष्य में इनकी ओर जाने का मैं प्रयास करूंगा। पर समाधान के रूप में प्राणायाम और प्रार्थना बहुत सरल उपाय लगते हैं। सामुहिक या व्यक्तिगत प्रार्थना हमारे व्यक्तिगत महत्व को रेखांकित करती है। व्यक्तिगत महत्व समझने के बाद हमें ये व्यसन महत्वहीन लगने लगते हैं। ऐसा मैने पढ़ा है।

पब में एडिक्शन है, और एडिक्शन का एण्टीडोट प्रार्थना में है। यह मेरी फुदकती सोच है। उद्दण्ड हिन्दुत्व पब संस्कृति का तोड़ नहीं! 


1. Hopping thoughts correlate Pub and Prayer!

Tuesday, February 3, 2009

आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री उवाच


Vishnukant Shastriकल कुछ विष्णुकान्त शास्त्री जी की चुनी हुई रचनायें में से पढ़ा और उस पर मेरी अपनी कलम खास लिख नहीं सकी – शायद सोच लुंज-पुंज है। अन्तिम मत बना नहीं पाया हूं। पर विषय उथल-पुथल पैदा करने वाला प्रतीत होता है।

लिहाजा मैं आचार्य विष्णुकांत शास्त्री के पुस्तक के कुछ अंश उद्धृत कर रहा हूं - 

पहला अंश -

Gandhi…. महात्मा गांधी उस मृग मरीचिका (मुस्लिम तुष्टीकरण) में कितनी दूर तक गये थे, आज उसकी कल्पना कर के छाती दहल जाती है। महात्मा गांधी मेरे परम श्रद्धेय हैं, मैं उनको अपने महान पुरुषों में से एक मानता हूं, लेकिन आप लोगों में कितनों को मालुम है कि खिलाफत के मित्रों ने जब अफगानिस्तान के अमीर को आमंत्रित करने की योजना बनाई कि अफगानिस्तान का अमीर यहां आ कर हिन्दुस्तान पर शासन करे तो महात्मा गांधी ने उसका भी समर्थन किया। यह एक ऐसी ऐतिहासिक सच्चाई है, जिसको दबाने की चेष्ठा की जाती है, लेकिन दबाई नहीं जा सकती।

दूसरा अंश -

Muhammad Ali डा. अम्बेडकर ने उस समय कहा था कि कोई भी स्वस्थ मस्तिष्क का व्यक्ति हिन्दू-मुस्लिम एकता के नाम पर उतनी दूर तक नहीं उतर सकता जितनी दूर तक महात्मा गांधी उतर गये थे। मौलाना मुहम्मद अली को कांग्रेस का प्रधान बनाया गया, राष्ट्रपति बनाया गया। मद्रास में कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था। मंच पर वन्देमातरम का गान हुआ। मौलाना मुहम्मद अली उठकर चले गये। “वन्देमातरम मुस्लिम विरोधी है, इस लिये मैं वन्देमातरम बोलने में शामिल नहीं होऊगा।” यह उस मौलाना मुहम्मद अली ने कहा जिसको महात्मा गांधी ने कांग्रेस का राष्ट्रपति बनाया। उसी मौलाना मुहम्मद अली ने कहा कि नीच से नीच, पतित से पतित मुसलमान महात्मा गांधी से मेरे लिये श्रेष्ठ है। आप कल्पना कीजिये कि हिन्दू-मुस्लिम एकता के नाम पर क्या हो रहा था।

तीसरा अंश -

jinnah जो मुस्लिम नेतृत्व अपेक्षाकृत राष्ट्रीय था, अपेक्षाकृत आधुनिक था, उसकी महात्मा गांधी ने उपेक्षा की। आम लोगों को यह मालूम होना चाहिये कि बैरिस्टर जिन्ना एक समय के बहुत बड़े राष्ट्रवादी मुसलमान थे। वे लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के सहयोगी थे और उन्होंने खिलाफत आन्दोलन का विरोध किया था परन्तु मौलाना मुहम्मद अली, शौकत अली जैसे कट्टर, बिल्कुल दकियानूसी नेताओं को महात्मा गांधी के द्वारा ऊपर खड़ा कर दिया गया एवं जिन्ना को और ऐसे ही दूसरे नेताओं को पीछे कर दिया गया।


बापू मेरे लिये महान हैं और देवतुल्य। और कोई छोटे-मोटे देवता नहीं, ईश्वरीय। पर हिंदू धर्म में यही बड़ाई है कि आप देवता को भी प्रश्न कर सकते हैं। ईश्वर के प्रति भी शंका रख कर ईश्वर को बेहतर उद्घाटित कर सकते हैं।

बापू के बारे में यह कुछ समझ नहीं आता। उनके बहुत से कार्य सामान्य बुद्धि की पकड़ में नहीं आते।  


पुस्तक : “विष्णुकान्त शास्त्री – चुनी हुई रचनायें”; खण्ड – २। पृष्ठ ३२४-३२५। प्रकाशक – श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय, कोलकाता। 


Sunday, February 1, 2009

पोलियो प्रोग्राम कब तक?


pulsepolioमैने रेडियो में नई बैटरी डाली। सेट ऑन किया तो पहले पहल आवाज आई इलाहाबाद आकाशवाणी के कृषिजगत कार्यक्रम की। आपस की बातचीत में डाक्टर साहब पल्स-पोलियो कार्यक्रम के बारे में बता रहे थे और किसान एंकर सलाह दे रहे थे कि रविवार “के गदेलवन के पल्स-पोलियो की खुराक जरूर पिलवायेन”!

थोड़ी देर में वे सब राम-राम कर अपनी दुकान दऊरी समेट गये। तब आये फिल्म सुपर स्टार जी। वे दशकों से सब को नसीहत दे रहे हैं पल्स-पोलियो खुराक पिलाने की। पर यूपी-बिहार की नामाकूल जनता है कि इस कार्यक्रम को असफल करने पर तुली है।

$6350 लाख के खर्चे पर बिल और मेलिण्डा गेट्स फाउण्डेशन के अग्रगामी कदम से भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और नाइजीरिया केन्द्रित पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम चलाया जायेगा।
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डब्ल्यू.एच.ओ. और यूनीसेफ से जुड़ने में लाभ है?smile_regular

ले दे कर एक सवाल आता है – जो किसानी प्रोग्राम में डाक्टर साहब से भी पूछा गया। “इससे नामर्दी तो नहीं आती”। अब सन उन्यासी से यह कार्यक्रम बधिया किया जा रहा है। जाने कितना पैसा डाउन द ड्रेन गया। उसमें कौन सी मर्दानगी आई?

ये दो प्रान्त अपनी उजड्डता से पूरी दुनियां को छका रहे हैं। यहां जनसंख्या की खेप पजान है लेफ्ट-राइट-सेण्टर। सरकार है कि बारम्बार पल्स-पोलियो में पैसा फूंके जा रही है। और लोग हैं कि मानते नहीं।

भैया, ऐंह दाईं गदेलवन के पल्स पोलियो क खुराक पिलाइ लियाव। (भैया, इस बार बच्चों को पल्स पोलियो की खुराक पिलवा लाइये!)

नहीं पिला पाये? कोई बात नहीं। अगली बारी, अटल बिहारी।