|| MERI MAANSIK HALCHAL ||
|| मेरी (ज्ञानदत्त पाण्डेय की) मानसिक हलचल ||
|| मन में बहुत कुछ चलता है ||
|| मन है तो मैं हूं ||
|| मेरे होने का दस्तावेजी प्रमाण बन रहा है यह ब्लॉग ||
Tuesday, September 30, 2008
ढ़पोरशंखी कर्मकाण्ड और बौराये लोग
सामान्यत: हिन्दी का अखबार मेरे हाथ नहीं लगता। सवेरे मेरे पिताजी पढ़ते हैं। उसके बाद मैं काम में व्यस्त हो जाता हूं। निम्न मध्यवर्गीय आस-पड़ोस के चलते दिन में वह अखबार आस पड़ोस वाले मांग ले जाते हैं। शाम के समय घर लौटने पर वह दीखता नहीं और दीखता भी है तो भांति-भांति के लोगों द्वारा चीथे जाने के कारण उसकी दशा पढ़ने योग्य नहीं होती।
छुट्टी के दिन हिन्दी अखबार हाथ लग गया। पहले पन्ने की एक स्थानीय खबर बहुत अजीब लगी। जसरा के पास घूरपुर में पुलीस चौकी पर हमला किया गया था।
"मौनीबाबा" की अगवाई में एक ग्लास फैक्टरी में बने मन्दिर में यज्ञ करने के पक्ष में थे लोग। मौनीबाबा घूरपुर से गुजरते समय वहां डेरा डाल गये थे। उन्होंने लोगों को कहा कि बहुत बड़ी विपत्ति आसन्न है और जरूरत है एक यज्ञ की। लगे हाथ ग्लास फैक्टरी के मन्दिर में कीर्तन प्रारम्भ हो गया। यज्ञ का इन्तजाम होने लगा। वेदिका के लिये जमीन खोदने लगे लोग। पर जब फैक्टरी के मालिक ने पुलीस को रिपोर्ट की तो पुलीस ने लोगों को रोका। मौनीबाबा को चित्रकूट रवाना कर दिया गया। कुछ लोगों को पकड़ लिया पुलीस ने।
उसके बाद लोगों ने किया थाने का घेराव और चक्काजाम। जिला प्रशासन ने अन्तत: मौनी बाबा को वापस आने के लिये मनाने की बात कही लोगों के प्रतिनिधियों से।
अजीब लोग हैं। किसी के प्राइवेट परिसर में जबरी यज्ञ करने लगते हैं। रोकने पर उग्र हो जाते हैं। और कोई काम नहीं। धार्मिक कर्मकाण्डों ने लोगों को एक आसान बहाना दे दिया है जीने का। आर्थिक चौपटपन है मानिकपुर, जसरा, शंकरगढ़ चित्रकूट के बुन्देलखण्डी परिदृष्य में। अत: लोग या तो बन्दूक-कट्टे की बात करते हैं; या देवी-भवानी सिद्ध करने में लग जाते हैं। अनिष्ट से बचने को कर्म नहीं, यज्ञ-कीर्तन रास आते हैं। रोकने पर आग लगाने, पथराव और चक्का जाम को पर्याप्त ऊर्जा है लोगों में।
जकड़े है जड़ प्रदेश को ढ़पोरशंखी धार्मिक कर्मकाण्ड और बौराये हैं लोग। बहुत जमाने से यह दशा है।
ढ़पोरशंख शब्द का प्रयोग तो ठसक कर कर लिया। पर ढ़पोरशंख की कथा क्या है? यह शब्द तो मिला नहीं शब्दकोश में।
यज्ञ कर्म तो बिना राग द्वेष के किये जाने हैं। बिना कर्म-फल की आशा के। आप /९-११/गीता/ के तात्पर्य को देखें। फिर बलात किसी जमीन पर कीर्तन-यज्ञ और दंगा-फसाद; यह कौन सा धर्म है जी?! और कौन सा कर्म?!
कल टिप्पणी में अशोक पाण्डेय ने कहा कि देहात के भारत में तो पी-फैक्टर नहीं सी-फैक्टर चलेगा। यानी जाति का गुणक। बात तो सही लगती है उनकी। पर मैं तो अभी भी कहूंगा कि राजनीतिक दल पी-फैक्टर की तलाश करें; साथ में सी-फैक्टर की समीकरण भी जमा लें तो बहुत बढ़िया!
और अन्तिम-मोस्ट पुच्छल्ला -
इन्द्र जी के ब्लॉग पर यह पोस्ट में है कि अमरीकी राष्ट्रपतीय चुनाव में अगर निर्णय गूगल के इन्दराज से होना हो तो ओबामा जीते। उनकी ६४० लाख एन्ट्रीज हैं जबकि मेक्केन की कुल ४७४ लाख; गूगल पर।
अपडेट पुच्छल्ला:
वाह! सत्यार्थमित्र ने ढ़पोरशंख की कथा (“अहम् ढपोर शंखनम्, वदामि च ददामि न”) लगा ही दी अपनी पोस्ट पर। इसे कहते हैं - ब्लॉगर-सिनर्जी! आप वह पोस्ट देखने का कष्ट करें।
Monday, September 29, 2008
भारत में चुनाव और पी-फैक्टर
बहुत हो गया मंहगाई, आतंक, बाढ़, गोधरा, हिन्दू-मुस्लिम खाई, सिंगूर।
अगले चुनाव में यह सब कुछ चलेगा। पर इस राग दरबारी में पहले से अलग क्या होगा? वही पुराना गायन – एण्ट्री पोल, एग्जिट पोल, पोल खोल … पैनल डिस्कशन … फलाने दुआ, ढिमाके रंगराजन। चेंज लाओ भाई। आपने जरदारी जी को देखा? कैसे गदगदायमान थे जब वे सॉरा पालिन से मिल रहे थे। और हमारी मध्यवर्गीय शिष्टाचरण की सीमा के कहीं आगे वे गुणगान कर गये पालिन जी की पर्सनालिटी का। मेक्केन जी ने तो बढ़िया ट्रम्पकार्ड खेला। बुढ़ऊ से यह उम्मीद नहीं करता होगा कोई! उनकी दकियानूसी इमेज का जबरदस्त मेक-अप हो गया। इतने सारे मुद्दों से जब चुनावी परिदृष्य रिस रहा हो तो कोई मुद्दा प्रभावी रूप से काम नहीं करेगा भारत में। लोगों का मन डाइवर्ट करने को एक सॉरा पालिन की दरकार है। क्या भाजपा-कांग्रेस सुन रहे हैं?! अगले चुनाव में पी-फैक्टर (पालिन फैक्टर) बहुत बड़ी सफलता दे सकता है। और जरूरी नहीं कि यह हमारी पालिन कोई शीर्षस्थ नेत्री हो। गड़ग-गुलाबपुरा-गढ़वाल या गुवाहाटी से राज्य/जिला स्तरीय फोटोजेनिक नेत्री हो, तो भी चलेगी। बल्कि जितनी अनजानी और जितनी अधिक सुन्दर हो, उतनी ज्यादा फायदेमन्द है। बेसुरिक्स नेताओं की भीड़ में एक चमकता ग्लैमरस चेहरा और आपका काम मानो हो गया। राष्ट्रीय दलों को पी-फैक्टर दोहन की दिशा में सन्नध हो जाना चाहिये। (ऑफकोर्स, आप टिप्पणी में यहां की पालिन पर अटकल लगा सकते हैं! क्या कहा? प्रियंका गांधी – पर न उनमें सरप्राइज एलीमेण्ट है, न वे नम्बर दो पर तैयार होंगी।)
Friday, September 26, 2008
पिछली बार टाई कब पहनी मैने?
एक मेरी बहुत पुरानी फोटो है, बिना टाई की|
मुझे याद नहीं कि मैने अन्तिम बार टाई कब पहनी। आजकल तो ग्रामीण स्कूल में भी बच्चे टाई पहने दीखते हैं। मैं तो म्यूनिसेपाल्टी/सरकारी/कस्बाई स्कूलों में पढ़ा जहां टाई नहीं होती थी। मास्टरों के पास भी नहीं होती थी।
मुझे यह याद है कि मैं सिविल सर्विसेज परीक्षा के इण्टरव्यू के लिये जरूर टाई पहन कर गया था। और वह टाई मैने स्वयं बांधी थी – अर्थात टाई बांधना भी मुझे आता था। अब तो शायद बांधना भी भूल गया होऊं।
मेरी पत्नी जी ने कहा कि मैने एक फोटो रेलवे स्टाफ कॉलेज में टाई पहने खिंचवाई थी – लगभग ढ़ाई दशक पहले। मुझे इण्डक्शन कोर्स में गोल्ड मैडल मिला था। किसी बड़े आदमी ने प्रदान किया था। अब वह भी याद नहीं कि वह किसने दिया था। स्मृति धुंधला गयी है। और वह टाई वाली फोटो भी नहीं दीख रही कम्प्यूटर में।
बहुत ग्लेमर लेस जीवन है अपना। मैं यह इस लिये कह रहा हूं क्यों कि कल मैने अखबार में कल खबर पढ़ी थी। इलाहाबाद में एक गगन चुम्बी कमर्शियल इमारत में बम ब्लॉस्ट की अफवाह के बाद उसमें से बाहर निकलते ढ़ेरों टाई पहने नौजवान लड़के लड़कियों की तस्वीर छपी थी उस खबर के साथ – और वे सब ड्रेस और टाई पहने थे। कितने स्मार्ट लग रहे थे। हम तो कभी स्मार्ट रहे ही नहीं जी!
प्लेन-प्लेन सी सादी जिन्दगी। ग्लैमर रहित। बिट्स पिलानी में किसी लड़की ने भाव नहीं दिया। जिन्दगी भी चल रही है; और जो भी शो-पानी है, सो तो पत्नीजी की कृपा से ही है।
पर एक टाई खरीदने – पहनने का मन हो रहा है। कित्ते की आती है टाई; जी!
रीता पाण्डेय की प्री-पब्लिश त्वरित टिप्पणी – क्या कहना चाहते हैं आप? क्या स्मार्ट लगना, रहना गलत है। क्या आप बताना चाहते हैं कि लोगों से अलग आपको केवल मुड़े तुड़े कपड़े चाहियें? उन नौजवानों का काम है, प्रोफेशन है। उसके अनुसार उनकी ड्रेस है। सरलता – सादगी का मतलब दरिद्र दीखना थोड़े ही होता है? अपने पास टाई न होने का नारा क्या दूसरे तरह की स्नॉबरी नहीं है?
Wednesday, September 24, 2008
μ - पोस्ट!
अमित माइक्रो ब्लॉगिंग की बात करते हैं।
यह रही मेरी माइक्रो ( μ) पोस्ट :
दिनकर जी की रश्मिरथी में कर्ण कृष्ण से पाला बदलने का अनुरोध नहीं मानता, पर अन्त में यह अनुरोध भी करता है कि उसके "जन्म का रहस्य युधिष्ठिर को न बता दिया जाये। अन्यथा युधिष्ठिर पाण्डवों का जीता राज्य मेरे कदमों में रख देंगे और मैं उसे दुर्योधन को दिये बिना न मानूंगा।"
कर्ण जटिल है, पर उसकी भावनायें किसकी तरफ हैं?
Tuesday, September 23, 2008
कुछ यादें
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बात सन १९६२-६३ की है। चीन के साथ युद्ध हुआ था। मेरे नानाजी (पं. देवनाथ धर दुबे) को देवरिया भेजा गया था कि वे वहां अपने पुलीस कर्मियों के साथ खुफिया तंत्र स्थापित और विकसित करें। देवरिया पूर्वांचल का पिछड़ा इलाका था। न बिजली और न पानी। अस्पताल और स्कूल सब का अभाव था। इसलिये वहां कोई पुलीस कर्मी जल्दी पोस्टिंग पर जाना नहीं चाहता था। खुफिया तंत्र के अभाव में देवरिया में चीनी घुसपैठ नेपाल के रास्ते आसानी से हो रही थी। पास में कुशीनगर होने के कारण बौद्ध लामाओं के वेश में चीनी जासूस आ रहे थे और देवरिया में कुछ स्थानीय लोग प्रश्रय और सुरक्षा प्रदान कर रहे थे।
उस समय मैं तीन चार साल की थी। मेरी समझ बस इतनी थी कि हमें सिनेमा हॉल में खूब फिल्में देखने को मिलती थीं; हालांकि किसी फिल्म की कहानी या नाम मुझे याद नहीं है। जो सिपाही हमें ले कर जाते थे, वे बड़े चौकन्ने रहते थे। फिल्म देखना उनकी ड्यूटी का अंग था। उनके अनुसार फिल्म के अन्त में जब “जन गण मन” के साथ तिरंगा फहरता था तो सब लोग खड़े हो जाते थे, पर कुछ लोग बैठे रहते थे और कुछ लोग अपमानजनक तरीके से पैर आगे की सीट पर फैला देते थे। सिपाही जी की नजर उन चीनी मूल के लोगों पर भी थी, जो झण्डे की तरफ थूकने का प्रयास करते थे।
उस समय आतंकवाद तो नहीं था, पर साम्प्रदायिक भावना जरूर रही होगी। वोट बैंक की राजनीति इतने वीभत्स रूप में नहीं थी। तब की एक घटना मुझे और याद आती है। आजमगढ़ में हल्की-फुल्की मारपीट हुई थी। नानाजी वहां पदस्थ थे। पुलीस के लाठी चार्ज में कुछ लोग घायल हुये थे। पर स्थिति को काबू में कर लिया गया था। इस घटना की सूचना स्थानीय प्रशासन ने लखनऊ भेजना उपयुक्त नहीं समझा होगा। और दिल्ली को सूचित करना तो दूर की बात थी। पर दूसरे दिन तड़के ४-५ बजे पाकिस्तान रेडियो से समाचार प्रसारित हुआ - “भारत में, आजमगढ़ में दंगा हो गया है और मुसलमानों का कत्ले-आम हो रहा है। पुलीस हिन्दुओं के साथ है।”
साठ के दशक में पुलीस के पास बढ़िया वायरलेस सेट नहीं थे। संचार के साधन आदमयुग के थे। ऐसे में इतनी त्वरित गति से पाकिस्तान तक सूचना का जाना आश्चर्यजनक था। दिल्ली-लखनऊ वालों के कान शायद इस लिये खड़े हुये। कई अधिकारी निलम्बित हुये। छानबीन हुई। कुछ आपत्तिजनक सामान मिले। आगे की बातें मुझे ज्यादा याद नहीं हैं।
अब जब टीवी पर पैनल डिस्कशन सुनती हूं तो कई बातें याद आ जाती हैं जो नानाजी अपने रिटायरमेण्ट के बाद सुना दिया करते थे (वैसे वे बड़े घाघ किस्म के आदमी थे – जल्दी कुछ उगलते नहीं थे)।
(नानाजी को दिवंगत हुये डेढ़ दशक हो गया। ऊपर का चित्र लगभग २२ वर्ष पहले का है।)
Monday, September 22, 2008
टेनी (डण्डी) मारने की कला
रविवार का दिन और सवेरे सवेरे रद्दी वाला रोका गया। घर की पिछले चार महीने की रद्दी बेचनी थी। पत्नीजी मुझे जाने कैसे इस बात में सक्षम मान रही थीं कि मैं उसके तोलने में टेनी मारने की जो हाथ की सफाई होती है, उसका तोड़ जानता हूं।
मैने भौतिक शास्त्र के मूल भूत नियमों के अनुसार वह तराजू की जिस भुजा में बाट रख कर रद्दीवाला तोल रहा था, उसमें आगे तोले जाने वाले अखबार रखने और बाट की जगह दूसरे भुजा में पहली बार तोले गये अखबार को बतौर बाट रखने को कहा।
यह आदेश सुन उस रद्दीवाले ने कहा – आप क्या कह रहे हैं? जैसा कहें वैसा तोल दूं। पर असली टेनी कैसे मारी जाती है, वह बताता हूं।
उसने हल्के से हाथ फिराऊ अन्दाज से एक भुजा दूसरे से छोटी कर दी। वह भुजा फ्री-मूविंग नहीं थी जो एक फलक्रम से नीचे लटक रही हो। उसने फिर कहा – अगर टेनी मारनी हो तो आप पकड़ न पायेंगे। पर आपने रेट पर मोल भाव नहीं किया है – सो मैं टेनी नहीं मारूंगा।
मैने उसे उसके अनुसार तोलने दिया। अन्तमें पुन: मैने पूछा – अच्छा बताओ कुछ टेनी मारी होगी या नहीं?
वह हंस कर बोला – नहीं। मारी भी होगी तो किलो में पचास-सौ ग्राम बराबर!
बन्दा मुझे पसन्द आया। नाम पूछा तो बोला – रामलाल। दिन भर में पच्चीस-तीस किलो रद्दी इकठ्ठी कर पाता है। उसने कहा कि एक किलो पर बारह आना/रुपया उसका बनता है। मैं यह मानता हूं कि यह बताने में भी उसने टेनी मारी होगी; पर फिर भी जो डाटा उसने बताया, उसे मॉडरेट भी कर लिया जाये तो भी बहुत ज्यादा नहीं कमाता होगा वह!
उद्धरण |
थामस एल फ्रीडमेन ने (अमरीकी अर्थव्यवस्था की चर्चा में) कहा:जॉर्ज डब्लू बुश ने कभी नहीं; एक बार भी नहीं; अमरीकी लोगों से कुछ मेहनत का काम करने को कहा। अगले राष्ट्रपति को यह लग्ज़री मिलने वाली नहीं। उन्हें हर आदमी को कुछ न कुछ कठिन करने को कहना ही होगा। |
Saturday, September 20, 2008
क्या सच है?
---------- एस ए आर गीलानी, दिल्ली विश्वविद्यालय के अध्यापक, जिन्हें २००१ के संसद के हमले में छोड़ दिया गया था, ने न्यायिक जांच की मांग करते हुये कहा - "इस इलाके के लोगों को बहुत समय से सताया गया है। यह नयी बात नहीं है। जब भी कुछ होता है, इस इलाके को मुस्लिम बहुल होने के कारण निशाना बनाती है पुलीस।" | --- सिफी न्यूज़ ---------- इन्स्पेक्टर मोहन | ।
Friday, September 19, 2008
सर्चने का नजरिया बदला!
@@ सर्चना = सर्च करना @@
मुझे एक दशक पहले की याद है। उस जमाने में इण्टरनेट एक्प्लोरर खड़खड़िया था। पॉप-अप विण्डो पटापट खोलता था। एक बन्द करो तो दूसरी खुल जाती थी। इस ब्राउजर की कमजोरी का नफा विशेषत: पॉर्नो साइट्स उठाती थीं। और कोई ब्राउजर टक्कर में थे नहीं।
बम्बई गया था मैं। एक साहब के चेम्बर में यूंही चला गया। उन्हें कम्प्यूटर बन्द करने का समय नहीं मिला। जो साइट वे देख रहे थे, उसे उन्हों नें तड़ से बन्द किया तो पट्ट से दूसरी विण्डो खुल गयी। उनकी हड़बड़ाहट में तमाशा हो गया। एक बन्द करें तो दो खुल जायें! सब देहयष्टि दिखाती तस्वीरें। वे झेंपे और मैं भी।
बाद में इण्टरनेट ब्राउजर सुधर गये। पॉप-अप विण्डो ब्लॉक करने लगे।
कल रिडिफ पर पढ़ा तो बड़ा सुकून मिला - पॉर्नोग्राफी अब सबसे ज्यादा सर्च की जाने वाली चीज नहीं रही इण्टरनेट पर (ऊपर रिडिफ की पेज का फोटो हाइपर लिंकित है)! एक दशक पहले इण्टरनेट पर बीस प्रतिशत सर्च पॉर्न की थी। अब वह घट कर दस प्रतिशत रह गयी है। अब सोशल नेटवर्किंग साइट्स ज्यादा आकर्षित कर रही हैं सर्च ट्रेफिक।
मैने अपने ब्लॉग के की-वर्ड सर्च भी देखे हैं - कुछ महीना पहले बहुत से सर्च भाभी, सेक्स, काम वासना आदि शब्दों से थे। अब इन शब्दों से नहीं वरन पशु विविधता, जनसंख्या, नेटवर्किंग, ऋग्वेद, अफीम, थानेदार साहब, भगवान, परशुराम, तिरुवल्लुवर, एनीमल, मैथिलीशरण, बुद्ध, हल्दी, भारतीय रेलवे... आदि शब्दों से लोग ब्लॉग पर पंहुच रहे हैं।
नजरिया बदल रहा है और लोग बदल रहे हैं। अब के जवान लोग तब के जवान लोगों से ज्यादा संयत हैं, ज्यादा शरीफ, ज्यादा मैच्योर!
कल प्रमेन्द्र प्रताप सिंह महाशक्ति और अरुण अरोड़ा पंगेबाज मिले। प्रमेन्द्र किसी कोण से विशालकाय और अरुण किसी कोण से खुन्दकिया-नकचढ़े नहीं थे। ये लोग ब्लॉग जगत में गलत आइकॉन लिये घूम रहे हैं।
बड़े भले अच्छे और प्रिय लोग हैं ये।
Thursday, September 18, 2008
आइये अपने मुखौटे भंजित करें हम!
मुखौटा माने फसाड (facade - एक नकली या बनावटी पक्ष या प्रभाव)। लोगों के समक्ष हम सज्जन लगना चाहते हैं। मन में कायरता के भाव होने पर भी हम अपने को शेर दिखाते हैं। अज्ञ या अल्पज्ञ होने के बावजूद भी अपने को सर्वज्ञाता प्रदर्शित करने का स्वांग रचते हैं। यह जो भी हम अपने विषय में चाहते हैं, उसे सयास दिखाने में अपनी ऊर्जा लगाते/क्षरित करते हैं।
मुखौटे हमें आगे सीखने में भी बहुत बड़े बाधक हैं। हम अपने से छोटे के समक्ष अपना अज्ञान जाहिर कर उससे सिखाने का अनुरोध नहीं कर सकते। अपने फसाड को बतैर छतरी प्रयोग करते हैं - जो धूप से तो बचाती है पर जरूरी विटामिन डी की खुराक भी हमसे रोकती है।
जब मैं अपने व्यवहार पर मनन करता हूं, तो कई मुखौटे दीखते हैं। इन सब को चिन्हित कर एक एक को भंजित करना शायद आत्मविकास का तरीका हो। पर यह भी लगता है कि सारे मुखौटे एक साथ नहीं तोड़े जा सकते। एक साथ कई फ्रण्ट खोलने पर ऊर्जा का क्षरण अनिवार्य है। अपने मिथकों को एक एक कर तोड़ना है।
फिर लगता है कि मुखौटे आइसोलेशन में नहीं हैं। एक मुखौटे को भंजित करने की प्रक्रिया दूसरे मुखौटों को भुरभुरा करती जाती है। आप एक फ्रण्ट पर विजय की ओर अग्रसर होते हैं तो अन्य क्षेत्रों में भी स्वत: प्रगति करते हैं।
जब मैं कहता हूं कि ब्लॉगरी मेरा पर्सोना बदल रही है; तो उसका अर्थ यह होता है कि वह मेरा कोई न कोई पक्ष उभार रही है, कोई न कोई मुखौटा तोड़ रही है। आप इतना इन्टेण्सली अपने को वैसे अभिव्यक्त नहीं करते। ब्लॉगिंग वह प्लेटफार्म उपलब्ध कराता है। और अभिव्यक्ति के नाम पर झूठ का सोचा समझा प्रपंच नहीं फैलाया जा सकता। अत: मुखौटा-भंजन के लिये सतत मनन और सतत लेखन बहुत काम की चीज लगते है।
आइये अपने मुखौटे भंजित करें हम!
मैं मुखौटा भंजन की बात कर रहा हूं। पर उससे कहीं बेहतर; कल पण्डित शिवकुमार मिश्र ने मुझमें प्रचण्ड ईर्ष्या भरने वाला उत्तमकोटीय सटायर लिखा - "कबीर का ई-मेज?" भैया, अइसन इमेज गई चोर कै; जौन आप को आपका नेचुरल सेल्फ न रहने दे इस ब्लॉग जगत में! और कोई महान बिना मुखौटे के रहा, जिया और अभी भी प्रेरणा दे रहा है; तो वह कबीर से बेहतर कौन हो सकता है!?!
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Wednesday, September 17, 2008
चुनाव, त्यौहार, बाढ़ और आलू
मैं तो कल की पोस्ट - "आलू कहां गया?" की टिप्पणियों में कनफ्यूज़ के रास्ते फ्यूज़ होता गया।
समीर लाल जी ने ओपनिंग शॉट मारा - "...मगर इतना जानता हूँ कि अर्थशास्त्र में प्राइजिंग की डिमांड सप्लाई थ्योरी अपना मायने खो चुकी है और डिमांड और सप्लाई की जगह प्राइज़ निर्धारण में सट्टे बजारी ने ले ली है।"
आभा जी ने आशंका जताई कि आलू और अन्य खाद्य सामग्री चूहे (?) खा जा रहे होंगे।
अशोक पाण्डेय का कथन था कि किसान के पास आलू नहीं है। जो है वो कोल्ड स्टोरेज में व्यापारियों के चंगुल में है। वह दशहरे के समय तक निकलेगा मेरे रेक लदान के लिये। दशहरे तक भी हो तो क्या फर्क पड़ता है। थोड़ा ही समय है। लदान के क्रेडिट लेने में जो शो बाजी होगी, उसके लिये मैं अपने को तैयार कर सकता हूं! यह भी कह सकता हूं कि उसके लिये मैने बड़ा विश्लेशण, बड़ी मार्केटिंग की! :-)
पर असली शॉट मारा शिव कुमार मिश्र ने। उनकी टिप्पणी यथावत दे रहा हूं -
चुनाव के साल में प्रवेश करने की तैयारी है. आलू, प्याज वगैरह की गिनती वैसे भी चुनावी सब्जियों में होती है. ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि खाने वालों को अच्छे आलुओं का चुनाव करना पड़ता है और नेता-व्यापारी-जमाखोर नेक्सस को यह चुनाव करना पड़ता है कि आलू की कमी बनाई जाए या नहीं.
वैसे अशोक जी ने लिखा है कि दशहरे का इंतजार करना चाहिए लेकिन मुझे लगता है कि जमाखोरी चालू है. जमाखोरी वाली बात को कमोडिटी फ्यूचर्स में लगे पैसे और बिहार में आई भयंकर बाढ़ से भी जोड़कर देखा जाना चाहिए. आलू उत्तर प्रदेश के उन क्षेत्रों से अगर नहीं निकला है, जिनकी बात आपने कही है तो निश्चिंत रहें, समय देखकर इसे निकालने का स्क्रीनप्ले लिखा जा रहा होगा. अगर आलू का निर्यात होना ही था तो रेल से ही होता. इसलिए भी क्योंकि पिछले कई महीनों में डीजल और पेट्रोल की कीमतों में बढोतरी हुई है, और ऐसे में आलू को सड़क के रास्ते बाहर ले जाना घाटे का सौदा साबित होता.
मेरा मानना है कि आलू अभी भी उत्तर प्रदेश में ही है. (उसका निकलना) त्यौहार, बाढ़ और कमोडिटी में लगाये गए पैसे कहाँ से आए हैं, उसपर निर्भर करेगा.
ऊपर बोल्ड करना और कोष्ठक में लिखना मेरे द्वारा हुआ है। मुझे पक्का यकीन नहीं है कि आलू को लेकर जमाखोरी और कमॉडिटी फ्यूचर्स का जबरदस्त कारोबार हुआ/हो रहा है। पर इतना जरूर है कि आलू उत्तरप्रदेश के कोल्डस्टोरेज में पड़ा है तो बेवकूफी या अक्षमता के चलते शायद ही हो। उसका चुनाव/बाढ़ जैसी आपदा और आगामी त्यौहारों के दौरान मांग का दोहन करने की वृत्ति के चलते होना ज्यादा सम्भव है। और इस खेल में पैसा कहां से लगा है - यह अपने आप में एक गोरखधन्धा होगा; जिसे हम जैसे अपनी महीने की तनख्वाह गिनने वाले और इन्क्रीमेण्ट/प्रॉविडेण्ट फण्ड तक अपना गणित सीमित रखने वाले नहीं समझ सकते।
चलो मित्र, कोई कोई क्षेत्र ऐसे हैं जहां हमारी मानसिक हलचल परिधि में यूं ही इर्द-गिर्द घूमती है। अपनी पढ़ाई और सोचने की क्षमता की पंगुता समझ आती है। अब इस उम्र में कितना सीख पायेंगे!
यह तो यकीन हो गया कि सामान्य विषय से इतर लिखने पर भी ज्ञानवर्धक टिप्पणियां सम्भव हैं। लोगों को पैराडाइम (paradigm) शिफ्ट करने में शायद कुछ समय लगे; बस!
भारत में चुनाव उत्तरोत्तर खर्चीले होते गये हैं। उनके लिये कुछ या काफी हद तक पैसा कमॉडिटी मार्केट के मैनीप्युलेशन से आता है। आपकी सहमति है क्या इस सोच से!?! |
Tuesday, September 16, 2008
आलू कहां गया?
भाई लोग गुटबाजी को ले कर परेशान हैं और मैं आलू को ले कर।
इस साल कानपुर-फर्रुखाबाद-आगरा पट्टी में बम्पर फसल हुई थी आलू की। सामान्यत: १०० लाख टन से बढ़ कर १४० लाख टन की। सारे उत्तर प्रदेश के कोल्ड-स्टोरेज फुल थे। आस पास के राज्यों से भी कोल्ड-स्टोरेज क्षमता की दरकार थी इस आलू स्टोरेज के लिये।
मेरे जिम्मे उत्तर-मध्य रेलवे का माल यातायात प्रबन्धन आता है। उत्तर-मध्य रेलवे पर यह कानपुर-फर्रुखाबाद-मैनपुरी-आगरा पट्टी भी आती है, जिससे पहले भी आलू का रेक लदान होता रहा है - बम्बई और नेपाल को निर्यात के लिये और पूर्वोत्तर राज्यों के अन्तर-राज्यीय उपभोक्ताओं के लिये भी। इस साल भी मैं इस लदान की अपेक्षा कर रहा था। पर पता नहीं क्या हुआ है - आलू का प्रान्त से थोक बहिर्गमन ही नहीं हो रहा।
ब्लॉग पर आलू-भाव विशेषज्ञ आलोक पुराणिक, खेती-बाड़ी वाले अशोक पाण्डेय या नये आये ब्लॉगर मित्रगण (जो अभी गुटबाजी के चक्कर में नहीं पड़े हैं! और निस्वार्थ भाव से इस प्रकार के विषय पर भी कह सकते हैं।) क्या बता सकते हैं कि मेरे हिस्से का आलू माल परिवहन कहां गायब हो गया? क्या और जगह भी बम्पर फसल हुई है और उससे रेट इतने चौपट हो गये हैं कि आलू निर्यात फायदे का सौदा नहीं रहा?
क्या उत्तर प्रदेश में अब लोग आलू ज्यादा खाने लगे हैं? या आज आलू बेचने की बजाय सड़ाना ज्यादा कॉस्ट इफेक्टिव है?
(यह पोस्ट लिखने का ध्येय यह प्रोब करना भी है कि सामान्य से इतर विषय भी स्वीकार्य हैं ब्लॉग पर!)
Monday, September 15, 2008
शुगर फ्री सच की दरकार
सच बोलो; मीठा बोलो।
बहुत सच बोला जाना लगा है। उदात्त सोच के लोग हैं। सच ठेले दे रहे हैं। वही सच दे रहे हैं जो उन्हें प्रिय हो। खूब मीठे की सरिता बह रही है। करुणा भी है तो मधु युक्त। डायबिटीज बढ़ती जा रही है देश में।
ज्यादा बुद्धिवादी सच ठिला तो सारा देश डायबिटिक हो जायेगा। कड़वा बोला नहीं जा सकता। कड़वा माने आरएसएस ब्राण्ड मिर्च। लिहाजा शुगर फ्री सच की दरकार है।
हेहेहेहे करो। प्रशस्तिगायन करो बुद्धिमानी का। फट रहे हों सीरियल बम, पर सिमी का रोल क्वेश्चन न करो। कडुआहट न घोलो गंगी-जमुनी संस्कृति में। मत पूछो यह संस्कृति क्या है?!
कौन है ये माणस जो आजमगढ़ से "निर्दोष" लोगों को पकड़ कर ले जा रहा है गुजरात, हवाई जहाज में? रोको भाई। ऐसे काम तो देश की हार्मोनी बिगाड़ देंगे। जल्दी लाओ शुगर फ्री का कंसाइनमेण्ट।
कोई पैसा नहीं आ रहा तेल का इन पुनीत कर्मों में। कोई फर्जी नोटों की पम्पिंग नहीं हो रही। हो भी रही है तो नगण्य। और कौन कर रहा है - क्या प्रमाण है? बस, आतंक का भूत बना कर प्रजातंत्र की मिठास कम करने का प्रयास हो रहा है
यह कौन अधम है जो अप्रिय बात कह अनवैरीफाइड पोटेन्सी की मिर्च झोंक रहा है भद्रजनों की आंखों में। जानता नहीं कि वे डायबिटीज के साथ साथ मायोपिया से भी पीड़ित हैं। चेहरे देखने से लगता है कि कोष्ठबद्धता भी है। इन साभ्रान्तों को शुगर फ्री की मिठास चाहिये। ईसबगोल की टेलीफोन ब्राण्ड पुड़िया या नेचर क्योर भी हैण्डी होनी चाहिये।
और यह कौन है जो लॉजिक, क्रूर रुक्षता और कड़वाहट ठेलने में रम रहा है। क्या ठेलने का यत्न कर रहा है यह, कैसी है इसकी प्रतिबद्धता! शुगरफ्री आधुनिक मकरध्वज (आयुर्वेदिक अमृत) है। शुगर फ्री वाला सच बांटो भाई। देसी लोगों में बांटना हो तो शुगर फ्री युक्त पंजीरी बांटो। राब-चोटा-गुड़-शक्कर के (अ)स्वास्थ्यकर और आमतौर पर जीभ पर चढ़े स्वाद से जनता को मुक्ति दिलाओ भाई!
माना कि मधु है तो मधुमेह है। पर शुगर फ्री से रिप्लेस कर लो न!
अनूप शुक्ल मेरे विषय में कहते हैं - ढाक के तीन पात। अरे ढाक के तीन पात को कबके पीतवर्ण हो कर भूंजे की भरसाइ में जा चुके। अब जो है उसे अन्य शब्द दें। चाहे तो कहें तीन शाख वाला कैक्टाई (नागफनी)! |
Sunday, September 14, 2008
हिन्दी का मेरा डेढ़ साल का बहीखाता
मेरा डेढ़ साल के ब्लॉग पर हिन्दी लेखन और हिन्दी में सोचने-पढ़ने-समझने का बहीखाता यह है:
धनात्मक | ॠणात्मक |
हिन्दी में लिखना चुनौतीपूर्ण और अच्छा लगता है। | हिन्दी में लोग बहुत जूतमपैजार करते हैं। |
हिन्दी और देशज/हिंगलिश के शब्द बनाना भले ही ब्लॉगीय हिन्दी हो, मजेदार प्रयोग है। | उपयुक्त शब्द नहीं मिलते। समय खोटा होता है और कभी कभी विचार गायब हो जाते हैं। |
आस-पास में कुछ लोग बतौर हिन्दी ब्लॉगर पहचानने लगे हैं। | पर वे लोग ब्लॉग पढ़ते नहीं। |
ब्लॉगजगत में नियमित लेखन के कारण कुछ अलग प्रकार के लोग जानने लगे हैं। | अलग प्रकार के लोगों में अलग-अलग प्रकार के लोग हैं। |
नये आयाम मिले हैं व्यक्तित्व को। | चुक जाने का भय यदा कदा जोर मारता है - जिसे मौजियत में सुधीजन टंकी पर चढ़ना कहते हैं! |
इसी बहाने कुछ साहित्य जबरी पढ़ा है; पर पढ़ने पर अच्छा लगा। | साहित्यवादियों की ब्लॉगजगत में नाकघुसेड़ जरा भी नहीं सुहाती! |
ब्लॉगजगत में लोगों से मैत्री बड़ी कैलिडोस्कोपिक है। | यह कैलिडोस्कोप बहुधा ब्लैक-एण्ड-ह्वाइट हो जाता है। उत्तरोत्तर लोग टाइप्ड होते जाते दीखते हैं। जैसे कि ब्लॉगिंग की मौज कम, एक विचारधारा को डिफेण्ड करना मूल ध्येय हो। |
हिन्दी से कुछ लोग जेनुइन प्रेम करते हैं। कल तक भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में कार्यरत लोग हिन्दी में इण्टरनेट पर लिख कर बहुत एनरिच कर रहे हैं इस भाषा को। और लोगों की ऊर्जा देख आश्चर्य भी होता है, हर्ष भी। | कुछ लोग महन्त बनने का प्रयास करते हैं। |
मन की खुराफात पोस्ट में उतार देना तनाव हल्का करता है। | ब्लॉगिंग में रेगुलर रहने का तनाव हो गया है! |
पोस्टों में विविधता बढ़ रही है। | विशेषज्ञता वाले लेखन को अब भी पाठक नहीं मिलते। |
Saturday, September 13, 2008
टिपेरतंत्र के चारण
देश में प्रजातंत्र है। हिन्दी ब्लॉगिंग में टिपेरतंत्र!
वोट की कीमत है। टिप्पणी की कीमत है। टिप्पणी भिक्षुक टिप्पणी नहीं पाता - दाता की जै करता है, पर उपेक्षित रहता है।
प्रजातंत्र में महत्वपूर्ण हैं चाटुकार और चारण। वन्दीजन। नेता के आजू और बाजू रहते हैं चारण और वन्दीजन। नेता स्वयं भी किसी नेता के आजू-बाजू चारणगिरी करता है। टिपेरतंत्र में चारण का काम करते हैं नित्य टिपेरे। डेढ़ गज की तारतम्य रहित पोस्ट हो या टुन्नी सी छटंकी कविता। एक लाइन में १० स्पैलिंग मिस्टेकयुक्त गद्य हो या आत्मविज्ञापनीय चित्र। टिपेरतंत्र के चारण सम भाव से वन्दन करते जाते हैं। प्रशस्तिगायन के शब्द सामवेद से कबाड़ने का उद्यम करने की जरूरत नहीं। हिन्दी-ब्लॉगवेद के अंतिम भाग(टिप्पणियों) में यत्र-तत्र-सर्वत्र छितरे पड़े हैं ये श्लोक। श्रुतियों की तरह रटन की भी आवश्यकता नहीं। कट-पेस्टीय तकनीक का यंत्र सुविधा के लिये उपलब्ध है।
पोस्ट-लेखन में कबाड़योग पर आपत्तियां हैं (किसी की पोस्ट फुल या पार्ट में कबाड़ो तो वह जोर से नरियाता/चोंकरता/चिल्लाता है)। उसके हठयोगीय आसन कठिन भी हैं और हानिकारक भी। साख के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। पर टिपेरपन्थी कबाड़योग, तंत्र मार्ग की तरह चमत्कारी है। बहुधा आपको पोस्ट पढ़ने की जरूरत नहीं। बस टिप्पणी करने में धैर्य रखें। चार-पांच टिप्पणियां हो जाने दें। फिर ऊपर की टिप्पणियां स्वत: आपको उपयुक्त टिप्पणी सुझा देंगी। टिपेरतंत्रीय चारण को टिपेरपंथी कबाड़योग में भी हाथ अजमाना चाहिये! |
मित्र; हिन्दी ब्लॉगजगत के टिपेरतन्त्र ने हमें टिपेरतंत्रीय चारण बना कर रख दिया है। कब जायेगा यह टिपेरतंत्र?!। कब आयेगी राजशाही!
Friday, September 12, 2008
दुर्योधन इस युग में आया तो विजयी होगा क्या?
शिवकुमार मिश्र की नयी दुर्योधन की डायरी वाली पोस्ट कल से परेशान कर रही है। और बहुत से टिप्पणी करने वालों ने वही प्रतिध्वनित भी किया है। दुर्योधन वर्तमान युग के हिसाब से घटनाओं का जो विश्लेषण कर रहा है और जो रिस्पॉन्स की सम्भावनायें प्रस्तुत कर रहा है - उसके अनुसार पाण्डव कूटनीति में कहीं पास ठहरते ही नहीं प्रतीत होते।
पर हम यह प्रिमाइस (premise - तर्क-आधार) मान कर चल रहे हैं कि पाण्डवों के और हृषीकेश के रिस्पॉन्स वही रहेंगे जो महाभारत कालीन थे। शायद आज कृष्ण आयें तो एक नये प्रकार का कूटनीति रोल-माडल प्रस्तुत करें। शायद पाण्डव धर्म के नारे के साथ बार बार टंकी पर न चढ़ें, और नये प्रकार से अपने पत्ते खेलें।
मेरे पास शिव की स्टायर-लेखन कला नहीं है। पर मैं कृष्ण-पाण्डव-द्रौपदी को आधुनिक युग में डायरी लिखते देखना चाहूंगा और यह नहीं चाहूंगा कि दुर्योधन इस युग की परिस्थितियों में हीरोत्व कॉर्नर कर ले जाये।
Thursday, September 11, 2008
कॉलेज के दौर का विमोह!
महेन ने एक टिप्पणी की है बिगबैंग का प्रलय-हल्ला... वाली पोस्ट पर:
ऐसी ही अफ़वाह '96 में भी उड़ी थी कि उस साल भारत-पाकिस्तान के बीच परमाणु युद्ध के कारण धरती नष्ट हो जाएगी। इसका आधार नास्त्रेदामस की भविष्यवाणियाँ थीं। कालेज का दौर था तो मैं सोचा करता था कि क्लास की किस लड़की को बचाने के लिये भागूँगा। मगर हाय रे किस्मत, ऐसा कुछ हुआ ही नहीं।उस दौर से गुजरता हर नौजवान रूमानियत के विमोह (infatuation) का एक मजेदार शलभ-जाल बुनता है। हमने भी बुना था। उसी की पंक्तियां याद आ गयी हैं -
अनी मद धनी नारी का अवलोकन युग नारी का कर ले जीवन - युवा पुरुष तन वह गर्वित तन खड़ी है हिम आच्छादित मेघ विचुम्बित कंचनजंघा वह बिखेरती स्नेहिल मदिरा अस्थिर पग चलती डगमग है वह भोली कुछ पागल तक |
वह अण्ट-शण्ट लिखने का दौर डायरियों में कुछ बचा होगा, अगर दीमकों मे खत्म न कर डाला हो! यह तो याद आ गया महेन जी की टिप्पणी के चलते, सो टपका दिया पोस्ट पर, यद्यपि तथाकथित लम्बी कविता की आगे की बहुत सी पंक्तियां याद नहीं हैं। वह टाइम-स्पॉन ही कुछ सालों का था - छोटा सा। अन-ईवेण्टफुल!
अब तो कतरा भर भी रूमानियत नहीं बची है!
Wednesday, September 10, 2008
प्रगति का लेमनचूस
साल भर पहले मैने पोस्ट लिखी थी - पवनसुत स्टेशनरी मार्ट। इस साल में पवन यादव ने अपना बिजनेस डाइवर्सीफाई किया है। अब वह सवेरे अखबार बेचने लगा है। मेरा अखबार वाला डिफाल्टर है। उसके लिये अंग्रेजी के सभी अखबार एक समान हैं। कोई भी ठेल जाता है। इसी तरह गुलाबी पन्ने वाला कोई भी अखबार इण्टरचेंजेबल है उसके कोड ऑफ कण्डक्ट में! कभी कभी वह अखबार नहीं भी देता। मेरी अम्मा जी ने एक बार पूछा कि कल अखबार क्यों नहीं दिया, तो अखबार वाला बोला - "माताजी, कभी कभी हमें भी तो छुट्टी मिलनी चाहिये!"
लिहाजा मैने पवन यादव से कहा कि वह मुझे अंग्रेजी का अखबार दे दिया करे। पवन यादव ने उस एक दिन तो अखबार दे दिया, पर बाद में मना कर दिया। अखबार वालों के घर बंटे हैं। एक अखबार वाला दूसरे के ग्राहक-घर पर एंक्रोच नहीं करता। इस नियम का पालन पवन यादव नें किया। इसी नियम के तहद मैं रद्दी अखबार सेवा पाने को अभिशप्त हूं। अब पवन सुत ने आश्वत किया है कि वह मेरे अखबार वाले का बिजनेस ओवरटेक करने वाला है। इसके लिये वह मेरे अखबार वाले को एक नियत पगड़ी रकम देगा। अगले महीने के प्रारम्भ में यह टेक-ओवर होने जा रहा है।
अखबार और दूध जैसी चीज भी आप मन माफिक न ले पाये। अगर पोस्ट से कोई पत्रिका-मैगजीन मंगायें तो आपको पहला अंक मिलता है - वी.पी.पी छुड़ाने वाला। उसके बाद के अंक डाकिये की व्यक्तिगत सम्पत्ति होते हैं। अमूल तीन प्रकार के दूध निकालता है - पर यहां पूरा बाजार घूम जाइये, सबसे सस्ता वाला टोण्ड मिल्क कहीं नहीं मिलेगा। शायद उसमें रीटेलर का मार्जिन सबसे कम है सो कोई रिटेलर रखता ही नहीं।
आपकी जिन्दगी के छोटे छोटे हिस्से छुद्र मफिया और छुद्र चिरकुटई के हाथ बन्धक हैं यहां यूपोरियन वातावरण में। खराब सर्विसेज पाने को आप शापित हैं। चूस लो आप प्रगति का लेमनचूस।
Tuesday, September 9, 2008
बिगबैंग का प्रलय-हल्ला और शिवकुटी
मेरे घर व आसपास में रविवार से सनसनी है कि दस सितम्बर को प्रलय है। किसी टीवी ने खबर ठेली है। कहीं कोई मशीन बनी है जो धरती के नीचे (?) इतनी ऊर्जा बनायेगी कि अगर कण्ट्रोल नहीं हुआ तो प्रलय हो जायेगा। मैने टीवी नहीं देखा तो फण्डा समझ नहीं आया। फिर इण्टरनेट न्यूज सर्च से मामला फरियाया।
फ्रांस-स्विस सरहद पर १७ मील लम्बी सुरंग में नाभिकीय पार्टीकल स्मैशिंग प्रयोग होगा। उससे नयी विमाओं, ब्लैक होल, हिग्स बोसॉन आदि के बारें में ज्ञान और असीम जानकारी मिलेगी। इस पर दस बिलियन डालर का खर्च आयेगा। यह यूएसए टुडे में है।
यह खबर जेनेवा से है। वहां की सी.ई.आर.एन. लैब यह प्रयोग कर रही है। साठ हजार कम्प्यूटर इस प्रयोग से मिले डाटा का विश्लेषण करेंगे। यह ग्रिडकम्प्यूटिंग में भी सबसे बड़ा प्रयोग होगा।
द हिन्दू में लंदन डेटलाइन से खबर है कि उन वैज्ञानिकों को हत्या की धमकियां मिली हैं जो यह प्रयोग कर रहे हैं; क्योंकि "अगर बिगबैंग के बाद की दशा की पुन: रचना हुई तो प्रलय आ सकती है!"
यह तो हुई खबर की बात। अब मेरे घर और घर के आसपास जो हुआ वह मेरी पत्नीजी की कलम से:
ट्यूब खाली हो रही हो या नहीं, पत्नीजी चाहती हैं ब्लॉग पर गतिविधि रहे। लिहाजा मेरे दफ्तर से घर आने के पहले उन्होंने यह लिख कर रखा था कि मैं पोस्ट बनाने से न बच सकूं?!
Monday, September 8, 2008
आप अपनी ट्यूब कैसे फुल रखते हैं, जी?
इस ब्लॉगजगत में कई लोगों को हैली कॉमेट की तरह चमकते और फिर फेड-आउट होते देखा है। और फेड आउट में एक दो जर्क हो सकते हैं पर फिर मौन आ ही जाता है। कुछ ऐसे कि टूथपेस्ट की ट्यूब अंतत: खाली हो जाये!
अपने से मैं पूंछता हूं - मिस्टर ज्ञानदत्त, तुम्हारी ट्यूब भी खलिया रही है क्या? और जवाब सही साट नहीं मिलता। अलमारी में इत्ती किताबें; टीप कर ठेला जाये तो भी लम्बे समय तक खोटी चवन्नी चलाई जा सकती है। फिर रेलवे का काम धाम; मोबाइल का कैमरा, पंकज अवधिया/गोपालकृष्ण विश्वनाथ/रीता पाण्डेय, आस-पड़ोस, भरतलाल, रोज के अखबार-मैगजीनें और खुराफात में सोचता दिमाग। ये सब ब्लॉग पर नहीं जायेगा तो कहां ठिलायेगा?
पत्नीजी शायद इसी से आशंकित हैं कि ब्लॉग पर ठेलना बंद करने पर अन्तत: घर की बातों में फिन्न निकालने लगूंगा। इस लिये वे रोज प्रेरित करती हैं कि लिखो। पर रोज रोज लिखना भी बोरियत बन रहा है जी!
लगता है ट्यूब खाली हो रही है। और दुनियां में सबसे कठिन काम है - एक खाली ट्यूब में फिर से पेस्ट भर देना! आपको आता है क्या?! दिस क्वैश्चन इज ओपन टू ऑल लिख्खाड़ ब्लॉगर्स ऑफ हिन्दी (यह प्रश्न हिन्दी के सभी लिख्खाड़ ब्लॉगर्स के लिये खुल्ला है)!
अभी जीतेन्द्र चौधरी अपने ब्लॉग पर बतौर ब्लॉगर अपनी चौथी वर्षगांठ अनाउन्स कर गये हैं।
तत्पश्चात अनूप शुक्ल भी अपने चार साला संस्मरण दे गये हैं। वे लोग बतायें कि उनकी ट्यूब फुल कैसे भरी है और बीच-बीच में अपनी ट्यूब उन्होंने कैसे भरी/भरवाई?!
खैर, मेरे बारे में खुश होने वाले अभी न खुश हो लें कि इस बन्दे की ट्यूब खल्लास हुयी - बहुत चांय-चांय करता था। हो सकता है कि मेरा सवाल ही गलत हो ट्यूब खाली होने और भरने के बारे में - ब्लॉगिंग रचनात्मकता की ट्यूब से एनॉलॉजी (सादृश्य, अनुरूपता) ही गलत हो। पर फिलहाल तो यह मन में बात आ रही है जो मैं यथावत आपके समक्ष रख रहा हूं।
500 से ज्यादा पोस्टें लिखना एक जिद के तहद था कि तथाकथित विद्वानों के बीच इस विधा में रह कर देख लिया जाये। वह विद्वता तो अंतत छल निकली। पर इस प्रक्रिया में अनेक अच्छे लोगों से परिचय हुआ। अच्छे और रचनात्मक - भले ही उनमें से कोई सतत पंगेबाजी का आवरण ही क्यों न पहने हो! मैं कोई नाम लेने और कोई छोड़ने की बात नहीं करना चाहता। सब बहुत अच्छे है - वे सब जो सयास इण्टेलेक्चुअल पोज़ नहीं करते! हां; निस्वार्थ और मुक्त-हस्त टिप्पणी करने वाले दो सज्जनों के नाम अवश्य लेना चाहूंगा। श्री गोपालकृष्ण विश्वनाथ - मेरे पिलानी के सीनियर (और मेरी पोस्ट में अपने सप्लीमेण्ट्री लेखन से योग देने वाले); और ड़ा. अमर कुमार - मुझे कुछ ज्यादा ही सम्मान देने वाले! |
कोसी पर बहुत लोग बहुत प्रकार से लिख रहे हैं। बहुत कोसा भी जा रहा है सरकार की अक्षमता को। पर सदियों से कोसी अपना रास्ता बदलती रही है। इस बार कस कर पलटी है। कहां है इस पलट को नाथने का तरीका? कहां है वह क्रियेटिविटी? सरकारों-देशों की राजनीति में बिलाई है? जितना खर्चा राहत सहायता में होता है या पर्यावरण के हर्जाने में जाता है, उसी में काम बन सकता है अगर रचनात्मकता हो।
कोसी के शाप का दुख मिटाया जा सकता है इनोवेशन (innovation) से।
(चित्र विकीपेडिया से)
Friday, September 5, 2008
मास्टर नाना
यह पोस्ट श्रीमती रीता पाण्डेय (मेरी पत्नी) ने लिखी है। मैं उसे जस का तस प्रस्तुत कर रहा हूं:
मास्टर नाना थे मेरे नाना जी के बड़े भाई। कुल तीन भाई थे - पं. रामनाथ धर दुबे (मास्टर नाना), पं. सोम नाथ धर दुबे (स्वामी नाना) व पं. देव नाथ धर दुबे (दारोगा जी, जो डी.एस.पी. बन रिटायर हुये - मेरे नाना जी)। नानाजी लोग एक बड़े जम्मींदार परिवार से सम्बन्ध रखते थे। मास्टर नाना अपनी पीढ़ी के सबसे बड़े लड़के थे - सर्वथा योग्य और सबसे बड़े होने लायक। वे जम्मींदारी के कर्तव्यों के साथ साथ अपनी पढ़ाई भी पूरी मेहनत से करते थे। मेरी नानीजी ने बताया था कि वे पूरे इलाके में पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिन्दी साहित्य में एम.ए. किया था। परिवार को इसपर बहुत गर्व था।
न जाने किस घड़ी में उन्होंने बनारस के एक स्कूल में अध्यापकी की अर्जी दे दी। नौकरी तो मिलनी ही थी, सो मिल गयी। पर घर में बड़ा कोहराम मचा - "सरकारी गुलामी करेगा, दूसरों के टुकड़ों पर जियेगा, अपना काम नहीं करते बनता, आदि।" पर मास्टर नाना ने सबको बड़े धैर्य से समझाया कि शिक्षक की नौकरी है। उस समय शिक्षक की समाज में बहुत इज्जत थी। पारिवारिक विरोध धीरे-धीरे समाप्त हो गया। नानीजी बताती थीं कि मास्टर नाना ने ४० रुपये से नौकरी प्रारम्भ की और और ४००० रुपये पर रिटायर हुये। पता नहीं यह तुकबन्दी थी या सच्चाई। पर यह जरूर है कि उनकी स्थिति सम्मानजनक अवश्य रही होगी।
मास्टर नाना को मैने हमेशा लाल रंग के खादी के कुर्ता, सफेद धोती और गांधी टोपी पहने देखा था। वे और उनके बच्चे बहुत सम्पन्न थे पर मैने उन्हे हमेशा साइकल की सवारी करते देखा। रोज गंगापुर से बनारस और बनारस से गंगापुर साइकल से आते जाते थे। उनकी दिनचर्या बड़ी आकर्षक थी। सवेरे त्रिफला के पानी से आंख धोते। नाक साफ कर एक ग्लास पानी नाक से पीते। अप्ने हाथ से दातुन तोड़ कर दांत साफ करते। तांबे के घड़े को अपने हांथ से मांजते और कुंये से पानी निकाल शिवाला धोते। नहाने और पूजा करने के बाद एक घड़ा जल अपने पीने के लिये इन्दारा से निकाल कर रखते। कहते थे कि तांबा पानी को फिल्टर करता है।
मास्टर नाना के पास बोर्ड की कापियां जांचने को आती थीं। वे उन्हे बिना पारिश्रमिक के जांचते थे। नयी पीढ़ी के लोग उनके इस कार्य को मूर्खता कहते थे। मुझे याद है कि श्रीमती इन्दिरा गांधी ने अब स्वतन्त्रता सेनानियों को पेंशन देना प्रारम्भ किया था, तब मास्टर नाना ने उसे अस्वीकार कर दिया था। सन बयालीस के आन्दोलन में मेरे तीनों नाना और उनके दो चाचा लोग कई महीने जेल में थे। उसका पूरा रिकार्ड भी है। पर मास्टर नाना ने कहा कि जेल वे अपनी मर्जी से गये थे। ईनाम ही लेना होता तो अंग्रेज सरकार से माफी मांग कर पा लिये होते। यह सरकार उसका क्या मोल लगायेगी! लोगों ने फिर एलान किया कि मास्टर साहब सठिया गये हैं।
मास्टर नाना कई काम इस प्रकार के करते थे जो सामान्य समझ में पागलपन थे। मेरी मां मेरे नाना-नानी की इकलौती संतान हैं। लड़का न होना उस समय एक सामाजिक कलंक माना जाता था। इस आशय की किसी बुजुर्ग महिला की मेरी नानी के प्रति की टिप्पणी पर मास्टर नाना भड़क गये थे। घर में तब तक खाना नहीं बना जब तक उस महिला ने मेरी नानी से माफी न मांग ली। इस तरह कुछ महिलाओं का मत था कि गणेश चौथ की पूजा केवल लड़के के भले के लिये की जाती है। मास्टर नाना ने यह एलान किया कि यह पूजा लड़कियों के लिये भी की जाये और मेरी नानी यह पूजा अवश्य करें!
इस समय मेरे तीनो नाना-नानी दुनियां से जा चुके हैं। अब उनकी याद में मास्टर नाना सबसे विलक्षण लगते हैं। मेरी बेटी ने याद दिलाया कि आज शिक्षक दिवस है। अनायास ही यह सब याद आ गया।
प्रणाम मास्टर नाना!
Thursday, September 4, 2008
तराबी की प्रार्थना और मेरी अनभिज्ञता
रमज़ान के शुरू होने वाले दिन मेरा ड्राइवर अशरफ मुझसे इजाजत मांगने लगा कि वह तराबी की प्रार्थना में शरीक होना चाहता है। शाम चार बजे से जाना चाहता था वह - इफ्तार की नमाज के बाद तराबी प्रारम्भ होने जा रही थी और रात के दस बजे तक चलती। मुझे नहीं मालुम था तराबी के विषय में। मैने उसे कहा कि अगर एक दो दिन की बात हो तो घर जाने के लिये किसी से लिफ्ट ले लूंगा। पर अशरफ ने बताया कि वह पूरे रमज़ान भर चलेगी। और अगर छोटी तराबी भी शरीक हो तो सात या पांच दिन चलेगी। मैं सहमत न हो सका - अफसोस।
पर इस प्रकरण में अशरफ से इस्लामिक प्रेक्टिसेज़ के बारे में कुछ बात कर पाया।
पहले तो ई-बज्म की उर्दू डिक्शनरी में तराबी शब्द नहीं मिला। गूगल सर्च में कुछ छान पाया। एक जगह तो पाया कि पैगम्बर हज़रत मोहम्मद साहब नें तराबी की प्रार्थना अपने घर पर काफी सहज भाव से की थी - दो चार रकात के बीच बीच में ब्रेक लेते हुये। शाम को दिन भर के उपवास से थके लोगों के लिये यह प्रार्थना यह काफी आराम से होनी चाहिये। अशरफ ने जिस प्रकार से मुझे बताया, उस हिसाब से तराबी भी दिन भर की निर्जल तपस्या का नमाज-ए-मगरिब से नमाज-ए-इशा तक कण्टीन्यूयेशन ही लगा। मैं उस नौजवान की स्पिरिट की दाद देता हूं। उसे शाम की ड्यूटी से स्पेयर न करने का कुछ अपराध बोध मुझे है।
रोज़ा रखना और तराबी की प्रार्थना में उसे जारी रखना बहुत बडा आत्मानुशासन लगा मुझे। यद्यपि यह भी लगा कि उसमें कुराअन शरीफ का केवल तेज चाल से पाठ भर है, उतनी तेजी में लोग शायद अर्थ न ग्रहण कर पायें।
तराबी की प्रार्थना मुझे बहुत कुछ रामचरितमानस का मासपारायण सी लगी। अंतर शायद यह है कि यह सामुहिक है और कराने वाले हाफिज़ गण विशेषज्ञ होते हैं - हमारी तरह नहीं कि कोई रामायण खोल कर किसी कोने में हनुमान जी का आवाहन कर प्रारम्भ कर दे।
अशरफ इसे अचीवमेण्ट मानता है कि उसने कई बार रोज़ा कुशाई कर ली है (अगर मैं उसके शब्दों को सही प्रकार से प्रस्तुत कर पा रहा हूं तो)। बहुत कुछ उस प्रकार जैसे मैने रामायण या भग्वद्गीता पूरे पढ़े है।
अशरफ के साथ आधा-आधा घण्टे की दो दिन बातचीत मुझे बहुत कुछ सिखा गयी। और जानने की जिज्ञासा भी दे गयी। मुझे अफसोस भी हुआ कि दो अलग धर्म के पास पास रहते समाज एक दूसरे के बारे में कितना कम जानते हैं।
मुझे खेद है कि मैं यह पोस्ट अपनी जानकारी के आधार पर नहीं, पर अशरफ से इण्टरेक्शन के आधार पर लिख रहा हूं। और उसमें मेरी समझ की त्रुटियां सम्भव हैं।
Wednesday, September 3, 2008
ऐतिहासिक मन्थन से क्या निकलता है?
रोमिला थापर ब्राण्ड? या "नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे" ब्राण्ड?
मुझे ये दोनो मिक्सियां अपने काम की नहीं लगती हैं। एक २००० वोल्ट एसी सप्लाई मांगती है। दूसरी ३००० वोल्ट बीसी। दोनो ही सरलता से नहीं चलती हैं। वजह-बेवजह शॉक मारती हैं।
बेस्ट है मथनी का प्रयोग। वोल्टेज का झंझट नहीं। आपकी ऊर्जा से चलती है। उससे मक्खन बनने की प्रक्रिया स्लो मोशन में आप देख सकते हैं। कोई अनहोनी नहीं। थोड़ी मेहनत लगती है। पर मथनी तो क्र्यूड एपरेटस है। उसका प्रयोग हम जैसे अबौद्धिक करते हैं - जो पाकेट बुक्स, और लुगदी साहित्य पढ़ कर केवल पत्रिकाओं में बुक रिव्यू ब्राउज़ कर अपनी मानसिक हलचल छांटते हैं।
फ्रैंकली, क्या फर्क पड़ता है कि आर्य यूरेशिया से आये या ताक्लामाकन से या यहीं की पैदावार रहे। आर्य शाकाहारी थे, या गाय भक्षी या चीनियों की तरह काक्रोच-रैप्टाइल खाने वाले या दूर दराज के तर्क से केनीबल (नरभक्षी)। ऐसा पढ़ कर एकबारगी अपने संस्कारों के कारण छटपटाहट होती है; पर हम जान चुके हैं कि इतिहासकारों की आदत होती है हम जैसों में यह छटपटाहट जगा कर मजा लेना! ताकतें हैं जो हमें सलीके से अपनी विरासत पर नाज नहीं करने देतीं। और दूसरी ओर डा. वर्तक सरीखे हैं जिनके निष्कर्ष पर यकीन कर आप मुंह की खा सकते हैं।
इतने तरह का हिस्टॉरिकल मन्थन देख लिये हैं कि ये सब डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ. की कुश्ती सरीखे प्रतीत होते हैं। और इस प्रकार के मन्थन के लिये तर्क को बुढ़िया का काता (एक तरह की शूगर कैण्डी, जो लाल रंग की रूई जैसी होती है) की तरह फींचने वाले विद्वानों के प्रति बहुत श्रद्धा नहीं उपजती। अकादमिक सर्कल में उनका पाण्डित्य चमकता, आबाद होता रहे। हमारे लिये तो उनका शोध वैसा ही है जैसा फलानी विटामिन कम्पनी अपने प्रायोजित शोध से अपने पेटेण्ट किये प्रॉडक्ट को गठिया से हृदय रोग तक की दवा के रूप में प्रतिष्ठित कराये!
इतिहास, फिक्शन (गल्प साहित्य) का सर्वोत्तम प्रकार मालुम होता है। इतिहासकार दो चार पुरातत्वी पदार्थों, विज्ञान के अधकचरे प्रयोग, चार छ ॠग्वैदिक ॠचाओं, और उनके समान्तर अन्य प्राचीन भाषाओं/लिपियों/बोलियों से घालमेल कर कुछ भी प्रमाणित कर सकते हैं। हमारे जैसे उस निष्कर्ष को भकुआ बन कर पढ़ते हैं। कुछ देर इस या उस प्रकार के संवेदन से ग्रस्त होते हैं; फिर छोड छाड़ कर अपना प्रॉविडेण्ट फण्ड का आकलन करने लगते हैं।
हिस्ट्री का हिस्टीरिया हमें सिविल सेवा परीक्षा देने के संदर्भ में हुआ था। तब बहुत घोटा था इतिहास को। वह हिस्टीरिया नहीं रहा। अब देसी लकड़ी वाली मथनी के स्तर का इतिहास मन्थन चहुचक (उपयुक्त, कामचलाऊ ठीकठाक) है!
हम तो अपनी अल्पज्ञता में ही संतुष्ट हैं।Monday, September 1, 2008
गल्तियों की टोलरेंस
यह शीर्षक जानबूझ कर गलत सा लिखा है। मेरे अपने मानक से उसमें शब्द गलतियों की टॉलरेंस होने चाहिये। पर हम उत्तरोत्तर भाषा के प्रति प्रयोगधर्मी (पढ़ें लापरवाह) होते जा रहे हैं। हिज्जे गलत लिखना शायद ट्रेण्डी होना है। पर क्या वह उचित भी है?
पहली बात - ब्लॉगजगत हिज्जे सुधारकों की पट्टीदारी नहीं है। वह वास्तव में किसी की पट्टीदारी नहीं है। अगर मैं गलत हिज्जे लिख कर काम चला सकता हूं; अपना सम्प्रेषण पूरा कर लेता हूं; तो वह पर्याप्त है। कोई तर्क नहीं - पीरीयड। पूर्णविराम।
मुख्य बात है सम्प्रेषण। पर अगर मेरे लेखन के हिज्जे मेरे स्तर का सम्प्रेषण करते हैं तो झमेला हो जाता है। हिन्दी वाले वैसे ही हम जैसे को हिकारत से देखते हैं। "यह प्राणी जबरी अंग्रेजी के शब्द ठूंसता है, ऊपर से हिन्दी के हिज्जे भी गलत लिखता है! इसे तो पढ़ना ही अपना स्तर गिराना है" - पाठक में यह भाव अगर आने लगें तो पाठक-हीनता या खुद लिखे खुदा बांचे वाली दशा आने में देर न लगेगी। इस लिये मुझे लगता है कि लेखन में हिन्दी के हिज्जे सही होने चाहियें और किसी अन्य भाषा के शब्दों का प्रयोग अगर हो तो उच्चारण के आधार पर जितना सम्म्भव हो; वे शब्द देवनागरी में सही (इससे मेरा आशय परफेक्ट-perfect-शुद्ध नहीं एप्रोप्रियेट-appropriate-उचित से है) होने चाहियें।
मैं जानता हूं कि मैं कोई वेदान्तिक सत्य नहीं कह रहा। यह वाद-विवाद का मुद्दा हो सकता है कि भाषा में हिज्जों के बदलाव के प्रयोग होने चाहियें या नहीं? मैने स्वयं पहले पूर्णविराम के लिये "." का प्रयोग किया है और नीरज रोहिल्ला जी के सिखाने पर "।" पर लौटा हूं। शब्दों पर नासिकाध्वनि के लिये बिन्दु (चिड़ियां) का प्रयोग हो या चन्द्रबिन्दु (चिड़ियाँ) का - इस पर भाषाविद बहुत चेंचामेची मचा सकते हैं। उस प्रकार की बात छेड़ना ठीक नहीं। पर एक स्वीकार्य स्तर के अनुशासन की बात कर रहा हूं मैं। अपने आप पर लगाये गये अनुशासन की।
उस अनुशासन की रेखा क्या होनी चाहिये? हिज्जों की गलतियों (पढ़ें प्रयोगधर्मिता) का स्तर क्या होना चाहिये?
रविवार को कई नये ब्लॉग देखे। बहुत अच्छी शुरुआत कर रहे हैं नये चिठेरे। तकनीक और कण्टेण्ट दोनो बहुत अच्छे हैं। डेढ़ साल पहले जब मैने ठेलना प्रारम्भ किया था, तब से कहीं बेहतर एण्ट्री कर रहे हैं नये बन्धु। चिठ्ठा-चर्चा तो जमती है; एक "नव-चिठ्ठा चर्चा" जैसा ब्लॉग भी होना चाहिये नये प्रयासों के लिये एक्स्क्लूसिव। अनूप सुकुल का एक क्लोन चाहिये इस महत्वपूर्ण कार्य के लिये! |