Saturday, August 30, 2008

मेक्केन बनाम ओबामा


मेक्केन क्या कछुये की चाल से सतत बढ़त की ओर हैं? गैलप पोल में तो ऐसा ही लगता है। उसके अनुसार कंजरवेटिव डेमोक्रेट्स ओबामा से छिटक रहे हैं। भारत में ओबामा का नाम ज्यादा सुनने को क्यों मिलता है? मेक्केन क्या जॉर्ज बुश का पर्याय हैं; जैसा हिलेरी क्लिण्टन अपने ओबामा समर्थन भाषण में कह रही हैं?

Obama McCain 

ओबामा को मीडिया कवरेज बहुत मिला है और यह शायद ओवरडोज़ हो गया। प्यु रिसर्च सेण्टर तो ऐसा ही कहता है। उसके अनुसार ओबामा डेमोक्रेट मतदाताओं को भी एक जुट अपने पक्ष में नहीं कर पाये हैं। क्या डेमोक्रेट्स नें अपना उम्मीदवार चुनने में गलती हर दी?!

Freshमुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन जीतता है। पर मजा आने लगा है। अमेरिका की कुछ साइट्स बुकमार्क कर ली हैं अवलोकन के लिये!

अमेरिका में भारत की लॉबी, चीन की लॉबी और इज्राइल की लॉबी क्या चाहती हैं?

व्यक्तिगत रूप से तो अगर और कुछ ज्ञात न हो तो जो उम्मेदवार पीछे चल रहा हो, उसे बैक करने में मजा आता है। पहले हिलेरी क्लिण्टन का पक्ष लेने का मन कर रहा था, अब मेक्केन का। अगर आने वाले महीनों में मेक्केन की लीड ठीकठाक बन गयी तो ओबामा की तरफ मन फिरेगा।

(ओह, पोस्ट लिखने और पब्लिश करने में तीन दिन का अन्तराल और ओबामा बाउन्स बैक कर गये! अब सारा पालिन को अपना उपराष्टपतीय जोड़ीदार बनाने से मेक्केन बढ़त लेंगे क्या? आलास्का की गवर्नर तो अब भी ब्यूटी-क्वीन सी लगती हैं!)


कोल्डस्टार: मेरी अम्मा ने शाम को खबर दी - हमारे फलाने रिलेटिव की तबियत खराब है। उनकी डाक्टरी जांच हुयी है और उनका कोल्डस्टार बढ़ा हुआ है। आज उनका फोन आया था। 

Incubator काफी सिर खुजाने में स्पष्ट हुआ कि अम्माजी आशय कोलेस्ट्रॉल से है।

यूपोरियन अंग्रेजी मस्त है! यहां नवजात प्रीमेच्योर बच्चे "इनवर्टर" में रखे जाते हैं। यानी इन्क्यूबेटर में। बोनस मिलता है तो घर में रूम ठेठर खरीद कर आता है। यानी रूम थियेटर। गुण्डी की माई अपनी बिटिया को "इंगलिश टू इंगलिश" स्कूल में भर्ती करेगी। वह पाउच का दूध नहीं लेती - ग्वाले से सामने दुहा कर "पेवर" (पढ़ें प्योर) दूध लेती है।

अब भी आप मुझे अंग्रेजी ठेलक मानते हैं! Sad 

Tuesday, August 26, 2008

एक कमाण्डो से बातचीत


मुशर्रफ अन्त तक एक उद्दण्ड अवज्ञाकारी कमाण्डो की तरह अपने पर हो रहे आक्रमणों का जवाब देते रहे - यह मैने एक समाचारपत्र के सम्पादकीय में पढ़ा। मैं मुशर्रफ का प्रशंसक नहीं हूं। किसी समय शायद उनके व्यक्तित्व से नफरत भी करता था। पर वे एक उद्दण्ड अवज्ञाकारी कमाण्डो की तरह थे; इस पर मुझे कोई शक नहीं है।

कमाण्डो बतौर कमाण्डो उनकी छवि आकर्षित करती है। मुझे विश्वास है कि पाकिस्तान को उनसे बेहतर नेता मिलने नहीं जा रहा। और जिस तरह सन सतहत्तर में आम भारतीय के स्वप्नों को श्रीमती गांधी के बाद मोरारजी/चरणसिंह युग ने बड़ी तेजी से चूर किया; उससे कम तेजी के भाग्य वाले पाकिस्तानी नहीं होंगे!

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खैर, मैं एक कमाण्डो की बात कर रहा हूं। मुशर्रफ या पाकिस्तान की नहीं - वे तो केवल इस पोस्ट की सोच के ट्रिगर भर हैं।
कुछ साल पहले एक वीवीआईपी की सुरक्षा में लगे एक ब्लैक कैट कमाण्डो को मैने बातों में लेने का प्रयास किया। उसके साथ मुझे कुछ घण्टे यात्रा करनी थी। या तो मैं चुपचाप एक किताब में मुंह गड़ा लेता; पर उसकी बजाय यह जीव मुझे ज्यादा रोचक लगा।

पहले मैने उसे अपनी सैण्डविच का एक पीस ऑफर किया। कुछ देर वह प्रस्तर प्रतिमा की तरह बैठा रहा। शायद तोल रहा हो मुझे। फिर वह सैंण्डविच स्वीकार कर लिया उसने। मेरे साथ के रेलकर्मियों के कारण मेरे प्रति वह आश्वस्त हो गया होगा। उसके अलावा निश्चय ही उसे भूख भी लगी होगी। फिर मैने कहा कि क्या मैं उसकी गन देख सकता हूं - कि उसमें कितना वजन है। उसने थोड़ी झिझक के बाद वह मुझे उठाने दी।

"यह तो बहुत कम वजन की है, पर इससे तड़ातड़ निकली गोलियां तो कहर बरपा सकती हैं। बहुत डरते होंगे आतंकवादी इससे!" - मैने बात बढ़ाई।

अब वह खुल गया। "इससे नहीं साहब, इससे (अपने काले कपड़े को छू कर बताया उसने) डरते हैं।"

मुझे अचानक अहसास हुआ कि वह वास्तव में सही कह रहा है, गर्वोक्ति नहीं कर रहा। आतंकी ब्लैक कैट की छवि से आतंकित होता है। उस वर्दी के पीछे जो कुशलता और अनुशासन है - उससे डरता है दहशतगर्द! यह ड़र बना रहना चाहिये।

वह मेरे साथ दो-ढ़ाई घण्टे रहा। यहीं उत्तरप्रदेश का मूलनिवासी था वह - गोरखपुर/देवरिया का। बाद में उसने कहा कि लोगों से मेलजोल-बातचीत न करना उसकी ट्रेनिंग का हिस्सा है। शायद बातचीत करने से इमोशनल अटैचमेण्ट का दृष्टिकोण आ जाता हो।

मैं शायद अब इतने सालों बाद उसके बारे में सोचता/लिखता नहीं; अगर मुशर्रफ-कमाण्डो विषयक सम्पादकीय न पढ़ा होता। 


Monday, August 25, 2008

श्रीमती रीता पाण्डेय की एक पोस्ट


कुछ दिनों पहले मैने एक पोस्ट लिखी थी - स्वार्थ लोक के नागरिक। उस पर श्री समीर लाल की टिप्पणी थी:

...याद है मुझे नैनी की भीषण रेल दुर्घटना. हमारे पड़ोसू परिवार के सज्जन भी उसी से आ रहे थे. सैकड़ों लोग मर गये मगर उनके बचने की खुशी में मोहल्ले में मिठाई बांटी गई...क्या कहें इसे स्वार्थ और उनके परिवार को समाज का नासूर??

इस पर मेरी पत्नीजी ने एक पोस्ट लिखी है। मैं उसे यथावत प्रस्तुत कर देता हूं:

 रीता विवाह  के पूर्व। अपने स्वार्थ पर मैं रोई

उस समय मेरा बेटा ट्रेन से दुर्घटना ग्रस्त हो कर जळ्गांव में नर्सिंग होम में मौत से जूझ रहा था। वह कोमा में था। तरह तरह के ट्यूब और वेण्टीलेटर के कनेक्शन उससे लगे थे। हम लोग हमेशा आशंका में रहते थे।

उसी नर्सिंग होम में तीसरे दिन एक मरणासन्न व्यक्ति भर्ती किया गया। वह बोहरा समाज का तीस वर्षीय युवक था और नर्सिंग होम के डाक्टर साहब का पारिवारिक मित्र भी। तीसरी मंजिल से वह गिर गया था और उसकी पसलियां टूट गयी थीं। शाम के समय वह भर्ती किया गया था। उसके परिवार और मित्रों का जमघट लगा था। परिवार की स्त्रियां बहुत रो रही थीं। इतनी भीड़ देख मैं हड़बड़ा कर नर्सिंग होम से रेस्ट हाउस चली गयी। रेस्ट हाउस जळगांव रेलवे स्टेशन पर था - नर्सिंग होम से ड़ेढ़ किलोमीटर दूर।

रात में मैने दुस्वप्न देखा। एक भयानक आकृति का आदमी मेरे लड़के के बेड़ के नीचे दुबका है। मैं पूरी ताकत से एक देव तुल्य व्यक्ति पर चीख रही हूं - "यही आपकी सुरक्षा व्यवस्था है? आपके रहते यह जीव अंदर कैसे आया??"

शायद मेरी चीख वास्तव में निकल गयी होगी। मेरी नींद टूट गयी थी। ज्ञान मेरे पास बैठे मेरा कंधा सहला रहे थे। बोले - "सो जाओ; परेशान होने से कुछ नहीं होगा।" 

मैं लेट गयी। पर नींद कोसों दूर थी। सुबह इधर उधर के कार्यों में अपने को व्यस्त रख रही थी। नर्सिंग होम नहीं गयी। मेरी सास मेरे साथ नर्सिंग होम जाने वाली थीं। जब बहुत देर तक मैं तैयार न हुई तो वे मुझ पर झल्ला पड़ीं। उन्होंने कुछ कहा और मेरी इन्द्रियां संज्ञा शून्य हो गयीं। मुझे लगा कि इन्हें नर्सिंग होम पंहुचा ही देना चाहिये। रेस्ट हाउस में ताला लगा कर बाहर निकले। कोई ट्रेन आ कर गयी थी। यात्रियों के बीच हम रास्ता बनाते निकल रहे थे कि परिचित आवाज आयी। देखा; दशरथ (हमारा चपरासी) दौड़ता हुआ आ रहा था। बोला - "मेम साहब अभी मत जायें; अभी नर्सिंग होम में बहुत भीड़ है।"

उस समय; हर आशंका से ग्रस्त; मेरी धड़कन जैसे रुक गयी। रक्त प्रवाह जैसे थम गया। लड़खड़ाते हुये मैं एक दुकान के बाहर बेंच पर बैठ गयी। मुझे लगा कि मेरा बेटा नहीं रहा। मेरी दशा भांप कर दशरथ जल्दी से बोला - "मेम साहब वह बोहरा जो था न..." मेरे कानों ने बोहरा शब्द को ग्रहण किया। मेरा रक्त संचार पुन: लौटा। मुझे सुकून मिला कि मेरा बेटा जिन्दा है।

अपनी सासजी का हाथ पकड़ कर मैं वापस रेस्ट हाउस में लौटी। सोचने लगी कि मेरा बेटा बच गया, हालांकि वह मरणासन्न है। पर जो गया, वह भी तो किसी का बेटा था। उसकी तो पत्नी और एक छोटा बच्चा भी था। यह कैसा स्वार्थ है?अपने स्वार्थ पर अकेले कमरे में मैं खूब रोई।

समीर भाई की टिप्पणी में नैनी दुर्घटना में बचने पर लोगों के स्वार्थ प्रदर्शन की बात है। पर मैं जब भी अपने स्वार्थ और अपनी बेबसी की याद करती हूं तो आंखें भर आती हैं। शायद यही हमारी सीमायें हैं।  

फोटो रीता पाण्डेय की तब की है जब वे सुश्री रीता दुबे थीं।

Sunday, August 24, 2008

कितना आसान है कविता लिखना?


ठेलेवाला कितने सारे लोग कविता ठेलते हैं।

ब्लॉग के सफे पर  सरका देते हैं

असम्बद्ध पंक्तियां।

मेरा भी मन होता है;

जमा दूं पंक्तियां - वैसे ही

जैसे जमाती हैं मेरी पत्नी दही।


जामन के रूप में ले कर प्रियंकर जी के ब्लॉग से कुछ शब्द

और अपने कुछ असंबद्ध शब्द/वाक्य का दूध।

क्या ऐसे ही लिखते हैं लोग कविता?

और कहते हैं यह रिक्शेवाले के लिये नहीं लिखी हैं।

मेरा लिखा भी रिक्शा-ठेलावाला नहीं पढ़ता;

पर रिक्शे-ठेले वाला पढ़ कर तारीफ में कुछ कह दे

तो खुशी होगी बेइन्तहा।

काश कोई मित्र ही बना लें;

रिक्शेवाले की आईडी

और कर दें एक टिप्पणी!


इस पोस्ट के लिये फोटो तलाशने गोवेन्दपुरी तिराहे पर गया तो स्ट्रीट लाइट चली गयी। किसी रिक्शे वाले की फोटो न आ पायी मोबाइल कैमरे में। यह ठेले वाला अपनी पंचलैट जलाये था - सो आ गया कैमरे में। पास ही एक रिक्शे वाला तन्मयता से सुन रहा था -

"मैं रात भर न सोई रे/खम्भा पकड़ के रोई/बेइमान बालमा; अरे नादान बालमा..."

मुझे लगा कि इतना मधुर गीत काश मैं लिख पाता!


Friday, August 22, 2008

असीम प्रसन्नता और गहन विषाद


इलाहाबाद से चलते समय मेरी पत्नीजी ने हिदायत दी थी कि प्रियंकर जी, बालकिशन और शिवकुमार मिश्र से अवश्य मिल कर आना। ऑफकोर्स, सौ रुपये की बोतल का पानी न पीना। लिहाजा, शिवकुमार मिश्र के दफ्तर में हम सभी मिल पाये। शिव मेरे विभागीय सम्मेलन कक्ष से मुझे अपने दफ्तर ले गये। वहां बालकिशन आये और उसके पीछे प्रियंकर जी। बालकिशन और प्रियंकर जी से पहली बार फेस टु फेस मिला। हम लोगों ने परस्पर एक दूसरे की सज्जनता पर ठेलने की कोशिश की जरूर पर कमजोर सी कोशिश। असल में एक दूसरे से हम पहले ही इतना प्रभावित इण्टरेक्शन कर चुके थे, कि परस्पर प्रशंसा ज्यादा री-इट्रेट करने की आवश्यकता नहीं थी। वैसे भी हमें कोई भद्रत्व की सनद एक दूसरे को बांटनी न थी। वर्चुअल जगत की पहचान को आमने सामने सीमेण्ट करना था। वह सब बहुत आसान था। कोई मत भेद नहीं, कोई फांस नहीं, कोई द्वेष नही। मिलते समय बीअर-हग (भालू का आलिंगन) था। कुछ क्षणों के लिये हमने गाल से गाल सटा कर एक दूसरे को महसूस किया। बैठे, एक कप चाय (और शिव के दफ्तर की चाय की क्वालिटी का जवाब नहीं!) पी।

दिनकर और भवानी प्रसाद मिश्र को; केवल उनके समझ में सरलता से आने के कारण; उन्हे कमतर आंकने वालों की अक्ल के असामयिक निधन पर; हम कुछ देर रुदाली बने। प्रियंकर जी "चौपट स्वामी" वाले ब्लॉग पर नियमित लिखें - यह हम सब का आग्रह था। शिव के सटायर लेखन का अपना क्लास होने और बालकिशन के ब्लॉग पर आने वाली भद्र समाज की चुटकी लेती पोस्ट बहुत प्रशंसित माने गये। मजे की बात है कि यह निष्कर्षात्मक बातेंहममें से एक के विषय में कोई एक कह रहा था और शेष दोनों उसका पूर्ण समर्थन कर रहे थे। लगभग ४५ मिनट हम लोग साथ रहे। हमने कोई बहुत बढ़े सिद्धान्त ठेले-फैंके या प्रतिपादित नहीं किये। पर सारी बातचीत का निचोड़ निकाला जाय तो यह होगा कि ये चार ब्लॉगर एक दूसरे पर जुनूनी हद तक फिदा हैं। लिहाजा इनकी परस्पर प्रशंसा को पिंच ऑफ साल्ट के साथ लिया जाये!

छोटी सी मुलाकात बीतने में समय न लगा। प्रियंकर जी ने हमें समकालीन सृजन के अंक दिये, जिसे हमने बड़े प्रेम से गतियाया।

छोटी मुलाकात सम्पन्न होने पर असीम प्रसन्नता का अनुभव हो रहा था कि हम मिले। पर गहन विषाद भी था, कि मीटिंग बहुत छोटी थी। वहां से लौटते हुये मेरे मन में यह भाव इतना गहन था कि मैने तीनों को इस आशय का एस एम एस किया - मानो प्रत्यक्ष मिलने की घटना को एस एम एस के माध्यम से जारी रखना चाहता होऊं!

मीटिंग के अनुभव वे तीनों भी बतायेंगे - पोस्ट या टिप्पणियों में। मैं केवल फोटो देता हूं अपने मोबाइल के कैमरे से -  

Bloggers Kolkata 1 श्री प्रियंकर, मैं और बालकिशन, मेरे वापस लौटने के पहले सड़क पर। फोटो खींची शिव ने।
Bloggers Kolkata 2 शिवकुमार और बालकिशन। पीछे से प्रियंकर जी एन मौके पर बीच में आ गये समकालीन सृजन के अंक लेकर!
Bloggers Kolkata 3 शिव कुमार अपने चेम्बर में।
Bloggers Kolkata 4 श्री प्रियंकर, साहित्यकारों और ब्लॉगरों के विषय में बोलते, शिव के चेम्बर में।
Bloggers Kolkata 5 बालकिशन - सबसे बड़े ब्लॉगर। बकौल उनके उनका वजन ८० किलो। डाक्टर द्वारा अनुशंसित वजन - ६५ किलो! पंद्रह किलो अधिक वजनदार ब्लॉगर!


यह मैं अभी कलकत्ता से लौटने के पहले ही पोस्ट करने का प्रयास कर रहा हूं - हावड़ा स्टेशन के यात्री निवास से।

Wednesday, August 20, 2008

भविष्यद्रष्टा


भविष्यद्रष्टा रागदरबारीत्व सब जगह पसरा पड़ा है मेरे घर के आसपास। बस देखने सुनने वाला चाहिये। यह जगह शिवपालगंज से कमतर नहीं है।

कुछ दिन पहले मैं चिरकुट सी किराने की दुकान पर नारियल खरीद रहा था। विशुद्ध गंजही दुकान। दुकानदार पालथी मार कर बैठा था। मैली गंजी पहने। उसका जवान लड़का लुंगी कंछाड़ मारे और पेट से केसरिया रंग की बनियान ऊपर किये नारियल की जटा छील रहा था। इतने में एक छ-सात साल का लड़का बीड़ी का बण्डल खरीदने आ गया। दस रुपये का नोट ले कर।

नोट देखते हुये चिरकुट दुकानदार बड़ी आत्मीयता से उससे बोला - "ई चुराइ क लइ आइ हए का बे, चू** क बाप!" ("यह चुरा कर लाया है क्या बे, विशिष्ट अंग से उत्पन्न के बाप!)

मैने लड़के को ध्यान से देखा; अभी बीड़ी सेवन के काबिल नहीं थी उम्र। तब तक उसका अभिभावक - एक अधेड़ सा आदमी पीछे से आ गया। लड़के के बब्बा ही रहे होंगे - बाप के बाप। बीड़ी उन्होंने ली, बच्चे को टाफी दिलाई। दुकानदार और उन बब्बा की बातचीत से लगा कि दोनो अड़ोस-पड़ोस के हैं। बालक के लिये यह अलंकरण प्रेम-प्यार का प्रदर्शन था।

प्रेम-प्यार का आत्मीय अलंकरण?! शायद उससे अधिक। बच्चे के बब्बा उससे बीड़ी मंगवा कर उसे जो ट्रेनिंग दे रहे थे; उससे वह भविष्य में चू** नामक विभूति का योग्य पिता निश्चय ही बनने जा रहा था।

मुझे अचानक उस चिरकुट दुकान का गंजी पहने दुकानदार एक भविष्यद्रष्टा लगा!


देसी अलंकरणों का सहज धाराप्रवाह प्रयोग चिरकुट समाज की खासियत है। हमारे जैसे उस भाषा से असहज रहते हैं। या वह अलग सी चीज लगती है!

ब्लॉग अगर साहित्य का अटैचमेण्ट नहीं है; (और सही में इस अगर की आवश्यकता नहीं है; अन्यथा हमारे जैसे लोगों का ब्लॉगरी में स्थान ही न होता!) तब गालियों का एक अलग स्थान निर्धारण होना चाहिये ब्लॉग जगत में - साहित्य से बिल्कुल अलग स्तर पर।
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गालियां इमोशंस को बेहतर अभिव्यक्त करती हैं। गालियां बुद्धि की नहीं रक्त की भाषा बोलती हैं। बुद्धि का आटा ज्यादा गूंथने से अगर अवसाद हो रहा हो तो कुछ गालियां सीख लेनी चाहियें - यह सलाह आपको नहीं, अपने आप को दे रहा हूं। यद्यपि मैं जानता हूं कि शायद ही अमल करूं, अपने टैबूज़ (taboo - वर्जना) के चलते! Thinking

यह पोस्ट मेरी पत्नी जी के बार-बार प्रेरित करने का नतीजा है। उनका कहना है कि मैं लिखने से जितना दूर रहूंगा, उतना ही अधिक अस्वस्थ महसूस करूंगा।


Friday, August 15, 2008

एक कस्बे में १५ अगस्त सन १९४७


Sirsa मेरे पिताजी सन सैंतालीस में १२-१३ साल के थे। इलाहाबाद के पास मेजा तहसील के सिरसा कस्बे में सातवीं कक्षा के छात्र। उनको कुछ याद है स्वतन्त्रता के पहले दिन की।

बहुत हल्लगुल्ला था, पंद्रह अगस्त के दिन। सब लोग सवेरे सवेरे गंगास्नान को पंहुचे थे। सामुहिक गंगा स्नान मतलब दिन की पवित्रता और पर्व होने का अहसास। एक रेडियो (इक्का-दुक्का रेडियो ही थे कस्बे में) को सड़क के किनारे रख दिया गया था - सार्वजनिक श्रवण के लिये। सब सुन रहे थे।

Pt Adityaprasad Pandey «« बैद बाबा (पण्डित आदित्यप्रसाद पाण्डेय) के घर के पास सरकारी मिडिल स्कूल में पण्डित दीनदयाल उपाध्याय आये थे। बदामी रंग का कुरता और धोती में। सरल पर प्रभावकारी व्यक्तित्व। बहुत ओजस्वी भाषण दिया था आजादी पर उन्होंने। सिरसा में कांग्रेस और संघ के महान नेताओं का आना-जाना होता रहता था। 

उस समय बिजली नहीं थी, पर पंद्रह अगस्त सन सैंतालीस की शाम को दीपावली मनाने का माहौल था। कस्बे की सड़कों के दोनों किनारों पर बांस की खपटी (बांस को चीर कर आधा हिस्सा) समान्तर लगाकर उनपर दीये रख कर रोशनी की गयी थी। उस जगमगाहट का मुकाबला अब की बिजली के लुप-झुप करते लट्टुओं की लड़ियां भी क्या करेंगी!

एक कस्बे में था यह माहौल! देश में कितनी सनसनी रही होगी! कितने सपने झिलमिला रहे होंगे। आज वह सनसनी है क्या?


Sunday, August 10, 2008

शिवकुटी का मेला


मेला १ घर में बिस्तर पर लेटे लेटे नियमित अन्तराल पर शिव कुटी के मेले के इनपुट मिल रहे है। दूर से शोर भी आ रहा है माइक पर चीखते गानों और बीच में कर्कश आवाज में हो रही उद्घोषणाओं का।

कोटेश्वर महादेव पर यह शहरी-कम-गंवई मेला वार्षिक फीचर है। पिछले दशकों में जमीन का अतिक्रमण करने के कारण मेला क्षेत्र की जमीन उत्तरोत्तर सिकुड़ती गयी है। उसी अनुपात में अव्यवस्था बढ़ती गयी है। इस साल एक दूसरी पार्टी के सत्तासीन होने से कुछ अतिक्रमण पर बुलडोजर चले जरूर। पर उससे मलबा बिखरा - मेला की जमीन नहीं निकली। मैं बिस्तर पर आंख मूंदे पड़ा हूं, पर खबर जरूर मिल रही है। फलाने का मकान बुलडोजर ने गिरा जरूर दिया है पर वे फिर भी पिछले सालों की तरह इस साल भी बाजा-पिपिहरी-झूला-चाट-खिलौने वालों से रंगदारी जरूर वसूल रहे हैं। रंगदारी है ५० से ७५ रुपये तक प्रति दुकानदार। ऐसी रंगदारी और भी लोग वसूल रहे हैं।
मेला २

चाट की दुकान पर मिल रही है - आलू की टिक्की, गोलगप्पा, नानखटाई, सोनपापड़ी और अनारसा। इसके अलावा आइसक्रीम और मलाईबरफ की दुकाने है। झूले पड़े हैं। सस्ते प्लास्टिक के खिलौने, गुब्बारे, पिपिहरी और हल्की लकड़ी के चकला-बेलन मिल रहे हैं। कुछ फुटपाथिया दुकानें बेलपत्र-माला-फूल की भी हैं। बहुत चहरक-महरक है। यह सब बिस्तर पर लेटा-लेटा मैं सुनता हूं।

गंगाजी की ढ़ंगिलान (ढ़लान) पर एक पांच साल की लड़की रपट कर गंगा में डूबने लगी थी। उसे एक भीमकाय व्यक्ति ने बचाया। बेहोश लड़की को तुरत अस्पताल पर ले गये। मेला ३

शाम होने पर जोगनथवा ब्राण्ड लड़कियों को धक्का देने का पुनीत कर्म प्रारम्भ हुआ या नहीं? यह मैं बिस्तर पर लेटे लेटे सवाल करता हूं। जरूर हुआ। औरतें गंगा किनारे दीप दान कर रही थीं उसमें सहयोगार्थ जवान जोगनाथ छाप लोग पंहुच गये। वहां बिजली का इन्तजाम अच्छा नहीं था। पुलीस ने पंहुच कर शोहदों को हटाया और बिजली का इन्तजाम किया।

गली में बतियाते लोग और पिपिहरी बजाते बच्चे मेला से लौट रहे हैं। इन सब को मेलहरू कहा जाता है। कल  भी मेला चलेगा और मेलहरू आयेंगे। मैं घर में रह कर बार बार यह सोचूंगा कि तीन साल से छूटा इनहेलर अगर पास होता तो सांस की तकलीफ कम होती! इस साल की उमस और अनप्रीसीडेण्टेट बारिश ने मेरी वाइब्रेंसी कम कर दी है। इस पोस्ट पर कमेण्ट मॉडरेशन का रुटीन पूरा करना भी भारी लगेगा।

मेले से दूर रह रहा हूं, पर मेला मुझे छोड़ नहीं रहा है।      

श्री सुनील माथुर ने मुझे बताया कि उनके श्वसुर श्रीयुत श्रीलाल शुक्ल जो ऑस्टियोपोरेसिस के चलते बिस्तर पर थे; अब पिछले कुछ दिनों से कुछ-कुछ समय के लिये व्हील चेयर पर बैठ ले रहे हैं। बैठने की प्रक्रिया से उनके आउटलुक में बहुत सकारात्मक अन्तर लग रहा है। मानसिक रूप से पहले भी (लेटे होने पर भी) वे पूर्णत उर्वर थे। अब तो उन्हे काफी अच्छा लग रहा है।
आशा की जाये कि शुक्ल जी का लेखन निकट भविष्य में सामने आयेगा?   

Friday, August 8, 2008

स्वार्थ-लोक के नागरिक


मेरी कालोनी के आसपास बहुत बड़े बड़े होर्डिंग लगे हैं - सिविल सर्विसेज की तैयारी के लिये नागरिक शास्त्र, पढ़िये केवल विनायक सर से।

मैं नहीं जानता विनायक सर को। यह अवश्य है कि बहुत समय तक - (या शायद अब भी) मैं अपने मन में साध पाले रहा एक आदर्श प्रोफेसर बनने की। पर क्या एक प्रोफेसर की समाज में वह इज्जत है? इज्जत का अर्थ मैं दबदबे से नहीं लेता। इज्जत का अर्थ मैं इससे लेता हूं कि उस व्यक्ति के पीठ पीछे लोग या कम से कम उसके विद्यार्थी उसका नाम सम्मान से लें।

विनायक सर नागरिक शास्त्र पढ़ाते होंगे; पर क्या वे अच्छे नागरिक बनाने में सफल होते होगे? मैं विश्वास करना चाहता था - हां। पर कल शिवकुमार मिश्र ने एक चार्टेड अकाउण्टेंसी के एक सम्मानित सर के बारे में जो बताया, उससे न केवल मन व्यथित हो गया है - वरन समाज की स्वार्थपरता के बारे में सशंकित भी हो गया है।

इन विख्यात सर का अचानक देहावसान हो गया। शिव के मित्र सुदर्शन चार्टेड अकाउण्टेंसी की कक्षायें लिया करते हैं और अत्यंत सफल प्रशिक्षक हैं। इन सर के प्रति जो आदर भाव था - उसके चलते स्वत: स्फूर्त निर्णय सुदर्शन जी ने लिया कि वे सर के सभी विद्यार्थियों की बीच में फंसी पढ़ाई पूरी करायेंगे। उन्होंने शिव से भी सलाह की। और शिव यद्यपि इन सर को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानते थे, पर इस नेक विचार से उन्होंने भी तुरत सहमति भरी।

सुदर्शन जी अत्यन्त व्यस्त व्यक्ति हैं। किस प्रकार वे सर के विद्यार्थियों के लिये समय निकालेंगे, यह भी अपने आप में समय प्रबन्धन का जटिल प्रश्न है। पर शाम/रात में उन्होंने निर्णय ले लिया,और अगले दिन सवेरे से उसके क्रियान्वयन के लिये प्रयत्नशील हो गये। यह कार्य वह व्यवसायिक की तरह करते तो लाखों का आर्थिक लाभ कमाते। निश्चय ही वे उच्चतर मानवीय मूल्यों से प्रेरित थे - और शायद सर के प्रति वास्तविक अर्थों में श्रद्धांजलि का भाव रखते हैं वह!opposite

लेकिन जितना विलक्षण निस्वार्थ सुदर्शन जी का संकल्प था, उतना ही विलक्षण घटित हो रहा था। सर के कुछ विद्यार्थी उनके शोकमग्न परिवार के पास पंहुचे हुये थे। शोक व्यक्त करने नहीं, वरन यह कहने कि सर तो बीच में चले गये, अब उनकी बाकी पढ़ाई कैसे होगी?

सर शायद भीष्म पितामह होते और इच्छा मृत्यु के मालिक होते तो इन स्वार्थी तत्वों का पूरा कोर्स करा कर मृत्यु वरण करते। पर सर तो इश्वर की इच्छा के अधीन थे।

सर तो चले गये। पर इन विद्यार्थियों की स्वार्थपरता उजागर हो गयी। और ये विद्यार्थी समाज में एबरेशन (aberration - अपवाद) हों ऐसा नहीं है। पर चरित्र का प्रकटन ऐसे अवसरों पर होता है। कल ये चार्टर्ड अकाउण्टेण्ट के रूप में व्यवसायिक संस्थानों को कौन से मूल्य, कौन से आदर्श से अपनी सेवायें देंगे! 

सुदर्शन जीवट की संकल्प शक्ति वाले जीव है। वे अब भी - यह व्यवहार जानकर भी इन विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिये समय, स्थान प्रबन्धन में लगे हैं।

मै सुदर्शन जी से प्रभावित हूं, बहुत ही प्रभावित। उनसे अब तक मिल नहीं पाया हूं; पर निकट भविष्य में अवश्य मिलूंगा। जब आसपास स्वार्थ जगत के नागरिक इफरात में हों तो इस प्रकार के व्यक्ति से मिलना अत्यन्त सुखद अनुभूति होगी।   

कुछ मित्रगणों ने मेरी ब्लॉग अनुपस्थिति के बारे में जो भाव व्यक्त किये हैं, उसके लिये बहुत धन्यवाद। अस्वस्थता ही कारण है उसका। अगले सप्ताह सामान्य होने की आशा करता हूं। यह तो यात्रा में होने, कोई काम न होने और शिव के फोन से उद्वेलित होने से यह लिख पाया हूं। देखें, शायद चलती गाड़ी से यह पोस्ट पब्लिश हो जाये!

Tuesday, August 5, 2008

बीच गलियारे में सोता शिशु


गलियारे में सोता शिशु गलियारा किसी मकान का नहीं, दफ्तर की इमारतों के कॉम्प्लेक्स का। जिसपर लोग पैदल तेजी से आते जाते हों। उसपर वाहन नहीं चलते। पर बहुत चहल पहल रहती है। एक बहुमंजिला बिल्डिंग से निकल कर दूसरी में घुसते लोग। किनारे खड़े हो कर अपनी सिगरेट खतम करते लोग। बाहर से आये लोग जो रास्ता पूछ रहे हों फलाने जी से मिलने का।

यह है मेरे दफ्तर का परिसर। एक ब्लॉक का निर्माण कार्य चल रहा है। मशीनें और मजदूर काम कर रहे हैं। पर वह इलाका एक टीन की चद्दर से अलग किया हुआ है। मजदूर गलियारे में नहीं नजर आते।


निर्माण स्थल मैं तेजी से गलियारे में जा रहा था। अपनी धुन में। अचानक चाल पर ब्रेक लगी। सामने फर्श पर एक सीमेण्ट की बोरी पर एक शिशु सो रहा था। किसी मजदूरनी ने सुरक्षित सुला दिया होगा। काम की जल्दी थी, पर यह दृष्य अपने आप में मुझे काम से ज्यादा ध्यान देने योग्य लगा। आसपास नजर घुमाने पर कोई मजदूर नजर नहीं आया।

दफ्तर की महिला कर्मचारियों के लिये रेलवे की वीमेन्स वेलफेयर संस्था क्रेश की व्यवस्था करती है। उसके प्रबन्धन को ले कर बहुत चांव-चांव मचा करती है। महिला कर्मचारी प्रबन्धन से कभी प्रसन्न नहीं होतीं। महीने के थोड़े से क्रेश-चार्जेज को देने को लेकर भी बहुत यूनियन बाजी होती है। बच्चों को मिलने वाले दूध और खिलौनों की गुणवत्ता को ले कर अन्तहीन चर्चा होती है। और यहां यह शिशु को अकेले, गलियारे के बीचोबीच सुला गयी है उसकी मां। तसला-तगारी उठा रही होगी; पर मन का एक हिस्सा बच्चे पर लगा होगा।

मैं कुछ कर नहीं सकता था। हवा बह रही थी। हल्के बादल थे। बच्चे पर मक्खियां नहीं भिनक रही थी। मन ही मन मैने ईश्वर से बच्चे के उज्ज्वल भविष्य की कामना की। फिर कुछ संतुष्टि के साथ मैं आगे बढ़ गया।

आसपास देखा तो अधिकांश लोग तो शिशु को देख कर ठिठक भी नहीं रहे थे। यूं लगता था कि वे इसे बहुत सामान्य मान रहे थे। मेरी मानसिक हलचल में यह कुछ असामान्य परिदृष्य था; पर वास्तव में था नहीं!


Monday, August 4, 2008

साइकिल पे आइये तब कुछ जानकारी मिल पायेगी!


यह चिठ्ठा चर्चा वाले अनूप सुकुल ने लिखा है। उनका आशय है कि कार में गुजरते से नहीं, साइकल के स्तर पर उतरने से ही आम जनों की बात पता चलेगी, समझ आयेगी। बाद में वे पोस्ट (दिहाड़ी मिलना कठिन है क्या इस समय?) पर टिप्पणी में पिन चुभोऊ अन्दाज में कहते हैं - "अब आप उत्तरों और अटकलों का विश्लेषण करके हमें बतायें कि असल माजरा क्या है?"

फुरसतिया तो अपने मौजत्व से ही बोल रहे थे, पर अन्य शायद ऐसा नहीं समझते। office_chair

उस दिन अभय तिवारी क्षुब्ध को कर कर मेल कर रहे थे कि "...आप को मैं पहले भी कह चुका हूँ कि आप अफ़सरी सुर में अच्छे नहीं लगते.. आप की हलचल आप का प्रबल पक्ष है.. इस अफ़सरी में आप उसे कमज़ोर करते हैं.. अफ़सरी को अपने दफ़तर तक सीमित रखिये.."

भैया केकरे ऊपर हम अफसरी झाड़ा? बताव तनी? जेकर प्रिय भोजन खिचड़ी हो, छुरी कांटे से जिसे घुटन होती हो; जे हमेशा ई सोचे कि आदर्श फलाने मुनि की तरह खलिहान से छिटका अन्न बीन कर काम चला लेवे क अहै; ऊ कइसे अफसरगंजी झाड़े।


सांसत है। जमे जमाये इण्टेलेक्चुअल गोल को किसी मुद्दे पर असहमति दिखाओ तो वे कमजोर नस दबाते हैं - अफसरी की नस। यह नहीं जानते कि घोर नैराश्य और भाग्य के थपेड़ों  से वह नस सुन्न हो चुकी है। कितना भी न्यूरोबियान इन्जेक्शन कोंचवा दो, उसमें अफसरत्व आ ही नहीं सकता।

दफ्तर में यह हाल है कि हमारे कमरे में लोग निधड़क चले आते हैं। ऐसे सलाह देते हैं जैसे मार्केट में आलू-प्याज खरीद के गुर बता रहे हों। कभी किसी पर गुर्राने का अभिनय भी कर लिया तो अगली बार वह लाई-लाचीदाना-सेब की कतरन वाले पैकेट के साथ आयेगा - "अपने चाचा द्वारा लाया गया वैष्णव देवी का प्रसाद" देने का यत्न करेगा। तब हम दोनो हाथ जोड़ कर प्रसाद लेंगे पूरी श्रद्धा से। और अफसरी हवा हो जायेगी।trash

अफसर माने अपने को डेमी-गॉड और अन्य को प्रजा समझने वाला। वह जो प्रबन्धन नहीं करना जानता, मात्र एडमिनिस्ट्रेशन करता है। वह, जिसका कहा (अधकचरी जानकारी और अधकचरी विज्ञता के बावजूद) ब्रह्म वाक्य है। यह तो मैने नाटक में भी करने का प्रयास नहीं किया। मित्रों, अगर मैं वास्तव में अफसर होता तो नियमित चिठेरा बन ही न पाता।

हां यह सीख गया हूं - चलती कार से ली फोटो ठेलना उचित नहीं है। पर क्या करें - सारे विचार घर-दफ्तर की कम्यूटिंग में ही आते हैं। Sad


(अभय के साथ पुराना झगड़ा है। मैं ईश्वर कृपा और संसाधनों की असीम प्रचुरता (Law of abundance) में यकीन करता हूं; और अभय के अनुसार मेरा अनुभव व सूचना संकलन बहुत संकुचित है। यह झगड़ा ब्लॉगिंग की शुरुआत में ही हो गया था। खैर, इण्टेलेक्चुअल सुपीरियारिटी शो-ऑफ का मसला एक तरफ; अभय बहुत सज्जन व्यक्ति हैं।)

Saturday, August 2, 2008

दिहाड़ी मिलना कठिन है क्या इस समय?


Daily Wages मेरे पास बेरोजगारी के आंकड़े नहीं हैं। पर रोज दफ्तर जाते समय दिहाड़ी मजदूरी की प्रतीक्षारत लोगों को देखता हूं। इस बारे में फरवरी में एक पोस्ट भी लिखी थी मैने। तब जितने लोग प्रतीक्षारत देखता था उससे कहीं ज्यादा इस समय बारिश के मौसम में वहां प्रतीक्षारत दीखते हैं। क्या मजूरी मिलना कठिन हो गया है?

यह जरूर है कि वर्षा में निर्माण की गतिविधियां कम हो जाती हैं। सो यहां शहर मे काम कम मिलता है। पर सामान्यत अच्छे मानसून में जनता गांवों का रुख कर लेती है। खेती में मजदूरी की जरूरत बढ़ जाती है। रेलवे में ठेकेदार सामान्यत: इस मौसम में मजदूरों के न मिल पाने का रोना रोते रहते हैं।

क्या चक्कर है कि मजदूरी तलाशते लोग बढ़े हुये दिखाई देते हैं? फरवरी के मुकाबले लगभग ड्योढ़ी संख्या में। जरा देखिये ताजा फोटो - चलते वाहन से लोगों की भीड़ पूरी तरह कैप्चर नहीं कर पाया। साइकलें ही ज्यादा आ पायीं फोटो में। पर आपको मुझ पर यकीन करना होगा कि दिहाड़ी तलाशती भीड़ है पहले से ज्यादा।

क्या माजरा है। खेती में इस बारिश का लाभ नहीं है क्या? बारिश शायद समय के पहले बहुत ज्यादा हुई है। धान की रोपाई अच्छी नहीं हो पा रही। या शहर में जबरी टिके हैं ये मजूर - अण्डर एम्प्लायमेण्ट के बावजूद? या अर्थव्यवस्था चौपटीकरण के दौर में है? 

मेरे पास उत्तर नहीं है। कौतूहल है। क्या आपके पास उत्तर या अटकल है?