Monday, March 31, 2008

विक्तोर फ्रेंकल का साथी कैदियों को सम्बोधन - 1.


अपनी पुस्तक - MAN'S SEARCH FOR MEANING में विक्तोर फ्रेंकल सामुहिक साइकोथेरेपी की एक स्थिति का वर्णन करते हैं। यह उन्होने साथी 2500 नास्त्सी कंसंट्रेशन कैम्प के कैदियों को सम्बोधन में किया है। मैं पुस्तक के उस अंश के दो भाग कर उसका अनुवाद दो दिन में आपके समक्ष प्रस्तुत करने जा रहा हूं।

(आप कड़ी के लिये मेरी पिछली पोस्ट देखें)

यह है पहला भाग:
वह एक बुरा दिन था। परेड में यह घोषणा हुई थी कि अबसे हम कैदियों के कई काम विध्वंसक कार्रवाई माने जायेंगे। और विध्वंसक माने जाने के कारण उनके लिये तुरंत फांसी की सजा मिला करेगी। इन आपराधिक कामों में अपने कम्बल से छोटे छोटे टुकड़े काट लेना (जो हम अपने घुटनों के सपोर्ट के लिये करते थे) जैसे छोटे कृत्य भी शामिल थे। बहुत हल्की चोरियां भी इन विध्वंसक कामों की सीमा में ले आयी गयी थीं।

कुछ दिन पहले एक भूख से व्याकुल कैदी ने स्टोर से कुछ पाउण्ड आलू चुराये थे। इसे पता चलने पर बड़ी गम्भीरता से लिया जा रहा था। चुराने वाले को सेंधमार की संज्ञा दी जा रही थी। अधिकारियों ने हम कैदियों को आदेश दिया था कि हम उस "सेंधमार" को उनके हवाले कर दें, अन्यथा हम सभी 2500 कैदियों को एक दिन का भोजन नहीं मिलेगा। और हम सभी 2500 ने एक दिन का उपवास करना बेहतर समझा था।
जब भी नैराश्य मुझे घेरता है, विक्तोर फ्रेंकल (1905-1997) की याद हो आती है. नात्सी यातना शिविरों में, जहां भविष्य तो क्या, अगले एक घण्टे के बारे में कैदी को पता नहीं होता था कि वह जीवित रहेगा या नहीं, विक्तोर फ्रेंकल ने प्रचण्ड आशावाद दिखाया. अपने साथी कैदियों को भी उन्होने जीवन की प्रेरणा दी. उनकी पुस्तक “मैंस सर्च फॉर मीनिंग” उनके जीवन काल में ही 90 लाख से अधिक प्रतियों में विश्व भर में प्रसार पा चुकी थी. यह पुस्तक उन्होने मात्र 9 दिनों में लिखी थी.



इस दिन शाम को हम सभी भूखे अपनी झोंपड़ियों में लेटे थे। निश्चय ही हम बड़ी मायूसी में थे। बहुत कम बातें हो रही थीं। हर आदमी चिड़चिड़ा हो रहा था। ऐसे में बिजली भी चली गयी। हम लोगों की चिड़चिड़ाहट और बढ़ गयी। पर हमारे सीनियर ब्लॉक के वार्डन बुद्धिमान आदमी थे। उन्होने एक छोटी सी टॉक में उन बातों को बताया जो हम सब के मन में चल रही थीं। उन्होने पिछले दिनों बीमारी या भूख से मरे साथियों की चर्चा भी की। लेकिन वे यह बताना नहीं भूले कि मौतों का असली कारण क्या था - वह था - जीने की आशा छोड़ बैठना। सीनियर ब्लॉक वार्डन ने कहा कि कोई न कोई तरीका होना चाहिये जिससे साथी लोग इस चरम अवस्था तक न पंहुंच जायें। और उन्होने इस बारे में मुझे कुछ सलाह देने का आग्रह किया।

भगवान जानता है कि मैं अपने साथियों को उनके आत्मिक स्वास्थ्य के लिए किसी मनोवैज्ञानिक स्पष्टीकरण या उपदेश युक्त सलाह देने हेतु कतई मूड में नहीं था। मैं सर्दी और भूख से परेशान था। मुझमें थकान और चिड़चिड़ाहट थी। पर मुझे अपने को इस अभूतपूर्व स्थिति के लिये तैयार करना ही था। आज उत्साह संचार की जितनी आवश्यकता थी, उतनी शायद पहले कभी नहीं थी।

अत: मैने छोटी छोटी सुविधाओं की चर्चा से अपनी बात प्रारम्भ की। मैने बताया कि योरोप की द्वितीय विश्वयुद्ध की छठी सर्दियों में भी हमारी दशा उतनी खराब नहीं थी, जितनी हम कल्पना कर सकते हैं। मैने कहा कि हम सब सोचने का यत्न करें कि अब तक हमें कौन कौन सी क्षति हुई है, जिसे भविष्य में रिकवर न किया जा सके। मैने यह अटकल लगाई कि बहुत से लोगों के मामले में यह बहुत कम होगी। हममें से जो भी जिन्दा थे, उनके पास आशा के बहुत से कारण थे। स्वास्थ्य, परिवार, खुशियां, व्यवसायिक योग्यता, सौभाग्य, समाज में स्थान - ये सब या तो अभी भी पाये जा सकते हैं या रिस्टोर किये जा सकते हैं। आखिर अभी हमारी हड्डियां सलामत हैं। और हम जो झेल चुके हैं, वह किसी न किसी रूप में हमारे लिये भविष्य में सम्पदा (एसेट) बन सकता है। फिर मैने नीत्शे को उधृत किया - "वह जो मुझे मार नहीं डालता, मुझे सक्षमतर बनाता है"।

आगे मैने भविष्य की बात की। मैने यह कहा कि निरपेक्ष रूप से देखें तो भविष्य निराशापूर्ण ही लगता है। हममें से हर एक अपने बच निकलने की न्यून सम्भावना का अन्दाज लगा सकता है। मेरे अनुसार, यद्यपि हमारे कैम्प में क्षय रोग की महामारी नहीं फैली थी, मैं अपने बच निकलने की सम्भावना बीस में से एक की मानता हूं। पर इसके बावजूद मैं आशा छोड़ कर हाथ खड़े कर देने की नहीं सोचता। क्योंकि कोई आदमी नहीं जानता कि भविष्य उसके लिये क्या लेकर आयेगा। वह यह भी नहीं जानता कि अगले घण्टे में क्या होगा। भले ही हम अगले महीनों में किसी सनसनीखेज सामरिक घटना की उम्मीद नहीं करते, पर (कैम्प के पुराने अनुभव के आधार पर) हमसे बेहतर कौन जानता है कि व्यक्ति (इण्डीवीजुअल) के स्तर पर बड़ी सम्भावनायें अचानक प्रकटित हो जाती हैं। उदाहरण के लिये हममें से कोई किसी अच्छे ग्रुप के साथ अचानक जोड़ दिया जा सकता है, जहां काम की स्थितियां कहीं बेहतर हों। और किसी कैदी के लिये तो यह सौभाग्य ही है।.....

(शेष भाग 2 में, कल)

Sunday, March 30, 2008

आलू और कोल्डस्टोरेज


तेलियरगंज, इलाहाबाद में एक कोल्ड स्टोरेज है। उसके बाहर लम्बी कतारें लग रही हैं आलू से लदे ट्रकों-ट्रैक्टरों की। धूप मे‍ जाने कितनी देर वे इन्तजार करते होंगे। कभी कभी मुझे लगता है कि घण्टो‍ नहीं, दिनों तक प्रतीक्षा करते हैं। आलू की क्वालिटी तो प्रतीक्षा करते करते ही स्टोरेज से पहले डाउन हो जाती होगी।

पढ़ने में आ रहा है कि बम्पर फसल हुई है आलू की। उत्तरप्रदेश के पश्चिमी हिस्सों - आगरा, मथुरा, फिरोज़ाबाद, हाथरस आदि में तो ट्रकों-ट्रैक्टरों के कारण ट्रैफिक जाम लग गया है। मारपीट के मामले हो रहे हैं। आस पास के राज्यों के कोल्डस्टोरेज प्लॉण्ट्स को साउण्ड किया जा रहा है।

भारत में ५००० से अधिक कोल्डस्टोरेज हैं और उत्तरप्रदेश में १३०० हैं जो ९० लाख टन स्टोर कर सकते हैं। मालगाड़ी की भाषा में कहें तो करीब ३६०० मालगाड़ियां! लगता है कि कोल्डस्टोरेज आवश्यकता से बहुत कम हैं। उनकी गुणवत्ता भी स्तरीय है, यह भी ज्ञात नहीं। स्तरीय गुणवत्ता में तो आलू ८-९ महीने आसानी से रखा जा सकता है। पर हमें सर्दियों में नया आलू मिलने के पहले जो आलू मिलता है उसमें कई बार तो २५-३०% हिस्सा काला-काला सड़ा हुआ होता है।

उत्तर-मध्य रेलवे में हमने इस महीने आलू का लदान कर तीन ट्रेनें न्यू-गौहाटी और हासन के लिये रवाना की है। मुझे नहीं मालुम कि कोल्डस्टोरेज और ट्रेन से बाहर भेजने का क्या अर्थशास्त्र है। पर एक कैरियर के रूप में तो मैं चाहूंगा कि आगरा-अलीगढ़ बेल्ट से ३-४ और रेक रवाना हों! और अभी तो मालगाड़ी के रेक तो मांगते ही मिलने की अवस्था है - कोई वेटिंग टाइम नहीं!

घर पर आलू विषयक अपना काम मेरी अम्मा ने पूरा कर लिया है। आलू के चिप्स-पापड़ पर्याप्त बना लिये हैं। आपके यहां कैसी तैयारी रही?

Saturday, March 29, 2008

विदर्भ: मैं विक्तोर फ्रेंकल पर लौटना चाहूंगा


आठ महीने से अधिक हुये मैने विक्तोर फ्रेंकल के बारे में पोस्ट लिखी थी:

अब जब विदर्भ की आत्महत्याओं नें मन व्यथित किया है, तब इस पोस्ट की पुन: याद आ रही है। विदर्भ की समस्या वैसी ही जटिल है जसे नात्सी कंसंट्रेशन कैम्प की हालत। यहां सरकार की उदासीनता या कपास का खरीद मूल्य ठीक स्तर पर न रखने का मामला है। किसान की (शायद) अधिक की अपेक्षा है, बाजार की ठगी है, किसान की मेहनत का वाजिब मूल्य न मिलना है, मौसम की रुक्षता है - और न जाने क्या क्या है। पर उस सब का नैराश्य नात्सी कंसंट्रेशन कैम्प से ज्यादा नहीं होगा।

इसलिये मैं विक्तोर फ्रेंकल का आशावाद उस पुरानी पोस्ट के माध्यम से पुन: व्यक्त करना चाहता हूं। आप वह पोस्ट पढ़ें:
जब भी नैराश्य मुझे घेरता है, विक्तोर फ्रेंकल (1905-1997) की याद हो आती है. नात्सी यातना शिविरों में, जहां भविष्य तो क्या, अगले एक घण्टे के बारे में कैदी को पता नहीं होता था कि वह जीवित रहेगा या नहीं, विक्तोर फ्रेंकल ने प्रचण्ड आशावाद दिखाया. अपने साथी कैदियों को भी उन्होने जीवन की प्रेरणा दी. उनकी पुस्तक मैंस सर्च फॉर मीनिंग”* उनके जीवन काल में ही 90 लाख से अधिक प्रतियों में विश्व भर में प्रसार पा चुकी थी. यह पुस्तक उन्होने
मात्र 9 दिनों में लिखी थी.


पुस्तक में एक प्रसंग है. नात्सी यातना शिविर में 2500 कैदी एक दिन का भोजन छोड़ने को तैयार हैं क्योंकि वे भूख के कारण स्टोर से कुछ आलू चुराने वाले कैदी को चिन्हित कर मृत्युदण्ड नहीं दिलाना चाहते. दिन भर के भूखे कैदियों में ठण्ड की गलन, कुपोषण, चिड़चिड़ाहट, निराशा और हताशा व्याप्त है. बहुत से आत्महत्या के कगार पर हैं. बिजली भी चली गयी है. ऐसे में एक सीनियर विक्तोर को कैदियों को सम्बोधित कर आशा का संचार करने को कहता है. विक्तोर छोटा सा पर सशक्त सम्बोधन देते हैं और उससे कैदियों पर आशातीत प्रभाव पड़ता है. मैं इस अंश को बार-बार पढ़ता हूं. उससे मुझे बहुत प्रेरणा मिलती है. उस ढ़ाई पृष्ठों का अनुवाद मैं फिर कभी करने का यत्न करूंगा. (सॉरी, यह मैं अब तक नहीं कर पाया। - 29 मार्च 2008)

अभी मैं पुस्तक के कुछ उद्धरणों का अनुवाद प्रस्तुत करता हूं, जो यह स्पष्ट करे कि विक्तोर फ्रेंकल की सोच किस प्रकार की थी. विभिन्न विषयों पर फ्रेंकल इस प्रकार कहते हैं:

अपने नजरिये को चुनने की स्वतंत्रता पर:
मानव से सब कुछ छीना जा सकता है. सिवाय मानव की मूलभूत स्वतंत्रता के. यह स्वतंत्रता है
किसी भी स्थिति में अपना रास्ता चुनने हेतु अपने नजरिये का निर्धारण करने की.

वह, जो मुझे मारता नहीं, मुझे और दृढ़ता प्रदान करता है. - नीत्से.

जीवन मूल्यों और लक्ष्यों के प्रति प्रतिबद्ध होने पर:
मानव को तनाव रहित अवस्था नहीं चाहिये. उसे चाहिये एक उपयुक्त लक्ष्य की दिशा में सतत आगे बढ़ती और जद्दोजहद करती अवस्था.

तनावों को किसी भी कीमत पर ढ़ीला करना जरूरी नहीं है, जरूरी है अपने अन्दर के सोये अर्थ को उद्धाटित करने को उत्प्रेरित होना.

जीवन के अर्थ की खोज पर:
हमें अपने अस्तित्व के अर्थ की संरचना नहीं करनी है, वरन उस अर्थ को खोजना है.

और हम यह खोज तीन प्रकार से कर सकते हैं
(1) काम कर के, (2) जीवन मूल्य पर प्रयोग कर के और (3) विपत्तियां झेल कर.

अपने कार्य को पूरा करने पर:
एक व्यक्ति जो जानता है कि उसकी किसी व्यक्ति के प्रति कुछ जिम्मेदारी है जो उसके लिये प्रेम भाव से इंतजार कर रहा होगा; अथवा उस अधूरे काम के प्रति जो उसे पूरा करना है, तो वह कभी अपने जीवन को यूंही फैंक नहीं देगा. अगर उसे जीवन के
क्यों की जानकारी है तो वह “कैसी भी परिस्थिति को झेल जायेगा.

महत्वपूर्ण यह नहीं कि हम जिन्दगी से क्या चाहते हैं, वरन यह है जिंदगी हमसे क्या चाहती है. हम जीवन के अर्थ के बारे में प्रश्न करना छोड़; प्रति दिन, प्रति घण्टे अपने आप को यह समझने का यत्न करें कि जिन्दगी हमसे प्रश्न कर रही है. हमारा उत्तर ध्यान और वार्ता में नहीं वरन सही काम और सही आचरण में होना चाहिये. जिन्दगी का अर्थ उसकी समस्याओं के सही उत्तर पाने तथा वह जिन कार्यों की अपेक्षा मानव से करती है, उनके पूर्ण सम्पादन की जिम्मेदारी मानने में है.


* - पुस्तक पर विकी लिंक यहां है.
और विक्तोर फ्रेन्कल के एक इण्टरव्यू का वीडियो यहां है:



Friday, March 28, 2008

विदर्भ की आत्महत्याओं का तोड़ (वाकई?)


मुझे झेंप आती है कि मेरे पास विदर्भ की समस्या का कोई, बेकार सा ही सही, समाधान नहीं है। वैसे बहुत विद्वता पूर्ण कहने-लिखने वालों के पास भी नहीं है। सरकार के पास तो नहियंई है। वह तो मात्र कर्ज माफी का पेड़ लगा कर वोट के फल तोड़ना चाहती है।


श्रीयुत श्रीमोहन पाण्डेय


हमारे साथी अधिकारी श्रीयुत श्रीमोहन ने एक पते की बात बताई है। उनका गांव बलिया जिला में है। गरीबी का मूल स्थान है बलिया। और आज भी गरीबी की भीषणता के दर्शन करने हों तो वहां जाया जा सकता है।

करनराम, गांव दामोदरपुर, पास का रेल स्टेशन फेफना, जिला बलिया के निवासी थे। वे 96 साल की जिन्दगी काट कर दुनियां से गये। उनके अपने पास एक इंच जमीन नहीं थी। गांव में एक बाग में संत की समाधि की देखभाल करते थे करनराम जी। आसपास की लगभग एक बीघा की जमीन में अरहर, पटसन, चना - जो भी हो सकता था बो लेते थे। कुछ और कमाई के लिये पाजामा-कुरता-नेकर आदि देसी पहनावे के वस्त्र सिल लेते थे। उनकी पत्नी उनकी मृत्यु से तीन साल पहले मरी थीं। अर्थात दोनो पूरी जिन्दगी काट कर दुनियां से गये। एक लड़का था जिसे चतुर्थ श्रेणी में एफ सी आई में नौकरी मिली थी और जो अपने बूते पर अफसर बन गया था; पर करन राम जी ऐसे स्वाभिमानी थे कि लड़के से एक रत्ती भी सहायता कभी नहीं ली।


ढ़ोल
करनराम जी के पास खाने को कुछ हुआ तो ठीक वरना पटसन के फूलों की तरकारी बना कर भी काम चलाते थे। सदा मस्त रहने वाले जीव। किसी भी मेले में उनकी उपस्थिति अनिवार्य बनती थी। चाहे बलिया का ददरी मेला हो या गड़वार के जंगली बाबा के मन्दिर पर लगने वाला मेला हो। बड़े अच्छे गायक थे और ढ़ोल बजाते थे। अभाव में भी रस लेने का इंतजाम उनकी प्रकृति का अंग बना हुआ था। उन्हे अवसाद तो कभी हुआ न होगा। भले ही भूखे पेट रहे हों दिनो दिन।

करनराम जी एब्जेक्ट पावर्टी में भी पूरी जिन्दगी मस्त मलंग की तरह काट गये। और पूर्वांचल में करनराम अकेले नहीं हैं। यहां भूख के कारण मौत हो सकती है। पर विदर्भ की तरह के किसानों के सपने टूटने के अवसाद की आत्महत्या वाली मौतें नहीं होतीं। लोगों ने अपनी कृषि से कैश क्रॉप के अरिथमैटिक/कैश-फ्लो वाली अपेक्षायें अपने पर लाद नहीं रखी हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के बेचे स्वप्न बिना वास्तविकता का डिस्काउण्ट लगाये उन लोगों ने स्वीकार नहीं कर लिये हैं। उन सपनों के आधार पर हैसियत से ऊपर के कर्ज नहीं ले रखे हैं। मितव्ययता/फ्रूगालिटी उनके गुणसूत्र में है। गंगा की बाढ़ ने सहस्त्राब्दियों से अभावों को सहजता से लेना उन्हे सिखाया है। आप एक आध चारवाकवादी को उद्धृत भले कर दें यहां के; पर सामान्य जनसंख्या करनराम जी की तरह की है।

करनराम जी का उदाहरण शायद विदर्भ का एण्टीडोट हो। न भी हो तो भी उसपर विचार करने से क्या जाता है। अपनी अपेक्षायें कम करने और थोड़े में प्रसन्नता ढ़ूंढ़ना ही तो समाधान है। और कोई समाधान भी तो नहीं है। है भी तो लफ्फाजी की चाशनी में लिपटा यूटोपिया है!

आप भी सोचें!
मुझे पक्का यकीन है कि बुद्धिवादी मेरी इस पोस्ट को खारिज करने का पूरा मन बनायेंगे। देश के आर्थिक विकास की बजाय मैं फ्रूगालिटी की बात कर रहा हूं। और असली बात - किसान की आत्महत्या का इतना बढ़िया मुद्दा मिला है सरकार पर कोड़े बरसाने का, उसे छोड़ मैं पटसन के फूलों की तरकारी की वकालत कर रहा हूं।

"सरकारी मुलाजिम हूं न! सो सरकार के पक्ष के लिये मामला डाइवर्ट कर रहा हूं!"

Thursday, March 27, 2008

मणियवा खूब मार खाया


मणियवा का बाप उसे मन्नो की दुकान पर लगा कर पेशगी 200 रुपया पा गया। सात-आठ साल के मणियवा (सही सही कहें तो मणि) का काम है चाय की दुकान पर चाय देना, बर्तन साफ करना, और जो भी फुटकर काम कहा जाये, करना। उसके बाप का तो मणियवा को बन्धक रखवाने पर होली की पन्नी (कच्ची शराब) का इंतजाम हो गया। शांती कह रही थी कि वह तो टुन्न हो कर सड़क पर लोट लोट कर बिरहा गा रहा था। और मणियवा मन्नो की दुकान पर छोटी से गलती के कारण मार खाया तो फुर्र हो गया। उसकी अम्मा उसे ढ़ूंढ़ती भटक रही थी। छोटा बच्चा। होली का दिन। मिठाई-गुझिया की कौन कहे, खाना भी नहीँ खाया होगा। भाग कर जायेगा कहां?

शाम के समय नजर आया। गंगा किनारे घूम रहा था। लोग नारियल चढ़ाते-फैंकते हैं गंगा में। वही निकाल निकाल कर उसका गूदा खा रहा था। पेट शायद भर गया हो। पर घर पंहुचा तो बाप ने, नशे की हालत में होते हुये भी, फिर बेहिसाब मारा। बाप की मार शायद मन्नो की मार से ज्यादा स्वीकार्य लगी हो। रात में मणियवा घर की मड़ई में ही सोया।

कब तक मणियवा घर पर सोयेगा? सब तरफ उपेक्षा, गरीबी, भूख देख कर कभी न कभी वह सड़क पर गुम होने चला आयेगा। और सड़क बहुत निर्मम है। कहने को तो अनेकों स्ट्रीट अर्चिंस को आसरा देती है। पर उनसे सब कुछ चूस लेती है। जो उनमें बचता है या जैसा उनका रूपांतरण होता है - वह भयावह है। सुकुमार बच्चे वहां सबसे बुरे प्रकार के नशेड़ी, यौन शोषित, अपराधी और हत्यारे तक में मॉर्फ होते पाये गये हैं।

जी हां। हम सब जानते हैं कि मणियवा खूब मराया गया (मार खाया) है। एक दो साल और मरायेगा। फिर मणियवा गायब हो जायेगा?! कौन कब तक मार खा सकता है? हां, जिन्दगी से मार तो हमेशा मिलेगी!

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अब देखिये, चाहता था हैरीपॉटरीय तिलस्म। अनूप शुक्ल ने बताया हामिद का चिमटा और छूटते ही लिख बैठा मणियवा की अभाव-शोषण ग्रस्त दास्तान। पता नहीं, गंगा किनारे मणियवा को यूं ही टहलते हैरीपॉटरीय तिलस्म दिखता होगा उसको अपने अभाव के रिक्ल्यूज़ के रूप में। हर घोंघे-सीपी में नया संसार नजर आता होगा।

बचपन में हमने भी उस संसार की कल्पना की है, पर अब वैसा नहीं हो पाता!
इस पोस्ट के लिये चाय की केतली और ग्लास रखने के उपकरण का चित्र चाहिये था। मेरे दफ्तर की केण्टीन वाला ले कर आया। केतली खूब मांज कर लाया था। उसे मेरा चपरासी यह आश्वासन दे कर लाया था कि कोई परेशानी की बात नहीं है - तुम्हारी फोटो छपेगी; उसके लिये बुलाया है।

आप केण्टीन वाले का भी फोटो देखें। वह तो शानदार बालों वाला नौजवान है। पर उसके पास तीन चार छोटे बच्चे हैं काम करने वाले - मणि की तरह के।

और हां मणियवा भी काल्पनिक चरित्र नहीं है - पर जान बूझ कर मैं उसका चित्र नहीं दे रहा हूं।

Wednesday, March 26, 2008

भूमिगत जल और उसका प्रदूषण


आज बुधवासरीय अतिथि पोस्ट में आप श्री पंकज अवधिया द्वारा भूमिगत जल और उसके प्रदूषण पर विस्तृत जानकारी उनके नीचे दिये गये लेख में पढ़ें। इस लेख में जल प्रदूषण पर और कोणों से भी चर्चा है। उनके पुराने लेख आप पंकज अवधिया के लेबल सर्च से देख सकते हैं।


भूमिगत जल क्या हमेशा प्रदूषण से बचा रहता है? क्या हम बिना किसी जाँच के इसका उपयोग कर सकते हैं ? बहुत वर्ष पहले मैने एक भू-जल विशेषज्ञ से यह प्रश्न किया था। उनका जवाब वही था जो हमने पाठ्य पुस्तको मे प ढ़ा था। मतलब भूमिगत जल प्रदूषण से मुक्त रहता है। इसी विश्वास के साथ हम पानी का उपयोग करते रहे पर आज जब छत्तीसगढ के शहरों मे भूमिगत जल मे तरह-तरह की अशुद्धियाँ मिल रही हैं और लोग बीमार प रहे है तो अचानक ही हमे अपनी ग लती का अहसास हो रहा है कि हमने एक अधूरे विज्ञान पर विश्वास किया। राज्य मे चूने पर आधारित भू-रचना है। वर्षा का जल कार्बन डाई-आक्साइड के साथ मिलकर तनु अम्ल बनाता है। यह अम्लीय पानी चूने मे जगह बनाता जाता है और नीचे एकत्र हो जाता है। भूमि के अन्दर छोटे-छोटे पोखर होते है जिन्हे एक्वीफर कहा जाता है। यह आपस मे जुड़े होते है। आप इस चित्र को देखे तो आप को पता चलेगा कि कैसे प्रदूषक आपके साफ-सुथरे जल को दूषित कर सकते हैं


««« आप संलग्न थम्बनेल पर क्लिक कर "Living on Karst - A reference guide" नामक वेब पन्ने पर जायें। वहां पृष्ठ 4 के अंत मे बने रेखाचित्र को देखे कि भूमिगत पानी का प्रदूषण कैसे होता है।


सघन बस्तियों मे प्रदूषण की समस्या कई गुना ब जाती है। छत्तीसगढ मे बते शहरीकरण के कारण हजारों बोरवेल अमृत की जगह जहर दे रहे हैं । पूरे देश मे कमोबेश यही स्थिति है। नाँन पाइंट पाँल्यूशन की बात दुनिया भर में हो रही है। इस लिंक पर क्लिक कर आप उस विषय पर एक इण्टरेक्टिव फ्लेशप्वाइण्ट प्रेजेण्टेशन को भी देख सकते हैं।


पिछले एक दशक से भी अधिक समय से मै जल से सम्बन्धित पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान का दस्तावेजीकरण कर रहा हूँ। मानसून की पहली वर्षा की प्रतीक्षा पारम्परिक चिकित्सक बेसब्री से करते रहते हैं । अलग-अलग वनस्पति से एकत्र की गयी पहली वर्षा का जल नाना प्रकार के रोगों की चिकित्सा में प्रयोग होता है। विशेष पात्रो में इस जल को एकत्र कर लिया जाता है फिर साल भर विभिन्न तरीकों से इसका उपयोग होता रहता है। आप इस कड़ी पर जाकर यह जानकारी पा सकते हैं कि कैसे अलग-अलग वनस्पति से एकत्र किया गया जल रोगों से मुक्ति दिलवाता है।


भारत में पहली मानसूनी वर्षा मे नहाने की परम्परा सदा से रही है। इससे गर्मी मे होने वाले फोडे-फुंसी से निजात मिलती है। मेरे एक जापानी मित्र भारत के इस ज्ञान से अभिभूत हैं। वे कहते हैं कि जापान मे तो पहली वर्षा होते ही हम शरीर को ढ़ंक लेते हैं कि कही अम्लीय वर्षा से नाना-प्रकार के रोग न हो जायें । औद्योगिक प्रदूषण जो बढ गया है। अब धीरे-धीरे भारत मे भी यही हाल हो रहा है।


भारत मे नदियों का जाल फैला हुआ है। गंगा जल के औषधीय महत्व को तो हम सब जानते हैं । देश के पारम्परिक चिकित्सक प्रत्येक नदी के पानी के औषधीय गुणों के विषय मे जानते हैं वे रोग विशेष से प्रभावित रोगियों को विशेष नदी का पानी पीने की सलाह देते हैं । वे बताते हैं कि जिस प्रकार के वनो से बहकर नदी पहाड़ों से मैदानो मे आती है उसके औषधीय गुण भी वैसे ही हो जाते हैं । मुझे याद आता है कि बस्तर मे इन्द्रावती नदी के किनारे निर्मली नामक वृक्ष पहले बहुत होते थे। यह वही निर्मली है जिसका प्रयोग पी ढ़ि यों से आदिवासी गन्दे जल को साफ करने में करते रहे हैं। इस नदी के जल का उपयोग दवा के रुप मे होता था। आज निर्मली के वृक्ष काटे जा चुके हैं और नदी की स्थिति हम सभी जानते हैं । जैसा कि आप जानते हैं, मैं मधुमेह से सम्बन्धित पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान पर एक रपट तैया र कर रहा हूँ। इस रपट मे बीस से अधिक छोटी-बडी नदियों के जल के औषधीय उपयोग का वर्णन मैने किया है। यह अपने आप मे अदभुत ज्ञान है। उदाहरण के लिये पैरी नामक नदी का जल उन वनस्पतियों के साथ दिया जाता है जो कि श्वाँस और मधुमेह रोगों से प्रभावितों के लिये उपयोगी हैं


देश के पारम्परिक चिकित्सक कुँओं के पास पीपल प्रजाति के वृक्षो की उपस्थिति को अच्छा मानते है। गूलर के साये मे स्थिति कुँ ए के जल का सबसे अच्छा माना जाता है। तालाबों के आस-पास इन वृक्षों की उपस्थिति देखी जा सकती है। यह विडम्बना ही है कि इनके महत्व मे बारे में नयी पीढ़ी को बताने हेतु बहुत कम प्रयास हो रहे हैं मुझे नही लगता कि अपने पूर्वजो की दूरदर्शिता के कारण जी रहे हमारी पीढी के लोग कभी पीपल और गूलर जैसे नये वृक्षों को लगाने का पुण्य कार्य करेंगे। इसका खामियाजा वर्तमान और आने वाली पीढी को भुगतना होगा।


जल संरक्षण के नाम पर देश भर मे करोड़ों फूँके जा रहे हैं। पंचतंत्र के रट्टू तोते की तरह सब चिल्ला रहे हैं। शिकारी आता है, जाल फैलाता है, जाल मे नही फंसना चाहिये पर कोई भी शिकारी को देखकर भाग नही रहा है। हम खूब व्याख्यान दे रहे हैं कि जल को बचाना चाहिये। बीच-बीच मे सूखे गले को तर करने हम सत्व विहिन बोतल बन्द पानी भी पी लेते हैं पर कभी अपनी दिनचर्या से समय निकालकर विशेष प्रयास नहीं करते हैं। जल के नाम पर असंख्य संगठन कुकुरमुत्तों की तरह उग आये हैं। जितना पैसा आज तक इन्हे प्रचार के लिये दिया गया है उसका आधा भी जमीनी कार्य मे लगा दिया जाता तो आज देश की स्थिति कुछ बदली-बदली नजर आती।


निर्मली पर शोध आलेख

गूलर (डूमर) पर शोध आलेख


पंकज अवधिया

© लेख पर सर्वाधिकार श्री पंकज अवधिया का है।


पंकज अवधिया जी की उक्त पोस्ट ने मुझे चिंता में डाल दिया हैं। मेरे घर में पानी की सप्लाई के दो सोर्स हैं। एक तो म्यूनिसिपालिटी की पाइप की सप्लाई है, जो लोगों द्वारा टुल्लू पम्प लगा कर पानी खींचने की वृत्ति के कारण बहुत कम काम आती है। दूसरा सोर्स बोरवेल का है। उससे पानी तो पर्याप्त मिलता है, पर उसके स्थान और एक छोटे सेप्टिक टेंक में दूरी बहुत ज्यादा नहीं है। यद्यपि कभी समस्या जल प्रदूषण के कारण पेट आदि की तकलीफ की नहीं हुई, पर सम्भावना तो बन ही जाती है कि प्रदूषक जमीन के नीचे के जल तक पंहुच जायें।

हमारे घर में तो सेप्टिक टेंक को री-लोकेट करने के लिये स्थान उपलब्ध है; और एक योजना भी हम लोगों के मन में है। लेकिन शहरी रिहायश में बहुधा लोगों की जल-मल निकासी उनके पानी के सोर्स से गड्डमड्ड होती ही है और जल प्रदूषण से हैजा जैसी समस्यायें आम सुनने में आती हैं।
पता नहीं समाधान क्या है?

Tuesday, March 25, 2008

ब्लॉगस्पॉट में पोस्ट शिड्यूलिंग की समस्या हल हुई


कुछ समय पहले (15 फरवरी को)ब्लॉगर इन ड्राफ्ट ने सुविधा दी थी कि आप वर्ड प्रेस की तरह अपनी पोस्टें शिड्यूल कर ड्राफ्ट में डाल सकते हैं और वे नियत समय पर पब्लिश हो जायेंगी। उस समाचार को हम सब ने बहुत हर्ष के साथ लिया था। पर जल्दी ही पाया कि पोस्ट नियत समय पर पब्लिश हो तो जा रही थीं, पर उनका permalink” नहीं बन रहा था। लिहाजा पोस्ट आपके ब्लॉग यूआरएल के लिंक से पब्लिश हो रही थीं। फीड एग्रेगेटर उसे पकड़ नहीं रहे थे और हिन्दी जगत में वह पब्लिश होना ही क्या जो पोस्ट फीड एग्रेगेटर पर न चढ़ पाये। और तो और, फीडबर्नर या गूगल रीडर भी उस पोस्ट को पब्लिश हुआ पहचान नहीं रहे थे। लिहाजा, हम लोगों ने उस शिड्यूलिंग की सुविधा का प्रयोग बन्द कर दिया। इस पर अनिल रघुराज जी ने अपनी एक पोस्ट में सुविधा के लोचे के बारे में लिखा भी था।


रविवार के दिन मैं यूं ही ब्लॉगर इन ड्राफ्ट का ब्लॉग देख रहा था। मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि permalink की समस्या उनकी टीम ने तीन मार्च को हल कर ली थी। हमने तो उसका उपयोग किया ही नहीं!


अत: मैने कल छपी अपनी हैरीपॉटरीय ब्लॉग की चाहत नामक पोस्ट सवेरे 4:30 बजे शिड्यूल कर ब्लॉगर इन ड्राफ्ट में डाल दी। सवेरे साढ़े छ बजे पाया कि न केवल वह पोस्ट अपने यूनीक permalink के साथ पब्लिश हो गयी थी, वरन उसे फीडबर्नर, फीड एग्रेगेटरों (चिठ्ठाजगत, ब्लॉगवाणी, नारद) और गूगल रीडर ने भी चिन्हित कर लिया था। आप नीचे देखें, वह पोस्ट 4:35 पर ब्लॉगवाणी पर और 4:30 पर नारद पर आ गयी थी:


एक दिन की ट्रायल के बाद मुझे लगता है कि ब्लॉगस्पॉट में पोस्ट शिड्यूल कर पब्लिश करने का काम सुचारू हो गया है। हो सकता है कि आप सब को यह ज्ञात हो। पर जिन्हे न ज्ञात हो, उनकी सूचनार्थ मैं यह पोस्ट लिख रहा हूं। आप इस सुविधा का लाभ ले सकते हैं।


Monday, March 24, 2008

हैरीपॉटरीय ब्लॉग की चाहत


मैने हैरी पॉटर नहीं पढ़ा। मुझे बताया गया कि वह चन्द्रकांता संतति या भूतनाथ जैसी तिलस्मी रचना है। चन्द्रकांता संतति को पढ़ने के लिये उस समय की बनारस की अंग्रेज मेमों ने हिन्दी सीखी थी। नो वण्डर कि हैरी पॉटर पर इतनी हांव-हांव होती है।

पर अब अगर हैरी पॉटर नुमा कुछ पढ़ना चाहूंगा तो ब्लॉग पर पढ़ना चाहूंगा। जेके रॉलिंस या देवकीनन्दन खत्री की प्रतिभा के दीवाने नहीं हैं क्या ब्लॉग जगत में?! वैसे तो चचा हैदर वाले पॉडकास्ट में अज़दक ने बारिश और टंगट्विस्टर भाषा के साथ जो प्रयोग किये हैं, उसे देख कर लगता है कि पटखनीआसन के बाद अगर वे "तिलस्म के अज़दकीय पॉडकास्ट" की शृंखला चलाये तो सबसे हिट ब्लॉगर साबित होंगे। खैर, मैं यह कदापि नहीं कहना चाहता कि वे अभी सबसे हिट नहीं हैं। पर बकरी की लेंड़ी की बजाय हैरीपॉटर का तिलस्म कहीं ज्यादा प्रिय लगेगा। और असली चीज है कि समझ में आयेगा।

हैरीपॉटरीय पोस्ट लिखने में अनूप सुकुल भी मुझे जबरदस्त काबिल लगते हैं। अगड़म-बगड़म पुराणिक कदापि नहीं लगते। वे तो भूत-राखी-सेहरावत-चुड़ैल के साथ शाश्वत प्रयोग धर्मी हैं, पर सब के साथ व्यंग की तिताई लपेट देते हैं; वहीं गड़बड़ हो जाता है। तिलस्म चले तो बिना व्यंग के चले! शिव कुमार मिश्र शायद लिख पाते, पर वे भी दुर्योधन की डायरी ले कर व्यंगकारों की *** टोली में जा घुसे हैं। कभी कभी ही जायका बदलने को दिनकर जी को ठेलते हैं ब्लॉग पर!

खैर, और भी बहुत हैं प्रतिभा सम्पन्न। आशा है कोई न कोई आगे आयेंगे। और नहीं आये तो साल छ महीने बाद हम ही ट्राई मारेंगे। अपना अवसाद मिटाने को ऐसा लेखन-पठन होना चाहिये।

और प्रियंकर जी कहां गये - हैरीपॉटर/चन्द्रकांता संतति उनके लिये साहित्य की छुद्र पायदान हो सकती है। पर वे टिप्पणी तो कर ही सकते हैं!

(चित्र जेके रॉलिंस की ऑफीशियल वेब साइट से।)
कल बापू पर एक्स्ट्रीम रियेक्शंस मिले। अच्छा रहा। आश्चर्य नहीं हुआ। मैं अगर योगेश्वर कृष्ण पर चर्चा के लिये आह्वान करता तो भी शायद एक्स्ट्रीम रियेक्शंस मिलते!
श्री अरविन्द के सामने एक विक्षिप्त से लगते कुल्लासामी (मैं शायद नाम के हिज्जे ठीक से नहीं लिख पा रहा) ने चाय के कप को उलटा-पलटा। श्री अरविन्द ने बताया कि उसका अर्थ है कि अगर कप को भरना हो तो पहले खाली करना चाहिये। हमारे दिमाग में भी अगर कुछ भरना है तो पहले खाली करना होगा!

Sunday, March 23, 2008

दीपक पटेल जी की सोच


दीपक पटेल जी कौन हैं - पता नहीं। मेरी राजभाषा बैठक के दौरान इधर उधर की वाली पोस्ट में बापू के लिखे के अनुवाद पर उनकी रोमनागरी में हिन्दी टिप्पणियां हैं। कोई लिंक नहीं है जिससे उनका प्रोफाइल जाना जा सकता। पर उन्होनें जो टिप्पणियों में लिखा है; उसके मुताबिक वे बहुत प्रिय पात्र लगते हैं। उनकी हिन्दी का स्तर भी बहुत अच्छा है (बस, देवनागरी लेखन के टूल नहीं हैं शायद)। ऐसे लोग हिन्दी में नेट पर कण्ट्रीब्यूटर होने चाहियें।

मैं तो उनकी टिप्पणी पर फुटकर विचार रखना चाहूंगा:
  1. बापू हमारे राष्ट्रपिता ही नहीं, हमारी नैतिकता के उच्चतम आदर्श हैं। भारत में जन्मने के जो भी कष्ट हों; हममें अन्तत: वह गर्व-भाव तो रहेगा ही कि यह हमारा वह देश है, जहां बापू जन्मे, रहे और कर्म किये। उनके आश्रम में उनकी वस्तुयें देखी परखी हैं और एक रोमांच मन में सदैव होता है कि इतना सरल आदमी इतना ऊंचा उठ गया। हमें उन लोगों से मिलने का भी गर्व है जो कभी न कभी बापू के सम्पर्क में आये थे।
  2. बापू की भाषा - मैं उनकी अंग्रेजी की बात कर रहा हूं, इतनी सरल है कि समझने में कोई कठिनाई नहीं होती। शुरू में, स्कूली दिनों में, जब हमें अंग्रेजी कम आती थी तो गांधीजी की आत्मकथा और अन्य पतली-पतली बुकलेट्स जो उन्होंने लिखी थीं, मन लगा कर पढ़ते थे जिससे कि अंग्रेजी सीख सकें। बापू के कहे का आशय समझ में न आ सके - यह अटपटा लगता है। यह तो तभी हो सकता है जब किसी बन्दे का एण्टीना बापू के सिगनल पर शून्य एम्प्लीफिकेशन और राखी सावन्त के सिगनल पर 10K का एम्प्लीफिकेशन फैक्टर रखता हो। पर ऐसा व्यक्ति वास्तव में बिना सींग-पूंछ का अजूबा ही होगा।
  3. इस ब्लॉगजगत में कई विद्वान ऐसे होंगे जो मरकहे बैल की तरह बापू को गरिया/धकिया सकते हैं। बापू को आउट डेटेड बता सकते हैं। बापू तो हिन्दी की तरह हैं - मीक और लल्लू! पर क्राइस्ट की माने तो भविष्य मीक और लल्लू का ही है। और एक प्रकार से सदा रहा है। बस - मीक और लल्लू के बदले कायर न पढ़ा जाये। मुझे बापू जैसा साहसी वर्तमान युग में देखने को नहीं मिला। जो आदमी अपनी न कही जा सकने वाली गलतियां भी स्वीकारने में झेंप न महसूस करे, उससे बड़ा साहसी कौन होगा? और मित्रों, हम साहस हीनता (दुस्साहस नहीं) से ही तो जूझ रहे हैं?
दीपक पटेल जी की सोच को मेरी फुटकर पोस्ट ने टिकल किया; यह जान कर मुझे प्रसन्नता है। बापू की वर्तमान युग में प्रासंगिकता पर चर्चा होनी चाहिये और कस कर होनी चाहिये।

ब्लॉगजगत में महाफटीचर विषयों पर अन्तहीन चर्चा होती है। बापू जैसे सार्थक चरित्र पर क्यों नहीं हो सकती?!

Saturday, March 22, 2008

॥गुझिया बनाना उद्यम - होली मुबारक॥


यह चित्र मेरी पत्नी श्रीमती रीता पाण्डेय और मेरे भृत्य भरतलाल के गुझिया बनाने के दौरान कल शाम के समय लिया गया है। सामन्यत: रेलवे की अफसरायें इस प्रकार के चिर्कुट(?!) काम में लिप्त नहीं पायी जातीं। पर कुछ करना हो तो काम ऐसे ही होते हैं - दत्तचित्त और वातावरण से अस्तव्यस्त! यह उद्यम करने का कारण - मेरा विचार; कि हम लोग तो जन्मजात अफसर केटेगरी के नहीं हैं। (रीताजी को इस वाक्य पर कुनमुनाहट है! यद्यपि साफ तौर पर उन्होने नहीं कहा कि मैं यह कथन हटा दूं!)।



और इस चित्र के साथ ही आप सब को होली की अनेक शुभकामनायें।


Friday, March 21, 2008

बिजनेस अखबारों की मायूसी


भारत की अर्थव्यवस्था अचानक नाजुक हो जाती है। अचानक पता चलता है कि ढ़ांचागत उद्योग डावांडोल हैं। कच्चे तेल में आग लग रही है। रियाल्टी सेक्टर का गुब्बारा फूट रहा है।

यह सब जानने के लिये आपको रिप वान विंकल की तरह २० साल सोना नहीं पड़ता। अखबार २० दिन में ऐसी पल्टीमार खबरें देने लगते हैं। सफेद पन्ने के अखबार कहें तो ठीक; पर बिजनेस अखबार मायूसी का अचानक राग अलापने लगें तो अटपटा लगता है। आपको मिरगी की बीमारी हो तो वह भी कुछ प्रीमोनीशन के साथ आती है। पर यहां तो जब निफ्टी सरक-दरक जाता है तो बिजनेस अखबार रुदाली का रोल अदा करने लगते हैं। मैने तो यही देखा है। रोज सवेरे दफ्तर जाने के रास्ते में अखबार स्कैन करता हूं तो यह अहसास बड़ी तीव्रता से होता है।

शिवकुमार मिश्र या स्मार्ट निवेश पुराणिक ज्यादा जानते होंगे। पर हमें तो न ढ़ंग से स्टॉक खरीदना आया न बेचना। यह जरूर जानते हैं कि लॉग-टर्म में इण्डेक्स ऊर्ध्वगामी होता है। उसी सिद्धान्त का कुछ लाभ ले लेते हैं। बाकी शिवकुमार मिश्र को अपना पोर्टफोलियो भेज देते हैं - कि हे केशव, युद्धक्षेत्र में क्या करना है - यह एक मत से बतायें।

पर जैसा मैं कुछ दिनों से देख रहा हूं; गुलाबी पन्ने के अखबारों को कोई सिल्वर लाइन नहीं नजर आ रही। अर्थव्यवस्था चौपट लग रही है। अचानक यह कैसे हो जाता है। ये अखबार बैलेन्स बना कर क्यों नहीं चल सकते?

मुझे लगता है कि कुछ ही महीनों में पल्टी मारेंगे ये अखबार। चुनाव से पहले एक यूफोरिया जनरेट होगा जो बिजनेस अखबारों के पोर-पोर से झलकेगा। चुनाव से पहले फील-गुड फेक्टर आयेगा। अब उसको समझाने के लिये तरह तरह के जार्गन्स का प्रयोग होगा। पर आजकी मायूस अर्थव्यवस्था की खबरों से सॉमरसॉल्ट होगा जरूर।

बाकी; ज्यादा बढ़िया तो अर्थजगत के जानकार बतायेंगे! (क्या वास्तव में?!)
और इस पोस्ट पर पिछले कुछ दिनों से मिल रही आलोक पुराणिक जी की निचुड़ी हुई टिप्पणी मिली तो ठीक नहीं होगा! वे टिप्पणी में चाहे अगड़म बगड़म की प्रैक्टिस करें या स्मार्ट निवेश की। कुछ भी चलेगा। [-X

Thursday, March 20, 2008

राजभाषा बैठक के दौरान इधर उधर की


कल उत्तर-मध्य रेलवे की राजभाषा कार्यान्वयन समिति की त्रैमासिक बैठक महाप्रबंधक श्री विवेक सहाय जी की अध्यक्षता में हुई। इस तरह की बैठक में सामान्यत: राजभाषा विषयक आंकड़े प्रस्तुत किये जाते हैं। उनपर सन्तोष/असन्तोष व्यक्त किया जाता है। पिछले तीन महीने में राजभाषा अधिकारी की जो विभाग नहीं सुनता, उसपर आंकड़ों और प्रगति में कुछ विपरीत टिप्पणी हो जाती है। हिन्दी में क-ख-ग क्षेत्र हो कितने पत्र लिखे जाने थे, कितने लिखे गये; कितनी टिप्पणियां हिन्दी में हुईं; कितनी बैठकों के कार्यवृत्त हिन्दी में जारी हुये या कितनों में हिन्दी पर चर्चा हुई; कितने नक्शे-आरेख हिन्दी में बने .... इस तरह की बातों पर चर्चा होती है। फिर बैठक का समापन होता है। बैठक में सामान्यत: कुछ विशेष रोचक नहीं होता जिसे ब्लॉग पर लिखा जा सके। यह अवश्य हुआ कि श्री सहाय ने अपने क्लिष्ट लिखे भाषण को पढ़ने की बजाय अपने मुक्त सम्बोधन में इलाहाबाद की हिन्दी में श्रेष्ठता पर बहुत कुछ बोला और यह स्पष्ट कर दिया कि वे विशुद्ध हिन्दी वाले इलाहाबादी हैं - अंग्रेजीदां अफसर नहीं।
 
♦♦♦♦♦ 

पर, कल हुई बैठक में दो बातें मुझे ब्लॉग पर पेश करने लायक मिलीं। पहली बात हिन्दी अनुवाद की दुरुहता को लेकर है। बात "वर्तनी" की अशुद्धि पर चल रही थी। एक विभागध्यक्ष (श्री उपेन्द्र कुमार सिंह, मुख्य वाणिज्य प्रबंधक) उसे बर्तन की अशुद्धि (बर्तन का गन्दा होना) पर मोड़ ले गये। वहां से बात इस पर चल पड़ी कि हिन्दी अनुवाद कितना अटपटा होता है। एक अन्य विभागाध्यक्ष (श्री हरानन्द, रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स के चीफ सिक्यूरिटी कमिश्नर) ने किस्सा बताया कि गांधी जी के एक पत्र/लेख का अनुवाद करना था। उसमें बापू ने स्टेशनों पर वेटिंग रूम में शौचालय के विषय में कहा था कि - "facility should be provided for fair sex"। अर्थात वेटिंग रूम में स्त्रियों के लिये भी शौचालय की व्यवस्था होनी चाहिये।

इस अंग्रेजी वाक्यांश का अनुवाद हिन्दी सहायक ने किया - "(प्रतीक्षा कक्ष में) मुक्त यौनाचार की सुविधा होनी चाहिये!"

अधिकारी महोदय ने बताया कि मौके पर उन्होंने वह अनुवाद की गलती पकड़ ली। अन्यथा मक्षिका स्थाने मक्षिका वाले अनुवादक बापू को मुक्त-यौनाचार का प्रवर्तक बना कर छोड़ते; वह भी स्टेशन के वेटिंग रूम में सुविधा देते हुये!
♦♦♦♦♦

कल की बैठक में दूसरी रोचक बात मैने देखी कि हमारे उत्तर-मध्य रेलवे के चीफ मैडिकल डायरेक्टर डा. एन के कल्ला एक अच्छे रेखा चित्रकार हैं। एक डाक्टर में यह प्रतिभा पाना बहुत अच्छा लगा। डाक्टर साहब ने भारतीय रेलवे राजभाषा की सलाहकार परिषद के सदस्य श्री विभूति मिश्रजी, जो बैठक में शामिल थे, का एक रेखा चित्र बनाया था। आप उनका बनाया रेखा चित्र देखें। मिश्र जी का चित्र बिल्कुल सही बना है।»»

बाद में बातचीत में डा. कल्ला ने मुझे बताया कि वे मुझे तनाव के प्रबन्धन पर अपने कुछ लेख मुझे आगे लिख कर देने का यत्न करेंगे। एक वरिष्ठ डक्टर द्वारा लिखा लेख ब्लॉग पर प्रस्तुत करने में मुझे बहुत प्रसन्नता होगी।

««डा. कल्ला का चित्र भी मैने बैठक स्थल पर मोबाइल में उतार लिया था। मुझे अपेक्षा है कि उनके मैडिकल ज्ञान का कुछ अंश मैं अपने ब्लॉग पर आगामी सप्ताहों में प्रस्तुत कर सकूंगा।
   

Wednesday, March 19, 2008

गाजर घास पर जानकारी


आज बुधवासरीय अतिथि पोस्ट में आप श्री पंकज अवधिया द्वारा गाजर घास पर विभिन्न कोणों से दी गयी विस्तृत जानकारी उनके नीचे दिये गये लेख में पढ़ें। उनके पुराने लेख आप पंकज अवधिया के लेबल सर्च से देख सकते हैं।


गाजर घास (पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस) की समस्या जन-जन की समस्या बनती जा रही है। भारत में गाजर घास लगभग सभी क्षेत्रोँ में फैली है और जन-स्वास्थ्य के लिये खतरा बनी हुई है। यह विडंबना ही है कि आज भी भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा गाजरघास के विषय में नहीं जानता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि व्यापक जन-जागरण अभियान चलाकर न केवल व्यक्तिगत स्तर पर गाजर घास का उन्मूलन किया जाए बल्कि सरकार पर भी दबाव बनाया जाये। इस आलेख में प्रश्नोत्तरी के माध्यम से गाजर घास के विषयमें नवीनतम जानकारी उपलब्ध कराने का प्रयास किया गया है।

प्रश्न:  गाजर घास क्या है और इसका नाम ''गाजर घास'' क्यों पड़ा?

उत्तर: गाजरघास एक साधारण सा दिखने वाला खरपतवार है जो कि पहले बेकार जमीन व मेड़ों तक ही सीमित था पर अब यह खेतों में प्रवेश कर फसलों से प्रतियोगिता कर रहा है। गाजर घास एस्टेरेसी परिवार का सदस्य है। देश-विदेश के विभिन्न क्षेत्रोँ में इसके अलग-अलग स्थानीय नाम हें। इन नामों के पीछे गाजर घास के पौधे की विशेषता छिपी हुई है। गाजरके समान पत्ती होने के कारण गाजर घास कहते हैं। इसके फूल सफेद रंग के होते हैं इसलिए इसे चटकचांदनी या व्हाइट टाप भी कहा जाता है। जबलपुर के आस-पास के लोग इसकी सर्वत्र उपलब्धता के आधार पर इसे रामफूल कहते हैं। चूंकि यह खरपतवार सामान्यत: समूहों में उगता है इसीलिए इसे कांग्रेस वीड कहा जाता है। पार्थेनियम की 15 जातियाँ विश्व में पाई जाती हैं। इनमें से पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस ही अधिक नुकसानदायक है। बहुत अधिक बीजोत्पादन क्षमता होने के कारण ही इसे पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस का नाम मिला। गाजरघास के पौधे वार्षिक होते हैं व इनकी ऊंचाई सामान्यतया 2 मीटर तक होती है। गाजर घासकी पत्तियों व तनों पर छोटे-छोटे रोम पाये जाते हैं जिन्हें ट्रायकोम्स कहा जाता है।

प्रश्न:  गाजरघास से क्या-क्या नुकसान हैं?

उत्तर:  गाजरघास संभवत: विश्व एक एकमात्र ऐसा खरपतवार है जो कि मनुष्यों, पशुओं, फसलों, वनों और वन्यप्राणियों सभी के लिये नुकसानदायक है। गाजर घास के फूलों से उत्सर्जित होनेवाले पराग-कण मनुष्य के श्वास तंत्र में प्रवेश करके अस्थायी दमा व एलर्जी उत्पन्न करते हैं। गाजर घास के एक फूल से असंख्य परागकण उत्सर्जित होते हैं। एक परागकण किसी मनुष्य को अस्वस्थ करने के लिये पर्याप्त है। ये परागकण हमारे आस-पास हवा में फैले रहते हैं व साधारण ऑंखों से दिखायी नहीं पड़ते हैं। देश के विभिन्न महानगरों व नगरों में किये गये सर्वेक्षणों से पता चला है कि वहाँ के वातावरण में गाजर घास के परागकण अन्य हानिकारक परागकणों की तुलना में बहुत अधिक हैं। पश्चिम बंगाल के मोहनपुर क्षेत्र में काली पूजा के समय गाजर घास के फूल आते हैं व परागकणों का उत्सर्जन होता है। इस समय यहाँ का प्रशासन लोगों की मदद के लिये दसों अस्थायी अस्पतालों की व्यवस्था करवाता है। फिर भी प्रभावित लोगों की संख्या में कमी नहीं आती है। गाजरघास के परागकण मनुष्यों के अलावा पशुओं व फसलों को भी नुकसान पहूँचाते हैं। हवा में उपस्थित असंख्य परागकण पर- परागित सब्जी की फसलों में पौधों के मादा जनन अंगों के ऊपर एकत्रित हो जाते हैं जिससे कि उनकी संवेदनशीलता खत्म हो जाती है और बीज नहीं बनने से फसलों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। गाजर घास के निरंतर संपर्क में आने वाले मनुष्यों को त्वचा की एलर्जी का खतरा रहता है। अनुसंधानों से पता चला है कि गाजर घास के संपर्क में आने से एक विशेष प्रकार का एक्जीमा हो जाता है। आपका ये जानकर आश्चर्य होगा कि भारत के कर्नाटक राज्य में गाजर घास जनित रोगों से प्रभावित होकर 7 से भी अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। यह विश्व में पहली घटना है जबकि किसी खरपतवार से परेशान होकर किसानों ने आत्महत्या की हो। गाजर घास के पौधे कुछ घातक एलिलो-रसायनों का स्त्राव करते हैं। ये एलिलो-रसायन आस-पास किसी अन्य पौधों को उगने नहीं देते हैं। भारतीय वन अपनी जैव-विविधता के कारण विश्व के मानचित्र में विशेष स्थान रखते हैं। भारतीय वनों में आज भी ऐसी सैकड़ों वनौषधियाँ उपलब्ध हैं जिनके दिव्य औषधिय गुणों का सही आकलन अभी तक नहीं हुआ है। भारतीय वनों में गाजर घास के अनियंत्रित फैलाव से बेशकीमती जड़ी-बूटियाँ नष्ट होती जा रही हैं। गाजर घास के दुष्प्रभाव से वन्य प्राणी भी अछूते नहीं रह गये हैं। आस्ट्रेलिया में प्रति वर्ष 165 अरब रूपयों का खाद्य/मांस गाजर घास के कारण अप्रत्यक्ष रूप से बर्बाद होता है।भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा किये गये अनुसंधानों से पता चला है कि गाजर घास के प्रकोप से फसलों की उपज में 40 प्रतिशत तक कमी हो जाती है। गाजर घास के परागकण मक्के के पर-परागण में बाधा डालते हैं व इसकी उपज को 50 प्रतिशत तक कम कर देते हैं। आस्ट्रेलिया में गाजर घास एक विशेष प्रकार के सूत्राकृमि को आश्रय देती है। यह सूत्राकृमि सूर्यमुखी के लिये नुकसानदायक है।

प्रश्न:  क्या गाजर घास का उत्पत्ति स्थान भारत है और क्या भारत में ही इसका प्रकोप हैं?

उत्तर:  नहीं। गाजर घास का उत्पत्ति स्थान भारत नहीं है। गाजर घास का उत्पत्ति स्थान है दक्षिणमध्य अमेरिका । भारत में गाजर घास को जानबूझकर 1951 में आयातित अन्न के साथ लाया गया। सबसे पहले भारत में इसे पूना में देखा गया। अब यह बात एकदम साफ हो गई है कि अमेरिका ने भारत को आयतित अन्न के साथ गाजर घास के बीज मिलाकर भेजे ताकि भारत जैसे विकासशील देश की सुदृढ़ कृषि व्यवस्था को छिन्न-भिन्न किया जा सके। आज गाजर घास का उत्पत्ति स्थान अमेरिका गाजर घास की समस्या से उतना अधिक प्रभावित नहीं है, जितना विश्व के अन्य क्षेत्र। यदि गाजर घास से प्रभावित देशों को मानचित्र में दर्शाया जाये तो सबसे ज्यादा प्रभावित देश भारत ही दिखेगा। गाजर घास से प्रभावित देशों में अफ्रीका गणतंत्र, मेडागास्कर, केन्या, मोजाम्बिक, मारिशस, इजरायल, भारत, बांग्लादेश, नेपाल, चीन, वियतनाम, ताइवान, आस्ट्रेलिया आदि प्रमुख हैं।

प्रश्न:  गाजरघास के तेजी से फैलने के क्या-क्या कारण हैं?

उत्तर:  गाजरघास का पौधा कई विशिष्ट गुणों से युक्त होता है। इन्हीं विशिष्ट गुणों के कारण इसका फैलाव निर्बाध गति से हो रहा है। गाजर घास के एक पौधे से लगलग 25,000 बीज बनते हैं।इन बीजों में सुसुप्तावस्था नहीं पाई जाती है अर्थात ये सभी बीज तुरंत अंकुरण की क्षमता रखते हैं। गाजर घास के बीज हवा व जल के माध्यम से फैलते हैं। एक वर्ष में गाजर घास की तीन से चार पीढ़ियाँ होती हैं। गाजर घास सभी प्रकार की मिट्टियों में अच्छी वृद्धि करता है। यह विपरीत वातावरणीय परिस्थितियों, अधिक अम्लता या क्षारीयता वाली भूमि आदि में उग सकता है। इसके अलावा गाजर घास के पौधे पार्थेनिन, काउमेरिक एसिड, कैफिक एसिड आदि घातक एलिलोरसायनों का स्त्रवण करते हैं जो कि अपने आस-पास किसी अन्य पौधे को उगने नहीं देते हैं व गाजर घास से कोई भी पौधा या फसल प्रतियोगिता नहीं कर पाती है। इन्हीं कारणों से गाजर घास का फैलाव अन्य पौधों की तुलना में तेजी से हो रहा है।

प्रश्न:  गाजरघास को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है?

उत्तर:  गाजरघास को परिस्थितियों के अनुसार अलग-अलग विधियों से नियंत्रित किया जा सकता है। गाजर घास को हाथ से उखाड़कर नष्ट किया जा सकता है। यह कार्य फूल आने से पहले करना चाहिये ताकि गाजर घास का आगे फैलाव न हो। इस उपाय से गाजर घास को प्रभावी रूप से नियंत्रण के लिये विशेष सावधानी की आवश्यकता है। हाथों में दस्ताने पहनना व मुँह व कान को अच्छी तरह से कपड़े से बांधना आवश्यक है। बच्चों को तो हाथ से गाजर घास नहीं उखाड़ने देना चाहिये। नमक के 20 प्रतिशत घोल से भी गाजर घास को आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है। किसान भाई 5 गिलास पानी में एक गिलास साधारण नमक घोलकर पौधों पर छिड़काव कर सकते हैं। घरों के आस-पास सीमित स्थानों पर गाजर घास को इस तरह नियंत्रित किया जा सकता है पर बहुत बड़े क्षेत्र में इसके प्रयोग से भूमि की लवणता बढ़ सकती है। साथ ही बड़े क्षेत्र के लिये यह विधि खर्चीली भी है। भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने कई ऐसे पौधे सुझायें हैं जो कि तेजी से बढ़ते हैं व उपयोगी हैं तथा गाजर घास की वृद्धि को कम करने में सहायक हैं। इन पौधों में गेंदा, चरोटा, क्रोटन आदि प्रमुख हैं। गेंदे के पौधे का निचोभी गाजर घास की वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। कर्नाटर सरकार कैसिया सेरेसिया नामक पौधे के बीज किसानों को उपलब्ध करा रही है। ये पौधे गाजर घास से प्रतियोगिता करके उसे नष्ट कर देते हैं। कुछ मित्र कीट व रोग कारक भी गाजर घास के विरूद्ध उपयोगी पाये गये हैं। कीटों में जाइगोग्रामाबाइकलरेटा नामक कीट केवल गाजर घास को ही नष्ट करता है व भारतीय परिस्थितियों के लिये उपयुक्त पाया गया है। गाजर घास को उपलब्ध कृषि रसायनों की सहायता से भी नियंत्रिात किया जा सकता है। इन रसायनों में एट्राजीन, डाइकाम्बा, एट्राजीन+2, 4 डी, मेटसल्फ्यूरॉन, ग्लाइफोसेट आदि प्रमुख हैं।

प्रश्न:   क्या गाजर घास का रासायनिक नियंत्रण पर्यावरण के दृष्टिकोण से सुरक्षित है?

उत्तर:  गाजरघास को विदेशों से भारत लाया गया है। यह कटु सत्य है कि गाजर घास को नियंत्रित करने में सक्षम कृषि रसायन भी विदेशों की ही देन हैं। गाजर घास का रासायनिक नियंत्रण पर्यावरण के दृष्टिकोण से बिल्कुल सही नहीं है। उपलब्ध रसायन न केवल मिट्टी बल्कि मिट्टी में उपस्थित लाभकारी सूक्ष्मजीवों के लिये भी नुकसानदायक हैं। इसके अलावा ये रसायन भूमिगत जल को भी दूषित कर देते हैं। यदि यह कहा जाय कि गाजरघास को रासायनिक विधि से नियंत्रित करना एक समस्या को हटाकर दूसरी भयानक समस्या को आमंत्रण देना है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

प्रश्न:  क्या सरकारी स्तर पर किसी अभियान के तहत इसे उखाडा जा रहा है?

उत्तर:  नही सरकारी स्तर पर ऐसा कोई प्रयास नही हो रहा है। खरपरवार वैज्ञानिको की पहल पर प्रतिवर्ष 6 से 12 सितम्बर को गाजर घास जागरुकता सप्ताह मनाया जाता है। इसे हाल ही के वर्षो से आरम्भ किया गया है। इसके पीछे उद्देश्य सही है पर ज्यादातर आयोजन भाषणो तक सीमित होने लगे हैं। जिस गति से गाजर घास का फैलाव हो रहा है उसे देखकर यही लगता है कि एक दशक तक वृहत पैमाने पर अभियान की जरुरत है।

प्रश्न:  गाजर घास के विरुद्ध अभियान मे जुटी संस्थाए सोपाम और आई.पी.आर.एन.जी. को इस कार्य के लिये पैसे कहाँ से मिलते है?

उत्तर:  दोनो ही संस्थाए निज व्यय से चलती है। यहाँ तक की सदस्यो से सदस्यता शुल्क भी नही लिया जाता है। इन संस्थाओ का संचालन संस्थापक पंकज अवधिया करते है। सोपाम द्वारा अभी तक दस हजार से अधिक किसानो को पोस्टकार्ड के माध्यम से जानकारी दी जा चुकी है। आई.पी.आर.एन.जी. गाजर घास से जुडे किसानो और वैज्ञानिको का आन-लाइन ग्रुप है। इसकी अपनी वेबसाइट है जो गाजर घास पर विस्तार से जानकारी देने वाली दुनिया की एकमात्र वेबसाइट है। इसे भी निज व्यय से संचालित किया जाता है। पिछले एक दशक से भी अधिक समय से गाजर घास जागरुकता अभियान बिना किसी आर्थिक और तकनीकी सहायता से चल रहा है।     


गाजर घास पर इण्टरनेट पर उपलब्ध कुछ महत्वपूर्ण लिंक:

इंटरनेशनल पार्थेनियम रिसर्च न्यूज ग्रुप की वेबसाइट

गाजर घास के चित्र

गाजर घास पर हिन्दी आलेख और शोध पत्र

इकोपोर्ट पर उपलब्ध शोध आलेख

बाटेनिकल डाट काम पर उपलब्ध शोध आलेख

गाजर घास पर चर्चा हेतु याहू ग्रुप


पंकज अवधिया

© इस लेख पर सर्वाधिकार श्री पंकज अवधिया का है।


गाजर घास के चित्र लेने में देर कर दी हमने। कल धुंधलका होने पर याद आया। मैं और रीताजी घूमने निकले। टॉर्च, कैमरे के प्लैश और स्ट्रीट लाइट में यह चित्र लिये जो ऊपर लगाये हैं। रात में झाड़-झंखाड़ का फोटो लेते देखने वाले हमें निश्चय ही खब्ती समझ रहे होंगे! :-)

ब्लॉगिंग खब्तियाने का ही दूसरा नाम है शायद!