सुरेश जोसेफ से मैं मिला नही। जानता भी नहीं। पर गौरी सक्सेना ने मुझे उनके बारे में बताया।
गौरी मेरी सहकर्मी हैं। वे उत्तर-मध्य रेलवे का सामान्य वाणिज्य प्रबन्धन देखती हैं – वैसे ही जैसे मैं मालगाड़ी प्रबन्धन देखता हूं। परसो उन्होने बताया कि सुरेश जोसेफ उनसे मिलने आ रहे हैं। आयेंगे तो वे मुझे फोन कर मिलवायेंगी। पर जोसेफ के आने पर मैं किसी और काम में व्यस्त था, और मुलाकात न हो सकी।
जोसेफ रेल अधिकारी थे, मेरी तरह के। फिर उन्होने रेलवे छोड़ दी। उसके बाद कोच्ची में एक कण्टेनर टर्मिनल का काम देखा। वह प्रोजेक्ट पूरा होने पर इस साल उन्होने अपनी लड़की की शादी की। अब अपने एक मित्र की एक मारुति स्विफ्ट कार उधार ले कर अकेले भ्रमण पर निकले हैं भारत का। बहुत अच्छी तरह नियोजन कर यात्रा प्रारम्भ की है अक्तूबर’१० के प्रारम्भ में।
ओ, मदरासी, तुम उतने ही पागल हो, जितना तीस साल पहले थे! मैं वहीं हूं, जहां तुम शुरू हुये थे। गुडलक!
जोसेफ की यात्रा शुरू करते समय उनके ब्लॉग पर एक टिप्पणी।
सुरेश यह यात्रा विवरण अपने ब्लॉग – The Travels of A Railwayman में लिख रहे हैं। पर्याप्त पठनीय है यह ब्लॉग। अस्सी से अधिक पोस्टें हो चुकी हैं उसमें|
मैं सुरेश जोसेफ और उनकी यात्रा के बारे में क्यों यह पोस्ट लिख रहा हूं, जबकि उनसे बातचीत नहीं है और भविष्य में मिलने की सम्भावना भी कम ही है। केवल और केवल इस लिये कि यायावरी का विचार मुझे फैसीनेट कर रहा है। मेरा स्वास्थ सीक्योर नहीं है और मेरा आर्थिक पक्ष भी पर्याप्त सीक्योर नहीं है। पर दिल की इच्छा है तो है।
सुरेश को अपनी इस यात्रा के स्वप्न को मूर्त रूप देने में एक दशक लग गया। हो सकता है मुझे सपनों को रंग देने और साकार करने में उससे भी कम समय लगे। शायद।
आप उनका ब्लॉग खंगालें!
इस तरह की घुमक्कडी के लिये इच्छाशक्ति की आवश्यकता है . संसाधन तो जुट ही जाते है . मै भी बहुत सोचता हूं इस तरह की यात्रा के लिये लेकिन मेरी स्थिति भी मुल्ला की दौड मस्जिद तक की है
ReplyDeleteयात्रा मंगलमय हो
ReplyDeleteसुरेश जोसेफ जी से चेन्नई में मिला था प्रशिक्षण के समय 1997 में। बड़े ही जीवन्त और सरल ट्रैफिक अधिकारी रहे हैं। हम सबको स्टर्लिंग क्लब में एक शानदार पार्टी दी थी। वह भूलता नहीं। अभी जाकर ब्लॉग खंगालते हैं।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा इसे पढना।
ReplyDeleteछोटी अवस्था में की गई यात्रा जहां मेरे लिए शिक्षा का एक अंग था, वहीं अब बड़ी अवस्था में अनुभव का हो गया है।
यात्रा का उपयोग कल्पना को यथार्थ द्वारा नियमित करना है और यह विचारते रहने के स्थान पर कि वस्तुएं कैसी हो सकती हैं, उन्हें यथातथ्य देखना है।
प्रसंगवश :
आपको चूंकि यायावरी का शौक है एक संस्कृत का श्लोक उद्धृत कर रहा हूं,
अंगारपूर्वे गमने च लाभः
सोमे शनौ दक्षिणमर्थलाभः।
बुधे गुरौ पश्चिमकार्यसिद्धि
रवौ भृगौ चोत्तरमर्थलाभः॥
... और अंत में ...
‘मधुमन्मे परायणं मधुमत्पुरायनम्’ (ऋग्वेद।)
पैसे के बिना कुछ भी सम्भव नहीं... अधिक पैसे के बिना...
ReplyDeleteधन्यवाद इस अद्भुत परिचय का|
ReplyDeleteगाडी की पिछली सीट पर बैठकर हजारों किलोमीटर की यात्रा की और फिर खुद ड्राइव करके पर मुझे तो ड्रायवर के बगल की सीट में बैठकर जो नजारे देखने को मिले वो अन्य स्थानों से नहीं| वैसे हमारे एक मित्र जो बड़े पुलिस अधिकारी हैं, कहते रहे हैं कि ड्राइवर के बगल में बैठना अपमानजनक है पर मुझे तो वही सीट भाती है| खुद गाडी चलाने से सारा ध्यान सडकों पर होता है|
यायावरी के लिए मुझसे यदि हिन्दी ब्लागरों की एक टीम बनाने को कहा जाए तो मैं पाबला जी, ललित जी, और राहुल जी को जरुर शामिल करना चाहूंगा| आप तो रहेंगे ही| :)
dhanyavaad|
ReplyDeleteऐसी यात्रा करने के लिये हिम्मत चाहिए...
ReplyDeleteयात्रा मंगलमय हो।
@ भारतीय नागरिक > ... अधिक पैसे के बिना...
ReplyDeleteविमल डे की पुस्तक पढ़ी जाये - महातीर्थ के अन्तिम यात्री। विमल डे फक्कडी। बे पैसे तिब्बत हो आये। सन १९६७ में मात्र १८ रुपये के साथ विश्वभ्रमण पर निकले।
पुस्तक लोकभारती प्रकाशन की है। पेपरबैक्स में १५० रुपये की।
बेहतर विचार है। आप समय-समय पर जो सामाजिक मसले उठाते रहते हैं उसे नजदीक से देखने और समझने का अवसर मिलेगा। खासकर ऐसे दौर में, जब भारत की बुनियादी समस्याओं जैसे विस्थापन, आदिवासियों की समस्या, ग्रामीण क्षेत्र में हो रहे बदलाव, औद्योगीकरण के पिछले १० साल में हुए बदलाव पर कोई पुस्तक नहीं आ रही है, आप कुछ बेहतरीन दिखा सकेंगे।
ReplyDeleteजोसेफ जी के साथ भी कुछ परिस्थितियां तो वषिम होंगी ही, लेकिन उन्होंने घुमक्कड़ी साध ली है, कमाल है.
ReplyDeleteशुभकामनाएं! ईश्वर करें आपका स्वप्न जल्द ही साकार हो सके.
ReplyDeleteयायावरी मुझे भी रोमांचित करती है। लेकिन अपनी सामाजिक जिम्मेदारियाँ और आर्थिक पक्ष बड़ी यात्रा की अनुमति नहीं देते। हाँ जब भी मौका मिलता है मैं नहीं चूकता। जोसेफ से मिलने जा रहे हैं उन के ब्लाग पर।
ReplyDeleteयाद आता है कि अनूप शुक्ल जी ने भी साइकिल से बहुत लम्बी यात्रायें की हैं और उनके ब्लौग पर कुछ पोस्ट में इसका ज़िक्र भी आया है.
ReplyDeleteगांधीजी के विचारों से प्रेरित होकर किसी अंग्रेज युवक ने बिना रुपये-पैसे के पूरे विश्व की यात्रा की है, सिर्फ इसी भरोसे कि लोग मदद ज़रूर करेंगे. उसकी कड़ी ढूंढकर आपको बताऊँगा.
ऐसी यात्रा बहुत हिम्मत का काम है.
हम्म...
ReplyDelete...जब मैं अपने बारे में सोचता हूं तो पाता हूं कि शायद मैं घुमक्कड़ नहीं हो सकता क्योंकि शायद मैं काहिली की हद तक आरामपसंद इन्सान हूं :) मैं तभी कहीं जा सकता हूं जब सब कुछ पहले से तय हो और वह भी तब जब कंफ़र्ट लेवल उम्दा हो. भले ही हाइवे ड्राइविंग मुझे बहुत पसंद है पर अकेले (?)...बिल्कुल नहीं. इसलिए मुझे जोसफ़ जी से ईर्ष्या हो रही है कि वे ऐसा कर पर रहे हैं. जोसफ जी के मित्र को भी साधुवाद कि उन्होंने अपनी स्विफ्ट इन्हें दे रखी है...मैं तो अपने ड्राइवर को भी चाभी देने से पहले सोचता हूं :)
शुक्रिया इस ब्लॉग से परिचय करवाने का...यात्रा वृत्तांत पढना हमेशा से अच्छा लगता है...बशर्ते रोचकता से लिखा गया हो...(आपने परिचय करवाया है...निस्संदेह रोचक ही होगा ) अभी देखती हूँ.
ReplyDeleteआपलोग तो ऐसे सपने देख भी लेते हैं....पर महिलाओं(भारतीय ,पारिवारिक ) के लिए यह कल्पनातीत है...वरना इच्छा तो सच में होती है....कंधे पर एक झोला टांग, निकल जाएँ और रास्ते के सारे अनुभवों को गुणते चलें. पर पढ़ कर ही आनंद ले लेते हैं
सुरेश जोजेफ़ की यात्रा के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा। उनका रास्ता पता होता तो अच्छा रहता। देखते कहां कहां जाना है उनको।
ReplyDeleteमुझे अपनी 27 साल पहले की साइकिल यात्रा याद आ गयी। हम तीन लड़के निकल गये थे तीन महीने के लिये साइकिल पर। उप्र, बिहार, प.बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, पांडीचेरी, केरल, कर्नाटक, गोवा, महाराष्ट्र, म.प्र. होते हुये 9000 किमी सडक नाप डाली साइकिल पर!
ऐसे कामों के लिये प्लानिंग, स्वास्थ्य, पैसे से ज्यादा हिम्मत, हौसला और बेवकूफ़ी भरा जुनून काम आते हैं। हमारे साथियों में से एक उस समय भयंकर दमा का मरीज था। पैसे भी हमारे पास बहुत कम थे। बड़ी मुश्किल से हास्टल का खर्च पूरा होता था। इस सबके बावजूद हमने सोचा और एक महीने में तैयार होकर निकल किये। हमें याद है कि इम्तहान के तीन दिन के गैप में हम एक दिन इम्तहान की तैयारी करते थे बाकी दो दिन रास्ते की प्लानिंग और रास्ते में पड़ने वाले शहर के दोस्तों के पते इकट्ठा करते थे।
पूरे तीन महीने के दौरान हम केवल दो जगह किराया देकर रुके। एक ऊंटी दूसरा कन्याकुमारी। इसके अलावा सब जगह मुफ़्त में। या तो दोस्तों के घर या मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, थाना , पुलिया,ठेलिया। जहां रात हुई सो गये।
उस यात्रा की ही यादे हैं कि मुझे अपने देश का हर हिस्सा अपना लगता है। हर प्रांत के व्यक्ति से अपनापा लगता है। न जाने किन किन लोगों ने मुफ़्त रुकाया, खिलाया-पिलाया, पैसे दिये और न जाने कैसी-कैसी सहायतायें दी।
यह तय है कि मैं एक बार फ़िर भारत भ्रमण करूंगा। इसके बाद संभव है तो दुनिया भी। कब यह कहना सही नहीं है, क्योंकि बहुत समय नहीं लगेगा मुझे निकलने में। ऐसे ही निकल लूंगा कभी ब्लॉग लिखने की तरह। चलियेगा आप भी?
ये रहा मेरी पहली पोस्ट का लिंक
ReplyDeletehttp://hindini.com/fursatiya/archives/53
यायावरी की दीवानगी मुझे भी है. बचपन से ट्रैकिंग, पर्वतारोहण, स्काई डाइविंग, रीवर राफ्टिंग, पैरा ग्लाइडिंग, वन-भ्रमण... विमान उड़ाना जैसे चैलेंजिंग खेलों का सपना देखती थी (कर कुछ नहीं पायी :( ) मेरे पिताजी ने अच्छी-अच्छी नौकरियां छोड़कर रेलवे में स्टेशन मास्टर की नौकरी ही इसीलिये की थी कि उसमें फ्री पास मिलता है :-) उनके आदर्श राहुल सांकृत्यायन थे और वो अक्सर उनकी यायावरी के किससे सुनाया करते थे.उनके एक लेख की चर्चा अक्सर करते थे "अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा".
ReplyDeleteमैं भी जीवन में एक बार इसी तरह घूमने निकलूंगी, बिना किसी प्लानिंग के, बस थोड़े पैसे हो जाएँ... क्योंकि अनूप जी की तरह मैं इतनी साहसी नहीं हूँ कि बिना धन के निकल जाऊं :-) और लड़की होने के कारण भी सोचना पड़ता है.
`अपने एक मित्र की एक मारुति स्विफ्ट कार उधार ले कर अकेले भ्रमण पर निकले हैं भारत का।'
ReplyDeleteउस दोस्त को नमन:)
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ReplyDelete.
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आपके कहने पर हो आये सुरेश जी के ब्लॉग पर... जैसा कि आप व अन्य पाठक बता रहे हैं कि वे एक बेहतरीन इन्सान हैं... But his posts are pretty ordinary.
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धीरू जी की टिप्पणी से सहमत हूँ. इच्छाशक्ति जरूरी होती है ऐसे कामों के लिए.. कोरिया में एक शब्द प्रचलित है "मुजॉन योहैंग(무전여행)" जिसका अर्थ होता है बिना पैसे की यात्रा.. इसमें लोग खाली जेब थैला उठाकर ट्रिप पर निकल जाते हैं. और मैं एक-दो ऐसे लोगों से मिला हूँ. और उन्होंने कहा की क्रेडिट और डेबिट लेकर की जाने वाली यात्रा से कहीं ज्यादा रोमांचक होती है ये यात्राएं...
ReplyDeleteब्लॉगिंग: ये रोग बड़ा है जालिम
यायावरी मुबारक हो।
ReplyDeleteयात्रा हेतु अग्रिम शुभकामनाऍं।
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छुई-मुई सी नाज़ुक...
कुँवर बच्चों के बचपन को बचालो।
यात्रा मंगलमय हो, इस भरमण के बाद उस दोस्त की कार की हालत क्या होगी? मै तो यह सोच रहा हुं???
ReplyDeleteयही तो है ब्लॉग की विशेषता और उपयोगिता। जिन्हे में जानते-पहचानते नहीं, उनके साथ हो लेते हैं।
ReplyDeleteआप जल्दी पूर्ण स्वस्थ हों। ईश्वर आपकी मनोकामना पूरी करे तािक हमें यायावरी-साहित्य का लाभ मिल सके।