ब्लॉग पर एक सशक्त ट्रेवलॉग - जिसमें सपाटबयानी नहीं संतृप्तबयानी हो, उसका प्रतिमान मिला गिरिजेश राव के कल दिये उनके ब्लॉग के लिंक में:
भाँग, भैया, भाटिन, भाभियाँ, गाजर घास ... तीन जोड़ी लबालब आँखें
आठवाँ भाग मैने पढ़ा इण्टरनेट पर। उसके बाद बाकी सात भाग वर्ड डाक्यूमेण्ट में कॉपी किये। उनका प्रिण्टआउट लिया। और फिर इत्मीनान से पढ़ा।
कौन मुगलिया बादशाह (?) था, जिसने कश्मीर के बारे में कहा था:
‘‘गर फिरदौस बर रुए जमीं अस्त।
हमीनस्तो, हमीनस्तो हमीनस्त’’
याद है, सड़क किनारे खड़े हो दक्षिण की तरफ मुँह कर किसी ने शाप दिया था... बोरिंग, जाल, रखवाली..लाख जतन हुए लेकिन कढ़ुवार में मछली पालन नहीं हो पाया तो नहीं हो पाया। शाप फलित हुआ, पिताजी कहते हैं, इस जमाने में वरदान नहीं लेकिन शाप फलित होते हैं, अनेको उदाहरण हैं। ... मेरे देखते देखते समय कितना बदल गया! अब शाप भी नहीं फलते। ...शाप को घटित कहूँ या फलित? ...
पहले देखीं जरूर थीं ये पोस्टें। कम से कम शुरू की कुछ (उसके बाद मैं अस्वस्थ हो गया था)। पर पढ़ी नहीं थीं - लम्बी पोस्टें पढ़ने का धैर्य नहीं दिखाया था।
गिरिजेश की लेखनी का तो वैसे ही कोई जवाब नहीं; और इन पोस्टों में तो अपनी समग्रता ही उँडेल दी है उन्होने। एक मित्र के साथ होली के समय गोरखपुर-पडरौना-रामकोला में शहर-गांव की स्पेस (space - स्थान) में यात्रा के साथ आज से बचपन तक की समय (time - काल) में यात्रा भी है। और जब आप अपने बचपन तक में जाते हैं तो सभी परिवर्तन सपाट भाव से नहीं, पूरी सेण्टीमेण्टालिटी के साथ गूंथ कर अनुभव करते हैं। आपकी लेखनी में अगर वह बयान करने की ताकत है, तो जो कुछ निकलता है, अभूतपूर्व होता है।
गिरिजेश ने वही किया है।
हो सकता है आप मेरी तरह अटेंशन-स्पान संकुचित रहने की समस्या से ग्रस्त न हों; तब तो आपने ये पोस्टें जरूर पढ़ ली होंगी। न पढ़ी हों तो जरूर पढ़ें। इन्हे पढ़ने का बढ़िया तरीका तो यही है कि सब एक जगह डाउनलोड कर इत्मीनान से पढ़ें। वे एक लघु-पुस्तक के रूप में ज्यादा आनन्द देती हैं।
आशा है गिरिजेश इनकी एकीकृत पीडीएफ फाइल अपलोड कर उसका लिंक अपने ब्लॉग पर देंगे। और न दें तो क्या, नामी आलसी हैं वे!
पी डी ऍफ़ वाली मांग का हम समर्थन करते है
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आशीष : क्या समय यात्रा संभव है?
बस एक रात में मैं भी पढ़ गया था , कमाल की लेखनी डोलाते हैं वे ऐसे विषयों पर ! ऐसे लेखन ब्लॉग-जगत को उस उंचाई तक ले जाने में समर्थ हैं जहां इति या नेति की विभाजनी हेकड़ी निरर्थक हो जाती है ! सुन्दर प्रविष्टि ! आभार !
ReplyDeleteशीर्षक ही आकर्षित कर लेने वाला है, आपने रास्ता सुझाया, हम भी पहुंचते हैं वहां.
ReplyDeleteगिरिजेश जी की इस श्रृंखला के लिए बिलकुल सही कहा आपने - "ब्लॉग पर एक सशक्त ट्रेवलॉग - जिसमें सपाटबयानी नहीं संतृप्तबयानी हो."
ReplyDeleteगिरिजेश जी की प्रविष्टियों को पढ़ने से जो सुख चाहता हूँ, और जो मिलता रहा है...वह इनको स्क्रीन की बजाय छाप कर पढ़ने में आता है.
@आशा है गिरिजेश इनकी एकीकृत पीडीएफ फाइल अपलोड कर उसका लिंक अपने ब्लॉग पर देंगे।
मुझे यकीन है, देंगे !
इस प्रविष्टि पर आपका अटेंशन अच्छा लगा !
हम तो शुरू से ही गिरिजेश के स्टाइल और स्पष्टबयानी के फैन हैं. संयोग की बात है कि आज ही आवाज़ पर उनकी कहानी गेट भी प्रसारित हुई हैं. "भाँग, भैया, भाटिन..." और बाऊ-पुराण उनकी प्रतिनिधि रचनाओं में से हैं.
ReplyDeleteइसे पहले भी पढा था।
ReplyDeleteअभी कुछ दिनों पहले मेरी एक पोस्ट (संस्मरण/यात्रा वृत्तांत पर, राजभाषा हिन्दी ब्लॉग पर) पढकर उन्होंने लिंक भी भेजा था। मैं तो एक शोधपत्र बनाने की ठानी है,‘ब्लॉग जगत और संस्मरणात्मक रचनाएं’ विषय पर।
मेरे साथ भी ये दिक्कत है कि मैं किसी श्रृंखला की एक कड़ी पढ़ लेने के बाद इंतज़ार नहीं कर पाती. और गिरिजेश जी की अधिकांश पोस्टें ऐसी ही होती हैं. आपने इनको एक साथ पढ़ने की अच्छी तरकीब सुझाई है. सच में इनको किताब का रूप दे दिया जाए, तो पढ़ने में सहूलियत हो जायेगी. क्योंकि मेरे जैसे पुस्तक प्रेमी अब भी नेट की अपेक्षा गंभीर लेखन पढ़ने के लिए पुस्तक को वरीयता देते हैं.
ReplyDeleteआठवाँ ही पढ़ा है हमने भी, पिछले 7 जाकर निपटाते हैं।
ReplyDelete"अजगर करे ना चाकरी गिरिजेश करे न कोई काम,
ReplyDeleteदास मलूका कह गए सब के दाता राम """""
पिटने के चांसेस हैं इसलिए
क्षमा प्रार्थना के साथ!
अपन तो पहले से ही मनु औऱ उर्मि की कहानी को प्रिंटआउट के रूप में ही पढ़ने का ठाने बैठे हैं। जिस दिन कहानी खत्म हुई, उस दिन प्रिंटआउट के चलते एकाध पेड़ जरूर कटेंगे । पेड़ न सही, दो तीन टहनीयों भर का कागज तो लगेगा ही।
ReplyDeleteऔर हां, जिन लोगों को ब्लॉग लेखन के स्तर की चिंता सता रही हो कि यहां साहित्यिक रचनाएं ढंग की नहीं मिलती, उन्हें बाउ कथा को बांचना चाहिए।
वैसे, आंचलिकता के चलते शायद हिंदी पट्टी से इतर क्षेत्र के लोगों को थोड़ा सा अनचीन्हा सा लगे परिवेश, लेकिन भाव बेहद सशक्त हैं बाउ कथा के।एक अलग ही किस्म का रस है उसमें।
हम पहले ही पढ़ चुके हैं ,टीपे भी होंगे ही ,गिरिजेश जी के बारे में कुछ कहना मेरे लिए तो पिष्टपेषण ही है ,हाँ चाचा भतीजे का संवाद उरूज पर है :)
ReplyDeleteमैं भी पढ़ चुका हूं.. अच्छा था..बहुत अच्छा... अभी शिव जी के फोटू भी देखे थे कलकत्ते वाले...
ReplyDeleteमैने भी कुछ कडियां पढी हैं .. सारी नहीं पढ सकी .. फुर्सत निकालकर देखती हूं !!
ReplyDeleteअकेले गिरिजेश जी की प्रविष्टियों पर शोध हो सकता है.
ReplyDeleteगिरिजेश राव के बारे में अमरेन्द्र के वक्तव्य से सहमत हूँ ! ये उन लोगों में से एक हैं जिनके कारण यहाँ कुछ सार्थकता महसूस होती है ! अन्यथा तो दे टिप्पणी ले टिप्पणी ...
ReplyDelete:-)
गिरिजेश जी के लेखन की यही विशेषता है...वे स्वान्तः सुखाय लिखते हैं...किसी प्रतिक्रिया,आलोचना या प्रशंसा की परवाह किए बिना..मन का सबकुछ उंडेल देते हैं....और गुणीजन मोती चुन लेते हैं.
ReplyDeleteउन्हें पढना एक सुखद अनुभव रहता है...
ज्ञानदत्त जी, कल आपकी पोस्ट "ट्रेवलॉग पर फिर" समझ से परे थी (मेरे लिए), पर टीप में आचार्य (गिरिजेश जी), ने लिंक दे रखा था..... अद्भुत लगी पूरे भाग तो नहीं पढ़ पाया, हाँ सतीश पंचम जी जिस बाऊ की बात कर रहे है - वो पूरी शृंखला वाकई पढ़ने लायेक है.... शुरू शुरू में तो खीज होती है भारी भयंकर देशज भोजपुरी शब्द ...... लेकिन प्रवाह से साथ समझ आने लगते हैं और पात्र जीवंत हो उठते हैं.
ReplyDeleteआप की पिछली पोस्ट पढ़ कर जाने क्यों लगा कि अपने संस्मरण-यात्रावृत्त का लिंक दूँ। कहीं झिझक सी हुई कि अधिकांशत: 24 घन्टे के जीवन वाले लेखों का लिंक देना आत्मप्रचार सरीखा न लगे। इसलिए टिप्पणी छापने से मना किया। ..सोचा नहीं था कि आप टिप्पणी तो छापेंगे ही, एक पोस्ट भी लगा देंगे, वह भी इतनी आत्मीय! कैसी अनुभूति कि 'फिरदौस... आप ने तो अभिभूत कर दिया! क्या कहूँ, कुछ कहा नहीं जा रहा। ...
ReplyDeleteयह लेखमाला मुझे भी पसन्द रही है। जाने कितनी बार पढ़ कर आँखें भिगोई हैं।
सभी सुधी जनों का धन्यवाद जिन्हों ने मेरे बारे में इतनी अच्छी बातें कही हैं। यात्रा जारी रहेगी। अपनेपन से बल तो मिलता ही है।
हमीनस्तो, हमीनस्तो हमीनस्त’
ReplyDeleteमैं तो इन आलसी महाराज की तंद्रा तोड़कर सक्रिय हो जाने का प्रथम प्रेक्षक हूँ। हिंदी ब्लॉग जगत में जो कुछ सार्थक और पठनीय है उसमें गिरिजेश भैया का अवदान बहुत महत्वपूर्ण और रेखांकित करने योग्य है।
ReplyDeleteआशा है सबकुछ एक दिन प्रिंट में भी उपलब्ध होगा। इस शृंखला की शेल्फ़-लाइफ़ बहुत लंबी है।
हम तो आलस्य -श्रेष्ठ की श्रृंखला क्रम को ही गिनते रहे जा रहे हैं .........का करे ! एक भी कड़ी छूटी तो ........?
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