‘‘पीपली लाइव‘‘ फिल्म देखी । फिल्म की विशेषता भारतीय गांव का सजीव व यथार्थ चित्रण है ,जिसमे किसानों की कर्ज में डूबने के बाद आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति की पृष्ठ भूमि में कूकरमुत्तों की तरह फैले खबरी न्यूज चैनलों तथा देश की राजनीति पर करारे व्यंग किये गये हैं।
फिल्म की चुस्त पट्कथा और छायांकन की ऊघेड़बुन के बीच एक खामोश पात्र दिखाई दिया - होरी। परिधान सज्जा के नाम पर गांधीवादी लंगोट धारण किये गये हुए वह हाड़-मांस का पिंड पूरी तल्लीनता व निर्विकार भाव से एक गड्ढा खोदता रहता है । गड्ढे के उत्खनन से निकली मिट्टी ही कर्ज में डूबे उसके परिवार की आजीविका का एक मात्र साधन है। इस भगीरथ प्रयत्न से उसके ऋण की एक भी पाई तो क्या कम हुई होगी, लेकिन शायद उसकी आत्मा में निहत परम तत्व ने ही करुणावश एक दिन होरी की कर्मभूमि गड्ढे में ही उसे संसार के प्रत्येक ऋण से उऋण कर दिया।
फिल्म में तो होरी की इस पूर्णाहुति को "खबरी" चैनलों व देश के कर्णधार नेताओं की संवेदना न मिल सकी किन्तु क्या दर्शक भी इस पात्र को उतनी ही सरलता से भूल सकते है?
वास्तव मे, 21वीं सदी की फिल्म के इस मूक पात्र को देखकर सहसा ही 19 वीं सदी की पृष्ठभूमि में लिखे गये प्रेमचन्द साहित्य के पात्र मानस पटल पर मानो जीवन्त हो उठते है। सदियों का यह अन्तर होरी के मूक अस्तिव मे जाकर खत्म होने लगता है। क्या यह होरी विक्रम वेताल की कहानियों का शापित वेताल है जो हर युग और हर सदी में भारतीय किसान की पीठ पर टंगा रहता है? या यह इस देश का एक शाश्वत सत्य है जो परिवर्तन जैसे प्राकृतिक नियम को भी ठेंगा दिखाकर आज भी अपने मूलरूप मे विद्यमान है!
विचारों के इस झंझावात के बीच एक प्रश्न उठता है कि क्या आने वाली पीढ़ी भी होरी के इस शाश्वत स्वरूप का ही साक्षात्कार करेगी और इससे भी महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या यह हाईटेक पीढ़ी होरी की व्यथा को समझ पायेगी? इस प्रश्न का समाधान वर्तमान पीढ़ी के तथाकथित् बुद्धिजीवी वर्ग को ही खोजना होगा।
ज्ञानदत्त पाण्डेय उवाच:
1. मैने फिल्म नहीं देखी है। अत: मेरा उवाच निरर्थक भी कहा जा सकता है।
2. अनुषा रिजवी (फिल्म की निर्देशक) ने कहा है कि होरी महतो नामक चरित्र फिल्म में मुंशी प्रेमचन्द को श्रद्धांजलि स्वरूप है। यह बताने के लिये होरी महतो फिल्म में है कि प्रेमचन्द से अब तक के समय में किसान की हालत नहीं बदली है।
3. यह तो सत्य है कि भारत एक दो शती में नहीं, दो सौ सदियों में एक साथ जीता है। और अगले कुछ दशकों में नरेगा/मनरेगा के बावजूद जियेगा ही होरी। उस गरीब को चूसने के लिये संतरी से ले कर मंतरी तक सभी रहेंगे। और उसकी हालत बयान करने को स्यूडो-इण्टेलेक्चुअल नहीं, सही मायने में संवेदन शील लोग भी रहेंगे! आप अपने बच्चों को वह सेंसिटिविटी देंगे न? मैं तो नत्तू पांड़े को वह संवेदना जरूर दूंगा!
जब तक स्रष्टि है होरी तो रहेंगे ही मेरे हिसाब से यही शाश्वत सत्य है . इसे मेरी सामन्ती सोच ना सम्झा जाये जब ईश्वर ने पांचो उगलिया एक सी ना बनायी तो समाज मे भी सब एक से कैसे हो सकते है .
ReplyDeleteहोरी महतो, वास्तव में एक सार्थक पात्र की रचना है.
ReplyDeleteब्लॉगजगत में आने के लिये बधाई और शुभकामनायें रश्मि को। उनकी संवेदनशीलता साहित्य संवर्धन के नये अध्याय जोड़ेगी।
ReplyDeleteहोरी और हीरो में मात्राओं का ही हेर फेर है, मात्रा भाग्य की, मात्रा संवेदनहीनता ही। देश के कर्णधार और नायक यदि होरी के शाश्वत सत्य के सामने घुटने टेक चुके हैं तो शान्ति मिले होरी की आत्मा को, वह अभी भी अकेला है।
@ धीरू सिंह - समाज में आर्थिक असमानता तो रहेगी। पर विपन्नता का यह आलम कि किसी को मूलभूत जरूरत लायक भी न मिले और अन्य की सम्पन्नता उसके अस्तित्व को ही चूसने से बने - यह दुखद है।
ReplyDeleteमौज मजा करने वाले कर्ज के गर्त में जायें तो यह उनका अपना मसला है। पर मेहनत करने वाला किसान जन्म से मरन तक कर्ज में रहे तो समाज में कहीं कुछ न कुछ गड़बड़ तो है ही।
हमारी आर्थिक और सामाजिक संरचना, सरकारी नीतियां; कोइ नहीं चाहता कि होरी कभी गड्ढा खोदना बंद करे...
ReplyDeleteवाकई फिल्म के इस पात्र को देखकर एक टीस सी उठी थी.... ऐसा नहीं क्योंकि पहली बार ऐसा देखा था.. इस पात्र ने बस गाँव के उन अनेक होरियों की याद दिला दी जिन्हें बचपन से देखता आया हूँ..
बहुत अच्छा लेख. मैंने भी कुछ दिन पहले ही देखी यह फिल्म. दो ही पात्र स्मृति पटल पर अंकित हैं - होरी और लोकल रिपोर्टर राकेश. होरी को देख कर सही में प्रेमचंद जी के बनाये चरित्रों की याद हो आई - एक किसान जो अपने पिता के द्वारा लिए कुछ गेहूं का ऋण आजन्म न चुका सका या फिर पंडितजी को घर आमंत्रित करने के लिए उनकी लकड़ी फाड़ता गरीब.
ReplyDeleteहोरियों का क्या कीजिएगा. ये समाज के हर हिस्से में हैं. विकसित देशों में भी हैं. अंतर बस इतना है कि अलग-अलग हिस्सों में स्तर अलग-अलग मिलता है...
ReplyDeletehori' ghishu' hamid' ye to kaljai
ReplyDeletecharitra hai ..... ye kisi na kisi
roop me 'shaswat' rahega.
pranam dadda.
आर्थिक असमानता बड़ा मुद्दा नहीं है. बड़ा मुद्दा है कि यह अनुपात कितना हो. एक तरफ जहां व्यक्ति को एक वक्त की रोटी भी नसीब नहीं, वहीं उसी की कीमत पर अरबों के वारे-न्यारे. हर हाथ को काम देने की कीमत क्या है, किसान को मजदूर में बदल कर साल में सौ दिन की मजदूरी देना. किस गर्त की तरफ धकेल दिया गया है..
ReplyDelete.
ReplyDelete.
.
"विपन्नता का यह आलम कि किसी को मूलभूत जरूरत लायक भी न मिले और अन्य की सम्पन्नता उसके अस्तित्व को ही चूसने से बने"...
"पर मेहनत करने वाला किसान जन्म से मरन तक कर्ज में रहे तो समाज में कहीं कुछ न कुछ गड़बड़ तो है ही।"...
यह आपने कहा...
"जब तक स्रष्टि है होरी तो रहेंगे ही मेरे हिसाब से यही शाश्वत सत्य है"...
और यह धीरू सिंह जी ने कहा...
दोनों ही सच बोल रहे हैं...यह सच है कि 'होरी' के हाल बेहाल हैं... पर उतना ही सच यह भी है कि कोई कुछ भी कर ले 'होरी' होरी ही बन कर रहना चाहता है... और अपनी औलाद को भी 'होरी' ही बनने पर मजबूर करता रहता है।... यह खुद का देखा यथार्थ बता रहा हूँ आपको...
...
` मैं तो नत्तू पांड़े को वह संवेदना जरूर दूंगा! '
ReplyDeleteअने वाला ज़माना संवेदना का नहीं क्रूरता का है :(
अजी कल मैने डाऊन लोड की हे, आज देखेगे इस फ़िल्म को फ़िर बात करेगे, आप का धन्यवाद इस के बारे विस्तार से बताने के लिये.
ReplyDelete"जब तक स्रष्टि है होरी तो रहेंगे ही मेरे हिसाब से यही शाश्वत सत्य है"...
ReplyDeleteयदि यह शाश्वत सत्य है तो फिर इस सृष्टि का अंत भी निकट है।
पिपली लाईव ग्राम्य जीवन पर एक दस्तावेज है -हम जब खुद अपनी संवेदना से भालीभाती मुतमईन हो जाएँ तभी बच्चों तक उसे संप्रेषित करें -वे खुद बहुत समझदार होते हैं -अगली सदी के जो हैं !
ReplyDeleteपीपली लाइव का विद्रूप 'गोदान' से कम और 'कफन' से अधिक जुड़ता है।
ReplyDeleteमैं भी अभी तक देख नहीं पायी हूँ ...मगर इतना पढ़ लिया है इसके बारे में की अब फिल्म देखने की इच्छा ही नहीं है !
ReplyDeleteगिरिजेश राव said...
ReplyDeleteपीपली लाइव का विद्रूप 'गोदान' से कम और 'कफन' से अधिक जुड़ता है।
मेरा भी यही मानना है ! बुधीया और नत्था कफन के घीसू और माधव ही है !
Praveen Shah said...
कोई कुछ भी कर ले 'होरी' होरी ही बन कर रहना चाहता है... और अपनी औलाद को भी 'होरी' ही बनने पर मजबूर करता रहता है।...
मैंने भी अपने आसपास यही देखा है ! मै विदर्भ से हूँ जहां किसानो की आत्म हत्याएं सुर्खियों में रहेती है, जिसके जिम्मेदार ये किसान ही होते है | कर्ज माफी या मुफ्त बिजली , नरेगा जैसी बैशाखीयाँ इन्हें और विकलांग बना रही है !
फिल्म समीक्षा का यह भी एक पहलू है। आपकी टिप्पणी ने रही-सही कसर पूरी कर दी।
ReplyDeleteहमारी व्यवस्थाएं होरी को बने ही रहना देना चाहती हैं, इस व्यवस्था का हम भी एक हिस्सा ही हैं।
ReplyDeleteअतिथि से उनका अपना ब्लॉग बनवाया जाए।
और आपसे निवेदन है कि आप यह फिल्म जरुर देखें, साथ ही इसके सबसे आखिर में जो छत्तीसगढ़ी गाना है " चोला माटी राम" उसे जरुर सुनें।
रश्मि बघेल को पढ़ना अच्छा अनुभव रहा। आशा है कि जल्द ही इनका भी ब्लॉग शुरु होगा। हम इंतजार में हैं।
ReplyDeleteसबसे पहली बात कि हम पाठकों के पापुलर डिमांड पर रश्मि जी को भी ब्लागिंग में उतारा जाय...
ReplyDeleteऔर दूसरी बात यह कि जबतक एक साइलेंट होरी को दर्शक नोटिश करता रहेगा,हम आश्वस्त रह सकते हैं कि निति नियंताओं का ध्यान भले इनपर जाए या नहीं,पर कुछ लोगों के ध्यान पर भी यदि यह चढ़े तो आशा रख सकते हैं कि भविष्य में शायद किसी कृतसंकल्प नेत्रित्व द्वारा कुछ सार्थक प्रयास भी इनके लिए हो जाएँ....