बहुत ज़माने से मैंने अपने को हिंदी फिल्मों के छद्म संसार से काटे रखा। पहले जब पढता था (अब तो नौकरी की ऐसी शुद्ध कि पढ़ना ही छूट गया!) तब हिंदी फ़िल्में देखता था। उलूल-जुलूल और ऐसी कि तीन घंटे दिमाग बंद रखना अनिवार्य हो। तय किया की फिल्मों की ऐसी की तैसी। नहीं देखेंगे। अपने को फिल्मों से पूरी निर्दयता से काटा।**
सबसे काटा अपने आप को - अखबार में उनपर लेखन से भी। वैसे भी अखबार में फिल्मों के बारे में जो छपता हैं; वह किस हीरोइन की किस हीरो से अंतरंगता हैं यही भर बताता है; इससे ज्यादा नहीं. और कुछ होता भी हैं तो उसे भूसे के ढ़ेर में से सूई निकलने जैसा यत्न करना पडता हैं।
चलते-चलते : कल सुरेश चिपलूणकर की एक पोस्ट ने मुझे आश्वस्त कर दिया कि हिन्दी फिल्म परिदृष्य थोड़े से हेर-फेर के साथ वैसा ही है जैसा पहले था. लिहाजा मैने बहुत मिस नहीं किया है.
अब ब्लॉग लेखन के कारण सिचयुयेशन कुछ बदल गयी हैं। मैंने काकेश का कलम चूमने की बात की तो उन्होने शिल्पा की। वह तो भला हो कि जेड गूडी वाले प्रकरण के कारण मैं इस नाम से परिचित था। दो-तीन लोगों ने मुन्नाभाई की बात की तो पता चला की ये सज्जन सुनील दत्त के बेटे हैं, एक हथियार के मामले में सजा का इंतजार कर रहे हैं और गाँधी जी को इन्होने री-इनवेंट किया हैं। कुल मिलाकर लगता हैं कि आम जीवन पर लेखन भी फिल्म के दृष्टांतों के माध्यम से इतना हो रहा है कि उन्हे समझने को फिल्मों के बेसिक्स जानने ही पड़ेंगे।
क्या कोई ऑन लाइन क्रैश कोर्स हैं?
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**जीवन से कुछ विषयों को काटने की बात की है तो यह स्पष्ट कर दूं कि और भी कई विषय हैं जो मैने जीवन के नेपथ्य में डाल दिये हैं - गरीबी और लल्लूपने (मीकनेस) का महिमा मण्डन मुझे जबरी फटेहाली ओढ़ने जैसा लगता है. और ये जितने उनके हमदर्द हैं, वे अपने लिये पचमढ़ी में कॉटेज/बंगला या तो रखते हैं - या जुगाड़ने की तमन्ना रखते हैं. अपने को प्रोमोट करने के सभी हथकण्डे जानते हैं - माइक और कैमरा सामने आते ही धाराप्रवाह बोलते हैं. इनके पास समाधान नही हैं. बापू गरीबी के पक्ष में कहते थे तो श्रद्धा होती थी. अब वाले तो दिखावा हैं.
साम्यवाद में जब चीन ने अपने रंग बदल लिये, बर्लिन की दीवार इतिहास हो गयी और रूस का दूसरा मोर्चा बिला गया, तब अपने नक्सली तो केवल नक्शेबाज लगते हैं. लिहाजा साम्यवाद को दरकिनार कर दिया है.
राजनीति के कारण आलम यह है कि बच्चे स्कूल में बाबर - हुमायूं पढ़े जा रहे हैं (कर्टसी धर्मनिरपेक्षता) या फिर शिवाजी - राणाप्रताप (कर्टसी आर.एस.एस. ) . जबकि पढ़ना चाहिये नारायणमूर्ति/कलाम/नर्लीकर को. सो हिस्ट्री को भी हिस्टीरिया की तरह अलग कर दिया है.
पर इन विषयों पर क्रैश कोर्स की जरूरत नहीं है. उनमें हर साल नयी 18 साल की हीरोइन, पहले वाली को धकिया कर नहीं आ जाती!
मैंने काकेश का कलम चूमने की बात की तो उन्होने शिल्पा की। ये सिलसिला जारी रहे।:)
ReplyDeleteअनूप भाइ दोनो को देखने के बाद ही निर्णय ले
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