Wednesday, December 31, 2008

भय विहीन हम


किसका भय है हमें? कौन मार सकता है? कौन हरा सकता है? कौन कर सकता है जलील?

आभाजी के ब्लॉग पर दुष्यंत की गजल की पंक्तियां:

पुराने पड़ गए डर, फेंक दो तुम भी
ये कचरा आज बाहर फेंक दो तुम भी ।

मुझे सोचने का बहाना दे देती हैं। दैवीसम्पद की चर्चा करते हुये विनोबा असुरों से लड़ने के लिये जिन गुणों की सेना की बात करते हैं, उनमें सबसे आगे है अभय!

अभयं सत्व संशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थिति:।

दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम॥गीता १६.१॥

ऐसा नहीं है कि मैं प्रवचनात्मक मोड में हूं। आस्था चैनल चलाने का मेरा कोई इरादा नहीं है। पर यह मुझे अहसास है कि मेरी समस्याओं के मूल में भय है। अनेक परतों का भय। कभी कभी फोन की घण्टी बजती है और अनजाने फोन से भयभीत कर देती है मन को। कभी बिल्कुल दूर के विषय – ग्लोबल वार्मिंग, आतंक या सन २०४० में होने वाला जल संकट भयभीत करते हैं। भय के कचरापात्र बनते गये हैं हम उत्तरोत्तर!

rajpath मैं नेपोलियन हिल की पुस्तक – द लॉ ऑफ सक्सेस में बताये छ प्रमुख भयों का उल्लेख करता हूं:

  1. विपन्नता का भय।
  2. मृत्यु का भय।
  3. अस्वस्थता का भय।
  4. प्रिय के खो जाने का भय।
  5. वृद्धावस्था का भय।
  6. आलोचना का भय।

अगर हमें कुछ टैंजिबल (tangible – स्पष्ट, ठोस) सफलता पानी है तो इन भयों पर पार पाना होगा। इन भयों के साथ हम सफलता-पथ पर बढ़ते उस पथिक की तरह हैं जिसको जंजीरों से लटके कई ठोस वजनी गोलों को घसीटते आगे बढ़ना हो।

कैसे दूर होंगे भय? कैसे कटेंगी ये जंजीरें? कसे हटायेंगे हम इन गोलों का भार?

आइये नव वर्ष का रिजॉल्यूट (resolute – कृतसंकल्पीय) विचार मन्थन करें।    


Monday, December 29, 2008

हेप्योनैर निवेशक बनें आप!


अगर आपने वारेन बफेट, पीटर लिंच और रॉबर्ट कियोसाकी को कवर से कवर तक पढ़ा है और रिवीजन भी किया है, तो भी मैं इस पुस्तक को लेने और पढ़ने की सलाह दूंगा।

यह है योगेश छाबरीया जी की पुस्तक – हैप्योनैर की तरह निवेश कैसे करें। 

Invest_The_Happionaire_Way_Hindi

हेप्योनैर की तरह निवेश कैसे करें
”मजेदार, रोचक और सरल तरीके से भारतीय शेयर बाजार के जरीये पैसा कमायें”
--- योगेश छाबरीया
नेटवर्क १८ पब्लिकेशंस, नई दिल्ली। मूल्य २९९ रुपये।

असल में हम बहुत सी थ्योरी पढ़ते हैं। जब मार्केट बढ़िया चलता है, तब उस पर चर्चा भी बहुत करते हैं। उस समय निवेश भी करते हैं। पर जब सेन्सेक्स टैंक कर जाता है तो यह भूल जाते हैं कि निवेश का यही समय है। इस समय कुछ बहुत अच्छी कम्पनियों के शेयर उनकी भौतिक परिसम्पदा के मूल्य से भी कम पर उपलब्ध हैं। पर हम हैं कि छाछ को भी फूंक फूंक कर पी रहे हैं। क्यों कि अभी हमने अपने पोर्टफोलियो का मूल्य आधे से कम होते देखा है!

मैं भी इसी छाछ को फूंकने के मूड में था। पर बड़े मौके पर यह पुस्तक मेरे हाथ लगी। अपने व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद मैने यह पुस्तक पढ़ ली – काफी समय बाद पढ़ी गयी पुस्तक। बड़े काम की पुस्तक। विश्वास वापस लौटा लाने का काम करने वाली पुस्तक।

सबसे बढ़िया बात यह है कि यह पुस्तक हिन्दी में है, सरल है, “निवेश को न जानने वाले” को सामने रख कर लिखी गयी है और आपकी तर्क जिज्ञासा को काफी हद तक शान्त करती है।

आम लोगों में कई मिथक हैं। शेयर मार्केट को लोग या तो जुआ मानते हैं या सतत टीवी के सामने बैठ कर शेयर कीमतों को बढ़ते घटते देखने को निवेश प्रक्रिया का महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हैं। इस पुस्तक में योगेश छाबरीया जी के लिखे की मानें तो इन मिथकों से परे, हैप्योनैर (Happionaire – आनन्द से संतृप्त) तरीके से शेयर में सार्थक निवेश हो सकता है।

और बहुत संभावनायें हैं - ४ प्रतिशत से कम बचत इक्विटी में सीधे लग रही है इस समय।

Yogesh1हैप्योनैर की तरह निवेश करना लोगों को अनावश्यक आंकड़ों के मायाजाल से डराने के बारे में नहीं, बल्कि इसकी बजाय लोगों को पैसा बनाने और आर्थिक स्वतन्त्रता का आनंद ढूंढ़ने देना है।
(इसी पुस्तक से)

इस पुस्तक में योगेश जी ने शेयर बाजार के मूलभूत सिद्धान्त, कार्यप्रणाली और निवेश करने की सामान्य तैयारी बात की है। सौ से कुछ अधिक पेजों की पुस्तक में नब्बे से कुछ अधिक पेजों में उन्होने यह बात बड़े रोचक तरीके से की है। उसमें कथायें हैं, लेखक के अपने अनुभव हैं और बीच बीच में स्प्रिंकल्ड सलाह है। शेष पेजों में शेयर बाजार की जरूरी शब्दावली का परिचय है। कुल मिला कर पाठक धन संवर्धन की इस विधा का सही परिचय पा जाता है। पाठक को धोखाधड़ी, अनावश्यक प्रायोजित सलाह आदि के सम्भावित खतरों से भी आगाह किया है इस पुस्तक में।

अभी, जब शेयर बाजार अपनी अत्यन्त निचले स्तर पर है, और कई शेयर अपने भौतिक परिसम्पत्तियों के मूल्यांकन से भी कम मूल्य पर मिल रहे हैं, तब यह पुस्तक सही समय पर निवेश करने को उत्प्रेरक का काम कर सकती है। निवेश का ऐसा मौका कम ही मिलता है।

यह पुस्तक मैने पूरी पढ़ी है – दत्त चित्त हो कर। और मैं आपको भी यह हासिल करने तथा पढ़ने की सलाह दूंगा।

आपको नये साल में हैप्योनैर निवेशक बनने के लिये शुभकामनायें। 


योगेश जी ने अपनी पुस्तक मुझे पढ़ने और अच्छी लगने पर उसके विषय में कुछ लिखने को भेजी थी। और मुजे प्रसन्नता है कि मैने यह पुस्तक पढ़ी।

ब्लॉगर होने का यह लाभ हुआ है कि लोग पुस्तकें दे रहे हैं - जो मुझे सर्वोत्तम उपहार लगता है। मैने दो सप्ताह पहले भर्तृहरि के दो पद प्रस्तुत किये थे – श्री रविशंकर जी द्वारा अनुदित। श्री रविशंकर जी ने मुझे फोन पर बताया कि वे भर्तृहरि के श्रृंगार और वैराज्ञ शतक पर अपनी भारतीय विद्या भवन से प्रकाशित पुस्तक भी भेज रहे हैं।

मैं तो अपने को सम्मानित महसूस कर रहा हूं।


Wednesday, December 24, 2008

वर्तमान पीढ़ी और ऊब


सृजन की प्रक्रिया धीमी और श्रमसाध्य होती है। और जो भी धीमा और श्रमसाध्य होता है उसमें ऊब होती है। पहले की पीढ़ियां ऊब को झेल कर भी कार्यरत रहने में सक्षम थीं। पर आजकल लोग ऊब से डरते हैं। नौजवानों को अकेलेपन से डर लगता है। उन्हें पुस्तकालय में समय काटना हो तो वे "बोर" हो जाते हैं। यह बोर का इतना आतंक है कि वह भाषा में अत्यन्त प्रचलित शब्द हो गया है। वर्तमान पीढ़ी शायद जिस चीज से सबसे ज्यादा भयभीत है वह परमाणु बम, कैंसर या एड्स नहीं, ऊब है। जीवन में शोर, तेजी, सनसनी, मौज-मस्ती, हंगामा, उत्तेजना, हिंसा और थ्रिल चाहिये। आज ऊब कोई सह नहीं सकता।

पर वह समाज जो केवल उत्तेजना चाहता हो और ऊब से घबराता हो, वह कभी महान नहीं हो सकता। कोई भी क्लासिक पुस्तक शुरू से अंत तक कभी भी रोचक/रोमांचक/उत्तेजनापूर्ण नहीं हो सकती। उसमें नीरस और ऊबाऊ अंश अवश्य होंगे। अगर वेदव्यास आज महाभारत का बेस्टसेलर लिख रहे होते तो युद्धपूर्व के दृष्य, शकुनि की चालें, दुर्योधन की डींगे और भीष्म की दुविधा पर तो रोचक उपन्यास रचते पर कृष्ण का उपदेश वे एक-आध पेज में समेट देते। यह उपन्यास साल-छ महीने बेस्ट-सेलर रहता। फिर उसका अस्तित्व कहां रहता?
प्रेम, शान्ति, प्रसन्नता, सफलता और महानता आदि अच्छी बातें श्रम साध्य हैं। और सभी श्रमसाध्य ध्येय कुछ सीमा तक नीरसता और ऊब झेलने की मांग करते हैं। हम वह ऊब झेलने की बजाय अगर पलायन के रास्ते ढूढेंगे तो भी ऊब से बच नहीं पायेंगे। 

महापुरुषों के जीवन के अधिकांश भाग ढीले-ढाले, साधारण और ऊबाऊ होते हैं। असल में महानता के लिये किया जाने वाला कार्य इतना कष्ट साध्य व परिश्रम वाला होता है कि वह ऊबाऊ बने बगैर नहीं रह सकता। आज तो व्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व चमकाने की पुस्तकें और नुस्खे मिलते हैं।

बर्ट्रेण्ड रसेल अपनी पुस्तक "द कॉनक्वेस्ट ऑफ हैप्पीनेस" (सुख का अभियान) में कहते हैं - “जो पीढ़ी ऊब सहन नहीं कर सकती वह तुच्छ व्यक्तियों की पीढ़ी होगी। इस पीढ़ी को प्रकृति की धीमी प्रक्रियाओं से कुछ भी लेना देना न होगा।”
conquest of happiness
ऊब से बहुत से लोग फट पड़ते हैं। उससे उबरने को और कुछ नहीं तो कलह-झगड़ा करते हैं। दुनियां की कई लड़ाइयों के मूल में ऊब होगी। कई अताताइयों के किये नरसंहार के मूल में ऊब ही है।

आज की पीढ़ी ऊब से बचने को कहां भाग रही है? जो लोग बोर होने से बचने का उपक्रम करते हैं, वे अन्तत: बोर ही होते हैं।

प्रेम, शान्ति, प्रसन्नता, सफलता और महानता आदि अच्छी बातें श्रम साध्य हैं। और सभी श्रमसाध्य ध्येय कुछ सीमा तक नीरसता और ऊब झेलने की मांग करते हैं। हम वह ऊब झेलने की बजाय अगर पलायन के रास्ते ढूढेंगे तो भी ऊब से बच नहीं पायेंगे। पर उस समय जो ऊब हमें जकड़ेगी वह अशुभ और अनिष्टकारी होगी। इसलिये बेहतर है कि हम ऊब को शुभ व उचित मानकर अपने जीवन में आदर का स्थान दें।

धूमिल की एक लम्बी कविता "पटकथा" की पंक्तिया हैं -
"वक्त आ गया है कि तुम उठो
और अपनी ऊब को आकार दो।"
सफल वही होंगे जो ऊब से डरेंगे नहीं, ऊब को आकार देंगे।

Tuesday, December 23, 2008

फीडचर्चा


bairaagee एकोऽहम् (विष्णु बैरागी जी का ब्लॉग) की फीड गूगल रीडर अपडेट नहीं कर रहा। अन्तिम प्राप्त फीड अक्तूबर के महीने की है। कुछ अन्य ब्लॉग भी हैं जो फीडरीडर में अपडेट नहीं हो रहे। गूगल रीडर इस फीड में पार्सिंग गलती (parsing error) बताता है। हमारे यत्न, जो कई अन्य फीडरीडर्स में इस ब्लॉग की फीड लेकर देखने के थे, नाकामयाब रहे।

विष्णु बैरागी जी से ई-मेल पर सम्पर्क किया तो बड़ा बढ़िया जवाब मिला -

“मेरी बात पर हंसिएगा नहीं । यह 'फीड' क्‍या होती है, मैं अब तक नहीं जान पाया।”

GR उन्होंने यह जरूर कन्फर्म किया कि ब्लॉगस्पॉट की Setting>Site Feed>Allow Blog Feed में फीड सेटिंग “फुल” पर रखी हुई है।

मेरे अपने फीडरीडर के ब्लॉगर बन्धु हैं – और हिन्दी ब्लॉगजगत में १६० से ऊपर हैं। उनके ब्लॉग मैं गूगल फीड रीडर से नियमित पढ़ता हूं और अधिकांश पर टिप्पणी भी करता हूं। ऐसे में एकोऽहम् की फीड न मिलना मुझे बेचैन कर रहा था।

कल चिठ्ठाजगत वाले आलोक ९२११ जी ने मुझे जुगाड़ छाप समाधान बताया। उन्होने कहा कि चिठ्ठाजगत में मैं बैरागी जी का ब्लॉग मेरी पसन्द में डाल कर मेरी पसन्द की फीड  अपने फीडरीडर में सहेज लूं। और वाह! काम कर गया जुगाड़!

Anup Shukla अब एक फीड समस्या जो फुरसतिया सुकुल  को सुलझानी है, वह है, अपने ब्लॉग की फुल फीड यत्र-तत्र-सर्वत्र उपलब्ध कराना। उनका ब्लॉग कई बार मेरे फीडरीडर में अपडेट नहीं होता। और तो और वह चिठ्ठाजगत में ९ दिसम्बर के बाद अपडेट नहीं हुआ। जबकि उन्होंने करीब ५ नैनीतालीय पोस्टें उसके बाद ठेली हैं।

आलोक ९२११ का कथन है फुरसतिया के ब्लॉग का तकनीकी जन्तर ई-स्वामी के जिम्मे है। ई-स्वामी शायद क्रिसमसीयावकाश पर हैं। island

चलो, चिठ्ठाचर्चा वाले चिठ्ठा की चर्चा करते हैं। एक बार हमने फीडचर्चा कर ली तो क्या गुनाह हुआ!  smile_regular


वैसे यह एक ब्लॉगर के व्यक्तिगत हित में नहीं है क्या, कि उसके ब्लॉग की आर.एस.एस. या फीडबर्नर से फीड सर्वदा पाठक को मिलती रहे, और समय समय पर वह इसकी जांच करता रहे। पर विष्णु बैरागी जी जैसे का क्या होगा, जिन्हें मालुम नहीं कि फीड बला क्या है!

Monday, December 22, 2008

तृतीय विश्वयुद्ध की बात


आतंक की आसुरिक ताकतों से जद्दोजहद अन्तत: तृतीय विश्वयुद्ध और नाभिकीय अस्त्रों के प्रयोग में परिणत हो सकती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक ने ऐसा कहा है।

twin towers attackयह केवल श्री कुप्पु. सी सुदर्शन के आकलन की बात नहीं है। आतंक के विषय को लेकर इस सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता। द गार्डियन में छपे सन २००५ के एक लेख में कहा गया था कि आतंक के रूप में तृतीय विश्व युद्ध तो प्रारम्भ हो ही चुका है। और यह किसी वैचारिक अवधारणा के आधार पर नहीं, सांख्यिकीय मॉडल के आधार पर कहा गया था लेख में।

भारत में अब बहुत से लोग आतंक का तनाव महसूस कर रहे हैं। रतन टाटा तो आतंक से लड़ने को “नॉन स्टेट इनीशियेटिव” की भी बात करते पाये गये हैं। यह एक संयत और सेंसिबल आदमी की हताशा दर्शाता हैं। मैने कहीं पढ़ा कि मुम्बई में मनोवैज्ञानिक चिकित्सकों की मांग अचानक बढ़ गई है। समाज तनाव में आ गया है। यह दशा बहुत से देशों में है जो आतंक के शिकार हैं। 

मौतें,
सम्पत्ति का नुक्सान,
उत्पादकता का ह्रास,
अवसरों की कमी,
संवेदनाओं का उबाल,
यातायात का अवरोधन,
आजादी का संकुचन,
असुविधा ...
क्या नहीं हो रहा अर्थव्यवस्था में इस आतंक के मारे।

---बिजनेस टुडे के बुलेट प्वाइण्ट।

BT

ऐसे में करकरे जी की शहादत के बारे में अनावश्यक सवाल उछाल कर तनाव बढ़ाना उचित नहीं जान पड़ता। जरूरी है कि हिन्दू समाज को प्रोवोक न किया जाये। मुस्लिम समाज को सामुहिक रूप से आतंक से सहानुभूति रखने वाला चिन्हित न किया जाये। रोग (rogue – धूर्त) स्टेट के साथ सही कूटनीति से निपटा जाये और इसके लिये सरकार में लोग आस्था रखें।

मेरे बचपन से – जब अमेरिका-रूस के सम्बन्ध बहुत तनावपूर्ण थे, नाटो और वारसा सन्धि के खेमे थे, तब से, तृतीय विश्व युद्ध की बात होती आयी है। चार-पांच दशक हम उस सम्भावना से बचते आये हैं। आगे भी बचते रहें, यह सोचना है।

इसके लिये संयत नेतृत्व की आवश्यकता है। और उसके लिये, आप विश्वास करें, देश के दोनो प्रमुख दलों में संयत व्यक्ति नजर आते हैं। यह नियामत है। यह भी अच्छा रहा है कि पिछले विधान सभा चुनावों में जनता ने आतंक के मुद्दे पर हिस्टीरिकल (hysterical – उन्मादयुक्त) वोटिंग नहीं की है। तृतीय विश्व युद्ध जहां सम्भावना है, वहीं वह न हो, इसके लिये भी शक्तियां कार्यरत हैं।

भविष्य में मां माहेश्वरी अपने महालक्ष्मी और महासरस्वती रूप में कार्यरत रहें, महाकाली का रौद्र रूप न दिखायें, यही कामना है।      


Saturday, December 20, 2008

पत्नी को पीटना क्या सहज व्यवहार है?


मेरी पत्नी जी की पोस्ट पर देर से आई दो टिप्पणियां विचार करने को बाध्य करती हैं। सम्भव है कि बहुत से लोग उस पोस्ट पर अब न जायें, इस लिये इस पोस्ट को लिखने की जरूरत पड़ी।

पत्नी को पीटना, या शराब पी कर पीटना (जिसमें बहाना रहता है कि आदमी अपने होश हवास में न था) बहुत चल रहा है भारतीय समाज में। इसके खिलाफ बहुत कुछ होता भी नहीं। पर न होने का अर्थ इसे सामान्य या सहज व्यवहार मान लिया जाये?

मैं उस पोस्ट पर ज्ञान जी की टिप्पणी और उस पर विश्वनाथ जी का प्रत्युत्तर आपके सामने रखता हूं। आप ही निर्णय करें: 

ज्ञान जी की टिप्पणी

Gyani

जी. विश्वनाथ जी की प्रतिटिप्पणी

Vishwanath Small

आप लोग कितनी सहजता से किसी मृत व्यक्ति के लिए 'कमीना' शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं।

वह केवल इसलिए के इससे भी ज्यादा शक्तिशाली या भावुक शब्द हम लोग इस सार्वजनिक मंच पर प्रयोग नहीं करना चाहते।
व्यक्ति मृत है तो क्या हुआ?
हिटलर, रावण, कंस जैसे लोग अब नहीं रहे।
क्या हम उनका गुण गान में लग जाएं?

क्या इस शब्द का इस्तेमाल करने वाले यह मानते हैं कि पत्नी की अंधाधुंध पिटाई करने वाला कमीना है, फिर चाहे वह शराबी हो या ना हो।

जो अपनी पत्नी को पीटता है वह हमारी नज़रों में कमीना ही रहेगा।
शराब यदि पीता है तो उसे क्या पीटने का लाइसेन्स मिलता है?
शराब पीने के बाद यदि वह अपने आप पर काबू नहीं रख सकता तो उसे शराब छोड़ना चाहिए।

या फिर बताईयेगा कि क्या दुनिया में कोई ऐसा पति है जिसने अपनी पत्नी पर हाथ ना उठाया हो? पूरी इमानदारी से कह सकता हूँ कि ३३ साल में कई बार पत्नी से झडप हुई है पर एक बार भी मैंने उसपर हाथ नहीं उठाया। एक बूँद शराब भी नहीं पी। मेरे जैसे हजारों मर्द होंगे। यकीन मानिए पत्नी को न पीटना कोई मुश्किल या असंभव काम नहीं है!
मैं तो आपकी सहजता पर हैरान हूँ! हम भी आपके विचारों से हैरान हैं!

Thursday, December 18, 2008

वह मर कर परिवार का भला कर गया


अल्लापुर मुहल्ले में मेरी रिश्ते की बहन रहती हैं। पन्द्रह वर्ष पहले उन्होने वहां मकान बनवाया था। काफी समय तक उनके यहां घर बनने का कामकाज चलता रहा था। हम लोग उस समय रतलाम में रहते थे और यदाकदा इलाहाबाद आते थे। मैं इलाहाबाद आने पर अपनी इन अल्लापुर वाली दीदी से मिलने जाया करती थी। मुझे याद है कि उस समय जीजाजी ने एक बार कहा था - “बेबी, यह जिन्दगी नर्क हो गई है। दिन में आराम करना चाहो तो ये मजदूर खिर्र-खिर्र करते रहते हैं और रात में ये “मारवाड़ी” का बच्चा तूफान खड़ा किये रहता है।

small house यह इस सप्ताह का रीता पाण्डेय का लेखन है। अपने परिवेश में एक दृढ़ इच्छाशक्ति वाली महिला की कहानी है यह।
दीदी ने बताया था कि पास में छोटा सा प्लॉट है। शायद भरतपुर के पास का रहने वाला एक सरकारी विभाग का ड्राइवर रहता था झोंपड़ी नुमा मकान में। उसकी पत्नी लहंगा-ओढ़नी पहनती थी। उसकी भाषा लोगों को समझ में नहीं आती थी। जैसे सारे दक्षिण भारतीय मद्रासी कहे जाते हैं, वैसे उसे “मारवाड़ी” कहा जाता था। वह रोज रात में शराब पी कर आता था। फिर पत्नी को पीटता था। बच्चे घिघिया कर मां से चिपट जाते थे। चूंकि मुहल्ला उस समय बस ही रहा था, लोगों में जान-पहचान कम थी। लिहाजा ड्राइवर द्वारा पत्नी के मारे जाने और शोर शराबे में भी कोई बीच बचाव को नहीं जाता था। घर के नाम पर टीन की छत वाले दो कमरे थे और थोड़ा सा सामान। औरत शराबी पति से मिलने वाले थोड़े से पैसों में गृहस्थी किसी तरह घसीट रही थी।

वह ड्राइवर एक दिन किसी सरकारी काम से बाहर गया था। गाड़ी छोड कर उसे वापस लौटना था। वापसी में वह एक जीप में सवार हो गया। जीप में कुछ बदमाश भी बैठे थे, जिनका पीछा पुलीस कर रही थी। पुलीस ने जीप को घेर कर सभी को मार गिराया। इस “मारवाड़ी” के पहचान पत्र के आधार पर हुई पहचान से उसके सरकारी विभाग ने आपत्ति दर्ज की तो उसकी औरत को कुछ मुआवजा दिया गया। शायद उसका कोई रिश्तेदार था नहीं, सो कोई मदद को भी नहीं आया। पर सरकारी विभाग में इस महिला को चपरासी की नौकरी मिल गई। विभाग के लोगों ने सहारा दिया। ड्राइवर के फण्ड के पैसे का सही उपयोग कर उस महिला ने ठीक से मकान बनवाया।

अब मैं इलाहाबाद में रहती हूं, और जब भी अल्लापुर जाती हूं तो दीदी के मकान की बगल में सुरुचिपूर्ण तरीके से बना इस महिला का मकान दिखता है। उसके तीनों बच्चे बड़े हो गये हैं। चूंकि पैसा अब एक शराबी के हाथ नहीं, एक कुशल गृहणी के हाथ आता है, तो उसके घर पर लक्ष्मी और सरस्वती की कृपा साथ-साथ नजर आती है।

बहुत पहले जीजा जी ठहाका लगा कर बोले थे – “वह साला मर कर परिवार का भला कर गया”। दीदी इस पर बहुत झल्लाई थीं, कि “क्या कुछ का कुछ बोल देते हैं आप”। लेकिन सच्चाई भी यही है, इसे स्वीकार करते हुये दीदी ने बताया कि “उस महिला के बच्चे बहुत अच्छे हैं और पढ़ने में काफी मेहनत करते हैं। वे अपनी पढ़ाई का खर्च भी पार्टटाइम बिजली का काम कर निकाल लेते हैं। अनपढ़ महिला उनके मां और बाप का फर्ज अकेले बखूबी निभा रही है”।

इस समय उस दिवंगत “मारवाड़ी” का बड़ा बेटा बैंक में नौकरी कर रहा है। बेटी एम.ए. कर चुकी है और छोटा बेटा एम.बी.ए. की पढ़ाई कर रहा है। हालांकि इस जिन्दगी की जद्दोजहद ने उस महिला को शारीरिक रूप से कमजोर और बीमार कर दिया है; पर उसकी दृढ़ इच्छा-शक्ति ने परिवार की गाड़ी को वहां तक तो पंहुचा ही दिया है जहां से उसके बच्चे आगे का सफर आसानी से तय कर सकते हैं।

(कहानी सच्ची है, पहचान बदल दी गई है।)  

Tuesday, December 16, 2008

यह क्या भाषा है?


ब्लॉग पर साहित्य की चौधराहट के विरुद्ध मैने कई बार लिखा है। भाषा की क्लिष्टता और शब्दों की प्यूरिटी के लोगों के आग्रह को लेकर भी मुझे आपत्ति रही है। हिन्दी से अर्से से विलग रहा आदमी अगर हिन्दी-अंग्रेजी जोड़ तोड़ कर ब्लॉग पोस्ट बनाता है (जो मैने बहुत किया है – कर रहा हूं) तो मैं उसका समर्थन करता हूं। कमसे कम वह व्यक्ति हिन्दी को नेट पर ला तो रहा है। 

film-strip पर उस दिन शिवकुमार मिश्र ने यह बताया कि  "पटियाला पैग लगाकर मैं तो टल्ली हो गई" या "ऐ गनपत चल दारू ला” जैसी भाषा के गीत फिल्म में स्वीकार्य हो गये हैं तो मुझे बहुत विचित्र लगा। थाली की बजाय केले के पत्ते पर परोसा भोजन तो एक अलग प्रकार का सुकून देता है। पर कचरे के ढ़ेर से उठा कर खाना तो राक्षसी कृत्य लगता है। घोर तामसिक।

और ऐसा नहीं कि इस से पंजाबी लोग प्रसन्न हों। आप उस पोस्ट पर राज भाटिया जी की टिप्पणी देखें -
“मखना ना जा...ना जा......" आगे शायद ये कह देतीं कि... "पटियाला पैग लगाकर मैं तो टल्ली हो गई."
मिश्र जी, पंजाबी भी तंग हो गये है इन गीतो से शब्द भी गलत लगाते है, ओर लोक गीतो का तो सत्यनाश कर दिया, जो गीत विवाह शादियों मै गाये जाते थे, उन्हे तोड मरोड़ कर इन फ़िल्म वालो ने तलाक के गीत बना दिया।
साहित्यकारों की अभिजात्यता के सामने हिन्दी ब्लॉगर्स की च**टोली सटाने में एक खुरदरी गुदगुदी का अहसास होता है मुझे। पर इस प्रकार की “टल्ली” भाषा, जो फिल्म गीतों या संवाद का हिस्सा हो गयी है, मुझे तो स्केबीज का रोग लगती है। झड़ते हुये बाल और अनवरत होने वाली खुजली का रोग। क्या समाज रुग्ण होता चला जा रहा है?

उस दिन “नया ज्ञानोदय” में साहित्यकार के बांके पन से चिढ़ कर मैने सोचा था कि इस पत्रिका पर अब पैसे बरबाद नहीं करूंगा। पर शिव की पोस्ट पढ़ने पर लगता है कि “नया ज्ञानोदय” तो फिर भी खरीद लूंगा, पर आज की फिल्म या फिल्म संगीत पर एक चवन्नी जाया नहीं करूंगा!  

मेरी पत्नी जी कहती हैं कि मैं इन शब्दों/गीतों पर सन्दर्भ से हट कर लिख रहा हूं। "ऐ गनपत चल दारू ला” एक फंतासी है जवान लोगों की जो अमीरी का ख्वाब देखते हैं। और इस गायन (?) से फंतासी सजीव हो उठती है।

पर अमीरी की यह फन्तासी यह भी तो हो सकती है - “गनपत, मेरी किताबों की धूल झाड़ देना और मेरा लैपटॉप गाड़ी में रख देना”!

या फिर - "यदि होता किन्नर नरेश मैं राजमहल में रहता। सोने का सिंहासन होता, सिर पर मुकुट चमकता।" जैसी कविता जन्म लेती फंतासी में।

Monday, December 15, 2008

बड़े हो रहे हैं पिल्ले


कुतिया के पिल्ले बड़े हो रहे हैं। सफेद-भूरा वाला पिल्ला सबसे चघड़ है। अपनी कोठरी से बाहर निकल निकल कर एक्प्लोर करता है। दो काले वाले भी आस-पास घूमते हैं। एक काला (छोटे सफेद धब्बे के साथ) सबसे दुबला है और ज्यादा सोता है। वही सबसे ज्यादा कूं कूं करता है।
 
puppiesचार पिल्ले और चारों अलग अलग पर्सनालिटी वाले। डार्विन की माने तो चौथा मरियल वाला सबसे कम चांस रखता है सर्वाइवल का। पर लगता है सारे सर्वाइव कर लेंगे।

« ढ़लान पर रपटते पिल्ले। 

दूध वाला एक पाव दूध डाल जाता है। पहले कुतिया पीती थी। अब वह बच्चे पीते हैं। कुतिया को वैसे ही मन माफिक भोजन मिल जा रहा है। पड़ोस में एक घर में तेरही थी। वहां वालों ने कुतिया के लिये एक भरपूर पत्तल भोजन भिजवा दिया था।

छब्बीस नवम्बर की पिछली पोस्ट से:

….. कुतिया और बच्चों के लिये संदीप और भरतलाल ने एक घर बना दिया है। नियम से भोजन देते हैं। कुतिया कोई भी समस्या होने पर अपनी कूं-कूं से इन्हें गुहार लगाने पंहुच जाती है। वह जान गयी है कि यही उसका सहारा हैं। पिल्लों ने अभी आंख नहीं खोली है।  


लगभग चार हफ्ते भर के हो रहे हैं ये पिल्ले। अगले महीने भर में कुतिया खिसक लेगी और पिल्ले आत्मनिर्भर हो लेंगे?


हे राम! रात के दस बज रहे हैं। कल यह पोस्ट पब्लिश होगी। अभी पता चल रहा है कि दो पिल्ले – एक सफेद और एक काला कोई चुरा ले गया है। कुतिया परेशान इधर उधर दौड़ रही है। उसकी रोने की आवाज भी आ रही है।

मैं दुखी महसूस कर रहा हूं। अत्यन्त दुखी।

अपडेट (१३:०० बजे) : दफ्तर के लिये मैं पौने दस बजे निकल रहा था तो सन्दीप ने बताया - दुन्नो पिलौआ आइ ग हयें (दोनो पिल्ले आ गये हैं)। शायद रात भर किसी ने रखा होगा और सवेरे वापस छोड़ गया। राहत!

Saturday, December 13, 2008

ढिंचक लेखन!


atul अभी अभी एक नये ब्लॉग की खबर चिठ्ठाजगत ने दी है अपनी ई मेल के माध्यम से। ब्लॉग है – मेरी कलम, मेरे जज्बात। मैं चला गया पोस्ट पर। तीन कमेण्ट थे। मैने सोचा एक उड़न तश्तरी (समीर लाल) का अवश्य होगा। पर नहीं। पहला कमेण्ट रोमनागरी में किसी सिम्मी जी का था। और क्या शानदार कमेण्ट -
Abe tu to ekdum dhinchak likhne laga hai...bole to jhakkas...Lagta hai jaise dil par chot khai hai. (अबे, तू तो एकदम ढ़िंचक लिखने लगा है। बोले तो झक्कास। लगता है जैसे दिल पर चोट खाई है!)

अब दो चीजें – समीर लाल जी से पहले हम कैसे पहुंच गये नये ब्लॉग पर! और दूसरे, इतना बढ़िया टिप्पणी मेरी किसी पोस्ट को क्यों न मिल सकी अब तक?

विज्ञापन की दुनियां से जुड़े अशोक बोरा जी ने ब्लॉग टेम्प्लेट वास्तव में बड़ा झिंचक बनाया है।

चलें भैया, मालगाड़ी गिनें। ये तो ऐसे ही एक पोस्ट ठेलने का मन हो गया था उक्त ब्लॉग के कमेण्ट से।  


और आशीष खण्डेलवाल जी के जुगाड़ से पता चला कि हम ९०००+ टिप्पणियां बटोर चुके हैं अब तक!

Friday, December 12, 2008

शिखर का एकान्त


मैं अकेले कमरे में बैठा हूं। इण्टरकॉम पर बीच बीच में ट्रेन कण्ट्रोलर खबर देता है कि गाड़ियां ठीक नहीं चल रहीं। कोहरे का असर है। एक ट्रेन दुर्घटना अभी ताजा ताजा निपटी है। स्टाफ परिचालन की उत्कृष्टता से सुरक्षा की तरफ स्विंग कर गया है। छाछ को भी फूंक कर पीने जैसा कुछ करने लगा है।

तब एक एक कर डिवीजन के अधिकारी गण अपना मन्तव्य फोन पर बताते हैं। मैं जानता हूं कि फोन पर बता कर वे राहत सा महसूस करते होंगे। “हमने बक (जिम्मेदारी) आगे पास ऑन कर दिया (we have passed the buck ahead)”| मैं भी सोचता हूं कि इस बक को आगे ठेला जाये। पर आगे ठेलने का बहुत स्पेस नहीं है। फिर भी मैं महाप्रबन्धक महोदय को एक सरकाऊ फोन करता हूं। जिनके पास यह सुविधा नहीं होती होगी, वे अन्तत हनुमान चालिसा पढ़ कर हनुमान जी पर बक ठेलते होंगे।

mountain शिखर का एकांत कितना किलर होता है जी! मैं प्रधानमंत्री जी की हालत की सोचता हूं। प्रजातंत्र में हर आदमी उनपर बक ठेलने में स्वतंत्र है। कितना एकाकी महसूस करते होंगे सरदार जी। बहुत से प्रबन्धक बहुत सी मीटिंग इसलिये करते हैं कि वे इस एकाकी भाव से भय खाते हैं। यह एकाकी भाव मानव की शारीरिक-मानसिक खिन्नता और विपन्नता का समग्र है। 
बैटर हॉफ की त्वरित टिप्पणी - पोस्ट लिखने के लिये ठीक है। पर ज्यादा मुंह बना कर न बैठो। ज्यादा सिपैथी बटोरना कोई अच्छी बात नहीं!

यह ब्लॉगिंग भी उस एकाकी भाव को खत्म करने का एक जरीया है। मुझे मालुम है आपकी अपनी समस्यायें होंगी। आपके अपने एकाकी भाव होंगे। आपमें से कुछ अपने आइसोलेशन को अभिव्यक्त करेंगे टिप्पणियों में। कुछ शायद बता पायें कि मैं यह एकाकी भाव कैसे दूर कर सकता हूं। कुछ यह भी कह सकते हैं कि “यह भी कोई पोस्ट हुई? फ्रॉड मानसिक हलचल का एक और नमूना हुआ यह”!

पर मित्रवर, चाहे आप कितने भी छोटे या बड़े शिखर पर हों, चाहे आप केवल पत्नी और एक छोटे बच्चे के दायित्व के शिखर पर हो, आप यदाकदा इस एकाकी भाव को महसूस करते होंगे। मैं तो आज वही कर रहा हूं।

(नोट यह पोस्ट कल लिखी गयी थी।)   

पिछली पोस्ट पर कुछ पाठकों ने भर्तृहरि के नीति, शॄंगार और वैराज्ञ शतक की उपलब्धता के बारे में जिज्ञासा व्यक्त की है। सुमन्त मिश्र कात्यायन जी ने बताया है कि यह चौखम्बा प्रकाशन, वाराणसी ने पब्लिश किये हैं और सरलता से उपलब्ध हैं।

Thursday, December 11, 2008

भर्तृहरि का नीति शतक – दो पद


नीतिशतक मुझे मेरे एक मित्र ने दिया था। उनके पिताजी (श्री रविशकर) ने इसका अनुवाद अंग्रेजी में किया है, जिसे भारतीय विद्या भवन ने छापा है। मैं उस अनुवाद के दो पद हिन्दी अनुवाद में प्रस्तुत कर रहा हूं -

२: एक मूर्ख को सरलता से प्रसन्न किया जा सकता है। बुद्धिमान को प्रसन्न करना और भी आसान है। पर एक दम्भी को, जिसे थोड़ा ज्ञान है, ब्रह्मा भी प्रसन्न नहीं कर सकते।

४: कोई शायद रेत को मसल कर तेल निकाल सके; कोई मरीचिका से अपनी प्यास बुझा सके; अपनी यात्रा में शायद कोई खरगोश के सींग भी देख पाये; पर एक दम्भी मूर्ख को प्रसन्न कर पाना असंभव है।


Wednesday, December 10, 2008

प्रिय भैया खरी खरी जी,


प्रिय भैया खरी खरी जी,

आशा है आप कुशल से होंगे। मैने अपनी पिछली पोस्ट पर आपकी टिप्पणी देखी थी:
पते की बात लिखी है आपने रीता दीदी पर क्या आपने घायलो के लिये कुछ किया क्या? या ज्ञान जीजाजी ने????? या कुछ करेंगे क्या??????
आपका प्रश्न बड़ा स्वाभाविक है। कई लोग निस्वार्थ हो कर कुछ करने को समाज सेवा का भी नाम देते हैं। काफी मुश्किल है यह कार्य और अकेले में तो यह बहुत कठिन हो जाता है। ज्ञान की रेलवे की नौकरी ने मुझे बहुत कुछ सिखाया, बहुत अनुभव दिये और बहुत आत्म-संतुष्टि भी। रेलवे में “महिला समाज सेवा एवं कल्याण समिति” जैसी संस्था है। यह “चाय-समोसा” समिति नहीं है।

मैं नहीं चाहता था कि रीता पाण्डेय इस टिप्पणी पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करें। पर उन्होंने व्यक्त करने का मन बना लिया तो मेरे पास विकल्प नहीं है उसे न प्रस्तुत करने का।

इस पोस्ट में कई बातें ऐसी हैं जो मुझे अवसाद ग्रस्त कर देती हैं। मैं उन्हे भूलना चाहता हूं।

मेरी पत्नी मुझसे ज्यादा मजबूत इन्सान है। इस तथ्य को कुबूल करने में मुझे कोई झिझक नहीं है।
यह मूलत: रेल कर्मचारियों के परिवार के लिये कार्य करती है। अगर महिलायें वास्तव में कुछ समाज कल्याण की ओर उन्मुख हैं तो इस संस्था के माध्यम से अपनी रचनात्मकता को विस्तार दे सकती हैं। मुझे याद है कि इसी संस्था से जुड़े होने के कारण मैने उदयपुर में कई दिन लगा कर स्कूल टेक्स्ट-बुक्स के ऑडियो टेप तैयार किये थे – जिससे अंध विद्यालय के बच्चे अपनी परीक्षा की तैयारी कर सकें। और मुझे सुखद आश्चर्य हुआ था कि उन्होंने टेप की कितनी कापियां बना ली थीं। कितना प्रयोग कर रहे थे वे। 

रेल दुर्घटनायें तो रेल चलने से जुड़ी ही रहती हैं। किसी रेल दुर्घटना होने पर जब रेल कर्मचारी और अधिकारी साइट रेस्टोरेशन के लिये जूझ रहे होते हैं, तब महिला समिति पीड़ितों के लिये रक्तदान, भोजन का इन्तजाम और अन्य प्रकार से मदद का काम संभालती है। इसके अलावा मुझे याद है कि हम लोगों ने पैसा और सामान इकठ्ठा कर उड़ीसा के चक्रवात, पूर्वी तट पर आई सुनामी या कच्छ/भुज के भूकम्प के लिये सहायता भेजने का काम किया था। अनेक दिन हम सवेरे से देर शाम तक इस काम पर लग जाते थे। मेरे बच्चे कुछ बड़े हो गये थे, लिहाजा समय निकालने में इतनी परेशानी नहीं होती थी। भुज के भूकम्प के समय तो आस पास के मण्डलों से रेल महिलायें मौके पर जा कर खुद काम कर रही थीं। स्काउट-गाइड के बच्चे और किशोर हमारे इस बारे में विशेष सहायक होते हैं।

एक रेल दुर्घटना ने तो मेरे परिवार का जो नुक्सान किया है, वह शब्दों में समेटना मेरे लिये कठिन है। उस घटना का जिक्र मैं चिकित्सकों के व्यवहार की वजह से कर रही हूं। भुसावल में मेरा बेटा मौत से जूझता पड़ा था। सही निर्णय के अभाव में २२ घण्टे निकल गये। वहां इलाज की मूल सुविधायें नहीं थीं। तुरत सीटी-स्कैन (जिसकी सुविधा न थी) कर आगे का इलाज तय होना था। न्यूरो सर्जन वहां उपलब्ध न थे। पर अस्पताल वाले न कुछ कर रहे थे, न कोई वैकल्पिक योजना सोच पा रहे थे। हम उसे अपने रिस्क पर भुसावल से ले कर जळगांव पंहुचे – एक न्यूरोसर्जन के पास। वे न्यूरोसर्जन देवतुल्य थे हमारे लिये। ठीक इसी तरह इन्दौर के चोइथराम अस्पताल में जो डाक्टर मिले, वे भी देवतुल्य थे। उन्होंने मेरे बेटे के सिर का ऑपरेशन किया। हम उसके बाद मुम्बई के एक न्यूरोलॉजिस्ट से सलाह लेने गये – बंगलोर में निमहंस जाने के पहले। ये सज्जन अपने एक एक मिनट का पैसा लेते थे पर जबान से जहर उगल रहे थे। उन्होंने हमें झटक दिया और हमने उन्हें। आखिर वे मेरे भगवान तो न थे! मेरे भगवान से जो बात हुई थी, उसके अनुसार उन्होंने हमें दिलासा दी थी कि हमारे जद्दोजहद की सीमा हमारी हार जीत का फैसला करेगी। और मैं अपनी जीत मान कर चल रही थी।

--- बात बम धमाके की हुई थी। बनारस में स्टेशन की लॉबी में और संकटमोचन के परिसर में बम फटे थे। ज्ञान उस दिन घर पंहुचे ही थे कि टीवी पर यह समाचार आने लगा। ये तो उल्टे पैर भागे। सड़क सेफ न लगी तो रेल पटरी के किनारे-किनारे पैदल चलते स्टेशन पंहुचे। ट्रेन के सघन तलाशी, घायलों को अस्पताल भेजना, मृत शरीर और अंगों को मोर्चरी रवाना करना; यह सब काम निपटा कर जब ज्ञान घर वापस आये तो रात के दो-तीन बज चुके थे।

एक दिन बाद हम अस्पताल गये घायलों को देखने। बहुत दर्दनाक दृश्य था। अचानक एक परिचित चेहरा दिखा। वह हमारे वाणिज्य विभाग का कर्मचारी था। उसके दोनो बेटे संकटमोचन के धमाके में घायल हो गये थे। बड़े को तो डिस्चार्ज कर दिया गया था फर्स्ट एड के बाद। पर छोटे का पैर बुरी तरह घायल था। डाक्टर साहब ने हमें बताया कि अगर उसका पैर काट दिया जाये तो शायद जान बच जाये। पिता भाव शून्य आंखों से देख रहा था। मैं चाह कर भी उस पिता को यह सलाह न दे पाई कि वह पैर का ऑपरेशन कराने दे। चार दिन बाद उस बेटे की मृत्यु हो गई। बारूद का जहर पूरे शरीर में फैल गया था।

तो भैया खरी खरी, यह मेरा अपना भोगा यथार्थ है। जिन्दगी की जद्दोजहद से खुरदरी जमीन पर चलने की आदत पड़ गई है। खरी खरी सुनने पर कभी कभी मौन टूट जाता है।

कभी इलाहाबाद आयें तो मिलियेगा।

आपकी बहन,

रीता पाण्डेय। 

Monday, December 8, 2008

क्या चीज है बीफंकी!


नीरज रोहिल्ला जिस तरह से एक मॉडल की फोटो चेंप टाइट स्पॉट में फंसे और उससे रिगल आउट (wriggle-out) हुये, वह देख मन गार्डन-गार्डन है! ब्लॉगिंग डिजास्टर मैनेजमेण्ट (आपदा-प्रबन्धन) मैन्युअल में निम्न नियम बनाये जा सकते हैं:
आपदा-प्रबन्धन नियम १: किसी नारी का फोटो बिना परमीशन के न लगायें।

आपदा-प्रबन्धन नियम २: अगर लगा चुके हैं तो बिना-शर्त सॉरी कहते हुये फोटो हटा लें।

आपदा-प्रबन्धन नियम ३: पर हटाने में पोस्ट का कचरा होने की संभावना है तो फोटो को बीफंकी से परिवर्धित-परिवर्तित कर प्रयोग करें।
बहुत बधाई नीरज। और बहुत स्थितप्रज्ञ व्यक्ति हैं आप! मैं उक्त “आपदा-प्रबन्धन नियम ३” को तो आपकी पोस्ट से ही सीख पाया।

बीफंकी का उदाहरण देखें – अगर ताऊ अपने आइकॉन का प्रयोग करने को मना करें तो उसकी बीफंकियत कर प्रयोग आप कर सकते हैं। और कोई फोटो-एडीटर इन्स्टॉल करने की जरूरत नहीं।

chimp Taoo Tau

यह जरूर है कि बीफंकियत से फोटो का कार्टून में परिवर्तन कॉपीराइट कानून का उल्लंघन होगा या नहीं, यह तो जानकार लोग ही बता पायेंगे। पर रिगल आउट का एक तरीका तो सामने आया!

यूं तो बेहतर होगा कि नेट से ले कर चित्र लगाने की प्रवृत्ति पर हम संयम की लगाम लगायें।
प्रभात गोपाल झा जी  ने ई-मेल कॉण्टेक्ट के लिये टिप्पणी की। मुझे लगा कि पाठकों के संदेश के लिये एक तरीका होना चाहिये, अगर आप अपना ई-मेल एड्रेस स्पैम से बचने के लिये जग जाहिर नहीं करते। लिहाजा मैने पोस्ट में हेडर से नीचे Kontactr का "संदेश भेजें" लिंक लगा दिया है, जिससे संदेश आदानप्रदान हो सकेगा। और झा जी को तो धन्यवाद दूंगा ही!

मैं टिप्पणी करने की महत्ता समझ रहा हूं और श्री समीर लाल की ब्लॉगजगत में सशक्तता का अहसास भी कस कर हो रहा है/होता रहा है।

वैसे, आप हिन्दी जगत के अन-सॉलिसिटेड ई-मेल यातायात से त्रस्त हैं कि नहीं? मैं तो उसके लिये स्पैम में डालने और डिलीट करने का मुक्त रूप से प्रयोग कर रहा हूं।  

बम्बई के पिछले ट्रेन ब्लॉस्ट में इण्डियन मुजाहिदीन के लिये फलाने जी वकील बनने को तैयार हो जाते हैं। बेचारे फरीदकोट,पाकिस्तान के आतंकवादी अजमल कसाई को लीगल सहायता देने में अंतरात्मा आड़े आ रही है!

इण्टेलिजेंशिया को यह जवाब जरूर देना चाहिये कि पाकिस्तानी आतंकवादियों को दफनाने को जमीन न दी जायेगी और इण्डियन मुजाहिदीन के मामले उससे अलग ट्रीट किये जाते हैं। उपकुलपति बटालाहाउस के मामले में सारी लीगल सहायता देने को तत्पर हैं। यह जीभ में फॉर्क (fork - द्विशाख) क्यों है?

Saturday, December 6, 2008

कौन रहा ओरीजिनल ठेलक?


कल लिखने का मसाला नहीं है। क्या ठेलें गुरू? पर ये ठेलना क्या है। कुच्छो लिखो। कुछ लगा दो। एक ठो मोबाइल की या क्लिपार्ट की फोटो। वो भी न हो तो कुछ माइक्रो-मिनी-नैनो।flintstonesR

सन्तई ठेलो। आदर्श ठेलो। तुष्टीकरण ठेलो। हिन्दू आतंकवाद पे रुदन करो। पल्टी मारो तो गरियाओ इस्लाम की बर्बरता को। साम्यवाद-समाजवाद-बजारवाद-हेनवाद-तेनवाद। बस लिख दो।

कल चिठ्ठाचर्चा कौन कर रहा है जी? फुरसतिया लौटे कि नाहीं पहाड़ से? शिवकुमार मिसिर से हीहीही कर लो फोन पर। अपनी अण्टशण्टात्मक पोस्ट की बात कर लो। क्या पता एक आध लिंक दे ही दे छोटा भाई हमारी पोस्ट का। मसिजीवी कर रहे हों चिठ्ठा-चर्चा तो अपनी पोस्ट तो उभरती ही नहीं जी। पर भैया पोस्ट क मसलवइ न होये त कौन लिंक-हाइपर लिंक? कौन सुकुल और कौन मसिजीवी? 

लोग गज भर लिख लेते हैं। यहां ३०० शब्द लिखने में फेंचकुर (मुंह में झाग) निकल रहा है। भरतललवा भी कोई चपन्त चलउआ नहीं बता रहा है नया ताजा। कित्ता जबरी लिखें। कट पेस्ट कर लिया तो चल पायेगा? देखें ताऊ की पोस्ट से ही कुछ उड़ा लिया जाये! विश्वनाथ जी भी कृपा कम कर रहे हैं आजकल। कौन से उदार टिप्पणी करने वाले पर लिख दिया जाये?

भैया ग्लैमराइजेशन का जमाना है। देखो तो वो दरजा चार पास आतंकवादी भी टापमटाप ग्लैमर युक्त हो गया है। फरीदकोट से फ्लोरिडा तक चर्चा है। अब न तो उसे फांसी हो सकती है न एनकाउण्टर। एक आध प्लेन हाइजैक कर लिया अलकायदियों ने, तो बाइज्जत बरी भी होना तय है। इस समय मीडिया की चर्चा के सारे लिंक-हाइपर लिंक का केन्द्र वही है। ब्लॉगजगत में भी कैसे वैसा ग्लेमर पाया जाये? पर इस ग्लैमराइजेशन के बारे में लिखने का सारा सिंगल टेण्डर आलोक पुराणिक के नाम डिसाइड हो गया है। उस पर लिख कर किसी व्यंगकार की रोजी-रोटी पर नजर गड़ाना हम जैसे सिद्धान्तवादी को शोभा थोड़े ही देगा? 

चलो ठेलाई की लेंथ की पोस्ट तो बन गयी। अब पत्नी जी से परमीशन मांगे कि पोस्ट कर दें या अपनी मानसिक विपन्नता का प्रदर्शन न करते हुये कल का दिन खाली जाने दें? (वैसे भी दफ्तर में बहुत बिजी रहते हैं। उसी के नाम पर एक दिन की छुट्टी जायज बन जाती है ब्लॉगिंग से!) कल सनीचर की सुबह यह पोस्ट दिख जाये तो मानियेगा कि पत्नीजी से परमीशन मिल गयी अण्टशण्ट ठेलने की।

पर ओरीजिनल क्वेश्चन तो रह ही गया। कौन है इस चिरकुट ब्लॉग जगत का ओरीजिनल ठेलक? सेंस तो बहुत लिखते हैं; पर कौन था ओरीजिनल नॉनसेंसक?

Friday, December 5, 2008

उधर भी झांक आते लोग


green-candle मुम्बई हादसों ने सबके मन में उथल पुथल मचा रखी है। सब की भावनायें किसी न किसी प्रकार से अभिव्यक्त हो रही हैं। ज्ञान भी कुछ लिखते रहे (उनकी भाषा में कहें तो ठेलते रहे)। कुछ तीखा भी लिखते, पर उसे पब्लिश करने से अपने को रोकते रहे। उन्होंने मुझसे भी पूछा कि तुम्हारे मन में क्या चल रहा है? ईमानदारी से कहूं तो मेरे मन में निपट सन्नाटा था। अंतर्मन में कुछ घुमड़ रहा था, पर आकार नहीं ले पा रहा था।

श्रीमती रीता पाण्डेयरीता पाण्डेय की लिखी पोस्ट। आप उनके अन्य लेख "रीता" लेबल पर सर्च कर देख सकते हैं।
कल थोड़ी देर को टेलीवीजन के सामने बैठी थी। चैनल वाले बता रहे थे कि लोगों की भीड़ सड़कों पर उमड़ आई है। लोग गुस्से में हैं। लोग मोमबत्तियां जला रहे हैं। चैनल वाले उनसे कुछ न कुछ पूछ रहे थे। उनसे एक सवाल मुझे भी पूछने का मन हुआ – भैया तुम लोगों में से कितने लोग घर से निकल कर घायलों का हालचाल पूछने को गये थे? 

कई बार मुझे अपने सोचने के तरीके पर खुद को अजीब लगता है। जो मर गये, वे कैसे मरे, उन्हें किसने मारा, सुरक्षा नाकाम कैसे हुई – इस सब की चीर फाड़ होती है। पर दुर्घटना में जिनका एक पैर चला गया, हाथ चला गया, आंखें चली गयीं; उनके परिवार वाले उन्हें ले कर कैसे सामना कर रहे होंगे आगे की जिन्दगी का? मिलने वाले मुआवजे पर वकील और सरकारी अमला किस तरह vultureगिद्ध की तरह टूट पड़ता होगा। कमीशन पर उनके केस लड़े जाते होंगे मुआवजा ट्रीब्यूनल में। और सहानुभूति की लहर खत्म होने पर डाक्टर लोग भी कन्नी काटने लगते हैं। इन सब बातों को भी उधेड़ा जाना चाहिये। मोमबत्ती जलाने वाले थोड़ा वहां भी झांक आते तो अच्छा होता। 

मुझे याद आ रही है वह लड़की जिसके ट्रेन विस्फोट में दोनो पैर उड़ गये थे। उस समय हम बनारस में थे। रेल सुरक्षा आयुक्त के साथ ज्ञान भी अस्पताल गये थे घायलों को देखने और उनसे हाल पूछने। उस लड़की के बारे में लोगों ने बताया था कि उसके मां-बाप पहले ही गुजर चुके हैं। वह अपनी बहन के घर जा रही थी कि यह हादसा हो गया ट्रेन में। ज्ञान ने सुरक्षा आयुक्त महोदय से कहा था - “सर, अगर आप इस जांच के दौरान अस्पताल का दो चार बार दौरा और कर लेंगे तो डाक्टर थोड़ा और ध्यान देंगे इस लड़की पर।”

घर आ कर ज्ञान ने मुझे इस लड़की के बारे में बताया। मुझे लगा कि यह लड़की बेचारी तो दो पाटों में फंस गई। मुआवजे में कमीशन तो वकील और सरकारी अमला ले जायेगा। बचा पैसा बहनोई रख लेगा, बतौर गार्जियन। एक गरीब लड़की, जिसके मां-बाप न हों, दोनो पैर न हों, वह इस बेदर्द दुनियां में कैसे जियेगी? मैने ईश्वर से प्रार्थना की – भले जीवन अमूल्य हो, पर भगवान उसे अपने पास बुला लो।

पता नहीं उस लड़की का क्या हुआ।   

Wednesday, December 3, 2008

यह ताऊ कौन है?


ताऊ रामपुरिया मेरे ब्लॉग पर नियमित विजिटर हैं। और इनकी टिप्पणियां सरकाऊ/निपटाऊ नहीं होतीं। सारे देसी हरयाणवी ह्यूमर के पीछे एक सन्जीदा इन्सान नजर आते हैं ये ताऊ। कहते हैं कि अपने पजामे में रहते हैं। पर मुझे लगता है कि न पजामे में, न लठ्ठ में, ये सज्जन दिल और दिमाग में रहते हैं।
chimp
ताऊ उवाच

अन्ट्शन्टात्मक लेखन में बड़ा दम लगता है ! क्योंकि कापी पेस्ट करने के लिए मैटर नही मिलता !
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हमारे यहाँ एक पान की दूकान पर तख्ती टंगी है, जिसे हम रोज देखते हैं! उस पर लिखा है : कृपया यहाँ ज्ञान ना बांटे, यहाँ सभी ज्ञानी हैं! बस इसे पढ़ कर हमें अपनी औकात याद आ जाती है! और हम अपने पायजामे में ही रहते हैं! एवं किसी को भी हमारा अमूल्य ज्ञान प्रदान नही करते हैं!

कई ब्लॉग्स हैं, जिनपर चिठेरे की पहचान धुन्धली है। ताऊ की पहचान के लिये जो फसाड है एक चिम्पांजी बन्दर का - मैं उससे चाह कर भी ताऊ को आईडेण्टीफाई नहीं कर पाता। अगर मैं उनसे अनुरोध कर पाता तो यही करता कि मित्र, हमारी तरह अपनी खुद की फोटो ठेल दें - भले ही (जैसे हमारी फोटोजीनिक नहीं है) बहुत फिल्मस्टारीय न भी हो तो।

रामपुर के ताऊ इन्दौर में हैं और मैं पांच साल पहले तक इन्दौर में बहुत आता जाता रहा हूं। वहां के इंदौर/लक्ष्मीबाईनगर/मंगलियागांव के रेलवे स्टेशन पर अभी भी एक दो दर्जन लोग मिलने वाले निकल सकते हैं जो मुझसे घरेलू स्तर पर हालचाल पूछने वाले हों। वह नगर मेरे लिये घरेलू है और उस नाते ताऊ भी।

ताऊ के प्रोफाइल में है कि वे भड़ास पर कण्ट्रीब्यूट करते रहे हैं। जब भी मैं वह देखता हूं तो लगता है कि कई कम्यूनिटी ब्लॉग्स जो मैने नहीं देखे/न देखने का नियम सा बना रखा है; वहां ताऊ जैसे प्रिय चरित्र कई होंगे। उन्होने कहीं कहा था कि वे अपने व्यक्तिगत मित्रों के सर्किल में ब्लॉग लिखते रहे हैं। यह व्यापक खुला लेखन तो बाद की चीज है उनके लिये।

खैर, यह खुला लेखन हुआ तो अच्छा हुआ। हमारे जैसों को पता तो चला।

ताऊ से एक और कारण है अपनेपन का। "ताऊलॉजिकल स्टडीज" या "मानसिक हलचल" जैसे भारी भरकम शब्दों के बाट उछालने के बावजूद वे या मैं जो ब्लॉग पर ठेल रहे हैं, वह हिन्दी के परिदृष्य में कोई साहित्यिक हैसियतकी चीज नहीं है। कभी कभी (या अक्सर) लगता है कि हिन्दी के हाई-फाई, बोझिल इस या उस वाद के लेखन के सामने हम लोग कुछ वैसे ही हैं जैसे यामिनी कृष्णमूर्ति के भरतनाट्यम के सामने नाचते कल्लू चमार! हिन्दी के अभिजात्य जगत में हम चमरटोली के बाशिन्दे हैं - पर पूरी ठसक के साथ!

ताऊ जैसे पचीस-पचास लोगों की टोली हो तो ब्लॉगरी मजे में चल सकती है - बिना इस फिक्र के कि ट्यूब खाली हो जायेगी। ताऊ की लाठी और की बोर्ड बहुत है चलाने को यह दुकान!

ईब राम-राम।

अशोक पाण्डेय का कहना था कि उनके ब्राउजर (शायद इण्टरनेट एक्प्लोरर) से देखने में इस ब्लॉग की टिप्पणी की सेटिंग में ऐंचातानापन था। वह खत्म हुआ या नहीं?

Tuesday, December 2, 2008

क्या भारत युद्ध के लिये तैयार है?


War पहला रियेक्शन यह होता है कि तुरत पाकिस्तान पर चढ़ाई कर देनी चाहिये। पर शायद हम आतंकी हमले के लिये भी तैयार नहीं हैं – आपदा प्रबन्धन के स्तर पर और जन भावनाओं के सही प्रबन्धन के स्तर पर भी। युद्ध तो बहुत बड़ा कमिटमेण्ट मांगता है। मंदी के इस दौर में देश एक फुल स्केल के युद्ध का खर्च और तनाव झेल सकता है? झेलने को चाहे झेल जाये, पर अगर शत्रु जितना बाहरी हो उतना भीतरी भी@ तो युद्ध का यूफोरिया बहुत सार्थक नहीं।

दिसम्बर २००१:
भारत ने सेना सीमा पर लगा दी थी। यह पूछने पर कि क्या वे जैशे-मुहम्मद और लश्करे तैय्यबा पर कार्रवाई करेंगे; मुशर्रफ ने कहा: हम अपनी जिम्मेदारी समझते हैं और हमें मालुम है कि हमें क्या करना है।
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अक्तूबर २००२:
भारतीय सेना की सीमा से वापसी पर रक्षामन्त्री जॉर्ज फर्नाण्डिस का कथन: सालों से हम क्रॉस-बॉर्डर टेररिज्म से नित्य के आधार पर लड़ते रहे हैं। वैसा करते रहेंगे।

पचास लाख रुपये के खर्च और कुछ फिदाईन के बल पर एक देश को अर्थिक रूप से लकवाग्रस्त कर देना और युद्ध में लिप्त कर देना – यह बहुत बड़ी उपलब्धि होगी लश्करे तैय्यबा (या जो भी कोई आउटफिट हो) की। अभी तक तो वे बहुत सफल होते प्रतीत हो रहे हैं। इस हमले से जो लाभ भारत को मिल सकता था – राष्ट्रीय एक जुटता के रूप में, वह भी केवल आंशिक रूप से मिलता नजर आता है। वह लाभ दिलाने के लिये एक करिश्माई नेतृत्व की जरूरत होती है। ऐसे समय में ही करिश्माई नेतृत्व प्रस्फुटित होता है। और राजनैतिक दलों के लिये स्वर्णिम अवसर है जनमत को अपनी ओर करने का।  

आतंक से युद्ध एक बार की एक्सरसाइज नहीं है। यह सतत लड़ा जाने वाला युद्ध है। शायद लोग यह सोच रहे थे कि अफगानिस्तान और ईराक में जंग जीत कर अमेरिका चैन से बैठ पायेगा। पर वह चैन दीखता नहीं है। हां, अमेरिकी यह जरूर फख्र कर सकते हैं कि उन्होंने एक “बीफिटिंग(befitting – माकूल))” जवाब दिया। अन्यथा वे आत्मग्लानि से ग्रस्त हो गये होते। हमारा “बीफिटिंग” जवाब किस तरह का होगा, यह भारत को सोचना है। और परिवर्तन होने भी लगे हैं सरकार की सोच में।

कूटनीति के स्तर पर भी हमें लड़ना और जीतना है। मनोबल तो ऊंचा रखना ही है। मुझे आइंस्टीन का कहा याद आता है – हम किसी समस्या का हल उस समस्या के लेवल पर नहीं निकाल सकते, जिसपर वह अस्तित्व में है। हमें एक दूसरे स्तर पर हल ढूंढना होगा।


@ - और शायद अब; सिमी या उस प्रकार के संगठन के आतंक में लिप्त होने की बात चलने पर वोट बैंक के आधार की जाने वाली लीपापोती का उभरता फैशन खत्म हो। मुम्बई का आतंक बिना लोकल सपोर्ट के विदेशियों का अकेले के बूते पर किया कारनामा नहीं लगता। वैसे यह क्रैप (crap - मैला) बिकने लगा है कि यह शुद्ध बाहरी लोगों का किया धरा है।

पोस्ट लेखन के बाद का जोड़:
मेरे एक अभिन्न मित्र; जिनका पेशा जनता की नब्ज पहचानना है; ने बड़े पते की बात कही है कल मुझसे – अरे भाई साहब, कोई सुनामी नहीं आने वाली! जनता गुस्से में बहुत है, पर ये गुस्सा कोई सरकार विरोधी कैश करा ले, यह हालत नहीं है। वैसे भी मेमोरी बहुत शॉर्ट होती है। ये पैनल-फैनल के डिस्क्शन चार दिन में घिस लेंगे। फिर चलने लगेंगे लाफ्टर चैनल। ज्यादा दिन आतंक-फातंक की रोवा-राटी चलने वाली नहीं। अगले आतंकी हमले तक सब ठण्डा हो जायेगा। मातुश्री में आतंकवादी घुसे होते, तब कुछ दूसरी बात होती!


Saturday, November 29, 2008

देश के लिये दौड़


marchकल रविवार को मुम्बई में देश के लिये दौड़ का आयोजन किया गया है। छत्रपति शिवाजी टर्मिनल से नारीमन हाउस तक फिल्मी सितारे और ह्यूमन राइट एक्टिविस्ट्स इस दौड़ में भाग लेंगे। उसके बाद ताज होटल – ओबेराय होटल - नारीमन हाउस और गेटवे के चारों ओर मानव चेन बना कर “हम होंगे कामयाब” का सामुहिक गायन होगा। हर आदमी-औरत-बच्चा अपने हाथ में भारत का झण्डा लिये  होगा। सभी साम्प्रदायिक सद्भाव की शपथ लेंगे।

burning_candle_tallउसके बाद अगले रविवार को वागा सीमा पर भारत और पाकिस्तान के मशहूर बुद्धिजीवी, कलाकार और सिने हस्तियां इकठ्ठा होंगे और अमन चैन के लिये मोमबत्तियां जलायेंगे।

बहुत सम्भव है इन दोनो कार्यक्रमों को कमर्शियल चैनलों द्वारा लाइव टेलीकास्ट किया जाये। उसके लिये विज्ञापनदाता लाइन लगा रहे हैं। उल्लेखनीय है कि क्रिकेट नहीं टेलीकास्ट हो रहा तो विज्ञापनदाता इन ईवेण्ट्स पर नजर लगाये हैं।

भारत में जो हताशा और मायूसी का माहौल मुम्बई की दुखद घटनाओं के कारण चल रहा है; उसे सुधारने की यह ईमानदार और सार्थक पहल कही जायेगी। लोगों का ध्यान आतंक, खून, विस्फोट, परस्पर दोषारोपण और देश की साझा विरासत पर संदेह से हटा कर रचनात्मक कार्यों की ओर मोड़ने के लिये एक महत्वपूर्ण धर्मनिरपेक्ष कोर ग्रुप (इफभैफ्ट - IFBHAFT - Intellectuals for Bringing Harmony and Fighting Terror) ने यह निर्णय किये। यह ग्रुप आज दोपहर तक टीवी प्रसारण में अपनी रणनीति स्पष्ट करेगा। इस कोर ग्रुप के अनुसार उसे व्यापक जन समर्थन के ई-मेल मिल रहे हैं।

मैं तो यह स्कूप दे रहा हूं। बाकी; ऑफीशियल अनॉउन्समेण्ट्स की आप प्रतीक्षा करें। एक कार्यक्रम बापू की समाधि राजघाट पर भी आयोजित होने की सम्भावना है; जिससे दिल्ली की जनता भी अपनी देश भक्ति को अभिव्यक्ति दे सके।

(नोट – यह विशुद्ध सटायर है। इस पर विश्वास आप अपनी शर्तों पर करें।)

Friday, November 28, 2008

विकल्प क्या है?


कल बहुत सी पोस्टें मुम्बई के आतंकवादी हमले के संदर्भ में हिन्दी ब्लॉग जगत में थीं। बहुत क्षोभ, बहुत गुस्सा था। विगत के कुछ मामलों के चलते एटीएस के मारे गये अफसरों, कर्मियों के प्रति भी आदर भाव नहीं था कई पोस्टों में। एटीएस वाले जब किसी मामले में राजनैतिक दबाव में काम करते हैं, तो उसपर टिप्पणी की जा सकती है। पर जब  वे आतंक से भिड़ते जान खो बठें, तो उसका अनादर क्या सही है? देश के लिये जान दी है उन्होंने।

मुझे यह भी लगता है कि बटाला हाउस मामले की  तरह इस मामले में भी इण्टरेस्टेड लोग अंतत: आतंकवादियों के पक्ष में कहने के कुछ बिन्दु निकाल लेंगे। इसमें से एक आध आतंकवादी को दंगों का पीड़ित बता कर इस दुर्दान्त कार्रवाई को सॉफ्ट आउटलुक प्रदान किया जायेगा। (फलाने-फलाने ब्लॉग भी दस पंद्रह दिन बाद इस सॉफ्टीकरण वाली पोस्टें लिखने लगेंगे।) चुनाव समीप हैं, लिहाजा, अन्तत: वोट बैंक तोला जाने लगेगा।

इस प्रकार के काण्ड अनियमित रूप से नियमित हो गये हैं। और उनपर रिस्पॉन्स भी लगभग रुटीन से हो गये हैं। क्या किया जा सकता है?

इयत्ता पर श्री आलोक नन्दन जी को पिछले कुछ दिनों से पढ़ रहा हूं। बहुत बढ़िया लिखते हैं। (बढ़िया लेखन के मायने यह नहीं हैं कि उनसे सहमत ही हुआ जाये।) कल उन्होंने यदि सम्भव हो तो गेस्टापू बनाओ के नाम से एक पोस्ट लिखी। भारतीय स्टेट को मजबूत करने के लिये उन्होंने नात्सी जर्मनी के सीक्रेट पुलीस गेस्टापो (Gestapo) जैसे संगठन की आवश्यकता की बात कही है। पर हमारे देश में जिस प्रकार की निर्वाचन व्यवस्था है, उसमें निरंकुशता की बहुत सम्भावना बन जाती है और गेस्टापो का दुरुपयोग होने के चांस ज्यादा हो जाते हैं। क्या इस एक्स्ट्रीम स्टेप से काम चल सकता है?

Indira Gandhiमुझे मालुम नहीं, और मैं दूर तक सोच भी नहीं पाता। शायद ऐसी दशा रहे तो गेस्टापो बन ही जाये! प्रधानमन्त्री जी फेडरल इन्वेस्टिगेशन अथॉरिटी की बात कर रहे हैं जो पूरे सामंजस्य से आतंक से लड़ेगी। क्या होगी वह?

श्रीमती इन्दिरा गांधी नहीं हैं। उनके जीते मैं उनका प्रशंसक नहीं था। पर आज चयन करना हो तो बतौर प्रधानमंत्री मेरी पहली पसंद होंगी वे।  रवि म्हात्रे की हत्या किये जाने पर उन्होंने मकबूल बट्ट को फांसी देने में देर नहीं की थी। अभी तो बहुत लकवाग्रस्त दिखता है परिदृष्य।

क्या किया जाना चाहिये? कल मैने एक आम आदमी से पूछा। उसका जवाब था (शब्द कुछ बदल दिये हैं) - "लतियाये बहुत समय हो गया। विशिष्ट अंग में पर्याप्त दूरी तक डण्डा फिट करना चाहिये। बस।" इतना लठ्ठमार जवाब था कि मैं आगे न पूछ पाया कि किसका विशिष्ट अंग और कौन सा डण्डा? उस जवाब में इतना गुस्सा और इतना नैराश्य था कि अन्दाज लगाना कठिन है। 

Thursday, November 27, 2008

काशीनाथ सिंह जी की भाषा


KashiAssi फिर निकल आयी है शेल्फ से काशी का अस्सी । फिर चढ़ा है उस तरंग वाली भाषा का चस्का जिसे पढ़ने में ही लहर आती है मन में। इसका सस्वर वाचन संस्कारगत वर्जनाओं के कारण नहीं करता। लिहाजा लिखने में पहला अक्षर और फिर *** का प्रयोग।

शि*, इतनी वर्जनायें क्यों हैं जी! और ब्लॉग पर कौन फलाने की पत्नी के पिताजी (उर्फ ससुर) का वर्चस्व है! असल में गालियों का उद्दाम प्रवाह जिसमें गाली खाने वाला और देने वाला दोनो गदगद होते हैं, देखने को कम ही मिलता है। वह काशी का अस्सी में धारा प्रवाह दिखता है।

मेरा मित्र अरुणेंद्र ठसक कर ग्रामप्रधानी करता है। उसके कामों में गांव के लोगों का बीच-बचाव/समझौता/अलगौझी आदि भी करना आता है। एक दिन अपने चेले के साथ केवटाने में एक घर में अलगौझी (बंटवारा) करा कर लौटा। चेला है रामलाल। जहां अरुणेन्द्र खुद खड़ा नहीं हो सकता वहां रामलाल को आगे कर दिया जाता है – प्रधान जी के खासमखास के रूप में।

और रामलाल, अरुणेंद्र की शुद्ध भदोहिया भाषा में नहा रहा था  – “भोस* के रामललवा, अलगौझी का चकरी चल गइल बा। अब अगला घर तोहरै हौ। तोर मादर** भाई ढ़ेर टिलटिला रहा है अलगौझी को। अगले हफ्ते दुआर दलान तोर होये और शामललवा के मिले भूंजी भांग का ठलुआ!” 

और रामलाल गदगद भाव से हाथ जोड़ खड़ा हो गया है। बिल्कुल देवस्तुति करने के पोज में। … यह प्रकरण मुझे जब जब याद आता है, काशीनाथ सिंह जी की भाषा याद आ जाती है। 

खैर कितना भी जोर लगायें, तोड़ मिलता नहीं काशी की अस्सी की तरंग का। और उसका दो परसेण्ट@ भी अपनी लेखनी में दम नहीं है।

फिर कभी यत्न करेंगे - “हरहर महादेव” के सम्पुट के रूप में सरलता से भोस* का जोड़ पाने की क्षमता अपने में विकसित करने के लिये।

पर यत्न? शायद अगले जन्म में हो पाये!

काशी का अस्सी पर मेरी पिछली पोस्ट यहां है। और इस पुस्तक के अंश का स्वाद अगर बिना *** के लेना हो तो आप यहां क्लिक कर पढ़ें।  

@ - "दो परसेण्ट"? यह तो दम्भ हो गया! इस्तेमाल "एक परसेण्ट" का करना चाहिये था।
हां; प्रियंकर जी की पिछली पोस्ट पर की गयी टिप्पणी जोड़ना चाहूंगा -
कुछ मुहं ऐसे होते हैं जिनसे निकली गालियां भी अश्लील नहीं लगती . कुछ ऐसे होते हैं जिनका सामान्य सौजन्य भी अश्लीलता में आकंठ डूबा दिखता है . सो गालियों की अश्लीलता की कोई सपाट समीक्षा या परिभाषा नहीं हो सकती .

उनमें जो जबर्दस्त 'इमोशनल कंटेंट' होता है उसकी सम्यक समझ जरूरी है . गाली कई बार ताकतवर का विनोद होती है तो कई बार यह कमज़ोर और प्रताड़ित के आंसुओं की सहचरी भी होती है जो असहायता के बोध से उपजती है . कई बार यह प्रेमपूर्ण चुहल होती है तो कई बार मात्र निरर्थक तकियाकलाम .

काशानाथ सिंह (जिनके लेखन का मैं मुरीद हूं)के बहाने ही सही पर जब बात उठी है तो कहना चाहूंगा कि गालियों पर अकादमिक शोध होना चाहिए. 'गालियों का उद्भव और विकास', 'गालियों का सामाजिक यथार्थ', 'गालियों का सांस्कृतिक महत्व', 'भविष्य की गालियां' तथा 'आधुनिक गालियों पर प्रौद्योगिकी का प्रभाव'आदि विषय इस दृष्टि से उपयुक्त साबित होंगे.

उसके बाद निश्चित रूप से एक 'गालीकोश' अथवा 'बृहत गाली कोश' तैयार करने की दिशा में भी सुधीजन सक्रिय होंगे .

Wednesday, November 26, 2008

छोटे छोटे पिल्ले चार!


मेरे घर के सामने बड़ा सा प्लॉट खाली पड़ा है। अच्छी लोकेशन। उसके चारों ओर सड़क जाती है। किसी का है जो बेचने की जुगाड़ में है। यह प्लॉट सार्वजनिक सम्पत्ति होता तो बहुत अच्छा पार्क बन सकता था। पर निजी सम्पत्ति है और मालिक जब तक वह इसपर मकान नहीं बनाता, तब तक यह कचरा फैंकने, सूअरों और गायों के घूमने के काम आ रहा है।
रीता पाण्डेय की पोस्ट। आप उनकी पहले की पोस्टें रीता लेबल पर क्लिक कर देख सकते हैं।Pilla
प्लॉट की जमीन उपजाऊ है। अत: उसमें अपने आप उगने वाली वनस्पति होती है। मदार के फूल उगते हैं जो शंकरजी पर चढ़ाने के काम आते हैं। कुछ महीने पहले मिट्टी ले जाने के लिये किसी ने उसमें गड्ढ़ा खोदा था। कचरे से भर कर वह कुछ उथला हो गया। पिछले हफ्ते एक कुतिया उस उथले गड्ढे में मिट्टी खुरच कर प्लास्टिक की पन्नियां भर रही थी।

Bitch5सन्दीप के बताने पर भरतलाल ने अनुमान लगाया कि वह शायद बच्चा देने वाली है। दोनो ने वहां कुछ चिथड़े बिछा दिये। रात में कुतिया ने वहां चार पिल्लों को जन्म दिया। संदीप की उत्तेजना देखने लायक थी। हांफते हुये वह बता रहा था -  कुलि करिया-करिया हयेन, हमरे कि नाहीं (सब काले काले हैं, मेरी तरह)| कुतिया बच्चा देने की प्रक्रिया में थी तभी मैने उसके लिये कुछ दाल भिजवा दी थी। सुबह उसके लिये दूध-ब्रेड और दो परांठे भेजे गये।

Bitch2 रात में मेरी चिन्तन धारा अलग बह रही थी। सड़क की उस कुतिया ने अपनी डिलीवरी का इन्तजाम स्वयम किया था। कोई हाय तौबा नहीं। किसी औरत के साथ यह होता तो हड़कम्प मचता – गाड़ी/एम्ब्यूलेंस बुलाओ, डाक्टर/नर्सिंग होम का इन्तजाम करो, तरह तरह के इंजेक्शन-ड्रिप्स और जरा सी देर होती तो डाक्टर सीजेरियन कर चालीस हजार का बिल थमाता। फिर तरह तरह के भोजन-कपड़े-दवाओं के इन्तजाम। और पता नहीं क्या, क्या।Bitch

प्रकृति अपने पर निर्भर रहने वालों की रक्षा भी करती है और उनसे ही इन्तजाम भी कराती है। ईश्वर करे; इस कुतिया के चारों बच्चे सुरक्षित रहें।

पुन: – कुतिया और बच्चों के लिये संदीप और भरतलाल ने एक घर बना दिया है। नियम से भोजन देते हैं। कुतिया कोई भी समस्या होने पर अपनी कूं-कूं से इन्हें गुहार लगाने पंहुच जाती है। वह जान गयी है कि यही उसका सहारा हैं। पिल्लों ने अभी आंख नहीं खोली है।  

Tuesday, November 25, 2008

धर्मान्तरण के प्रति बदले नजरिया


मेरे सामने खबर है कि अमेरिकी सिनेमा और मनोरंजन जगत के एक सितारे ने धर्मपरिवर्तन कर लिया है। यह मुझे प्रलोभन से प्रेरित लगता है। यह बन्दा कल तक पीडोफीलिया (बच्चों के साथ वासनात्मक कृत्य) का मुकदमा झेल रहा था। अत: अचानक इसके मन में ट्रांसफार्मेशन हुआ हो – विश्वास कर पाना कठिन है।

भारत में जबरन धर्मान्तरण हुआ रहा होगा इस्लामिक, अंग्रेजी, पोर्चुगीज या फ्रांसीसी शासन में। अब वह केवल प्रलोभन से होता है। उसका सही प्रतिकार होना चाहिये, पर वह विचारधारा के स्तर पर अन्य धर्मों से हिन्दू धर्म में धर्मान्तरण की सम्भावनायें तलाशने के सार्थक यत्न से किया जाना चाहिये।

Aashish_Khan
उस्ताद आशीष खान देबशर्मा, उस्ताद अल्लाउद्दीन खान, सरोदवादक के पौत्र। जिन्होंने सन २००६ में अपने को पूर्व बंगाल की ब्राह्मण परंपरा से जोड़ा।
मुक्ति उनके धर्म से ही सम्म्भव है; ऐसा अब्राहमिक धर्मों (Abrahamic religions - यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म) में इन-बिल्ट है। यहूदी धर्मान्तरण करते हों, ऐसा मुझे ज्ञात नहीं। सोची समझी नीति के तहद करते होते तो उनकी संख्या भी बढ़ती होती। अभी तो कोच्चि में अपने मृत के संस्कार करने के लिये निर्धारित दस लोगों के जुटने की भी मशक्कत कर रहे हैं यहूदी!  

क्रिश्चियानिटी और इस्लाम में यह धर्मान्तरण सक्रिय तरीके से होता है। भारत में वह बिना बल प्रयोग और बिना प्रलोभन के हो तो कोई समस्या ही न हो। पर तब वह "संख्या बढ़ाऊ कार्यक्रम" का हिस्सा नहीं बन सकता।

मैं सोचता था कि हिन्दू धर्म में धर्मान्तरण भूली-भटकी चीज होगी। पर विकीपेडिया का यह पेज तो बहुत से जाने पहचाने नाम गिनाता है जो अब्राहमिक या अन्य धर्मों/नास्तिकता से हिन्दू बने या हिन्दू धर्म में लौटे! इन मामलों में नहीं लगता कि हिन्दू धर्म ने धर्मान्तरण के लिये प्रलोभन या हिंसा का सहारा लिया होगा। उल्टे, हिन्दू धर्म में वापस आने के प्रति निष्क्रिय उपेक्षा भाव के बावजूद यह हुआ है। यह प्रक्रिया सक्रिय और तेज की जाने की आवश्यकता है।  


मेरा मानना है कि किसी का धर्मान्तरण नहीं किया जाना चाहिये। और वह कैथोलिक चर्च, जिसका मैं अंग हूं, ने यह माना है कि एक अच्छा व्यक्ति, चाहे किसी भी धार्मिक विचारधारा का हो, मोक्ष पा सकता है।...

... जूलियो रिबैरो, रिटायर्ड आई.पी.एस.

आदिवासियों, गरीबों के बीच निस्वार्थ काम करना और उनके शिक्षण, उनके उत्थान और उनको हाइजीन-स्वास्थ्य सिखाना जागृत हिन्दू समाज ने व्यवस्थित ढ़ंग से बहुत कम किया है। ईसाई मिशनरियों ने किया है। उसके साथ अपना धर्म को भी जोड़ा है – उसमें बुराई नहीं। पर जहां प्रलोभन दे कर धर्मान्तरण किया, कर रहे हैं, उसका सार्थक विरोध होना चाहिये।

और वह सही रूप में तो अन्य धर्म वालों को हिन्दू धर्म के प्रति आकर्षित करने से हो सकता है।

Monday, November 24, 2008

सरकारी बैठक में आशु कविता


Meeting चार भारी भरकम पूअरली डिजाइण्ड पावरप्वॉइण्ट के प्रवचन और बीच बीच में चबा चबा कर बोली गयी अंग्रेजी के लम्बे-लम्बे उद्गार। मीटिंग खिंचती चली जा रही थी। पचीस तीस लोगों से खचाखच बैठक में अगर बोरियत पसरी हो तो हम जैसे अफसर मोबाइल निकाल कर परस्पर चुहल के एसएमएस करने लगते हैं।

एक साहब ने मार्क फेबर का फेमस कोटेशन (?) ठेला -

मार्क फेबर ने अपने मासिक इनवेस्टमेण्ट बुलैटिन में अन्तिम रिमार्क के रूप में कहा –

“फेडरल सरकार हम सब को $600 का रिबेट दे रही है। अगर वह हम वालमार्ट में खर्च करते हैं तो पैसा चीन चला जायेगा। अगर गैसोलीन पर खर्चते हैं तो अरबिस्तान। हम कम्प्यूटर खरीदने में लगायेंगे तो वह भारत के हिस्से आयेगा। सब्जी/फल खरीदें तो वह मैक्सिको चला जायेगा। एक अच्छी कार खरीदने में लगायें तो वह या तो जापान जायेगा या जर्मनी। कोई बेकार सी चीज खरीदें तो वह ताइवान के हिस्से आयेगा। पर पैसा अमेरिका में ही रहे, इसके लिये एक ही तरीका है – पैसा वैश्याओं और बीयर पर खर्च किया जाये। यही अब अमेरिका में आंतरिक रूप से उत्पादित होता है।
मैं अमेरिका के लिये वही योगदान कर रहा हूं

उसके बाद एसएमएस की धारा बह निकली। एसएमएस बनाने में झंझट ज्यादा था, सो कुछ समय बाद उनके साथ कागज की पर्चियां आदान-प्रदान होने लगीं।

मेरे उन एसएमएस ठेलक आशुकवि मित्र ने बड़े काम की पर्चियां सरकाईं मेरे पास। एक मीटिंग में चल रही अंग्रेजी पर थी  -

अफसर बोले अंग्रेजी, लोग सुनें हरसाय।
चल खुसरो घर आपने, बैरन भई सभाय।

कुछ समय बाद देखा तो वास्तव में वे आशुकवि जी चुपके से सरक Running Awayलिये थे। पर लंच से कुछ पहले वापस आ गये थे। यह पूछने पर कि वापस कैसे आये, उन्होने अगली पर्ची सरकाई -

प्यादा है, फर्जी बना। मंच बीच शोभाय।
कल का बासी ढोकला, सॉस लगा कर खाय।
ऊंची कुरसी बैठ कर, मुझको करता ट्रैक।
भोजन भी मिलना यहीं, सो खुसरो केम बैक! 

मैने उनकी आशु कविता की प्रशंसा कर दी। उन्होने तड़ से अपनी ओर से मेरी प्रशंसात्मक पर्ची ठेली -

(आप तो, अपने ब्लॉग पर)
मुद्दा सीरियस उठाते हैं, कभी न गावें फाग।
अप-डाउन (यानी ट्रेन चलाने का काम) को छोड़ कर, भोर लिखेंगे ब्लॉग।
छुट भैयों की तुक बन्दी से, आप का कैसा मेल।
आप खायें साहित्य का मेवा, हम खायेंगे भेल!

और साहित्य प्रेम पर आशु-कवि मित्र की अन्तिम पर्ची -

साहित्य प्रेम पर विशेष –
(कवि का नाम भूल गये, शायद ओम प्रकाश आदित्य।)

एक लाला जी से मेरी मित्रता हुई थी यारों।
शुरू में मिले थे हम दोनो सन साठ में।
जीवन की समर की राह चुनने के लिये,
दोनों ने विचार किया बैठ बाट में।
साहित्य की सेवा के लिये मैं घाट पर गया,
लाला गये सदरबाजार एक हाट में।
लालाजी ने लोहा बेंचा, मैने एक दोहा लिखा।
लाला अब ठाठ में हैं, मैं पड़ा हूं खाट में।

ये मित्र उत्तर-मध्य रेलवे के मुख्य फलाने विषयक अभियंता हैं। रोजी रोटी के फेर में इन्जीनियर न बने होते तो बड़े साहित्यकारों में होते और अब तक कोई क्लासिक रच चुके होते। आप कल्पना कर सकते हैं कि अपनी जीवन्तता पर सीनियर अफसर बनने की जंग नहीं लगने दी है उन्होंने।


रीता पाण्डेय की त्वरित टिप्पणी - लोगों में जब यह प्रतिभा होती है, तब रोजी-रोटी की चिंता इंजीनियरिंग पढ़वाती है। जब रोजी-रोटी का इंतजाम हो जाता है, तब यह प्रतिभा शुष्क हो चुकी होती है!

Saturday, November 22, 2008

नहीं बेचनी।



pebbles_and_flowers“इनकी रचना को नए ब्लॉग पर डाल दो . दो धेले में नहीं बिकेगी . आज ज्ञानदत्त नाम बिक रहा है”

मुझे दो धेले में पोस्ट नहीं बेचनी। नाम भी नहीं बेचना अपना। और कौन कहता है कि पोस्ट/नाम बेचने बैठें हैं? 

Friday, November 21, 2008

अण्टशण्टात्मक बनाम सुबुक सुबुकवादी पोस्टें


Antshant हमें नजर आता है आलू-टमाटर-मूंगफली। जब पर्याप्त अण्टशण्टात्मक हो जाता है तो एक आध विक्तोर फ्रेंकल या पीटर ड्रकर ठेल देते रहे हैं। जिससे तीन में भी गिनती रहे और तेरह में भी। लिहाजा पाठक अपने टोज़ पर (on their toes) रहते हैं – कन्फ्यूजनात्मक मोड में कि यह अफसर लण्ठ है या इण्टेलेक्चुअल?! फुरसतिया वादी और लुक्की लेसते हैं कि यह मनई बड़ा घाघ टाइप है।

जब कुछ नार्मल-नार्मल सा होने लगता है तब जोनाथन लिविंग्स्टन बकरी आ जाती है या विशुद्ध भूतकाल की चीज सोंइस। निश्चय ही कई पाठक भिन्ना जाते हैं। बेनामी कमेण्ट मना कर रखा है; सो एक दन्न से ब्लॉगर आई-डी बना कर हमें आस्था चैनल चलाने को प्रेरित करते हैं – सब मिथ्या है। यह ब्लॉगिंग तो सुपर मिथ्या है। वैसे भी पण्डित ज्ञानदत्त तुम्हारी ट्यूब खाली हो गयी है। ब्लॉग करो बन्द। घर जाओ। कुछ काम का काम करो। फुल-स्टॉप।

Sadहम तो ठेलमठेल ब्लॉगर हैं मित्र; पर बड़े ध्यान से देख रहे हैं; एक चीज जो हिन्दी ब्लॉगजगत में सतत बिक रही है। वह है सुबुक सुबुकवादी साहित्त (साहित्य)। गरीबी के सेण्टीमेण्ट पर ठेलो। अगली लाइन में भले मार्लबरो smokingसुलगा लो। अपनी अभिजात्यता बरकरार रखते हुये उच्च-मध्यवर्ग की उच्चता का कैजुअल जिक्र करो और चार्दोनी या बर्गण्डीDrunk– क्या पीते हो; ठसक से बता दो। पर काम करने वाली बाई के कैंसर से पीडित पति का विस्तृत विवरण दे कर पढ़ने वाले के आंसू Crying 8और टिप्पणियांenvelope जरूर झड़वालो! करुणा की गंगा-यमुना-सरस्वती बह रही हैं, पर ये गरीब हैं जो अभावग्रस्त और अभिशप्त ही बने रहना चाहते हैं। उनकी मर्जी!

ज्यादा दिमाग पर जोर न देने का मन हो तो गुलशन नन्दा और कुशवाहा कान्त की आत्मा का आवाहन कर लो! “झील के उस पार” छाप लेखन तो बहुत ही “माई डियर” पोस्टों की वेराइटी में आता है। मसाला ठेलो! सतत ठेलो। और ये गारण्टी है कि इस तरह की ट्यूब कभी खाली न होगी। हर पीढ़ी का हर बन्दा/बन्दी उम्र के एक पड़ाव पर झील के उस पार जाना चाहता है। कौन पंहुचायेगा?!

मन हो रहा है कि “भीगी पलकें” नाम से एक नई आई.ड़ी. से नया ब्लॉग बना लूं। और “देवदास” पेन नेम से नये स्टाइल से ठेलना प्रारम्भ करूं। वैसे इस मन की परमानेंसी पर ज्यादा यकीन न करें। मैं भी नहीं करता!

आलोक पुराणिक जी ने मेरी उम्र जबरी तिरपन से बढ़ा कर अठ्ठावन कर दी है। कहीं सरकारी रिकार्ड में हेर फेर न करवा रहे हों! बड़े रसूख वाले आदमी हैं।
पर किसी महिला की इस तरह उम्र बढ़ा कर देखें! smile_regular 
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ठाकुर विवेक सिंह लिखते हैं कि मेरी पोस्ट पर “आधी बातें समझ से परे होती हैं”। फिक्र न करें। लिखने के बाद हमारी भी समझ में कम आती हैं। बिल्कुल हमारे एक भूतपूर्व अधिकारी की तरह – जो अपनी हैण्डराइटिंग से खुद जूझते थे समझने को!

Thursday, November 20, 2008

जग्गू की गृहस्थी


एक गांव में एक जमींदार था। उसके कई नौकरों में जग्गू भी था। गांव से लगी बस्ती में, बाकी मजदूरों के साथ जग्गू भी अपने पांच लड़कों के साथ रहता था। जग्गू की पत्नी बहुत पहले गुजर गई थी। एक झोंपड़े में वह बच्चों को पाल रहा था। बच्चे बड़े होते गये और जमींदार के घर नौकरी में लगते गये।

सब मजदूरों को शाम को मजूरी मिलती। जग्गू और उसके लड़के चना और गुड़ लेते थे। चना भून कर गुड़ के साथ खा लेते थे।

बस्ती वालों ने जग्गू को बड़े लड़के की शादी कर देने की सलाह दी। उसकी शादी हो गई और कुछ दिन बाद गौना भी आ गया। उस दिन जग्गू की झोंपड़ी के सामने बड़ी बमचक मची। बहुत लोग इकठ्ठा हुये नई बहू देखने को। फिर धीरे धीरे भीड़ छंटी। आदमी काम पर चले गये। औरतें अपने अपने घर। जाते जाते एक बुढ़िया बहू से कहती गई – पास ही घर है। किसी चीज की जरूरत हो तो संकोच मत करना, आ जाना लेने।
रीता पाण्डेय
की लिखी पोस्ट। उनकी नानीजी की उनके बचपन में सुनाई कहानी है यह। और मैं यह दावे से कह सकता हूं कि इस कहानी ने रीता का व्यक्तित्व गढ़ने में काफी भूमिका निभाई है।
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आप रीता पाण्डेय सम्बन्धित पोस्टें रीता लेबल के लेखों के वर्गीकरण पर देख सकते हैं।

सबके जाने के बाद बहू ने घूंघट उठा कर अपनी ससुराल को देखा तो उसका कलेजा मुंह को आ गया। जर्जर सी झोंपड़ी, खूंटी पर टंगी कुछ पोटलियां और झोंपड़ी के बाहर बने छ चूल्हे (जग्गू और उसके सभी बच्चे अलग अलग चना भूनते थे)। बहू का मन हुआ कि उठे और सरपट अपने गांव भाग चले। पर अचानक उसे सोच कर धचका लगा – वहां कौन से नूर गड़े हैं। मां है नहीं। भाई भौजाई के राज में नौकरानी जैसी जिंदगी ही तो गुजारनी होगी। यह सोचते हुये वह पुक्का फाड़ रोने लगी। रोते रोते थक कर शान्त हुई। मन में कुछ सोचा। पड़ोसन के घर जा कर पूछा – अम्मां एक झाड़ू मिलेगा? बुढ़िया अम्मा ने झाड़ू, गोबर और मिट्टी दी। साथ में अपनी पोती को भेज दिया।jaggoo jhonpadee

वापस आ कर बहू ने एक चूल्हा छोड़ बाकी फोड़ दिये। सफाई कर गोबर-मिट्टी से झोंपड़ी और दुआर लीपा। फिर उसने सभी पोटलियों के चने एक साथ किये और अम्मा के घर जा कर चना पीसा। अम्मा ने उसे साग और चटनी भी दी। वापस आ कर बहू ने चने के आटे की रोटियां बनाई और इन्तजार करने लगी।

जग्गू और उसके लड़के जब लौटे तो एक ही चूल्हा देख भड़क गये। चिल्लाने लगे कि इसने तो आते ही सत्यानास कर दिया। अपने आदमी का छोड़ बाकी सब का चूल्हा फोड़ दिया। झगड़े की आवाज सुन बहू झोंपड़ी से निकली। बोली – आप लोग हाथ मुंह धो कर बैठिये, मैं खाना निकालती हूं। सब अचकचा गये! हाथ मुंह धो कर बैठे। बहू ने पत्तल पर खाना परोसा – रोटी, साग, चटनी। मुद्दत बाद उन्हें ऐसा खाना मिला था। खा कर अपनी अपनी कथरी ले वे सोने चले गये।

सुबह काम पर जाते समय बहू ने उन्हें एक एक रोटी और गुड़ दिया। चलते समय जग्गू से उसने पूछा – बाबूजी, मालिक आप लोगों को चना और गुड़ ही देता है क्या? जग्गू ने बताया कि मिलता तो सभी अन्न है पर वे चना-गुड़ ही लेते हैं। आसान रहता है खाने में। बहू ने समझाया कि सब अलग अलग प्रकार का अनाज लिया करें। देवर ने बताया कि उसका काम लकड़ी चीरना है। बहू ने उसे घर के ईंधन के लिये भी कुछ लकड़ी लाने को कहा।

बहू सब की मजूरी के अनाज से एक एक मुठ्ठी अन्न अलग रखती। उससे बनिये की दुकान से बाकी जरूरत की चीजें लाती। जग्गू की गृहस्थी धड़ल्ले से चल पड़ी। एक दिन सभी भाइयों और बाप ने तालाब की मिट्टी से झोंपड़ी के आगे बाड़ बनाया। बहू के गुण गांव में चर्चित होने लगे।

जमींदार तक यह बात पंहुची। वह कभी कभी बस्ती में आया करता था। आज वह जग्गू के घर उसकी बहू को आशीर्वाद देने आया। बहू ने पैर छू प्रणाम किया तो जमींदार ने उसे एक हार दिया। हार माथे से लगा बहू ने कहा कि मालिक यह हमारे किस काम आयेगा। इससे अच्छा होता कि मालिक हमें चार लाठी जमीन दिये होते झोंपड़ी के दायें बायें, तो एक कोठरी बन जाती। बहू की चतुराई पर जमींदार हंस पड़ा। बोला – ठीक, जमीन तो जग्गू को मिलेगी ही। यह हार तो तुम्हारा हुआ।

यह कहानी मेरी नानी मुझे सुनाती थीं। फिर हमें सीख देती थीं – औरत चाहे घर को स्वर्ग बना दे, चाहे नर्क! मुझे लगता है कि देश, समाज, और आदमी को औरत ही गढ़ती है।

--- रीता पाण्डेय