पहला रियेक्शन यह होता है कि तुरत पाकिस्तान पर चढ़ाई कर देनी चाहिये। पर शायद हम आतंकी हमले के लिये भी तैयार नहीं हैं – आपदा प्रबन्धन के स्तर पर और जन भावनाओं के सही प्रबन्धन के स्तर पर भी। युद्ध तो बहुत बड़ा कमिटमेण्ट मांगता है। मंदी के इस दौर में देश एक फुल स्केल के युद्ध का खर्च और तनाव झेल सकता है? झेलने को चाहे झेल जाये, पर अगर शत्रु जितना बाहरी हो उतना भीतरी भी@ तो युद्ध का यूफोरिया बहुत सार्थक नहीं।
दिसम्बर २००१: |
पचास लाख रुपये के खर्च और कुछ फिदाईन के बल पर एक देश को अर्थिक रूप से लकवाग्रस्त कर देना और युद्ध में लिप्त कर देना – यह बहुत बड़ी उपलब्धि होगी लश्करे तैय्यबा (या जो भी कोई आउटफिट हो) की। अभी तक तो वे बहुत सफल होते प्रतीत हो रहे हैं। इस हमले से जो लाभ भारत को मिल सकता था – राष्ट्रीय एक जुटता के रूप में, वह भी केवल आंशिक रूप से मिलता नजर आता है। वह लाभ दिलाने के लिये एक करिश्माई नेतृत्व की जरूरत होती है। ऐसे समय में ही करिश्माई नेतृत्व प्रस्फुटित होता है। और राजनैतिक दलों के लिये स्वर्णिम अवसर है जनमत को अपनी ओर करने का।
आतंक से युद्ध एक बार की एक्सरसाइज नहीं है। यह सतत लड़ा जाने वाला युद्ध है। शायद लोग यह सोच रहे थे कि अफगानिस्तान और ईराक में जंग जीत कर अमेरिका चैन से बैठ पायेगा। पर वह चैन दीखता नहीं है। हां, अमेरिकी यह जरूर फख्र कर सकते हैं कि उन्होंने एक “बीफिटिंग(befitting – माकूल))” जवाब दिया। अन्यथा वे आत्मग्लानि से ग्रस्त हो गये होते। हमारा “बीफिटिंग” जवाब किस तरह का होगा, यह भारत को सोचना है। और परिवर्तन होने भी लगे हैं सरकार की सोच में।
कूटनीति के स्तर पर भी हमें लड़ना और जीतना है। मनोबल तो ऊंचा रखना ही है। मुझे आइंस्टीन का कहा याद आता है – हम किसी समस्या का हल उस समस्या के लेवल पर नहीं निकाल सकते, जिसपर वह अस्तित्व में है। हमें एक दूसरे स्तर पर हल ढूंढना होगा।
@ - और शायद अब; सिमी या उस प्रकार के संगठन के आतंक में लिप्त होने की बात चलने पर वोट बैंक के आधार की जाने वाली लीपापोती का उभरता फैशन खत्म हो। मुम्बई का आतंक बिना लोकल सपोर्ट के विदेशियों का अकेले के बूते पर किया कारनामा नहीं लगता। वैसे यह क्रैप (crap - मैला) बिकने लगा है कि यह शुद्ध बाहरी लोगों का किया धरा है।
पोस्ट लेखन के बाद का जोड़:
मेरे एक अभिन्न मित्र; जिनका पेशा जनता की नब्ज पहचानना है; ने बड़े पते की बात कही है कल मुझसे – अरे भाई साहब, कोई सुनामी नहीं आने वाली! जनता गुस्से में बहुत है, पर ये गुस्सा कोई सरकार विरोधी कैश करा ले, यह हालत नहीं है। वैसे भी मेमोरी बहुत शॉर्ट होती है। ये पैनल-फैनल के डिस्क्शन चार दिन में घिस लेंगे। फिर चलने लगेंगे लाफ्टर चैनल। ज्यादा दिन आतंक-फातंक की रोवा-राटी चलने वाली नहीं। अगले आतंकी हमले तक सब ठण्डा हो जायेगा। मातुश्री में आतंकवादी घुसे होते, तब कुछ दूसरी बात होती!
जनता की नब्ज पहचाननेवाले आपके अभिन्न मित्र ने सचमुच बहुत पते की बात कही है। वोटर छह लाख गांवों तक बिखरे हैं...छह हजार लोगों का ब्लॉगजगत ही भारत नहीं है। आम जनता को पहली बार कोई दर्द तो हुआ नहीं है। अस्पताल में किसी मजदूर की जख्मी बच्ची दवा के बगैर तडपकर मर जाती है। खेत में काम कर रहे किसान पर बिजली का तार गिर पडता है। सडक पार कर रहा आदमी तेजरफ्तार वाहन तले दब कर मर जाता है। ग्रामीण अंचल में ये रोजमर्रा के दर्द हैं। दर्द सहने की लोगों को आदत पड गयी है।
ReplyDeleteबहुत जबर्दस्त कहानी ! दुआएँ भी स्वार्थी हो सकती हैं !
ReplyDeleteघुघूती बासूती
हम इन घटनाओं के आदी हो चुके हैं....अब कुछ दिन यह हाय तौबा मचेगी, उसके बाद धीरे-धीरे सब एक सा हो जायगा, फिर वही प्रांतवाद, फिर वही घिसे पिटे लोग, फिर वही मुद्दे.....जबकि युध्द जो एकाग्रता चाहता है, वह एकाग्रता शायद अब नसीब में न हो....पुलिस बाहरी लोगों पर तब ध्यान देती जब उसे भीतरी लोगों से फुरसत मिले.....लेकिन यहां तो पहले ही राज ठाकरे और उसके चपडगंजू जैसे लोग हैं जो पुलिस को खामखां व्यस्त रखते हैं.....क्या युध्द ऐसे ही लडे जाते हैं।
ReplyDelete"पर अगर शत्रु जितना बाहरी हो उतना भीतरी भी@ तो युद्ध का यूफोरिया बहुत सार्थक नहीं।"
ReplyDeleteसहमत हूँ ,पर युवावस्था के भावातिरेक में बार बार अपने भतीजे को समझाता हूँ- "घबराओ मत, अब देश के दुश्मनों की खैर नहीं . वह पूछता भी नहीं, "कैसे"; मैं बताता भी नहीं,"कैसे"; मैं जानता भी नहीं, "कैसे".
एक युध्ध या ,ज्वलँत चेतना ?
ReplyDeleteया दोनोँ ?
भारत की जनता
क्या बार बार
ऐसे वार झेलेगी? :-(
दुख सहना
गरीबी का अभिशाप है पर,
आतँकवाद का प्रतिकार
तो होना ही चाहीये -
... जनता व सरकार दोनो अपने-अपने धुन मे रहते है, समस्या आती है चली जाती है कोई गम्भीर नही रहता, किसी को समाधान से लेना-देना नही है, सब एक थाली के चट्टे-बट्टे हैं, कौन गम्भीर होगा - कौन समाधान चाहेगा ?
ReplyDeletesab chalta hai kahakar muh fer lete hain ham to. narayan narayan
ReplyDeleteयही बौद्धिक भीरुता भारतीय शौर्य की सबसे बड़ी दुश्मन रही है -यह हमारे मनोबल को गिराती है .हम इसी तरह की मीमांसा में लगे रहेंगे और समय निकलता जायेगा .क्या हम ऐसे ही बकरियों की तरह मिमियाते रहेंगे ! सवा अरब लोगों की कोई मान मर्यादा नही है ? देश की संप्रभुता गयी भाड़ में? ज़रा पाकिस्तान की भी खोज ख़बर लीजिये वहाँ युद्ध की तैयारियां शुरू भी हो चुकी हैं जिसे प्रत्यक्षतः युद्ध से बचाव की तैयारियां कहा जा रहा है -बहुत होगा हम थोडा और गरीब हो लेंगे -कुछ हजार नाभकीय प्रहार में मर भी जायेंगे -जापान में नाभकीय युद्ध के बाद भी क्या स्थिति है हम देख रहे हैं .पर ये रोज रोज की जलालत से तो निजात पा लेंगे .जो लोग यह समझ रहे हैं की भारत की सैन्य स्थिति ठीक नही है -वे गलती कर रहे हैं -हम इतने गए गुजरे नही हैं और युद्ध मनोबल से लड़ा जाता है -भारतीय सेना के किसी भी जाबाज से पूंछ कर देखिये उसे बस सरकार के इजाजत की दरकार है -हमारी तरह ही लोग सरकार में हैं जो परस्पर विरोधी बाते कर किसी मुहिम की हवा निकाल देते हैं -आज समय है सारा भारत केवल एक स्वर में बोले -आतंकवादियों पर हमला वे चाहे जहाँ भी हो -यह
ReplyDeleteयुद्ध भावनाओं के उबाल से नहीं लड़े जाते। मुहल्ले में झगड़ा हो तो ये युद्ध के आकांक्षी सब से पहले घरों में घुसते हैं। एक लम्बी योजना ही आतंकवाद से मुकाबला कर सकती है। यह सोच समझ कर कदम उठाने का समय है और सुधि राजनेताओं के लिए जनता को शिक्षित करने का अवसर, यदि वे ऐसा कर सकें।
ReplyDeleteपोस्ट लेखन के बाद का जोड़: में आपके अभिन्न मित्र ने शाश्वत सत्य कहा है .. उनके कहने की हिम्मत है सो कह गए आपकी हमारी नही है सो दबे छुपे कहते हैं !
ReplyDeleteआप युद्ध के लिए तैयार हो ना हो ! कोई आप के करने ना करने से युद्ध नही होगा पर पाकिस्तान युद्ध के लिए कमर कस कर तैयार है ! आपने जरदारी साहब का आज के अखबारों में वकतव्य पढ़ ही लिया होगा ! शायद इन्ही धमकियों के लिए पाकिस्तान ने चोरी छुपे परमाणु हथियार जुटाए होंगे ! सीधी परमाणु संपन्न देश होने की धमकी ? दो परमाणु संपन्न देश के बीच टकराव ठीक नही होगा ! ठीक है भाई जरदारी साहब आप हमारे मटके हमारे घर आके फोड़ते रहो ! रामदयाल कुम्हार आपका क्या कर लेगा ? आप तो परमाणु संपन्न हो !
बड़े बुजुर्गो ने सही कहा है की एक मुर्ख पड़ोसी आपका जीवन नर्क बना सकता है ! यहाँ तो कतार लगी है चारो तरफ़ ! और अब तो समुद्री रास्ते से आतंक का आना श्रीलंका को भी शक के घेरे में ले आया है !
उनके कबाईली नेता और अफगानिस्तान सीमा के आतंकी भी अब आतंक विराम करके फोजो को पूर्वी सेना ( भारत सीमा ) पर जाने की इजाजत दे रहे हैं और युद्ध की सूरत में पाकिस्तान की पुरी मदद करने का वचन करार भी !
आपदा को अवसर में बदला जा सकता है । आपके मित्र ने ठीक ही कहा है । स्थिति सामान्य होते ही हम फिर से 'वैसे ही' हो जाएंगे । हम केवल आपात स्थितियों में राष्ट्वादी होते हैं जबकि किसी भी कौम के राष्ट्ीय चरित्र की परीक्षा तो सदैव ही शान्तिकाल में ही होती है ।
ReplyDelete"३-४ दिन यही सब चलेगा फिर भूल जायेंगे"
ReplyDelete"किसे वोट दें, चोर चोर मौसेरे भाई"
"ये राजनीतिज्ञ तो ऐसे ही होते हैं, बस अपना मतलब देखते हैं"
"इनमें ये कमी है, उनमें वो कमी है| ना ये कुछ करते हैं ना वो"
ये सभी वाक्य हम सबने सुने है और कहे भी हैं| क्या सब राजनीतिज्ञों के ही ऊपर निर्भर है? हम क्या कर रहे हैं? क्या हमारा कर्तव्य वोट दे कर समाप्त हो जाता है? हमें अपने को भी तो कटघरे में खड़ा करना चाहिए! आंतंकवाद के विरुद्ध हमने क्या किया है? यदि युद्ध होता है तो हम व्यक्तिगत स्तर पे क्या करेंगे? अगर राजनीति में भ्रष्ट और निकम्मे लोग भरे हैं तो क्या हम राजनीति में घुस कर उसे ठीक करेंगे? घुसे भी, तो क्या उस काजल की कोठरी में हम स्वच्छ रह पाएंगे? वह भी नही, तो क्या हम अराजनैतिक स्तर पर कुछ करेंगे?
प्रश्नों की वाकई कोई कमी नही है, कमी है तो उत्तरों की| हम उतने ही लाचार हैं जितना लाचार हम अपने आप को समझते हैं| देखें तो करने को बहुत सी चीज़ें हैं, हम में ही न इतना धैर्य है और न ही ऐसी निष्ठां की कार्य कर पाएं| राजनीतिज्ञ तो इस समाज का प्रतिबिम्ब मात्र हैं|
बात आपके ही मित्र ही सही हैं।
ReplyDeleteहम बुनियादी तौर पर बेहद लापरवाह, चिरकुट और बहुत जल्दी भूल जाने वाले लोग हैं।
सिर्फ तीस दिन रुकिये. न्यू ईयर के आसपास ये ही सारे चैनल आपको लाफ्टर शो, नंगू शो, नंगू डांस दिखा रहे होंगे, और हम सब मिलकर टीआरपी बढ़ा रहे होंगे। मुंबई को भूलने के लिए एक महीना भौत ज्यादा है।
"संप्रभु देशों को अधिकार है कि वे अपनी रक्षा कर सकें. इससे आगे मैं दक्षिण एशिया में पैदा हुई स्थिति पर फ़िलहाल कुछ नहीं कहना चाहता."
ReplyDelete------बराक ओबामा
लेकिन इस संप्रभु देश की तैयारी क्या है? जिस देश का नेत्रित्व ही संप्रभु ना हो वो क्या कर सकेगा. जिस देश का नेतृत्व हर आतंकवादी घटना के बाद आंकड़े गिनवाते हुए (इन आंकडो में भी घपला ही है फ़िर भी.........) ये कहने में ही व्यस्त रहा हो की पिछली सरकार के समय इतने लोग मरे हमारी सरकार में तो अभी कम लोग ही मरे, उससे यही आशा की जा सकती है जब मरने वालो की संख्या में
(पिछली सरकार की) बराबरी कर लेंगे तब कुछ करने की सोचेंगे.
पुनश्च अगर देश का नेतृत्व सारे सबूतों को ही जुटा ले तो बड़ी महती कृपा होगी. इस देश का नेतृत्व एक केन्द्रीय दल बनाने के नाम पर नौटंकी करेगा, (नौटंकी इसलिए की मन्नू ने ये सिगुफा शायद दिल्ली ब्लास्ट के समय ही छोड़ा था तो राष्ट्रिय सहमती बनने के नाम पर कमसे कम १० साल तो बीत ही जायेंगे) बीच बीच में नशे में डूबे उन्मादी की तरह से "मार देंगे पीट देंगे " का नारा लगायेगा और सो जाएगा.
ReplyDeleteअगर इसी प्रकार के हमले प्राय: होते रहे तो सैनिको की प्रेक्टिस अच्छी हो जायेगी।
ReplyDeleteयुद्ध तो बहुत बड़ा कमिटमेण्ट मांगता है।
ReplyDelete" सच कहा युद्ध कोई बच्चों का खेल नही है, और हमारा देश .......???????? "
अगर किसी परिजन को कैंसर हो जाय तो इलाज कराने के लिये तुरंत ही तैयार हो जाते हैं चाहे माली हालत कितनी ही खराब क्यों न हो। इसी तरह देश रहेगा तो बाकी बातें भी चलती रहेंगी। क्या महज आर्थिक समस्या के चलते आतंकवाद के सामने घुटने टेक दिये जायं?
ReplyDeleteक्या कहु और क्या करू? आपके मित्र की तरह मैं भी यही सोच लू की कुछ नही होने वाला है. या फिर प्रयास करू की अब से ऐसा नही होगा की मैं भूल जाऊ..
ReplyDeleteप्रसून जोशी ने एक कविता लिखी है.. 'अबकी बार मैं अपने दर्द पे मलहम नही लगाऊँगा'
सब यही सोच ले तो बढ़िया रहेगा.. यदि आप मुझे भी अपना मित्र समझे तो नीचे एक और बॉक्स बनाकर लिख दे.. की सब कुछ बदल सकता है.. सिर्फ़ एक जज़्बा चाहिए.. उसे पैदा करिए.. हम ही कर सकते है
परिवर्तन होने भी लगे हैं सरकार की सोच में।
ReplyDeleteवास्तव में जनता की सोच में परिवर्तन आया, उसकी अनदेखी करना सरल नहीं.
युद्ध अब हथियारों से ही नहीं लड़े जाते. दुनिया बदल गई है. किसी देश को अलग थलग कर उसे आर्थिक रूप से कमजोर करना भी युद्ध का हिस्सा है. पाकिस्तान को अब उसी का डर सता रहा है. भारत भी अपनी परम्परा त्याग आक्रमक बने तो सबक सीखा सकता है.
देश भगवान भरोसे चल रहा है वही जाने क्या होना चाहिये क्या नही?
ReplyDeleteकुछ कानूनों को बदलिये, कुछ में संशोधन कीजिए। उन्हें कड़ाई से लागू कीजिए। कुछ नमूने तो फौरन पेश कीजिए...
ReplyDeleteफिर देखिये ...बदलाव दिखेगा तो मनोबल भी दिखेगा। बौद्धिक अपच मीडिया से हटकर कानूनी अमल में सिमट जाएगी। जिंदगी अपनी रफ्तार से चलती रहेगी।
देश के अंदर छुपे हुए शत्रुओं की पहचान करने की दिशा में सार्थक पहल प्राथमिकता के तौर पर होना चाहिए. क्या यह संभव है?
ReplyDeleteसंजय बैगानी की बात "युद्ध अब हथियारों से ही नहीं लड़े जाते. दुनिया बदल गई है. किसी देश को अलग थलग कर उसे आर्थिक रूप से कमजोर करना भी युद्ध का हिस्सा है. पाकिस्तान को अब उसी का डर सता रहा है. भारत भी अपनी परम्परा त्याग आक्रमक बने तो सबक सीखा सकता है.....अक्षर अक्षर सहमत ....
ReplyDeleteरही बात युद्ध की तो .....आपके दोस्त के घर बम गिरने का इन्तजार करे ......तब शायद हालात बदले .....
बिलकुल पांडे जी, आपके दोस्त ने जनता की नब्ज़ की बहुत बारीक पहचान है. ठीक ही कहा है.
ReplyDeleteआलोक पुराणिक जी की बातों से पूरी तरह सहमत।
ReplyDeleteअरे भाई युद्ध की बात क्यों करते हो? युद्ध से कभी किसी का भला नहीं हुआ. आतंकवाद को अगर एक प्रकार का युद्ध मान लिया जाय तो भी इस युद्ध का जवाब सीमा पार से युद्ध नहीं हो सकता. आतंकवादी आपकी कमजोरियों से उत्साहित होते हैं, तभी तो मात्र १० आतंकवादी पूरे भारत राष्ट्र को चुनौती दे देते हैं. आतंकवाद का सामना करना है तो अपनी कमजोरियां अपनी ताकत में बदलनी होंगी. इस्तीफों से कुछ नहीं होने वाला. सबसे पहले अफज़ल को फांसी पर लटका दीजिये और घोषणा करिए कि हर आतंकवादी का अब इस देश में यही हश्र होगा.
ReplyDeleteअंतिम लडाई हो ही जाये..
ReplyDeleteजो लोग कहते हैं युद्ध एक विकल्प नहीं है, उनसे मेरा यह कहना है कि युद्ध एक बेहतर विकल्प नहीं है बशर्ते कि अन्य विकल्प मौजूद हों. लेकिन मुझे नहीं लगता कि अन्य विकल्प हैं. यदि शांति ही हर समस्या का जवाब होती तो कोई देश अपने यहाँ सेना न रखता. गुरु गोविंद सिंह जी ने कहा है,' देह शिवा वर मोहे कहे, शुभ कर्मन ते कबहुं न टरौ, न डरौं रण में जब जाए लड़ौं, निश्चय कर अपनी जीत करौं '
ReplyDeleteयह सही है कि दूध के उबाल की तरह बैठ जाने वाले हैं ये उद्वेलन। क्योंकि आक्रमण केवल युद्धक नहीं है।
ReplyDeleteआक्रमण जो निरन्तर हमारी चेतना पर हुआ है, हो रहा है, जब तक उस पर विजय नहीं पाई जाएगी तब तक हम चार दिन की चाँदनी सरीखे इन देश भक्ति के उबालों के बैठजाने की दुराशा के प्रति अन्यमनस्क रहेंगे ही।
चिंता बस इसी बात की है, की अब सबको पता है की कुछ होने वाला नहीं है और सब कुछ १-२ हफ्ते में निपट जाएगा। लेकिन अब यही तो हम सबको ध्यान में रखना पड़ेगा की राजनीतिक नेत्रत्व को और अपोजीशन दोनों को लगाम लगा के रखना होगा।
ReplyDeleteवोट की कीमत पहचाननी पड़ेगी। Be Votebank. Be Heard.
युद्ध से क्या ये ख़त्म हो जायेगा? जो घर में बैठे हैं उनको किस मिसाइल से मारा जाय ! जरुरत है कुशल और दृढ़ नेतृत्व की.
ReplyDeleteसार्थक चर्चा ज्ञान जी,
ReplyDeleteआतंकियों का आधा मकसद तो हमारी मीडिया ने पूरा कर दिया, बाकि आधे को पूरा करने में हमारे राजनेता जोर-शोर से लगे हुए हैं. दुगना मकसद पूरा हो जाएगा अगर आज की तारीख में एक सीधा युद्ध छेड़ दिया जाए.
यह युद्ध अवश्यम्भावी है. लेकिन देश की गरिमा के लिए नही, बल्कि कांग्रेस की सरकार बचाने के लिए.
सबसे पहले अफज़ल को फांसी पर लटका दीजिये और घोषणा करिए कि हर आतंकवादी का अब इस देश में यही हश्र होगा.......FIR VOTE KOON DE GA
ReplyDeleteबिल्कुल यही लाइने मैने दो तीन दिन पहले किसी ब्लॉग पर टिप्पणी के रूप में लिखी थी कि बस दो दिन जाने दीजिये चैनल वाले फिर से लाफ्टर चैलेन्ज के क्लीपंग्स दिखाने लगेंगे और हम किसी सामान्य सी कविता पोस्ट पर वाह वाह करते और किसी सामान्य मजाकिया पोस्ट पर टिप्प्णीयों की लाईन लगाते दिखेंगे।
ReplyDeleteसच है हमारी याददाश्त बहुत ही कमजोर है।
गलत बातों का आदी ज़माना हो गया शायद
ReplyDeleteकिसी भी बात पर अब कोई हंगामा नहीं होता ।
"पहला रियेक्शन यह होता है कि तुरत पाकिस्तान पर चढ़ाई कर देनी चाहिये। पर शायद हम आतंकी हमले के लिये भी तैयार नहीं हैं – आपदा प्रबन्धन के स्तर पर और जन भावनाओं के सही प्रबन्धन के स्तर पर भी। युद्ध तो बहुत बड़ा कमिटमेण्ट मांगता है। मंदी के इस दौर में देश एक फुल स्केल के युद्ध का खर्च और तनाव झेल सकता है? झेलने को चाहे झेल जाये, पर अगर शत्रु जितना बाहरी हो उतना भीतरी भी@ तो युद्ध का यूफोरिया बहुत सार्थक नहीं।"
ReplyDeleteबिल्कुल सच!!!!!
भावनाओं में बहकर ऐसे फैसले नहीं किए जा सकते हैं????
युद्ध तो बहुत बड़ा कमिटमेण्ट मांगता है...सच है कि युध्ध के लिए हमें तन मन धन से पूर्ण मानसिकता बनाना पड़ती है और परमाणु युग में युध्ध कोई बच्चो का खेल नही है . आधुनिक युध्ध सम दाम दंड भेद की नीति से भी लड़े जा सकते है . युद्ध के दौरान देश को बाहरी और अंदुरनी दुश्मनों से भी निपटाना पड़ता है और साथ अपनी जन धन हानि न हो उनके सुरक्षा के बिन्दुओ पर गहन विचार विमर्श करना पड़ते है . आभार.
ReplyDeleteChaliye befitting reply dete hain, chaliye nahi bhoolte is baar. Chunav hareeb hain. sab neta, sab party ek jaisi. Ek ko gali do , sab ko lagati hai. Chahe Naqvi hon ya Achuthanandan. aaz-kal ek SMS ghoom raha hai...for awhile we can worry about those who come through BOATS..! but.. we MUST always worry about those who come thru VOTES..!! in netaon ko is baar vote maat diziye, tab Kisko vote deng? Hai koi vikalp?
ReplyDelete
ReplyDeleteआपसे असहमत रहना जैसे मेरी नियति बन गयी हो... या मेरा दुर्भाग्य ? पोस्ट की मूल आत्मा पाठक के मोरेल को हतोत्साहित करने वाली और हाँज्जि.. हाँ जी वाली टिप्पणियाँ रूलाने वाली हैं !
तैयारी हो या न हो...कांग्रेस के पास चुनाव जीतने के लिए इसके अलावा कोई और रास्ता है क्या? फिर कैसे न होगा युद्ध???
ReplyDeleteज्ञान जी ,
ReplyDeleteक्लैव्यम माँ स्म गमः पार्थ नैत्त्व्य्युपप्दय्ते
क्शुदार्म हृदय्दौर्ब्ल्यम त्य्क्त्वोत्तिष्ट परन्तप
आप तो श्रीमद्भागवत्गीता के अनुयायी है -यह असमय की दुर्बलता क्यों !
आतंकी यदि पाकिस्तानसे आ रहे हैं तो युद्ध क्यों न हो ? यदि अब युद्ध नही तो कब !
वैसे भी मेमोरी बहुत शॉर्ट होती है। ये पैनल-फैनल के डिस्क्शन चार दिन में घिस लेंगे। फिर चलने लगेंगे लाफ्टर चैनल। ज्यादा दिन आतंक-फातंक की रोवा-राटी चलने वाली नहीं।
ReplyDeleteचुभती हुई लेकिन सच्ची बात....
युद्ध किसी समस्या का अंत नहीं हम इस बेवकूफी न जाने कितनी माँओं के लाल खो देगें और नतीजा फ़िर भी ढाक के तीन पात ही रहेगा...
नीरज
यह तो समय बतायेगा कि क्या होगा.. मगर इतना तो पता है कि भारतीय राजनेता नामक नपुंसक जीव कभी हमला नहीं बोलने वाले हैं.. हां चुनाव के समय का पता नहीं..
ReplyDeleteअगर कोई दुसरा रास्ता नजर ना आये तो हो जाये...
ReplyDeleteबात तो आपके मित्र की सही है, जनता के पास वाकई शॉर्ट टर्म मेमोरी है। मीडिया की भी आज इस आग पर रोटी सिक रही है कल वापस वे अपने आज़माए हुए चूल्हे पर पहुँच जाएँगे जब यह अग्नि चुक जाएगी, आखिर लोग कब तक वही पुरानी बासी क्लिपिंग्स और बोरिंग पैनल चर्चाएँ देखेंगे??
ReplyDeleteऔर रही युद्ध की बात तो वाकई देश इसके लिए तैयार नहीं है। कहीं से प्रशासन इसके लिए तैयार दिखता है? और यदि तैयार हो भी तो क्या रीढ़हीन सरकार इसके लिए तैयार है? नाज़ुक कलियों की तरह वातानुकूलित कमरों में नर्म सोफ़ों में धंसे रहने वाले कमज़ोर लोग ऐसे फैसले नहीं ले सकते।
और फिर वैसे भी युद्ध करके क्या उखाड़ लेंगे? इतिहास गवाह है कि युद्ध जीतने के बाद भी भारत कब्ज़े में आए इलाके शराफ़त से छोड़ देता है चाहे दूसरा दल अपने कब्ज़े में आए भारतीय इलाके न छोड़े!! कुछ अधिक ही शराफ़त दिखाने की पुरानी बीमारी रही है भारत के प्रशासन तंत्र और नेताओं की!!
आलोक जी की से सहमत है कि पब्लिक की यादाश्त बहुत छोटी होती है। सोचा था कि ये क्षोभ सिर्फ़ तब तक है जब तक सारे फ़िदाइयन मारे नहीं जाते और ताज को सर्फ़ से धो नहीं दिया जाता। ये बात है पिछले शुक्रवार की। शुक्रवार की सुबह आखरी आंतकवादी मारा गया। हमने सोचा शाम तक मीडिया को कोई और खबर मिल जायेगी भुनाने के लिए। पर नहीं, शुक्रवार की शाम तो क्या, आज मंगलवार बीत गया लेकिन सभी चैनल अभी तक चौबिसों घंटे उसी घटना पर अटके हुए हैं। माना बड़ा हादसा था पर क्या कारगिल युद्ध के समय लगातार आते शहीदों के ताबूतों से बड़ा था? उस समय भी जनता में ऐसा ही रोष था, पर जैसे ही ताबूत दिखने बंद हुए जनता उन सब बातों को भूल कर अपने काम पर लग गयी। मीडिया ने भी आखिरी आये ताबूत के साथ कारगिल की खबर को ताबूत में बंद कर दिया था। फ़िर इस बार क्या बात हुई कि अब तक उसी खबर को खीचें जा रहे हैं। क्या इस लिए कि पहली बार अमीरों के घर रुदन सुनाई दिया है?
ReplyDeleteहम नीरज जी की बात से भी सहमत हैं , ये बुढ्ढे खूसट परम स्वार्थी नेता लोग अपने एअरकंडीशन्ड केबिनों में बैठ कर चुनाव पर नजर रखते हुए युद्ध की घोषणा कर सकते हैं पर बलि के बकरे बनेगे किसी और के लाल्। न हमारे नेताओं का न उन फ़िदाइयन के आकाओं का कोई बेटा इन सब में न भागीदार हुआ न होगा। मेरे हिसाब से दुनिया में कहीं भी युद्ध नहीं होना चाहिए…।:) पता है ये मुमकिन नहीं। मातूश्री पर हमला होता तो शायद उसका गुस्सा मुसलमानों को झेलना पड़ता।
ये मीडिया कवरेज भी बहुत कुत्ती चीज होती है। सवाल बार-बार उठता है कि जो हंगामा बरपा है वो क्या आम जगहों पर बम फटने या हमले होने पर बरपता है। बहुत खास लोगों पर हमले पर हंगामा होता है, आम को तो लोग वैसे ही खा जाते हैं, गुठली भी नहीं छोड़ते। केवल टीआरपी का खेल नहीं है, हाई प्रोफाइल मामला भी इसमें जुड़ा है।
ReplyDeletekitna bhi ubal rahen hon ham par sthiti sachmuch yahi hai.Aapke kathan se shat pratishat sahmat hun.
ReplyDeleteItane dino ke bad ye post padhee. Par such hee hai ki ander ke dushmano ko pehchane bina kaise bahar walon se ladenge. Jo log inkei madad karte hain we hee jab bhugatenge jaise pakistan me ho raha hai tab hee inke samaz men aayega.
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