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Thursday, December 11, 2008
भर्तृहरि का नीति शतक – दो पद
नीतिशतक मुझे मेरे एक मित्र ने दिया था। उनके पिताजी (श्री रविशकर) ने इसका अनुवाद अंग्रेजी में किया है, जिसे भारतीय विद्या भवन ने छापा है। मैं उस अनुवाद के दो पद हिन्दी अनुवाद में प्रस्तुत कर रहा हूं -
२: एक मूर्ख को सरलता से प्रसन्न किया जा सकता है। बुद्धिमान को प्रसन्न करना और भी आसान है। पर एक दम्भी को, जिसे थोड़ा ज्ञान है, ब्रह्मा भी प्रसन्न नहीं कर सकते।
४: कोई शायद रेत को मसल कर तेल निकाल सके; कोई मरीचिका से अपनी प्यास बुझा सके; अपनी यात्रा में शायद कोई खरगोश के सींग भी देख पाये; पर एक दम्भी मूर्ख को प्रसन्न कर पाना असंभव है।
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एक मूर्ख को सरलता से प्रसन्न किया जा सकता है। बुद्धिमान को प्रसन्न करना और भी आसान है। पर एक दम्भी को, जिसे थोड़ा ज्ञान है, ब्रह्मा भी प्रसन्न नहीं कर सकते।
ReplyDeleteसत्य है .........
भर्तृहरि की शतकत्रयी एक अनमोल ग्रंथ है। इस का एक एक श्लोक संस्कृत साहित्य का सितारा है।
ReplyDeleteयह तो झलक मात्र है. यह संख्या पांच होती तो..खैर .
ReplyDeleteपूरा ग्रंथ कितना सुन्दर होगा ?
दंभी का यू आर एल मिलता तो हम भी कोशिश करते भर्तृहरि जी को गलत साबित करने को!
ReplyDeleteजय हो!! प्रभु!!
ReplyDeleteज्ञान गंगा बहाये रहिये!!!
कल बी बी सी पर एक रीपोर्ट देखी कि उच्च वर्गीय शुल मेँ ब्रिटीश बच्चोँ को सँस्कृत सीखाई जा रही है - और आज भर्तृहरी के ये दो सिध्धाँत पढकर सोच रही हूँ, क्यूँ ना अँग्रेज़ी माध्यम स्कुलोँ मेँ भीहमारी विरासत के अमूल्य नगीने भावि पीढी को सीखलायेँ जायेँ ? आम जनता को स्कुल बोर्ड से अनुरोध करना लाज्मी हो गया है अब -
ReplyDeleteThe common Folks need to demand such things from those in authority.
To save the future generations ...is what i feel .
बहुत सुंदर! दीपक भारतदीप जी अक्सर अपने ब्लॉग पर भर्तृहरि के श्लोक विस्तृत व्याख्या के साथ रखते हैं. यदि आप चाहें तो कभी-कभी वहाँ देख सकते हैं: http://terahdeep.blogspot.com/
ReplyDeleteकोई आख़िर ऐसे दम्भी को प्रसन्न करे ही क्यों ?
ReplyDeleteभर्तृहरि शतकम् व विदुरनीति संस्कृत के ऐसे प्रचलित नीति शतक हैं कि भर्तृहरि को तो लगभग सभी भारतीय भाषाओं का साहित्य अपने यहाँ का प्रमाणित करता है, व अनेक लोक कथाएँ स्वयम् भर्तृहरि के साथ प्रवाद सी जुड़ी हुई हैं। कोई आधुनिक काल का भी विरला संस्कृत का विद्यार्थी नहीं मिलेगा जिसने इसे न्यूनाधिक्य पढ़ा न हो।
ReplyDeleteएक लंबे समय के बाद भरथरी (भर्तहरी) नीति शतक के बारे में पढ़ना बड़ा सुखकर लगा ! हमारी यह पुरातन पुस्तक निधियां, भारत की संस्कृतिक विरासत का प्रतिनिधित्व करती हैं , और आज भी उतनी ही सार्थक हैं ! एक एक पद बार बार पढने का मन करता है !
ReplyDeleteसंयोग से आपके मित्र श्री विश्वनाथ के पिता श्री रविशंकर जी से, नॉएडा में पड़ोसी होने के नाते, मैं भली भांति परिचित हूँ ! ऋषि स्वभाव, ७५ वर्षीय श्री रविशंकर ने भर्तहरी रचित श्रंगार शतक और वैराग्य शतक का भी इंग्लिश अनुवाद करके, भारतीय संस्कृति के इन मोतियों को, विश्व के समक्ष लाने का महान प्रयास किया है ! उक्त पुस्तकों का प्रकाशन भी भारतीय विद्या भवन ने ही किया है ! अफ़सोस है कि उक्त नीतिशतक की प्रतिलिपियाँ बाज़ार में अब उपलब्ध नही हैं !
इस खूबसूरत धरोहर की याद ताज़ा करने के लिए, आपका आभारी हूँ !
भर्तृहरि ने तीन शतकों की रचना की थी, श्रृंगार शतक, निती शतक और वैराज्ञ शतक ! अपने अपने क्षेत्र में इन तीनो से ऊपर आज तक कुछ भी नही लिखा गया ! जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आज भी जाने अनजाने इन्ही के अंतर्गत व्यवहारिक जीवन चल रहा है !
ReplyDeleteये तीनो शतक भर्तृहरि महाराज के जीवन का अनुभव था कोई पुस्तकों की या साहित्य की रचना नही थी !
महाराज भर्तृहरि के सदृश्य ना तो कोई प्रेमी हुआ, ना राजा हुआ और ना कोई योगी हुआ ! सक्षेप में ये उनके जीवन का निचोड़ है इसलिए हर जगह आज भी उपयुक्त है !
आज हमको इन अनुभवों की जरुरत है ! अच्छा किया आपने उनको याद किया !
रामराम !
हमारे एक मित्र का कहना है ,जिसका बैंड बजाना हो उसकी भरपुर प्रशंसा किजीये वो अपने-आप निपट जायेगा।
ReplyDeleteसत्य वचन।
ReplyDeleteभर्त्रिहरि के नीतिवचनों का नाम तो बहुत सुना था, पर उन्हें पढने का मौका पहली बार मिला है। शुक्रिया।
कोई शायद रेत को मसल कर तेल निकाल सके
ReplyDeleteएक वक्त था कि तेल का दाम १४० डालर प्रति बैरल था | तब कनाडा के आयल सैंड से तेल निकलता था | एक बड़ी सी मशीन रेत को खुरच के बड़े डब्बे में डालती जाती थी और फ़िर उसी से तेल निकलता था | अब ससुरा ४१ डालर प्रति बैरल के दिन देख रहे हैं, आयल सैंड वाले रो रहे हैं | यहाँ अमेरिका में ७२ रुपये में ३.७८ लीटर पेट्रोल | अब तो पास होने के नाम से भी डर लगता है की तेल कंपनी वाले कहाँ से नौकरी देंगे | अल्लाह खैर करे ... :-)
प्रशंसा सबको प्रिय होती है, दम्भी को केवल वही चाहिए शायद.
ReplyDeleteआज पोस्ट सार्थक रही.
हम तो ढूंढ रहे है सर जी....... कोई ऐसा इंसान जो अपनी प्रशंसा से खुश ना हो.........ना किसी का यू आर एल मिलता .ना असल जिंदगी में कोई मिलता ......मुर्ख हो या बुद्धिमान दोनों खुश हो जाते है.......
ReplyDeletesir
ReplyDeleteaapke blog par aakar kuch na kuch jaroor sikhta hoo. aapke nirdeshanushar maine mail me function ko apne blog me attach kar diya hai
सत्य वचन महाराज। दंभी ज्ञानी और मूर्ख में वैसे ज्यादा फर्क नहीं ना होता है। पर प्रसन्न करना ही काहे को, किसी को, खुदै ही प्रसन्न रहिये। दूसरों को प्रसन्न करने के चक्कर में लाइफ चौपट हो लेती है। कायदे से देखे, तो बंदा पूरी लाइफ अपनी बीबी को ही प्रसन्न नहीं ना कर पाता, औरों पे ट्राई ही क्यों करो। जिसे होना है, वो बिना कुछ किये प्रसन्न हो जायेगा, नहीं तो टाइम खोटी नहीं ना करना चाहिए। प्रसन्नता के मामले में बंदे को आत्मनिर्भर होना चाहिए। जमाये रहिये जी। दूर की खोज कर लाये हैं। ऐसे नीति शतक रोज लाइये।
ReplyDeleteपर एक दम्भी को, जिसे थोड़ा ज्ञान है, ब्रह्मा भी प्रसन्न नहीं कर सकते।
ReplyDelete"" सच कहा, दम्भी अपने थोड़े ज्ञान की वजह से ना यहाँ का ना वहां का.."
Regards
आपकी पोस्ट पढकर हम तो और भी आसानी से प्रसन्न हो जाते हैं :)
ReplyDeleteअक्षरशः सत्य और जीवनोपयोगी.
ReplyDeleteदंभी का ब्लॉग भी तो होगा ही... यदि उस पे उसके फेवर की टिप्पणी कर दी जाए तो प्रसन्न हो जाएगा.. परंतु फिर भी अरविंद जी का प्रश्न यथावत रहेगा..
ReplyDeleteकोई आख़िर ऐसे दम्भी को प्रसन्न करे ही क्यों ?
सत्य वचन !
ReplyDeletepapa ji post to masst hai. iss ko samajana ma roji masi bahoot madad kari. unaho na hi bataya ki link ka aak aak example to hamara ghar ma hi hai. aagar aap ko bhi nahi samaja ma aay to mammy sa puchyaga.
ReplyDeleteएक मूर्ख को सरलता से प्रसन्न किया जा सकता है। बुद्धिमान को प्रसन्न करना और भी आसान है। पर एक दम्भी को, जिसे थोड़ा ज्ञान है, ब्रह्मा भी प्रसन्न नहीं कर सकते।
ReplyDeleteसत्य!!!!!!
गुरुवर इसी तरह ग्यान देते रहिये!!!
वाह! :)
ReplyDeleteइसका हिन्दी संस्करण उपलब्ध है क्या? यदि हाँ तो कृपया टाईटल और प्रकाशक का नाम बताएँ।
और कृपया अंग्रेज़ी संस्करण का भी टाईटल बताएँ, मौका मिलते ही इसको खोजा जाएगा, संग्रहणीय किताब लग रही है! :)
लोग शंकालु,जिज्ञासु और शिष्य तीन ही प्रवृत्ति के होते हैं,ऎसा शास्त्रों नें कहा है।जिज्ञासा शान्त की जा सकती है,शान्त हुई जिज्ञासा वाले को शिष्य भी बनाया जा सकता है किन्तु शंकालु की शंकाएँ अनन्त होती हैं।शंकालु के पास प्रश्न ही प्रश्न होते हैं,इसलिए भी क्योंकि वह समझता है कि उसे सब ज्ञात है,इसीलिए प्रश्न की पृष्ठ्भूमि में उपहास या छिन्द्रान्वेषण अधिक होता है। वस्तुतः ऎसे व्यक्ति दांभिक अहमन्यता से ग्रसित हो स्वयं को प्रश्नचिन्ह बना ड़ालते हैं और उत्तर से रहित जीवन क्लेषयुक्त ही रहता है।भर्थहरि के माध्यम से खरी खरी की खरी खरी पर सांकेतिक किन्तु शिष्ट खरी खरी का अनुपम उदाहरण प्रतीत्यमान हो रहा है!!हिन्दी में भर्तहरि के तीनों शतक वाराणासी के चौखम्भा प्रकाशन नें प्रकाशित किये हैं और सहजता से उपलब्ध हैं।
ReplyDeleteसुंदर मंथन।
ReplyDeleteप्रशंसा किसे नहीं सुहाती ? ईश्वर भी प्रशंसा पसन्द करते हैं ।
ReplyDeleteपर एक दम्भी को, जिसे थोड़ा ज्ञान है, ब्रह्मा भी प्रसन्न नहीं कर सकते।
ReplyDeleteबिलकुल सत्य वचन, बहुत सुंदर.
धन्यवाद
सत्य वचन!
ReplyDeleteyah sangrah kahan milega?Internet par kahin uplabdh hai to kripya link deejiyega.
अरविन्द जी,
ReplyDeleteदम्भी को खुश करने की जरूरत पड़ सकती है, यदि वह आपका बॉस निकल जाय। या परीक्षक ही बन कर आ जाय। सरकारी महकमें में रहकर भी आपको किसी दम्भी से पाला न पड़ा हो और उसे खुश करने की जरूरत न पड़ी हो ऐसा मैं नहीं मानता। :)