मुम्बई हादसों ने सबके मन में उथल पुथल मचा रखी है। सब की भावनायें किसी न किसी प्रकार से अभिव्यक्त हो रही हैं। ज्ञान भी कुछ लिखते रहे (उनकी भाषा में कहें तो ठेलते रहे)। कुछ तीखा भी लिखते, पर उसे पब्लिश करने से अपने को रोकते रहे। उन्होंने मुझसे भी पूछा कि तुम्हारे मन में क्या चल रहा है? ईमानदारी से कहूं तो मेरे मन में निपट सन्नाटा था। अंतर्मन में कुछ घुमड़ रहा था, पर आकार नहीं ले पा रहा था।
श्रीमती रीता पाण्डेय की लिखी पोस्ट। आप उनके अन्य लेख "रीता" लेबल पर सर्च कर देख सकते हैं।
कई बार मुझे अपने सोचने के तरीके पर खुद को अजीब लगता है। जो मर गये, वे कैसे मरे, उन्हें किसने मारा, सुरक्षा नाकाम कैसे हुई – इस सब की चीर फाड़ होती है। पर दुर्घटना में जिनका एक पैर चला गया, हाथ चला गया, आंखें चली गयीं; उनके परिवार वाले उन्हें ले कर कैसे सामना कर रहे होंगे आगे की जिन्दगी का? मिलने वाले मुआवजे पर वकील और सरकारी अमला किस तरह गिद्ध की तरह टूट पड़ता होगा। कमीशन पर उनके केस लड़े जाते होंगे मुआवजा ट्रीब्यूनल में। और सहानुभूति की लहर खत्म होने पर डाक्टर लोग भी कन्नी काटने लगते हैं। इन सब बातों को भी उधेड़ा जाना चाहिये। मोमबत्ती जलाने वाले थोड़ा वहां भी झांक आते तो अच्छा होता।
मुझे याद आ रही है वह लड़की जिसके ट्रेन विस्फोट में दोनो पैर उड़ गये थे। उस समय हम बनारस में थे। रेल सुरक्षा आयुक्त के साथ ज्ञान भी अस्पताल गये थे घायलों को देखने और उनसे हाल पूछने। उस लड़की के बारे में लोगों ने बताया था कि उसके मां-बाप पहले ही गुजर चुके हैं। वह अपनी बहन के घर जा रही थी कि यह हादसा हो गया ट्रेन में। ज्ञान ने सुरक्षा आयुक्त महोदय से कहा था - “सर, अगर आप इस जांच के दौरान अस्पताल का दो चार बार दौरा और कर लेंगे तो डाक्टर थोड़ा और ध्यान देंगे इस लड़की पर।”
घर आ कर ज्ञान ने मुझे इस लड़की के बारे में बताया। मुझे लगा कि यह लड़की बेचारी तो दो पाटों में फंस गई। मुआवजे में कमीशन तो वकील और सरकारी अमला ले जायेगा। बचा पैसा बहनोई रख लेगा, बतौर गार्जियन। एक गरीब लड़की, जिसके मां-बाप न हों, दोनो पैर न हों, वह इस बेदर्द दुनियां में कैसे जियेगी? मैने ईश्वर से प्रार्थना की – भले जीवन अमूल्य हो, पर भगवान उसे अपने पास बुला लो।
पता नहीं उस लड़की का क्या हुआ।
जो बच जाते हैं ऐसे हादसों में वस्तुतः वह इन हादसों के जीवंत प्रमाण होते हैं, इनके साथ कम सहानुभूति नहीं होनी चाहिए . उनके शेष जीवन की कुछ तो व्यवस्था शासन को करनी ही चाहिए .
ReplyDeleteबेहद मार्मिक पोस्ट
ReplyDeleteगिध्धोँ से ईश्वर बचायेँ सभी को !
आपने नब्ज पर हाथ रखा है । ऐसे असुविधाजनक प्रश्नों का सामना कोई नहीं करना चाहता । 'होने' में और 'दिखने' में क्या अन्तर होता है और इस अन्तर का क्या प्रभाव होता है-यह आपकी पोस्ट बडी बेबाकी से बताती है ।
ReplyDeleteबात चूंकि सच है इसलिए कडवी भी है । हर कोई आपकी बात से बचना चाहेगा ।
आपको साधुवाद ।
कुछ समझ में नहीं आता क्या लिखें इस बात पर! वैसे वुधवार की पोस्ट का इंतजार रहता है।
ReplyDeleteत्रासद जीवन की यही विडम्बना है।
ReplyDeleteक्या कहूं मन वैसे ही अवसादग्रस्त ही है ? हाँ आपकी फोटो बहुत सुंदर है -बहुत ओज और गरिमा भरी ! क्या यह पहले भी दिखी ? शायद यह वह फोटो है जिससे ज्ञान जी ने रिश्ता कबूल किया होगा ! { प्रकाशनार्थ नही ,आपके/ज्ञान जी के विवेकाधीन }
ReplyDeleteसादर ,
रीता भाभी, आप ने मर्म पर उंगली रख दी। इस पर किसी के पास कहने को कुछ नहीं है। पर सोचने और करने को बहुत कुछ है। समाज में इस तरह विपदा के शिकार लोगों के लिए कुछ तो स्थान होना ही चाहिए।
ReplyDeleteरोज रोज हो रहे
ReplyDeleteहमलों ने
हमारी संवेदनाओं को भी
मार दिया है!!!
अब, हमले हमें विचलित
तो करते हैं
पर
क्षणिक!!
जड़प्राय संवेदना लिए
हम भी
अपंग ही हैं!!
कौन किसकी सुध ले
और
कैसे??
अतः मोमबत्ती जलाकर
अपने होने का
अहसास करा देते हैं, बस्स!!
शायद संबल मिलता हो!!
यह दुखद स्थिति है।
ReplyDeleteघायलों के विषय में बिल्कुल सोलह आने सही प्रश्न।
ReplyDelete"और सहानुभूति की लहर खत्म होने पर डाक्टर लोग भी कन्नी काटने लगते हैं। इन सब बातों को भी उधेड़ा जाना चाहिये। मोमबत्ती जलाने वाले थोड़ा वहां भी झांक आते तो अच्छा होता। "
ReplyDeleteअसली पीडा एक इंसान की यही है ! आप तो मोमबती जलाकर हट लिए एक तरफ़ ! बाद की पीडा बचने वाला ही जानता है ! और सही है मुआवजे की राशि अगर कभी मिल भी गयी तो ख़ुद के वकील और इन्स्युरेंस कम्पनी ( सामने वाला ) के वकील साहब के कमीशन की बलि चढ़ जायेगी !
अत्यन्त हृदयग्राही लेखन ! माननीया भाभी जी को इस रचना के लिए और लोगो के जमीर को जगाने के लिए कोटिश: धन्यवाद ! ( फोटो के विषय में अरविन्द मिश्रा जी की उक्ति से सहमत हूँ ! अपने ओज के कारण नयनाभिराम चित्र )
रामराम !
" बेहद संवेदनशील , माम्रिक और भावुक करने वाला जज्बा है आपका , एक दर्द दुःख फ़िक्र समेटे हुए उन लोगों के प्रति जो ऐसे हादसों का शिकार हुए हैं...बेहद दुखद "
ReplyDeleteविडम्बना
ReplyDeleteयह तो मरने से बदतर हो गई जिंदगी. और कुछ कहने को शब्द नहीं.
ReplyDeleteसही कहा भाभीजी आपने गरीबो का कोई नही होता,वही लड़की अगर किसी वीआईपी की लड़की होती तो सारा मीडीया टूट पड़ता उसका दर्द दिखाने मे।
ReplyDeleteरीता जी, बहुत ही संवेदनशील बात लिखी है आपने. करनी और कथनी में बहुत फर्क होता है. कल जब मैं घर जा रहा था तो रस्ते में कुछ लोग चौराहे पर मोमबत्तियां जला रहे थे, जिसकी वजह से जाम लग गया था.
ReplyDeleteआपकी चिंता जायज है। वैसे आजकल हमारे चारों ओर इतनी दुर्घटनाएं होती रहती हैं। हम जिन्हें देख लेते हैं, जाहिर सी बात है कि उनके प्रति मन द्रवित होना स्वाभाविक है। पर हम लोग सिवा संवेदना व्यक्त करने के या प्रार्थना करने के और कर भी क्या सकते हैं। ऐसे में मेरी समझ से उन लोगों पर, जो शोक प्रकट करने के लिए जमा हो रहे हैं, सवाल नहीं उठाए जाने चाहिए। यह उनकी व्यक्गित श्रद्धा है।
ReplyDeleteअनिल जी से सहमत हू लड़की अगर किसी वीआईपी की लड़की होती तो सारा मीडीया टूट पड़ता उसका दर्द दिखाने मे।
ReplyDeleteपता नही इन सब से उपर कैसे उठेंगे हम..
मोमबत्ती जलाने वाले तैयार होकर आते हैं. उन्हें मालूम रहता है कि टीवी कैमरा होगा, पत्रकार होंगे...वे उनसे सवाल पूछ लेंगे तो टीवी पर दिखना पक्का. कुछ तो सुबह से अंग्रेजी बोलने की प्रैक्टिस करके निकलने होंगे. अगर अंग्रेज़ी चैनल का पत्रकार अंग्रेजी में सवाल पूछ देगा तो क्या होगा?
ReplyDeleteटीवी न्यूज़ चैनल का कैमरा भी अस्पताल जाकर फटे-पुराने लोगों को क्या दिखायेगा? वहां से कोई न्यूज़ ब्रेकिंग का चांस नहीं है. हाँ, अगर शहीद हुए पुलिस वालों का कोई साथी बचा हुआ हो, तो अच्छा. या फिर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या फिर इनलोगों के ऊपर बैठने वाले लोग अस्पताल जाएँ तो पहुंचे भी.
यही सत्य है सचमुच हमारी मानसीकता भेडधसान वाली हो गयी है ऐसे मे अगर हमे ऐसा ही नेता ना मिले तो और क्या? आखिर वह भी हम मे से एक है ॥
ReplyDeleteमार्मिक व सवेंदना से भरी तार्किक पहल!!!!!
ReplyDeleteहम सोचते ही रहेंगे यही हनारी ताकत है ........, पर शायद कमजोरी भी!!!!!
और हाँ!
ReplyDeleteकृपया पिछली टिपण्णी में संबोधन जोड़ लें !!!
भाभी जी!!!
क्या कहें :(
ReplyDeleteऔर हाँ चुकी मैं ब्लॉग्गिंग की दुनिया का नया चूहा हूँ / मैंने http://halchal.gyandutt.com/search/label/%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BE के तहत सारे लेख पढ़े !!!
ReplyDeleteमेरे ख्याल से आप का काफी ब्लॉग ट्रैफिक तो पारिवारिक पोस्ट्स से ही आता है!!!!!
बधाई!!!!
बहुत मजेदार के साथ संवेदना का पुट भी था !!!
बेहद मार्मिक है ...इस तरह की घटनाएं दिल दहला देती हैं
ReplyDeleteइधर बेबसी का अहसास गहरा हुआ जाता है। क्या करें। क्या कर सकते हैं। ऊपर वाला कई बार बहुत निर्मम लगता है। या लगता है कि है भी कि नहीं।
ReplyDeleteपते की बात लिखी है आपने रीता दीदी पर क्या आपने घायलो के लिये कुछ किया क्या? या ज्ञान जीजाजी ने????? या कुछ करेंगे क्या??????
ReplyDeleteसंवेदना ओर मानवीय मूल्यों का अहसास कराती ये घटना ....आदरणीय रीता भाभी को प्रणाम
ReplyDeleteमार्मिक है..!बहुत ही संवेदनशील बात लिखी है आपने.
ReplyDeleteसचमुच मानवीय मूल्यों का अहसास कराती बेहद मार्मिक पोस्ट है।
ReplyDeleteमोमबत्ती जलाने वाले, किस का विरोध कर रहे हे?? क्या इन्होने कभी वोट डाली है?क्या इन्होने कभी किसी हादसेके शिकार आदमी का आंसू पुछा है?? ओर क्या इन की किमती मोम बत्ती उन दुखियो का दुख हर लेगी??
ReplyDeleteधन्यवाद आप ने रुके हुये जजबातो को थोडा बहने दिया.
हमारा आदरणीय श्री ज्ञानदत्त पाण्डेय जी से विनम्र निवेदन है कि भाभी जी का एक फोटू खिंचवा दें .ये जो कुछ लोग कह रहे हैं कि ओज दिखाई दे रहा है हमें तो कहीं नज़र आया नहीं, कई बार ढूँढ लिया . इसके अलावा हम इस लेख की तारीफ करने में असमर्थ हैं . क्या है कि शब्द नहीं हैं हमारे पास .
ReplyDeleteआपने जरूरी मुद्दा उठाया है..चूंकि यह असुविधाजनक है, इसलिए अमूमन लोग यह बात नहीं करते।
ReplyDeleteयदि हम उग्रवादी वारदात की बात छोड़ भी दें तो दुर्घटना व अपराध की वजह से हर रोज अपने यहां अनगिनत लोगों के जीवन का सहारा छिन जाता है, अनगिनत लोग अपंग हो जाते हैं, उनका दु:ख मुंबई हमलों के शिकार लोगों के दु:ख से कम नहीं होता। अक्सर देखा जाता है कि सरकार, प्रशासन, समाज या स्वयंसेवी संस्थाएं कोई भी उनकी मदद को आगे नहीं आता। जो सामर्थ्यवान हैं वे तो जीवन संघर्ष में पार पा जाते हैं, जो अक्षम हैं उनका क्या होता है कोई जानने तक का जहमत नहीं उठाता। ऐसा हर जगह, हर शहर, हर गांव में होता है, लेकिन उस समय लोगों की संवेदनाएं पता नहीं कहां चल जातीं। बस सबसे आसान काम है मोमबत्ती जला दो...कुछ लगेगा भी नहीं और खूब पब्लिसिटी भी मिल जाएगी।
आपको नमन ! एकदम सही कहा है आपने....
ReplyDeleteहम आप भले ऐसा सोचें पर मिडिया या तंत्र को इन सब में लिप्त होकर कोई फायदा नही दीखता.वैसे भी न ही इन्हे इन बातों में अभिरुचि है और न ही इस के लिए समय .जब बड़ी और सनसनीखेज खबरे बाज़ार में उपलब्ध हो तो इन सब में कोई समय क्यों बरबाद करे.
बम्बईवाले सिर्फ़ मोमबत्तियां ही नहीं जला रहे और भी बहुत कुछ कर रहे हैं अपने जख्मों को सहलाने के लिए, लेकिन मीडीया अगर सिर्फ़ मोमबत्तियां ही दिखाये तो कोई क्या करे? 27 तारीख से ही लोगों की लंबी लाइन लग रही थी अस्तपतालों के बाहर खून देने के लिए। ब्लड बैंक में इतना खून जमा हो गया था कि लोगों को वापस लौटाया जा रहा था कि दस दिन बाद आना पूछने कि जरुरत है कि नहीं।
ReplyDeleteसब कुछ साफ स्पष्ट और मन की ही तो बात लिखी है। लिख कर भी टाल गया कि कहीं आक्रोश में कुछ अशोभनीय न कह जाँऊ।बार बार लग रहा था कि राइफल उठाँऊ और कमाण्डोज के साथ मिलकर युद्ध करू किन्तु बुद्धि नपुंषक बना देती है कई बार।घायल और मृतकों का सही खाका खींचा है आपनें।मेरे नगर कानपुर के एक सज्जन भी घायल हो के आए हैं गया था देखनें।ऎसे दोजखियों को पता नहीं कैसे लोग जेहादी बताते हैं धर्म का क्या इससे ज्यादा घिनौना रूप भी हो सकता है?
ReplyDeleteएकदम सही पोस्ट । घायलों के लिये और अपाहिजों को पुनर्स्थापित करने के लिये कोई फंड ब्लॉगर्स भी बना सकते हैं ।
ReplyDeleteसब कुछ साफ स्पष्ट और मन की ही तो बात लिखी है। लिख कर भी टाल गया कि कहीं आक्रोश में कुछ अशोभनीय न कह जाँऊ।बार बार लग रहा था कि राइफल उठाँऊ और कमाण्डोज के साथ मिलकर युद्ध करू किन्तु बुद्धि नपुंषक बना देती है कई बार।घायल और मृतकों का सही खाका खींचा है आपनें।मेरे नगर कानपुर के एक सज्जन भी घायल हो के आए हैं गया था देखनें।ऎसे दोजखियों को पता नहीं कैसे लोग जेहादी बताते हैं धर्म का क्या इससे ज्यादा घिनौना रूप भी हो सकता है?
ReplyDeleteहमारा आदरणीय श्री ज्ञानदत्त पाण्डेय जी से विनम्र निवेदन है कि भाभी जी का एक फोटू खिंचवा दें .ये जो कुछ लोग कह रहे हैं कि ओज दिखाई दे रहा है हमें तो कहीं नज़र आया नहीं, कई बार ढूँढ लिया . इसके अलावा हम इस लेख की तारीफ करने में असमर्थ हैं . क्या है कि शब्द नहीं हैं हमारे पास .
ReplyDelete"और सहानुभूति की लहर खत्म होने पर डाक्टर लोग भी कन्नी काटने लगते हैं। इन सब बातों को भी उधेड़ा जाना चाहिये। मोमबत्ती जलाने वाले थोड़ा वहां भी झांक आते तो अच्छा होता। "
ReplyDeleteअसली पीडा एक इंसान की यही है ! आप तो मोमबती जलाकर हट लिए एक तरफ़ ! बाद की पीडा बचने वाला ही जानता है ! और सही है मुआवजे की राशि अगर कभी मिल भी गयी तो ख़ुद के वकील और इन्स्युरेंस कम्पनी ( सामने वाला ) के वकील साहब के कमीशन की बलि चढ़ जायेगी !
अत्यन्त हृदयग्राही लेखन ! माननीया भाभी जी को इस रचना के लिए और लोगो के जमीर को जगाने के लिए कोटिश: धन्यवाद ! ( फोटो के विषय में अरविन्द मिश्रा जी की उक्ति से सहमत हूँ ! अपने ओज के कारण नयनाभिराम चित्र )
रामराम !
रोज रोज हो रहे
ReplyDeleteहमलों ने
हमारी संवेदनाओं को भी
मार दिया है!!!
अब, हमले हमें विचलित
तो करते हैं
पर
क्षणिक!!
जड़प्राय संवेदना लिए
हम भी
अपंग ही हैं!!
कौन किसकी सुध ले
और
कैसे??
अतः मोमबत्ती जलाकर
अपने होने का
अहसास करा देते हैं, बस्स!!
शायद संबल मिलता हो!!
आपने नब्ज पर हाथ रखा है । ऐसे असुविधाजनक प्रश्नों का सामना कोई नहीं करना चाहता । 'होने' में और 'दिखने' में क्या अन्तर होता है और इस अन्तर का क्या प्रभाव होता है-यह आपकी पोस्ट बडी बेबाकी से बताती है ।
ReplyDeleteबात चूंकि सच है इसलिए कडवी भी है । हर कोई आपकी बात से बचना चाहेगा ।
आपको साधुवाद ।