ब्लॉग पर साहित्य की चौधराहट के विरुद्ध मैने कई बार लिखा है। भाषा की क्लिष्टता और शब्दों की प्यूरिटी के लोगों के आग्रह को लेकर भी मुझे आपत्ति रही है। हिन्दी से अर्से से विलग रहा आदमी अगर हिन्दी-अंग्रेजी जोड़ तोड़ कर ब्लॉग पोस्ट बनाता है (जो मैने बहुत किया है – कर रहा हूं) तो मैं उसका समर्थन करता हूं। कमसे कम वह व्यक्ति हिन्दी को नेट पर ला तो रहा है।
पर उस दिन शिवकुमार मिश्र ने यह बताया कि "पटियाला पैग लगाकर मैं तो टल्ली हो गई" या "ऐ गनपत चल दारू ला” जैसी भाषा के गीत फिल्म में स्वीकार्य हो गये हैं तो मुझे बहुत विचित्र लगा। थाली की बजाय केले के पत्ते पर परोसा भोजन तो एक अलग प्रकार का सुकून देता है। पर कचरे के ढ़ेर से उठा कर खाना तो राक्षसी कृत्य लगता है। घोर तामसिक।
और ऐसा नहीं कि इस से पंजाबी लोग प्रसन्न हों। आप उस पोस्ट पर राज भाटिया जी की टिप्पणी देखें -
“मखना ना जा...ना जा......" आगे शायद ये कह देतीं कि... "पटियाला पैग लगाकर मैं तो टल्ली हो गई."साहित्यकारों की अभिजात्यता के सामने हिन्दी ब्लॉगर्स की च**टोली सटाने में एक खुरदरी गुदगुदी का अहसास होता है मुझे। पर इस प्रकार की “टल्ली” भाषा, जो फिल्म गीतों या संवाद का हिस्सा हो गयी है, मुझे तो स्केबीज का रोग लगती है। झड़ते हुये बाल और अनवरत होने वाली खुजली का रोग। क्या समाज रुग्ण होता चला जा रहा है?
मिश्र जी, पंजाबी भी तंग हो गये है इन गीतो से शब्द भी गलत लगाते है, ओर लोक गीतो का तो सत्यनाश कर दिया, जो गीत विवाह शादियों मै गाये जाते थे, उन्हे तोड मरोड़ कर इन फ़िल्म वालो ने तलाक के गीत बना दिया।
उस दिन “नया ज्ञानोदय” में साहित्यकार के बांके पन से चिढ़ कर मैने सोचा था कि इस पत्रिका पर अब पैसे बरबाद नहीं करूंगा। पर शिव की पोस्ट पढ़ने पर लगता है कि “नया ज्ञानोदय” तो फिर भी खरीद लूंगा, पर आज की फिल्म या फिल्म संगीत पर एक चवन्नी जाया नहीं करूंगा!
मेरी पत्नी जी कहती हैं कि मैं इन शब्दों/गीतों पर सन्दर्भ से हट कर लिख रहा हूं। "ऐ गनपत चल दारू ला” एक फंतासी है जवान लोगों की जो अमीरी का ख्वाब देखते हैं। और इस गायन (?) से फंतासी सजीव हो उठती है।
पर अमीरी की यह फन्तासी यह भी तो हो सकती है - “गनपत, मेरी किताबों की धूल झाड़ देना और मेरा लैपटॉप गाड़ी में रख देना”!
या फिर - "यदि होता किन्नर नरेश मैं राजमहल में रहता। सोने का सिंहासन होता, सिर पर मुकुट चमकता।" जैसी कविता जन्म लेती फंतासी में।
जी हाँ अब तो सिर्फ़ भाषा के कचरागत स्वरुप को ही बेचा जा रहा है |
ReplyDeleteकठिन विषय उठाया आपने, अब इस पर सोचकर टिप्पणी देंगे और संभवतः विस्तृत टिप्पणी देंगे | इंतज़ार करें !!!
ReplyDeleteइसके लिए पहले "ए गनपत चल दारू ला" यूं ट्यूब पे खोजते हैं |
मैं आपकी इस बात से सहमत हूं कि "यदि होता किन्नर नरेश मैं राजमहल में रहता। सोने का सिंहासन होता, सिर पर मुकुट चमकता।" जैसी कविता फंतासी में जन्म नहीं लेती।
ReplyDeleteपर भाषा का समाज से गहरा अन्तर्सम्बन्ध है . अब यदि "समाज बह चला कहां पता नहीं, पता नहीं" तो भाषा को संस्कारच्युत होने से कौन रोक सकता है ?
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"साहित्यकारों की अभिजात्यता के सामने हिन्दी ब्लॉगर्स की च**टोली सटाने में एक खुरदरी गुदगुदी का अहसास होता है मुझे"
इस वाक्यांश के दो शब्द मुझे अतिरिक्त लग रहे हैं -
पहला ’च**टोली’- ब्लोगर्स को यह कहने का अधिकार आप को नहीं-चाहे सन्दर्भ जो भी हो;
और दूसरा शब्द ’खुरदरी’- खुरदरी गुदगुदी क्यों ? और अभिजात्य साहित्यकार कैसा ?
आज के दौर भाषा का सरलीकरण आवाश्यक है, अक्सर मेरे साथ यह घटना घट जाती है कि पूर्णत: हिन्दीमय भाषा के कारण लोग मेरी आयु करीब 40-45 साल लगा लेते है, साथ ही साथ पूछ बैठते है कि किसी यूनीवर्सिटी के प्रोफेसर हो ? यह घटना हमेंशा इन्टरनेट पर घटित होती है। तब से मैने भी अपनी भाषा में थोड़ा विकृति लाने का फैसला लिया। मेरे पिछले आधा दर्जन लेखो में अब कुछ अग्रेजी शब्दों के प्रयोगों को देखा जा सकता है। मै इस बात से सहमत हूँ कि भाषा की सरलता आवाश्यक है किन्तु कहीं ऐसा न हो सरलता लाने में हमारी हिन्दी के शब्दकोश में से हिन्दी से शब्दों का हास न हो जाये।
ReplyDeleteक्षमा बड़न को... छोटन को उत्पात... जैसे कथन को ध्यान में रखकर टिप्पणी कर रहा हूँ कि यहाँ मेरा वैचारिक मतभेद है। आप ही की पोस्ट पर आयी टिप्पणी जैसा ही मेरा भी सोचना है। कुछ आगे बढ़ कर यहाँ भी देखा जा सकता है। कईयों का कथन रहा है कि हमने कोई ठेका ले रखा है भाषा की शुद्धता का? उनसे मेरा यही प्रश्न रहता है कि अशुद्धता का स्वयंभू ठेका कैसे ले लेते हैं?
ReplyDeleteऐसे ही उत्तरोत्तर स्थितियां बिगड़ती चले जाती हैं। यदि सुधार नहीं सकते तो बिगाड़िये तो नहीं।
... और यह पोस्ट बनाना क्या होता है? वह भी जोड़-तोड़ कर!
यहाँ भी एक नज़र।
मेरे ख्याल से इतना उत्पात बहुत है ! :-)
बोली और भाषा अलग अलग हैं। बोली हर दस कोस पर बदल जाती है। नगरों में बोलियों के अपने समूह हैं। जब हम भाषा में बोली का समावेश करते हैं तो यह समस्या आती है।
ReplyDeleteसमाज जब पतन की ओर अग्रसर है तो भाषा का पतन निश्चित होगा .
ReplyDeleteपूरी तरह सहमत !
ReplyDeleteश्री मान पाण्डेय जी, आपने अच्छा मुद्दा उठाया है, मेरा मानना है कि यदि इन्ट्रनेट पर हिन्दी भाषा का विस्तार करना है तो हमे हिन्दी को सरलीकृत करना ही होगा । लेकिन यदि हिन्दी का विकास करना है तो इसके लिये अन्य भाषाओ के शब्दो का प्रचलन इसमे से निकालना पडेगा । कुछ चिट्ठाकार विकास व विस्तार को एक ही नजरिये से देखते है,जब कि दोनो शब्द अलग है।
ReplyDeleteAAPKA DARD MITE YAHI KAMNA KARTA HU. NARAYAN NARAYAN
ReplyDeleteयह भाषा पंजाबी नहीं है, बंबइया है।
ReplyDeleteऔर बंबइया क्यों है? भई इसलिए कि फ़िल्में बंबई वाले बना रहे हैं। हाँ गुरुदत्त और शक़ील बदायूँनी भी थे, पर उन्होंने अपनी हिंदी - उर्दू कहीं और सीखी थी।
आपके माहौल में प्यूरिटी शब्द कचरात्मक नहीं है तो दारू शब्द उनके माहौल में कचरात्मक नहीं है।
बंबइया भाषा हिन्दी का एक अजीब "ओफ शूट" है
ReplyDelete" ऐय क्या बोलती तू ?
आती क्या खँडाला "
इसी की देन है
और कई अक्षर/शब्द जिन्हेँ
हिन्दी सिनेमा ने
"ग्लोबल फूटेज" दे रखा है -
आगे क्या होगा
वो तो राम ही जाने !!
- लावण्या
पाण्डेय जी, आपने अच्छा मुद्दा उठाया है!!!!
ReplyDeleteपूरी तरह सहमत !!!!!!!!!!!!!!!!!!!
पर समाज जब पतन की ओर अग्रसर है तो भाषा का पतन निश्चित!!!!
प्राइमरी का मास्टर का पीछा करें
अरे बाबा सोर नहीं शोर शोर . शो...र
ReplyDeleteएक दवा भेज रहा हूँ इससे शायद आराम मिले :)
"आओ सब मिलकर करें, हिन्दी का विस्तार
खुलकर सब भाषाओं, से ले लें शब्द उधार
ले लें शब्द उधार ,न फिर उनको लौटाएँ
डटकर करें विवाद, उन्हें अपना बतलाएँ
विवेक सिंह यों कहें,आइडिया नया नहीं है
किस भाषा में गैरों के अल्फाज़ नहीं हैं ?"
मुझे टिप्पणी में लिंक देना अभी नहीं आता . कृपया कोई ज्ञानी कृपा करें . यहाँ तो सो मैनी ज्ञानी आते हैं :)
शायद यहां भी वही भाषा की शुद्धता और अशुद्धता का सवाल खडा हो गया है ! हमारी भाषा या कहे जबान मे अंग्रेजी के शब्द भी ऐसे ही शामिल है जैसे उर्दू और फ़ारसी के इसमे शामिल हो गये हैं और उनको पहचानना बडा मुशकिल है !
ReplyDeleteसवाल शुद्ध्ता का है सो कितने लोग शुद्ध हिन्दी लिखते हैं या लिख सकते हैं ? अगर ब्लाग लेखन मे हिन्दी की शुद्धता का नियम हो तो ये शायद मेरा लास्ट कमेन्ट होगा और मैं ब्लाग जगत से बाहर ! क्योंकि शुद्ध हिन्दी लिखने के लिये मुझे एक पोस्ट पर ही बहुत सारा समय शब्दो की जोड तोड मे लगेगा !
अगर हिन्दि दुसरी भाषाओं के शब्दों के साथ ब्लाग मे लिखी जा रही है तो हो सकता है जैसे मुम्बईयां फ़िल्मो ने एक अलग प्रकार की "टल्ली" भाषा पुरे भारत मे फ़ैलाई है वैसे ही ब्लाग की भाषा भी एक दिन ऐसा रुप लेले तो किसी को आपती क्यों होनी चाहिये ? आज चाहे जिस तरह भी हो मुम्बईया फ़िल्मो ने हिन्दी को बढाया ही है वैसे ही ब्लागिय हिन्दी भी हिन्दी की सेवा ही करेगी !
और यह भी ध्यान रखा जाना चाहिये कि ब्लाग मे कोई सारे साहित्यकार नही हैं यहां अधि्कांशत: मेरे जैसे शौकिया लोग हैं जिनका भाषा और साहित्य से दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नही है! और ब्लाग जब पर्सनल डायरी है तो आप ये कैसे तय करेंगे कि समने वाला अपनी डायरी किस भाषा मे लिखे ?
आगे जैसी आप पंचों की राय हो !
राम राम !
" आपके विचारो से हम भी सहमत है , ये एक विचारणीय तथ्य है और गम्भीर भी , भाषा का पतन...... असहनीय ..
ReplyDeleteregards
मैं यदि उस बम्बईया भाषासमाज की ओर से कहूँ तो -जब आपको अपने परिचयक्षेत्र या भाषावर्ग के साथ अपने अन्दाज़ की भाषा का प्रयोग करने में बुरा नहीं लगता तो उन्हें भी उस भाषासंस्कृति व उस वर्ग को अभिव्यक्त करने वाली भाषा का प्रयोग कतई नहीं खलता। फिर पत्र पत्र पर भी तो निर्भर करता है न,कि कौन-सा पात्र किस शैली में बोलेगा।
ReplyDeleteआप स्तुत: भाषा व उसकी शैलियों को मिला रहे हैं और बोलचाल की विबिन्न शैलियों का उदाहरण दे रहे हैं। यदि एक व्यक्ति अपनी बोलचाल की शैली को अपने लेखन में स्थान देना उचित समझता है तो दूस्रा क्यों नहीं अपनी बोलचाल की शैली को लेखन में स्थान दिला सकता?
असल में भाषा के विविध स्तर होते हैं.ये स्तर प्रयोक्ता के आधार पर भिन्न भिन्न होते हैं व उसी प्रकार अनुप्रयोग(एप्लाईड) के आधार भी भिन्न भिना होते हैं> इसके अतिरिक्त प्रत्येक विधा क्की भी अपी एक भाषा होती है, जैसे सामन्यत: शब्द की श्तीन शक्तियों की बात अधिकांश स्कुच लोग जानते होंगे। अभिधा,लक्षणा व व्यंजना। समीक्षा की भाषा निश्चित रूप से तत्सम प्रधान ही होती है, होनी चाहिए क्योंकि यदि ऐसा नहीं हुआ तो पोएटिक्स की संकल्पनाओं के लिए आप शब्द बोलचाल की भाषा में कभी ढूँढ ही नहीं पाएँगे। क्योंकि यह बोलचाल की भाषा की सीमा है। और बोलचाल की भाषा सामान्यत: अभिधात्मक ही होती है, बहुत किया तो थोड़ी बहुत लक्षणा में आप-हम बोल सकते हैं। किन्तु व्यंजना का प्रयोग करने वाली प्रत्येक विधा में काम करने वाले को अपनी भाषा के विस्तृत अर्थस्तरों के लिए काव्यशास्त्रीय और समीक्षा की तत्सम प्रधान भाषा का ही प्रयोग करना पड़ेगा, अन्यथा वह अभीष्ट संकल्पना को सम्प्रेषित ही नहीं कर सकेगा।
इसी प्रकार से एक ही व्यक्ति की परिवार में प्रयोग होने वाली शैली व बोली-भाषा सब भिन्न होती हैण् व समाज में प्रो होने वाली भिन्न, फ़िर विश्वभाषा का भी अपना अलग क्षेत्र है।
कुल मिला कर कहें तो भाषा के प्रयोग के निर्धारक तत्व मूलत: तीन होते हैं -
प्रयोक्ता के आधार पर
अनुप्रयोग के आधार पर
क्षेत्र के आधार पर
अब इन तीनों में पुन: कई-कई विभाग हैं,स्तर हैं. इसके अतिरिक्त समाजभाषाविज्ञान (सोशियो लिंग्विस्टिक्स) और भाषाविज्ञान(लिंग्विस्टिक) परिधियाँ हैं। कब कहाँ कौन सा शब्द रूप बदलता है और कैसे- इसके बोलियों तक में नियम हैं।
भाषा का संसार इतना गहन व गम्भीर है कि इसीलिए इसे भाषा‘विज्ञान’ कहा गया है। इस पर विस्तार से ऐसे चर्चा करना सम्भव ही नहीं है.
केवल २ बिन्दु रखती हूँ-
भात के संविधान के अनुसार देश की भाषा हिन्दी है और उसमें सामासिकता के निर्वाह के लिए शब्दों की मिलावट करने का नियम यह है कि ७०प्रतिशत शब्द संस्कृत से लिए जाएँ व शेष ३० प्रतिशत अन्य भारतीय भाषाओं व बोलियों से।
शब्द ग्रहण की प्रवृत्ति पर अंकुश की भी बात है। जो अंग्रीजी व उर्दु के शब्दों की मिलावट को जायज ठहराते हैं वे भारत की सामसिक संस्कृति के तोड़कतत्व हैं (संविधानानुसार), क्यॊमि सभी दक्षिण व पूर्वी भारतीय भाषाओं में संस्कृत के शब्द बहुत अधिक मात्रा में हैं। उनका जितना अधिक प्रयोग होगा, उतना सांस्कृतिक व भाषायी एकता की पुष्टि होगी व तभी भारत की राजभाषा के रूप में हिन्दी में कामकाज को संवैधानिक रूप से लागू किया जा सकेगा, वरना हिन्दी अभी तक देश की राजभाषा होते हुए भी नियमानुसार ही लागू नहीं हो पाई है, व्यवहार व प्रयोग की बात तो जाने दें; क्योंकि एक नियम यह भी है कि जब तक हिन्दी वैसी सभी को स्वीकर्य नहीं होती तब तक अंग्रेजी को उसका स्थनापन्न माना जाएगा। जब हम अंग्रेजी मिश्रित भाषा बोलते ही नहीं लिखते भी हैं तो एक तरह से मातृद्रोही होते हैं (गान्धी जी के शब्दों में). इस देश में गत २० वर्ष से एक अनशन दिनरात चल रहा है, दिल्ली में दिनरात,छहों मौसम लोग वहाँ धरने पर रहते हैं, हम जैसे लोग दिल्ली जाया करते थे तो उस धरने में भी जाकर कुछ घंटे धरना देना अपना नैतिक दायित्व समझते थे,और ऐसे हजारों लोग उसंमें कुछ समय अपना धरने को देते।
दूसरी बात -
मेरे जैसा व्यक्ति जिसे अपनी ४ पीढियों से भाषा के लिए संघर्ष करने का संस्कार मिला है, अपना नैतिक दायित्व अनुभव करता है कि भाषा के शब्दों को मरने से बचाया जाए। बोलचाल की शब्दावली में प्रयोग होने वाली शब्दावली की संख्या कुछ सौ या हजार ही है। कितने शब्द भाषा के मर चुके हैं? शायद आप जानते हों।
कितनी ही भाषाएँ गत ५ वर्ष में मरी हैं, आप भी जानते होंगे।
लोगों की भाषा के स्तर के गिरने की चिन्ता करने वाले प्रत्येक का कर्तव्य है(असल में तो सभी का कर्तव्य है क्योंकि भाषा माँ है)इसे बेमौत मरने से बचाना, और यह केवल और केवल लोगों के बीच इसका प्रयोग करके ही हो सकता है।
अन्तिम बात-
पाठकीय चेतना के ह्रास को रोकने का दायित्व भी तो किसी को उठाना होगा न, वरना वे तो वैसी ही बाजारू भाषा ही प्के प्रयोग से काम चला लेंगे। कौन उठाएगा? मैं तो अपनी जिम्मेदारी भरसक उठाने की जिद्द में अड़ी रहती हूँ। जो साथ चलें वे साथी हो जाएँ।
वाचालता के लिए क्षमा करें।
ap panjabi hi ko udaharan ke tour par le ..ek had tak shuruaat wahin se to hai
ReplyDeleteभाषा एक बहती नदी है। कूड़ा भी आकर गिरता है, और फूल भी। समय सब साफ कर देता है कि बरसों पहले भी यही डिबेट थी। अब हम किसको पढ़ते हैं और किसे देखते हैं, यह सवाल अहम है। वैसे हर रंग के ढंग होने चाहिए। किसी एक मानक को बनाना खतरनाक है। हिंदी इत्ती बडी और वैराइटी की भाषा है कि कुछ पंडों के हाथ में इसकी पंडागिरी सिर्फ शुद्धता के नाम पर नहीं सौंपी जा सकती है।
ReplyDeleteइतनी लम्बी प्रतिक्रिया लेखने की बाद शक्ति नहीं थी कि प्रूफ़ देखूँ, बहुत-सी त्रुटियाँ रह गई हैं। पात्र का पत्र हो गया है, दूसरा का दूस्रा, वस्तुत: का व गायब है,भिन्न का भिना ( २ बार n की जगह २ बार a टाईप कर दिया),की के स्थान पर क्की, अपनी का अपी,तीन का श्तीन,स्कुच तो एकदम निरर्थक, हैं का हैण,प्रयोग का प्रो ही रह गया,इसी तरह अंग्रेजी का ए ई बना हुआ है आदि आदि। और भी होंगी ध्यान से देखूँ तो।
ReplyDeleteपूरा डिलीट करके लिखने की अपेक्षा, खेद व्यक्त करना सरल है। सो कष्ट के लिए खेद है
पांडे जी, फिल्मे तो पैसा कमाने का जरिए है. इन्हें भाषा शुद्धता और सभ्यता से कोई लेना देना नहीं है. आपके बाकी के लेक्चर से भी सहमत हूँ.
ReplyDeleteटेंशन नोट बापू...पहले हिन्दी में अरबी घुसेड़ कर उर्दू बनाई, फिर अंग्रेजी घूसेड़ कर हिंगलिश बनी अब जल्दी ही चीनी घूसेड़ कर चिन्दी बनेगी.
ReplyDeleteवैसे मेरा मानना है कोई भी भाषा तभी जिन्दा रहेगी जब हर जरूरत को पूरा करने वाली हो. अंत में नीराला की भाषा और टपोरी की भाषा में फर्क तो रहेगा ही. अपनी अपनी जरूरत है. फिल्मी गीतों में साहित्य को खोजना जरा अटपटा है.
अंग्रेजी भी कितनी तरह की है. एस एम एस की अंग्रेजी और ड्यूड की अंग्रेजी वास्तविक अंग्रेजी से कितनी अलग है.
ज्ञानदत्त जी, मेरे अपने विचार से स्थानीय चन्द शब्दों और अभिव्यक्तियों से सजा यह हिन्दी का एक नया और अनूठा कलेवर है जिसे सभी हिन्दी-भाषियों को न समझने में दिक्कत होनी चाहिए और ना ही अपनाने में। अंग्रेजी इसलिए विश्व की संपर्क भाषा बन सकी क्योंकि इसने कभी विदेशी शब्दों से आपत्ति या परहेज नही किया। कबीर ने भी भाषा को बहता जल ही कहा है। और हम सभी जानते हैं प्रवाह को जीवित रखने के लिए समिश्रण कितना जरूरी है। चिन्ता की कोई बात नही जो उपयोगी होगा वही साथ बहेगा और अनचाही कीचड़ व पत्थर स्वयं ही बैठते चले जाएंगे।
ReplyDeleteहम भाषा को समाज से अलग नही कर सकते और समाज मे चल रहे पतन के दौर से भाषा भी अछूती नही है। आपका कहना सही है अब भाषा मे आ रहे कचरे को रोकने की कोशिश भर की जा सकती है,ये एक कठिन दौर से गुज़र रही है भाषा।
ReplyDeleteआज की फिल्म या फिल्म संगीत पर एक चवन्नी जाया नहीं करूंगा!
ReplyDeleteप्रसून जोशी और जावेद अख्तर जैसे कुछ गीतकार अभी भी बाकी हैं जो पूरी तरह नाउम्मीद नहीं होने देते. लेकिन शैलेन्द्र, साहिर, मज़रूह जैसे दिग्गजों का जमाना तो फ़िर आने वाला नहीं.
और चवन्नी खर्चने की वैसे भी कोई आवश्यकता नहीं है. नेट पर नया-पुराना सब उपलब्ध है.
जहाँ तक भाषा के पतन का मामला है वो आप टी.वी में देख सकते है ,समाचार वाचको की भाषा भी ओर नीचे लिखी हेड लाइन में स्पेलिंग की गलतिया ....ओर नया ज्ञानोदय के बारे में ....यदि २० २५ रुपये में एक भी सार्थक लेख मिल जाता है तो बुरा नही है ....जैसे इस बार दिसम्बर अंक में धर्मवीर भरती की लम्बी कहानी "इस गली का आखिरी मकान "एक बैठक में पढने योग्य है........यदि लिखने वाला अपना बोद्दिक चातुर्य अपने लेख में ज्यादा डाल दे वो भी अपठनीय हो जाता है ...यानी की कहानी पर हावी हो जाता है....कहानी की आत्मा के लिए नुकसान देह है .
ReplyDeleteभाषा एक बहती हुई नदी है, जो हमेशा नीचे की ओर ही जाती है। यकीन न तो वैदिक से लेकर आज तक का इतिहास उठा कर देख लें।
ReplyDeleteकोई भी भाषा आंचलिकता के प्रभाव से बच नहीं सकती । किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि उसके मूल स्वरूप को ही नष्ट कर दिया जाए । इसलिए, भाषा की बेहतरी के लिए भी, समानान्तर रूप से काम निरन्तर रहना चाहिए ।
ReplyDeleteजब बच्चो को सिखाया ही यही जा रहा है. तो वो क्या बोलेंगे.. फ़िल्मे भी तो समाज का आईना ही होती है.. फिर हमारे फिल्मकार इतने रचनात्मक भी नही है की नये शब्द निकाले.. ये लोग भी वोही बोलते है.. जो जनता बोलती है..
ReplyDeleteव्यक्तिगत रूप से मुझे गलत भाषा व गलत वर्तनी से बहुत कष्ट होता है । परन्तु अपने आसपास का वातावरण ऐसा है कि जब तक भाषा की हत्या न की जाए लोग सुनने समझने को तैयार नहीं होते । यह भी सही है कि किसी भी भाषा को जीवन्त बनाने के लिए अन्य भाषाओं के उपयुक्त शब्दों को लेना आवश्यक है । भारतीय भाषाओं के शब्द तो लिए ही जाने चाहिए । इससे भाषा बेहतर भी होगी और अधिक लोग इसे अपनाएँगे । जब किसी अन्य भाषा का कोई शब्द लोग पहले से ही उपयोग कर रहे हों तो नए शब्द बनाने ढूँढने से भी कोई अधिक लाभ नहीं होता । कार, टी वी, पंगा आदि ऐसे ही शब्द हैं । हिन्दी के साथ समस्या यह भी है कि जिन लोगों से भाषा की शुद्धता की अपेक्षा की जाती है, याने पढ़े लिखे लोग, वे अंग्रेजी भाषी बन जाते हैं । फिर हिन्दी न आना या हिन्दी में ही फेल होना भी एक तरह का स्टेटस सिम्बल बन गया है ।
ReplyDeleteफिर भी हिन्दी का जितना विस्तार सिनेमा ने किया किसी अन्य ने नहीं किया। टी वी का भी सहयोग रहा है । हम लाख बढ़िया लिख लें यदि उसे कोई पढ़ेगा ही नहीं तो क्या लाभ ? परन्तु सिनेमा लिखित भाषा से अधिक आकर्षित करता है । चैन्नई के लोग भी चक्क दे इन्डिया कहेंगे परन्तु अन्य बातों में हिन्दी से परहेज करेंगे । सो हिन्दी सिनेमा की अपने विस्तार के लिए सदा ॠणी रहेगी ।
जैसे हम घर से बाहर जाते समय एक बार यह अवश्य देख लेते हें कि चेहरे पर कुछ लगा तो नहीं, बाल ठीक हैं, कपड़े व्यवस्थित हैं वैसे ही कुछ लिखने के बाद एक बार वर्तनी या स्पैलिंग्स देखने में भी कोई बुराई नहीं है । यदि हम लोगों के सामने संवर कर प्रस्तुत होते हैं तो हमारा लेखन क्यों नहीं ?
फिर भी लोग हिन्दी, देवनागिरी में लिख रहे हैं यही बात बहुत खुश करने वाली है । अतः सही या गलत के चक्कर में मैं नहीं पड़ना चाहती ।
वैसे उस दिन 'टल्ली हो गई' पढ़कर टिपियाने का मन था कि 'गीत सुनकर मैं झल्ली(पंजाबी का शब्द पगली के लिए) हो गई ।'
घुघूती बासूती
लोगों को कचरा पसंद है तो इसपर क्या किया जा सकता है. भाषा हो या कपड़ा !
ReplyDeleteखैर ये लाइनेबचपन में खूब रटी थी:
"यदि होता किन्नर नरेश मैं राजमहल में रहता। सोने का सिंहासन होता, सिर पर मुकुट चमकता।"
स्वाभाविक रूप से भाषा में परिवर्तन एक बात है और भाषा को भ्रष्ट करने का 'उद्योग' चलाना दूसरी बात । मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दी को योजनापर्वक भ्रष्ट करने का एक गुप्त उद्योग चल रहा है। जनसामान्य तो लकीर का फकीर होता है। (गतानुगतिको लोकः , न लोकः परमार्थिकः) वह परमार्थ (बेस्ट ऑप्सन) की तलाश करने का कष्ट नहीं उठाना चाहता। यद् यदाचरति श्रेष्ठ: तद् तदेव इत्तरो जनः स यद् प्रतमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ( जो-जो श्रेष्ठ पुरुष करता है, दूसरे लोग भी वैसा ही करते है। वह श्रेष्ठ जन जो प्रमाण करता है आम जन उसी के पीछे-पीछे चलते हैं। ) कोई गुप्त रहकर हिन्दी वालों को अपने पीछे-पीछे चला रहा है : भ्रष्ट-भाषा-प्रयोग का अनुवर्तन करा रहा है।
ReplyDeleteफ़िल्म देखना पूरी तरह बंद न करें बल्कि आप भी हमारी तरह अच्छी (और फ्लॉप) फिल्में देखें - उदाहरण के लिए बावर्ची, आनंद, त्रिकाल, कोंडुरा, एक रुका हुआ फैसला, मैंने गांधी को नहीं मारा, हजारों ख्वाहिशें ऐसी, और "ओह माय गोड" [लिस्ट बहुत लम्बी है - जगह कम है]
ReplyDeleteभाषा के बारे आलोक पुराणिक हमारी बात कह चुके।
ReplyDeleteहिंमांशु की टिप्पणी इत्तफ़ाक रखता हूं। जो कुछ आप लिखना चाहते हैं और नहीं लिख पाते अभिजात्य के चलते तो उसके लिये रवींन्द्र कालिया का उपन्यास खुदा सही सलामत है पढ़िये। उसमें हजरी बी के जरिये रवीन्द्र कालिया जी ने गाली-गलौज के सहज तरीके सुझाये हैं। आप लिखते रहें लेकिन अपनी बता रहे हैं कि मुझे ये सितारे ** जड़ी भाषा ज्यादा अश्लील लगती है। जो दो अक्षर यहां से बिछड़े होंगे उनके दिल पर क्या बीत रही होगी। बताइये।
मैं तो चला चाह * पीने। चाह * नहीं जानते ? तो कोई बात नहीं, तीसरी कसम देखिये, खुद समझ जायेंगे :)
ReplyDeleteफिलहाल तो गा रहा हूँ......ए गनपत..... चल चाह * ला :)
* चाह = चाय
इस लम्बी बहस में क्यों न हम अपनी भी टांग अडा दें? असल में भाषा अनेक स्तरों पर प्रयोग में आती है। जब हम कामवाली से बात करते हैं तो उसके स्तर पर और बच्चों से तो उनके स्तर पर जाकर बात करते हैं। उसी प्रकार जब साहित्य की बात करें तो स्तर को बनाए रखना हर रचनाकार का धर्म हो जाता है।
ReplyDeleteअब मेरे कहने के लिये तो कुछ बचा ही नही.... चलो आप सब से हम सहमत है.
ReplyDeleteधन्यवाद
मुझे छोटे समझ मे आने वाले शब्द अच्छे लगते है अनावश्यक विद्वता दिखानेके लिये लिखे गये मोते शब्दो से उकताई आती है !!लिखने के लिये जरुरी अगर किसी को विषय खोजना पडे तब समझीये कि सब नकली है इसके विपरित जब बातें दिल से निकले तो भाषा से पार और अधिक असरकारक होती है !! मुख्य चीज है लिखने कि उत्कंठा भाषा माध्यम है !!
ReplyDeleteबहुधा सिनेकार,लेखक,कवि,साहित्यकार,पत्रकारादि आलोचनाओं के प्रत्युत्तर में यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि वह वही दिखा या लिखपढ़ रहे हैं जो समाज में घटित हो रहा है।ऎसा उत्तर देनें वालों का क्या यह सामाजिक दायित्व नहीं बनता कि वे समाज को उन्नत बनानें में भी अपनीं भूमिका का यथोचित निर्वहन करें?सिनेकारों,साहित्यकारों,कवियों,लेखकों एवं पत्रकारों की एक लम्बी सूची है जिन्होंनें हिन्दी दर्शकों,श्रोताओं,पाठकों और भाषा-भाषियों को न केवल संस्कारित किया है वरन् आज हिन्दी भाषा में जो वैज्ञानिकता,अनुशासन एवं रससिक्त सौष्ठव बचा हुआ है वह उन्हीं की देन है।उन मनस्वियों की धरोहर को उन्नत न करें तो कम से कम अपनें कृत्यों से उसे धूमिल तो न करें।
ReplyDeleteनदी कितनीं ही पवित्र क्यों न हो गिरनें वाले नालों के प्रदूषण को एक सीमा तक ही शुद्ध कर सकती है।दुष्परिणामतः सरस्वती लुप्त होगयी,गंगा और यमुना अपनीं अजस्रता खो ड़बड़बायी आँखों से आपकी ओर ताक रही हैं,कि क्या सवा सौ करोड़ पुत्र पुत्रियों में एक भी ‘भगीरथ’ इस अभागी नें उत्पन्न नहीं किया?संस्कृत की जायी पच्चीस से अधिक भाषाओं और बीस हजार से अधिक बोलियों वाले इस परिवार का पोषण मृतप्राय माँ की लाचारी के चलते क्या बड़ी बहन की सी कुशलता से हिन्दी नहीं कर पा रही है?सौतन अंग्रेजी की मनुहार में जो लगे हैं उनकी तो छोड़ दें कितु जो हिन्दी का दिया खा-कमा रहे हैं वह सौन्दर्य प्रसाधन न जुटायें तो कम से कम उसे तन ढ़कनें के वस्त्र तो दे ही सकते है।अभिधा,लक्षणा,व्यंजना तो बाद की बात है कम से कम वर्तनी की शुद्धता,व्याकरण और वाक्य विन्यास तो ढंग से किया ही जा सकता है।
भाषा यदि बहती नदी की तरह नीचे की ओर जाती है तो इसलिए कि वह सागर की गहराई में मिलकर पुनः उर्जस्विता प्राप्त कर मेघ बन अपनीं सन्ततियों पर बरस उन्हें ऊर्जा से अन्वित कर सके और धरित्री को शस्य श्यामल बना सके।वह नीचे अपना कोई पापकर्म छुपानें नहीं कुपुत्रों के दूष्कृत्यों से दूषित अपनें तन मन और आभरण को शुद्ध और निर्मल करनें जाती है वैसे ही जैसे शिशु माँ की गोद मे जब मल मूत्र विसर्जित करता है तो शिशु को पुनः स्वच्छ करनें के साथ साथ माँ अपनें वस्त्र भी स्वच्छ करती है।उसकी इस बहिरंग स्वच्छता के संस्कार मनोमस्तिषक में प्रविष्ट हो अन्तश्चेतना के माध्यम से वाणी द्वारा जब प्रस्तुत होते हैं तभी हम सभ्य कहलाते हैं।
वैश्वीकरण और तदजन्य उन्न्त तकनीकी उपकरणों एवं संसाधनों के सम्प्रयोग के चलते हम भारतेतर भाषाओं और उनके उत्पाद के सम्पर्क में आते हैं किन्तु यह सब अन्ततः साधन ही हैं साध्य नहीं।क्योंकि अन्ततः मानवीय गुण और सरोकर ही सर्वोपरि रहेंगे।अतः कमप्यूटर को संगणक कहनें के स्थान पर कमप्यूटर ही कहना लिखना चाहिये।ऎसा न करके हम उन वैज्ञानिकों,अनुसंधित्सुओं और देशों तथा भविष्य में लिखे जानें वाले इतिहास के प्रति अन्याय कर रहे होंगे जो अंग्रेजी,फ्रेंच,जर्मन आदि बोलते हैं तथा जिन्होंने ऎसे आविष्कार किये हैं।निर्विवाद रूप से उन्हें ही यह श्रेय या अपयश मिलना चाहिये।यदि धर्म,दर्शन,संस्कृति,सभ्यता,भाषा और वैचारिक उद्दातता के लिए भारत का अतीत और किसी सीमा तक वर्तमान यश का भागी है तो वैसा ही श्रेय और श्लाघा हमें उनकों भी देनीं चाहिये जो वर्तमान के नियन्ता बन प्रकट हुए हैं।ऎसा करते समय हमें किसी हीन भावना से ग्रसित होंने के स्थान पर प्रतिस्पर्धात्मक होंना चाहिये जिससे हम स्वयं उन से अधिक श्रेष्ठ एवं उपयोगी उत्पाद और व्यवस्था बना सकें जो न केवल सर्वजनहिताय हो वरन् अधिक मानवीय भी हो।
बहुत कुछ कहा जा चुका है
ReplyDeleteबहुत हद तक मैं अलोक पुराणिक जी की बात का समर्थन करती हूँ .
कहते हैं फिल्में समाज का दर्पण होती हैं.बस वही बात है.
भाषा ,संस्कार.....कौन कहाँ अछूता रह जाता है?
ज्ञानजी,
ReplyDeleteअंग्रेज़ी में इसे कहते हैं "Stirring the hornet's nest"
क्या कभी सोचा था इस पर इतनी सारी और दमदार टिप्पणियाँ मिलेंगी?
टिप्प्णीयों की बाढ़ देखकर हमने सोचा थोड़ा रुक जाएं।
बडों को बोलने दीजिए। बीच में हम कुछ नहीं कहेंगे।
अब सब शांत हो गया है तो सोचा कि हम भी कुछ कहें?
शुद्ध हिन्दी की परिभाषा क्या है?
एक बार किसीने मुझसे कहा था कि इस देश में केवल दो ही भाषाएं हैं जो शुद्ध हो सकते हैं। एक संस्कृत और दूसरी तमिल।
अन्य सभी भारतीय भाषाएं शुद्ध हो ही नहीं सकती!
विशेषकर हिन्दी।
मैं श्रीमति कविता वाचकनवी से सहमत हूँ।
यदि हिन्दी के ७० प्रतिशत शब्द संस्कृत के हों और शेष संसार के सभी अन्य भाषाओं के हों तो मैं उसे शुद्ध और अच्छी हिन्दी मान लूंगा।
"हिंग्लिश" को मैं कोई भाषा नहीं समझूँगा। मनोरंजन के लिए ठीक है। बोल चाल में बर्दाश्त कर सकता हूँ लेकिन लिखते समय "हिंग्लिश" का प्रयोग यदि न करें तो अच्छा । या तो हिन्दी का प्रयोग करना चाहूँगा या अंग्रेज़ी लेकिन हिंग्लिश कभी नहीं।
"कार" "बस", "साइकल" "टीवी" "कंप्यूटर" इत्यादि को अपनाकर उन्हें हिन्दी शब्द मानने में ही समझदारी है। सरल और आम अरबी और फ़ारसी शब्दों का सीमित प्रयोग से मुझे कोई आपत्ति नहीं पर उन्हें ठोंसना मुझे अच्छा नहीं लगता।
जहाँ तक ब्लॉग जगत की भाषा का सवाल है, मैं भी यही मानता हूँ कि ब्लॉग साहित्य नहीं है और नहीं होनी चाहिए। एक व्यक्ति का निज़ी डायरी है जो वह अपनी मर्ज़ी से सार्वजनिक बनाना चाहता है। उसे पूरी छूट है भाषा चुनने की। यदि उसकी भाषा मुझे पसन्द न आए, तो मैं उसे नहीं पढूँगा।
दस्तावेज़ों में, किताबों में इत्यादि मैं संस्कृत के शब्द ज्यादा पसन्द करूँगा। अपने दोस्तों से और परिवार से बोलते समय जो स्वाभाविक लगता है उसका प्रयोग करूँगा और भाषा की शुद्धता की चिंता नहीं करूंगा।
इस विषय में तमिल का अनुकरण मुझे उपयुक्त लगता है।
बोलचाल की तमिल और लिखी हुई तमिल में बहुत अंतर है।
बोलचाल की तमिल हर जिले में अलग है लेकिन लिखी हुई तमिल शुद्ध और एक समान है।
एक अच्छी बहस छेड़ने के लिए धन्यवाद।
papa ji you are right. par sara gana yak samaan nahi hota search kareya aap ko aaj bhi ustarah ka good gaama mill gaya ga. one ded fish can spoile whole pond.
ReplyDeleteभाभी ने सही कहा है -- यह नवधनाढ्य लोगों की फंतासी है.
ReplyDeleteआपने पूछा कि किताब, लेपटाप आदि फंतासी में क्यों नहीं आते -- इसका कारण यह है कि जो लोग इन चीजों को गंभीरता से वापरते हैं उनको फंतासी की जरूरत नहीं पडती है !
सस्नेह -- शास्त्री
एक तो इतने विलंब से आया हूं इस पोस्ट को पढ़ने और जब टिप्पणी करने बैठा तो इतनी सारी बातें और पढ़ने को मिल गयी
ReplyDeleteहिंदी का पताका तो झुक ही नहीं सकता जब तूफान की लगाम इन सशक्त हाथों में हो