प्रिय भैया खरी खरी जी,
आशा है आप कुशल से होंगे। मैने अपनी पिछली पोस्ट पर आपकी टिप्पणी देखी थी:
पते की बात लिखी है आपने रीता दीदी पर क्या आपने घायलो के लिये कुछ किया क्या? या ज्ञान जीजाजी ने????? या कुछ करेंगे क्या??????आपका प्रश्न बड़ा स्वाभाविक है। कई लोग निस्वार्थ हो कर कुछ करने को समाज सेवा का भी नाम देते हैं। काफी मुश्किल है यह कार्य और अकेले में तो यह बहुत कठिन हो जाता है। ज्ञान की रेलवे की नौकरी ने मुझे बहुत कुछ सिखाया, बहुत अनुभव दिये और बहुत आत्म-संतुष्टि भी। रेलवे में “महिला समाज सेवा एवं कल्याण समिति” जैसी संस्था है। यह “चाय-समोसा” समिति नहीं है।
मैं नहीं चाहता था कि रीता पाण्डेय इस टिप्पणी पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करें। पर उन्होंने व्यक्त करने का मन बना लिया तो मेरे पास विकल्प नहीं है उसे न प्रस्तुत करने का। इस पोस्ट में कई बातें ऐसी हैं जो मुझे अवसाद ग्रस्त कर देती हैं। मैं उन्हे भूलना चाहता हूं। मेरी पत्नी मुझसे ज्यादा मजबूत इन्सान है। इस तथ्य को कुबूल करने में मुझे कोई झिझक नहीं है। |
रेल दुर्घटनायें तो रेल चलने से जुड़ी ही रहती हैं। किसी रेल दुर्घटना होने पर जब रेल कर्मचारी और अधिकारी साइट रेस्टोरेशन के लिये जूझ रहे होते हैं, तब महिला समिति पीड़ितों के लिये रक्तदान, भोजन का इन्तजाम और अन्य प्रकार से मदद का काम संभालती है। इसके अलावा मुझे याद है कि हम लोगों ने पैसा और सामान इकठ्ठा कर उड़ीसा के चक्रवात, पूर्वी तट पर आई सुनामी या कच्छ/भुज के भूकम्प के लिये सहायता भेजने का काम किया था। अनेक दिन हम सवेरे से देर शाम तक इस काम पर लग जाते थे। मेरे बच्चे कुछ बड़े हो गये थे, लिहाजा समय निकालने में इतनी परेशानी नहीं होती थी। भुज के भूकम्प के समय तो आस पास के मण्डलों से रेल महिलायें मौके पर जा कर खुद काम कर रही थीं। स्काउट-गाइड के बच्चे और किशोर हमारे इस बारे में विशेष सहायक होते हैं।
एक रेल दुर्घटना ने तो मेरे परिवार का जो नुक्सान किया है, वह शब्दों में समेटना मेरे लिये कठिन है। उस घटना का जिक्र मैं चिकित्सकों के व्यवहार की वजह से कर रही हूं। भुसावल में मेरा बेटा मौत से जूझता पड़ा था। सही निर्णय के अभाव में २२ घण्टे निकल गये। वहां इलाज की मूल सुविधायें नहीं थीं। तुरत सीटी-स्कैन (जिसकी सुविधा न थी) कर आगे का इलाज तय होना था। न्यूरो सर्जन वहां उपलब्ध न थे। पर अस्पताल वाले न कुछ कर रहे थे, न कोई वैकल्पिक योजना सोच पा रहे थे। हम उसे अपने रिस्क पर भुसावल से ले कर जळगांव पंहुचे – एक न्यूरोसर्जन के पास। वे न्यूरोसर्जन देवतुल्य थे हमारे लिये। ठीक इसी तरह इन्दौर के चोइथराम अस्पताल में जो डाक्टर मिले, वे भी देवतुल्य थे। उन्होंने मेरे बेटे के सिर का ऑपरेशन किया। हम उसके बाद मुम्बई के एक न्यूरोलॉजिस्ट से सलाह लेने गये – बंगलोर में निमहंस जाने के पहले। ये सज्जन अपने एक एक मिनट का पैसा लेते थे पर जबान से जहर उगल रहे थे। उन्होंने हमें झटक दिया और हमने उन्हें। आखिर वे मेरे भगवान तो न थे! मेरे भगवान से जो बात हुई थी, उसके अनुसार उन्होंने हमें दिलासा दी थी कि हमारे जद्दोजहद की सीमा हमारी हार जीत का फैसला करेगी। और मैं अपनी जीत मान कर चल रही थी।
--- बात बम धमाके की हुई थी। बनारस में स्टेशन की लॉबी में और संकटमोचन के परिसर में बम फटे थे। ज्ञान उस दिन घर पंहुचे ही थे कि टीवी पर यह समाचार आने लगा। ये तो उल्टे पैर भागे। सड़क सेफ न लगी तो रेल पटरी के किनारे-किनारे पैदल चलते स्टेशन पंहुचे। ट्रेन के सघन तलाशी, घायलों को अस्पताल भेजना, मृत शरीर और अंगों को मोर्चरी रवाना करना; यह सब काम निपटा कर जब ज्ञान घर वापस आये तो रात के दो-तीन बज चुके थे।
एक दिन बाद हम अस्पताल गये घायलों को देखने। बहुत दर्दनाक दृश्य था। अचानक एक परिचित चेहरा दिखा। वह हमारे वाणिज्य विभाग का कर्मचारी था। उसके दोनो बेटे संकटमोचन के धमाके में घायल हो गये थे। बड़े को तो डिस्चार्ज कर दिया गया था फर्स्ट एड के बाद। पर छोटे का पैर बुरी तरह घायल था। डाक्टर साहब ने हमें बताया कि अगर उसका पैर काट दिया जाये तो शायद जान बच जाये। पिता भाव शून्य आंखों से देख रहा था। मैं चाह कर भी उस पिता को यह सलाह न दे पाई कि वह पैर का ऑपरेशन कराने दे। चार दिन बाद उस बेटे की मृत्यु हो गई। बारूद का जहर पूरे शरीर में फैल गया था।
तो भैया खरी खरी, यह मेरा अपना भोगा यथार्थ है। जिन्दगी की जद्दोजहद से खुरदरी जमीन पर चलने की आदत पड़ गई है। खरी खरी सुनने पर कभी कभी मौन टूट जाता है।
कभी इलाहाबाद आयें तो मिलियेगा।
आपकी बहन,
रीता पाण्डेय।
यह पोस्ट पढने से छूट जाती तो भी आप दोनों के प्रति आदर उतना ही रहता. मगर इस पोस्ट को पढने से आपके बारे में बहुत सी नई जानकारी मिली - धन्यवाद!
ReplyDeleteखरी-खरी जी जैसे जागरूक लोगों की वजह से ही भारत का विकास हो रहा है. इनके ऊपर भारत में जागरूकता बढ़ाओ आन्दोलन का भार है. जैसे भैया का कहना है कि; "मुझे प्रश्न करने की आदत है, जवाब मिले या न मिले" वैसे ही खरी-खरी जी जैसे लोगों को प्रश्न करने की आदत है. ये अलग बात है कि उनका प्रश्न हटकर रहता है. ये बेचारे सबके ऊपर शंका करते हैं. शंका करने से जागरूकता बढ़ती है. शंका नहीं तो जागरूकता नहीं. चाहे शंका लघु हो या बड़ी, लेकिन शंका करना ज़रूरी है.
ReplyDeleteआपने तो इन्हें इलाहबाद में अपने घर आने का निमंत्रण दे डाला. लेकिन ये इलाहबाद जायेंगे तो भी चांस यही है कि वहां भी शंका ही लेकर जायेंगे कि जिनसे मिल रहा हूँ ये वही रीता पाण्डेय हैं जो पोस्ट लिखती हैं? लगता तो नहीं. इनसे मिलकर तो नहीं लगता कि ये घायलों को देखने कभी अस्पताल गई होंगी. जा भी सकती हैं. नहीं?
खरी खरी जैसे लोग ब्लागजगत का Occupational Hazard है, ये किसी न किसी रूप में मिलते ही रहेंगे | कभी कभी बिलो द बेल्ट प्रहार बहुत व्यथित करते हैं | इस पोस्ट के माध्यम से आपके बारे में अधिक जानने को मिला ये अच्छी बात रही | मेरे अपने जीवन के कुछ मूल मंत्रों में एक है कि जब तक ख़ुद के पास प्रमाण न हो किसी की नीयत पर शक करना ग़लत है | अधिकतर स्थितियों में ये बड़ा काम आता है |
ReplyDeleteपोस्ट पढ़कर बार बार भावुक हुआ जा रहा था.
ReplyDeleteमुझे नहीं लगता कि जबाब देना आवश्यक था किन्तु आपने दिया-यह आपकी ही सदाशयता कहलाई.
अक्सर मैने विचारों के दो स्कूल देखे हैं:
एक कहता है कि सामने वाला जब तक अपने आप को साबित न कर ले, उसे गलत ही मानो.
तो दूसरा कहता है कि सामने वाले को गलत मानने का जब तक कोई ठोस सबूत या वजह न हो, उसे सही मानो.
--मैं अधिकतर दूसरे स्कूल से आता हूँ.
भारत में ऑफिस में फोन करते थे बीमार हूँ, नहीं आ पाऊँगा-बॉस का पहली सोच होती थी कि फिर बहाना बनाया.
कनाडा में पाया कि जैसे ही फोन करो वो कहते हैं अपना ख्याल रखना. ऑफिस की चिन्ता मत करो, पहले तबियत देखो.
-ये वही दो स्कूलों वाली बात है.
मजबूती और कमजोरी दोनों हमारे ही अन्दर होती है। हम जिसे चाहें उसे ऊपर और नीचे ला सकते हैं। एक मजबूत व्यक्ति अविलंब निर्णय लेकर जीवन की रक्षा कर सकता है और दूसरा असमंजस में उस की हानि। अधिक हानि से बचने के लिए कम हानि को तुरंत स्वीकार करने की हिम्मत और आदत होनी चाहिए।
ReplyDeleteनीरज भाई के मूलमंत्र को मैं भी मानता हूँ।
ReplyDeleteआप दोनों के बारे में पहले भी पढा था, आज कुछ नई जानकारियां मिली।
सादर नमन!
ज्ञान भाई साहब व सौ. रीता भाभी जी आदर्श दँपति हैँ -
ReplyDeleteऔर उससे भी अच्छे माता पिता -
ये आज की पोस्ट से जाहीर हो गई बात है -
रीता भाभी जी आपने,
इन "खरी खरी " महाशय को
उत्तर दे दिया !
कभी हमेँ भी दो शब्द लिखियेगा
और बस ऐसे ही सदा रहीयेगा - आपके परिवार के लिये मेरी अनेकोँ शुभकामनाएँ दूर से ही भेजते हुए प्रसन्नता हो रही है -
स स्नेह सादर,
- लावण्या
अरे खरी खरी, अपनी गिरेबान में झाँक कर देख, तू कितना बड़ा सेवार्थी है. दूसरो को बात बनाने से पहले खुद को देख.
ReplyDeleteखरी खरी को खरी सुनाई.
ReplyDeleteपढ़ कर अच्छा लगा. पूर्वधारणाएं बनाना हमेशा गलत साबित होता रहा है. खरी खरी ने समझ लिया होगा.
यही हाल रहा तो मुझे अपने ब्लॉग शीर्षक से से "खरी खरी" हटाना पड़ेगा :)
इस तरह की बातो का जवाब नही दिया जाना चाहिए... खरी खरी कहने वालो में इतनी भी हिम्मत नही की अपनी पहचान के साथ आए.. इनमे और आतंकवादियो में कोई फ़र्क़ नही जो चोरी छुपे आते है और धमाके करके भाग जाते है.. मैं जनता हू ये हम में से ही कोई एक सज्जन है.. जो बेशर्मी से नाम छुपाकर लिख रहे है.. यदि इतना ही खरी खरी कहने का शौक है तो नाम से लिखो.. हम भी साथ होंगे.. पर गुमनामो के साथ हम नही..
ReplyDeleteऔर किसी को ये अधिकार नही की वो दूसरो से पूछे की उन्होने क्या किया.. ऐसे खरी खरी कहने वालो को सफाई देने में अपनी वक़्त नही खराब करना चाहिए.. जस्ट इग्नोर देम..
"बेहद जज्बाती और भावुक अनुभव , दुःख की घडियां जैसे जिवंत हो उठी..."
ReplyDeleteRegards
भाभीजी अच्छे काम मे बिल्लियां तो रास्ता काटती ही है। आपको तो ध्यान ही नही देना चाहिये इन छोटी-छोटी बातो पर्।जो जैसा रहता है उसे सब वैसे ही नज़र आते हैं।
ReplyDeleteआज पहली बार आप लोगो के बारे में इतना नजदीक से जानने का मौका मिला और इसके लिए मैं तो विशेष रूप से खरी खरी जी को धन्यवाद दूंगा की उनकी वजह से आपने हमारे साथ आपके मन की बातें साझा की !
ReplyDeleteकभी कभी इन खरी.. अखरी.. जैसे लोगो पर गुस्सा भी आता है और कभी लगता है की इन जैसे लोगो के कारण हमको अपना अतीत खंगालने में आ जाता है !
" इन्दौर के चोइथराम अस्पताल में जो डाक्टर मिले, वे भी देवतुल्य थे। उन्होंने मेरे बेटे के सिर का ऑपरेशन किया।"
ये डा. कठपाल/पुरानीक रहे होंगे और बोम्बे वाले डा...... इनका नाम नही लूंगा ! आपको शायद इन्होने कम बताये जो मिनटों के हिसाब से बताए वरना ये सैकिंड्स के हिसाब से चलते हैं ! पैसा ही माई बाप है इनका ! मानवीयता पूरी तरह खो चुके हैं ! मेरे परिचित भी इनको भुगत चुके हैं ! यहाँ अगर विषयांतर भी होता हो तो भी मैं इनका किस्सा सुनाना चाहूँगा !
घटना १९९१/९२ की है ! दोस्त का बेटा चोईथराम में एडमिट था , जीवन मृत्यु से संघर्षरत ! न्यूरो स्पेसलिस्ट की जरुरत लगी ! उसकी हालत ऎसी थी की बोम्बे शिफ्ट करना मुश्किल था !
मुम्बई इनसे संपर्क किया गया -- पच्चीस हजार फीस, आने जाने का हवाई टिकट और फाइव स्टार में रहने की बुकिंग.. .. चूंकी मेरा दोस्त सक्षम था ....सो सब मंजूर ...की दे देंगे ..बेटे से अच्छा क्या है ?
यहाँ तक भी ठीक था ! सारी बात चीत मैं ही कर रहा था ! दोस्त और उनके परिजन तो बस अश्रुधारा बहाने को छोड़ कुछ करने को तैयार नही थे ! पर क्या करे ? हर आदमी पाषाण ह्रदय तो नही होता !
मैंने डाक्टर साहब को कहा की डाक्टर साहब आप आजाइए ! आपकी सब बातें मंजूर हैं ! उन्होंने कहा मेरी सेकेरेटरी से बात कर लीजिये !
सेकेरेटरी बोली- आप पहले २५ हजार जमा कराइए , प्लेन का टिकट आने जाने का कन्फर्म भेजिए ! अब उस जमाने में दिन भर की एक फ्लाईट ...कैसे क्या किया जाए ? और अब रुपये बोम्बे में किससे दिलवाए जाए ?
मेरे एक प्रोड्यूसर मित्र को फोन किया सकुचाते हुए .... क्योंकि वो तो ख़ुद कड़के थे ... उनके पास इंदौर से आदमी द्वारा रुपये भिजवाये ...तब अगले दिन उन्होंने ख़ुद जाकर सब अरेंज किया तब तीन बाद डाक्टर साहब आए !
आप लोगो के जीवन की ये चंद घटना आपके बारे में बहुत कुछ कह रही हैं ! अच्छा है आपने अपनी मानवीयता बनाए रखी है ! आगे भी ईश्वर आपको मन की संतुष्टि और धैर्य देगा , जिससे आप यथावत दूसरो के काम आते रहे !
माननीय भाभीजी आपके हौंसले को प्रणाम करता हूँ !
राम राम !
आदरणीय रीता भाभी ,
ReplyDeleteदो पोस्ट पहले मेरी किसी पोस्ट पर भी लगभग ऐसी ही एक बहस उठी थी एक टिपण्णी के माध्यम से .....जाहिर है मुझे कुछ चीजे सार्वजानिक करना उचित नही लगता ....बाकी समीर जी का जावाब है ही .....आप उत्तर न भी देती तो भी ठीक था
इस में कोई शंका नही कि अधिकतर लोग बोल-बचन ही होते हैं, क्या पता यही जान के उनकी ये टिप्पणी हुई हो| आप लोगों की ओर ऊँगली उठाना ठीक नही था, बल्कि किसी भी व्यक्ति विशेष पर ऐसे ऊँगली उठाना ठीक नही - स्यात् उनके यही तेवर देख के उनके अभिभावकों उनका नाम "खरी खरी" रखा हो :)
ReplyDeleteवैसे यह सम्भव नही कि हर कोई घटना-स्थल पर पहुँच कर कुछ कर सके| यह भी हर बार सम्भव नही कि दूर से कुछ किया जा सके| पर आवश्यक यह है कि मन में सेवा भाव रहे और मानसिक रूप से तत्पर भी रहे हैं| यही नही, अपना व्यक्तिगत कार्य करते हुए भी क्षण क्षण समाज के लिए समर्पित हो, ऐसे भी उदाहरण हैं| इस विषय पर एक आदर्श-पुरूष की सीख स्मृत हो आई - "कोई भी उद्योग करो यही सोच के करो कि देश के लिए कर रहे हो, समाज के लिए कर रहे हो| चाहें उद्योगपति हो या पनवाडी, निष्ठा और सत्य के साथ किया हुआ तुम्हारा कार्य राष्ट्र हित में ही चढाया एक फूल है|"
बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलया कोय।
ReplyDeleteजो दिल खोजा आपना मुझसा बुरा न कोय॥
Namaste Pandeyjii,
ReplyDeleteSorry mujhe Hindi font nahi hai and I hope I am not posting this comment in the wrong place of your blog. I tried sending you a message through your contact form - but mujhe lagta hai nahi gaya.
Firstly let me congratulate you for having such a dynamic and interactive blog.
I wanted to discuss something about relating to my new book - Happpionaire Ki Tarhe Nivesh Kare. It would be great if you could send me an e-mail at yogeshchabria@happionaire.com so we can discuss things.
Thanks a lot!
Yogesh Chabria
yahan lagbhag sabhi kuchh na kuchh kah hi chuke hain so main us vishay par kuchh nahi kahunga.. main kuchh alag hat kar baat karta hun..
ReplyDeleteGyan chachaa, aap Shiv ji ko blog duniya me le kar aaye aur jyadatar samay lagta hai ki vo aapse bahut badhiya likhte hain.. :)
isi tarah Rita chachi ko bhi aap lekar aaye aur unki post dekh kar lagta hai ki unki likhi huyi post bhi aapke likhe huye post se jyada padhi ja rahi hai..
jara sambhal kar kisi tisare ko laayiyega.. vo kahin aapka patta hi na kaat de.. :D
aapko bahut bahut dhanyavaad ki aapne do shandar logo ko padhne ka mujhe mauka diya.. Hats off to you.. :)
हर तरह के लोग मिलते है.. कुछ रास्ते के दिपक और कुछ कंटक...
ReplyDeleteलेकिन आपने अच्छा किया.. हकिकत से रुबरु करवाया..
आपके नेक कार्यों के लिये शुभकामनांए..
खरी-खरी के कारण अमृत मन्थन में यह बात सामने आई तो खरी-खरी क खरी-खोटी सुनाने के बजाय साधुवाद कहिए!!
ReplyDeleteइस बहाने आप दोनों के विषय में और अधिक जानकारी मिली और अपनत्व और बढ़ा । पढ़कर अच्छा लगा ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
"...हमारे जद्दोजहद की सीमा हमारी हार जीत का फैसला करेगी।..."
ReplyDeleteएकदम तयशुदा (डिफ़ॉल्ट)बात. पर होता यह है कि हम अपने जद्दोजहद को बरकरार नहीं रख पाते हैं, और ठीकरा दूसरों पर फोड़ने की कोशिश करते हैं.
ab samajh nahi pa raha ki aapko sambhodit kaise karu? kahi Mata ji se star kiya to yaha gurgaon ki aurto ki tarah kahi aap bhi bigad na jaye ku "Ae chokre mai tujhe mata ji nazar aati hu?" Aunty kaha to bhi dikkat ho sakti hai.. chaliye samasya ka samadhan aisa hai ki mai aapko Aadarniya Maa tulya reeta ji se sambhodit karta hu ya ye dikhawa chodkar sidha maa kahta hu..
ReplyDeletebahut acha likha aapne.. kuch log hote hai jinhe sawal uthane mein aur shnaka karne mein bada maza aata hai.. samir ji aur mishra ji ki baat se ekdum sahmat
..................................
aur yeh jankar to dil bagba ho gaya ki aap log Allahabad se hai.. :-) likhte rahiye
जा तन लागे, वो ही जाने।
ReplyDeleteपढ़कर अच्छा लगा ।
ReplyDeleteरीता दीदी, आपका धन्यवाद इतना सब लिखने और अपने समर्थको से गाली पडवाने के लिये।
ReplyDeleteपर आपसे अनुरोध है कि आप टिप्पणी फिर से पढे। मैने पूछा है कि आपने मुम्बई हादसे मे पीडित लोगो की मदद करने के बाद क्या ब्लाग लिखकर लोगो से ऐसा करने की अपील की है या ऐसे ही लिख दिया है? अभी तक प्रश्न अनुत्तरित है। यह आपकी मर्जी है आप जवाब दे या नही।
ज्ञान जीजाजी अक्सर सडक पर पडे गरीबो की लाचारी पर लिखते रहे और उनकी तस्वीरे छापते रहे है पर कभी उन्होने लिखा नही कि उन्हे कुछ दिया क्यो नही। किसी की मजबूरी पर ब्लाग लिखकर आह-उह करना उन्हे खूब आता है। हमने सोचा शायद आपने भी ऐसा ही किया हो?
आपके समर्थको की ओर से नये दौर की प्रायोजित गालियो की प्रतीक्षा मे---
आपको पता नहीं कि आपके उत्तर ने 'दो कौडी' को अमोल कर दिया ।
ReplyDeleteमानव मनोविज्ञान में 'श्रेष्ठता-बोध' (सुपीरीयरिटी काम्पलेक्स) की चर्चा नहीं मिलती । वहां केवल 'हीनता-बोध' (इनफीरीयरिटी काम्पलेक्स) उपलब्ध है । सुपीरीयरिटी काम्पलेक्स शब्द सम्भवत: 'लोक कुम्हार के चाक पर गढा गया' है । कई लोग अपना सुपीरीयरिटी काम्पलेक्स प्रकट करने के चक्कर में अन्तत: अपना हीनता बोध ही उजागर कर रहे होते हैं ।
ऐसी टिप्पणियों को नजरअन्दाज करना ही श्रेष्ठ प्रत्युत्तर होता । जिसके मां-बाप ने नाम ही ऐसा 'खोटा' रखा कि उजागर करने में शर्म आए, वह बेचारा खरी-खरी कहने का पाखण्ड करने के सिवाय और कर ही क्या सकता है ।
आपने अकारण ही अपात्र को सम्मानित कर दिया ।
आपका सबसे बडा परीक्षक आपका 'स्व' है । हममें से किसी को आपसे (या किसी और से) कोई सवाल पूछने का अधिकार नहीं है । हम सब अपने आप के प्रति उत्तरदायी हैं । हम क्या हैं और हमने क्या किया है, यह हम जानते हैं और हमारा ईश्वर ।
हीनता बोध का मरीज, विकृत मानसिकतावाला व्यक्ति कैसा आचरण करता है, यह इस प्रसंग से सार्वजनिक हो गया ।
कृपया विचलित न हों । ईश्वर के सिवाय किसी और के प्रति आप जवाबदेह नहीं हैं ।
what'up maama u write as a real blogger keep it up. and i think its necessery to recall our past time to time. iam glad that u $papa surrounded with such great people {your blogger friend}. its my thanks to all of them.
ReplyDeleteज्ञान जी ने ठीक ही लिखा है कि कई बातें ... अवसाद ग्रस्त कर देती हैं।
ReplyDeleteबेशक खरी-खरी को उनके प्रश्न का उत्तर नहीं मिला,लेकिन उन्हें एक संदेश तो मिल ही गया होगा! लेकिन अपनी टिप्पणी में समर्थक/ प्रायोजक की चर्चा कर वे क्या जाहिर करना चाह रहे हैं?
इसी के चलते मुझे एक कथन याद आया कि 'अपनी सलीब अपने ही कंधों पर ढोनी पड़ती है'
उफ़्... मुझे यहाँ आने में इतनी देर हो गयी। शायद मैं अभी अपने ही अवसाद से नहीं निकल पाया हूँ।
ReplyDeleteये खरी-खरी साहब तो पक्के नसेड़ी निकले। गाली खाने का नशा...। धत्...। अब और मुँह न लगाइएगा जी।
रिश्ता भी क्या खूब निकाला है... ‘साला’ बनकर अपनी फजीहत??!!
मैं तो मानता हूँ की " मनुष्य अपने विचारों की उपज मात्र है, वह जैसा सोचता है, वैसा वह बन जाता है/"
ReplyDeleteबहरहाल "खरी-खरी" भाई को भी धन्यवाद!!!
इसी बहाने और कुछ जानने को मिला !!!!!!!!!!!
अफ़सोस हम पड़ोसी होने के बाद भी निमंत्रण न पा सके , इलाहाबाद आकर मिलने का !!!!
चलिए !!!!!
आशा है खरी खरी अब संतुष्ट हो गए होंगे !
ReplyDeleteलीजिये खरी-खरी फिर आए हैं. शिवजी मिसिर ही सही कह रहे हैं इन महाराज को बड़ी शंका है. ऐसे लोगों को जवाब नहीं देना ही बेहतर है.
ReplyDeleteवाह! इसी बहाने बिटिया की भी टिप्पणी/तारीफ़ मिली। अब अगले वुधवार का इंतजार है।
ReplyDeleteभाई बहन के बीच में तो हम पडेंगे नहीं . पर इतना कहना उचित होगा कि इतनी छीछालेदर के बाद भी आप के परिवार से सम्बन्ध जुडना खरी खरी के लिए खरा सौदा है :)
ReplyDeleteभाभी जी ने सही किया है . ज्ञान जी को भेज दिया गुरु जी के पास, खुद ब्लॉग पर कब्जा कर लिया ,वह भी बलपूर्वक . हम तो यही चाहते हैं . वे दोनों वहीं ठीक हैं . आप का लिखा अब ज्यादा पढने को मिलेगा ऐसी आशा है :)
"खरी खरी" जी,
ReplyDeleteQuote
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आपके समर्थको की ओर से नये दौर की प्रायोजित गालियो की प्रतीक्षा मे
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Unquote
हम आपको गाली नहीं देंगे।
बस आपके लिए हमारी तरफ़ से कुछ प्रश्न पेश हैं:
आशा है कि जितनी आसानी से आपने सवाल किये, उतनी ही आसानी से आप इन प्रश्नों का उत्तर भी देंगे।
१)आपका असली नाम क्या है?
२)आप गुमनाम रहकर एसे सवाल क्यों करते हैं
३)यदि हम यह मान भी लें की ज्ञानजी और रीताजी ने ब्लॉग लिखने के अलावा कुछ भी नहीं किया, कृपया यह बताइए की आपने क्या किया?
४)यदि कुछ भी नहीं किया तो औरों से यह सवाल करना क्या आप ठीक समझते हैं?
बेटे की तकलीफ़ तुरंत खत्म न कर पाने पर जो छ्टपटाहट आप दोनों ने महसूस की होगी वो हम अच्छी तरह से महसूस कर सकते हैं, ऐसी ही छ्टपटाहट हमने भी महसूस की थी जब अचानक हमारी मां को लकवा मार गया था और डाक्टरों के लापरवाह एटीट्युड की वजह से वो बच न सकीं। आज तीन साल होने को आये पर आज भी उन डाक्टरों के प्रति क्रोध हमारे अंदर धधकता है।
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