सृजन की प्रक्रिया धीमी और श्रमसाध्य होती है। और जो भी धीमा और श्रमसाध्य होता है उसमें ऊब होती है। पहले की पीढ़ियां ऊब को झेल कर भी कार्यरत रहने में सक्षम थीं। पर आजकल लोग ऊब से डरते हैं। नौजवानों को अकेलेपन से डर लगता है। उन्हें पुस्तकालय में समय काटना हो तो वे "बोर" हो जाते हैं। यह बोर का इतना आतंक है कि वह भाषा में अत्यन्त प्रचलित शब्द हो गया है। वर्तमान पीढ़ी शायद जिस चीज से सबसे ज्यादा भयभीत है वह परमाणु बम, कैंसर या एड्स नहीं, ऊब है। जीवन में शोर, तेजी, सनसनी, मौज-मस्ती, हंगामा, उत्तेजना, हिंसा और थ्रिल चाहिये। आज ऊब कोई सह नहीं सकता।
पर वह समाज जो केवल उत्तेजना चाहता हो और ऊब से घबराता हो, वह कभी महान नहीं हो सकता। कोई भी क्लासिक पुस्तक शुरू से अंत तक कभी भी रोचक/रोमांचक/उत्तेजनापूर्ण नहीं हो सकती। उसमें नीरस और ऊबाऊ अंश अवश्य होंगे। अगर वेदव्यास आज महाभारत का बेस्टसेलर लिख रहे होते तो युद्धपूर्व के दृष्य, शकुनि की चालें, दुर्योधन की डींगे और भीष्म की दुविधा पर तो रोचक उपन्यास रचते पर कृष्ण का उपदेश वे एक-आध पेज में समेट देते। यह उपन्यास साल-छ महीने बेस्ट-सेलर रहता। फिर उसका अस्तित्व कहां रहता?
प्रेम, शान्ति, प्रसन्नता, सफलता और महानता आदि अच्छी बातें श्रम साध्य हैं। और सभी श्रमसाध्य ध्येय कुछ सीमा तक नीरसता और ऊब झेलने की मांग करते हैं। हम वह ऊब झेलने की बजाय अगर पलायन के रास्ते ढूढेंगे तो भी ऊब से बच नहीं पायेंगे। |
महापुरुषों के जीवन के अधिकांश भाग ढीले-ढाले, साधारण और ऊबाऊ होते हैं। असल में महानता के लिये किया जाने वाला कार्य इतना कष्ट साध्य व परिश्रम वाला होता है कि वह ऊबाऊ बने बगैर नहीं रह सकता। आज तो व्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व चमकाने की पुस्तकें और नुस्खे मिलते हैं।
बर्ट्रेण्ड रसेल अपनी पुस्तक "द कॉनक्वेस्ट ऑफ हैप्पीनेस" (सुख का अभियान) में कहते हैं - “जो पीढ़ी ऊब सहन नहीं कर सकती वह तुच्छ व्यक्तियों की पीढ़ी होगी। इस पीढ़ी को प्रकृति की धीमी प्रक्रियाओं से कुछ भी लेना देना न होगा।”
ऊब से बहुत से लोग फट पड़ते हैं। उससे उबरने को और कुछ नहीं तो कलह-झगड़ा करते हैं। दुनियां की कई लड़ाइयों के मूल में ऊब होगी। कई अताताइयों के किये नरसंहार के मूल में ऊब ही है।
आज की पीढ़ी ऊब से बचने को कहां भाग रही है? जो लोग बोर होने से बचने का उपक्रम करते हैं, वे अन्तत: बोर ही होते हैं।
प्रेम, शान्ति, प्रसन्नता, सफलता और महानता आदि अच्छी बातें श्रम साध्य हैं। और सभी श्रमसाध्य ध्येय कुछ सीमा तक नीरसता और ऊब झेलने की मांग करते हैं। हम वह ऊब झेलने की बजाय अगर पलायन के रास्ते ढूढेंगे तो भी ऊब से बच नहीं पायेंगे। पर उस समय जो ऊब हमें जकड़ेगी वह अशुभ और अनिष्टकारी होगी। इसलिये बेहतर है कि हम ऊब को शुभ व उचित मानकर अपने जीवन में आदर का स्थान दें।
धूमिल की एक लम्बी कविता "पटकथा" की पंक्तिया हैं -
"वक्त आ गया है कि तुम उठोसफल वही होंगे जो ऊब से डरेंगे नहीं, ऊब को आकार देंगे।
और अपनी ऊब को आकार दो।"
बात तो है बहुत खूब,
ReplyDeleteबिना ऊब के नहीं जमती है दूब,
पर ऊब में भी होता है अपना एक,
ऊब रस,
जो लेना सीख जाते हैं उसका आनंद,
वे रहते हैं सानंद.
आदरपूर्वक पूर्णतया असहमत! इसके विपरीत संकेत तो मिलते हैं की वर्तमान पीढी, पिछली पीढी से ज्यादा गतिशील और क्रियाशील है| अब जो ज्यादा सक्रिय है, उसमें ऊब कम ही होगी| हाल ही के एक अध्ययन के अनुसार, शहरी इलाकों में व्यक्ति आयु बढ़ने के साथ ही टीवी के समक्ष अधिक समाया बिताता है| यदि टीवी को बोरियत का मापदंड मानें, तो कम आयु के लोगों के पास करने को और भी चीज़ें हैं|
ReplyDeleteयही नही, आजकल एक आम व्यक्ति के लिए भी ढेरों चुनौतियाँ हैं, तकनीकी खिलौने हैं, और चिंताएं भी, ऊबने का समय कहाँ है? यह बात छोटे छोटे बच्चों पे भी लागू होती है| अपवाद तो खैर हर जगह हैं, और सभी तरह की पीढियों में भी मिलेंगे|
वाह, बहुत ही विचारपरक ! एक सृजनशील व्यक्ति ऊब जैसे नाकारात्मक भाव को भी सार्थक परिणति दे सकता है .आप की निबंध शैली का यह आलेख इसका प्रमाण है -पर क्या है जो आप को ऊब दे रहा है ? कोई रिक्त्तता तिर आई है क्या ?
ReplyDeleteछोड़िये नयी और पुरानी पीढी की बातें , ऊब गए इन सब से :)
ReplyDeleteवैसे इस विषय पर भी इतना लिख देना ये सिद्ध करता है कि आप ऊब नही रहे है बल्कि आप कविता को सार्थक कर रहे है.
आपके अनुभव आपके ज्ञान का उपयोग मुझे प्रेरणा दे रहा है . ऊब जाना एक ऐसी प्रक्रिया प्रारम्भ हुई है जो दो साल से सौ साल तक के बच्चो मे समान रूप से पायी जा रही है . आपका सटीक नियमित लेखन भी मेरे लिए शोध का विषय बना हुआ है . मैं एकलब्य की तरह आपके ब्लॉग से शिक्षा प्राप्त कर रहा हूँ लेकिन अंगूठा जैसी गुरु दक्षिणा नही दे पाऊंगा .
ReplyDeleteमेरे विचार से उब एक दूब की तरह है जिसपर चलने से ओस भरी शीतलता का एहसास तो होता ही है ,कभी कभी तो कडी धूप से पैरों के झुलसने से बचाव होता है और कभी तो इसी दूब पर बैठ विचारशीलता का भी गाहे-बगाहे एहसास हो ही जाता है। यह ठंडक का एहसास, झुलसने से बचाव और विचारशीलता का एहसास हर उस उत्तम साहित्य को पढने से मिलता है जिसमें दूब की तरह गाहे-बगाहे कहीं कहीं उब भी हो। यहाँ तक की मुझे मुंशी प्रेमचंद के गोदान में भी कहीं-कहीं इस उब का एहसास हुआ है जब धनपतियों के बीच देश के हालात पर दिखावटी चर्चा चलती है और दिखावटी शिकार वाला हिस्सा भी कुछ इसी तरह के उब को घेरे हुए है।
ReplyDeleteलेकिन जरूरी नहीं की हर महान साहित्य में उब जरूरी हो।
वैसे वर्तमान पीढी की उब से दूरी भी अपने आप में एक प्लस प्वॉइंट है।
वाकई "ऊब" बहुत खतरनाक चीज़ है।
ReplyDeleteवैसे ऊब से दूर रहने का प्रयत्न तो मैं भी करता हूँ; मुझे खाली बैठने से ऊब होती है, इसलिए हर समय कुछ न कुछ करते रहने का प्रयास करता हूँ ताकि निठल्ला न रहूँ कुछ पलों के लिए भी जिसके कारण ऊब हो। :)
लेकिन यह उब यदि ज्यादा हो जाय तो गझिन दूब की तरह कभी-कभी खुजलाहट भी देने लग जाती है :)
ReplyDeleteऊबते रहना नहीं है जिन्दगी .
ReplyDeleteकाम घण्टों का हो मिण्टों में करो .. :)
बहुत ही विचारपरक लेख !
ReplyDeleteऊब सापेक्ष होती है। ऊब कहती है, नए की ओर चलो। नया खोजो, नहीं है तो नए का निर्माण करो। कोई ऊब की आवाज तो सुने।
ReplyDeleteबडा टाईट स्पेस है इस बार टिप्पणी लिखने के लिये फ़िर भी प्रयास करते हैं ।
ReplyDeleteआपने कहा कि सृजन की प्रकिया धीमी और श्रमसाध्य होती है लेकिन ये ऊबाऊ हो ये जरूरी नहीं । ये ऊबाऊ उस समय हो सकती है जब सृजन की चेष्टा नौकरी/धनार्जन के दवाब में हो । परन्तु यदि नौकरी/धनार्जन के साथ साथ आपका स्वयं का चित्त भी इसमें संलग्न है फ़िर इसके ऊबाऊ होने में संदेह है ।
द्वापर युग में एक ही वेदव्यास हुये जिन्होने महाभारत का सृजन किया । उस हिसाब से देखा जाये तो युवा पीढी में भी दिल लगाकर ऊबाऊ काम करने वाले कुछ तो सृजक मिल ही जायेंगे । और ये भी सच है कि उन कुछ का योगदान हजारों अन्य ऊब चुके लोगों के कुछ न करने को ढक देगा ।
अक्सर जीवन के क्लाईडोस्कोप में कभी कभी एक शेड पूरे कैनवास को घेरा हुआ सा लगता है । लेकिन सच में हर रंग है हर तरफ़ ।
आज की युवा पीढी ६० साल पुरानी पीढी से उतनी भिन्न नहीं हैं । चिन्ता न करें, युवाओं पर भरोसा रखें, हम हैं न :-)
"शाँत घरोँ मेँ,
ReplyDeleteसभ्य रीत से
फैले -ऐकाकीपन "
ये मेरी एक पुरानी कविता की पँक्ति है वही "ऊब" जो होती है बहुत खूब !!
जब तक सभ्य रहती है -
अन्यथा,जल प्रवाह की भाँति
नया मार्ग खोजती है
- लावण्या
Excellent post. द्विवेदी जी से सहमत हूँ - यदि ऊब न होती तो नए काम का उत्साह भी न होता.
ReplyDeleteमुझे कुछ प्रश्नों के उत्तर यदी दे सकें तो दिजियेगा..
ReplyDeleteक्या लगातार कुछ ना कुछ करते जाना ऊब है?
क्या हर समय सृजनात्मक काम करना ऊब है?
या फिर कुछ ना करते हुये चिंतनशील होना अच्छा है?
या तो मैं आपके इस पोस्ट को समझ नहीं पाया और जितना समझा हूं उससे मुझे असहमती है.. मैं भी युवा वर्ग में से ही आता हूं.. अधिकतर क्लासिकल किताबें या सिनेमा देखना ही पसंद है.. मगर अगर कुछ ना करने को हो तो ऊबता भी हूं..
“जो पीढ़ी ऊब सहन नहीं कर सकती वह तुच्छ व्यक्तियों की पीढ़ी होगी। इस पीढ़ी को प्रकृति की धीमी प्रक्रियाओं से कुछ भी लेना देना न होगा।”
ReplyDelete" सच कहा है , मै भी आपकी बात से सहमत हूँ..."
regards
sir aaj mai aapki bato se asahmat hoo. aaj ki pidhi jyada karmath aur mehnati hai.pahle ki tulna me jyada kam ho rahe hai. koi bhi vastu jo asadharan hoti hai lamba samay, parisram aur kathit uub mangti hi hai. waise kisi bhi chij ko dekhne ka apna najaria hota hai
ReplyDeleteपढ़ते पढ़ते ही ऊब होने लगी सर जी... आपकी सलाह ध्यान में रखते हुए.. कुछ इंट्रेस्टिंग नही पढ़ुंगा थोड़ी देर.. बैठे बैठे ऊबता रहूँगा... वरना हमारी इस पीढ़ी का क्या होगा.. :)
ReplyDeleteज्ञानदत्त जी,
ReplyDeleteआपकी लेखनी को नमन! वास्तव में आप वह लिखते हैं जो हैं तो ज्वलंत किन्तु लगते नहीं हैं। यह ऊब सचमुच बहुत खतरनाक है। खतरनाक तो है ही, तेजी के साथ फैलने वाला (adictive) भी है और हम सभी को निगले जा रहा है। यदि हमें विकास की प्रतिस्पर्धा में आगे रहना है तो इससे बचना ही होगा। हमें ऊब सहने का अभ्यास करना ही होगा। अपने जेहन में मैथिलीशरण गुप्त जी के निम्न पंक्तियों के अर्थ को अच्छी तरह से बिठाना होगाः
"यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो!
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो।
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को।"
मैं ईश्वर से यही प्रार्थना करूँगा कि आपके लेख भटके लोगों को सही राह दिखाता जाये।
'ऊब' से लोग कुछ और ही मतलब निकाल सकते हैं. ऊब हमारे धैर्य को नापती है. अगर हमेशा कुछ न कुछ करने को सृजनशीलता मानते हैं तो शायद अपने अन्दर देखने की ज़रूरत ज्यादा है. शायद धैर्य की कमी ही लोगों को अपने अन्दर देखने से रोकती है.
ReplyDeleteबहुत शानदार पोस्ट है.
सर जी
ReplyDeleteआज पहल पहल कुश की पोस्ट पढ़ी....फ़िर विवेक की ओर अब आपकी पोस्ट पर नजर पढ़ी....मिश्रा जी इस कथन से सहमत हूँ जो उन्होंने धैर्य को लेकर किया है....नई पीड़ी में "धैर्य "की कमी हो सकती है उसे उब नही कहते....
अब मै सिर्फ़ उन टुकडो को उठाता हूँ जो मैंने पूर्व में अपनी पोस्ट में लिखे है.......
(१)
जिंदगी में हमारी सबसे बड़ी ग्लानि हमारे द्वारा किये ग़लत काम नही अपितु वे सही काम होते है जो हमने नही किये
-
(२)
चरित्र दो वस्तुयों से बनता है ,आप की विचारधारा से ओर आप के समय बिताने के ढंग से ..धारणाये बदल सकती है लेकिन चरित्र का केवल विकास होता है ।२१ साल के जो आप होते है 31 मे वही नही रहते …तजुर्बे सिर्फ़ गुजरने के लिये नही होते ,क्या क्या आपने उनमे से समेटा है ये महतवपूर्ण है .....जीना भी एक कला है कुछ लोग सारे भोग भोगकर भी उनसे मुक्त रहते है ओर कुछ लोग अध्यात्म की शरण मे जाकर भी इस संसार से मुक्त नही हो पाते ॥
(३)
"आजकल की दुनिया मे "नोर्मल" रहना ही असाधारहण होना है,
अब कुछ बातें "आहा जिंदगी" के एक अंक से जिसे मैंने अपनी एक पोस्ट में भी डाला था.....
.हर आदमी क़ी ये इच्छा होती है क़ी वो एक सफल जीवन बिताए, सामाजिक सफलतायो का मतलब सत्ता,शक्ति ओर धन है लेकिन समाज इस सफलता तक पहुँचने के लिए आदर्श भी स्थापित करता है जैसे मेहनत,प्रतिभा, ओर योग्यता। सफल होने क़ी राह कठिन है ओर लंबी भी ,इसलिए आसान पग्दन्डीयो क़ी तलाश क़ी जाती है। समाज के लिए सफलता महतावपूर्ण है चाहे वह पगडंडी वाली हो या सही रास्ते से तय क़ी हुई. हर व्यक्ति के अपने आदर्श है,जो सफल है. आज हम आम के ऐसे पेड़ लगाना चाहते है जो तुरंत फल दे हर इन्सान चाहता है कि शोहरत तो तुरंत भोग सके ओर उसे ज़्यादा से ज़्यादा उपयोग मे ला सके ओर इसलिए सफलता हमे जल्दी से जल्दी चहिये।पर्सिद्धे से लोग अच्छाई को भी जोड़ लेते है।जब हम गेंहू का बीज़ बोते है तो हमे 3 महीने मे फल प्राप्त हो जाता है,लेकिन हम आम का बीज़ बोते है तो हमे आम 5 साल बाद मिलने शुरू होते है,लेकिन गौर करने वाली बात है क़ी आम का पेड़ हमे अगले 100 साल तक फल देता रहेग.जब्कि गेंहू क़ी फ़साल केवल एक बार मिलेगी. कृषि से धीरज क़ी अच्छी शिक्षा ली जा सकती है्अर नये दिन का सामना धीरज ,शॅंटी ओर विश्वास से करना ज़रूरी है.
५.इमानदर व्यक्ति वह नही जो कभी झूठ नही बोलता ,हम आप सभी जानते है ऐसा होना संभव नही है.बल्कि वह होता है जिसे अपनी ग़लती मानने मे कोई भय नही होता. शमा माँगना भी इक ईमानदारी है. हम ज़िंदगी भर अपनी आत्मा के साथ रहते है ,कितनी बार इससे बाते करते है ओर कितनी बार इसकी कही बतो को सुनते है?आप मे अंतरात्मा है तो आप मुनभाई क़ी 3 घंटे क़ी फ़िल्म से इतना कुछ सीख जाएँगे जो सलमान ने 40 ओर संज्या ने 50 सलो मे नही सीखा. जब आपको अपनी आत्मा से शर्मिंदा होना पड़े ऐसी सफलता का आनंद आप नही उठा पाएँगे. कहते है बेईमानी सबसे ज़्यादा ईमानदारी के साथ क़ी जाती है,बेईमानो का हिसाब अपने आदर्शो के हिसाब के साथ चलता है…. “
ज़रूरते पूरी हो सकती है लालच नही
6. ये सब सोच-पद कर लगता है कितनी निराशा है,हम आप सभी जानते है क़ी सही क्या है ,ग़लत क्या है, पढ़ कर ख़ुश होते है ,पर उसे अपने व्यहवार मे नही उतारते……
सारी बातें ठीक है पर मै उस कविता को याद करता हूँ जो अक्सर सुनाई जाती है.......आपके सपनो का मर जाना आपका मर जाना है...या इसे उस इंग्लिश मूवी के कोच की भाषा में कहा जाए जिसे मै कल रात देख रहा था.....यदि तुम ये सोचकर की हार तय है नही खेलोगे तो हार जायोगे ....पर अगर खेलोगे नही तो जीतोगे कैसे .......नई पीड़ी ऐसी ही है वो अपने खवाब देखती है ओर उसे पूरा करने की जद्दोजहद भी करती है.....यदि संतुष्ट होकर बैठ जायेगी तो शायद उसके सपने छोटे हो जायेगे ..या पुरे भी नही.....मेरा सीनियर कहता था .....जब तक जिंदगी में रिस्क नही उठायोगे तो तरक्की नही कर पायोगे .....शायद नई पीड़ी का सिद्दांत यही है
कोई भी क्लासिक पुस्तक शुरू से अंत तक कभी भी रोचक/रोमांचक/उत्तेजनापूर्ण नहीं हो सकती। उसमें नीरस और ऊबाऊ अंश अवश्य होंगे।
ReplyDeleteसभी ने अपने अपने विचार व्यक्त किये ! मुझे जीवन भी आपके उपरोक्त वाक्य सरीखा लगता है ! ऐसा लगता है आज आपने जीवन को एक सीधी साधी परैभाषा दे दी हो !
जीवन भी असीमित नीरसता अपने साथ लिये बहता रहता है ! उसमे अगर हम सरसता ढूंढ ले तो यह जीवन स्वर्ग है ! नीरसता मे ही सरसता मिलेगी पर सबका अपना अपना दृष्टिकोण है !
आज पता नही क्यों ? आपका यह विचार बहुत शानदार लगा ! बहुत धन्यवाद !
रामराम !
आज की पीढी पुस्तक और पुस्तकालय से दूर भाग रही है क्यों कि पुस्तकालय में क्लब का गेटअप नहीं होता और न पुस्तक में ‘वो’ किक जिसे युवा पीढी को स्मोक में मिलता है।
ReplyDeleteबाहर ऊब रहे थे सोचा ड्यूटी जाने से पहले एक बार और चलकर लोकसभा की कार्यवाही का आनन्द लें कौन एम पी क्या कह रहा है . करिए जमकर बहस . आज कुछ न कुछ निकलना ही चाहिए इस समुद्र मंथन से .हमने तो सुबह सुबह ही एक पोस्ट निकाल ली . हम तो चले :)
ReplyDeleteलोगों की जिन्दगी में 'ऊब' का आगमन तब से हुआ, जब किसी विद्वान ने 'ऊब' शब्द का सृजन किया. उससे पहले लोग ऊबना जानते ही नहीं थे. छोटे बच्चों को किसी ने ऊबते देखा है क्या? वे तो व्यस्त रहने के कारण ढूंढ ही लेते हैं. हां, शहरीकरण के इस दौर में ऐसे बच्चे भी काफ़ी दिख़ते हैं जो बड़ों की संगत में बिगड़ जाते हैं, ज्यादा गम्भीर हो जाते हैं और 'बोर' शब्द सीख़कर बोर होना शुरु हो जाते हैं.
ReplyDeleteलेकिन इस बात से सहमत होना कठिन है कि सृजनशील कार्य धीमा और (इस कारण) उबाऊ ही होता है. यह तो व्यक्ति विशेष के धैर्य के स्तर और कार्य में उसकी रुचि पर निर्भर करता है.
लिखा तो आपने बहुत ही अच्छा है लकिन मैं आपसे पूर्णतया सहमत नही हूँ...छोटी मुंह बड़ी बात...पर जहाँ तक बात है इस नए जेनरेशन की तो मैं भी इसी जेनरेशन से तालुक रखता हूँ... पीडी के कुछ अच्छे सवाल आपसे पूछे हैं...उनके जवाब मैं भी जानना चाहूँगा ....और मन में बहुत सारी बातें है जिसको कहने को मैं आतुर हूँ...समय आभाव के कारण नही कह पा रहा...अगर समय मिले तो मैं जरुर इस पर अपनी विचार लिखूंगा...
ReplyDeleteविचारपरक लेख -
ReplyDeleteआप लिखते हैं--'आज की पीढ़ी ऊब से बचने को कहां भाग रही है?
लेकिन आज कल के बच्चे या कहिये आज की पीढी ज्यादा उर्जावान , समझदार और तेज़ है-उन के पास 'ऊबने के लिए 'समय नहीं है--
वैसे देखा जाए तो आज कल किसी के पास ऊबने के लिए समय नहीं है--लेकिन ऊब हो तो कुछ न्यूटन जैसे नए आविष्कारी पैदा हों.ऊब भी जरुरी है-- लेकिन ऊबने के लिए समय कहाँ है???
इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें बोरिंग लिखना चाहिए, ताकि वह एक दिन क्लासिक बन सके और बेस्टसेलर कभी ना बने। जय हो।
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया पोस्ट ,एक ऐसी पोस्ट जो नविन पीढी को जीवन जीने का एक और तरीका बताती हैं ,सही हैं ,रियाज़ या प्रेक्टिस किसी भी कला का उबाऊ होता हैं लेकिन कलाकार के लिए वह अपनी कला को सवारने का अंतिम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपाय होता हैं ,शानदार पोस्ट .भारतीय शास्त्रीय संगीत सीखना और उसके लिए वर्षो मेहनत करना बहुत से युवक युवतियों को उबाऊ लगता हैं इसलिए इसे कई लोग नही सिख रहे,चलिए अब शास्त्रीय संगीत सिखने के लिए पैदा हुई उब पर पोस्ट लिखी जाए :-)
ReplyDeleteऊब खतरनाक चीज़ है।
ReplyDeleteachhaa likhaa gayaa hai .
ReplyDeleteachhee jankaaree.
ऊब की दूब के बहाने विचारों का अच्छा सूप पीने को मिला।
ReplyDeleteबधाई।
nayi pidhi ki ub aur usse utpann asantulan ko bakhubi pesh kiya hai......rachna bahut hi umdaa hai
ReplyDeleteसिर्फ़ वाह वाह और वाह ! इसके आगे कुछ कहने को शब्द ही नही मिल रहे.
ReplyDeleteवर्तमान के सबसे प्रचलित रोग पर यह अद्वितीय पोस्ट वन्दनीय है.काश सदैव " बोर" रहने वाले अवसादग्रस्त लोग यह पढ़कर मनन कर पाते तो उनके जीवन से यह शब्द संभवतः निकल जाता..
papa ji aap ko aapnabusy time ma sa uub ka baraa ma soochna ka time kaab mill gaya. saara comment yak side Alok sir ka comment best.
ReplyDeleteव्यक्ति तभी बोर होता है या ऊबता है जब वह कार्य को रूचि या लगन के साथ न कर रहा हो. कार्य के प्रति रूचि जितनी कम होगी बोरियत उतनी अधिक होगी.
ReplyDeleteऊब से मिले तो सालों गुजर गये, अब तो उसका चेहरा भी भूल चुके हैं। हर रोज कई घंटे इसी नयी पीढ़ी से घिरी रहती हूँ जिसकी आप बात कर रहे हैं , ऊब शब्द उनकी डिक्शनरी में नहीं। हां समय की कमी जरूर है। आज की पीढ़ी ऊंचे सपने देखने की हिम्मत रखती है और उन्हें पूरा करने को जद्दोजहद करने को तैयार्। बोर होने का वक्त किसके पास है। जब टीवी के आगे बैठे हैं तब भी यहीं सोच रहे हैं कि कहीं दूसरे से पिछड़ न जाएं ।
ReplyDeleteअरे वाह आंटी जी तो हमारे साथ हैं.. मैं अनीता जी कि बात कर रहा हूँ.. :D
ReplyDeleteबहुत सूंदर लेख लिखा आप ने, यह ऊब हे कया बला, मुझे या मेरे बच्चो को तो पता नही, क्यो कि पिता जी ने बचपन से ही कर्म शील बने रहने की शिक्षा दी है, खाली बेठना बहुत कठिन है, सजा भुगते के बराबर, मुझे देख कर बच्चे भी वही सीख गये, कुछ करो या कोई किताब पढॊ.
ReplyDeleteओर यह सब मां बाप ही बच्चे को सीखा सकते है,अमीरी मे जीना तो सभी जानते है, गरीबी मे भी उन्हे जीने की कला आनी चाहिये, आज हमेशा नही रहता, सो ऊब जाओ उस से पहले मेरी राम राम
घोस्ट बस्टर से सहमति ऊब एक भाषिक निर्मिति है...हम ऊबते हैं क्योंकि हम इसे ऊब का नाम देते हैं। पहले हमारी दैनन्दिन भाषा में ये शब्द नहीं था इसलिए इससे भय पिछली पीढ़ी में दिखाई नहीं देता उनकी भाषा के दैनिक शब्द थे क्रांति, बदलाव, निर्माण, विकास...
ReplyDeleteजल्द ही इनसे 'ऊब' शुरु हो गई। इसलिए ऊब का कम होता हाजमा मंझली पीढ़ी की करतूत है, नई पीढ़ी की ईजाद नहीं।
ऊब? और इस पीढी में ?
ReplyDeleteटीवी, डीवीडी, सिनेमा, इंटरनेट, रेडियो, किताबें, अखबार, पत्रिकाओं के ज़माने में ऊब?
परिवार के सदस्यों, दोस्तों से बातचीत, फोन पर बातचीत, पत्र लेखन वगैरह के रहते हुए क्या आज के ज़माने में कोई ऊब सकता है?
समाज सेवा में लग जाओ।
ब्लॉग लिखो या पढ़ो।
खेल खूद में लग जाओ।
व्यायाम, योग, प्राणायम में लग जाओ।
यदि फिर भी बोर होते हो तो लेटकर सो जाओ।
ज़रा सोचिए, क्या जानवर कभी बोर होता है?
क्या ग़रीब आदमी कभी बोर होता है?
There is really no excuse or reason for boredom today.
If you are still bored, you have only yourself to blame.
Let us not waste sympathy on those who are bored today.
एक और बात तो कहना भूल गया।
ReplyDelete1960 की बात याद दिलाना चाहता हूँ।
Hippies कौन थे?
ये वही अमरीकी युवा नागरिक थे जिनके पास सब कुछ होते हुए ज़िन्दगी से उबने लगे थे।
क्या किसीको उन लोगों से सहानुभूति थी?
With All Due Respect:
ReplyDeleteमैं असहमत हूँ।
हमारी नौजवान पीढी अगर पब्स में बैठकर हुक्का पीती है, तो काफ़ी हाउस में बैठकर कोई नोवेल भी पढ़ती है, योग भी करती है, आध्यात्म भी पढ़ती है। हमारी नौजवान पीढी, जगजीत सिंह और गुलज़ार को सुनती है और नोरा जोन्स को भी। वो बोर होती है, ऊबती है लेकिन ये बोरियत उसे बनाती है न की बिगड़ती है।
हो सकता है धैर्य कम हो लेकिन जोश हमेशा से ही ज्यादा है, ये वो पीढी है जो टेस्ट क्रिकेट में भी उतना ही विस्वास करती है, जितना २०-२० में। ये पीढी अपना बेस्ट करने में विस्वास करती है, चाहे बेस्ट करने के बाद इसे हार मिले। ये पीढी ग्लोबल है, और राजनीती समझती है। ये चाणक्य को नहीं जानती, लेकिन राज ठाकरे और अमर सिंह को अच्छे से समझती है। ये बॉम्बे और दिल्ली की सड़कों पर प्रोटेस्ट करती है, ब्लॉग वर्ल्ड को हिला देती है।
ये पीढी अगैय को भी जानती है, और चेखव को भी। ये पीढी ३ घंटे की bollyood मूवी भी देखती है और छोटी इंग्लिश मूवी भी। ये पीढी ऊबती है क्यूंकि इसके सपने बहुत बड़े हैं, इस पीढी को फैलाव चहिये। और जब ये ऊबती है, तो खुशी के बहने ढूंढती है। और जब खुशी मिलती तो ये उसे जीती है, अच्छे से। सब रस्मो रिवाज़ भूलकर।
लग राह है कुछ ज्यादा लिख दिया। कुछ भी उल्टा सीधा लिखा हो क्षमा....छोटा सोंचकर माफ़ कर दीजियेगा.
आजकल के लोग ऊब से डरते हैं या उन्हें ऊबने से डराया जा रहा है....आजकल ऊबने से बचने के तरीकों का बहुत बड़ा बाजार है....बोर हो रहे हैं तो मूवी देख लो, उससे बोर हो गए तो कंप्यूटर पे गेम खेल लो, वह भी बोरिंग हो जाए तो तेज स्पीड बाइक पे निकल लो, नहीं तो एक शानदार मोबाइल ले लो और उसी में गिटपिट करते रहो,
ReplyDeleteसरजी लोगों का बोर होना बहुत जरूरी है बाजार के लिए, बच्चा जब एक खिलौने से बोर हो जाता है तो उसे नया खिलौना चाहिए....इस तरह की एक पूरी पीढ़ी तैयार की जा रही है.....थ्रिल, रोमांच ये क्षणिक चीजें हैं पर ये बाजार के लिए जरूरी हैं....अभी मल्टीप्लेक्स से एक्शन मूवी देखकर निकले हैं पर मजा नहीं आ रहा है तो एक एक तकीला लगाई जाए....उसके बाद भी मजा नहीं आया तो बाइक पर रेस लड़ाई जाए...
खैर अपना अपना अनुभव है मैं कभी ऐसे रोमांचों में नहीं फंसा या कहें फंस नहीं पाया....पर कुल मिलाकर बाजार के चलते रहने के लिए वर्तमान पीढ़ी में ये सब चीजें जरूरी हैं
'असल में महानता के लिये किया जाने वाला कार्य इतना कष्ट साध्य व परिश्रम वाला होता है कि वह ऊबाऊ बने बगैर नहीं रह सकता ।'
ReplyDeleteऔर,
'जो लोग बोर होने से बचने का उपक्रम करते हैं, वे अन्तत: बोर ही होते हैं ।'
और,
'सफल वही होंगे जो ऊब से डरेंगे नहीं, ऊब को आकार देंगे ।'
आपने समस्या, कारण और निदान - तीनों ही प्रस्तुत किए । मैं तो आपसे सहमत हूं । असफलता ही सफलता हेतु प्रेरित करती है और ध्वंस ही निर्माण के लिए जमीन तैयार करता है ।
कमाल की पोस्ट लिखी है.. बहुत खूब!
ReplyDeleteएक बार पूर्व राष्ट्रपति एवं दर्शनशास्त्र के अध्येता ड़ा०राधाकॄष्णन से किसीनें प्रश्न किया कि आप इतना पढ़ते हैं थकते या ऊबते नहीं हैं?उत्तर था अवश्य थकता हूँ और ऎसा लगनें पर गंभीर से कोई कम गंभीर विषय की पुस्तक पढनें लगता हूँ।पढ़ना उनका ‘स्वभाव’ था।थकना,ऊबना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है।वस्तुतः रूचि से भिन्न, प्रकृति विरुद्ध कर्म में ऊब अन्तर्निहित रहती है।धैर्य छोड़्ते ही ऊब प्रकट हो जाती है।ऊब की पराकाष्ठा चिढ़,भय और पलायन है।
ReplyDeleteविलंब से यहाँ पहुँचा। काफी कुछ लिखा जा चुका है।
ReplyDeleteयह तो सही है कि प्रेम, शान्ति, प्रसन्नता, सफलता और महानता आदि अच्छी बातें श्रम साध्य हैं और सृजन की प्रक्रिया धीमी और श्रमसाध्य होती है। बाज़ारवाद के चलते, जिन्हें (आभासी) प्रेम, प्रसन्नता, सफलता, महानता मिल जाती है वे कथित बोरियत से दो-चार नहीं होंगे, यह कैसे सम्भव है? फिर इसी बोरियत के चलते कदम बढ़ जाते हैं एक और मृग तृष्णा की ओर।
'जो ज्यादा सक्रिय है, उसमें ऊब कम ही होगी' की सोच रखने वाले ब्र्ह्मांड के एक मुख्य आयाम, समय को सामने रख कर देखें। अनंत अंतरिक्ष में लम्बे समय तक, वास्तविक रूप से सक्रिय रहने वाले मानव भी ऊब जाते हैं। किसी विषय पर, स्कूल-कॉलेज में सामान्यतया: 40 मिनट का ही समयखण्ड क्यों निर्धारित किया गया है? यह भी सोचें। क्यों नहीं सीधे-सीधे इसे एक घंटा रखा गया, आखिर उससे ऊब कम होगी!
ऊब और दूब की बात की जाये तो दूब अगर ज्यादा सक्रिता दिखाये या समय का ध्यान न रखे तो बाँस बन जाती है। फिर शीतलता का अनुभव कैसे होगा?
ऊब कहती है, नए की ओर चलो। उसकी आवाज सुन कर पता नहीं कितने टीवी चैनल खुलते चले जा रहे हैं, वाहनों की गति बढ़ते चले जा रही है। विवाहेत्तर संबंध बढ़ रहे हैं। साथ ही साथ ऊब भी बढ़ते जा रही है!
यह सच है कि सृजन की प्रकिया यदि दबाव में हो तो ऊबाऊ हो सकती है। यदि उस प्रक्रिया में स्वयं का चित्त/ हित भी संलग्न है फ़िर इसके ऊबाऊ होने में संदेह है। लेकिन आक्रामक बाज़ारवाद, तैयारशुदा माल परोसकर आपको कुटीर उद्योग जैसा सृजन करने से रोकता है।
नई पीढ़ी भी ख्वाब देखती है और उसे पूरा करने की जद्दोजहद भी करती है। ख्वाब रह्ते हैं उपलब्ध संसाधनो, साधनों, उत्पादों का अधिकाधिक उपभोग करने के और जद्दोजहद पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुणात्मक होते जा रही है।
किसी बच्चे को कागज की नाव बनाकर पानी में बहाते हुए देखिये, उसे किसी अनजानी मंज़िल तक पहुँचाने के दौर में उसे कोई ऊब नहीं होती।
ज़रा सोचिए, क्या जानवर कभी बोर होता है?
क्या ग़रीब आदमी कभी बोर होता है? उन्हे जीने की कला आती है। इसीलिये आजकल, इनसे इतर, ऊबाऊ व्यक्तियों के लिए 'आर्ट ऑफ लिविंग' आंदोलन चल पड़ा है:-)
असहमति जताने वाले कहते हैं कि हमारी पीढ़ी पीती है-पढ़ती है-करती है-सुनती है-जानती है-देखती है आदि आदि। यह सब वह सेकेंड पर्सन बनकर (उपभोग) करती है। फर्स्ट पर्सन बन अन्य को पिलाने-पढ़ाने-कराने-सुनाने-ज्ञान देने-दिखाने जैसा कार्य करने वाली पीढ़ी कहाँ है। (यहाँ मिडिलमैन की बात नहीं है)
आप सीडी-डीवीडी प्लेयर पर गाने सुनकर तो बोर हो जायेंगे, लेकिन रेडियो सुनकर नही। क्योंकि आपको मालूम नहीं आने वाला गाना कौन सा है। तात्पर्य यह कि जहाँ सबकुछ सुनिश्चित है, वहाँ ऊब होगी ही, जहाँ अनिश्चितता है वहाँ संशय-भय-उत्सुकता-पूर्णता की लालसा के कारण सक्रियता बनी रहेगी, संतृप्त होते तक।
पढ़ा.. और गजब, ऊबा भी नहीं..
ReplyDeleteकाफी संजीदगी से आप अपने ब्लॉग पर विचारों को रखते हैं.यहाँ पर आकर अच्छा लगा. कभी मेरे ब्लॉग पर भी आयें. ''युवा'' ब्लॉग युवाओं से जुड़े मुद्दों पर अभिव्यक्तियों को सार्थक रूप देने के लिए है. यह ब्लॉग सभी के लिए खुला है. यदि आप भी इस ब्लॉग पर अपनी युवा-अभिव्यक्तियों को प्रकाशित करना चाहते हैं, तो amitky86@rediffmail.com पर ई-मेल कर सकते हैं. आपकी अभिव्यक्तियाँ कविता, कहानी, लेख, लघुकथा, वैचारिकी, चित्र इत्यादि किसी भी रूप में हो सकती हैं......नव-वर्ष-२००९ की शुभकामनाओं सहित !!!!
ReplyDeleteक्या बात है ज्ञान जी, 24 के बाद कोई पोस्ट नहीं है. कहीं आप "ऊब" तो नहीं गये !! ऐसा न करे!!
ReplyDeleteसस्नेह -- शास्त्री
First of all sorry for commenting in English. I couldn't type in Hindi here, and couldn't even restrain myself from commenting.
ReplyDeleteI really appreciate your analysis and understand the pain, but I think the basic assumption is somewhat confusing. I agree that a new creation demands pain and time, but it's not boring. At least I never felt bored while doing something new. The process keeps one engage till end.
I wish to to echo Ritesh's comment.
ReplyDeleteEcho's are in the same language and so I will, for a change, write in English.
Doing something completely new is the best way to beat boredom.
My most memorable victory over boredom occurred when I learned to type in Hindi and communicate in Hindi and got introduced to the world of Hindi blogs.
The thrill I experienced when the first few lines I ever wrote in Hindi appeared on a web page is unforgettable. (I owe a deep dept of gratitude to Debashish of Nuktachini blog. His guidance saw me through. Shashi Singh of Zee TV also helped and encouraged me in this breakthrough. The folks at Tarakash.com (Pankaj and Sanjay Bengani) also helped me in reaching greater heights.Later Ravi Ratlami also offered tips and advice.)
I have enough reserves to keep me going in the battle against boredom. Several other horizons keep beckoning me. I will explore them when Hindi blogs begin to bore me(most unlikely, I should say)
The more I think over it, the more I am convinced that boredom for people like you and me should be nothing less than a punishable crime.
There is really no excuse for boredom these days. There can only be a reason and that is one's own abysmal incompetence in managing one's time.
Regards
G Vishwanath