Saturday, June 30, 2007

आप तो बिल्कुल खतम आदमी हैं!

शिव कुमार मिश्र ने मुझे एस.एम.एस. किया है कि कल रात एक गायन प्रतियोगिता में बप्पी लाहिड़ी ने एक प्रतियोगी से कहा – यू आर ए फ़िनिश्ड सिन्गर. और फ़िर हिन्दी में जोड़ा – तुम बहुत जल्दी फ़ेमस बनेगा. इसका हिन्दी अनुवाद करें तो कुछ ऐसा होगा – तुम तो बिल्कुल खतम गायक हो और बहुत जल्दी प्रसिद्ध हो जाओगे!

उक्त खतम के दो अर्थ हैं :
  • खतम का हिन्दी अर्थ होता है – गया-बीता, बेकार, अब-कोई-उम्मीद-नही आदि.
  • बप्पी लाहिड़ी ने उसका प्रयोग किया है – तराशा हुआ, परिपूर्ण, परिपक्व आदि के रूप में.
अर्थात एक ही शब्द पर दो अलग-अलग छोर के अर्थ. इस प्रकार का घालमेल रोचक स्थितियां पैदा कर सकता है. अब निम्न उदाहरणों में खतम का दूसरे अर्थ में प्रयोग किया गया है. पर आप पहले अर्थ में उसका आनन्द ले सकते हैं:
  • हिन्दी वाले खतम हैं.
  • अरुण अरोड़ा खतम पन्गेबाज हैं.
  • फ़ुरसतिया एकदम खतम ब्लागर हैं.
  • समीर लाल की टिप्पणियां खतमतम होती हैं.
  • अभय तिवारी ने अछूतों पर एक खतम शोध किया है.
  • इन्फ़ोसिस के नारायणमूर्ति एक खतम व्यक्तित्व हैं.
  • आप बिल्कुल खतम आदमी हैं.

सही में, क्या खतम पोस्ट है!

एथेनॉल चलायेगा कार - आपकी जीत होगी या हार!

मुझे यह आशा है कि देर सबेर ब्राजील की तर्ज पर भारत में एथेनॉल का प्रयोग डीजल/पेट्रोल ब्लैण्डिंग में 20-25% तक होने लगेगा और उससे न केवल पेट्रोलियम पर निर्भरता कम होगी, वरन उससे पूर्वांचल/बिहार की अर्थव्यवस्था भी चमकेगी. अभी चार दिन पहले बिजनेस स्टेण्डर्ड में लीड स्टोरी थी कि कई बड़े स्टॉक मार्केट के बुल्स - राकेश झुनझुनवला सहित, बड़े पैमाने पर देश-विदेश में बायो-ईन्धन के स्टॉक्स में खरीद कर रहे हैं.

और परसों बिजनेस स्टेण्डर्ड में ही, उसके उलट है कि एथेनॉल का प्रयोग आपकी कार के लिये मारक हो सकता है - गलती से भी थोड़ा पानी मिल गया बायो-फ्यूल में तो आपकी कार नष्ट हो सकती है. अर्थात उस प्रकार की बात कि एक दिन किसी स्केंडेनेवियायी देश की रिपोर्ट को बैनर हेडलाइन के साथ छपा पायें कि चाकलेट खाकर आप 110 साल जी सकते हैं. और दूसरे दिन आप ढ़िमाकी लैब के डायरेक्टर के माध्यम से शोध से लाभांवित हों कि चॉकलेट स्वास्थ्य के लिये जहर हैं.

(एथेनॉल का ऑर्गेनिक सूत्र)

और देखें - यह आस्ट्रेलिया की रिपोर्ट - एथेनॉल मिक्सिंग 20 लाख आस्ट्रेलियायी कारों का बाजा बजाने वाली है. या फिर स्टॉनफोर्ड न्यूज का 18 अप्रेल का यह पन्ना जो कहता है कि एथेनॉल के वाहन मानव स्वास्थ्य पर काफी दुष्प्रभाव ड़ालते हैं.

लोग इस सोच से भी दुबले हो रहे हैं कि बायो फ्यूल की खेती से अन्न उत्पादन कम होगा और भुखमरी बढ़ेगी.

उक्त लिंक वाले लेख मैने पढ़े हैं और मेरे अपने निष्कर्ष निम्न हैं -
  1. एथेनॉल के बतौर बॉयो फ्यूल प्रयोग के रोका नहीं जा सकता. यह उत्तरोत्तर बढ़ेगा. खनिज तेल की कीमतें - डिमाण्ड-सप्लाई-लोभ के चलते देर सबेर स्काईरॉकेट करेंगी. और फिर कोई चारा नहीं होगा एथेनॉल ब्लैण्डिंग के विकल्प पर अमल करने के आलावा.
  2. भारत में जट्रोफा/कुरंज/रतनजोत/गन्ना का प्रयोग एथेनॉल बनाने में उत्तरोत्तर बढ़ेगा. वाहनों के इंजन बेहतर बनेंगे.
  3. एथेनॉल रिफाइनरी छोटे पैमाने पर अनेक स्थानों पर होंगी और उससे ईन्धन की यातायात जरूरतें भी कम होंगी.
  4. एथेनॉल ब्लैंडिंग 99.9% शुद्ध हो; बिना पानी मिलाये; यह सुनिश्चित करने के कठोर उपाय किये जायेंगे.
  5. स्वास्थ्य पर एथेनॉल के दुष्प्रभाव पर अभी अंतिम शब्द कहे नहीं गये हैं. इसी प्रकार वाहनों के ऊपर होने वाले दुष्प्रभाव उस तरह के लोगों की भविष्यवाणिंया हैं जो टिटिहरी ब्राण्ड सोच प्रसारित करते हैं.
  6. अर्थव्यवस्था या बाजार तय करेंगे कि भविष्य क्या होगा. पर्यावरणवादी अपनी आदत के अनुसार आपस में लड़ते रहेंगे.
  7. पर्यावरणवादी ही कहते हैं कि एथेनॉल वायु प्रदूषण से लड़ने का बहुत अच्छा उपाय है. इससे ग्लोबल वार्मिंग कम होती है, कार्बन मोनोक्साइड और कार्बन डाइआक्साइड के उत्सर्जन में 30% कमी आती है. इससे ज्वलनशील तत्व/जहरीले पदार्थ/ठोस पार्टीकल के उत्सर्जन में भी क्रमश: 12,30 व 25% की कमी आती है. (आप "ethanol fuel blending plus points" आदि के गूगल सर्च कर लें - ढ़ेरों लिंक मिलेंगे!)

मित्रों, मैं अपने बचपन से देखता आ रहा हूं. एक लॉबी एक कोण से लिखती है. दूसरी लॉबी दूसरे कोण से. मौका परस्त एक लॉबी कभी दूसरी लॉबी में तब्दील भी हो जाती है! अंतत: जो होना होता है वह होता है. एथेनॉल का विरोध करने वाले भविष्य में बायो-फ्यूल चलित कार में जायेंगे बायो-फ्यूल के खिलाफ प्रदर्शन करने को!

Thursday, June 28, 2007

फिर हिन्दी पर चलने लगे तीर (या जूते!)

'हिंदी एक बीमार भाषा है। क्‍योंकि इसका मुल्‍क बीमार है। अस्‍सी फीसदी नौजवान हाथ बेकार हैं। प्रोफेसर और दूसरे कमाने वालों को बैंक का ब्‍याज चुकाना है, वे ट्यूशन पढ़ा रहे हैं, कमाई का अतिरिक्‍त ज़रिया खोज रहे हैं। वे क्‍यों पढ़ेंगे किताब? आपकी किताब उन्‍हें दुष्‍चक्र से बाहर निकलने का रास्‍ता नहीं दिखा रही।' मित्रों यह हमारी नहीं मुहल्ले की आवाज है.

मजा आ गया मुहल्ले की आज की पोस्ट पढ़ कर. मैं लिंक नहीं करूंगा. मैं तो बस देख रहा हूं हिन्दी पर जूतमपैजार. मैं नहीं चाहता कि मुहल्ले या विरोधी ठाकुर-बाभन मेरे पोस्ट को अपनी व्यायामशाला का एक्स्टेंशन मान लें.

पहले सुमित्रानन्दन पंत पर (या नामवर सिन्ह पर जो भी हों क्या फरक पड़ता है) कूड़ा उछाला गया. किसपर गिरा पता नहीं. अब फिर चालू हो गया है.

हिन्दी है ही दुरुह! इसमें बकरी की लेंड़ी गिनने का मॉर्डन मेथमेटिक्स है. इसमें पंत पर कविता है. इसमें लम्बे-लम्बे खर्रों वाला नया ज्ञानोदय है. बड़े-बड़े नाम और किताबों की नेम ड्रापिंग है. पर इसमें नौकरी नहीं है!

लेकिन मेरा मानना है कि हिन्दी साहित्य के नाम पर दण्ड-बैठक लगाने वाले कहीं और लगायें तो हिन्दी रिवाइटल खिला कर तन्दुरुस्त की जा सकती है. अगर 100-200 बढ़िया वेब साइटें हिन्दी समझ में आने वाली हिन्दी (बकरी की लेंड़ी वाली नही) में बन जायें तो आगे बहुत से हाई-टेक जॉब हिन्दी में क्रियेट होने लगेंगे. इस हो रही जूतमपैजार के बावजूद मुझे पूरा यकीन है कि मेरी जिन्दगी में हिन्दी बाजार की भाषा (और आगे बाजार ही नौकरी देगा) बन कर उभरेगी.

नागार्जुन जी की तर्ज में कहें तो साहित्य-फाहित्य की ऐसी की तैसी.

आपको कौन लिंक कर रहा है?

यह कई बार होता है कि आप वहां नहीं पहुंचते जहां आपके ब्लॉग को लिंक कर कुछ कहा जा रहा हो. आपको ट्रिगर ही नहीं मिलता. उदाहरण के लिये मैने यूनुस पर एक पोस्ट लिखी - नाई की दुकान पर हिन्दी ब्लॉगर मीट. उनके ब्लॉग को लिंक किया. प्रतीक्षा की कि यूनुस देखने आयेंगे और ज्ञान-बीड़ी का सुट्टा लगायेंगे. उस पोस्ट पर टिपेरे आये और (मेरे स्टेण्डर्ड से) थोक में आये. पर नही आये तो यूनुस जिनपर पोस्ट लिखी थी!

जब यूनुस ने मेरी किसी और पोस्ट पर टिप्पणी की तो मैने उन्हे ई-मेल कर चेताया कि सही पोस्ट पर टिप्पणी करो जनाब. और फिर जो टिप्पणी यूनुस ने की वह बहुत ही अच्छी है. अंश नीचे प्रस्तुत है:

यूनुस जी की टिप्पणी:
अरे अरे ज्ञान जी, पता नहीं कैसे आपकी इस ज्ञान बिड़ी का सुट्टा मारना भूल ही गया था । इसमें तो वो धूम्रपान निषेध का प्रतिबंध भी नहीं है । मुझसे भूल हो गयी जो इस पोस्‍ट को नज़र अंदाज़ कर दिया । तो आखिरकार आपने नाई की दुकान पर हमसे मुलाक़ात कर ही ली । .........
पर आपका लिखा बहुत अच्‍छा लगा । इसी तरह हमें ज्ञान बिड़ी पिलाते रहिये । जबलपुरिया हैं ज्ञान बिड़ी पीने के पुरानी आदत है । ये वो लत है जो हमसे छूटती नहीं ।........

यूनुस की बात तो बतौर दृष्टांत है. असली सवाल है कि आप हाई-टेक ब्लॉगर गण सवेरे कुल्ला-मुखारी कर जब अपना कम्प्यूटर खोल कर ब्लॉग खंगालते हैं तो कैसे मालूम करते हैं कि आप पर किस-किस ने लिंक बना कर तीर चलाये हैं? इसके निश्चय ही कई तरीके होंगे. मैं आमंत्रण देता हूं कि आप टिपेरकर लोगों को अपना तरीका बतायें. अगर आपका तरीका ज्यादा मस्त हुआ तो मैं भी वह अपना लूंगा. अन्यथा मैं अपना तरीका बताने की हिम्मत जुटाऊंगा.

हमारे जैसे तो पुरनिया ब्राण्ड के ब्लॉगर हैं. न हमारा घेट्टो है न जवान ब्लॉगरों की जमात हमारे साथ है. पत्रकार या तकनीकी विशेषज्ञ भी नहीं है. रेलवे के तो लोग भी हिन्दी ब्लॉगरी में नही हैं जो हमें पट्टीदारी के लिहाज से लिंक करें. अत: हमें तो ज्यादा फायदा नहीं है अपने लिंक जानने की तकनीक का. पर मैं निश्चित ही चाहूंगा कि अगली बार यूनुस ज्ञान बीड़ी का सुट्टा लगाना भूल न जायें कि उन्हें ई-मेल करनी पड़े! इसी तरह आप लोगों पर भी कभी कंटिया फंसाऊं तो आप भी ओवरलुक न कर पायें!

Wednesday, June 27, 2007

मुझे बिग-बाजार में क्या गलत लगता है?

मैं किशोर बियाणी की पुस्तक पढ़ रहा हूं इट हेपण्ड इन इण्डिया.* यह भारत में उनके वाल-मार्टिया प्रयोग का कच्चा चिठ्ठा है. कच्चा चिठ्ठा इसलिये कि अभी इस व्यवसाय में और भी कई प्लेयर कूदने वाले हैं. अंतत: कौन एडमण्ड हिलेरी और तेनसिंग बनेंगे, वह पता नहीं. पर बियाणी ने भारतीय शहरों में एक कल्चरल चेंज की शुरुआत तो कर दी है.

बिग बाजार के वातावरण का पर्याप्त इण्डियनाइजेशन हो गया है. वहां निम्न मध्यम वर्गीय मानस अपने को आउट-ऑफ-प्लेस नहीं पाता. वही नहीं, इस वर्ग को भी सर्विस देने वाला वर्ग - ड्राइवर, हैल्पर, घरमें काम करने वाली नौकरनी आदि, जिन्हे बियाणी इण्डिया-2 के नाम से सम्बोधित करते हैं भी बिग बाजार में सहजता से घूमता पाया जाता है. इस्लाम में जैसे हर तबके के लोग एक साथ नमाज पढ़ते हैं और वह इस्लाम का एक सॉलिड प्लस प्वॉइण्ट है; उसी प्रकार बिग बाजार भी इतने बड़े हेट्रोजीनियस ग्रुप को एक कॉम्प्लेक्स के नीचे लाने में सफल होता प्रतीत होता है.

पर मैं किशोर बियाणी का स्पॉंसर्ड-हैगियोग्राफर नहीं हूं. बिग-बाजार या पेण्टालून का कोई बन्दा मुझे नहीं जानता और उस कम्पनी के एक भी शेयर मेरे पास नही हैं. मैं बिग बाजार में गया भी हूं तो सामान खरीदने की नीयत से कम, बिग-बाजार का फिनामिनॉ परखने को अधिक तवज्जो देकर गया हूं.

और बिग-बाजार मुझे पसन्द नहीं आया.

मैं पड़ोस के अनिल किराणा स्टोर में भी जाता हूं. तीन भाई वह स्टोर चलाते हैं. हिन्दुस्तान लीवर का सुपरवैल्यू स्टोर भी उनके स्टोर में समाहित है. तीनो भाई मुझे पहचानते हैं और पहचानने की शुरुआत मैने नही, उन्होने की थी. अनिल किराणा को मेरे और मेरे परिवार की जरूरतें/हैसियत/दिमागी फितरतें पता हैं. वे हमें सामान ही नहीं बेंचते, ओपीनियन भी देते हैं. मेरी पत्नी अगर गरम-मसाला के इनग्रेडियेण्ट्स में कोई कमी कर देती है, तो वे अपनी तरफ से बता कर सप्लिमेण्ट करते हैं. मेरे पास उनका और उनके पास मेरा फोन नम्बर भी है. और फोन करने पर आवाज अनिल की होती है, रिकार्डेड इण्टरेक्टिव वाइस रिस्पांस सिस्टम की नहीं. मैं सामान तोलने की प्रॉसेस में लग रहे समय के फिलर के रूप में बिग-बाजार से उनके कैश-फ्लो पर पड़े प्रभाव पर चर्चा भी कर लेता हूं.

बियाणी की पुस्तक में है कि यह अनौपचारिक माहौल उनके कलकत्ता के कॉम्प्लेक्स में है जहां ग्राहक लाइफ-लांग ग्राहक बनते हैं और शादी के कार्ड भी भेजते हैं. (पुस्तक में नॉयल सोलोमन का पेज 89 पर कथन देखें - मैं अंग्रेजी टेक्स्ट कोट नहीं कर रहा, क्योंकि हिन्दी जमात को अंग्रेजी पर सख्त नापसन्दगी है और मैं अभी झगड़े के मूड में नहीं हूं). इलाहाबाद में तो ऐसा कुछ नहीं है. कर्मचारी/सेल्स-पर्सन ग्राहक की बजाय आपस में ज्यादा बतियाते हैं. ग्राहक अगर अपनी पत्नी से कहता है कि ट्विन शेविंग ब्लेड कहां होगा तो सेल्स-गर्ल को ओवर हीयर कर खुद बताना चाहिये कि फलानी जगह चले जायें. और ग्राहक बेचारा पत्नी से बोलता भी इस अन्दाज से है कि सेल्स-गर्ल सुनले. पर सेल्स-गर्ल सुनती ही नहीं! अनाउंसमेण्ट तो उस भाषा में होता है जो बम्बई और लन्दन के रास्ते में बोली जाती है इलाहाबाद और कोसी कलां के रास्ते नहीं.

परस्पर इण्टरेक्शन के लिये मैं अनिल किराना को अगर 10 में से 9 अंक दूंगा तो बिग बाजार को केवल 4 अंक. अनिल किराना वाला चीजों की विविधता/क्वालिटी/कीमतों मे किशोर बियाणी से कम्पीट नहीं कर पायेगा. पर अपनी कोर कम्पीटेंस के फील्ड में मेहनत कर अपनी सर्वाइवल इंस्टिंक्ट्स जरूर दिखा सकता है. ऑल द बेस्ट अनिल!

------------------------

It Happened In India

by Kishore Biyani with Dipayana Baishya

Roopa & Co, Rs. 99.

Tuesday, June 26, 2007

कुछ सफल और आत्म-मुग्ध (हिन्दी ब्लॉगर नहीं) लोग!

मेरा लोगों से अधिकतर इण्टरेक्शन ज्यादातर इण्टरकॉम-फोन-मीटिंग आदि में होता है. किसी से योजना बना कर, यत्न कर मिलना तो बहुत कम होता है. पर जो भी लोग मिलते है, किसी न किसी कोण से रोचक अवश्य होते हैं.

अधिकतर लोग मेरे मुख्यालय में सोमवार की महाप्रबन्धक महोदय की रिव्यू मीटिंग में मिलते हैं. ये होते हैं 20 से तीस साल तक की अवधि सिविल/इंजीनियरिंग सेवा में गुजारे हुये विभागाध्यक्ष लोग. इनमें से प्रत्येक व्यक्ति कम से कम 5000 रेल कर्मियों पिरामिड के शीर्ष पर होते हैं. सामान्य जन-अवधारणा से अलग, अपनी प्रतिभा और अपनी मेहनत से उपलब्धियां पाये और उन उपलब्धियों से एक ब्लॉगर की तरह ही आत्म-मुग्ध लोग हैं ये. मै इनमें से कुछ सज्जनों के विषय में बिना नाम लिये लिखने का यत्न करता हूं.

एक सज्जन हैं; जो सबसे ज्यादा इम्पेशेण्ट दीखते हैं. अगर उनके अपने विभाग की बात न हो तो दूसरों को समस्या का समाधान सुझाने में पीछे नहीं रहते. और कोई दूसरा भला आपकी बिन मांगी सलाह क्यों हजम करने लगा? परिणाम द्वन्द्व में होता है अक्सर. मजे की बात यह हुई की किसी ने मुझे बताया कि ये बम-ब्लास्टिया सज्जन परम-शांति नामक शीर्षक से एक ब्लॉग भी लिखते हैं. मैने ब्लॉग देखा. बिना चित्रों के, अंगेजी के एक ही फॉंण्ट में, ब्लैक एण्ड ह्वाइट रंग में था वह. फुरसतिया जी की पोस्टों से दूने लम्बे लेख थे उसमें. वास्तव में परम शांति थी. कौन पढ़े! एक पोस्ट पर एक कमेण्ट दिखा तो उसे पढ़ने का मन हुआ. वह निकला उन्ही के किसी कर्मचारी का जो न जाने किस मोटिव से ऐसी प्रशंसा कर रहा था जैसे कि वह पोस्ट-लेखन 10 कमाण्डमेण्ट्स के बाद सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज हो!

दूसरे सज्जन हैं जो वानप्रस्थ आश्रम की उम्र में चल रहे हैं पर कुंवारे हैं. कविता करते हैं. फाइलों पर अनिर्णय की बीमारी है उनके हस्ताक्षर लेना चक्रव्युह भेदने से कम नहीं है. एक बार पूंछा गया कि ये हस्ताक्षर क्यों नहीं करते? बढ़िया कमेण्ट था हस्ताक्षर करना आता होता तो निकाह न हो गया होता?

तीसरे सज्जन हैं जो सरनेम नहीं लगाते. पर जब भी किसी से पहली बार मिलते हैं तो येन-केन-प्रकरेण अपना जाति-गोत्र स्पष्ट कर देते हैं; जिससे कोई उन्हें अनुसूचित वर्ग का न समझ ले. विद्वान हैं, अत: जो भी पढ़ते हैं, उसे सन्दर्भ हो चाहे न हो, मीटिंग के दौरान बोल जरूर देते हैं. यानि ब्लॉगरों को जबरी लिखने की बीमारी होती है; उन्हे जबरी विद्वत्व प्रदर्शन की! कौन क्या कर लेगा!

चौथे सज्जन हैं जो हर चीज का तकनीकी हल तलाशते हैं. उनके घर में अच्छी खासी प्रयोगशाला और जंक मेटीरियल का कबाड़खाना है. रेलवे में गलत फंसे हैं. किसी कम्पनी में होते जो मेवरिक सोच को सिर माथे पर लेती तो उनकी वैल्यू हीरे की तरह होती. पर यहां तो जैसे ही वे कोई समाधान सुझाते हैं चार लोग तड़ से ये बताते हैं कि ये फलाने कोड/मैनुअल/रूल के तहद परमिसिबल नहीं है! फिर भी, मानाना पड़ेगा कि वे अधेड़ उम्र में भी (रेलवे जैसे ब्यूरोक्रेटिक सेट-अप में) इतने सतत विरोध के बावजूद तकनीकी इनोवेशन की उर्वरता खो नहीं बैठे!

ऊपर जो लिखा है उन सज्जनों के रोचक पक्ष है. उनकी दक्षता और मानवीय उत्कृष्टता के पक्ष अधिक महत्वपूर्ण हैं. पर उन पक्षों के लिये मुझे बहुत अधिक लिखना पड़ेगा. इसके अलावा कुछ सज्जन और हैं, जिन पर फिर कभी मन बना तो लिखूंगा.

Monday, June 25, 2007

नाई की दुकान पर हिन्दी ब्लॉगर मीट


पिछले तीन हफ्ते से हेयर कटिंग पोस्टपोन हो रही थी. भरतलाल (मेरा भृत्य) तीन हफ्ते से गच्चा दे रहा था कि फलाने नाई से तय हो गया है - वह घर आ कर सिर की खेती छांट देगा. वह नाई जब रविवार की दोपहर तक नहीं आया तो बोरियत से बचने को मैने एक ताजा पुस्तक पकड़ी और जा पंहुचा नाई की दुकान पर. रविवार की दोपहर तक सभी केण्डीडेट जा चुके थे. नाई अकेला बैठा मुझ जैसे आलसी की प्रतीक्षा कर रहा था. मैंने सीधे लांचपैड (नाई की ऊंची वाली कुर्सी) पर कदम रखा.

उसके बाद रुटीन हिदायतें - बाल छोटे कर दो. इतने छोटे कि और छोटे करने पर वह छोटे करने की परिभाषा में न आ सकें. ये हिदायत मुझे हमेशा देनी होती है - जिससे अगले 2-3 महीने तक हेयर कटिंग की जहमत न उठानी पड़े.

जब केवल नाई के निर्देशानुसार सिर इधर-उधर घुमाने के अलावा कोई काम न बचा तो मैने उसकी दुकान में बज रहे रेडियो पर ध्यान देना प्रारम्भ किया. कोई उद्घघोषक बिनाका गीतमाला के अमीन सायानी जैसी आवाज में लोगों के पत्र बांच रहे थे. पत्र क्या थे - लोगों ने अटरम-सटरम जनरल नॉलेज की चीजें भेज रखी थीं. ... भारत और पाकिस्तान के बीच फलानी लाइन है; पाक-अफगानिस्तान के बीच ढिमाकी. एवरेस्ट पर ये है और सागर में वो ... एक सांस में श्रोताओं की भेजी ढ़ेरों जानकारियां उद्घघोषक महोदय दे रहे थे. मुझे सिर्फ यह याद है कि उनकी आवाज दमदार थी और कर्णप्रिय. एक बन्दे की चिठ्ठी उन्होने पढ़ी - "मैं एक गरीब श्रोता हूं. ईमेल नहीं कर सकता " (जैसे की सभी ईमेल करने वालों के पास धीरूभाई की वसीयत हो!). फिर उद्घोषक जी ने जोड़ा कि ईमेल क्या, इतने प्यार से लिखे पत्र को वे सीने से लगाते हैं ... इत्यादि.

उसके बाद माइक उषा उत्थप को. जिन्होने मेरे ब्लॉग की तरह हिन्दी में अंग्रेजी को और अंग्रेजी में हिन्दी को औंटाया. कुछ देर वह चला जो मेरी समझ में ज्यादा नहीं आया. बीच-बीच में गानों की कतरनें - जो जब समझ में आने लगें तब तक उषाजी कुछ और बोलने लगतीं.

खैर मेरी हेयर कटिंग हो चुकी थी. तबतक उद्घोषक महोदय ने भी कार्यक्रम - पिटारा समाप्त करने की घोषणा की. और कहा - आपको यूनुस खान का नमस्कार.

यूनुसखान अर्थात अपने ज्ञान बीड़ी वाले ब्लॉगर! जो मेरे ब्लॉग पर अपनी आवाज जैसी मीठी टिप्पणी करते हैं और जिनके ब्लॉग पर मैं फिल्मों के गीत पढ़ने जाता हूं. वहां गीत तो नही सुने पर अब वे अपनी आवाज में कुछ कहेंगे तो सुनूंगा. हां, अब लगता है कि वे अपने ब्लॉग पर अपने कार्यक्रमों के समय जरूर दें जिससे कि घर पर रेडियो पर सुना जा सके.

मैने नाई को हेयरकटिंग के दस रुपये दिये और लौटते हुये सोचा - दस रुपये में हेयर कटिंग भी हो गयी और ब्लॉगर मीट भी!

Sunday, June 24, 2007

उत्तर – रमानाथ अवस्थी की एक कविता का अंश


कविता हर एक के बस की बात नहीं है. मैं जो कुछ बनना चाहता था और नहीं बन पाया - उसमें काव्य लेखन भी एक आयाम है. इसलिये दूसरों की कविता से मन रमाना पड़ता है. रमानाथ अवस्थी की कविता/गीत मुझे बहुत प्रिय हैं.

समय के विविध रंग देखते देखते समय से एक अजीब सम्मोहन हो गया है. यह कब सुखद हो जाता है और कब कष्टकर - समझ नहीं आता. और बहुत सी ऊर्जा सुखद समय को लम्बा खींचने, दुखद को पलटने तथा दोनो का अंतर समझ समय को उत्तर देने में व्यतीत होती है.

आप फिलहाल इस विषय में अवस्थी जी की कविता के अंश देखें.
सवाल समय करेगा, उत्तर देना होगा!

आसानी से समय किसी को नहीं छोड़ता,
खामोशी के साथ एक दिन हमें तोड़ता,
कभी समय के सागर की कोई चाह नहीं,
और कभी यह करता कोई परवाह नहीं!
बुरे समय को सब-कुछ चना-चबेना होगा!
---
समय हुआ नाराज राम को वन में भेजा
और भरत को पूरा-पूरा राज सहेजा!
समय कभी देवता कभी दानव लगता है,
जो है नहीं सचेत उन्ही को यह ठगता है!
वह क्षण ही सच जब तू निरा अकेला होगा!

मार समय की बहुत बुरी होती है यारों,
अपने कर्मों से ही खुद को यहां संवारो!
पानी में जो डूब रहा है उसे निहारो,
अपनी जान लगा कर उसकी जान उबारो!
बालू में भी हमको नौका खेना होगा!
समय सवाल करेगा उत्तर देना होगा!

Saturday, June 23, 2007

हिन्दी ब्लॉगरी में नॉन-कंट्रोवर्शियल बनने के 10 तरीके

झगड़ा-टण्टा बेकार है. देर सबेर सबको यह बोध-ज्ञान होता है. संजय जी रोज ब्लॉग परखने चले आते हैं, लिखते हैं कि लिखेंगे नहीं. फलाने जी का लिखा उनका भी मान लिया जाये. काकेश कहते हैं कि वे तो निहायत निरीह प्राणी हैं फिर भी उन्हे राइट-लेफ़्ट झगड़े में घसीट लिया गया. लिहाजा वे कहीं भी कुछ कहने से बच रहे हैं. और कह भी रहे हैं तो अपनी जुबानी नहीं परसाई जी के मुह से. जिससे कि अगर कभी विवाद भी हो तो परसाई जी के नाम जाये और विवाद की ई-मेल धर्मराज के पास फार्वर्ड कर दी जाये. लोग शरीफ-शरीफ से दिखना चाह रहे हैं. और श्रीश जी जैसे जो सही में शरीफ हैं, उन्हे शरीफ कहो तो और विनम्र हो कर कहते हैं कि उनसे क्या गुस्ताखी हो गयी जो उन्हे शरीफ कहा जा रहा है. फुरसतिया सुकुल जी भी हायकू गायन कर रहे हैं या फिर बिल्कुल विवादहीन माखनलाल चतुर्वेदी जी पर लम्बी स्प्रेडशीट फैलाये हैं. हो क्या गया है?

हवा में उमस है. मित्रों, पुरवाई नहीं चल रही. वातानुकूलित स्टेल हवा ने हमारा भी संतुलन खराब कर रखा है. हिन्दी पर कोई साफ-साफ स्टैण्ड ही नहीं ले पा रहे हैं. कभी फ्लिप तो कभी फ्लॉप. ज्यादातर फ्लॉप. हमारे एवरग्रीन टॉपिक - कॉर्पोरेट के पक्ष और समाजवाद/साम्यवाद को आउटडेट बताने के ऊपर भी कुछ लिखने का मन नहीं कर रहा. अज़दक जी के ब्लॉग का हाइपर लिंक बना कर लिखें तो कितना लिखें!

ऐसे में, लगता है नॉन-कण्ट्रोवर्शियल बनना बेस्ट पॉलिसी है. इसके निम्न 10 उपाय नजर आते हैं:

  1. अपने ब्लॉग को केवल फोटो वाला ब्लॉग रखें. फोटो के शीर्षक भी दें "बिना-शीर्षक" 1/2/3/4/... आदि.
  2. लिखें तो टॉलस्टाय/प्रेमचन्द/परसाई जी आदि से कबाड़ कर और उन्हे कोट करते हुये. ताली बजे तो आपके नाम. विवाद हो तो टॉलस्टाय/प्रेमचन्द/परसाई के नाम.
  3. समीर लाल जी की 400-500 टिप्पणियां कॉपी कर एक फाइल में सहेज लें. रेण्डम नम्बर जेनरेटर प्रयोग करते हुये इन टिप्पणियों को अपने नाम से बिना पक्षपात के ब्लॉग पोस्टों पर टिकाते जायें. ये फाइल वैसे भी आपके काम की होगी. आप 2-2 डॉलर में बेंच भी सकते हैं. समीर जी की देखा देखी संजीत त्रिपाठी हैं - वो भी हर जगह विवादहीन टिपेरते पाये जा रहे हैं.
  4. आपको लिखना भी हो तो कविता लिखें. ढ़ाई लाइनों की हायकू छाप हो तो बहुत अच्छा. गज़ल भी मुफीद है. किसी की भी चुराई जा सकती है - पूरे ट्रेन-लोड में लोग गज़ल लिखते जो हैं. मालगाड़ी से एक दो कट्टा/बोरा उतारने में कहां पता चलता है. कई लोगों का रोजगार इसी सिद्धांत पर चलता है.
  5. दिन के अंत में मनन करें कहीं कुछ कंट्रोवशियल तो नहीं टपकाया. हल्का भी डाउट हो तो वहां पुन: जा कर लीपपोती में कुछ लिख आयें. अपने लिये पतली गली कायम कर लें.
  6. बम-ब्लास्ट वाले ब्लॉगों पर कतई न जायें. नये चिठ्ठों पर जा कर भई वाह भई वाह करें. किसी मुहल्ले में कदम न रखें. चिठ्ठे रोज बढ़ रहे हैं. कमी नहीं खलेगी.
  7. फिल्मों के रिव्यू, नयी हीरोइन का परिचय, ब्लॉगर मीट के फोटो, झुमरी तलैया के राम चन्दर को राष्ट्रपति बनाया जाये जैसे मसले पर अपने अमूल्य विचार कभी-कभी रख सकते हैं. उसमें भी किसी को सुदर्शन, हुसैन, चन्द्रमोहन, मोदी जैसे नाम से पुकारने का जोखिम न लें.
  8. धारदार ब्लॉग पोस्ट लिखने की खुजली से बचें जितना बच सकें. खुजली ज्यादा हो तो जालिमलोशन/जर्म्सकटर/इचगार्ड आदि बहुत उपाय हैं. नहीं तो शुद्ध नीम की पत्ती उबला पानी वापरें नहाने को.
  9. अगर खुजली फिर भी नहीं जा रही तो यात्रा पर निकल जायें. साथ में लैपटॉप कतई न ले जायें. वापस आने पर फोटो ब्लॉग या ट्रेवलॉग में मन रमा रहेगा. तबतक खुजली मिट चुकी होगी.
  10. हो सके तो हिन्दी ब्लॉगरी को टेम्पररी तौर पर छोड़ दें. जैसे धुरविरोधी ने किया है. बाद में वापस आने का मन बन सकता है - इसलिये अपना यू.आर.एल. सरेण्डर न करें. नहीं तो सरेण्डर करते ही कोई झटक लेगा.
.... आगे अन्य क्रियेटिव लोग अपना योगदान दें इस नॉन-कण्ट्रोवर्शियल महा यज्ञ में. यह लिस्ट लम्बी की जा सकती है टिप्पणियों में.
---------------------
ऊपर का टेन प्वॉइण्टर सुलेख एक तरफ; मुद्दे की बात यह है कि जब ऊर्जा की कमी, समय की प्रकृति का ड्रैग, किसी निर्णय की गुरुता आदि के कारण अपने आप में कच्छप वृत्ति महसूस हो; तो अपनी वाइब्रेंसी का एक-एक कतरा समेट कर, अपनी समस्त ऊर्जा का आवाहन कर उत्कृष्टता के नये प्रतिमान गढ़ने चाहियें. उत्कृष्टता का इन्द्र धनुष ऐसे ही समय खिलता है.
मैं रेलवे का उदाहरण देता हूं. कोई बड़ी दुर्घटना होती है तो अचानक सब खोल में घुस जाते हैं. संरक्षा सर्वोपरि लगती है. तात्कालिक तौर पर यह लगता है कि कुछ न हो. गाड़ियां न चलें. उत्पादन न हो. जब एक्टिविटी न होगी तो संरक्षा 100% होगी. पर 100% संरक्षा मिथक है. असली चीज उत्पादन है, एक्टिविटी है. संरक्षा की रिपोर्ट पर मनन कर अंतत: काम पर लौटते हैं. पहले से कहीं अधिक गहनता से लदान होता है, गाड़ियां चलती हैं, गंतव्य तक पहुंचती हैं. संरक्षा भी रहती है और उत्पादन का ग्राफ उत्तरमुखी होने लगता है. कुछ ही महीनों में हमारी रिपोर्टें उत्पादन में रिकॉर्ड दर्ज करने लगती हैं.
ये हिन्दी ब्लॉगरी कोई अलग फिनॉमिना थोड़े ही होगा? क्यों जी?

Friday, June 22, 2007

फ्री-सॉफ्टवेयर : एक नियामत है मोजिल्ला फॉयरफॉक्स

भगवान ने फ्री फण्ड में नियामतें दी हैं वायु, जल, धरती.... इसी तरह सॉफ्टवेयर में मिला है फॉयरफॉक्स. जब कल श्रीश जी ने कहा कि फॉयरफॉक्स में शब्दकोश का सर्च इंजन उसपर चिपकाया जा सकता है (देखें मेरे ब्लॉग पर कल की गयी उनकी टिप्पणी) तो मैने देखा कि वह मैने पहले ही डाउनलोड कर रखा है. फ्री की चीज पर नजर जाती नहीं. यही दो चार डालर दे कर लिया होता तो घिस कर इस्तेमाल करते.

फॉयरफॉक्स जमाने से प्रयोग करता हूं और यह मुझे सबसे बढ़िया ब्राउजर लगता है. खुलता दन्न से है. गूगल सर्च टूल बार इण्टरनेट एक्स्प्लोरर की गूगल टूल बार से बेहतर है. इसके अलावा ऐड-ऑन सॉफ्टवेयर की बड़ी च्वाइस है. हिन्दी में कई ब्लॉग बढ़िया दिखते है, पर कुछ में मुझे एक्स्प्लोरर पर जाना होता है. इस को लेकर ज्यादा परेशानी नहीं है. अपने 90% काम के लिये मैं फॉयरफॉक्स का प्रयोग करता हूं. कोई आश्चर्य नहीं कि लगभग 24% ब्राउजर यातायात फॉयरफॉक्स के पास है.

स्टैटकाउण्टर वाले मुझे यह भी बताते हैं कि लोग कौन से ब्राउजर से मेरे ब्लॉग पर पहुंचते हैं. यह देख कर मुझे आश्चर्य होता है कि मोजिल्ला फॉयरफॉक्स प्रयोग करने वाले भी 20-22% ऐसे हैं जो उसके पुराने संस्करण से काम चला रहे हैं. मोजिल्ला फॉयरफॉक्स का 2.0 सीरीज का ब्राउजर उपलब्ध है पर काफी लोग मोजिल्ला फॉयरफॉक्स 1.5 या 1.0.7 का प्रयोग कर रहे हैं. गूगल वाले अपनी टूल बार के साथ मोजिल्ला फॉयरफॉक्स के लेटेस्ट संस्करण को डाउनलोड की सुविधा देते हैं. उसका उपयोग करने में बुद्धिमानी है. ऐसा फॉयरफॉक्स रेफरल ऐडवर्टिजमेंट हमने भी बाजू में अपने ब्लॉग पर लगा रखा है यह बताने को कि हम फॉयरफॉक्स के मुरीद हैं. वैसे फ्री-फण्ड के सॉफ्टवेयर में कई बार चोट हो गयी है जब उसके साथ वायरस/स्पाईवेयर उपहार में मिल जाते हैं. पर गूगल-फॉयरफॉक्स के साथ उसका खतरा नहीं.

सी-नेट रिव्यू में इण्टरनेट एक्स्प्लोरर 7 तथा फॉयरफॉक्स 2 का तीन जजों द्वारा तुलनात्मक आकलन किया गया है. कुल 5 मुद्दों पर आकलन है :

  • इंस्टॉलेशन की दिक्कतें
  • लुक एण्ड फील फैक्टर तथा बढ़ते प्रयोग कर्ता
  • टैब में ब्राउजिंग
  • अपग्रेडिंग और नये फीचर
  • सिक्यूरिटी और परफार्मेंस

तीनो जजों ने इन सभी मुद्दों पर फॉयरफॉक्स को बेहतर पाया है. अत: आपके पास अगर फॉयरफॉक्स नहीं है तो अजमायें, बढ़िया लगेगा. और साथ में श्रीश का शब्दकोश वाला सर्च जरूर डाउनलोड कर लीजियेगा.

मैं जानता हूं कि यह लिख कर मैं ई-पण्डित के कार्य क्षेत्र में अनावश्यक दखल दे रहा हूं. पर कभी-कभी सामान्य ज्ञान वाला भी विशेषज्ञों वाले टॉपिक पर (दोयम दर्जे का ही सही) लिख तो सकता है वह भी तब जब आप वास्तव में "फील-गुड़-फैक्टर" महसूस करते हों!

Thursday, June 21, 2007

हिन्दी और अंग्रेजी में छत्तीस का आंकड़ा क्यों है?

छत्तीस का प्रयोग देवनागरी आकड़ों में तब होता है जब तनातनी हो. अंग्रेजी और हिन्दी में झगड़ा होने का कोई कारण नहीं होना चाहिये. दोनो अपने अपने प्रकार से समृद्ध भाषायें हैं. अंग्रेजी के नाम से बिदकना शायद इसलिये होता है कि कुछ लोग अंग्रेजी को शासन तंत्र की भाषा मानते हैं. पर अब शासन नहीं, उत्तरोत्तर बाजार मजबूत हो रहा है. चलेगा वह जिसे जनता वापरेगी. चाहे वह हिन्दी हो या अंग्रेजी.

मैने पहले परिचर्चा में अंग्रेजी का प्रयोग सम्प्रेषण की सहूलियत के लिये किया था.तब हिन्दी में टाइप करना मेरे लिये बहुत झंझट का काम था. पर पिछले कुछ दिनों से इस ब्लॉग पर अंग्रेजी का
प्रयोग बतौर टीज़र कर रहा था. तभी कल अमित और श्रीश का नाम लेकर लिखा.

श्रीश मैं ऑन रिकार्ड कहना चाहूंगा निहायत शरीफ इंसान हैं. वे टीज़र पर छैलाये नहीं. लाल-पीले नहीं हुये. उनकी जगह मैं खुद होता, जिसे (अगर) हिन्दी का जुनून होता तो, ताल ठोंक मैदान में आ गया होता. मैं अंग्रेजी-हिन्दी में फ्लिप-फ्लॉप न करने का निर्णय इसलिये लेता हूं कि मैं श्रीश को प्रोवोक नहीं कर पाया!

खालिस हिन्दी में लिखने की और सोचने की अपनी लिमिटेशन हैं. मेरे पास केवल कामिल बुल्के की डिक्शनरी है, जो सटीक हिन्दी शब्द सुझाने में कई बार गच्चा दे चुकी है. लिहाजा अंग्रेजी को सीधे देवनागरी में लिखने के और कोई चारा नहीं बचता.

कल जो महानुभावों ने चलेबल (चल सकने योग्य) माना है वह शायद यह है कि अंग्रेजी की संज्ञा-सर्वनाम-क्रिया भले हो, पर व्याकरण/वाक्य विन्यास और लिपि हिन्दी की अवश्य हो. अगर हिन्दी ब्लॉगरी पंचायत इसे रेटीफाई करती है तो मेरे जैसा जन्मजात रेबल अपने आप को रबल नहीं सफल मानेगा!

प्रियंकर जी बता सकते हैं कि "कामिल बुल्के" के बाद उससे बेहतर अंग्रेजी-हिन्दी कोश कौन सा आया है. सरकारी प्रयास तो मक्षिका स्थाने मक्षिका वाले अनुवाद के होते हैं. उनके अनुसार लिखें तो लगता है कि एकादशी व्रत के दिन अलोना (बिना नमक-मिर्च-मसाले का) भोजन बना रहे हैं. लिहजा हिन्दी बरास्ते अंग्रेजी लिखने वालों की मजबूरी धुर-हिन्दी वाले ब्लॉगर समझने की कृपा करें.

असल में हिन्दी-अंग्रेजी में लाग-डांट होने का कारण सिर्फ यह है कि अंग्रेजों ने यहां राज किया. अन्यथा, अगर फ्रेंच में लिखा होता तो फ्रेंच पर व्यंग न होता; मात्र अनुरोध होता कि जरा साथ में हिन्दी अनुवाद भी लिख दिया करें!

कल की टिप्पणियां पढ़ने पर एक विचार मन में आया है - जो सम्भव है नितांत व्यक्तिगत असुरक्षा की भावना का प्रगटीकरण हो. बहुत से ऐसे लोग होंगे जो गाली वाले चिठ्ठे को निकाले जाने पर अभिव्यक्ति की आजादी के आधार उसे गलत निर्णय बताने और वापस लेने के लिये शायद लामबन्द हो जायें (या हैं), पर वे हमारे रोज के चार लाइन अंग्रेजी में ठूंसने के मुद्देपर हमें हिन्दी ब्लॉगरी से बाहर करने को सात-आठ दिन में ही धर्मयुद्ध/जिहाद बोलने से गुरेज नहीं करेंगे. और निकाल बाहर करने की दशा में, बावजूद इसके कि अभी शतकवीर होने की बधाई टिप्पणियां मिल रही हैं, किसी कोने से कोई सपोर्ट मिलने वाला नहीं है. हिन्दी ब्लॉगरी में कुनबापंथी का बड़ा स्थान है पर किसी की पर्सनल इडियोसिंक्रेसी के प्रति टॉलरेंस जरा कम ही है!

भाइयों, हिन्दी मस्त भाषा है. अंग्रेजी भी मस्त भाषा है. हिन्दी में दूध पिया है. अंग्रेजी में सूप पिया है. ऑलमण्ड सूप-सैण्डविच में भी पौष्टिकता और दिव्य अनुभूति होती है. अत: मुझे हिन्दी-अंग्रेजी में छत्तीस नहीं तिरसठ का आंकड़ा लगता है. दोनों साथ-साथ जियें. बल्कि दोनो के फ्यूज़न से ब्लॉग-हिन्दी (ब्लिन्दी) बने. यही कामना है!

ब्लॉग पर लिखने में न मुझे लेखक कहलाने की चाह है न अपने को हिन्दी/अंग्रेजी फेनॉटिक साबित करना है. जब तक मन चाहे ब्लॉग पर मडल थ्रू (muddle through) करना है!

इति हिन्दी-अंग्रेजी टण्टा पुराण. भूल-चूक माफ. सफेद झण्डा फहराया जाये!

Wednesday, June 20, 2007

नारद का कलेवर अखबार जैसा करें जनाब!

मैं अखबार के स्पोर्ट्स और फिल्म के पन्ने पर शायद ही जाता होऊं. भरतलाल (मेरा भृत्य) केवल फिल्म के पन्ने निहारता है. नगर/महानगर/अंचल की खबरें मेरे पिताजी पढ़ते हैं. यानि हर एक की पसन्द का अपना पन्ना. अखबार को ले कर घर में कोई चौंचियाहट नहीं है.

वही हाल नारद का होना चाहिये. हिन्दू का पन्ना; मुसलमान का पन्ना, सेकुलर का पन्ना; बच्चों का पन्ना, बाड़मेर पुलीस का पन्ना, खेल का पन्ना, रेल का पन्ना, बैन का पन्ना, कविता का पन्ना, सभ्य का पन्ना, गाली देने वाले का पन्ना.... सब अपने ब्लॉग को मन माफिक पन्ने के ऊपर पंजी करा लें. या फिर सहूलियत हो कि लिख्खाड़ ब्लॉगर लोग जो दिन में 5 पोस्ट लिखें और वे पांच अलग अलग पन्नों पे टंग जायें – उनके टैग के मुताबिक. उनकी सहूलियत के लिये दो चार और पन्ने क्रियेट कर दिये जायें - भुतहे पन्ने जहां कभी कोई भूले भटके ही जाता हो.

मेरा कर्तव्य नारद के वर्तमान झाम का सॉल्यूशन सोचना था. तकनीकी सिर फोड़ी जीतेन्द्र जैसे करें. वैसे भी लोग उनको तलाश रहे हैं! कुछ बाड़मेर पुलीस वाले ब्लॉग पर एफ.आई.आर. न कर आये हों!

कैसी लगी ये मुन्नी (मिनी) पोस्ट? जब प्रिय लोगों ने टार्गेट दिया है 1000 पोस्ट का तो ऐसी मुन्नी पोस्ट ही बन पायेंगी!
------------
Joke apart, I feel, some kind of segregation will help. Once you have proliferation and variety in the content and do not want to police the Blog content (which otherwise you cannot do), the better option is sorting the Blogs and letting people decide where they want to go or what they want to read.
At present energy is wasted in clicking and finding that you have come to a post which is not in synchronism with your thought. But once you come to a post, like an obsessive blogger,you read and you fume and you comment and then suck your thumb because your comment will not make the chap change his views!
Sarcasm in comments, if avoided, can serve the purpose to a large extent. A post on Effective Commenting by Mr Sameer Lal is long over-due!
लगता है ब्लॉग में अंग्रेजी ठूंसने पर अमित और श्रीश अपनी कृपाणें ले कर आने वाले होंगे!

Tuesday, June 19, 2007

हिन्दी ब्लॉग लिखने वाले एक ही विषय को सड़ा मारते हैं

पॉपुलर ब्लॉग पोस्टों का मुआयना कर लीजिये. पहले चल रहा था ब्लॉगर मीट. वह खाते खाते अचानक चालू हो गया नारद - अभिव्यक्ति की आजादी - बैन/सैन. अब जिसे देखो, वही बड़ा क्रांतिकारी नजर आ रहा है. ज्यादातर के तो हेडिंग में ही यह परिलक्षित हो जाता है. आपको सहूलियत होती है कि आप उस प्रकार की पोस्ट चाहें तो स्किप कर दें.

पर अज़दक, जो छल्लेदारतम भाषा में लिखते हैं; इस प्रकार की च्वाइस नहीं देते. उन्होने पता नही कैसा ठाकुर-बच्चे-पंडित वाला हैडिंग दिया कि आभास ही न हो पाया कि ये वही खटराग है. उनकी पोस्ट भी केनोपनिषद की तरह सम्भल-सम्भल कर पढ़नी पड़ती है जाने किस शब्द/वाक्य में क्या मीनिंग हो. मैं जब तीन चौथाई पोस्ट पढ़ गया तब स्पष्ट हुआ कि पोस्ट के ठाकुर नारद वाले माफ़िया लोग हैं. पण्डित उनकी हां में हां मिलाने वाले भांड़. चड्डी वाले मोगली क्या हैं यह आइडेण्टीफाई करने का पेशेंस नहीं था. मैने बाकी पोस्ट स्किप कर दन्न से दिल जलाऊ टिप्पणी लिखी और सटक लिया.

आज के 250 शब्दों में यह चर्चा छेड़ने के क्या निहितार्थ है? मैं टू-द-प्वॉइण्ट बताता हूं :
  • अज़दक का लेखन, छल्लेदारतम होने के बावजूद पसन्द है.

  • पर यह सख्त नापसन्द है कि वे छल्लेदार टाइटल दे कर घिसे टॉपिक को ताजा माल बता कटिया फंसायें. तीन चौथाई पोस्ट में भूमिका बांधें और फिर बतायें कि वे भी क्रांतिकारी है तथा अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में है. एक फ़ीड एग्रीगेटर को इतना भाव देना या उसे फ़साड बना खुद इतना भाव लेना अभिव्यक्ति की आजादी को दुअन्नी का रेट लगाने जैसा होगा.

  • ये सारा हिन्दी चिठ्ठा संसार जो पाण्डवों के पांच गांव की प्रस्तावित रियासत से बड़ा नही है, सड़ रहा है नारद-फारद/बैन-सैन/अभिव्यक्ति पर सेंसर/हमें निकालो/माड्डाला/होहोहोहो छाप पोस्टों से. बहुत हो गया. की-बोर्ड किसी और काम लाओ. आलोक पुराणिक छाप कुछ मस्त-मस्त लिखो. ज्यादा इण्टेलेक्चुअल (सॉरी पुराणिकजी, इसका मतलब यह नहीं कि आप इण्टेलेक्चुअल छाप नही लिखते) लिखने का मन है तो भी विषयों की क्या कमी है? एक ढ़ेला उठाओ हजार टॉपिक दबे पड़े हैं.

  • और चड्डी वाले या बिना चड्डी वाले इतने भी बकलोल नहीं है. जब अज़दक जैसे ठाकुर (नाम में सिंह लगा रखा है जी) की पोस्ट झेलते हैं, तो इतना ग्रे मैटर रखते ही हैं कि इंटेलेक्चुअल छाप समझ पायें. कोई ब्लॉगरी मे आया है तो "चमेली तुझे गंगा की कसम" (सॉरी, मुझे करेण्ट फ़िल्मों के नाम नहीं मालूम) जैसी फ़िल्म के डॉयलॉग से बेहतर समझ वाला होगा!

  • हिन्दी वालों को फेंट कर लस्सी बनाना नहीं आता. वे फेंटते चले जाते हैं जब तक मक्खन नहीं निकल आता. फिर वे मक्खन फैंक कर लस्सी के नाम पर छाछ परोस देते हैं.

बस; 250 हो गये. वर्ना दिल इतना जला है कि आज सुकुलजी को बीट करने का मन था पोस्ट की लम्बाई में!

_________________

Incidentally, this is my 100th Post published on this Blog. Not a bad performance, but not very spectacular too. I could have done better, had I not had the prejudices which I started with. One was that, that Hindi Bloggery is to narrow and too compartmentalized. It is divided in to Ghettos, no doubt. But to make a space for yourself was not as difficult as I thought initially. Contrary to the common perception, I am liking the present tussle between Right and the Left/Muslims/Secular/Pseudo-secular.

Monday, June 18, 2007

ढेरों कैम्प, ढेरों रूहें और बर्बरीक

बर्बरीक फिर मौजूद था. वह नहीं, केवल उसका सिर. सिर एक पहाड़ी पर बैठा सामने के मैदान पर चौकस नजर रखे था.

ढेरों रूहों के शरणार्थी कैम्प, ढेरों रूहें/प्रेत/पिशाच, यातना/शोक/नैराश्य/वैराग्य/क्षोभ, मानवता के दमन और इंसानियत की ऊंचाइयों की पराकाष्ठा सब का स्थान और समय के विस्तार में बहुत बड़ा कैनवास सामने था. हर धर्म-जाति-वर्ग; आदिमानव से लेकर आज तक के आतंकवादी और निरीह मानवों की रूहों का प्रतिनिधित्व था उस मैदान में. बर्बरीक सब देख रहा था जैसे उसने महाभारत को देखा था.

बर्बरीक साक्षी था. बर्बरीक दृष्टा था समय और स्थान के अनंत से अनंत तक के विस्तार का. वह सत्य बता सकता था कि क्या हुआ और क्या हो रहा है. पर सब अपने में मशगूल थे. मायें बच्चों से मिल रही थीं. आतंकी रूहें अट्टहास करती घूम रही थीं. काइंया नेताओं के प्रेत शकुनि की तरह चालें सोच रहे थे. पर वहां किसी की कुटिलता से किसी और को फर्क नहीं पड़ रहा था वे सब रूहें जो थीं.

Barbareek is a mythological character in Mahabharata. He was the son of Ghatotkacha and grandson of Bhima. He wanted to participate in Mahabharata from the weaker side. Lord Krishna sensing that he was too powerful, removed him from the fight tactfully. He asked Barbareek his head in charity. Barbareek complied.

Krishna was pleased with the sacrifice and blessed him so that he could watch the whole battle from the hillock, where his head was placed.

The Talking Head (Barbareek) is a symbol for a less confined, more global perspective. All of us see the world, wars and annihilation limited by our prejudices, our experiences and expectations. And when Barbareek voices his opinions, we see it quite differently. When he speaks, we realize the Pandavas and Kauravas are tiny elements of a God’s greater canvas. The Mahabharata is not just about one kingdom, it is about cosmic order…

अच्छी और बुरी रूहें अलग अलग मशगूल थीं पर एक जगह उनमें वार्तालाप हो ही गया. बोस्निया की एक मां और चेचेन्या के एक आतंकी में दुआ-सलाम हो गयी. दोनो में एक सूत्र तो मिला कि दोने एक ही इलाके के थे. दोनो में बात चली कि कौन जीता इस हत्या और बर्बरता के खेल में. पास ही एक भारतीय भी खड़ा था. महाभारत काल का प्रेत. उसे अभी तक मुक्ति न मिल पायी थी. दोनो को सुन कर बोला कौन जीता? यह तो बर्बरीक ही बता सकता है. वह तो मेरे जमाने से दृष्टा रहा है सभी युद्धों, आतंकों, हत्याओं और त्रासदियों का. उसी से पूछो.

बोस्निया की मां और चेचेन्या का आतंकी बर्बरीक के पास गये. सवाल किया. दोनो को देख बर्बरीक का सिर हंसा वैसे ही जैसे महाभारत काल में हंसा था. फिर बोला एक ही छाया थी, हर जगह. इस ओर भी; उस ओर भी. जो मार रही थी और मर रही थी. वही तलवार बन रही थी और वही ढ़ाल भी बना रही थी. वही बच्चे को दूध पिलाने को आतुर थी और वही कोख फाड़ कर अजन्मे के दो टुकड़े भी कर रही थी.

फिर कुछ रुक कर बर्बरीक ने कहा जीतने और हारने का कोई मतलब ही नहीं है. वही एक छाया है जो हार भी रही है, जीत भी रही है और हार-जीत के परे भी है.

बर्बरीक ने दोनो को इस प्रकार देखा मानो कह रहा हो यह समझने के लिये उसकी तरह लम्बे समय तक देखते रहना पड़ता है.

Sunday, June 17, 2007

अफसरी के ठाठ और आचरण नियमों की फांस

कल मैने अपनी मजबूरी व्यक्त की थी कि मै‍ ब्लॉग पर एक सीमा तक लिख सकता हूं, उसके आगे बोलने के लिये मुझे अपने रिटायरमेण्ट तक रुकना पड़ेगा. बहुत से लोगों ने टिप्पणियों में कहा कि वे मेरे डिस्क्लोजर के लिये मेरे रिटायरमेण्ट का इंतजार नहीं कर सकते. वैसे मुझे कोई मुगालता नहीं है - मेरी पोस्ट की शेल्फ-लाइफ लोगों की याददाश्त में कुछ दिन भर है - एक सप्ताह भी नहीं होगी!

प्रारम्भ आलोक पुराणिक जी ने किया. मेरे लटकाने को टीटीई का लटकाने के समतुल्य माना. टीटीई तो शायद कुछ और कंसीडरेशन से (जिस कंसीडरेशन की शिकायतें मैं नौकरी के प्रारम्भ से डील करता आया हूं और जो कन्सीडरेशन जनता सहर्ष करने को तत्पर होती है!) लटकाना समाप्त कर आपको यह अनुभूति करा देता हो :

सकल पदारथ हैं जग माहीं; बिन हेर-फेर नर पावत नाहीं.

पर मेरे पास वह कंसीडरेशन नहीं है. मैं सरकारी नौकरी के आचरण नियमों और व्यक्तिगत नैतिकता से बंधा हूं. पुराणिक जी ने मेरी पोस्ट पर एक जगह टिपेरा था कि उनकी लम्बी टिप्पणी बराबर लेख के उन्हे 2000 रुपये मिलते हैं. मेरे थोड़े से घटिया लेखन के अगर 1000 रुपये प्रति लेख भी मिलें तो मै इस नौकरी को बेहिचक छोड़ कर लेखन प्रारम्भ कर सकता हूं. और तब कई लोगों की कई बखिया उधेड़ कर कई चिन्दियां सिल सकूंगा. वर्ना अभी तो यह दशा है कि लिखे का 30% तो मन मार कर रोक लेना पड़ता है; कहीं सरकारी आचरण नियम का उल्लंघन न हो जाये!

The Conduct Rules which exist, need to undergo change as more and more accessibility to Internet as form of expression is available to people in general and Government Officials in particular. The personal diaries which we maintain are going to be increasingly on the net in which people can peep into. And there shall be progressive tendency in the Officials to speak out.
I think, in the years to come; some changes will do take place. Right To Information Act has started playing some role in opening up. Though initial Officials' reaction is to cover-up.
With society opening up, salaries improving, corruption going down and privatisation/globalisation making headway; we are going to be in new set of working equations.

मसिजीवी जी ने बेनाम लेखन का ऑप्शन सुझाया है. बड़ा सीधा सा है. पर पेंच यही है कि भारत ने एक बुढ़ऊ पैदा किये थे, जिनका पोता अभी गुजरा है. उनका कहना था कि आप कम्पार्टमेंटलाइज्ड जीवन नहीं जी सकते. छ्द्म और बेबाक एक साथ नहीं हो सकते. उन बुढ़ऊ से ड़र लगता है क्योकि उस बुढ़ऊ की आवाज अपने अन्दर की आवाज है जिसे फ़ेस करना एक चैलेन्ज होता है. इसीलिये मैने अपने ब्लॉग को सेल्फ-एडवर्टाइजमेण्ट की सीमा तक खुला रखा है. उसमें अगर विरोधाभास हैं तो वे मेरे व्यक्तित्व के छेद हैं. जो मेरे सोच की गरीबी और फटेहाली बयान करते हैं. बेनाम लेखन से वह फटेहाली आसानी से छिप सकती है. और इंटेलेक्चुअल पाइरेसी कर तो बड़े मजे से अपने को बुद्धिजीवियों की कतार में लाया जा सकता है. मगर अंतत: क्या होगा सब ठाठ पड़ा रह जायेगा जब लाद चलेगा बंजारा.

मुझे हिन्दी लिखने का तात्कालिक जुनून अवश्य है पर रामकृष्ण परमहंस की दशा नहीं है कि कैवल्य प्राप्ति हो गयी हो और हांक लगा रहा होऊं कि आओ सुपात्रों मेरा रहस्य शेयर करो!

जो कुछ सरकारी नौकरी के कारण नहीं बोल सकता वह मानवों के छुद्र स्वभाव, साम्प्रदायिकता से निपटने का नीतिशास्त्र, राजनैतिक दखलन्दाजी और सरकारी नीतिगत मामलों से सम्बन्धित हैं. उनका क्या किया जाये? वे रहेंगे ही. अन्यथा मेरे लेखन से जीवनयापन भर को मिले तो नौकरी (नौकरी का सरकारी ताम-झाम छोड़ना बहुतों को रुलाई ला देता है!) छोड़ आलोक पुराणिक से जुगलबन्दी सहर्ष की जा सकती है!
(दोनो महानुभावों की फोटो उन्ही के ब्लॉग से उखाड़ी हैं. वहां फिर जम आयी होंगी. फिरभी, अगर उन्हे आपत्ति हो तो मैं वापस कर दूंगा.)

Saturday, June 16, 2007

बहुत अच्छा कहा खालिद मसूद जी!

पाकिस्तान में श्री खालिद मसूद, चेयरमैन, काउंसिल ऑफ इस्लामिक आइडिय़ॉलाजी ने कहा है कि हड़पी जमीन पर बनाये गये मदरसे और मस्जिदें शरीया के खिलाफ़ हैं. वहां की गयी प्रार्थना स्वीकार नहीं की जायेगी. कितने नेक विचार हैं. भारत में हर नुक्कड़-गली में हनुमान जी के मन्दिर, शिवजी की पिण्डी, पीर बाबा की मज़ार सार्वजनिक स्थल के अतिक्रमण के टाइम टेस्टेड फार्मूला हैं. अगर यहां भी देवबन्द वाले और वीएचपी वाले कह दें कि सार्वजनिक स्थल का अतिक्रमण कर बनाया धर्म स्थल खुदा/भगवान जी को स्वीकार्य नहीं होगा और वहां की गयी इबादत/पूजा केवल कुफ/आसुरिक होगी तो यातायात और रिहायश की धर्मनिरपेक्ष और बड़ी समस्यायें हल हो जाये!
The news item in Expressindia quoted in above Hyper Link:
'Mosques on encroached land un-Islamic'
Islamabad, June 15: A top Islamic organisation in Pakistan has said mosques and madrassas, including Jamia Hafsa that has been involved in a stand-off with the government over its attempt to forcefully implement Sharia, built on encroached land were considered illegal in Islam and ‘prayers offered there would not be accepted’.
Khalid Masud, Chairman of the Council of Islamic Ideology (CII), said all mosques and madrassas (seminaries), including Jamia Hafsa, built on encroached land were un-Islamic, and ‘prayers offered there are not accepted’.
हनुमान जी शरीफ से देवता हैं. किसी कोने में टिका दो - बेचारे स्थापित हो कर वरदान बांटने लगते हैं. शिव लिंग और उसके ऊपर मटकी से गिरता पानी जुंये भरे बालों वाले गंजेडियों की पनाह/अड्डा बन जाता है. पीर बाबा की मजार पर चादर चढ़ने लगती है. लोबान जलने लगता है. अजीबो-गरीब पोशाक में एक बन्दा मुरछल घुमाते हुये लोगों को अभुआ कर (हिस्टिरिकल बना कर) जिन्न उतारने लगता है. इस प्रक्रिया में जमीन का बेशकीमती टुकड़ा दब जाता है धार्मिक उन्माद की भेंट!
यहां भारत में भी एक नेक खालिद मसूद की दरकार है - और उनके हिन्दू क्लोन की भी!

मैं आपको अपना अनुभव सुनाता हूं.
स्टेशन के सामने व्यापक मॉडीफिकेशन हो रहा था. तोड़-फोड़ करने में एक मजार निकल आई और एक हनुमान जी का मन्दिर. मजार कोने पर थी. पड़ी भी रहती तो हम अपना प्लान बदल कर काम चला सकते थे. पर हनुमान जी तो बीच सड़क में आ रहे थे. लिहाजा मेरे जिम्मे काम आया कि मैं दोनो समुदायों से समझौता वार्ता कर समाधान निकालूं. मैं जब मौके पर पंहुचा तो मेरे आने का समाचार सुन हनुमान चालिसा का पाठ माइक पर तेज हो गया. पहले मैं मजार के पास गया तो एक बन्दा वज्रासन जैसी मुद्रा में झूम-झूम कर कपड़े में लिपटी किसी किताब को खोल कर उसमें से पढ़ने लगा. मैं जितना नजदीक पंहुचा, उसका धड़ और ज्यादा स्विंग करने लगा. अनेक मुसलमान मजार पर आते-जाते नजर आ रहे थे. एक आदमी मेरे पास आ कर पीर बाबा का विवरण देने लगा तो मेरे साथ का स्टेशन मैनेजर बुदबुदाया - "पिछले दस साल से यहां हूं मै. अबतक तो मेरे घर की चार दीवारी में यह कब्र थी. पहले बताते थे कि अंग्रेज स्टेशन मास्टर की रखैल की है, और अब तोड़ने की बारी आयी तो पीर बाबा की हो गयी! आजतक किसी ने दिया तक नहीं जलाया और अब भीड़ चली आ रही है!"
हनुमान जी के पास तो और बड़ा नाटक था. ज्यादा से ज्यादा जमीन घेरने को बड़ी कनात लगा कर श्रद्धालु जै - श्रीराम की अनवरत नारे बाजी कर रहे थे. कुछ लोग तो रिपीटेड हनुमान चालिसा पढ़ रहे थे. दृष्य ऐसा था कि हनुमान जी तो क्या, उनकी पूंछ भी नहीं सरकाई जा सकती थी.
हिन्दू और मुसलमान - दोनो में गजब का उन्माद और गजब की श्रद्धा थी. यह श्रद्धा एक दूसरे समाज पर प्वाइण्ट स्कोर करने, मौके की जमीन दबाने और आने वाले चुनाव के लिये मुद्दा क्रियेट करने के लिये थी.
आगे का नेगोशियेशन कैसे चला वह मैं ही जानता हूं. दस साल बाद, अगर रिटायर होने पर ब्लॉगरी करता रहा तो बताऊंगा.

Friday, June 15, 2007

रोज दस से ज्यादा ब्लॉग-पोस्ट पढ़ना हानिकारक है

स्टेटेस्टिकली अगर आप 10 ब्लॉग पोस्ट पढ़ते हैं तो उसमें से 6.23 पोस्ट सिनिकल और आत्मकेन्द्रित होंगी. रेण्डम सैम्पल सर्वे के अनुसार 62.3% पोस्ट जो फीरोमोन स्रवित करती हैं, उनसे मानसिक कैमिकल बैलेंस में सामान्य थ्रेशहोल्ड से ज्यादा हानिकारक परिवर्तन होते हैं. इन परिवर्तनो से व्यक्ति में अपने प्रति शंका, चिड़चिड़ापन, लोगों-समाज-देश-व्यवस्था-विश्व के प्रति सब निस्सार है जैसे भाव बढ़ने लगते हैं. अगर यह कार्य (यानि अन-मोडरेटेड ब्लॉग पठन) सतत जारी रहता है तो सुधार की सीमा के परे तक स्वास्थ बिगड़ सकता है. मानव उत्तरोत्तर होने वाले तकनीकी विकास की यह कीमत अदा करने लगा है.

न्यूरो-साइकॉलॉजिकल स्टडीज अभी तक अंतिम निर्णय पर नहीं पंहुच सकी हैं, पर डा. जैफ एलीबियॉन के अनुसार उस कैमिकल स्ट्रेण्ड (जिसे उन्होने ब्लोजिनोलोक्स कहा है) की पहचान कर ली है. उनका कहना है कि ब्लोजिनोलोक्स स्ट्रेण्ड साउथ एशियन देशों में जहां अब ब्लॉग लिखने-पढ़ने का चलन बढ़ रहा है, बड़ी तेजी से म्यूटेट होते पाये गये हैं. उनके अनुसार यह बड़ी चिंता का विषय है.

डा. एलीबियॉन के अनुसार लोगों को प्रतिदिन ब्लॉग पोस्ट पढ़ने का कोटा कम कर 10 से नीचे कर देना चाहिये. ब्लॉग पोस्ट के चयन में भी अगर लोग सावधानी बरतें और जाने-पहचाने ब्लॉगों पर ज्यादा जायें और सर्च इंजन से अथवा वैसे भी रेण्डम चयन की गयी पोस्ट पढ़ने के नशे से बचें तो ब्लोजिनोलोक्स के स्ट्रेण्ड्स बढ़ने में चेक लग सकता है.

फुट नोट : ब्लोजिनोलोक्स और डा. जैफ एलीबियॉन के बारे में मै हाइपर लिंक मिस कर रहा हूं. शायद यह था. पर यह ठीक काम नहीं दे रहा. आप सर्च इंजन से खोजने का कष्ट करें और पता चलने पर मुझे भी बताने का कष्ट करें :-)

Thursday, June 14, 2007

देश में अमन है, चिठ्ठों में अराजकता

एक चिठ्ठा निकाल दिया गया नारद की फीड से. उसकी भाषा देख कर तो लगा कि उचित ही किया. व्यक्ति लिखने को स्वतंत्र है तो फीड-एग्रीगेटर समेटने में. मुझे उस बारे में चौपटस्वामी/प्रियंकर की तरह बीच बचाव करने/पंच बनने का कोई मोह नहीं है. मेरे विचार से जब तर्क और सम्वेदना में द्वन्द्व हो – तो तर्क की चलनी चाहिये. प्रशासन में मेरे सामने जब अथॉरिटी और कम्पैशन में द्वन्द्व होता है तब मैं अथॉरिटी को ऊपर रखता हूं. उसमें फिर चाहे कर्मचारी निलम्बित हो या नौकरी से जाये; मोह आड़े नहीं आता. फीड-एग्रीगेटर के पास ऐसी अथॉरिटी है कि उसके प्युनिटिव एक्शन से इतना सेंटीमेण्टल रिप्रजेंटेशन इतने सारे ब्लॉगों/टिप्पणियों मे दिखे - यह मुझे अजीब लगता है. नारद वालों की अथॉरिटी से ईर्ष्या भी होती है. काश मेरे पास भी ऐसा फीड-एग्रीगेटर होता!

मेरे तीन ऑब्जर्वेशन हैं -
  1. देश में अमन चैन है – कमोबेश. तो चिठ्ठों में यह अराजकता और जूतमपैजार क्यों है? हर आदमी चौधरी (जीतेन्द्र से माफी!) क्यों बन रहा है? असगर वजाहत की कथा – टीज़ करने को त्रिशूल का प्रतीक – क्यों फंसाया जा रहा है बीच में? असगर जी शरीफ और नॉन-कंट्रोवर्शियल इंसान होंगे; पर उनकी कहानी का (कुटिलता से) दुरुपयोग क्यों हो रहा है? भाईचारे का भी वृहत साहित्य है – उसकी ज्ञान गंगा क्यों नहीं बहाई जा सकती? इतिहास देखें तो कौन सा धर्म है जिसमें किसी न किसी मोड़ पर बर्बरता न हो. फिर हिन्दू और मुस्लिम बर्बरता को अलग-अलग खेमों में अलग-अलग तराजुओं मे डण्डी मार कर क्यों तोला जा रहा है? कोई आदमी केवल ब्लॉग पढ़े तो लगेगा कि देश इस समय घोर साम्प्रदायिक हिंसा से ग्रस्त है. और उसमें भी गुजरात तो भस्म-प्राय है. है इसका उलट – देश मजे में है. रिकार्ड तोड़ जीडीपी ग्रोथ हो रही है और गुजरात उसमें अग्रणी है!
  2. समाज में आवाजें कैसे उठती हैं; उनका मेरा यह 3-4 महीने का अनुभव है. कोई अच्छा अनुभव नहीं है. आपस में नोक-झोंक चलती है. कभी-कभार पारा बढ़ सकता है. उसके अलावा अगर कोई ज्यादा ही छिटकता है तो उसपर या तो राजदण्ड या विद्वत-मत या फिर आत्मानुशासन काम करना चाहिये. पर इतने सारे लोग एक साथ अगर कुकरहाव करने लगें तो उसे एनार्की ही कहा जायेगा. हिन्दी ब्लॉगरी में वही दिख रहा है. अचानक चिठ्ठों का प्रॉलीफरेशन और नयी-नयी बोलने की स्वछन्दता लोगों के सिर चढ़ गयी है. उतरने में समय लगेगा.
  3. सेकुलरहे पता नहीं किस स्ट्रेटेजी से काम करते हैं मोदी को गरियाने में? असल में पूरे देश में अगर राम-राज्य होता तो मोदीजी को परेशानी हो सकती थी. पर अन्य प्रांतों की बजाय गुजरात बेहतर है. ऐसे में मोदी को गरियाना वैसा ही है जैसे लोग अमेरिका/रिलायंस/टाटा/वाल-मार्ट/इन्द्रा नूई को गरियायें. समर्थ को ही गरियाया जाता है. पर उससे मोदी को कोई फरक नहीं पड़ता; उल्टे मोदी को लाइमलाइट मिलती है. वे जितना मोदी बैशिंग करते हैं; मोदी के चांसेज उतने ब्राइट होते जाते हैं!

Wednesday, June 13, 2007

भाइयों, जरा चीनी का प्रयोग बढ़ाइये!

ड़ा झमेला है. चीनी के शेयर ऐसे लमलेट हैं कि बैठने का नाम नहीं ले रहे. उठ खड़े होने की कौन कहे. शरद पवार को पहले चिदम्बरम ने बीमार कर दिया जब चीनी एक्सपोर्ट पर बैन लम्बा खिसका दिया. बैन उठा भी तब जब दुनिया में चीनी की बम्पर क्रॉप सामने थी. पेट्रोल के दाम भी बढ़ नहीं रहे हैं कि उसके विकल्प के लिये विलाप तेज हो. एथेनॉल का फण्डा जोर पकड़ ही नही रहा. चीनी कम्पनियां डोलड्रम में हैं. साथ ही हम जैसे भी डोलड्रम में है, जिनके पास चीनी के थोड़े शेयर हैं.

दफ्तर में चाय-पान का मेरा थोड़ा कोटा है. उसमें मैं महीने भर के लिये ईक्वल लो कैलोरी स्वीटनर भी आता है. अब मैं सोचता हूं वजन बढ़ने के भय की ऐसी-तैसी. चीनी का प्रयोग प्रारम्भ किया जाये. कुछ तो फर्क पड़े चीने के शेयरो की कीमत में. पोर्टफोलियो सुधारना वजन कम रखने से ज्यादा जरूरी है.

शरद पवार जी को तो बी.सी.सी.आई. के मामलों से फुर्सत नहीं है. कोच ढ़ूंढना ही मुश्किल काम लग रहा है. एक के बाद एक, जिनको बीसीसीआई ऑफर दे रहा है, वे अपनी अनिच्छा की घोषणा मीडिया में पहले कर रहे हैं, उन्हें बाद में बता रहे हैं. चीनी की कड़वाहट दूर करने के लिये समय ही नहीं निकल पा रहा है शायद? अब आप चिठेरे लोग ही हैल्प करें, साहबान!
जरा चीनी का प्रयोग बढ़ायें! कृपया, एक-दो रसगुल्ले ही गपकने लगें रोज! और कहीं मुफ्त में मिलें तो चार से कम न खायें.

Tuesday, June 12, 2007

लेखक और ब्लॉगर में फर्क जाना जाये

पता नहीं स्कूल के दिनों में कैसे मुझे गलतफहमी थी कि हिन्दी मुझे बहुत अच्छी आती है बस, मेरे मन में फितूर आ गया था लेखक बनने का. जिसे मेरे पिता ने कस के धोया. उनके अनुसार अगर प्रोफेशनल डिग्री हासिल कर ली तो कम से कम रोटी-पानी का जुगाड़ हो जायेगा.

मैने भी वही किया और मैं अपने को बेहतर अवस्था में पाता हूं. वर्ना हरिवंशराय बच्चन जैसी सोशल नेटवर्किंग तो कर नहीं पाता. निराला जैसा बनने की क्षमता न होती और बनता तो भी फटेहाल रहता. हिन्दी में बीए/एमए कर कई साल सिविल सेवा परीक्षा में बैठता और अंतत: किराने की दुकान या क्लर्की करता.

इस लिये जब सत्येन्द प्रसाद श्रीवास्तव जी ने ब्लॉगर को लेखक कहा तो मैं अपने को बागी महसूस करने लगा.

लेखक और ब्लॉगर में मूल भूत अंतर स्पष्ट करने को हम मान सकते हैं कि लेखक मूर्तिकार की तरह है. वह एक अच्छी क्वालिटी का पत्थर चुनता है. अच्छे औजार लेता है और फिर परफेक्शन की सीमा तक मूर्ति बनाने का यत्न करता है. ब्लॉगर तलाशता है कोई भी पत्थर सैण्ड स्टोन/चाक भी चलेगा. न मिले तो पेड़ की सूखी जड़/पत्ती/कबाड़/या इनके कॉम्बीनेशन जिसे वह फैवीकोल से जोड़ ले वह भी चलेंगे. इन सब से वह प्रेजेण्ट करने योग्य वस्तु बना कर ब्लॉग पर टांग देगा. वह भी न हो पाये तो वह किसी पत्थर को पटक कर अपना सौभाग्य तलाशेगा कि पटकने से कोई शेप आ जाये और आज की ब्लॉग पोस्ट बन जाये. यह व्यक्ति लेखक की तुलना में कम क्रियेटिव नहीं है और किसी भी लेखक की अभिजात्यता को ठेंगे पर रखता है.

ब्लॉगर के दृष्टांत देता हूं. सवेरे मॉर्निंग वाक करते मैने नीलगाय की फोटो मोबाइल के कैमरे से उतारी थी और 25 मिनट फ्लैट में ब्लूटूथ से फोटो कम्प्यूटर में डाउनलोड कर, पोस्ट लिख कर और वह फोटो चिपका कर पोस्ट कर चुका था इंटरनेट पर. उसके बाद वह पोस्ट भले ही एडिट की थी दिन में, पर ब्लॉगरी का रैपीडेक्स काम तो कर ही दिया था. कौन लेखक इस तरह का काम करेगा? चाहे जितना बोल्ड या डेयरिंग हो; पच्चीस मिनट तक तो वह मूड बनाता रहेगा कि कुछ लिखना है! फिर फोटो खींचना, डाउनलोड करना, चिपकाना यह सब तो 4-इन-1 काम हो गया !!

इसी तरह मैने अपनी पिछली ओधान कलेन पर लिखी पोस्ट आनन फानन में चिपकाई थी. बस उस बन्दे का काम पसन्द आ गया था और मन था कि बाकी जनता देखे.

मिर्ची सेठ की देखो भैया पैसा ऐसे बनता है और हवा से चलती गाड़ी मुझे बहुत पसन्द आईं. इनमें कौन सा लेखकत्व है जरा देखें. पिद्दी-पिद्दी से साइज़ वाले लेखन की, फोटो लगी पोस्टें है ये.

कई लोग ब्लॉगरी में इसी तरह लठ्ठ मार काम कर रहे हैं. यह बड़ा इम्पल्सिव होता है. कई बार थूक कर चाटने की अवस्था भी आ सकती है. पर जब आप मंज जायें तो वैसा सामान्यत: नही होता. और आप उत्तरोत्तर कॉंफीडेंस गेन करते जाते हैं.

श्रीवास्तव जी, आपको मेरे कहने में कुछ सब्स्टेंस लग रहा है या नहीं? अगर आप लेखक हैं तो शायद यह कूड़ा लगेगा वैसे भी काकेश का कहना है (?) कि यहां चिठेरी में 75% कूड़ा है!

(इसी कूड़े के बाजू में कृष्ण जी को बिठा दिया है!)

Monday, June 11, 2007

सिंगूर जैसी कशमकश और बढ़ेगी भविष्य में

सिंगूर और नन्दीग्राम, दिल्ली के पास के स्पेशल इकनॉमिक जोन, सरदार सरोवर ... और भी कितने ऐसे प्रॉजेक्ट है जिनमें स्थानीय ग्रामीण/आदिवासी जनता का टकराव परिवर्तन की ताकतों से हो रहा है. अंतत: क्या होगा? देश अगर तरक्की करेगा तो व्यापक पैमाने पर औद्योगीकरण होगा ही. कृषि का मोड-ऑफ प्रोडक्शन ऐसा नहीं है जो विकास की गति को पर्याप्त ईन्धन प्रदान कर सके. अत: जिस प्रकर से सम्पत्ति सामान्यत: उस ओर जाती है जहां उसमें अधिकतम वृद्धि होती है, उसी प्रकार जमीन भी सामान्यत: उस ओर जायेगी, जिस ओर अधिकतम उत्पादन होगा.

मैं जानता हूं कि मेरे उक्त पैराग्राफ से बहुत से किसान/आदिवासी के पक्षधर अपना फन उठाने लगे होंगे. अत: मै स्वयम न लिख कर स्टीफन कोवी की कालजयी पुस्तक “The 8th Habit” के दूसरे अध्याय का सम्पादित अनुवाद प्रस्तुत करता हूं. इससे वर्तमान दशा की समझ में बड़ी अच्छी इनसाइट मिलेगी:

"जब इंफ्रास्ट्रक्चर का रूप बदलता है, सब कुछ धसकने लगता है. स्टान डेविस.

हम विश्व इतिहास के एक बहुत महत्वपूर्ण संक्रमण के गवाह बन रहे हैं. इसपर पीटर ड्रकर ने कहा है: “….इतिहास में पहली बार बहुत से (और तेजी से बढ़ती संख्या में) लोगों के पास विविध विकल्प (च्वाइस) आते जा रहे हैं, और लोगों को आगे स्वयम अपना प्रबन्धन करना होगा. ... लोग/समाज इसके लिये तनिक भी तैयार नहीं है.
हम उक्त कथन का महत्व समझने को सभ्यता के विकास की 5 अवस्थायें देखें :

  1. शिकारी/घुमंतू मानव
  2. कृषि पर निर्भर जीवन
  3. औद्योगिक समाज
  4. सूचना/नॉलेज वर्कर का युग
  5. बौद्धिक युग (भविष्य की अवस्था)

शिकारी से कृषि युग में मानव के परिवर्तन को लें. शिकारी मानव को अपार कष्ट हुआ होगा कृषक बनने में. उसने धरती खोद कर बीज डाले होंगे और कुछ नहीं हुआ होगा. वह दूसरे सफल कृषक को देख कर विलाप कर रहा होगा न मेरे पास औजार हैं, न दक्षता! धीरे धीरे उसने सीखा होगा. उसके बाद उसकी उत्पादकता 50 गुणा बढ़ गयी होगी. फिर कृषि पर निर्भरता ने 90% शिकारी मानवों की छुट्टी कर दी होगी.

ऐसा ही कृषि और औद्योगिक युग में ट्रांजीशन में हुआ. धीरे धीरे लोगों ने औद्योगिक युग की तकनीक - विशेषज्ञ होना, काम का बंटवारा, कच्चेमाल की प्रॉसेसिंग और असेम्बली लाइन के तरीके सीखने प्रारम्भ किये. इससे उत्पादकता कृषि उत्पादकता से 50 गुणा बढ़ जाती है. एक किसान क्या कहेगा? वह शायद असुरक्षा और ईर्ष्या से भर जाये. पर अंतत: वह नयी मनस्थिति और नये औजारों का प्रयोग सीखता है/सीखेगा. इस प्रक्रिया में 90% कृषक समाप्त हो जायेंगे. आज अमेरिका में केवल 3% लोग पूरे देश ही नहीं, दुनियां के बाकी हिस्सों के लिये भी अन्न का उत्पादन कर रहे हैं. कृषि में भी औद्योगिक युग की तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं वे.

उसी तरह सूचना/नॉलेज वर्कर औद्योगिक युग से 50 गुणा अधिक उत्पादन करेंगे. सूचना/नॉलेज वर्कर का यह हाल है कि नाथन माईहर्वोल्ड, माइक्रोसॉफ्ट के भूतपूर्व मुख्य तकनीकी अधिकारी कहते हैं एक दक्ष सॉफ्टवेयर डेवलपर औसत सॉफ्टवेयर डेवलपर से 10 नहीं, 100 नहीं, 1000 नहीं, 10,000 गुणा अधिक उत्पादक है!

आप अन्दाज लगा सकते हैं - सूचना/नॉलेज वर्कर औद्योगिक समाज के 90% कर्मियों की छुट्टी कर देंगे.

कितनी प्रचण्ड छटनी होगी कर्मियों की. अंतत: समाज को नया माइण्ड सेट, नया स्किल सेट, नया टूल सेट अपनाना ही होगा.

अर्नाल्ड टोयनबी इसे बड़े सटीक तरीके से बताते हैं अभूतपूर्व असफलता के बीज सफलता में निहित हैं. अगर आपके पास चुनौती है और आपका रिस्पांस उसके बराबर है तो आप सफल होते हैं. पर उसके बाद अगर नयी चुनौती आ जाये और आपका रिस्पांस पहले जैसा है तो आपकी असफलता लाजमी है.

समस्या यही है. हम तेजी से औद्योगिक और सूचना/नॉलेज वर्कर के युग में कदम रख रहे हैं पर हमारी मानसिकता कृषि युग की है. इस मानसिकता से पार पाना ही होगा.

(स्टीफन कोवी यह जिस अध्याय में लिखते है उसका शीर्षक है – प्रॉबलम – समस्या. अगला अध्याय सॉल्यूशन - समाधान का है. वह पढ़ने के लिये आप पुस्तक पर जायें. आपका पढ़ना व्यर्थ नही जायेगा.)

Sunday, June 10, 2007

स्टैटकाउण्टर, ओधान कलेन और बिजनेस वीक

भग्वद्गीता और रामचरित मानस के बाद पिछले 3 महीने में जो सतत ध्यान से देखा है वह है स्टैटकाउण्टर! और जब स्टैट काउण्टर वाले ने पिछले हफ्ते फ्री में लॉग साइज 100 से 500 कर दिया तो मैं धन्य पा रहा था अपने को.

आज जब ओधान कलेन का ई-मेल आया तो वैसा ही था जैसे हिन्दी ब्लॉगर थोक में भेजते हैं जरा मेरी फलानी वाली पोस्ट पढ़ लीजिये. लेकिन उसमें अनुरोध था बिजनेस वीक के अवार्ड के लिये वोट देने का. जब बिजनेस वीक पर गया और पता चला कि योरोप के 25साल से कम के बिजनेस ऑंत्रेपिन्योर के लिये वोट देना है और स्टैटकाउण्टर का ओधान कलेन उसमें से एक है तो अजीब फीलिंग हुई. पहली तो यह कि वाह! क्या बन्दा है! चौबीस की उम्र और यंग ऑंत्रेपिन्योर के लिये नॉमिनेशन. वह भी बिजनेस वीक के अवार्ड के लिये!

दूसरी फीलिंग जो कुछ समय बाद आयी; वह थी क्या पण्डितजी (अपने आप को सम्बोधन) तुमने तो जिन्दगी भर घास ही खोदी!

ओधान कलेन अपने को जन्मजात ऑंत्रेपिन्योर कहता है. बारह की उम्र में उसने रिज्यूमे टाइपिंग बिजनेस सेट-अप किया. फिर वेब साइट डिजाइन में हाथ अजमाया. उसी से विचार बना स्टैटकाउण्टर का. यह कम्पनी उसने 16 साल की उम्र में लांच की (उस उम्र में हमारा मुख्य ध्येय था कि कक्षा में एक सवाल अंग्रेजी में पूछ सकें!).

ओधान कलेन का स्टैटकाउण्टर 14 लाख ग्राहकों के 20 लाख वेब साइट्स को काउण्टर प्रदान करता है. यह कम्पनी 9000,000,000 वेब पेज-व्यू ट्रैक करती है प्रति माह. रोज 1500 नये ग्राहक जोड़ रही है अपने साथ. और प्रॉफिट में तो है ही यह कम्पनी.

वाह! 14 लाख ग्राहकों में से कम से कम आधे तो अधोहन कल्लेन को वोट देंगे ही. मैने भी दे दिया.

बन्धु, उत्कृष्टता में उम्र तो कोई फैक्टर है ही नहीं.

फिल्म ज्ञान पर क्रैश कोर्स की जरूरत

ब्लॉगरी लगता हैं चल नहीं पायेगी अगर मैं जल्दी से हिंदी फिल्म के बेसिक्स नहीं सीख लेता. और बेसिक्स सिखाने के लिए या तो हिंदी फिल्म्स फार डमीज जैसी किताब हो या फिर क्रैश कोर्स । सिनेमा प्रेमी माफ़ करें - मुझे तो लगता हैं की हिंदी फ़िल्में बनी ही डमीज के लिए हैं, सो हिंदी फिल्म्स फार डमीज जैसी किताब बेकार हैं। लिहाजा बचता हैं क्रैश कोर्स - जो आलोक पुराणिक के पर्व्यू में आता हैं।

बहुत ज़माने से मैंने अपने को हिंदी फिल्मों के छद्म संसार से काटे रखा। पहले जब पढता था (अब तो नौकरी की ऐसी शुद्ध कि पढ़ना ही छूट गया!) तब हिंदी फ़िल्में देखता था। उलूल-जुलूल और ऐसी कि तीन घंटे दिमाग बंद रखना अनिवार्य हो। तय किया की फिल्मों की ऐसी की तैसी। नहीं देखेंगे। अपने को फिल्मों से पूरी निर्दयता से काटा।**

सबसे काटा अपने आप को - अखबार में उनपर लेखन से भी। वैसे भी अखबार में फिल्मों के बारे में जो छपता हैं; वह किस हीरोइन की किस हीरो से अंतरंगता हैं यही भर बताता है; इससे ज्यादा नहीं. और कुछ होता भी हैं तो उसे भूसे के ढ़ेर में से सूई निकलने जैसा यत्न करना पडता हैं।
चलते-चलते : कल सुरेश चिपलूणकर की एक पोस्ट ने मुझे आश्वस्त कर दिया कि हिन्दी फिल्म परिदृष्य थोड़े से हेर-फेर के साथ वैसा ही है जैसा पहले था. लिहाजा मैने बहुत मिस नहीं किया है.

अब ब्लॉग लेखन के कारण सिचयुयेशन कुछ बदल गयी हैं। मैंने काकेश का कलम चूमने की बात की तो उन्होने शिल्पा की। वह तो भला हो कि जेड गूडी वाले प्रकरण के कारण मैं इस नाम से परिचित था। दो-तीन लोगों ने मुन्नाभाई की बात की तो पता चला की ये सज्जन सुनील दत्त के बेटे हैं, एक हथियार के मामले में सजा का इंतजार कर रहे हैं और गाँधी जी को इन्होने री-इनवेंट किया हैं। कुल मिलाकर लगता हैं कि आम जीवन पर लेखन भी फिल्म के दृष्टांतों के माध्यम से इतना हो रहा है कि उन्हे समझने को फिल्मों के बेसिक्स जानने ही पड़ेंगे।

क्या कोई ऑन लाइन क्रैश कोर्स हैं?

------------------------------
**जीवन से कुछ विषयों को काटने की बात की है तो यह स्पष्ट कर दूं कि और भी कई विषय हैं जो मैने जीवन के नेपथ्य में डाल दिये हैं - गरीबी और लल्लूपने (मीकनेस) का महिमा मण्डन मुझे जबरी फटेहाली ओढ़ने जैसा लगता है. और ये जितने उनके हमदर्द हैं, वे अपने लिये पचमढ़ी में कॉटेज/बंगला या तो रखते हैं - या जुगाड़ने की तमन्ना रखते हैं. अपने को प्रोमोट करने के सभी हथकण्डे जानते हैं - माइक और कैमरा सामने आते ही धाराप्रवाह बोलते हैं. इनके पास समाधान नही हैं. बापू गरीबी के पक्ष में कहते थे तो श्रद्धा होती थी. अब वाले तो दिखावा हैं.

साम्यवाद में जब चीन ने अपने रंग बदल लिये, बर्लिन की दीवार इतिहास हो गयी और रूस का दूसरा मोर्चा बिला गया, तब अपने नक्सली तो केवल नक्शेबाज लगते हैं. लिहाजा साम्यवाद को दरकिनार कर दिया है.

राजनीति के कारण आलम यह है कि बच्चे स्कूल में बाबर - हुमायूं पढ़े जा रहे हैं (कर्टसी धर्मनिरपेक्षता) या फिर शिवाजी - राणाप्रताप (कर्टसी आर.एस.एस. ) . जबकि पढ़ना चाहिये नारायणमूर्ति/कलाम/नर्लीकर को. सो हिस्ट्री को भी हिस्टीरिया की तरह अलग कर दिया है.

पर इन विषयों पर क्रैश कोर्स की जरूरत नहीं है. उनमें हर साल नयी 18 साल की हीरोइन, पहले वाली को धकिया कर नहीं आ जाती!