|| MERI MAANSIK HALCHAL ||
|| मेरी (ज्ञानदत्त पाण्डेय की) मानसिक हलचल ||
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|| मेरे होने का दस्तावेजी प्रमाण बन रहा है यह ब्लॉग ||
Sunday, March 18, 2007
शहर में रहती है नीलगाय
शहर में आपसे 20-25 कदम पर चरती नीलगाय दिख जाये और आपको देख भागने की बजाय फोटो के लिए पोज देने लगे, तो कैसा लगेगा? आज मेरे साथ वही हुआ.
इलाहाबाद में प्रयाग स्टेशन से फाफामऊ को जाने वाली रेल लाइन जब गंगा के पास पंहुचती है तब उस लाइन के दायें 200-250 मीटर की हरित पट्टी है. यह नारायण आश्रम की जमीन है. गूगल-अर्थ में यह साफ दीखती है. ढाई सौ मीटर चौड़ी और आधा किलोमीटर लम्बी इस जंगल की पट्टी में नारायण आश्रम वालों ने गायें पाल रखी हैं.
गायों के साथ चरती आज नीलगाय मुझे दिखी. वैष्णवी विचार के इस आश्रम वालों नें कहीं से पकड़ कर नीलगाय रखी हो – इसकी सम्भावना नहीं है. यह नीलगाय अपने से भटक कर यहां आई होगी. अब शहर के बीच इस जंगल की पट्टी को उसने अपना निवास समझ लिया है.
शहरीकरण नें नील गायों की संख्या में बहुत कमी की है. किसान इसे अपना दुश्मन मानते हैं. ट्रेन परिचालन की रोज की रिपोर्ट में मुझे 2-3 नीलगायों के रेल पटरी पर कट कर मरने की खबरें मिलती हैं. यदा कदा ऐसी घटनाओं से ट्रेन का अवपथन (derailment) भी हो जाता है. ट्रेनें लेट होती हैं सो अलग. अत: रेल महकमे के लिये भी ये सिरदर्द हैं.
पर आज नीलगाय को बीच शहर में स्वच्छन्द विचरते देख बड़ी खुशी हुई. गायों के बीच नीलगाय के लिये भी हमारी धरती पर जगह रहे – यही कामना है.
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पांडेयजी, आपकी पोस्ट पूरी पढ़ी अच्छी लगी। फोटो भी। कभी अपने परिचालन से संबंधित अनुभव लिखिये !
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