|| MERI MAANSIK HALCHAL || || मेरी (ज्ञानदत्त पाण्डेय की) मानसिक हलचल || || मन में बहुत कुछ चलता है || || मन है तो मैं हूं || || मेरे होने का दस्तावेजी प्रमाण बन रहा है यह ब्लॉग ||
ब्लागिंग सफलता से लोग परेशान होकर कुछ भी कह सकते हैं। जमाये रहिये। अपना काम किये जाइये। इन पर सोचने में टाइम ना गलाइए। वो काम करने के बहुत लोग बैठे हुए हैं.
अब आपसे क्या कहें? हम तो कल भी कन्फुजियाये हुए थे, आज तो इतनी बर्फ है कि स्नोमैन ही बने हुए हैं - सारा दिमाग जम गया है! गरम चाय डाल-डाल कर पिघला रहे हैं और रेलवे स्टेशन की कुल्हड़ की चाय को बुरी तरह मिस कर रहे हैं.
इसे माइक्रो पोस्ट बोलेंगे भला? जानने वाले शब्द पढ़ कर जान लेते हैं कि किसने सजाया है. बेचने को इतना कुछ है (बैगन, मूंगफली आदि ) तो पोस्ट और नाम क्योंं बेचा जाय
अरे आप कब से ऐसी बाते करने लगे..? देखिए अब तो आप हमे सेनटी कर रहे है.. बोले तो सुबुक सुबुकवादी.. आप कुल्हड़ वाली चाय पी ही लीजिए.. या फिर हमारी कॉफी का निमंत्रण स्वीकार कर लीजिए...
सवाल फ़िर से वही है की पहले अंडा या मुर्गी ? यहाँ पोस्ट तो पहले आई नही यहाँ पहले आए ज्ञानजी ! उसके बाद आती है पोस्ट ! और यकीन मानिए ये भी कल की शास्त्री जी वाली पोस्ट की बात है अगर विषयवस्तु नही होगी तो पढेगा कौन ? तो मेरे समझ से लेखक और रचना दोनों ही एक दुसरे के पूरक हैं ! दोनों ही एक दुसरे के बिना अधूरे हैं ! और कोई माने या ना माने , मैं तो यह मानता हूँ की आपकी पोस्ट एक छोटा सा अणु हैं जो अपने अन्दर बहुत बड़ा विस्फोट लिए रहती है !
अरे अरे ! क्या हुआ ? क्या हुआ ? हमें बताएगा कोई ? नहीं बेचनी तो मत बेचिए कोई छीन तो नहीं रहा है ? बुरा मानने की क्या बात है ? बल्कि मुझे तो लगता है कि ज्ञानी लोग तो बुरा मान ही नहीं सकते . ये तो अज्ञानियों की साजिश है जो जबरदस्ती बुरा मनवाने पर तुले हैं . अभी देखिए ख्ण्डन आ जाएगा उधर से . बुरा मानते तो टिप्पणी को सार्वजनिक ही नहीं करते . समझते नहीं हैं आप लोग भी . बस चने के पेढ पर चढा कर मजा लेना चाहते हैं .
सम्बन्धित पोस्ट व टिप्पणी पढ़ी । शायद विश्वनाथ जी (जिन्होंने बस कुछ ब्लॉगर चुन लिए और उन्हीं को पढ़ते हैं)की तर्ज में ही यह कहा गया है । आपका नाम तो आपके पास पिछले ५३ वर्ष से रहा है और ब्लॉग(चाहे उसमें होने वाली हलचल पुरानी हो !)तो बहुत नया है । सो यदि लोग नाम को ही अधिक चाहें तो भी ठीक है बल्कि बढ़िया है । इसे अपनी प्रशंसा ही मानिए । हाँ, मेरी उम्र ५३ से ८३ भी करके देख लीजिए,लेखन वही रहेगा और मैं भी । घुघूती बासूती
कोई प्रतिक्रिया नहीं... शाम को फिर आता हूँ देखने बाकी लोगों क्या कहते है. अभी थोडी कम प्रतिक्रिया आई हैं. मुझे तो लगता है आपने भी प्रतिक्रिया देखने के लिए ही लिखा है. अब ये बेचने खरीदने की जगह तो है नहीं, शुकुल जी नहीं आए अब तक :-)
Sir ji,यह सब आप के संयम को परख रहे हैं शायद. हम तो आप की पोस्ट पढ़ते हैं -पसंद करते हैं- यहाँ कोई नाम -काम या दाम कमाने नहीं आया है.कुछ पल फुर्सत के आपस में हंस बोल कर बाँट लेते हैं और बहुत कुछ सीखते भी हैं.नयी बातें पता चलती हैं. मैं तो ब्लॉग्गिंग के जरिए अपनी हिन्दी पढ़ने और लिखने की क्षुधा को शांत कर लेती हूँ भारत के बारे में पता चलता रहता है-ख़ुद को जुड़ा महसूस करती हूँ. आप ने अपने मानसिक हलचल बांटी अच्छा लगा.क्योंकि आप भी जानते हैं की आप को समझने वाले भी यहाँ हैं. न जाने क्यूँ लोग इस तरह की बात कर के जो लोक प्रिय ब्लॉगर हैं उन्हीं परेशान करते हैं कभी समीर जी को कभी डॉ,अनुराग जी को. बडे दुःख की बात है...क्यूँ नहीं जानते कि लेखक संवेदनशील होता है और छोटी सी बात भी बुरी लग सकती है.
ज्ञान जी, आप तो बडे दिल के मालिक है, भई अगर हम से गलती से आप का दिल दुख गया हओ तो हम माफ़ी माग लेते है, लेकिन ऎसा मत लिखे आप से तो हम बहुत कुछ सीखते है. चलिये गुस्सा थुक दिजिये,ओर फ़िर से छा जाये. धन्यवाद
नाम यूँ ही नहीं बिकने लगता है। कोई नाम बिकता क्यों है? जरा सोचे कोई। कोई मेहनत कर के कुछ लिखता है लेकिन उस के मुकाबले किसी के सहज रूप से कहे दो शब्द भी भारी पड़ जाते हैं। बरतन में भरे पानी को गरम करें तो तापमान लेने के पहले विलोडन करना पड़ता है। सब के लिए मानसिक हलचल जरूरी है।
अगर दो धेले में लोग खरीदने भी लगे तो आपके पास तो पहाड़ हो जायेगा ढेलों का, आपके लेख के प्रशंसक जो इतने है.. :-) परवाह ना कीजिये बस लिखते रहिये... धडा धड ...
पाण्डेय जी /कुछ दिनों की अस्त व्यस्त जिंदगी के बाद आज आपका ब्लॉग देखा तो यहाँ कुछ और ही नज़र आया /समझ में ही नहीं आया की माजरा क्या है /मैंने सोचा पिछली पोस्ट देखें कुछ पता चले परन्तु कुछ समझ न पाया इतना आभास ज़रूर हुआ कि किसी ने कमेन्ट में अशोभनीय बात कह दी होगी /पाण्डेय जी साहित्य के क्षेत्र में मैं आपके आगे बिल्कुल बच्चा हूँ लेकिन इतना जरूर जानता हूँ के साहित्य की आलोचना के बजाय साहित्यकार की आलोचना नहीं होनी चाहिए और साहित्य की आलोचना से साहित्यकार को क्षुब्ध नहीं होना चाहिए /जहाँ तक कम्पटीशन का प्रश्न है यह तो होता आया है /मैथली शरण गुप्त और रामधारीसिंह दिनकर में क्या ऐसा नहीं था और दिनकर जी को परेशानी भी उठानी पढी थी /आलोचना लेखन की हो -होनी ही चाहिए जरूरी नहीं कि दोनों के विचारों में समानता हो ही /मुंडे मुंडे मति भिन्न तुंडे तुंडे सरस्वती /
नही बेचनी नही बेचनी और नही बिकूंगा . अरे वह आप तो सच्चे मन से अपनी भाषा के लिए प्रचार कर रहे है लगता है . नाम और पैसे में क्या रखा है ये हाथ के मैल है . उम्दा बात शुक्रिया ...
Kyun naraz hote hain bhaisahab, aaz kal remix ka zaamana hai. Buffet me ek hi thali me gulabzamun aur matar paneer ke sath faile huye rayate ka maza lijiye.People with weak stomach dont like your dish and tend to suffer more frequent bowel movement. Aise log NIPATNE lagate hain.
पिछली पोस्ट से सम्बंधित प्रतिक्रियाएं पढी थी, अधिक समझ नही आयी थी मगर आज आपकी प्रतिक्रिया वाली पोस्ट से मैं पूर्णतया सहमत हूँ, -लेखन वही है जो बेचने के लिए न लिखा जाए -लेखन वही है जो लोगों को प्यार और पारस्परिक सम्मान करना सिखाये -और लेखन वही जिससे आम जन मानस प्रभावित हो -ज्ञानदत्त का नाम अगर बिक रहा है, तो उस लेखन के कारण ही जो उन्होंने लिखा है ! आपकी बारे में व्यक्तिगत तौर पर परिचित न होते हुए भी जितना मैंने आपको पढ़ा है, निष्पक्षता के साथ साथ लेखन से न्याय करते रहे हैं, साथ साथ अनूप शुक्ल, ताऊ और शिव कुमार मिश्रा की अक्सर छेड़खानी युक्त प्रतिक्रियाएं पढ़ कर आपके ब्लाग पर घर जैसा माहौल लगता है ! आप जैसे लेखन की हिन्दी ब्लाग जगत को बहुत आवश्यकता है ! मुझे लगता है विवेक सिंह ने शुरूआती प्रतिक्रिया शायद मजाक में लिखी हो जिसे बाद में अन्य प्रतिक्रियाओं ने गंभीर बना दिया ( बात का बतंगड़ ) . आशा है विवेक सिंह ख़ुद अपना मंतव्य स्पष्ट करेंगे !
कभी कभी मज़ाक में कही हुई बात भी चोट कर जाती है। आशा है आप चूक से कही बात का बुरा नहीं मानेगे और लिखते रहेंगे- बेचेंगे या बचेंगे नही। लेखनी बेचने या बचने की चीज़ तो है नहीं-क्रियेटिविटी है।
Aap hulchul karne baithen hai, kuch bechne bachne jo thore.....mat bechiye lekin banchte rahiye
ReplyDeleteमुझे दो धेले में पोस्ट नहीं बेचनी। नाम भी नहीं बेचना अपना। और कौन कहता है कि पोस्ट/नाम बेचने बैठें हैं?
ReplyDelete" sir, dont get disheartnd, it happns....and yes you have rightly said no one is here to sell name or fame"
Regard
ब्लागिंग सफलता से लोग परेशान होकर कुछ भी कह सकते हैं। जमाये रहिये। अपना काम किये जाइये। इन पर सोचने में टाइम ना गलाइए। वो काम करने के बहुत लोग बैठे हुए हैं.
ReplyDeleteमुझे कोई यह समझा दे कि दो धेले की पोस्ट लिखने वाले का नाम कैसे चल सकता है जबकि हम उन्हे उनके चिट्ठे की वजह से ही जनते हो?
ReplyDeleteअब आपसे क्या कहें? हम तो कल भी कन्फुजियाये हुए थे, आज तो इतनी बर्फ है कि स्नोमैन ही बने हुए हैं - सारा दिमाग जम गया है! गरम चाय डाल-डाल कर पिघला रहे हैं और रेलवे स्टेशन की कुल्हड़ की चाय को बुरी तरह मिस कर रहे हैं.
ReplyDeleteइसे माइक्रो पोस्ट बोलेंगे भला?
ReplyDeleteजानने वाले शब्द पढ़ कर जान लेते हैं कि किसने सजाया है.
बेचने को इतना कुछ है (बैगन, मूंगफली आदि ) तो पोस्ट और नाम क्योंं बेचा जाय
अरे आप कब से ऐसी बाते करने लगे..? देखिए अब तो आप हमे सेनटी कर रहे है.. बोले तो सुबुक सुबुकवादी.. आप कुल्हड़ वाली चाय पी ही लीजिए.. या फिर हमारी कॉफी का निमंत्रण स्वीकार कर लीजिए...
ReplyDeleteबच्चो की बातो का बुरा थोड़े ही मानते है..
मत बेचिए
ReplyDeleteबस लिखते रहिये
loktantra me sabka samman
ReplyDeleteregards
सवाल फ़िर से वही है की पहले अंडा या मुर्गी ? यहाँ पोस्ट तो पहले आई नही यहाँ पहले आए ज्ञानजी ! उसके बाद आती है पोस्ट ! और यकीन मानिए ये भी कल की शास्त्री जी वाली पोस्ट की बात है अगर विषयवस्तु नही होगी तो पढेगा कौन ? तो मेरे समझ से लेखक और रचना दोनों ही एक दुसरे के पूरक हैं ! दोनों ही एक दुसरे के बिना अधूरे हैं ! और कोई माने या ना माने , मैं तो यह मानता हूँ की आपकी पोस्ट एक छोटा सा अणु हैं जो अपने अन्दर बहुत बड़ा विस्फोट लिए रहती है !
ReplyDeleteअरे अरे ! क्या हुआ ? क्या हुआ ? हमें बताएगा कोई ? नहीं बेचनी तो मत बेचिए कोई छीन तो नहीं रहा है ? बुरा मानने की क्या बात है ? बल्कि मुझे तो लगता है कि ज्ञानी लोग तो बुरा मान ही नहीं सकते . ये तो अज्ञानियों की साजिश है जो जबरदस्ती बुरा मनवाने पर तुले हैं . अभी देखिए ख्ण्डन आ जाएगा उधर से . बुरा मानते तो टिप्पणी को सार्वजनिक ही नहीं करते . समझते नहीं हैं आप लोग भी . बस चने के पेढ पर चढा कर मजा लेना चाहते हैं .
ReplyDeleteसम्बन्धित पोस्ट व टिप्पणी पढ़ी । शायद विश्वनाथ जी (जिन्होंने बस कुछ ब्लॉगर चुन लिए और उन्हीं को पढ़ते हैं)की तर्ज में ही यह कहा गया है । आपका नाम तो आपके पास पिछले ५३ वर्ष से रहा है और ब्लॉग(चाहे उसमें होने वाली हलचल पुरानी हो !)तो बहुत नया है । सो यदि लोग नाम को ही अधिक चाहें तो भी ठीक है बल्कि बढ़िया है । इसे अपनी प्रशंसा ही मानिए ।
ReplyDeleteहाँ, मेरी उम्र ५३ से ८३ भी करके देख लीजिए,लेखन वही रहेगा और मैं भी ।
घुघूती बासूती
कोई प्रतिक्रिया नहीं... शाम को फिर आता हूँ देखने बाकी लोगों क्या कहते है. अभी थोडी कम प्रतिक्रिया आई हैं. मुझे तो लगता है आपने भी प्रतिक्रिया देखने के लिए ही लिखा है. अब ये बेचने खरीदने की जगह तो है नहीं, शुकुल जी नहीं आए अब तक :-)
ReplyDeleteSir ji,यह सब आप के संयम को परख रहे हैं शायद.
ReplyDeleteहम तो आप की पोस्ट पढ़ते हैं -पसंद करते हैं-
यहाँ कोई नाम -काम या दाम कमाने नहीं आया है.कुछ पल फुर्सत के आपस में
हंस बोल कर बाँट लेते हैं और बहुत कुछ सीखते भी हैं.नयी बातें पता चलती हैं.
मैं तो ब्लॉग्गिंग के जरिए अपनी हिन्दी पढ़ने और लिखने की क्षुधा को शांत कर लेती हूँ भारत के बारे में पता चलता रहता है-ख़ुद को जुड़ा महसूस करती हूँ.
आप ने अपने मानसिक हलचल बांटी अच्छा लगा.क्योंकि आप भी जानते हैं की आप को समझने वाले भी यहाँ हैं.
न जाने क्यूँ लोग इस तरह की बात कर के जो लोक प्रिय ब्लॉगर हैं उन्हीं परेशान करते हैं कभी समीर जी को कभी डॉ,अनुराग जी को.
बडे दुःख की बात है...क्यूँ नहीं जानते कि लेखक संवेदनशील होता है और छोटी सी बात भी बुरी लग सकती है.
ज्ञान जी, आप तो बडे दिल के मालिक है, भई अगर हम से गलती से आप का दिल दुख गया हओ तो हम माफ़ी माग लेते है, लेकिन ऎसा मत लिखे आप से तो हम बहुत कुछ सीखते है. चलिये गुस्सा थुक दिजिये,ओर फ़िर से छा जाये.
ReplyDeleteधन्यवाद
कविता करके तुलसी ना लसे कविता लसी पा तुलसी की कला !
ReplyDeleteये नया राग है। नाम है ज्ञान राग। अभी रियाज चल रहा है।
ReplyDeleteनाम यूँ ही नहीं बिकने लगता है।
ReplyDeleteकोई नाम बिकता क्यों है? जरा सोचे कोई।
कोई मेहनत कर के कुछ लिखता है लेकिन उस के मुकाबले किसी के सहज रूप से कहे दो शब्द भी भारी पड़ जाते हैं।
बरतन में भरे पानी को गरम करें तो तापमान लेने के पहले विलोडन करना पड़ता है।
सब के लिए मानसिक हलचल जरूरी है।
यह क्या हो रहा है?
ReplyDeleteआप बुरा मान रहे हैं या मज़ाक कर रहे हैं?
कुछ समझ में नहीं आया।
At least one's BLOG is a place where one can express all kinds of feelings.
ReplyDeleteI'm glad to see that !
भईया आप तो ज्ञानी हैं...कहे छोटी सी बात पे परेशां हो रहे हैं..छोडिये ये लफडा और लिखिए...बिंदास...
ReplyDeleteनीरज
अगर दो धेले में लोग खरीदने भी लगे तो आपके पास तो पहाड़ हो जायेगा ढेलों का, आपके लेख के प्रशंसक जो इतने है.. :-) परवाह ना कीजिये बस लिखते रहिये... धडा धड ...
ReplyDeleteअभिषेक ओझाजी की बात से सहमत हैं । बस हाजिरी लगाये जा रहे हैं और बाकी का काम शुकुल जी को डेलीगेट किया जाता है ।
ReplyDeleteअनूप जी व Vishwanath जी के शब्द दोहराने की इच्छा हो रही है:-)
ReplyDeleteघर में ढ़िबरी के प्रकाश में रहते हैं तो स्ट्रीट लाइट देखकर कुंठा होना स्वभाविक है, इसलिए ढ़ेला मारकर फोड़ते हैं.
ReplyDeleteइससे स्ट्रीट लाइट की महत्ता तो कम नहीं हो जाती.
बेचने-बिकने की बात भला आई कैसे? इस मंच से तो सिर्फ़ ज्ञान और अनुभव साझा किया जा रहा है. कृपा कर यह सार्थक कार्य जारी रखें!
ReplyDeleteनाम काम से ही बनता है.. यदि काम में दम न रहे तो नाम होगा कहां से..
ReplyDeleteham aapke sath!!!!!!!!!
ReplyDeletemat bechiyega !!!!!!!!!!!!!
पाण्डेय जी /कुछ दिनों की अस्त व्यस्त जिंदगी के बाद आज आपका ब्लॉग देखा तो यहाँ कुछ और ही नज़र आया /समझ में ही नहीं आया की माजरा क्या है /मैंने सोचा पिछली पोस्ट देखें कुछ पता चले परन्तु कुछ समझ न पाया इतना आभास ज़रूर हुआ कि किसी ने कमेन्ट में अशोभनीय बात कह दी होगी /पाण्डेय जी साहित्य के क्षेत्र में मैं आपके आगे बिल्कुल बच्चा हूँ लेकिन इतना जरूर जानता हूँ के साहित्य की आलोचना के बजाय साहित्यकार की आलोचना नहीं होनी चाहिए और साहित्य की आलोचना से साहित्यकार को क्षुब्ध नहीं होना चाहिए /जहाँ तक कम्पटीशन का प्रश्न है यह तो होता आया है /मैथली शरण गुप्त और रामधारीसिंह दिनकर में क्या ऐसा नहीं था और दिनकर जी को परेशानी भी उठानी पढी थी /आलोचना लेखन की हो -होनी ही चाहिए जरूरी नहीं कि दोनों के विचारों में समानता हो ही /मुंडे मुंडे मति भिन्न तुंडे तुंडे सरस्वती /
ReplyDeleteनही बेचनी नही बेचनी और नही बिकूंगा . अरे वह आप तो सच्चे मन से अपनी भाषा के लिए प्रचार कर रहे है लगता है . नाम और पैसे में क्या रखा है ये हाथ के मैल है . उम्दा बात शुक्रिया ...
ReplyDeleteKyun naraz hote hain bhaisahab, aaz kal remix ka zaamana hai. Buffet me ek hi thali me gulabzamun aur matar paneer ke sath faile huye rayate ka maza lijiye.People with weak stomach dont like your dish and tend to suffer more frequent bowel movement. Aise log NIPATNE lagate hain.
ReplyDeleteचलिए ऐसा करते हैं की उतार कर मन से सोच की गठरियाँ कुछ हल्का लिख/कह देते हैं , मान लेते हैं कि ऐसा तो होता ही रहता है .
ReplyDeleteपिछली पोस्ट से सम्बंधित प्रतिक्रियाएं पढी थी, अधिक समझ नही आयी थी मगर आज आपकी प्रतिक्रिया वाली पोस्ट से मैं पूर्णतया सहमत हूँ,
ReplyDelete-लेखन वही है जो बेचने के लिए न लिखा जाए
-लेखन वही है जो लोगों को प्यार और पारस्परिक सम्मान करना सिखाये
-और लेखन वही जिससे आम जन मानस प्रभावित हो
-ज्ञानदत्त का नाम अगर बिक रहा है, तो उस लेखन के कारण ही जो उन्होंने लिखा है !
आपकी बारे में व्यक्तिगत तौर पर परिचित न होते हुए भी जितना मैंने आपको पढ़ा है, निष्पक्षता के साथ साथ लेखन से न्याय करते रहे हैं, साथ साथ अनूप शुक्ल, ताऊ और शिव कुमार मिश्रा की अक्सर छेड़खानी युक्त प्रतिक्रियाएं पढ़ कर आपके ब्लाग पर घर जैसा माहौल लगता है ! आप जैसे लेखन की हिन्दी ब्लाग जगत को बहुत आवश्यकता है !
मुझे लगता है विवेक सिंह ने शुरूआती प्रतिक्रिया शायद मजाक में लिखी हो जिसे बाद में अन्य प्रतिक्रियाओं ने गंभीर बना दिया ( बात का बतंगड़ ) . आशा है विवेक सिंह ख़ुद अपना मंतव्य स्पष्ट करेंगे !
कभी कभी मज़ाक में कही हुई बात भी चोट कर जाती है। आशा है आप चूक से कही बात का बुरा नहीं मानेगे और लिखते रहेंगे- बेचेंगे या बचेंगे नही। लेखनी बेचने या बचने की चीज़ तो है नहीं-क्रियेटिविटी है।
ReplyDeleteअरे का हजूर, अईसे कौनो भी मुंह उठा के कह देगा फेर आप उसपे सोचने गुनने बईठ जाओगे तो कैसे चलेगा जी।
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