मेरे घर के सामने बड़ा सा प्लॉट खाली पड़ा है। अच्छी लोकेशन। उसके चारों ओर सड़क जाती है। किसी का है जो बेचने की जुगाड़ में है। यह प्लॉट सार्वजनिक सम्पत्ति होता तो बहुत अच्छा पार्क बन सकता था। पर निजी सम्पत्ति है और मालिक जब तक वह इसपर मकान नहीं बनाता, तब तक यह कचरा फैंकने, सूअरों और गायों के घूमने के काम आ रहा है।
रीता पाण्डेय की पोस्ट। आप उनकी पहले की पोस्टें रीता लेबल पर क्लिक कर देख सकते हैं। |
सन्दीप के बताने पर भरतलाल ने अनुमान लगाया कि वह शायद बच्चा देने वाली है। दोनो ने वहां कुछ चिथड़े बिछा दिये। रात में कुतिया ने वहां चार पिल्लों को जन्म दिया। संदीप की उत्तेजना देखने लायक थी। हांफते हुये वह बता रहा था - कुलि करिया-करिया हयेन, हमरे कि नाहीं (सब काले काले हैं, मेरी तरह)| कुतिया बच्चा देने की प्रक्रिया में थी तभी मैने उसके लिये कुछ दाल भिजवा दी थी। सुबह उसके लिये दूध-ब्रेड और दो परांठे भेजे गये।
रात में मेरी चिन्तन धारा अलग बह रही थी। सड़क की उस कुतिया ने अपनी डिलीवरी का इन्तजाम स्वयम किया था। कोई हाय तौबा नहीं। किसी औरत के साथ यह होता तो हड़कम्प मचता – गाड़ी/एम्ब्यूलेंस बुलाओ, डाक्टर/नर्सिंग होम का इन्तजाम करो, तरह तरह के इंजेक्शन-ड्रिप्स और जरा सी देर होती तो डाक्टर सीजेरियन कर चालीस हजार का बिल थमाता। फिर तरह तरह के भोजन-कपड़े-दवाओं के इन्तजाम। और पता नहीं क्या, क्या।
प्रकृति अपने पर निर्भर रहने वालों की रक्षा भी करती है और उनसे ही इन्तजाम भी कराती है। ईश्वर करे; इस कुतिया के चारों बच्चे सुरक्षित रहें।
पुन: – कुतिया और बच्चों के लिये संदीप और भरतलाल ने एक घर बना दिया है। नियम से भोजन देते हैं। कुतिया कोई भी समस्या होने पर अपनी कूं-कूं से इन्हें गुहार लगाने पंहुच जाती है। वह जान गयी है कि यही उसका सहारा हैं। पिल्लों ने अभी आंख नहीं खोली है।
रोचक पोस्ट। वैसे बचपन में सभी लोग संदीप और भरतलाल ही होते हैं...कभी न कभी किसी ऐसी ही घटना से दो चार हुए।
ReplyDeleteएक कहानी पाठ्यपस्तकों में कहीं पढी थी कि एक चिडिया के घोसले में कुछ बच्चों ने अंडों के नीचे थोडी रूई रख दी थी। बाद में वह अंडा न जाने कैसे गिरकर फूट गया। बच्चों की माँ ने जब यह देख कर पूछा कि रूई क्यों रखी, तब उनका जवाब था कि अंडों को नरमाहट भरी गद्दी देने के लिये ताकि उन्हें आराम रहे।
अच्छी पोस्ट।
सच में-बचपन में कभी न कभी सबके साथ ऐसा ही कुछ वाकया गुजरा होता है. आपने सुन्दरता से कलमबद्ध कर दिया. छोटे छोटे पिल्लों को देखकर बड़ा अच्छा लगा.
ReplyDeleteईश्वर उनकी रक्षा करे. संदीप और भरतलाल के रहते वैसे भी कोई चिन्ता नहीं.
... रोचक व डिफरेंट लेख है, पढकर अच्छा लगा।
ReplyDeleteरोचक लेख।
ReplyDeleteमन में कई विचार आ रहे हैं
सुबह सुबह जलदी में हूँ।
शाम तक आशा है विस्तार से अपनी टिप्पणी लिख भेजूंगा।
शुभकामनाएं
क्या केने क्या केने
ReplyDeleteपिल्लों के, और पोस्ट के भी।
संदीप और भरतलाल ने तो अपना काम कर दिया। उन्हें बधाई। लेकिन रीता जी ने ‘सोहर’ गाया कि नहीं? हम भी सपरिवार शामिल हो लेते। :)
ReplyDeleteआप के इस आलेख ने बहुत बड़ा यथार्थ सामने ला रखा है। इस समझ को विस्तार दिया जा सकता है।
ReplyDelete"सब काले काले हैं, मेरी तरह"
ReplyDeleteबहुत सुंदर, पढ़कर मज़ा आ गया! संदीप और भरतलाल को बधाई. संदीप के दर्शन हो गए. अगर भरतलाल भी दिख जाते तो और अच्छा होता.
हम तो उन चारोँ नवजात पिल्लोँ की और उनकी माँ की लम्बी उमर की दुआ भेजते हैँ ...
ReplyDelete- लावण्या
आपने टिप्पणियों की जो नयी सेटिंग की है, वह रुचिकर नहीं जान पडती। पिछली पोस्ट की टिप्पणियां पढने में मुझे परेशानी हुई तो इस ओर ध्यान गया। छठे नंबर की टिप्पणी तक पढने में दिक्कत नहीं है, लेकिन सातवीं के लिए फिर उपर भागना पड़ता है, फिर आठवीं के बाद पूरे स्क्रीन तक फैली पंक्तियों को पढने के लिए पुतलियों को नचाना पड़ रहा है। पाठकों की आंखों का व्यायाम कराना चाहते हैं क्या :)
ReplyDeleteये है मेरा भारत -जहाँ संदीप जैसे नरम दिल के बच्चे हैं .जिसने ऐसे सड़क के फिरते कुत्तों के लिए घर भी बना कर दे दिया
ReplyDeleteकि सर्दी में पिल्लों को सुरक्षा मिले.आप ने भी बड़ा ख्याल रखा.दूध ब्रेड-परांठे भी भिजवा दिए.!
वैसे यह बात भी सच है प्रकृति इन सब का पूरा ख्याल अपने हिसाब से रखती ही है.
छोटे छोटे बच्चे बढे ही प्यारे लग रहें है , संदीप ने जो घर बनाया वो भी छोटा सा प्यारा सर्दी मे इनका बचाव हो जाएगा , अच्छा लगा पढ़ कर ...
ReplyDeleteRegards
कुत्ते हमाशा से मनुष्य के वफादार मित्र रहे है एवं बच्चों के मन में तो इनको देख कर एकदम प्यार से उमडने लगता है.
ReplyDeleteअजी मजा आ गया. अभी पिछले दिनों जब बारिश हो रही थी, हमारे यहाँ भी एक कुतिया ब्याई. तीन पिल्ले दिए. हमने उन्हें एक टूटे फूटे मकान में रख दिया. अब दो ही पिल्ले हैं. दोनों हट्टे कटते हैं.
ReplyDeleteबढ़िया पोस्ट रही.. कोशिश कीजिएगा उस कुटिया को हलवा खिलाया जाए.. कहते है ऐसा करने से वो अपने बच्चो को नही खाती है.. बचपन में अपने भी खूब हलवा खिलाया है..
ReplyDeleteशुरूआत के दिनों में कुतिया किसी को पिल्लों को छूने नहीं देती, फिर उसे नए घर तक कैसे ले आए? जो भी किया अच्छा किया. बचपन की यादें ताज़ा हो आई. प्रसुता कुतिया को गुड़ का हलवा खिलाया करते थे.
ReplyDeleteबधाई संदीप और भरत लाल को। भाभी जी को भी बधाई अच्छी पोस्ट और बचपन की यादें ताज़ा करने के लिये।
ReplyDelete" किसी औरत के साथ यह होता तो हड़कम्प मचता – गाड़ी/एम्ब्यूलेंस बुलाओ, डाक्टर/नर्सिंग होम का इन्तजाम करो, तरह तरह के इंजेक्शन-ड्रिप्स और जरा सी देर होती तो डाक्टर सीजेरियन कर चालीस हजार का बिल थमाता। फिर तरह तरह के भोजन-कपड़े-दवाओं के इन्तजाम। "
ReplyDeleteसंदीप को देख कर अपना बचपन याद आगया ! पता नही कितने ही पिल्लो को लेकर हर साल ये सब किया था !
ज्ञान जी, यकीन मानिए आज भी अंदरूनी आदिवासी गाँवों में सहज रूप से डिलिवरी होती है ! अधिकाँश आदिवासी महिलाऐ आज भी खेत में काम करते हुए प्रसव कर लेती है ! और घर आजाती है !
शहरो में हमने ताना बाना ऐसा ही खडा कर लिया है ! डाक्टर द्वारा प्रिगनेंसी के शुरुआत में बेड रेस्ट और पूरा आराम बता दिया जाता है ! ये कुछ की जरुरत हो सकती है सबकी नही !
फ़िर डाक्टर सिजेरीयन करना चाहता है क्योंकि माल उसमे ही है ! ये भी कुछ की ही आवश्यकता होती है ! सबको इसकी भी आवश्यकता नही होती ! कईयों को तो स्तनों में दूध भी बाद में दवाइयों से आता है ! अब ऐसा दूध भी किस काम का ? सही में देखा जाए तो इस वजह से मातृत्व को महसूस करने से भी वंचित कर दिया जाता है !
अब जब इतना भय इस प्राकृतिक घटना के प्रति बैठ गया है तो आपने जो चिंता व्यक्त की है वो तो परिणामत: होना ही है ! बहरहाल आपकी सूक्ष्म दृष्टी ने बहुत ही सामयीक चिंतन को पेश किया है ! इब रामराम !
मुक्तिबोध ने अपनी कविता में कहा है लिखने के लिए विषयों की कमी नहीं है, यह आपने भी प्रूव कर दिया। मुबारकबाद।
ReplyDeleteहमारी टिप्पणी आलोक पुराणिक ने अपने नाम से क्यों कर दी?
ReplyDeleteQuote:
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किसी औरत के साथ यह होता तो हड़कम्प मचता – गाड़ी/एम्ब्यूलेंस बुलाओ, डाक्टर/नर्सिंग होम का इन्तजाम करो, तरह तरह के इंजेक्शन-ड्रिप्स और जरा सी देर होती तो डाक्टर सीजेरियन कर चालीस हजार का बिल थमाता। फिर तरह तरह के भोजन-कपड़े-दवाओं के इन्तजाम। और पता नहीं क्या, क्या।
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Unquote
आपने बहुत सही लिखा है।
यह पढ़कर कुछ पुराने विचार मन में फ़िर आ गए।
क्या हम मानव, जानवरों की तुलना में, कमज़ोर नहीं हैं?
क्या हम अपने जीवन को सभ्यता की आड में और पेचीदा नहीं बना रहे हैं? कभी जानवरों का Caesaerian Delivery होते सुना है?
पुराने जमाने में नर्सिंग होम भी नहीं थे, सब काम दाई करती थी। जानवरों को दाई की भी आवश्यकता नहीं पढ़ती।
न सिर्फ़ प्रसव में बल्कि हर क्रिया में हम जानवरों से पीछे रहे हैं।
बिना पकाए, और बिना नमक, मिर्च, मसाला के हम खा भी नहीं सकते।
जानवर तो मज़े से खा सकते हैं। न पैसे कमाने की आवश्यकता या बाज़ार जाकर कुछ खरीदने की।
हम मनुष्यों के लिए कपडों की सिलाई/धुलाई, सर्फ़, निर्मा, बर्तन माँझना, दन्त मंजन करना, जूते पहनना वगैरह के बिना जीवन बिताना असंभव हो गया है। जानवरों को इन चीजों की जरूरत ही नहीं पढ़ती। क्या इस कारण वे गन्दे रहते हैं? बिल्ली आजीवन नहाती नहीं पर मनुष्य से ज्यादा साफ़ रह्ती है।
जानवर आजीवन इश्वर का दिया हुआ खाल से अपना काम चला लेते हैं। कपडे बदलने की नौबत ही नहीं आती। सर्दी में न स्वेटर की आवश्यकता, और रात को सोने के लिए न बिस्तर न कंबल न मच्छरदानी या ओडोमॉस!
हमें खाने के लिए थाली, चमक, छुरी, काँटा गिलास, पानी, बैठने के लिए कुर्सी, थाली रखने के लिए मे़ज, और न जाने क्या क्या चीजों की जरूरत पढ़ती है। जानवर माँस या घास बिना किसी औपचारिकता के साथ और बिना इन अनावश्यक सहायक उप साधनों के खा लेते हैं।
ऐसे अनेक उदाहरण मेरे मन में आते हैं पर यह तो टिप्पणी है और ब्लॉग नहीं। आशा करता हूँ की ये प्यारे पिल्ले जल्द ही आँखे खोलकर खेलने लगेंगे (और वह भी बिना बैट/बॉल के) और बिना स्कूल में शिक्षा पाए बडे होकर अपनी अपनी जिविका का स्वयं प्रबन्ध कर लेंगे।
शुभकामनाएं
बहुत बढ़िया पोस्ट है. जिस पोस्ट की वजह से हमसब को अपना बचपन याद आ जाए, वो पोस्ट अच्छी होगी ही. भरतलाल और संदीप ने बड़ा अच्छा काम किया.
ReplyDeleteआज टीवी पर एक ख़बर देख रहा था. कोई 'माँ' अपने नवजात शिशु को अस्पताल के बाहर छोड़कर चली गई. बड़ी अजीब बात है. कहीं लोग हैं जो कुत्तों के नवजात के लिए इतने संवेदनशील हैं और कहीं माँ ही अपने नवजात को छोड़कर चली जाती है.
और कितने युग लगेंगे मानव-मन को समझने में?
संदीप ! अच्छे बच्चे झूठ नहीं बोला करते . पहले तो सब काले नहीं हैं और जो काले हैं वह तुम्हारी तरह नहीं हैं बल्कि तुमसे ज्यादा काले हैं . इसी के साथ जच्चा और बच्चों के अच्छे स्वास्थ्य की कामना करते हुए मैं अपना भाषण यहीं समाप्त करता हूँ .धन्यवाद :)
ReplyDeleteकुदरत का कमाल देखिये कि आप भी वात्सल्य भाव के वशीभूत हो गयीं -कभी निराला जी ने ऐसे ही कुतिया के बच्चों को ठण्ड से ठिठुरते देख अपना एकमात्र कम्बल उन्हें ओढा दिया था ! उनकी आंखे खुले तब देखियेगा चिल्ल पों -और अपने घर से बाहर जाती रोटियाँ और दाल वगैरह !
ReplyDeletebacchon ke dil bahut masooom hote hai,bahut achhi postdoggy ke bachhe salamat rahe
ReplyDeleteज्ञानदत्त जी आप ने बचपन याद दिला दिया, ऎसे दिनो मे मेरी पिटाई जरुर होती थी, कोय्कि मे कुतिया के पिल्ले को लेकर अपनी रजाई मै घुस जाता था, पिल्ला पहले तो सो जाता लेकिन आधी रात के बाद बाहर उस की मां रोती अपने बच्चे के लिये ओर अन्दर पिल्ला सब एक कमरे मै ही सोते थे, अगर रात को पिता जी की आंख खुल गई तो पहले डांट्ते थे, लेकिन मै पिल्ले को फ़िर से वापिस ले आता तो कभी कभी पिटाई, अगर पिता जी से बच गये तो सुबह तक पिल्ले ने हर तरफ़ गन्दगी कर दी होती तो मां सुबह सुबह मेरी पुजा करती थी... बहुत सुंदर दिन थे... आज आप ने याद दिला दिये
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लिखा है आप ने
धन्यवाद
प्रकृति तो सबकी चिन्ता समान रूप से करती है । यह तो मनुष्य ही है जो प्रकृति से छेडछाड करता है और दण्ड पाता है ।
ReplyDeleteज्ञानदत्त जी आप ने बचपन याद दिला दिया, ऎसे दिनो मे मेरी पिटाई जरुर होती थी, कोय्कि मे कुतिया के पिल्ले को लेकर अपनी रजाई मै घुस जाता था, पिल्ला पहले तो सो जाता लेकिन आधी रात के बाद बाहर उस की मां रोती अपने बच्चे के लिये ओर अन्दर पिल्ला सब एक कमरे मै ही सोते थे, अगर रात को पिता जी की आंख खुल गई तो पहले डांट्ते थे, लेकिन मै पिल्ले को फ़िर से वापिस ले आता तो कभी कभी पिटाई, अगर पिता जी से बच गये तो सुबह तक पिल्ले ने हर तरफ़ गन्दगी कर दी होती तो मां सुबह सुबह मेरी पुजा करती थी... बहुत सुंदर दिन थे... आज आप ने याद दिला दिये
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लिखा है आप ने
धन्यवाद
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किसी औरत के साथ यह होता तो हड़कम्प मचता – गाड़ी/एम्ब्यूलेंस बुलाओ, डाक्टर/नर्सिंग होम का इन्तजाम करो, तरह तरह के इंजेक्शन-ड्रिप्स और जरा सी देर होती तो डाक्टर सीजेरियन कर चालीस हजार का बिल थमाता। फिर तरह तरह के भोजन-कपड़े-दवाओं के इन्तजाम। और पता नहीं क्या, क्या।
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आपने बहुत सही लिखा है।
यह पढ़कर कुछ पुराने विचार मन में फ़िर आ गए।
क्या हम मानव, जानवरों की तुलना में, कमज़ोर नहीं हैं?
क्या हम अपने जीवन को सभ्यता की आड में और पेचीदा नहीं बना रहे हैं? कभी जानवरों का Caesaerian Delivery होते सुना है?
पुराने जमाने में नर्सिंग होम भी नहीं थे, सब काम दाई करती थी। जानवरों को दाई की भी आवश्यकता नहीं पढ़ती।
न सिर्फ़ प्रसव में बल्कि हर क्रिया में हम जानवरों से पीछे रहे हैं।
बिना पकाए, और बिना नमक, मिर्च, मसाला के हम खा भी नहीं सकते।
जानवर तो मज़े से खा सकते हैं। न पैसे कमाने की आवश्यकता या बाज़ार जाकर कुछ खरीदने की।
हम मनुष्यों के लिए कपडों की सिलाई/धुलाई, सर्फ़, निर्मा, बर्तन माँझना, दन्त मंजन करना, जूते पहनना वगैरह के बिना जीवन बिताना असंभव हो गया है। जानवरों को इन चीजों की जरूरत ही नहीं पढ़ती। क्या इस कारण वे गन्दे रहते हैं? बिल्ली आजीवन नहाती नहीं पर मनुष्य से ज्यादा साफ़ रह्ती है।
जानवर आजीवन इश्वर का दिया हुआ खाल से अपना काम चला लेते हैं। कपडे बदलने की नौबत ही नहीं आती। सर्दी में न स्वेटर की आवश्यकता, और रात को सोने के लिए न बिस्तर न कंबल न मच्छरदानी या ओडोमॉस!
हमें खाने के लिए थाली, चमक, छुरी, काँटा गिलास, पानी, बैठने के लिए कुर्सी, थाली रखने के लिए मे़ज, और न जाने क्या क्या चीजों की जरूरत पढ़ती है। जानवर माँस या घास बिना किसी औपचारिकता के साथ और बिना इन अनावश्यक सहायक उप साधनों के खा लेते हैं।
ऐसे अनेक उदाहरण मेरे मन में आते हैं पर यह तो टिप्पणी है और ब्लॉग नहीं। आशा करता हूँ की ये प्यारे पिल्ले जल्द ही आँखे खोलकर खेलने लगेंगे (और वह भी बिना बैट/बॉल के) और बिना स्कूल में शिक्षा पाए बडे होकर अपनी अपनी जिविका का स्वयं प्रबन्ध कर लेंगे।
शुभकामनाएं