कल पहाड़ों के बारे में पढ़ा तो बरबस मुझे अपने बचपन की गंगा जी याद आ गयीं। कनिगड़ा के घाट (मेरे गांव के नजदीक का घाट) पर गंगाजी में बहुत पानी होता था और उसमें काले – भूरे रंग की सोंइस छप्प – छप्प करती थीं। लोगों के पास नहीं आती थीं। पर होती बहुत थीं। हम बच्चों के लिये बड़ा कौतूहल हुआ करती थीं।
मुझे अब भी याद है कि चार साल का रहा होऊंगा – जब मुझे तेज बुखार आया था; और उस समय दिमाग में ढेरों सोंइस तैर रही थीं। बहुत छुटपन की कोई कोई याद बहुत स्पष्ट होती है।
अब गंगा में पानी ही नहीं बचा।
पता चला है कि बंगलादेश में मेघना, पद्मा, जमुना, कर्नफूली और संगू (गंगा की डिस्ट्रीब्यूटरी) नदियों में ये अब भी हैं, यद्यपि समाप्तप्राय हैं। हजार डेढ़ हजार बची होंगी। बंगला में इन्हें शिशुक कहा जाता है। वहां इनका शिकार इनके अन्दर की चर्बी के तेल के लिये किया जाता है।
मीठे पानी की ये सोंइस (डॉल्फिन) प्रयाग के परिवेश से तो शायद गंगा के पानी घट जाने से समाप्त हो गयीं। मुझे नहीं लगता कि यहां इनका शिकार किया जाता रहा होगा। गंगा के पानी की स्वच्छता कम होने से भी शायद फर्क पड़ा हो। मैने अपने जान पहचान वालों से पूछा तो सबको अपने बचपन में देखी सोंइस ही याद है। मेरी पत्नी जी को तो वह भी याद नहीं।
सोंइस, तुम नहीं रही मेरे परिवेश में। पर तुम मेरी स्मृति में रहोगी।
इस वाइल्ड लाइफ ब्लॉग पर मुझे गांगेय डॉल्फिन का यह चित्र मिला है। ब्लॉग ओनर से परमीशन तो नहीं ली है, पर चित्र प्रदर्शन के लिये उनका आभार व्यक्त करता हूं। अगर उन्हें आपत्ति हो तो चित्र तुरत हटा दूंगा।
आज तो डॉल्फिन्स ने भी आपको पक्का याद किया होगा, ऐसे चाहने वाले कम होते हैं न!!
ReplyDeleteकाश, सब उन्हें आप जैसा ही चाहते तो आज गंगा जी भी कलकल कर रही होंती और सोंइन भी.
मेरा कुछ साल पहले इलाहाबाद में आना हुआ था, तब गंगाजी में पानी अचानक ही कहीं उत्तराचल वगैरह में बादल फटने और अतिवृष्टि के कारण पानी कुछ दिनों के लिये बढा और फिर अचानक ही काफी कम हो गया था, उसके बाद गंगा तट से संगम तक काफी दूर तक गाद जमा हो गई थी, मित्रगणों के साथ हमने मिलकर फैसला लिया कि चलो संगम तक इसी गाद के बीच होकर चलते हैं, नाव वगैरह आते समय कर लिया जाएगा औऱ हम चल पडे....चलना क्या था बस यूं कह ले....रोलर कोस्टर भी क्या मजा दिलायेगा....कमर तक बलुई गाद और उसके बीच हम सभी एक दूसरे का हाथ थामें, अन्य लोग भी हमारी ही तरह मजे के तौर पर गाद मे ही चल रहे थे.....लगता था अब गिरे कि तब गिरे....लेकिन किसी तरह संगम पर पहुंच ही गये.....पहुँचते ही हमारी नजर पानी में कुलांचे मारती इन्ही नन्हीं डॉल्फिनें पर पडी थी....कुछ-कुछ सुना था कि यहाँ सोइंस रहती हैं इसलिये अचंभा नहीं हुआ....लेकिन मेरे अन्य मित्र जो बाहर से आये थे यह जानकर काफी हैरान हुए कि यहाँ डॉल्फिन भी हैं....आज मैं आपकी ये पोस्ट पढकर हैरान हूँ कि वहाँ अब डॉल्फिन नहीं हैं।
ReplyDeleteकुछ सदियों बाद शायद कोई एलियन अपना ब्लाग लिखे और कहे- यहां आदमी लोग रह्ते थे! :)
ReplyDeleteमुझे तो डर लगता है कि सबकुछ सिर्फ़ स्मृति में ही रह जाएगा और फिर वह स्मृति भी लोप हो जाएगी। मैनें एक पूरी नदी को लोप होते देखा है।
ReplyDeleteडॉल्फिन कभी गंगा में देखने का सौभाग्य नही हुआ, हाँ यहाँ काफी देख चुके हैं, बस अब गंगा बची रही यही सबसे बढ़ी उपलब्धि होगी।
ReplyDeletesahi kash sab ne pehle unke baarein mein socha hota aaj bhi dolphin ganga mein hoti
ReplyDelete" मुझे नहीं लगता कि यहां इनका शिकार किया जाता रहा होगा। गंगा के पानी की स्वच्छता कम होने से भी शायद फर्क पड़ा हो।"
ReplyDeleteइससे साफ़ जाहिर है की प्रदूषण ही इसकी मुख्य वजह है ! और कोई माने या ना माने अब हम चाहे तो भी प्रदुषण पर काबू नही पा सकते ! इंसान की मजबूरियां बढ़ चुकी हैं ! आपकी बचपन की सुकोमल याद और सोईस के प्रति आपकी भावनाओं ने झिंझोड़ दिया है ! हम इंसान क्यूँ ऐसे काम करते हैं की दुसरे पशु,पक्षी और जानवरों का हमने रहना मुश्किल कर दिया है ?
गंगा और सिन्धु में पायी जाने वाली इन अंधी डोल्फिन के बारे में कोई रिपोर्ट पढी थी - तब से जानने की उत्सुकता थी. बाद में पढने को मिला कि किसी समय पर बनारस में भी यह बहुतायत में पायी जाती थीं. अब आपसे पता लगा कि आपके बचपन तक यह गंगा में बहुत थीं.
ReplyDeleteमैं तो यही मान कर चल रहा था कि डाल्फिन भारत में नहीं पाई जाती ।
ReplyDeleteआपने महत्वपूर्ण जानकारी से सम़ध्द किया । धन्यवाद ।
dolphin India mein to kabhi dekhi nahin--sach mein aaj suna aur inka hindi naam bhi bahut rochak hai :)---dolphin ka show yahan UAE mein dekha tha..ab bhi hota hai---achchee to lagti hain--gyanvardhak lekh ke liye dhnyawaad
ReplyDeleteमनुष्य इस दुनिया का सब से हिंसक प्राणी है। कभी दुनिया नष्ट होगी तो इसी की वजह से।
ReplyDeleteसुना हमने भी था की पटना के गंगा में सोईस बहुत होते थे, मगर मैंने उन्हें आज तक नहीं देखा है..
ReplyDeleteक्या केने क्या केने। आप तो यादों की बारात हैं। कहां की यादें कैसी यादें। क्या केने क्या केने। गंगा की डाल्फिन देखकर तो मजा आ लिया जी।
ReplyDeleteहम अपनी संतानो को ऐसी दुनिया देकर जाएंगे जहाँ प्रकृतिक सम्पदा व जिव जंतू तो बहुत होंगे मगर चित्रों में.
ReplyDeleteआलोक पुराणिक जी आनंद विभोर हुए जा रहे हैं. उनकी छलकती खुशी के कुछ छींटे इधर हम पर भी आन गिरे हैं.
ReplyDeleteआपका लेख पढ़कर दुख हुआ । इस तरह तो मनुष्य और उसके पालतू जानवरों व उसके द्वारा उगाई वनस्पति के सिवाय सब विलुप्त हो जाएगा । अवधिया जी भी वनस्पतियों और हाल में ही धान की विलुप्त होती किस्मों की बात कर रहे थे । सच में हम अपनी संतानों के लिए सिवाय रहने के लिए दड़बों और कार रेंगाने के लिए सड़कें ही छोड़कर जाएँगे । वैसे बिटिया से सुना है कि कुछेक डॉल्फिन बनारस में गंगा में अभी भी हैं । इनका जिक्र The Hungry Tide (शायद यही नाम है) में भी था।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
कनिगड़ा के घाट (मेरे गांव के नजदीक का घाट) पर गंगाजी में बहुत पानी होता था और उसमें काले – भूरे रंग की सोंइस छप्प – छप्प करती थीं। लोगों के पास नहीं आती थीं।
ReplyDeleteमैंने डॉल्फिन असली में तो नहीं देखी, सिर्फ़ चित्रों और टीवी पर ही देखी है इसलिए पक्के तौर पर नहीं कह सकता लेकिन पढ़ा/सुना यही है कि डॉल्फिन तो मनुष्यों के पास आराम से आ जाती हैं, इनको मनुष्य बहुत ही प्रिय होते हैं! टीवी पर डिस्कवरी और नैशनल ज्योग्राफ़िक चैनलों पर डॉल्फिन देखी हैं, समुद्र में चलती नावों और जहाज़ों के साथ-२ तैरती और अठखेलियाँ करती बहुत ही भली प्रतीत होती हैं, ऐसे भले और क्यूट कि क्या कहें। :)
ईश्वर ने मनुष्य को गंगाजल रूप में अमृत दिया और मनुष्य ने इसे गन्दा नाला बना दिया.
ReplyDeleteमाता ने अपने संतान द्वारा उपेक्षित हो दुखी होकर ही स्वयं को समेटना शुरू कर दिया है.बहुत समय नही लगेगा जब सोईंस मछलियों की तरह भी गंगा केवल स्मृतियों और पुस्तकों आख्यानों में रहेंगी.
आपके इस आलेख ने अपनी धरती/प्रकृति की दुर्दशा पर मन बोझिल कर दिया.
ReplyDeleteआपके विवरण की शैली तो ऐसी है कि पढ़ते पढ़ते व्यक्ति उसी स्थल पर पहुँच जाता है
ReplyDelete"मुझे नहीं लगता कि यहां इनका शिकार किया जाता रहा होगा" कम से कम ये तो नहीं था. ऐसे कई जीव-जंतु विलुप्त हो गए. प्रदुषण के साथ शिकार भी.
ReplyDeleteबचपन में हमारे खेतों में भी हिरन और गर्मियों में कुछ ख़ास पक्षी (पड़ी चिडिया के नाम से लोग जानते थे) दीखते थे. अब सब विलुप्त हो गए कभी-कभी नीलगाय दिख जाती है. मुझे तो शिकार ही मुख्य कारन लगता है इन चिडियों और हिरन के गायब होने का.
माँ बताती हैं की पहले सुबह इतने पक्षी उड़ते थे कि सुबह ४ बजे उनके उड़ने के आवाज से ही लोग उठते थे. शाम को बड़े चमगादड़ (जिन्हें हम बादुर कहते थे, और कहते कि ये अमरुद खाने जाते हैं शाम को) अब वो भी नहीं दिखते. बगीचों में गिद्ध नहीं रहे (बगीचे ही नहीं रहे), बन्दर अब घरों की छतों पर रहते हैं !
और गंगा के बारे में माँ बहुत कुछ बताती है गंगा किनारे उनका गाँव था. सुना है पहले बड़े-बड़े जहाज चला करते थे. जिनके जाने के काफ़ी बाद तक लहरें आती. घड़ियाल गंगा किनारे बालू पर लेटे दिख जाते... सोइंस के बारे में भी. सब सुना ही है :(
मार्मिक पोस्ट!
ReplyDeleteआज संगम तट पर सपरिवार गया था जहाँ एक बहुत बड़े विष्णुमहायज्ञ की पूर्णाहुति थी। यहाँ अभूतपूर्व एकसाथ १०८ यज्ञ मण्डप बनाये गये थे। देश भर से आये आचार्यों, पुरोहितों और यजमानों ने अद्भुत वातावरण बना रखा था। श्रद्धालुओं की भारी भीड़ तो थी ही।
ReplyDeleteगंगा की रेत में परिक्रमा-पथ पर हजारों नर-नारियों के बीच चलते हुए यही प्रार्थना कर रहा था कि काश यहाँ पर दूर-दूर से आने वाले श्रद्धालुओं को गंगा जी की अविरल और निर्मल धारा का पुण्य-लाभ अक्षुण्ण रूप से युगों-युगों तक मिलता रहे। बताते हैं कि इस यज्ञ का एक उद्देश्य यह भी था।
हमें आशावादी होना चाहिए अपनी ओर से इस दिशा में कोई न कोई योगदान अवश्य करना चाहिए।
आजकल इलाहाबाद के जिलाधिकारी (राजीव अग्रवाल) द्वारा गंगातट की सफाई के लिए छुट्टियों के दिन प्रायः सभी अधिकारियों के साथ स्वयं अपने हाथ में फावड़ा लेकर विशेष अभियान चलाया जा रहा है।
"सोंइस, तुम नहीं रही मेरे परिवेश में। पर तुम मेरी स्मृति में रहोगी।"
ReplyDeleteअपने स्वार्थ के लिये जिस तेजी से हम अपने परिवेश को नाश कर रहे हैं उस कारण शायद हमारे नातीपोतों को पेडपौधे और जानवर क्या होते थे यह देखने के लिये अजायबघर जाना पडेगा.
डोल्फिन इतनी बुद्धिमान होती है कि कुछ पूछिये मत. लेकिन बुद्धिहीन मानव ने उसे लगभग समाप्त कर दिया है.
मेरी अगली पीढ़ी तक और भी न जाने और क्या-क्या चीजें विलुप्त हो जाऍंगी। मेरे लिए भी यह हैरत भरी खबर रही। और आपने बड़ी शिद्दत से याद किया है-
ReplyDeleteसोंइस, तुम नहीं रही मेरे परिवेश में। पर तुम मेरी स्मृति में रहोगी।
आप ने बहित अच्छा लेख लिखा है.... ओर सब से ज्यादा नुकसान भी भारत मै ही हो रहा है, अभी भी वक्त है, हम सुधार ला सकते है, लेकिन वहां किसी को फ़िक्र ही नही, वरना हमरी नदियो का पानी साफ़ हॊ इस के लिये एक कडा नियम बन जाये काफ़ी है, जितनी भी फ़ेक्टरिया इस मे गंदा पानी डालती है एक दम से बन्द, गंदे नालो का पानी एक दम से बन्द, इन्हे पहले फ़िल्टर करो फ़िर फ़ेको..... लेकिन कोन करे ???
ReplyDeleteधन्यवाद एक अच्छे लेख के लिये
गंगा में डाल्फिन लुप्त हो गये जान कर दुख हुआ.
ReplyDeleteडोल्फिन का देशज नाम "सोंइन"
ReplyDeleteपहली दफे सुना !
- गँगा जी मेँ इसे पाया जाना
प्रथम बार सुना !
..पर्यावरण का प्रदूषण थमना
निहायत जरुरी है ..
बहुत अच्छी पोस्ट है
- लावण्या
Very informative article indeed.
ReplyDeleteअनूप शुक्लजी ने पते की बात कही है :)
ReplyDeleteगंगा में भी डोल्फिन पायी जाती थीं.....ये जानकर आश्चर्य हुआ! पता नहीं आगे आने वाली पीढियों को किस किस बात के लिए आश्चर्य करना पड़ेगा!
ReplyDeleteयह पोस्ट तो मैंने पढ़ तो ली थी लेकिन तत्क्षण टिप्पणी नही कर पाया था -आपने गंगा के साए में सिसकती सूंस पर ध्यान दिया बहुत अच्छा लगा .यद्यपि ये सकट ग्रस्त हैं पर अभी भी इलाहाबाद में सूंसे दिख जाती हैं -यमुना में ख़ास तौर पर ..
ReplyDelete" read this artical today only , found it too interesting to read, and amezed to know that dolfins are found in ganga river....inever thought of it, but ya cureosity is there to see them.."
ReplyDeleteregards
Very informative article indeed.
ReplyDelete"सोंइस, तुम नहीं रही मेरे परिवेश में। पर तुम मेरी स्मृति में रहोगी।"
ReplyDeleteअपने स्वार्थ के लिये जिस तेजी से हम अपने परिवेश को नाश कर रहे हैं उस कारण शायद हमारे नातीपोतों को पेडपौधे और जानवर क्या होते थे यह देखने के लिये अजायबघर जाना पडेगा.
डोल्फिन इतनी बुद्धिमान होती है कि कुछ पूछिये मत. लेकिन बुद्धिहीन मानव ने उसे लगभग समाप्त कर दिया है.
"मुझे नहीं लगता कि यहां इनका शिकार किया जाता रहा होगा" कम से कम ये तो नहीं था. ऐसे कई जीव-जंतु विलुप्त हो गए. प्रदुषण के साथ शिकार भी.
ReplyDeleteबचपन में हमारे खेतों में भी हिरन और गर्मियों में कुछ ख़ास पक्षी (पड़ी चिडिया के नाम से लोग जानते थे) दीखते थे. अब सब विलुप्त हो गए कभी-कभी नीलगाय दिख जाती है. मुझे तो शिकार ही मुख्य कारन लगता है इन चिडियों और हिरन के गायब होने का.
माँ बताती हैं की पहले सुबह इतने पक्षी उड़ते थे कि सुबह ४ बजे उनके उड़ने के आवाज से ही लोग उठते थे. शाम को बड़े चमगादड़ (जिन्हें हम बादुर कहते थे, और कहते कि ये अमरुद खाने जाते हैं शाम को) अब वो भी नहीं दिखते. बगीचों में गिद्ध नहीं रहे (बगीचे ही नहीं रहे), बन्दर अब घरों की छतों पर रहते हैं !
और गंगा के बारे में माँ बहुत कुछ बताती है गंगा किनारे उनका गाँव था. सुना है पहले बड़े-बड़े जहाज चला करते थे. जिनके जाने के काफ़ी बाद तक लहरें आती. घड़ियाल गंगा किनारे बालू पर लेटे दिख जाते... सोइंस के बारे में भी. सब सुना ही है :(
ईश्वर ने मनुष्य को गंगाजल रूप में अमृत दिया और मनुष्य ने इसे गन्दा नाला बना दिया.
ReplyDeleteमाता ने अपने संतान द्वारा उपेक्षित हो दुखी होकर ही स्वयं को समेटना शुरू कर दिया है.बहुत समय नही लगेगा जब सोईंस मछलियों की तरह भी गंगा केवल स्मृतियों और पुस्तकों आख्यानों में रहेंगी.
आज संगम तट पर सपरिवार गया था जहाँ एक बहुत बड़े विष्णुमहायज्ञ की पूर्णाहुति थी। यहाँ अभूतपूर्व एकसाथ १०८ यज्ञ मण्डप बनाये गये थे। देश भर से आये आचार्यों, पुरोहितों और यजमानों ने अद्भुत वातावरण बना रखा था। श्रद्धालुओं की भारी भीड़ तो थी ही।
ReplyDeleteगंगा की रेत में परिक्रमा-पथ पर हजारों नर-नारियों के बीच चलते हुए यही प्रार्थना कर रहा था कि काश यहाँ पर दूर-दूर से आने वाले श्रद्धालुओं को गंगा जी की अविरल और निर्मल धारा का पुण्य-लाभ अक्षुण्ण रूप से युगों-युगों तक मिलता रहे। बताते हैं कि इस यज्ञ का एक उद्देश्य यह भी था।
हमें आशावादी होना चाहिए अपनी ओर से इस दिशा में कोई न कोई योगदान अवश्य करना चाहिए।
आजकल इलाहाबाद के जिलाधिकारी (राजीव अग्रवाल) द्वारा गंगातट की सफाई के लिए छुट्टियों के दिन प्रायः सभी अधिकारियों के साथ स्वयं अपने हाथ में फावड़ा लेकर विशेष अभियान चलाया जा रहा है।
कनिगड़ा के घाट (मेरे गांव के नजदीक का घाट) पर गंगाजी में बहुत पानी होता था और उसमें काले – भूरे रंग की सोंइस छप्प – छप्प करती थीं। लोगों के पास नहीं आती थीं।
ReplyDeleteमैंने डॉल्फिन असली में तो नहीं देखी, सिर्फ़ चित्रों और टीवी पर ही देखी है इसलिए पक्के तौर पर नहीं कह सकता लेकिन पढ़ा/सुना यही है कि डॉल्फिन तो मनुष्यों के पास आराम से आ जाती हैं, इनको मनुष्य बहुत ही प्रिय होते हैं! टीवी पर डिस्कवरी और नैशनल ज्योग्राफ़िक चैनलों पर डॉल्फिन देखी हैं, समुद्र में चलती नावों और जहाज़ों के साथ-२ तैरती और अठखेलियाँ करती बहुत ही भली प्रतीत होती हैं, ऐसे भले और क्यूट कि क्या कहें। :)