थामस एल. फ्रीडमान का न्यूयार्क टाइम्स का ब्लॉग पढ़ना आनन्ददायक अनुभव है। बहुत कुछ नया मिलता है। और वह पढ़ कर मानसिक हलचल बड़ी बढ़िया रेण्डम वाक करती है। बहुत जियें थामस फ्रीडमान। मुझसे दो साल बड़े हैं उम्र में। और समझ में तो सदियों का अन्तर होगा! अपने हाल ही के पोस्ट में उन्होने एक पते की बात कही है। माइकल मण्डेलबाम के हवाले से उन्होने कहा है: “शायद सन १९१७ की रूसी बोल्शेविक क्रान्ति के बाद पहली बार इतना जबरदस्त सम्पदा हस्तांतरण हुआ है, अब! और यह हस्तान्तरण अमीर से गरीब को नहीं, वरन भविष्य की पीढ़ी से वर्तमान पीढ़ी को हुआ है।” आने वाले अर्थव्यवस्था के सुधार के लिये, जो बहुत तनावपूर्ण होने जा रहा है, एक ऐसे राष्ट्रपति की आवश्यकता होगी जो देश को जोश, ऊर्जा और एकजुटता से इकठ्ठा रख कर नेतृत्व प्रदान करे। हमें इस अर्थव्यवस्था के खतरनाक दौर से उबरना है जब "बेबी बूमर्स" रिटायरमेण्ट के कगार पर हैं, और जिन्हें शीघ्र ही सोशल सिक्यूरिटी और अन्तत मैडीकेयर की जरूरत होगी। हम सभी सरकार को अधिक देने और कम पाने वाले हैं - तब तक, जब तक कि इस गड्ढे से उबर नहीं जाते। एक बार ध्यान से सोचें तो यह सच मुंह पर तमाचा मारता प्रतीत होता है। इस समय की भोग लिप्सा के लिये भविष्य पर कर्ज का अम्बार लगा दिया गया। आज के उपभोग के लिये आने वाले कल के जंगल, नदी, तालाब और हवा ऐंठ डाले गये। भविष्य के साथ वर्तमान ने इतनी बड़ी डकैती पहले कभी नहीं की! बड़ा क्राइसियाया (crisis से बना हिन्दी शब्द) समय है। ऐसे में अच्छे नेतृत्व की जरूरत होती है, झाम से उबारने को। और जो लीडरशिप नजर आती है – वह है अपने में अफनाई हुई। कुछ इस तरह की जिसकी अप्राकृतिक आबो हवा से ग्रोथ ही रुक गयी हो। कहां है वह लीडर जी! कहां है वह संकल्प जो भविष्य के लिये सम्पदा क्रीयेट करने को प्रतिबद्ध हो। आइये सोचा जाये!
|
|| MERI MAANSIK HALCHAL ||
|| मेरी (ज्ञानदत्त पाण्डेय की) मानसिक हलचल ||
|| मन में बहुत कुछ चलता है ||
|| मन है तो मैं हूं ||
|| मेरे होने का दस्तावेजी प्रमाण बन रहा है यह ब्लॉग ||
Wednesday, November 5, 2008
भविष्य से वर्तमान में सम्पदा हस्तांतरण
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
जी हाँ दुरस्त बात -आज के आदमी की पर्यावरणीय शोषण की जो स्थिति है उअसे तो यही लगता है की हम अपने भावी पीढियों के कर्जदार हो चले हैं !
ReplyDeleteसच बात है. फ्रीडमन को पढने में मुझे भी आनंद आता है.
ReplyDeleteआप तो जानते ही हैं जी कि दुनिया में कहीं भी कुछ होता है उसके जैसा भारत में पहले ही हो चुका होता है। राजा ययाति ने अपने लड़के से उसकी जवानी उधार लेकर मौज किये तो यहां धन-सम्पदा कौन चीज है जी?
ReplyDeleteउधारबाडी का सिलसिला तो लगा ही रहता है, बाहरवालों से उधारलेने से अच्छा है घरवालों से ही उधार ले लिया जाय..लेकिन विडंबना यह है कि हम लोग ही इस धरा पर घरवाले भी हैं और बाहरवाले भी हैं सो उधारी चक्र चल रहा है....लेकिन इस चक्कर मे अगली पीढी के लिये जो एकमुश्त कर्जे की रकम अदा करने की बारी आएगी तो शायद हमें सोचने का भी वक्त न मिले....पर्यावरण से लेकर आर्थिक क्षेत्र तक, सब जगह यही हाल है।
ReplyDeleteमुझे यही बात हजम नहीं हो पाती कि हर बात में हम हमेशा नेतृत्व की तलाश मे क्यूँ लग जाते हैं और बस, अपने दायित्वों की इति श्री!! गेंद दूसरे पाले में फैंकी और लगे नाचने.
ReplyDeleteक्या आपको नहीं लगता कि नेतृत्व से पहले आत्म संयम और आत्म अनुशासन की जरुरत आन खड़ी हुई है...कहाँ हो लीडर..कहाँ हो नेता वैसा ही है कि सब रायता फैला कर हम ईश्वर को पुकारें कि यह क्या कर रहे हो..कहाँ हो..भक्तों का ध्यान धरो!!
जरा सोचियेगा..हम सब एक एक कदम उठायेंगे..बहुतेरे कदम कहलायेंगे.सब उसी तरह दुरुस्त होगा..और इस पुकार चित्कार में नेता ..लीडर क्रेडिट ले जायेंगे..इसी से वो चल रहे अब तक..और हम सब इसी तरह पुकार कर उनके चलने का मार्ग प्रशस्त करते हैं.
वरना हमारे बिना उनकी क्या बिसात!!
गंभीर और गहरा विषय है.
पुछ्ल्ला तो खैर अपनी अहमियत हमेशा ही अपनी अहमियत बरकरार रखेगा...last person seen is on the mind...
out of sight our of mind type!!!
:)
बढ़िया सार्थक आलेख.
“शायद सन १९१७ की रूसी बोल्शेविक क्रान्ति के बाद पहली बार इतना जबरदस्त सम्पदा हस्तांतरण हुआ है, अब! और यह हस्तान्तरण अमीर से गरीब को नहीं, वरन भविष्य की पीढ़ी से वर्तमान पीढ़ी को हुआ है।”
ReplyDeleteथामस एल. फ्रीडमान ने बिल्कुल सही कहा है ! पर शायद यहाँ टिपणी में फ़ुरसतिया जी जो कह गए हैं ये ठीक वैसा ही नही है ? जब ययाति ने अगली पीढी का ध्यान नही रखा अपने मौज मजे के लिए ! तो यहाँ तो सीधे पुत्र की जवानी भी नही है !
आज के पुछल्ले महाराज ने कोशीश तो की है धनपतियों के साथ मीटिंग करके ! पर आप चुनाव हो जाने दीजिये ये भी आख़िर पुछल्ला ही साबित होगा ! जब पडौस में आग लगती है तो आपका मकान कितना ही मजबूत हो तपन तो पहुंचेगी ही ! पर चुंकी हम लोग फिरंगियों की तरह इतने आराम पसंद नही हुए हैं तो हमारी बहुसंख्य आबादी पर इसका कोई बहुत ज्यादा फर्क नही पडेगा ! ऐसा मेरा मानना है !
जैसा अनूप भाई कह रहे हैँ - ययाति का भविष्य क्या हुआ था ?
ReplyDeleteमहाभारत वेद व्यास जी का लिखा वही है " जो इसमेँ है वही विश्व
साहित्य मेँ मिलेगा, जो वहाँ नहीँ, वो कहीँ भी नहीँ " जब पीढी दर पीढी
बदलाव आते हैँ, भोग और सँयम के मापदँड भी बदल जाते हैँ - अगर
हम फ्रीडमेन जैसोँ की चेतावनी मान कर या गाँधी जैसोँ की बातेँ मानते
तब वर्तमान और भविष्य अलग स्वरुप ले पाता -
" as they say, hind sight
(vision) is always 20/20 "
यह वर्तमान बहुत स्वार्थी है। इसने भूत को छोड़ा है और न भविष्य को, और वर्तमान का भी अधिकांश किन के पास है? हम जरा सोचें।
ReplyDeleteफ्रीडमैन को पढ़ना और समझना बहुत महत्वपूर्ण है। दूर की सोचते हैं. दूर की कहते हैं। उन्हे देखकर पक्के तौर पर आश्वस्ति होती है, उन जैसे पत्रकार जब तक हैं, तब यह यह कहा जा सकता है कि इनसाइट्स विश्लेषण के मामले में टीवी शायद अखबार से आगे ना जा पाये।
ReplyDeleteख़बर पल की नहीं,सामां उम्र भर का।
ReplyDeleteक्राइसिया का यह दौर व्यक्ति से लेकर समाज तक, इतिहास से लेकर भूगोल तक, भूत से लेकर वर्तमान और वर्तमान से लेकर भविष्य तक, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक व्याप्त रहता है।
ReplyDeleteहम अवतारी की राह देखते है और वे नैतृत्व की. बाकी चिंतन सही है. असहमत हो ही नहीं सकते.
ReplyDeleteढ़ेरों बुद्धिमान हैं जो दुनियां जहान का पढ़ते हैं। अलावी-मलावी तक के राष्ट्र कवियों से उनका उठना बैठना है। बड़ी अथारिटेटिव बात कर लेते हैं कि फलाने ने इतना अल्लम-गल्लम लिखा,..............कुल मिला कर निष्कर्ष ये निकला .इण्टेलेक्चुअल बड़े डायसी पाठक होते है
ReplyDeleteवर्तमान तो हर काल में स्वार्थी ही होता है....क्योंकि समय यहां बीत और रीत रहा होता है। सो सब उसे अपने हिसाब से मोड़ना चाहते हैं। ये अलग बात है कि काल की गति अलग ही होती है। अंततः होता वहीं है जो तय है। मिलना वही है जो उसके हिस्से का है।
ReplyDeleteमुफ्त कुछ नहीं मिलेगा। श्रम से मिलेगा। श्रम का आधे से ज्यादा व्यर्थ जाएगा। उसमें से संतोष निचोड़ना है। वही पूंजी होगी ।
is stithi se nikalne ke liye sabko apna daayitv nibhana hoga...leader bhi hamare beech se hi to aate hain.ham nahi sudhrenge to achcha leader kahaan se paayenge?
ReplyDeleteथॉमस फ्रीडमान ऐसी बातें और ऐसे तरीके से लिखते हैं जो बड़ी लोकप्रिय होती हैं... !
ReplyDeleteऐसे समय में नेतृत्व की जरूरत तो होती है इसमें दो राय नहीं. शायद अमेरिका को एक और ऍफ़डीआर की जरुरत पड़े...
"बेबी बूमर्स" रिटायरमेण्ट के कगार पर हैं, और जिन्हें शीघ्र ही सोशल सिक्यूरिटी और अन्तत मैडीकेयर की जरूरत होगी" एक बात तो साफ़ है भारत को मेडिकल टूरिस्म पर खूब ध्यान देना चाहिए... आईटी के बाद अगला बड़ा बाजार इसके लिए हम खड़ा कर सकते हैं... !
सदियों से हम भारतियों की आदत फालोअर की हो गई है हर क्राइसियाया समय में लीडर को तलाशने लगते है। कहने को लोकतंत्र में जीते है अपने लीडर खुद चुनते है लेकिन जो चुने गये हैं उन पर भरोसा नहीं है। बडी मुश्किल स्थिती है।
ReplyDeleteसमीरजी की बात से सहमत हूँ कि "नेतृत्व से पहले आत्म संयम और आत्म अनुशासन की जरुरत आन खड़ी हुई "
शत प्रतिशत सहमत हूँ आपसे.
ReplyDeleteप्रकृति का अंधाधुन दोहन जिस तरह से हो रहा है,बचपन से तो इन्ही के बीच रही हूँ और हरे भरे उजडे पहाडों को देखकर बस ऐसा ही लगता रहा है जैसे कोई बच्चा अपने हाथों अपने माँ का चीरहरण कर नग्न किए जा रहा हो.
थॉमस फ्राइडमैन को मुंबई इंडियन एक्सप्रेस छापता रहता है । वो बहुत ही सुलझे विचारों वाले पत्रकार हैं । पिछले दिनों उन्होंने भारत में कॉलसेन्टरों के आ जाने से युवा पीढ़ी,भारतीय संस्कृति और सोच में आए बदलाव पर डिस्कवरी के लिए एक शानदार प्रोग्राम बनाया था । जिसे हमने बहुत ही ध्यान से देखा । उन्हें कभी कभार डिस्कवरी चैनल पर भारतीय विषयों पर देखा जा सकता है ।
ReplyDeleteThomas Freidman के बारे में पहले भी सुन चुका हूँ। भूमंडलीकरण पर The world is flat किताब उनकी ही लिखी हुई थी।
ReplyDeleteउनके विचारों से सहमत हूँ। हम भविष्य और पर्यावरण से उदार नहीं ले रहे हैं उनको लूट रहे हैं।
--------------------
पुछल्ले को हम ध्यान से पढ़ते हैं। अंग्रेज़ी में कहा गया है "The sting of the scorpion is in its tail" यानी बिचछू की डंक उसकी पूँछ में होती है।
आपको अब भी लगता है कि पुछल्ला ही बिकता है? नहीं जी, छछूंदर और चमेली का तेल बिकता है. आज की सिंह गर्जना बड़ी बेभाव की रही, या शायद आपने टिप्पणीकारों को झकझोर दिया.
ReplyDeleteहम भावी पीढियों के कर्जदार हो चले हैं जी नही उन के लिये हम ने सांस लेने के लिये , जीने के लिये मोके बहुत कम कर दिये है, हम उन के कर्ज दार हो गये है
ReplyDeleteलेकिन चेते तो अभी भी नही... ना ही चेते गे
भारत एक ऎसा देश है जहां इतना पानी होने के वावजुद पीने का पानी साफ़ नही, हमारी नदिया जहर से भर गई है, खेतो मे हर तरफ़ जहर जानबर, पक्षी मर रहै है... धीरे धीरे हम सब का ना० आयेगा, जहां भी नजर डालो सिर्फ़ गन्दगी ओर गन्दगी, धुआं
आप के आज के लेख से बहुत कुछ मिला धन्यवाद
हर संकट में हम नेतृत्व की ओर देखते हैं इसके पीछे...सदैव हमारी अकर्मण्यता नहीं अपितु नेतृत्व के प्रति विश्वास के साथ दिये गये जिम्मेदारी को परखने की होती है. समस्या का निवारण कर-करके ही मानव सभ्यता के इस सोपान पर है....यह आया हुआ संकट भी गुजर जाएगा...कहीं सामान्य ढंग से तो कहीं झकझोर के..! लेकिन इस बहाने कई नेतृत्व कर्ता परीक्षित होंगे अपने कार्यों , गुणों के लिए....जो असफल होंगे...उनके विकल्प ढूंढ़ लिए जायेंगे...यथा..ओबामा.! लेकिन फ़िर भी नेतृत्व अपनी भूमिका कैसे भी निभाये, उसे आम लोगों से और आम लोगों को स्वतः से आत्म अनुशासन, आत्म संयम का व्यवहार करना ही होगा. नहीं तो समय होत बलवान हम मानवों की ही बनाई हुई कहावत है.....! कहाँ लगते हैं...फ़िर भूत, भविष्य ....वर्तमान.
ReplyDeleteसमीरजी (उडन तश्तरी) की बात को आगे बढाने का दुस्साहस कर रहा हूं ।
ReplyDeleteहम सब, 'वस्तुपरक भाव' से बात करते हैं और खुद को अलग रख कर बात करते हैं । जिस दिन हत 'आत्मपरक भाव' से, खुद को शरीक करते हुए बात करेंगे उस दिन हमारी भाषा बदल जाएगी । लेकिन वैसा कोई नहीं करेगा क्यों कि तब जिम्मेदारी उठानी पडती है । यह सब कहमे हुए, इस बात में मैं खुद को भी शरीक कर रहा हूं । मैं भी यही सब कर रहा हूं ।
वर्तमान तो हर काल में स्वार्थी ही होता है....क्योंकि समय यहां बीत और रीत रहा होता है। सो सब उसे अपने हिसाब से मोड़ना चाहते हैं। ये अलग बात है कि काल की गति अलग ही होती है। अंततः होता वहीं है जो तय है। मिलना वही है जो उसके हिस्से का है।
ReplyDeleteमुफ्त कुछ नहीं मिलेगा। श्रम से मिलेगा। श्रम का आधे से ज्यादा व्यर्थ जाएगा। उसमें से संतोष निचोड़ना है। वही पूंजी होगी ।
क्राइसिया का यह दौर व्यक्ति से लेकर समाज तक, इतिहास से लेकर भूगोल तक, भूत से लेकर वर्तमान और वर्तमान से लेकर भविष्य तक, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक व्याप्त रहता है।
ReplyDeleteजैसा अनूप भाई कह रहे हैँ - ययाति का भविष्य क्या हुआ था ?
ReplyDeleteमहाभारत वेद व्यास जी का लिखा वही है " जो इसमेँ है वही विश्व
साहित्य मेँ मिलेगा, जो वहाँ नहीँ, वो कहीँ भी नहीँ " जब पीढी दर पीढी
बदलाव आते हैँ, भोग और सँयम के मापदँड भी बदल जाते हैँ - अगर
हम फ्रीडमेन जैसोँ की चेतावनी मान कर या गाँधी जैसोँ की बातेँ मानते
तब वर्तमान और भविष्य अलग स्वरुप ले पाता -
" as they say, hind sight
(vision) is always 20/20 "
उधारबाडी का सिलसिला तो लगा ही रहता है, बाहरवालों से उधारलेने से अच्छा है घरवालों से ही उधार ले लिया जाय..लेकिन विडंबना यह है कि हम लोग ही इस धरा पर घरवाले भी हैं और बाहरवाले भी हैं सो उधारी चक्र चल रहा है....लेकिन इस चक्कर मे अगली पीढी के लिये जो एकमुश्त कर्जे की रकम अदा करने की बारी आएगी तो शायद हमें सोचने का भी वक्त न मिले....पर्यावरण से लेकर आर्थिक क्षेत्र तक, सब जगह यही हाल है।
ReplyDelete