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Saturday, November 15, 2008
मूंगफली की बंहगी
कल दिन भर कानपुर में था। दिन भर के समय में आधा घण्टा मेरे पास अपना (सपत्नीक) था। वह बाजार की भेंट चढ़ गया। चमड़े के पर्स की दुकान में मेरा कोई काम न था। लिहाजा मैं बाहर मूंगफली बेचने वाले को देखता रहा।
और लगा कि बिना बहुत बड़ी पूंजी के मूंगफली बेचना एक व्यवसाय हो सकता है। सड़क के किनारे थोड़ी सी जगह में यह धकाधक बिक रही थी। स्वस्थ वेराइटी की बड़े दाने की मूंगफली थी।
एक जगह तो बेचने वाला कार्ड बोर्ड की रद्दी और स्कूटरों के बीच सुरक्षित बैठा था। बेचते हुये खाली समय में मूंगफली छील कर वेल्यू-ऐडेड प्रॉडक्ट भी बना रहा था।
ये मूंगफली वाले पता नहीं पुलीसवालों को कितना हफ्ता और कितना मूंगफली देते होंगे। और इलाके का रंगदार कितना लेता होगा!
हम भी यह व्यवसाय कर सकते हैं। पर हमारे साथ एक ही समस्या है – बेचने से ज्यादा खुद न खा जायें।
अनूप शुक्ल की फोटो खींचनी थी। उनसे तो मिलना न हो पाया – यह मूंगफली की बंहगी वालों के चित्र ही खटाक कर लिये। क्या फर्क पड़ता है – खांटी कानपुरिया चित्र हैं।
कल मैने सोचा तो पाया कि समाज सेवा ब्लॉगिंग से कहीं ज्यादा नोबल काम है। पर वह बहुत उत्तम दर्जे का अनुशासन और व्यक्तित्व में सब्लीमेशन (sublimation – अपनी वृत्तियों का उदात्तीकरण) मांगता है। जो व्यक्ति जीवन में प्रबन्धक की बजाय प्रशासक रहा हो – उसके लिये समाज सेवा ज्यादा कठिन कार्य है। पर, मैं गलत भी हो सकता हूं।
कल मुझे आप लोगों ने मेरे और अनूप जी के ब्लॉग पर जन्मदिन की बधाई दीं। उसका बहुत बहुत धन्यवाद। बधाई के चक्कर में पीटर ड्रकर की महत्वपूर्ण बात दब गयी!
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कम्पूटर चित्रकला के तो आप मास्टर हो गए हैं, ऐसा लगता है. गुस्ताखी माफ़, "खांटी कानपुरिया चित्र" में खांटी का क्या अर्थ होता है?
ReplyDeleteआपने सही कहा कि समाज सेवा सचमुच नोबल काम है और इस काम की खूबी यह है कि इसे करना इसके बारे में सोचने से भी आसान है. यह किसी भी देश, काल में किसी भी रूप में आनंदपूर्वक किया जा सकता है.
@ >स्मार्ट इण्डियन - "खांटी कानपुरिया चित्र" में खांटी का क्या अर्थ होता है?
ReplyDeleteखांटी से मेरा अर्थ यहाँ "बिना लाग लपेट के, कच्चा माल - raw material" के रूप में है। इसी बंहगी वाले को फाइव स्टार होटल के पोडियम पर बिठा दें तो वह खांटी कानपुरिया नहीं रह जायेगा!
चित्रकला में महारत हासिल करने के लिए बधाई. कृप्या इस तारीफ को चाटूकारिता की श्रेणी में न रखा जाये.
ReplyDeleteसाथ ही, कल की पोस्ट पर ही, यदि सभी समाजसेवी हो लेंगे तो फिर समाज में भी ब्लॉग जैसा माहौल लोगों को लगने लगेगा कि तू मेरी पीठ खुजा और मैं तेरी. सभी तो समाज सेवी हो जायेगे तो सेवा भी आपस में ही करनी होगी.
जहाँ समाजसेवियों की जरुरत है, वहीं समाज में प्रताडित लोगों की भी और प्रतारणा देने वालों की भी और उदासीनों की भी. तभी बैलेंस बना रह सकता.
प्रथम कैरियर तो आजिविका की मजबूरी में चयनित हो गया था. बहुत ऑप्शन नहीं थे मगर दूसरा तो मन का करने दो भाई कि उसमें भी सलाह?
वैसे मूंगफली बेचने में आपकी असक्षमता खुद खा लेने से ज्यादा, एकस्ट्रा ऑबजर्वेशन है. आप खराब मूंगफली अच्छी मूंगफली के साथ मिलाकर बेचने की बजाय फेंकने लगोगे और यकीन जानिये इसका अर्थ होता है मुनाफा फेंक दिया-मूंगफली बेचने वालों की भा्षा में.
कल वाला पीटर ड्रकार साहब का लेख दीपक को भी फोर्वर्ड किया और
ReplyDeleteउसकी कोपी निकाली गयी है -
उसको ध्यान से पढने के हेतु से -
जन्मदिन बढिया रहा होगा -
मूँगफली से एक वाकया याद आया है
चलिये...
१ नई पोस्ट बन जायेगी :)
मूँगफली , गरीब का मेवा
कहलाती है और खुराक मेँ प्रोटीन देनेवाला खाध्यान्न है !
- लावण्या
कल ब्लागिंग को दूसरे कैरियर के रूप में बताया। आज मूंगफ़ली बेचना भा रहा है। आपकी कैरियर सलाहें तो सेंसेक्स की तरह चोला बदलती हैं।
ReplyDelete'समाज सेवा ब्लागिंग से ज्यादा नोबल काम है ।' लगता है आप जल्दी ही चुनाव मैदान में नजर आएंगे ।
ReplyDeleteशुभ-कामनाएं । तब ब्लागियों की इज्जत बढ जाएगी ।
कल आपकी पोस्ट पर किन्ही महाशय ने टिप्पणी की थी कि आप शायद चाटुकारों से घिरे है....ऐसा ही कुछ....तो मैं उन महाशय को कहना चाहता हूँ कि जब कभी आप सफर पर निकलते है तो अपने साथ यात्रा कर रहे यात्री से जरूर कुछ बातें कर लेते हैं...कहाँ जा रहे हैं...क्या करते हैं..अपनी बातें शेयर करते हैं वह भी अपनी बाते आपसे शेयर करता है तो सफर आसान हो जाता है और यहाँ तो जिंदगी का सफर चल रहा है, हर कोई अपनी जिंदगी के सफर में कहीं अपने देश मे तो कहीं विदेश में बैठे सफर कर रहा है.... यदि अपनी जिंदगी के कुछ पल को, कुछ खुशीयां...कुछ गम को एक दूसरे से यदि यह यात्री शेयर करते हैं तो इसे चाटुकारिता तो नहीं कहा जा सकता.....इसे मैं स्नेह कहना चाहुँगा जो कि जिंदगी के सफर में साथ यात्रा करते हुए आपस मे पनप गया है
ReplyDeleteघर में क्या बना है, यह तक जब हम लोग आपस में शेयर करते हैं तो इस आपसी पूछ-व्यवहार और लगाव-दुराव को आप केवल Text में देख सकते हैं लेकिन उसकी अनुभूतियों को समझने के लिये उसी तरह की भावनाओं वाला चश्मा चाहिये जो इस स्नेह भाव को दिखा सके।
मेरे हिसाब से चाटुकारिता वहां शुरू होती है जहाँ से किसी का निजी हित सधता है....और स्नेह वहाँ से शुरू होता है जहाँ से निजी हित खत्म होकर ऐक दूसरे के प्रति आपसी समझ और व्यवहार शुरू होता है
अपना प्लान तो चाय की दुकान खोलने का है।
ReplyDeleteचाय की दुकान में गपोड़ी बहुत आते हैं। लेखन का कच्चा माल भी जुटता रहेगा। उधर चाय छानी, इधऱ किसी की सुनी कहानी, लो जी काम हो लिया। शाम तक तीन सौ रुपये और चार व्यंग्य कमा लिये। और क्या चाहिए जी।
कवियों के लिए चाय के रेट दोगुने होंगे।
इस तरह मूंगफली बेचना बरसों पुराना व्यवसाय है। और आप जन्मदिन पर अन्य महत्वपूर्ण बातें क्यों करते हैं। जन्मदिन क्या महत्वपूर्ण नहीं होता?
ReplyDeleteअभी कुछ और करने को सोचने की फुरसत ही नहीं है। कई प्रोजेक्ट अधूरे पड़े हुए हैं। टाइम मैनेजमेन्ट कठिन हो गया है। ‘मिड लाइफ’ के आने में अभी देर है इसलिए क्राइसिस का अन्देशा नहीं है। यही सन्तोष है।
ReplyDeleteलेट हो गई,अस्पताल में थी ..पता चला कल आपका जन्म दिन था ..बहुत बधाई ...और बाकि बातों पर बाद में टिप्पणी करुँगी.
ReplyDeleteप्रशंसा झूठी हो सकती है, आलोचना शायद नहीं. अगर कोई आलोचनात्मक टिप्पणी देने के लिए समय निकाल रहा है तो इसका अर्थ यही है कि वह आपको महत्वपूर्ण मानता है और कहें न कहीं आपसे कोई जुडाव महसूस करता है. पिछली पोस्ट पर 'उपभोक्तानंद' की टिप्पणी पढ़ना अच्छा लगा. उनका नजरिया अलग है पर शायद एकदम से खारिज भी नहीं किया जा सकता.
ReplyDeleteham bhi ek din der se badhayi diye ja rahe hain.. kal kaam ke chakkar me blog par na ja sake the..
ReplyDeleteकल का कमेन्ट शायद बिन मांगी सलाह ही था ! चाटुकारिता के लिए तीन तरह के मित्र चाहिए , तालीमित्र, प्याली मित्र और थाली मित्र ! और मैं समझता हूँ की यहाँ ना आपके साथ और ना ही किसी दुसरे के साथ ऎसी कोई बात है ! यहाँ सब अपने आपमें सक्षम और मस्त है ! हाँ उनको कुछ इस बात से जलन होसकती है की आपको ( ज्ञानजी) तथाकथित चाटुकारों द्वारा ज्यादा तरजीह दी जाती है ! तो यह चाटुकारिता या ज्यादा तरजीह नही है ! यह हमारी संस्कृति का हिस्सा है ! आप उम्र में हमसे बड़े हैं और लोग जानते हैं की आप ५८ साल के होगये हैं ! इस वजह से आपको एक स्वाभाविक सम्मान सब देते है ! और अन्य वरिष्ठो को भी मिलता होगा ! रही टिपणी की बात तो यह भी सामाजिक व्यवहार ही है ! जब आप दुसरे को टिपियाते हैं तो स्वाभाविक ही लोग आपको भी प्रति टिपणी देंगे ही ! अत: चाटुकारिता वाली बात में दम नही है ! आपकी चाटुकारिता करके एक ब्लॉगर आपसे क्या स्वार्थ सिद्ध कर लेगा ?
ReplyDeleteदुसरे आप मूंगफली में भी पोस्ट देख लेते है हमको भैंस से कम में कुछ दिखाई ही नही देता ! हम तो धंधा नही बदलेंगे ! हमको इसके अलावा कुछ आता जाता नही ! जब तक आनंद आरहा है तब तक आप लोगो के साथ हैं ! नही तो टंकी पर बिना चढ़े ही रवानगी डाल देंगे ! :) किसी को कानो कान ख़बर भी नही होगी !
एक बात कल की टिपणी के सम्बन्ध में और रह गयी - अगर आदमी दुसरे की सलाह से ही सब कुछ अपना कैरियर वगैरह तय करने लगे तो ये मर्यादावादी तो भगवान को भी दुनिया नही बनाने देते ! फ़िर हम कहाँ होते ? लाख टके का सवाल है ?
भई ज्ञान जी मूंगफली क्या दिखलाईं आपने । ममता जी तो इलाहाबाद जाने को अधीर हो गई हैं । उनका कहना है कि ठंड की रात में जोर से 'ताजी भूंजी मूंगफली' की बांग लगाने वाला वो मूंगफली वाला इलाहाबाद में अब भी आता होगा । छोटे शहरों के ये सुख हम बहुत मिस करते हैं । वो दृश्य याद करते हुए ममता जी कह रही हैं कि छोटे से चिराग़/ डिब्बी के सहारे गली गली घूमने वाला वो मूंगफली वाला देवता जैसा लगता था । ऐसी दिव्य मूंगफली यहां कहां ।
ReplyDeleteममता सिंह
arey wah..hamarey kanpur ki photo hai..
ReplyDeleteप्रशासकीय अनुभव समाजसेवा में काम आ सकता है. यह भी एक गुणवत्ता ही है.
ReplyDeleteभाई जी, ये इंडिया है। यहाँ पर मूंगफली ही नहीं, सब जगह खाने की चीजें मिल ही जाती हैं। आख़िर हमारा तुम्हारा ध्यान भी तो रखा जाता है।
ReplyDeleteचित्र बढ़िया है.. जन्मदिवस बढ़िया रहा होगा..
ReplyDeletebouth khob
ReplyDeletenice post ji
Shyari Is Here Visit Jauru Karo Ji
http://www.discobhangra.com/shayari/sad-shayri/
Etc...........
लग रहा है आप लाभोत्पादक और आसान व्यवसायों पर कोई शोध कर रहे हैं मूंगफली बेचें या फ़िर पेंटिंग की सोचें अभी यही नही समझ में आ रहा है कोई और व्यवसाय नजर आए तो बताईएगा
ReplyDeleteअरे वाह अभी तक ऎसे भी मुफ़ली (मूगंफ़ली) बिकती है,्धन्यवाद पुराने दिन याद दिला दिये
ReplyDelete"कल मैने सोचा तो पाया कि समाज सेवा ब्लॉगिंग से कहीं ज्यादा नोबल काम है।"
ReplyDeleteहे प्रभु, ज्ञान जी के मन में आप कैसी कैसी उल्टी बातें सुझा दिया करते है!!!!
कानपुर में अपना कॉलेज छोड़कर कभी कुछ पसंद नहीं आया. पता नहीं क्यों पर नाम सुनते ही अपनापन लगता है. हर चीज बुरी-गन्दी लगते हुए भी याद आती है ! शायद बड़े अच्छे दिन बीते वहां इसलिए. बाकी खांटी तो है इसमे कोई शक नहीं.
ReplyDelete--
@समीरजी: (क्षमा सहित) पता नहीं क्यों आपकी टिपण्णी से असहमति लगती है. वैसे ना तो मैं समाजसेवी हूँ ना ही ढंग का ब्लोगर ही. फिर भी जो अच्छा लगता है वही कहे दे रहा हूँ. आप बुरा नहीं मानेगे मानकर चल रहा हूँ.
यदि सभी समाजसेवी हो लेंगे: बात तो बिल्कुल सही है पर क्या ये सम्भव है? ये तो वही बात हो गई की सभी परमात्मा की खोज में महात्मा हो जायेंगे तो दुनिया का क्या होगा? अरे प्राचीन काल से अपने देश में महात्माजन सिखाते रहे... ऐसा कहाँ हुआ कि सभी लोग नैष्ठिक ब्रह्मचारी हो गए? उपकुर्वाण भी नहीं हो पाये. (दोनों शब्द गीता प्रेस के किसी लेख से :-))
जहाँ समाजसेवियों की जरुरत है, वहीं समाज में प्रताडित लोगों की भी और प्रतारणा देने वालों की भी: ओह क्या सच में प्रताडित लोगों की जरुरत है ? मुझे तो कहीं इनकी जरुरत नहीं दिखती. हाँ ये कह सकते हैं की प्रताडित को ख़त्म कर देना आसान नहीं लेकिन जरुरत क्यों?
उसमें भी सलाह? अरे बाप रे ! आशा है आपने मेरी टिपण्णी पढ़ के ये नहीं लिखी होगी :-) सलाह देने की अभी तक औकात नहीं. गनीमत है मैंने व्यक्तिगत शब्द लिख दिया था. हा हा !
पहले तो बधाई!!!! आपको जन्म दिन की !!
ReplyDeleteफ़िर तथाकथित चाटुकार बनने की राह में !
आपका नया धंधा है तो बढ़िया , लेकिन उसमे एक पेंच है की लोग मूंग फली तौलने के पहले 5 -10 मूंग फली तो रेट जानने में ही निपटा देते हैं . खतरा कम ही लें तो ही अच्छा ?
हाँ एक बात और !!
यदि आप वास्तव में आ जायें राजनीती में जैसी सलाह मिल रही है , बढ़िया ही होगा........कोई तो "........" आए / वरना तो सब वही ???? आ रहे हैं /
कल ब्लॉग पढ़ना न हो पाया, इसलिए पता ही न चला। जन्मदिन की विलंबित शुभकामनाएँ। :)
ReplyDeleteजन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाए। इस बार भूल गया, अब नही भूलूंगा।
ReplyDeleteअस्पताल में दाखिल हो, चिकित्सीय लाभ ले रहा हूँ।
ReplyDeleteचोरी-चोरी जब वहीं से इंटरनेट की दुनिया में नज़र मारी, तो पता चला कि आपका जनमदिन 14 नवम्बर को था।
देर से ही सही, जनमदिन की ढ़ेर सारी बधाई स्वीकारें।
मूँगफली दिल्ली में खाने का ध्यान तो नहीं रहता, यहॉं तो पॉपकार्न का जमाना आ गया है:)
ReplyDelete'बेचने से ज्यादा खुद न खा जायें। '--wah! kya baat kahi--:D--aap ki post padh kar anand aa gaya...
ReplyDeletemoongphali 'taazi bhuni 'khaye ek zamaana beet gaya!aap ne yaad dilaya to ab yaad aaya---
akhiri mein khaanti kanpuriye ka chitra hai wo bhi bahut badiya hai--:D
--
आपकी ट्यूब कभी खाली नहीं हो सकती . लिखके दे सकते हैं हम.
ReplyDeleteनमस्कार ज्ञान जी , रोचक एवम् संक्षिप्त रचना के लिए धन्यवाद |
ReplyDeleteकभी फ़ुर्सत से फ़ुर्सत मिले तो हमारे ब्लॉग पर भी आइए |
विचार जो भी हो शिरोधार्य होंगे |
लिंक है ...................................
http://varun-jaiswal.blogspot.com
धन्यवाद
जन्मदिन की विलंबित शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteआपने सही कहा कि समाज सेवा सचमुच नोबल काम है और इस काम की खूबी यह है कि इसे करना इसके बारे में सोचने से भी आसान है.
जन्मदिन की हमारी भी विलंबित शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteहमारे घरमें हम कच्चे मूँगफ़ली को pressure cooker में पकाते हैं।
नमक/मसाला के साथ खाते हैं
बेंगळूरु में साल मे एक बार मूँगफ़ली का एक विशेष मेला लगता है।
मुख्य बाज़ारों में और कुछ खास सडकों पर मूँगफ़ली बेचने वाले जमा हो जाते हैं। हर कोई उस दिन मूँगफ़ली खरीदने निकलता है।
सोचा यह बात आपको रोचक लगेगी।
शुभकामनाएं
बढ़िया लेख -- और मूंगफली भी बढ़िया दिख रही है। मैं होता तो पांच रूपये की लेकर उधर ही कहीं थड़े-वड़े पर बैठ कर लुत्फ उठा लेता। सर, आप ने ऐसा क्यों नहीं किया ?
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