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Monday, November 10, 2008
भारत – कहां है?
भारत के संविधान या भारत के नक्शे में हम भारत ढूंढते हैं। सन १९४६-५० का कॉन्सेप्ट है वह। नक्शा बना सिरिल रेडक्लिफ के बाउण्ड्री कमीशन की कलम घसेटी से। संविधान बना संविधान सभा के माध्यम से। उसमें विद्वान लोग थे। पर आदि काल से संगम के तट पर विद्वतजन इकठ्ठा होते थे कुम्भ-अर्ध कुम्भ पर और उस समय के विराट सांस्कृतिक – धार्मिक वृहत्तर भारत के लिये अपनी सर्वानुमति से गाइडलाइन्स तय किया करते थे। वह सिस्टम शायद डिसयूज में आ गया है?!
जब मेरे मन में छवि बनती है तो उस वृहत्तर सांस्कृतिक – धार्मिक सभ्यता की बनती है जो बर्मा से अफगानिस्तान तक था। और जिसका अस्तित्व बड़े से बड़े तूफान न मिटा पाये। लिहाजा जब सतीश पंचम जी के हाथ कांपते हैं, राष्ट्रीयता के लिये “भारत” भरने विषय पर; तब मुझे यह वृहत्तर भारत याद आता है। मुझे लगता है कि मेरे जीवन में यह एक पोलिटिकल एण्टिटी तो नहीं बन पायेगा। पर इसे कमजोर करने के लिये जो ताकतें काम कर रही हैं – वे जरूर कमजोर पड़ेंगी।
मुझे भारत के प्राचीन गणतन्त्र (?) होने पर बहुत ज्यादा भरोसा नहीं है। मुझे यह भी नहीं लगता कि वैशाली प्राचीनतम गणतन्त्र था। वह सम्भवत: छोटे राजाओं और सामन्तों का गठजोड़ था मगध की बड़ी ताकत के खिलाफ। लिहाजा मुझे अपरिपक्व लोगों की डेमोक्रेसी से बहुत उम्मीद नहीं है। बेहतर शिक्षा और बेहतर आर्थिक विकास से लोग एम्पावर्ड हो जायें तो बहुत सुन्दर। अन्यथा भरोसा भारत की इनहेरेण्ट स्ट्रेन्थ – धर्म, सद्गुणोंका सम्मान, त्यागी जनों के प्रति अगाध श्रद्धा, जिज्ञासा का आदर आदि पर ज्यादा है।
क्या आपको लगता है कि यूं आसानी से भारत फिस्स हो जायेगा?
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यदि आप १९७७ को याद करें तो ध्यान आयेगा की जहाँ पढ़े लिखे प्रबुद्ध भारतीय रेलों के समय पर आने, आस-पड़ोस की झुग्गी बस्तियों के तोडे जाने, छोटे-मोटे अपराधियों के मुठभेड़ में मार दिए जाने आदि से प्रसन्न होकर आपातकाल के पक्ष में थे, भारत के अधिकाँश अशिक्षित, अल्प-शिक्षित, और युवा छात्रों (तथाकथित अपरिपक्व वर्ग) ने मिलकर नेहरू-गांधी वंश का अविश्वसनीय रूप से सफाया ही कर डाला था.
ReplyDeleteभारत में विभिन्न स्थानों और विभिन्न कालों में स्वतंत्र गणराज्य होते थे और जहाँ राजवंश थे वहाँ भी जनप्रतिनिधियों के रूप में मंत्रिमंडल होता था जिसको काटकर निरंकुश होना कठिन था. कंस आदि जिन राजाओं ने ऐसा प्रयास किया भी उन्हें जन-गन ने परस्त कर अपने चुने हुए नेता को वापस सत्ता दिलाई.
मुझे लगता है कि अंधाधुंध बाजारीकरण और राजनीतिक अपरिपक्वता के चलते सामाजिक और राष्ट्रीय पतन होना निश्चित है।
ReplyDeleteअव्व्ल, सतीश भाई का सम्मान क कोई ठेस न पहुँचाते हुए, हाथ कांपना ही चाहिये जब आप नागरिकता भारतीय की जगह भारत लिखें. :)
ReplyDeleteदूजा, विश्वास या अंध विश्वास..भारत के फिस्स होने का सपना..जो कई राष्ट्र इन्क्लूडिंग आतंकवादी गाहे बगाहे देख लिया करते हैं..वो महज एक गालिब ख्याल अच्छा है, दिल को बहलाने के लिए. ही है और उससे उपर कुछ नहीं.
क्यूँकि भारत की खासियत यह है कि प्रशासन पर डिपेन्डेन्ट नहीं है. पूरी संसद मिट जाये..वो ऐसा ही चलता रहेगा,,,,भले ही गर्त की दिशा में. सबरे सक्षम हों तो हस्तक्षेप ठीक नहीं. :)
आपने ठीक ही विचार किया..महर्षि अरविन्द की यह किताब कई बार छानी है..मगर छलनी में ही तथ्य बह गये क्यूँकि आम नागरिक था अतः सतह से उट नहीं पाया. शायद बहुतों के साथ हो ऐसा..मगर कितने मानेंगे..इसीलिए भारत चलता जायेगा.
हम परम्परावादी समाज हैं और निरक्षर भले ही हों, नासमझ नहीं । जो भी अति करता है, मदानध होता है, उसे कूडे के ढेर पर फेंक देते हैं फिर वह इन्दिरा गांधी हो या अटल बिहारी । 'आत्मा' और 'आत्मा ही परमात्मा है' की अवधारणा हमें बेचैन किए रहती है । रोटी के मुकाबले आज भी यहां स्वाभिमान को प्राथमिकता दी जाती है । नाउम्मीद नहीं, बाउम्मीद रहना हमारा स्थायी भाव है, भले ही हम सबको कोसते रहें ।
ReplyDelete@भारत की इनहेरेण्ट स्ट्रेन्थ – धर्म, सद्गुणोंका सम्मान, त्यागी जनों के प्रति अगाध श्रद्धा, जिज्ञासा का आदर आदि...
ReplyDeleteगुरुदेव, यह जो भारत की अन्तस्थ (आन्तरिक)शक्ति है वह राजसत्ता से निरपेक्ष रही है। भारतीय समाज का संचालन इन्हीं सनातन मूल्यों ने किया है जिनका प्रसार `वर्मा से अफगानिस्तान तक' रहा है।
राजा-रजवाणे आये और चले गये। उनका प्रभाव ग्राम्य जीवन और संस्कृति पर कम ही पड़ा। दिल्ली का ताज चाहे जिस के सिर पर पर बँधा रहा हो आम जनमानस तो हमारी ऋषि परम्परा और सनातन धर्म से ही आलोड़ित होता था। तभी तो गोस्वामी जी ने कहा था-
कोउ नृप होहिं हमें का हानी।
सम्राट अकबर ने जब उन्हें अपने राज-दरबार का कवि बनाना चाहा था तो मना करते हुए उन्होंने सन्देश भेजा था-
संतन को कहाँ सीकरी सो काम(फतेहपुर सीकरी)
"जब मेरे मन में छवि बनती है तो उस वृहत्तर सांस्कृतिक – धार्मिक सभ्यता की बनती है जो बर्मा से अफगानिस्तान तक था। और जिसका अस्तित्व बड़े से बड़े तूफान न मिटा पाये।"
ReplyDeleteऔर मुझे तो पूरा यकीन है की हम अब और नही बटेंगे ! हालांकी सबकी पीडा है , की हम "बर्मा से अफगानिस्तान" नही रहे ! आज जो हालत दिख रहे हैं वो चिंताजनक अवश्य हैं पर उनके इरादे अब सफल नही होंगे ! और मुझे तो लगता है की ये प्रजातान्त्रिक तरीके से सत्ता हथियाने का स्टंट मात्र है ! जब पंजाब और बंगाल को काबू किया जा सकता है तो ये कौन से खेत की मूली हैं ?
अच्छा और उपयोगी लेख !
ReplyDeleteआप के इस लेख के सन्दर्भ में मैं विष्णु बैरागी जी की बात से सहमत हूँ--कि
ReplyDelete'हम परम्परावादी समाज हैं और निरक्षर भले ही हों, नासमझ नहीं । '
और आप की इस बात से -कि -
'बेहतर शिक्षा और बेहतर आर्थिक विकास से लोग एम्पावर्ड हो जायें तो---'
मुझे तथा और भी भारत के बाहर रह रहे लोगों को भारत का भविष्य बहुत ही उज्जवल दिखयी देता है.
भारत का पुनर्जनम तो हो चुका है...२१विन सदी के आरंभ से ही.
भारत आज यदि कहीं है तो विदेशों में बसे सफलतम भारतीय सॉफ्टवेयर इंजीनियरों, डॉक्टरों, व्यसायियों में है। वह अन्य अनेकों देशों में तो है किन्तु यदि कहीं नहीं है तो सिर्फ भारत में।
ReplyDeleteयदि भारत के आसानी के साथ फिस्स हो जाने की जरा भी संभावना है तो अब समय आ गया है कि हम सब मिल कर उस संभावना को नष्ट कर दें और अपने भारत को वापस भारत में ले आयें।
मुश्किल सवाल से आँखे चुराने को मन कर रहा है. एक शक्तिशाली भारत का सपना है, मगर जमीनी वास्तवीकता कुछ और ही है. जिस घर को दीमक लग जाए वह कब तक खड़ा रह सकता है? भारत सिमटता जा रहा है.
ReplyDeleteबना दिया बाजार राष्ट्र को भूल गए अपना इतिहास.
ReplyDelete@जब मेरे मन में छवि बनती है तो उस वृहत्तर सांस्कृतिक – धार्मिक सभ्यता की बनती है जो बर्मा से अफगानिस्तान तक था। और जिसका अस्तित्व बड़े से बड़े तूफान न मिटा पाये।
यही छवि मेरे मन में भी बनती है. भारत फिस्स होने वाली सभ्यता नहीं है.
आशावादिता अच्छी बात है पर कुछ बातें कचोटती हैं.
ReplyDelete1. इसे कमजोर करने के लिये जो ताकतें काम कर रही हैं – वे जरूर कमजोर पड़ेंगी।
आपके इस विश्वास का आधार क्या है? क्या हमारा इतिहास मूर्खतापूर्ण भूलों की कहानी नहीं कहता? क्या हमने सभी जयचंदों की पहचान कर उनसे छुटकारा पा लिया है? क्या हमने एकजुटता का पाठ सीख लिया है?
2. भरोसा भारत की इनहेरेण्ट स्ट्रेन्थ – धर्म, सद्गुणोंका सम्मान, त्यागी जनों के प्रति अगाध श्रद्धा, जिज्ञासा का आदर आदि पर ज्यादा है।
सम्पूर्ण विश्व का इतिहास तो शांतिप्रिय और सभ्य संस्कृतियों के बर्बर क्रूर दमनकारियों के हाथों लुटने पिटने के उदाहरणों से ही भरा पड़ा है.
हर राष्ट्र और हर समाज की अपनी एक नीजता, अपनी पहचान होती है, वह सतत इसे बनाती-बिगाड़ती चलती है, इसलिए यह बदलाव इसके मूलभूत संरचना में बदलाव नहीं ला पाएगा।
ReplyDeleteयह पुस्तक जरुर पढ़ना चाहूँगा.
ReplyDeleteक्या आपको लगता है कि यूं आसानी से भारत फिस्स हो जायेगा?
ReplyDeleteबिल्कुल नही लगता.........
जो संस्कार और संस्कृति आत्मिक संतोष और शान्ति के सिद्धांतो की अनुगामी हो उसे मिटाना आसन नही.इतने झंझावातों को झेलकर भी यदि यह आज इतनी सुदृढ़ता से खड़ी है ,तो इसके इस गहरी नींव को सहज ही कोई उखाड़कर फेंक दे..... असंभव है.
मुझे भारत के प्राचीन गणतन्त्र (?) होने पर बहुत ज्यादा भरोसा नहीं है। मुझे यह भी नहीं लगता कि वैशाली प्राचीनतम गणतन्त्र था। वह सम्भवत: छोटे राजाओं और सामन्तों का गठजोड़ था मगध की बड़ी ताकत के खिलाफ।
ReplyDeleteऐसा आपको क्यों लगता है? क्या गणतंत्र की फिलासोफी ऑऊट ऑफ़ टाइम थी उस समय के लिए? गणतंत्र के बीज कबीलाई समाज से ही आए हैं जहाँ कुछ बड़े बुजुर्ग अपने काउंसिल का एक अध्यक्ष चुनते थे, कुछ-२ पंचायत जैसा। और वैशाली आदि अन्य गणतंत्र कई कबीलों आदि से ही बने थे जो कि एक और कारण था मगध जैसे अन्य राज्यों के उनसे बैर का क्योंकि वे राज्य इन कबीलाई गणतंत्रों को असभ्य समझते थे, ऐसी मिसालें अन्य जगहों पर भी मिलती हैं इतिहास में।
और इसी की तर्ज़ पर देखें तो फिर तो प्राचीन रोम के भी गणतंत्र होने में शक नहीं होता? कैसे कहा जा सकता है कि ईसा से 500 वर्ष पूर्व रोम में गणतंत्र की स्थापना हुई थी? जब वहाँ हो सकती है तो यहाँ क्यों नहीं हो सकती? :)
@ Amit (अमित) - गणतन्त्र से मैं अपने लेख में अर्थ "एक आदमी एक वोट" की वर्तमान अवधारणा से ले रहा हूं। मुझे नहीं लगता कि भारत में यह था।
ReplyDeleteपर मुझे बहुत अथॉरिटी से न लिया जाये! :-)
शिक्षा और "धर्म, सद्गुणोंका सम्मान, त्यागी जनों के प्रति अगाध श्रद्धा, जिज्ञासा का आदर आदि" में मुझे तो बहुत ज्यादा कोरिलेशन दीखता है. बिना शिक्षा के ये ख़त्म नहीं तो दुसरे अर्थ वाले तो हो ही जाते हैं.
ReplyDeleteसवाल भारत को ढूँढने का नही "भारतीयों "को ढूँढने का है सर जी !
ReplyDeleteकभी यह नहीं सोचा कि भारत कैसे चल रहा है मगर इतना विश्वास है कि छोटे बड़े झटकों के बावजूद यह ऐसा ही चलता रहेगा।
ReplyDelete“युगों का भारत मृत नहीं हुआ है, और न उसने अपना अन्तिम सृजनात्मक शब्द उच्चरित ही किया है; वह जीवित है और उसे अभी भी स्वयम के लिये और मानव लोगों के लिये बहुत कुछ करना है।
ReplyDeletesundar vichaar prastuti ke liye aabhaar.
भारत के गणतंत्र होने का यकीन मुझे भी नहीं है। इस दौर में राजतंत्र की पूरी संभावना हैं। बल्कि कहें कि लोकतंत्र में भी कई काम राजतंत्रीय तरीके से हो रहे हैं। नेता के बाद नेता पुत्र फिर उसका पुत्र, ये राजतंत्रीय मामला है। मूलत भारतीय मिजाज लोकतंत्र का है नहीं। वह घर हो या दफ्तर हो। भारतीज मिजाज को सच्ची का लोकतंत्र बनाने का काम बाकी है।
ReplyDeleteमुंम्बई युनिवर्सिटी के कलीना कैंपस में भारत की राजनैतिक सीमा दर्शाता एक सीमेंट का लगभग आधे फुट उंचा बृहद् आकार में चबूतरा बना है, उसके बगल में आप खडे होकर देखेंगे तो लगेगा कि भारत सो रहा है, थोडा दूर जाएंगे तो लगेगा भारत अब भी सो रहा है.....लेकिन जैसे ही आप थोडा और दूर जाते हैं लगता है कि भारत आपको देख रहा है......बस......यही मैं इस टिप्पणी के माध्यम से कहना चाहता हूँ।
ReplyDeleteजब हम भारत के भीतर होते हैं तो आसपास के वातावरण और हर ओर फैले भ्रष्टाचार, राजनैतिक कलुषित, घृणास्पद माहौल को देख कर यही लगता है कि हमारा भारत सो रहा है, जहाँ तक नजर पडती है लगता है भारत सो रहा है.......लेकिन जब थोडा दूर जाते हैं तो लगता है भारत हमारी ओर किसी आशा से देख रहा है......किसी उम्मीद से देख रहा है।
मुझे नहीं पता अब तक उस भारत के आकार के चबुतरे को कितने लोगों ने इस नजर से देखा है , लेकिन मैने जो अनुभव किया वह बता रहा हूँ.....शायद औरों की नजर में ये मेरा वहम हो.....लेकिन यह वहम मुझे खींचता है....अपनी ओर.....अपने इतिहास की ओर.....उम्मीद है इस खींचतान में कलम न टूटेगी.....हांथ न काँपेंगे ।
sir humari loktantra ki rai aap ke lekh se milti he
ReplyDeleteसँभावनाएँ कई हैँ
ReplyDeleteआवश्यकता है जागृति की
और सहकार की ~~
- लावण्या
भारत तो वही रहै गा, अगर अभी भी हम ना जागे तो, अगर अभी भी ना चेते ओर सब ऎसे ही चलता रहा, तो क्या होगा???? यह जरुर सोचे.
ReplyDeleteभारत इतनी आसानी से फिस्स नही होने वाला...थोड़ा मुश्किल से ही होगा!:-)
ReplyDeleteतीन सौ वर्षों पहले भारत की सीमायें कहाँ तक थीं?सिर्फ ६१ वर्षों में भारत की सीमाऎ क्या हो गईं हैं?कश्मीर,उत्तर- पूर्व बंगाल उड़ीसा केरल गोवा(जहाँ सरकार नें ३७१ अनुच्छेद के तह्त विशेष दर्जा दिये जानें का प्रस्ताव पारित किया है)महाराष्ट्र के कोस्टल एरियाज और गुजरात आदि में क्या हो रहा है?साम्यवादी परिवार क्या कर रहा है?सत्ता पर एकाधिकार समझनें वाली कांग्रेस कौन कौन से पाप बो रही है?तथाकथित सेक्युलर किसके विरोध में सबसे ज्यादा मुखर होते हैं?बिका हुआ,नहीं नहीं प्रतिबद्ध मीड़िया किसके गुण गा रहा है और किसके विरोध में मुहिम चला रहा है?वोट वाला गणतन्त्र लिच्छिव,वैशाली आदि कभी नहीं थे।वर्तमान गणतंत्र के भविष्य के विषय में सैय्यद शाहबुद्दीन पहले बता चुके हैं ‘अगर भारत में लोकतंत्र रहेगा तो आबादी के अनुपात के कारण भारत २०२० में मुस्लिम राष्ट्र होगा’।
ReplyDeleteबिना हिन्दुओं के भारत कैसा होगा?केरल के मल्लापुरम डिस्ट्रिक्ट में क्या हो रहा है?यह ज्यादा अच्छी तरह से कांग्रेस साम्यवादी समाजवादी और कायर सेक्युलर ही बता पाएंगे जो सही को सही और गलत को गलत कह्ते हकलाते हैं।काँची कामकोटि के शंकराचार्य को मात्र प्रतिशोध के लिए बंद किया प्रताडित किया,तथाकथित जागरूक समाज सोता रहा?जब लगातार बम विस्फोटों मे मुस्लिम आतंकवादी पकडे जा रहे थे तो वोट के लिए कम्पनसेटरी ग्राउण्ड पर हिन्दुओं को आतंकवादी बता पकड़ा जाना तो लाजमी था?
और लोकतंत्र का चौथा खम्भा?टी०र०पी०बढानें और पैसा बटोरनें के लिए वेश्यावृत्ति पर उतारू,किसका प्रतिनिधित्व कर रहा है?निश्चित रूप से भारत का तो नहीं।उम्मीद साक्षरों से नहीं समझदारों से ही है बशर्तॆ हम कम से कम मारल सपोर्ट तो दें,क्या हमारा आभिजात्य इसके लिए तैयार है?नहीं समझ आया तो फिर राजर्षि अरविन्द की ही सुनें ---‘और जिसे अब जागृत होना आवश्यक है, वह अंग्रेजियत अपनाने वाले पूरब के लोग नहीं, जो पश्चिम के आज्ञाकारी शिष्य हैं, बल्कि आज भी वही पुरातन अविस्मरणीय शक्ति, जो अपने गहनतम स्वत्व को पुन: प्राप्त करे, प्रकाश और शक्ति के परम स्रोत की ओर अपने सिर को और ऊपर उठाये और अपने धर्म के सम्पूर्ण अर्थ और व्यापक स्वरूप को खोजने के लिये उन्मुख हो।”