|| MERI MAANSIK HALCHAL ||
|| मेरी (ज्ञानदत्त पाण्डेय की) मानसिक हलचल ||
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|| मेरे होने का दस्तावेजी प्रमाण बन रहा है यह ब्लॉग ||
Friday, November 28, 2008
विकल्प क्या है?
कल बहुत सी पोस्टें मुम्बई के आतंकवादी हमले के संदर्भ में हिन्दी ब्लॉग जगत में थीं। बहुत क्षोभ, बहुत गुस्सा था। विगत के कुछ मामलों के चलते एटीएस के मारे गये अफसरों, कर्मियों के प्रति भी आदर भाव नहीं था कई पोस्टों में। एटीएस वाले जब किसी मामले में राजनैतिक दबाव में काम करते हैं, तो उसपर टिप्पणी की जा सकती है। पर जब वे आतंक से भिड़ते जान खो बठें, तो उसका अनादर क्या सही है? देश के लिये जान दी है उन्होंने।
मुझे यह भी लगता है कि बटाला हाउस मामले की तरह इस मामले में भी इण्टरेस्टेड लोग अंतत: आतंकवादियों के पक्ष में कहने के कुछ बिन्दु निकाल लेंगे। इसमें से एक आध आतंकवादी को दंगों का पीड़ित बता कर इस दुर्दान्त कार्रवाई को सॉफ्ट आउटलुक प्रदान किया जायेगा। (फलाने-फलाने ब्लॉग भी दस पंद्रह दिन बाद इस सॉफ्टीकरण वाली पोस्टें लिखने लगेंगे।) चुनाव समीप हैं, लिहाजा, अन्तत: वोट बैंक तोला जाने लगेगा।
इस प्रकार के काण्ड अनियमित रूप से नियमित हो गये हैं। और उनपर रिस्पॉन्स भी लगभग रुटीन से हो गये हैं। क्या किया जा सकता है?
इयत्ता पर श्री आलोक नन्दन जी को पिछले कुछ दिनों से पढ़ रहा हूं। बहुत बढ़िया लिखते हैं। (बढ़िया लेखन के मायने यह नहीं हैं कि उनसे सहमत ही हुआ जाये।) कल उन्होंने यदि सम्भव हो तो गेस्टापू बनाओ के नाम से एक पोस्ट लिखी। भारतीय स्टेट को मजबूत करने के लिये उन्होंने नात्सी जर्मनी के सीक्रेट पुलीस गेस्टापो (Gestapo) जैसे संगठन की आवश्यकता की बात कही है। पर हमारे देश में जिस प्रकार की निर्वाचन व्यवस्था है, उसमें निरंकुशता की बहुत सम्भावना बन जाती है और गेस्टापो का दुरुपयोग होने के चांस ज्यादा हो जाते हैं। क्या इस एक्स्ट्रीम स्टेप से काम चल सकता है?
मुझे मालुम नहीं, और मैं दूर तक सोच भी नहीं पाता। शायद ऐसी दशा रहे तो गेस्टापो बन ही जाये! प्रधानमन्त्री जी फेडरल इन्वेस्टिगेशन अथॉरिटी की बात कर रहे हैं जो पूरे सामंजस्य से आतंक से लड़ेगी। क्या होगी वह?
श्रीमती इन्दिरा गांधी नहीं हैं। उनके जीते मैं उनका प्रशंसक नहीं था। पर आज चयन करना हो तो बतौर प्रधानमंत्री मेरी पहली पसंद होंगी वे। रवि म्हात्रे की हत्या किये जाने पर उन्होंने मकबूल बट्ट को फांसी देने में देर नहीं की थी। अभी तो बहुत लकवाग्रस्त दिखता है परिदृष्य।
क्या किया जाना चाहिये? कल मैने एक आम आदमी से पूछा। उसका जवाब था (शब्द कुछ बदल दिये हैं) - "लतियाये बहुत समय हो गया। विशिष्ट अंग में पर्याप्त दूरी तक डण्डा फिट करना चाहिये। बस।" इतना लठ्ठमार जवाब था कि मैं आगे न पूछ पाया कि किसका विशिष्ट अंग और कौन सा डण्डा? उस जवाब में इतना गुस्सा और इतना नैराश्य था कि अन्दाज लगाना कठिन है।
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मैने होश संभालने के बाद जितने प्रधानमंत्रियों का कार्यकाल देखा है, उनमें निश्चित ही इंदिरा गांधी को सूची में ऊपर ही रखना चाहूँगा।
ReplyDeleteकभी-कभी महसूस होता है कि संजय शायद ज़्यादा बेहतर होते।
मैं भी एक आम आदमी होने के नाते, दूसरे आम आदमी के जवाब से सहमत हूँ। पता नहीं क्यों इसके साथ-साथ मुझे पुराने समय का हैंडल घुमाकर ट्रक स्टार्ट करने वाला दृश्य भी नज़र आ रहा है।
सचमुच बहुत दुखी हूँ -कुछ न कर पाने का आक्रोश ,उससे उत्पन्न क्लैव्यता और हताशा ने किंकर्तव्यविमूढ सा कर दिया है !
ReplyDeleteअभी इन्दिरा गाँधी को लौटा के नहीं लाया जा सकता .नरेन्द्र मोदी से काम चला सकते हैं . बाद में हो सकता हैं इनके लिए भी वही कहना पडे जो आज इन्दिरा जी के लिए कहते हैं .
ReplyDeleteमुझे नहीं लगता कि इन आतंकियों का समर्थन करने की आत्मघाती मूर्खता कोई करेगा । प्रतीक्षा (और कामना भी) करूंगा कि आपकी बात सच साबित न हो ।
ReplyDeletedesh ke netaon ko andhe or bahare prime minister chahiye. narayan narayan
ReplyDeleteइंदिरा जी की कार्यशैली और उनके दृढ़ निर्णय-कौशल के प्रशंसक तो उनके आलोचक भी हैं.
ReplyDeleteएक पोस्ट 'खास' आदमी पर लिख दीजिये, या उसके दृष्टिकोण पर. यदि आम आदमी से आपने पूछा तो ख़ास आदमी से भी पूछा होगा- उस ख़ास आदमी ने क्या कहा ?
मुझे लगता है प्रश्न का कुछ ओर छोर नहीं- बस पूछ लिया है. लघु-मति करे क्या- इसे भी आक्रोश ही समझिये.
प्रविष्टि की प्रभावोत्पादकता के लिए आपका आभार.
हम क्यों हमेशा दूसरों की ओर देखते हैं? हम एक अच्छी शुरुआत हमारे नजदीक से भी कर सकते हैं। आजादी के आंदोलन में इन्दिरागांधी जब बालक थीं तो उन्हों ने बच्चों की एक ब्रिगेड बना डाली थी अंग्रेजों से मुकाबले के लिए। हम क्यों नहीं महसूस करते कि हमारे विरुद्ध एक युद्ध् लड़ा जा रहा है। हम खुद को ड्यूटी पर महसूस करें। आस पास के लोगों को उस का अहसास कराएँ, सतर्क रहें। दुखी और मायूस होने से काम नहीं होगा। लोगों को धर्म, क्षेत्रीयता, जाति आदि के नाम पर बांट कर देखने का काम बंद करें।
ReplyDeleteअब नरेन्द्र मोदी ही ज़रूरत है. इंदिरा-संजय तो लौटने से रहे.
ReplyDeleteॐ शान्तिः।
ReplyDeleteकोई शब्द नहीं हैं...।
बस...।
" आज शायद सभी भारतीय नागरिक की ऑंखें नम होंगी और इसी असमंजस की स्थति भी, हर कोई आज अपने को लाचार बेबस महसूस कर रहा है और रो रहा है अपनी इस बदहाली पर ..."ईश्वर मारे गए लोगों की आत्मा को शान्ति प्रदान करें . उनके परिजनों को दु:ख सहने की ताकत दें .
ReplyDelete"श्रीमती इन्दिरा गांधी नहीं हैं। उनके जीते मैं उनका प्रशंसक नहीं था। पर आज चयन करना हो तो बतौर प्रधानमंत्री मेरी पहली पसंद होंगी वे।"
ReplyDeleteजिसने भी ईमर्जेंसी का का समय देखा है वो कभी भी श्रीमती गांधी का प्रशंसक उसके बाद नही रहा ! ईमर्जेंसी इंदिराजी की निजी आवश्यकता का परिणाम थी ! और उसके बाद उनको सत्ता भी गंवानी पडी ! लेकिन बाद में उनके घोर आलोचकों ने भी उनका समर्थन किया !
क्योंकि जिस डिसिप्लिन की एक नागरिक के नाते जरुरत होती है वो अपने आप ही सबमे आगया ! भले ही वो डंडे की वजह से था ! वो एक सक्सेसफुल एक्सपेरिमेंट हो चुका ! आज अविलम्ब जरुरत है ! एक तरफ हम इन आतंकी घटनाओं को युद्ध की संज्ञा दे रहे हैं ! सब जगह " आज भारत पर हमला हुआ है " की रट है तो क्यों नही युद्ध में लगाए जाने वाला कानून आप लागू कर रहे हो ?
लगाईये इमरजेंसी और चंद सिरफिरों को टांग दीजिये ! वापस सुख शान्ति आजायेगी !
अगर ये भी सम्भव नही तो अमेरिका जैसे होमलैंड कानून की तरह का कुछ तो किया ही जाना चाहिए !
निहायत ही उस s
रे रोक युधिष्ठिर को ना यहां,
ReplyDeleteजाने दे उसको स्वर्ग धीर..
लौटा दे हमें गांडीव-गदा,
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर..
जो मुझे कहना था वो विवेक भाई ने कह दिया,., उनकी टिप्पणी को मेरी भी टिप्पणी समझे
ReplyDeleteअपनी एक जुटता का परिचय दे रहा हैं हिन्दी ब्लॉग समाज । आप भी इस चित्र को डाले और अपने आक्रोश को व्यक्त करे । ये चित्र हमारे शोक का नहीं हमारे आक्रोश का प्रतीक हैं । आप भी साथ दे । जितने ब्लॉग पर हो सके इस चित्र को लगाए । ये चित्र हमारी कमजोरी का नहीं , हमारे विलाप का नहीं हमारे क्रोध और आक्रोश का प्रतीक हैं । आईये अपने तिरंगे को भी याद करे और याद रखे की देश हमारा हैं ।
ReplyDeleteजो शहीदों का आदर नही कर सकते उनके बारे में कुछ कहना ही बेकार है.
ReplyDeleteआपकी यह आशंका हमें सही नही नजर आ रही है कि कुछ लोग आतंकियों के पक्ष में बात निकाल लेंगे यह खुला हिन्दुस्तान पर हमला है और जिनमें हिंदुस्तानियत नाम की चीज होगी वो इन आतंकियों का समर्थन नही कर सकते हैं.
ये युद्ध है युद्ध में एकजुटता की जरुरत होती है.
जहाँ तक इंदिरा के होने न होने की है तो हम तो आपातकाल के समय तक जन्मे नही थे पर बड़ों से सुना है आपातकाल इतना बुरा भी नही था जितना बताया जाता है .
"जब वे आतंक से भिड़ते जान खो बठें, तो उसका अनादर क्या सही है? देश के लिये जान दी है उन्होंने।"
ReplyDeleteकई लोगों का नैतिक पतन इतना अधिक हो चुका है कि उनको सहीगलत की पहचान नहीं है.
वे लोग जो शहीद हुए हैं उनके भी परिवार (बीबीबच्चे) हैं हम सबके समान. लेकिन देश की सुरक्षा की खातिर वे चल बसे. हमें तो हमेशा हमेशा उनका आभारी होना चाहिये.
सस्नेह -- शास्त्री
लगता है, आज इन्दिरा गाँधी को वोट दे देता.
ReplyDeleteइस मुल्क में सिवाय आस्तिक होने के और कोई रास्ता नहीं है। राम भरोसे मामला है। शिवराजजी,मनमोहनजी ये लोग तो जोकर या घिसे पिटे रिकार्ड से भी बदतर हो गये हैं। इनके बूते का कुछ है नहीं। अगले हमले का इंतजार कीजिये। और अपनी कुंडली देखकर घर से निकलिये, अगर मरने का योग है, तो समझिये कहीं आतंकवादी बम आपका इंतजार कर रहा है। बहुत जल्दी किसी कोने से यह मांग होने लगेगी कि ताज होटल में आतंकवादियों को मारने वाले कमांडोज की जुडिशियल जांच की जाये, उन्होने आतंकवादियों को पहले से सैट एनकाऊंटर में मारा है। लोकसभा चुनावों में वोट चाहिए, तो इस तरह की मांग अभी से कर दी जानी चाहिए। चलिए अगले बम धमाकों का इंतजार करें। पीएम, होम मिनिस्टर की प्रतिक्रिया अभी से जानते हैं, 8979873987937 बार हो चुकी हैं।
ReplyDeleteइतना ही गुस्सा और नैराश्य हर जगह है
ReplyDeleteसच कहते हैं आप ये सब आतंक वादी गतिविधियाँ और उन पर हमारी प्रतिक्रियाएं बहुत रूटीन हो चुकी हैं...हम इस सब के आदि हो गए हैं...ये ऐसे हो गया है जैसे शरीर में कहीं खुजली हुई और हमने खुजला लिया...हिसाब बराबर...खुजली का इलाज सोचने का वक्त है अब...वरना खून टपकने में देर नहीं लगेगी खुजली से....
ReplyDeleteनीरज
ज्ञान जी, यदि गेस्तापो या एसएस जैसी संस्था यहाँ भारत में बना दी गई तो फिर इन आतंकवादियों की आवश्यकता क्या रहेगी? इन आतंकवादियों का काम तो गेस्तापो ही कर देगी आम जनता को हर समय डंडा दे कर, लोग सांस लेने से भी डरेंगे और गब्बर की औकात खत्म हो जाएगी क्योंकि माताएँ बच्चों को सुलाने के लिए कहने लगेंगी "सो जा बेटा नहीं तो गेस्तापो आ जाएगी"!!
ReplyDeleteयह जो आपकी पोस्ट पर आज दो दो बार जगह ले रहा है कि क्या किया जा सकता है--यही तो बस प्रश्न है जो घुटन के सिवाय कुछ नहीं छोड़ जा रहा!!!
ReplyDeleteआपका डर सही साबित हो रहा है। यह बयान देखे
ReplyDeleteYou know, it could be Hindu extremists."
http://news.bbc.co.uk/2/hi/south_asia/7753639.stm
जिस पाकिस्तान से हमारे प्रधानमंत्री धीरे स्वर मे बात कर रहे है वही से ये बयान आया है।
लानत है बुझदिल राजनेताओ पर।
दुख तो है ही, लेकिन साथ ही गुस्सा, और कोफ्त के सिवा और भी बहुत कुछ मन में चल रहा है। कम्बख्त अब तो नेता शब्द से ही नफरत हो चली है ।
ReplyDeleteक्या कहे ओर किस से कहै, जब अपनी सरकार ही इ कमीनो को रक्षा दे रही है, पहली बार ही मारती इन कुत्तो को, लेकिन हर प्रधान मन्त्री लाल बाह्दुर ओर इन्दिरा गाँधी नही बन सकते...
ReplyDeleteआज मुझे एक गीत के बोल याद आ गये.. राम ना करे मेरे देश कॊ , कोई भी ऎसा नेता मिले , जो खुद भी डुबे ओर जनता को भी ले डुबे... तो यह सब वही नेता है, कहने को बहुत लायक लेकिन ....दिल चुहे का बोलते है हमारे प्रधान मत्री तो लगता है किसी के आगे गिड गिडा रहै हो.
हमारी तरफ़ से , मै भी इन्दिरा का चाहने वाला नही, लेकिन अब चाहता हुं
यह शोक का दिन नहीं,
ReplyDeleteयह आक्रोश का दिन भी नहीं है।
यह युद्ध का आरंभ है,
भारत और भारत-वासियों के विरुद्ध
हमला हुआ है।
समूचा भारत और भारत-वासी
हमलावरों के विरुद्ध
युद्ध पर हैं।
तब तक युद्ध पर हैं,
जब तक आतंकवाद के विरुद्ध
हासिल नहीं कर ली जाती
अंतिम विजय ।
जब युद्ध होता है
तब ड्यूटी पर होता है
पूरा देश ।
ड्यूटी में होता है
न कोई शोक और
न ही कोई हर्ष।
बस होता है अहसास
अपने कर्तव्य का।
यह कोई भावनात्मक बात नहीं है,
वास्तविकता है।
देश का एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री,
एक कवि, एक चित्रकार,
एक संवेदनशील व्यक्तित्व
विश्वनाथ प्रताप सिंह चला गया
लेकिन कहीं कोई शोक नही,
हम नहीं मना सकते शोक
कोई भी शोक
हम युद्ध पर हैं,
हम ड्यूटी पर हैं।
युद्ध में कोई हिन्दू नहीं है,
कोई मुसलमान नहीं है,
कोई मराठी, राजस्थानी,
बिहारी, तमिल या तेलुगू नहीं है।
हमारे अंदर बसे इन सभी
सज्जनों/दुर्जनों को
कत्ल कर दिया गया है।
हमें वक्त नहीं है
शोक का।
हम सिर्फ भारतीय हैं, और
युद्ध के मोर्चे पर हैं
तब तक हैं जब तक
विजय प्राप्त नहीं कर लेते
आतंकवाद पर।
एक बार जीत लें, युद्ध
विजय प्राप्त कर लें
शत्रु पर।
फिर देखेंगे
कौन बचा है? और
खेत रहा है कौन ?
कौन कौन इस बीच
कभी न आने के लिए चला गया
जीवन यात्रा छोड़ कर।
हम तभी याद करेंगे
हमारे शहीदों को,
हम तभी याद करेंगे
अपने बिछुड़ों को।
तभी मना लेंगे हम शोक,
एक साथ
विजय की खुशी के साथ।
याद रहे एक भी आंसू
छलके नहीं आँख से, तब तक
जब तक जारी है युद्ध।
आंसू जो गिरा एक भी, तो
शत्रु समझेगा, कमजोर हैं हम।
इसे कविता न समझें
यह कविता नहीं,
बयान है युद्ध की घोषणा का
युद्ध में कविता नहीं होती।
चिपकाया जाए इसे
हर चौराहा, नुक्कड़ पर
मोहल्ला और हर खंबे पर
हर ब्लाग पर
हर एक ब्लाग पर।
- कविता वाचक्नवी
साभार इस कविता को इस निवेदन के साथ कि मान्धाता सिंह के इन विचारों को आप भी अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचकर ब्लॉग की एकता को देश की एकता बना दे.
आतंकवाद और राजनीति जैसे मसलों पर भावुक होकर नहीं सोचा जा सकता. आपकी बाकी सभी बातें तो सही हैं और विकल्प की तलाश भी अनिवार्य है. लेकिन इमरजेंसी के बावजूद आप इंदिरा जी समर्थक हैं, यह जानकर आश्चर्य होता है. मुझे इंदिरा गाँधी से कोई चिढ नहीं है, लेकिन कुछ तथ्य याद रखने लायक है. यह की इंदिरा जी नेहरू जी की बेटी हैं और लोक तंत्र में वंशवादी राजनीती यानि राज तंत्र की आदिबिंदु. यह की भिन्दरावाले को शांत उन्होंने ही कहा था और तब जब वह सत्ता के बाहर थीं. यानि तब जब उनकी जरुरत यह बनी की देश में अमन-चैन का सत्यानाश किया जाए और विरोधी पार्टियों को शासन के लिए अक्षम साबित किया जाए. यह की करीब ५० वर्षों के अपने शासन ने सिर्फ़ ५ साल ही सही काम काम किया है. तब जब नेहरू परिवार से बाहर का व्यक्ति शासन me रहा है, एक ऐसा व्यक्ति जिसने इस परिवार के दबाव को नहीं मन. और उसके खिलाफ षड्यंत्र का ऐसा कोई उपाय नही बचा जो न किया गया हो. मुश्किल यह है की हमारे सामने अभी एक भी पार्टी ऐसी नहीं है जिस पर भरोसा किया जा सके. तो क्या किया जाए, इस पर कोई जल्दबाजी वाला हल सुझाना भी ग़लत होगा और समस्या का सरलीकरण समस्या को बढ़ता ही है, उसका समाधान नही करता.
ReplyDeleteहमारा सामाजिक ढांचा जर्जर हो चुका है.. इससे पहले कि यह हमारे सिरों पर टूट पड़े इसे गिरा देना जरूरी हो चुका है ..जब तक परिवार नाम कि इकाई का कोई वैज्ञनिक विकल्प नहीं तलाश किया जाता कोई भी सरकार कोई विचार कोई व्यवहार कुछ नहीं कर पाएगा .. परिवार एक ऐसा आकर्षण है जिससे मुक्त होने के लिए बहुत बड़ा कलेजा चाहिए..वह तब मिल सकता है जब हम उन विकृतियों को समझ पाएं जो परिवार के कारण विस्तार पा रही हैं .. छोटे और और छोटे में बंटता हुआ परिवार समाज कि ऊर्जा का क्षरण किये जा रहा है..ये जो शादी ब्याह तीज त्यौहार सभ्यता संस्कृति के नाम पर जो कुछ हमने इक्ट्ठ कर लिया है इन सारी चीज़ों से मुक्त हुए बिना कोई चारा नहीं..कोई भी समस्या एकांगी नहीं होती आतंक कि समस्या भी बहुकोणीय है .. जब तक देश की भावी पीढ़ी के मन में यह विचार नहीं घर कर जाये कि यह देश उनका है और उनका प्रत्येक कार्य .. उठाना बैठना सोना जागना खाना पीना पड़ना लिखना प्यार करना बच्चे पैदा करना या न करना नौकरी करना विदेश जाना पूजा पाठ सब देश के लिए है तब तक आप किसी बात कि कोई उम्मीद नहीं कर सकते.आने वाली पीढ़ी इस बात के प्रति जागरूक हो नहीं सकती क्योंकि परिवार के बंदन में बंधी हुई है
ReplyDeleteवैसे भी जड़ों को छुए बिना आप पेड़ का क्या बिगड सकते हैं
मैंने यह पोस्ट आज ही पढ़ी। स्वीकार है कि पहले ब्लॉग पढ़ता नहीं था, सिवाय किसी के द्वारा संदर्भित किए जाने पर।
ReplyDeleteस्थिति लगातार बिगड़ती ही जा रही है और नवम्बर 26 को मोमबत्ती जलाने से कुछ नहीं होने वाला। अफ़ज़ल गुरू को क्या हमने इस लिए जीवित रखा हुआ है कि फिर कोई विमान हाईजैकिंग या महिलाओं बच्चों को बन्धक बना ले और फ़िरौती में हम छोड़ें कसाबों और गुरुओं को?
क्या सूचना के अधिकार के तहत एक आम नागरिक को हक़ नहीं है यह जानने का कि प्रतीक्षा किस बात की हो रही है?
क्या इसलिए कि कोई राजनेता हत या आहत नहीं हुआ? क्या हमारी बुलेटप्रूफ़ जैकेटें अब सही गुणवत्ता की उपलब्ध हैं? क्या आंतरिक सुरक्षा बलों के सारे हथियार चालू हालत में हैं?
गुस्ताख़ी माफ़।
आतंकवाद और राजनीति जैसे मसलों पर भावुक होकर नहीं सोचा जा सकता. आपकी बाकी सभी बातें तो सही हैं और विकल्प की तलाश भी अनिवार्य है. लेकिन इमरजेंसी के बावजूद आप इंदिरा जी समर्थक हैं, यह जानकर आश्चर्य होता है. मुझे इंदिरा गाँधी से कोई चिढ नहीं है, लेकिन कुछ तथ्य याद रखने लायक है. यह की इंदिरा जी नेहरू जी की बेटी हैं और लोक तंत्र में वंशवादी राजनीती यानि राज तंत्र की आदिबिंदु. यह की भिन्दरावाले को शांत उन्होंने ही कहा था और तब जब वह सत्ता के बाहर थीं. यानि तब जब उनकी जरुरत यह बनी की देश में अमन-चैन का सत्यानाश किया जाए और विरोधी पार्टियों को शासन के लिए अक्षम साबित किया जाए. यह की करीब ५० वर्षों के अपने शासन ने सिर्फ़ ५ साल ही सही काम काम किया है. तब जब नेहरू परिवार से बाहर का व्यक्ति शासन me रहा है, एक ऐसा व्यक्ति जिसने इस परिवार के दबाव को नहीं मन. और उसके खिलाफ षड्यंत्र का ऐसा कोई उपाय नही बचा जो न किया गया हो. मुश्किल यह है की हमारे सामने अभी एक भी पार्टी ऐसी नहीं है जिस पर भरोसा किया जा सके. तो क्या किया जाए, इस पर कोई जल्दबाजी वाला हल सुझाना भी ग़लत होगा और समस्या का सरलीकरण समस्या को बढ़ता ही है, उसका समाधान नही करता.
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