Thursday, November 27, 2008

काशीनाथ सिंह जी की भाषा


KashiAssi फिर निकल आयी है शेल्फ से काशी का अस्सी । फिर चढ़ा है उस तरंग वाली भाषा का चस्का जिसे पढ़ने में ही लहर आती है मन में। इसका सस्वर वाचन संस्कारगत वर्जनाओं के कारण नहीं करता। लिहाजा लिखने में पहला अक्षर और फिर *** का प्रयोग।

शि*, इतनी वर्जनायें क्यों हैं जी! और ब्लॉग पर कौन फलाने की पत्नी के पिताजी (उर्फ ससुर) का वर्चस्व है! असल में गालियों का उद्दाम प्रवाह जिसमें गाली खाने वाला और देने वाला दोनो गदगद होते हैं, देखने को कम ही मिलता है। वह काशी का अस्सी में धारा प्रवाह दिखता है।

मेरा मित्र अरुणेंद्र ठसक कर ग्रामप्रधानी करता है। उसके कामों में गांव के लोगों का बीच-बचाव/समझौता/अलगौझी आदि भी करना आता है। एक दिन अपने चेले के साथ केवटाने में एक घर में अलगौझी (बंटवारा) करा कर लौटा। चेला है रामलाल। जहां अरुणेन्द्र खुद खड़ा नहीं हो सकता वहां रामलाल को आगे कर दिया जाता है – प्रधान जी के खासमखास के रूप में।

और रामलाल, अरुणेंद्र की शुद्ध भदोहिया भाषा में नहा रहा था  – “भोस* के रामललवा, अलगौझी का चकरी चल गइल बा। अब अगला घर तोहरै हौ। तोर मादर** भाई ढ़ेर टिलटिला रहा है अलगौझी को। अगले हफ्ते दुआर दलान तोर होये और शामललवा के मिले भूंजी भांग का ठलुआ!” 

और रामलाल गदगद भाव से हाथ जोड़ खड़ा हो गया है। बिल्कुल देवस्तुति करने के पोज में। … यह प्रकरण मुझे जब जब याद आता है, काशीनाथ सिंह जी की भाषा याद आ जाती है। 

खैर कितना भी जोर लगायें, तोड़ मिलता नहीं काशी की अस्सी की तरंग का। और उसका दो परसेण्ट@ भी अपनी लेखनी में दम नहीं है।

फिर कभी यत्न करेंगे - “हरहर महादेव” के सम्पुट के रूप में सरलता से भोस* का जोड़ पाने की क्षमता अपने में विकसित करने के लिये।

पर यत्न? शायद अगले जन्म में हो पाये!

काशी का अस्सी पर मेरी पिछली पोस्ट यहां है। और इस पुस्तक के अंश का स्वाद अगर बिना *** के लेना हो तो आप यहां क्लिक कर पढ़ें।  

@ - "दो परसेण्ट"? यह तो दम्भ हो गया! इस्तेमाल "एक परसेण्ट" का करना चाहिये था।
हां; प्रियंकर जी की पिछली पोस्ट पर की गयी टिप्पणी जोड़ना चाहूंगा -
कुछ मुहं ऐसे होते हैं जिनसे निकली गालियां भी अश्लील नहीं लगती . कुछ ऐसे होते हैं जिनका सामान्य सौजन्य भी अश्लीलता में आकंठ डूबा दिखता है . सो गालियों की अश्लीलता की कोई सपाट समीक्षा या परिभाषा नहीं हो सकती .

उनमें जो जबर्दस्त 'इमोशनल कंटेंट' होता है उसकी सम्यक समझ जरूरी है . गाली कई बार ताकतवर का विनोद होती है तो कई बार यह कमज़ोर और प्रताड़ित के आंसुओं की सहचरी भी होती है जो असहायता के बोध से उपजती है . कई बार यह प्रेमपूर्ण चुहल होती है तो कई बार मात्र निरर्थक तकियाकलाम .

काशानाथ सिंह (जिनके लेखन का मैं मुरीद हूं)के बहाने ही सही पर जब बात उठी है तो कहना चाहूंगा कि गालियों पर अकादमिक शोध होना चाहिए. 'गालियों का उद्भव और विकास', 'गालियों का सामाजिक यथार्थ', 'गालियों का सांस्कृतिक महत्व', 'भविष्य की गालियां' तथा 'आधुनिक गालियों पर प्रौद्योगिकी का प्रभाव'आदि विषय इस दृष्टि से उपयुक्त साबित होंगे.

उसके बाद निश्चित रूप से एक 'गालीकोश' अथवा 'बृहत गाली कोश' तैयार करने की दिशा में भी सुधीजन सक्रिय होंगे .

20 comments:

  1. काशीनाथ सिंह जी की बेजोड भाषा के बारे में सुना खूब था, लेकिन स्‍वाद आज चख पाया। इसके लिए आपका बहुत बहुत आभार।
    मुझे भी भाषा का वही रूप भाता है जो बोलने में सहज हो। कोई भदेस या बोली कहकर नाक मुंह सिकोड़ता है तो सिकोड़ता रहे।
    ''न कोई सिंह, न पांड़े, न जादो, न राम ! सब गुरू ! जो पैदा भया, वह भी गुरू, जो मरा, वह भी गुरू !
    वर्गहीन समाज का सबसे बड़ा जनतन्त्र है यह''
    जब बात वर्गहीन समाज के जनतंत्र की हो रही हो तो भाषा का स्‍वरूप भी जनतांत्रिक ही होना चाहिए। न कि बात जनतंत्र की और भाषा परतंत्र की। इस पुस्‍तक की भाषा की यह खासियत लुभानेवाली है।

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  2. ...............sirf ro sakate hai aaj hush nahee sakte. Aap to fir bhi desh me hai, hum yaha videsh me kisase puchhe kyaa ho raha hai yeh?

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  3. हम भाषा की शालीनता छोड़ने वालों में नहीं, चाहे आप इस मामले में कुछ भी चुनें! अच्छा हुआ हमने इन्हें नहीं पढा वरना कई दिन तलक पेट ख़राब रहता शायद!

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  4. उस भाषा का इस्तेमाल कभी जरूरी भी है, जब आप वैसे पात्रों और वातावरण को जीवन्त कर रहे हों। लेकिन यह भी याद रखने की बात है कि साहित्य अनुकरण के लिए प्रेरित करता है। हम वैसे शब्दों को भाषा से हटाना चाहते हैं। यही कारण है कि साहित्य में उन का प्रयोग अत्यन्त सावधानी के साथ ही किया जा सकता है। काशी की भाषा भी सर्वत्र वैसी नहीं है। वरना वे अपने साहित्य के स्थान पर केवल उसी भाषा के लिए जाने जाते।

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  5. शुक्रिया कड़ी के लिए। हम बचपन से ही बिना *** के सब्ज़ियाँ खाने के आदी हैं। :)

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  6. क्या कहें इस पोस्ट का #######$$$$$$$$*********

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  7. इतनी शब्दाराधना के बाद ये अच्छा नहीं लगा -
    "पर यत्न? शायद अगले जन्म में हो पाये!"
    वचन की दृढ़ता के साथ मन की दृढ़ता ज्यादा भली होती है.
    फ़िर जब 'ज्ञान जी' की लेखनी 'यत्न फ़िर कभी ' कह दे तो आश्चर्य तो होता ही है .
    मैं कह सकता हूँ कि 'ज्ञान जी' को भी ऐसी भाषा भली नहीं लगती, हाँ अर्धांगिनी बनारस की हैं तो शायद बात करनी पड़ गयी होगी ऐसी भाषा की.
    "असल में गालियों का उद्दाम प्रवाह जिसमें गाली खाने वाला और देने वाला दोनो गदगद होते हैं, देखने को कम ही मिलता है।"
    वस्तुतः वह केवल काशी के अस्सी में धाराप्रवाह दिख सकता है, अन्यत्र नहीं. ऐसा नहीं लगता कि यह भाषा मानकों से बहार की भाषा है .
    बहुत कुछ के लिए माफ़ करिएगा . क्षुद्र मति हूँ .

    हाँ, एक बात सकता हूँ, -
    "सवाल वस्ल पर उनको उदू का खौफ है इतना
    दबे होठों से देते हैं जवाब आहिस्ता-आहिस्ता . "

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  8. राम भजो...श्री राम भजो.

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  9. बढिया तमाशा देखा लकडी का ! :) हमारे यहाँ तो ये सब रोटीराम बाटीराम है आज भी ! जाकी रही भावना जैसी , प्रभु मूरत देखी तिन तैसी ! बड़े सात्विक भाव से नित्य उच्चारण होता है ! किसी का ध्यान ही नही जाता की क्या बोल दिया ! निर्मल और पवित्र भाव से ये *** पानी की तरह प्रयोग होता है इस अंचल में ! और गुरुदेव समीर जी आते ही होंगे, जबलपुरिया स्टाईल के बारे वो ही बताएँगे !:)

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  10. ज्ञान जी, इस तरह की भाषा तो हर जगह पर बोली जाती है, लेकिन उसका साहित्य में इस्तेमाल नहीं होता.

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  11. इस तरह की भाषा को साहित्य (रोडछाप किताबें नहीं) में अक्सर संतुलित ढंग से इस्तेमाल किया जाता रहा है । चाहे वह ज्ञान चतुर्वेदी के बारहमासी की बात हो या प्रेमचंद की कहानी पूस की रात जिसमें किसान ठंडी पछुवही हवा से परेशान हो कहता है - ये पछुआ रांड....। यदा-कदा फणीश्वरनाथ रेणु ने भी ऐसे अलंकारों का इस्तेमाल किया है, लेकिन ये शब्द वास्तविक जन - जीवन को करीब से दर्शाने और महसूस कराने के लिये ही कहे गये हैं। ऐसे लेखन का तो मैं समर्थन करता हूँ।

    लेकिन निजी जीवन में इस तरह की बातचीत से जरा परहेज ही करता हूँ :)

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  12. हम्म, कहने ही की बात है तो "हर हर महादेव" कह देते हैं, उसके बाद का छंद कहने का कोई औचित्य नहीं दिखाई देता!! :)

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  13. ये गाली तो हर जगह अपनी जगह बना चुकीं हैं।इस का प्रवाह सामने वाले की हैसियत के अनुसार घटता बड़ता रहता है।फिर भी बचना तो सभी को अच्छा लगता है।:)

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  14. इस तरह की भाषा एक समय हमने भी खूब इस्तेमाल की है ४ सालों तक... पर एक ख़ास लोगों के बीच ही जहाँ इसका मतलब कभी सोचना नहीं होता था... न बोलने वाले को न सुनने वाले को... जरुरत बिना जरुरत खूब इस्तेमाल होता. पर उन ख़ास लोगों के अलावा कभी ऐसी भाषा? ... मुंह ही नहीं खुलता !

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  15. और रामलाल, अरुणेंद्र की शुद्ध भदोहिया भाषा में नहा रहा था – “भोस* के रामललवा, अलगौझी का चकरी चल गइल बा। अब अगला घर तोहरै हौ। तोर मादर** भाई ढ़ेर टिलटिला रहा है अलगौझी को। अगले हफ्ते दुआर दलान तोर होये और शामललवा के मिले भूंजी भांग का ठलुआ!” अजी हमारी तो जीभ ही उलझ गई इसे बोलते बोलते, ओर गालियां भुल गये??
    धन्यवाद

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  16. ज्ञानदत्तजी,
    अभिषेक ओझा की जमात में हमें भी शामिल समझें, और हालांकि हम अभी भी स्कूल में हैं लेकिन अब बहुत खासमखास मित्र गणों के साथ ही उस प्रकार का भाषा व्यवहार हो पाता है । दूसरा मौका मिलता है जब पुराने मित्र से सालों के बाद फ़ोन पर बात होती है, उस बातचीत को कोई टेप करले तो हमारे बुढापे में कोई हमसे पूरी जायदाद अपने नाम लिखवा ले उस टेप के बदले में :-)
    इस प्रकार की भाषा अंग्रेजी साहित्य का तो अंग है और उससे किसी को कोई समस्या नहीं ।

    ऐसा ही कुछ भारत में टेलीविजन को लेकर भी है । एडल्ट मनोरंजन का नितांत अभाव है, यहाँ पर एडल्ट मनोरंजन का अर्थ अश्लील नहीं है । यहाँ अमेरिका में बेहद घटिया, फ़ूहड और कुछ अच्छे कार्यक्रम भी आते हैं टी.वी. पर । जिसको जो चुनना है चुन लें, खुली छूट । चलिये इस पर २-३ दिन में हमारी तरफ़ से एक पोस्ट का वादा ।

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  17. यह ग्रंथ तो बार-बार पढे जाने की मांग करता है । मित्रों के बीच, इसके सामूहिक पाठ का आनन्‍द ही अलग है ।
    गालियों को तो सभ्‍य लोगों ने बदनाम कर रखा है । गालियों के जरिए, बात अपने सम्‍प्रेषण की व्‍यंजना के चरम तक पहुंचती है ।
    'असली भारत' में आज भी पिता-पुत्रों के सम्‍वादों में भी गालियां 'सम्‍पूर्ण आदर-श्रध्‍दा सहित' शामिल होती हैं ।

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  18. आपने इस किताब की चर्चा कर के मेरे को वो समय याद दिला दिया जब मैंने ये किताब पढी थी. हँसते - हँसते मेरी हालत ख़राब हो गई थी. क्या पकड़ है - एक एक घटना जिसका जीवंत चित्रण किया गया है इस किताब में लगता है की बस मेरे अगल - बगल ही घटित हो रही हों.

    मैं एक तो मूलतः: बनारस का हूँ, तो काशी का अस्सी की अहमियत मेरे लिए और भी बढ़ जाती है. जिन स्थानों और जिस बोलचाल का प्रयोग किया गया है, वो एकदम सटीक है. बिना उसके ये कहानी पूरी हो ही नहीं सकती थी...

    आपका आभार, कि आपने इस पुस्तक की यहाँ चर्चा की. और अच्छा लगा जान कर की आपको भी ये बहुत पसंद आई.

    और भी अच्छे साहित्य का विवरण देते रहें..

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  19. दीप की स्वर्णिम आभा
    आपके भाग्य की और कर्म
    की द्विआभा.....
    युग की सफ़लता की
    त्रिवेणी
    आपके जीवन से ही आरम्भ हो
    मंगल कामना के साथ

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय