Tuesday, November 9, 2010

करछना की गंगा

मैने देखा नहीं करछना की गंगा को। छ महीने से मनसूबे बांध रहा हूं। एक दिन यूं ही निकलूंगा। सबेरे की पसीजर से। करछना उतरूंगा। करछना स्टेशन के स्टेशन मास्टर साहब शायद किसी पोर्टर को साथ कर दें। पर शायद वह भी ठीक नहीं कि अपनी साहबी आइडेण्टिटी जाहिर करूं!

करछना

अकेले ही चल दूंगा किसी रिक्शा/तांगा/इक्का में। कुछ दूर ले जायेगा वह। फिर बता देगा गंगा घाट का रास्ता। अगर पैदल चलने में कोई पड़ी चाय की दूकान तो चाय पीने में भी कोई गुरेज़ न होगा। ज्यादा फिक्र न करूंगा कि गिलास या कुल्हड़ साफ है या नहीं। यूंही इधर घूमूंगा गंगा किनारे। कुछ तो अलग होंगी वहां गंगा मेरे घर के पास की गंगा से। फिर पत्नीजी का दिया टिफन खा कर शाम तक वापस लौटूंगा इलाहाबाद।

कोई किसान मिलेगा, कोई दुकानदार, कोई केवट। चावल के खेत कट चुके होंगे। फसल अब खलिहान नहीं जाती तो वहीं थ्रेशिंग हो रही होगी। दस बारह साल की लडकी होगी झोंटा बगराये। अपने छोटे भाई को कोंरा में लिये मेड़ पर चलती। …

बहुत जानी पहचानी, कुछ अप्रत्याशित लिये होगी यह मिनी यात्रा। कहें तो नीरज जाट की घुमक्कड़ी। कहें तो पर्यटन। यह सिर्फ “घर की ड्योढ़ी” पार करने के लिये होगा एक उपक्रम।

समकालीन सृजन का एक अंक है “यात्राओं का जिक्र” विषय पर। उस अंक के सम्पादक हैं अपने प्रियंकर पालीवाल जी। उन्होने मुझे यह अंक दो साल पहले मेरे कलकत्ता जाने पर दिया था। मेरे लिये संग्रहणीय अंक। अपने संपादकीय में प्रियंकर जी लिखते हैं -  

यात्रासंस्मरण  अंतरसांस्कृतिक हों या अंतरराष्ट्रीय, या अपने ही देश की के विभिन्न इलाकों की यात्रा का वृत्तान्त; साहित्य की अत्यन्त लोकप्रिय विधा हैं। प्रश्न यह भी है कि हाशिये की विधा होने के बावजूद यात्रा साहित्य की लोकप्रियता का राज क्या है? ---

हाशिये की विधा? मुझे यह पसन्द आया। साहित्य में ब्लॉगरी भी हाशिये की चीज है। ट्रेवलॉग भी हाशिये की चीज। साहित्य के पन्ने के दोनो हाशिये बढ़ कर पन्ने को दबोचें तो क्या मजा आये! बेचारा साहित्य तो टें बोल जाये। Winking smile 

कितना टें बोला है, यह तो प्रियंकर जी बतायेंगे।

करछना की गंगा के माध्यम से शुरुआत, साहित्य के टें-करण में मेरी तुच्छ सी हवि होगी। पर होगी क्या?  


19 comments:

  1. साहित्य में ब्लॉगरी भी हाशिये की चीज है।


    इस पर जल्द आलेख आ रहा है.....


    ट्रेवलॉग भी हाशिये की चीज।

    यह उपन्यास बतौर प्रकाशन में है..दिसम्बर में आपके हाथ मे होगा...


    तब ही वाह वाह करके इन लाईनों को मिटा दिजियेगा.

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  2. करछना पँहुचे कि नहीं यह तो बताया नहीं या टें बोलते साहित्य पर ध्यान चला गया ?? हार्दिक शुभकामनायें !

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  3. अरे!

    कैलिफ़ोर्निया संसमरण एक ट्रैवलॉग था और वह भी एक ब्लॉग में छ्पा था।
    तो क्या हम हाशिए का भी हाशिया पर खडे हैं?

    हमने armchair travelers के बारे में सुना है
    आप तो मन में ही यात्रा कर रहे हैं।
    क्या इसे मन chair travelling कहूँ?

    शुभकामनाएं
    जी विश्वनाथ

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  4. सतीश सक्सेना > करछना पँहुचे कि नहीं यह तो बताया नहीं या टें बोलते साहित्य पर ध्यान चला गया ??

    ओह, आप को बाद में जाना। साहित्य की चौधराहट तो ब्लॉगिंग शुरू करते ही जान ली थी। इस लिये साहित्य को ले कर जो लिखूं उसे आप प्रेम से ग्लॉस-ओवर कर सकते हैं! :)

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  5. करछना का इन्तजार तो मुझे भी है...

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  6. जाने के पहले की ही ऐसी जोरदार पेशकश है तो फिर जाने के बाद की रपट का सहज अनुमान किया जा सकता है -प्रतीक्षा रहेगी !

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  7. बहुत अच्छा लगा आपका यह यात्रा पूर्व संस्मरण (!)
    उससे भी अच्छा लगा यह संस्मरण
    "कोई किसान मिलेगा, कोई दुकानदार, कोई केवट। चावल के खेत कट चुके होंगे। फसल अब खलिहान नहीं जाती तो वहीं थ्रेशिंग हो रही होगी। दस बारह साल की लडकी होगी झोंटा बगराये।..."
    अभी तो गांव में हूं। तो यह सब मिल रहा है। अभी तक नहीं मिला है तो किसी के माथे का ढील मारते कोई और।

    छठ पर्व आने वाला है सो सब आये हें दूर-दराज़ से, सो गांव भी शहरिया हुआ है। कहीं लैपटॉप .. तो कहीं ब्लैक बेर्री, तो .. कहीं सैम्संग तीर्थस्थल बना हुआ है, अंगरू-मंगरू सब देख कर खुश हो रहें हैं। यह मत सोचिए कि सिर्फ़ उनको देख कर हम खुश होते हैं .. वो भी हमारा मज़ा ले रहे हैं।

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  8. `फसल अब खलिहान नहीं जाती तो वहीं थ्रेशिंग हो रही होगी।'

    कल्पना अच्छी है पर डिसअपोइंटिया न हो यदि वहां बडी मशीने मिलें। आधुनिकीकरण का ज़माना है। यात्रावृत्त के उपसंहार की प्रतीक्षा रहेगी :)

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  9. काव्यात्मक पोस्ट!
    करछना यात्रा विवरण का इन्तजार रहेगा।
    मैं ब्लॉग को एक अलग विधा नहीं बल्कि एक माध्यम समझता हूँ, जिसे किसी भी विधा के लिये प्रयुक्त किया जा सकता है।

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  10. @ चन्द्रमौलेशवर प्रसाद - करछना में लगभग पांच - छ गांव की जमीन जायेगी एक सूपर थर्मल पावरहाउस में। यह टौंस नदी के किनारे आयेगा। सन २०१५ तक!
    मशीनें तो बहुत आयेंगी वहां।

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  11. ईश्‍वर आपकी मनोकामना पूरी करे। किन्‍तु अपने स्‍वास्‍थ्‍य की चिन्‍ता भरपूर कीजिएगा। उसे हाशिये पर मत रख दीजिएगा।

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  12. यात्राओं जितना अनुभवजन्य ज्ञान कहीं और नहीं मिल सकता है। हर बार एक जगह जायें, आँख कान खुला रखें, कुछ न कुछ मिल ही जायेगा।

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  13. मन ही मन यात्रा कर ली!

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  14. घर बैठे सिमुलेटेड यात्रा वृतान्त. :)

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  15. यह पोस्ट पढ़कर मुझे एक कहानी याद आ गयी जो सच बतायी जाती है। :)

    एक गरीब किसान घर पर रोज-ब-रोज मक्के की खिचड़ी खाते-खाते तंग हो गया तो दूर देश ब्याही अपनी बहन के घर स्वाद बदलने की नीयत से गया। दुर्भाग्य से बहन उस दिन मक्के की खिचड़ी ही बना रही थी। उसने माथा ठोंक लिया और थाली को हाथ जोड़कर पूछा कि हे खिचड़ी महरानी आप किस सवारी से चली थी कि मुझसे पहले यहाँ पहुँच गयी?

    गंगा म‌इया का अद्‌भुत प्रभाव है आपपर।

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  16. यात्रा/घुमक्कड़ी सबसे बड़ा शिक्षा-संस्कार है जो आनन्द और उत्साह के साथ बिन मांगे मिलता है. नदियां तो सभ्यताओं की कथावाचक हैं. उनसे मिलना जैसे सभ्यता के सोपानों का संस्पर्श करना है. आपने तो दोनों का युग्म प्रस्तुत किया है .

    यह तो हुआ काल्पनिक भावचित्र,अब करछनारिटर्न्ड होने के बाद असली यायावरी के विवरण की प्रतीक्षा रहेगी.

    रही बात टें बोलने-बुलाने की तो साहित्य का अर्थापन स+हित जैसा कुछ होता है. अगर उसमें सबका हित है तो वह टें नहीं बोलेगा.और अगर उसमें सबका हित नहीं है तो उसे टें क्यों नहीं बोल जाना चाहिए.

    यह हाशिए की आवाज़ों को सुनने का समय है. हाशिए आक्रामक मुद्रा में केन्द्र को ग्रसने बढ़ रहे हैं. हर हाशिए का अब अपना महाआख्यान है.सो यहां भी हो तो आश्चर्य कैसा ?

    पर आपका यात्रा-संस्मरण टें-करण की स्थितियों से बहुत अलग स+हित के महायज्ञ में महत्वपूर्ण हवि है.ब्लागरी तो यह है ही,साहित्य उसे अपने पाले में खींचेगा -- ऐन केन्द्र की तरफ़.

    पोस्ट में समकालीन सृजन के विशेष अंक ’यात्राओं का ज़िक्र’ को स्थान देने के लिए कृतज्ञ हूं.

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  17. @ प्रियंकर > यह हाशिए की आवाज़ों को सुनने का समय है. हाशिए आक्रामक मुद्रा में केन्द्र को ग्रसने बढ़ रहे हैं. हर हाशिए का अब अपना महाआख्यान है.सो यहां भी हो तो आश्चर्य कैसा ?

    वाह! अद्भुत! लगता है अब वातानुकूलित दफ्तर छोड़ निकलना ही पड़ेगा झोला-लाठी लेकर!

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  18. "बांध रहा हूं मनसूबे
    छ महीने से
    करछना की गंगा को
    नहीं देखा मैने

    यूं ही निकलूंगा
    एक दिन
    सबेरे की पसीजर से
    उतरूंगा करछना
    स्टेशन मास्टर साहब
    करछना स्टेशन के
    शायद साथ कर दें
    किसी पोर्टर को
    पर शायद वह भी ठीक नहीं कि
    जाहिर करूं!
    अपनी साहबी आइडेण्टिटी

    करछना
    अकेले ही चल दूंगा
    किसी रिक्शा/तांगा/इक्का में।
    कुछ दूर ले जायेगा वह।
    फिर बता देगा रास्ता
    गंगा घाट का
    अगर पैदल चलने में पड़ी
    कोई
    चाय की दूकान तो
    न होगा
    चाय पीने में भी कोई गुरेज़
    ज्यादा फिक्र न करूंगा कि
    गिलास या कुल्हड़ साफ है या नहीं।

    यूंही इधर घूमूंगा गंगा किनारे
    कुछ तो अलग होंगी वहां गंगा
    मेरे घर के पास की गंगा से

    फिर पत्नीजी का दिया टिफन खा कर
    शाम तक वापस लौटूंगा
    इलाहाबाद।

    कोई किसान मिलेगा,
    कोई दुकानदार, कोई केवट
    चावल के खेत कट चुके होंगे।
    फसल अब खलिहान नहीं जाती तो
    वहीं हो रही होगी थ्रेशिंग।
    दस बारह साल की लडकी
    होगी झोंटा बगराये
    अपने छोटे भाई को कोंरा में लिये
    मेड़ पर चलती।"


    एक कविता अभी नैनीताल की पोस्ट के बहाने पढने को मिली थी, और अब यह लम्बी, खूबसूरत, अभिभूत कर देने वाली काव्यात्मक पोस्ट। ऊपर से प्रियंकर पालीवाल जी की टिप्पणी-

    "यह हाशिए की आवाज़ों को सुनने का समय है. हाशिए आक्रामक मुद्रा में केन्द्र को ग्रसने बढ़ रहे हैं. हर हाशिए का अब अपना महाआख्यान है.सो यहां भी हो तो आश्चर्य कैसा?"
    तो सोने में सुहागा है।

    दोनों को बधाई।।

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय