Sunday, December 5, 2010

कैसा था वह मन - आप पढ़ कर देखें!

एक किताब, उपन्यास, वह भी एक नारी का लिखा। पढ़ते समय बहुत से प्रश्न मन में आते हैं - कैसे लिखती हैं उपन्यास वे। कितना वास्तविकता होती है, कितना मिथक। कितनी कोमलता, कितनी सेंसिटिविटी, कितना जबरी की नारीवादिता और कितना अभिजात्य युक्त छद्म। चाहे शिवानी हो, चाहे महाश्वेता देवी। चाहे अरुन्धति रॉय हों। पढ़ते समय इन सब बिन्दुओं पर लेखन को तोलता रहता है मन। और बहुधा अधपढ़ी रह जाती है पुस्तक। 

पर यह उपन्यास - कैसा था वह मन - तो लगभग निरंतर पढ़ गया मैं।

एक छोटे शहर की लड़की, एक मध्यवित्त परिवार के लड़के से व्याही जाती है। लड़का बन गया है अफसर। शायद रेल का। और वह अब उस अफसर के साथ जगह जगह रहती है। बड़े बंगले, उनमें अकेला पन और उनमें नर्सरी राइम्स और बाल कथायें बुनती यह महिला। कुछ अलग सी है यह महिला।

सामान्यत: मैने अफसरों की बीवियों को देखा है। क्लब और महिला समिति में अपने आप को प्रोजेक्ट करने की उधेड़बुन में लिप्त। एक दूसरे की बुराई और अपने को सभ्य बताने की होड़ में जिन्दगी गंवाने वाली औरते। तीज त्यौहार में देशज समझ से अनजान एक अजीब सा अफसरापन दिखाती औरतें। बेकार सी औरतें।

उपन्यास अंश:

... (जवा की) नानी ने सुनाया था कि ... वह औरत चुड़ैल थी, जिसके पंजे पीछे थे, एड़ी आगे। गुस्से में उसने पीछे मुड़ कर नानी को फटकारा था - कइसन चाची हौ?

... दीपावली की रात भड़ेहर भाने के बाद (जवा की) बड़ी अम्मा सिर का पल्ला खींच कर कहानी शुरू करतीं - "एक ठे रहलीं अमावस, एक जनी रहलीं पुनवासी। दूनो जनी बहिन रहलीं। अमावस अमीर रहलीं और पुनवासी गरीब!" ...

भीड़ भाड से गुजरते जवा (पेरिस में) के मन में भय एक डर फैल गया था, यदि कहीं सौमित्र का साथ छूट जाये तो जवा का क्या होगा? जवा के पास तो न अपना पासपोर्ट था, न फ्रेंच करेंसी और न फ्रेंच भाषा का ज्ञान ...

लेखिका (निशि श्रीवास्तव) के बारे में:

वे न तो कस्बाई जीवन में पलीं थीं, और न ही अवधी/भोजपुरी उनकी मातृभाषा थी। जो लिखा है वह अपने गहन ऑब्जर्वेशन के आधार पर ही। उनके पास हिन्दी/हिन्दी साहित्य की कोई फॉर्मल सनद नहीं थी। वे जीव-रसायन में स्नातकोत्तर और सूक्ष्म जैविकी में पी.एच.डी./वैज्ञानिक थीं।

वे अब नहीं हैं।

उनका जन्म सन 1953 और निधन सन 2004 में हुआ।

पुस्तक प्रभात पेपरबैक्स (prabhatbooks@gmail.com), 4/19 आसफ अली रोड, नई दिल्ली ने छापी है। मूल्य 95/-

पर यह उपन्यास जिस महिला के चरित्र का प्रकटन करता है, उसकी सरलता और लेखिका की छोटी छोटी बातों को भी पकड़ने-लिखने की क्षमता मुझे बहुत प्रभावित कर गई। कैसा था वह मन? बहुत निर्मल, बहुत अपना सा जी।

और उस मन का इतना विस्तृत वर्णन है कि लगता है यह उपन्यास नहीं, ऑटोबायोग्राफी हो। मुझे बताया गया कि यह ऑटोबायोग्राफी नहीं है। और इस बात से लेखिका - निशि श्रीवास्तव - की लेखन क्षमता और भी सशक्त मालुम पड़ती है।

बहुत कम लिखा देखा है इतनी सरलता और इतने विस्तार से पूर्वांचल के छोटे शहर/कस्बाई औरतों की चर्या और एक सरल सी महिला का एक काम में लगे रहने वाले अफसर के साथ जीवन यापन का वर्णन।

मन का वर्णन।

और अंत में मन चल पड़ता है अनचीन्ही पगडण्डी पर - टेलीफोन की घण्टी, डाक्टर, एम्ब्यूलेंस! 

कैसा था वह मन - आप पढ़ कर देखें!


यह पुस्तक आप फ्लिपकार्ट या हिन्दीबुक सेण्टर पर जा कर नेट पर भी खरीद सकते हैं।


साहित्य और पुस्तकों की दुनियां में जबरदस्त लॉबीइंग है। भयंकर गुटवाद। प्रतिष्ठित होने में केवल आपका अच्छा लेखन भर पर्याप्त नहीं है। वह होता तो यह पुस्तक शायद बेहतर जानी जाती। यह तो मेरा अपना, किनारे खड़े व्यक्ति का, देखना है।


29 comments:

  1. आपकी समीक्षा जबर्दश्त है। पुस्तक पढने की रुचि जगा गई।
    ज़रूर पढूंगा।

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  2. देखते हैं, कोशिश करके... सूक्ष्म मनोभावों को कागज पर उकेरना ही एक अच्छे लेखक की विशेज्ञता होती है.. निशि जी के इस उपन्यास में कैसे चित्रण है, पढ़ने के बाद ही आनन्द मिल सकेगा..

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  3. ज्ञान जी,

    जिस तरह का अनुभव आपको इस किताब को पढ़ते हुए हुआ था ठीक वही अनुभव मुझे रश्मि कुमार की लिखी 'मन न भये दस बीस' पढ़ते हुए मिला था।
    इस पर मैंने भी एक छोटी सी समीक्षा लिखी थी। कि -

    मन न भये दस बीस - पढ़ने के वक्त लगता ही नही की किताब पढ़ रहे हैं, हर एक कहानी जैसे हमारे अगल बगल की ही है , कभी लगता अरे ये तो मेरे साथ हो चुका है, अरे ये तो मैंने देखा है, अरे ऐसा तो मामा जी के घर उस दिन ऐसा ही हुआ था। बस यूं कहा जाय की सारे अनुभव यही मिल जाते हैं।

    एक महिला जो चेहरे से ख़राब है, जी तोड़ कोशिश करती है की उसकी वजह से किसी को दुःख नही पहुंचे , लेकिन लोग हैं की दुःख देने के लिए जैसे आतुर रहते हैं, ऐसे मे छोटा सा उसका बच्चा कैसे उसके स्वाभिमान को वापस लाता है वो देखने लायक है, ........... एक कहानी और थी जिसमे एक शख्स को दुखी दिखाया जाता है क्योंकि उसके बच्चे उसकी नही सुनते। बहुत दुखी माहौल मे ही अचानक कोई पूछता है की आप का रिटायरमेंट फंड तो अच्छा खासा होगा, बस जैसे यही सुनते ही उसकी पीठ सीधी हो जाती है.......... और ऐसे ही न जाने कितनी बातें हैं जिन्हें बस पढ़ते चले जाओ।

    अमूमन मैं भी छद्म नारीवाद ठेले जाने से उकता जाता हूँ लेकिन जिस तरह का आपने विवरण दिया है ठीक उसी तरह के भाव इस मन न भये दस बीस को पढ़ते हुए होता है।

    प्रकाशन संस्थान मुझे कुछ अनचीन्हा प्रतीत हुआ.... सत्साहित्य प्रकाशन , २०५ बी , chaavadi बाजार , न्यू दिल्ली - ६

    लेकिन किताब एकदम से चीन्ही हुई लगी :)

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  4. यदि आत्मकथ्य नहीं है तो अवलोकन गहन है। ईश्वर की इच्छा होती तो उस मन के और अनुभवों से हम सब लाभान्वित होते। रेल महिलाओं के अफसराना दायित्व पर पुस्तक लिखने का सुझाव आपने इस पोस्ट के माध्यम से दे ही दिया है, आभार। पर कब लिखी जाये, बुरा न मान जायें लोग।

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  5. ''दीपावली की रात भड़ेहर भाने के बाद (जवा की) बड़ी अम्मा सिर का पल्ला खींच कर कहानी शुरू करतीं - "एक ठे रहलीं अमावस, एक जनी रहलीं पुनवासी। दूनो जनी बहिन रहलीं। अमावस अमीर रहलीं और पुनवासी गरीब!"
    वाह क्‍या बात है, आगे कैसे निभा होगा, उत्‍सुकता हो रही है.

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  6. प्रवीण जी,

    मुझे लगता है कि इस विषय पर ऑब्जर्वेशनल बातें लिखने का सबसे उपयुक्त समय होता है रिटायरमेंट के बाद वाला। उसके पहले लिखना ठीक वैसा ही है जैसा कि जीते जी झगड़हे घर की वसीयत लिखना और शेष जीवन लफड़े झेलते रहने को अभिशप्त होना :)

    ज्ञान जी आपसे पहले लिख सकते हैं शायद :)

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  7. रोचक समीक्षा ....पुस्तक तक जरुर पहुंचाएगी ...शुक्रिया

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  8. आपकी समीक्षा पढकर किताब पढ़ने का मन हुआ। :)

    ....बेकार सी औरतें। क्या सच में? ऐसा पूरा सच नहीं है।

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  9. सामाजिक उपन्यास मैं क्म ही पढता हूँ ! लेकिन इस पुस्तक पर आपकी टीप और पुस्तक अंश से प्रेरित हुआ हूँ ...लेखिका अब दिवंगत है ,दुःख हुआ !

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  10. निशि जी को पहली बार सुन (पढ) रही हूँ आप से । आपकी समीक्षा के बाद लग रहा है पुस्तक पढनी ही पडेगी । वैसे भी मुझे आजकल महिला लेखकों की पुस्तकें पढना ज्यादा भा रहा है ।

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  11. देखना होगा इस पुस्तक को .. आभार , जानकारी देने के लिए ...

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  12. उत्सुकता जगा गयी आपकी समीक्षा...मुझे तो इसी तरह की पुस्तकें बहुत पसंद हैं....बिलकुल जाना-पहचाना सा माहौल ....परिचित से लगते चरित्र.
    जरूर पढूंगी इसे...बस दुख हुआ...लेखिका के दिवंगत होने की खबर जान...अभी और कितनी ही ऐसी पुस्तकें लिख सकती थीं वे.
    ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे.

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  13. कैसा मन था..... जब आपने वो किताब खरीदी होगी
    कैसा मन रहा होगा जब आपने निरंतरता से उसे पढ़ा होगा........
    इत्ता ही नहीं, उस पर एक पोस्ट भी लिख दी...

    "कैसा था वह मन"
    दिल्ली के प्रकाशक की है, जरूर पढेंगे

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  14. बाबुओं की दुनिया में दो बातें और होती हैं:-
    1. आमतौर से, बाबू लोग फ़ोटोग्राफ़र होते हैं तो उनकी बबुआइनें चित्रकार.
    2. बबुआइनों की वरीयता भी उनके पतियों की सीनियारिटी से तय होती है. (अमीर बाप ढेर सारे दहेज के बदले अपनी गंवार-नकचढ़ी बेटियां बाबुओं को टिका देते हैं जो अपने खसम के जूनियरों की प्रोफ़ेशनल बीवियों तक को अपनी ही जूनियर मान कर हर फ़ंक्शन में बढ़प्पन बघारने से कभी नहीं चूकतीं.)
    पता नहीं, निशी जी की हिम्मत ये बातें कहने की भी हुई या नहीं :-)

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  15. पूरा निचोड़ तो आपकी समीक्षा में ही मिल रहा है फिर भी उस पुस्तक मको प्राप्त कर पढने का मन बन रहा है. आभार.

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  16. @ काजल कुमार - इस उपन्यास में शहरी अफसरायें तो नगण्य़ हैं। जो नारियां हैं, उनसे जमीन के सोन्धे पन की गन्ध आती है। बच्चे हैं, जिनके साथ हैं कविता और कहानियां - बहुत सी इंस्टेंट बुनी हुई। कुछ लोग हैं - उपन्यास की आवश्यकतानुसार। पति है, केयरिंग भी, अलूफ भी। उसके बारे में उतना तीखे से लिखा नहीं, पर कुछ कुछ वर्कोहलिक लगता है, अपने काम में मशगूल।

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  17. कैसा था वह मन? बहुत निर्मल, बहुत अपना सा जी

    "अपना" मन तो सदा निर्मल ही होता है। दूसरों का "निर्मल" मन पढने की क्षमता अपने पास कहाँ? ;)

    "कैसा था वह मन" और निशि श्रीवास्तव के बारे में जानना अच्छा लगा। अच्छे कहानी और उपन्यास अक्सर इतने वास्तविक होते हैं कि उन्हें आत्मकथ्य/ऑटोबायोग्राफी समझा जाना सामान्य है।

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  18. `चाहे अरुन्धति रॉय हों'

    नारी मन को गिलानी भी नहीं समझ सके, हम क्या चीज़ हैं जी:)

    एक अच्छी समीक्षा के माध्यम से एक अच्छे उपन्यास और लेखिका से परिचित कराने के लिए आभार॥

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  19. बहुत अच्छी समीक्षा ...आभार

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  20. समीक्षा सिफारिश करती है यह पुस्‍तक पढने की। तलाश करूँगा।
    'बेकार सी औरतें' का उपयोग मुझे अच्‍छा नहीं लगा।

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  21. dhundhta hu apne aaspaas, na mile to door tak ye upanyas.....

    mil jaye aur padh lu uske baad hi kuchh kah sakunga iske baare me, filhal to yahi kah sakta hu ki aapne sujhai hai to padhne k layak hi nai balki avashya pathniya hogi isiliye dhundhne mein laga hu........

    aage padhne k bad hi kuchh sakunga....

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  22. पुस्तक की निर्दोष समीक्षा ने छुआ है मन को ...
    लेखिका का गहन निरिक्षण और लेखन में सहजता और निर्मलता अवश्य ही प्रभावित करती है
    पढना होगा इसे भी ...
    निशि जी का इस दुनिया में नहीं होना दिल दुखा गया ...

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  23. @ विष्णु बैरागी और अनूप शुक्ल - पहले मन हुआ कि स्वेट मार्डन की उस पुस्तक का अंश कोट करूं जिसमें उच्च वर्ग की महिलाओं के नकारा जीवन के बारे में उन्होने कहा है। पर मैं उस पर डिबेट नहीं चाहता। और पुन: आग्रह हुआ तो ये शब्द निकाल भी दूंगा।

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  24. @ विष्णु बैरागी और अनूप शुक्ल - और मेरी पत्नी जी कहती हैं कि "यह शब्द बिल्कुल सही शब्द हैं। औरतों को समझने के लिये औरत का ही मन चाहिये। मैं सरला बिरला से भी मिली हूँ, गाँव गंवई औरतों से भी मिली हूं और इन अफसराओं के बीच भी रही हूं। इनके अंतर मुझे मालुम हैं"।

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  25. आपके 'यह सब' कहने के बाद भी 'वह सब' अच्‍छा नहीं लगा।

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  26. aapke vllag par pahli bar aya aur sasakt lekhika ke bare men padne ko mila dhanyvad

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  27. कुछ शब्दों मे ही पुस्तक की रूह तक पहुँचा दिया। पडःाने की उत्सुकता जाग उठी है। मंगवाते हैं। धन्यवाद।

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  28. इस पुस्तक को जरा पैक करके कोरियर कर दें मेरे जबलपुर के पते पर तो सार्थक टिप्पणी करें. :)

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  29. आपने प्रशंशा की है तो ये पुस्तक पढनी ही पड़ेगी...हिंदी की किताब वो भी उपन्यास अगर मैं सही हूँ तो आप कम ही पढते हैं...:-)

    नीरज

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय