बिना अपना काम किये कैसे जिया जा सकता है? पिछले डेढ़ महीने मेरे लिये बहुत यातनामय रहे, जब मेरी कार्यक्षमता कम थी और सरकारी काम के प्रति पूरा न्याय नहीं हो पा रहा था।
पढ़ा कि कई उच्च मध्य वर्ग की महिलायें स्कूल में मास्टरानियों के पद पर हैं। पर स्कूल नहीं जातीं। अपना हस्ताक्षर कर तनख्वाह उठाती हैं। घर में अपने बच्चों को क्या जीवन मूल्य देती होंगी!?
दफ्तर के बाबू और रेलवे के इन्स्पेक्टर जिन्हें मैं जानता हूं; काम करना जानते ही नहीं। पर सरकारी अनुशासनात्मक कार्यवाई की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि वे बच निकलते हैं। पूरी पेंशन के साथ, बाइज्जत।
शाम के समय जब पैर दर्द करते हैं या मन होता है खिन्न; तब यह सब याद आता है।
खैर छोड़ें। क्या बना है जी रात के भोजन में? फिर वही लौकी! अच्छा, जरा दाल बना लेना – न हो तो आटे में सतुआ भर कर रोटी बना देना।
छोटे आदमी, छोटे संतोष, छोटे सुख। ये सुख स्थाई भाव के साथ मन में निवास क्यों नहीं करते जी! मन में कुछ है जो छोटाई को सम भाव से लेना नहीं चाहता। वह कुटिया में रहना चाहता है – पर एयरकण्डीशनर लगा कर!
कुटिया में एसी लगाकर...दिन हरिद्वार में मगर शाम ढले रुड़की..ताकि जरा गला तर रहे.
ReplyDeleteअपने आप को महाविद्वान व अधिक योग्य मानने का भ्रम,
ReplyDeleteयोग्यतानुसार भारत सरकार का पद न दे पाने का क्रम,
विरोध स्वरूप कुछ भी न करने के लिये उत्प्रेरित होते हम,
किसी न किसी को तो देश दिखेगा, फिर काहे का श्रम।
यही दर्शन हर जगह फैल गया है। दाल में लौकी डाल रोटी के साथ खाकर, अपने सामर्थ्यानुसार काम न कर पाने की टीस व्यक्त कर सकने वाले सरलमना बहुत दुर्लभ हैं। बने रहिये, पुरातत्व वाले आजकल दुर्लभ व्यक्तित्वों का भी संग्रहण प्रारम्भ कर रही है।
निठल्लों की कमी नहीं दुनिया में। जब निठल्ला बन कर ही सब कुछ मिल जाए तो इस से अधिक बन कर क्या किया जाए। झगड़ा सामाजिक मूल्यों का है। हमारे सामाजिक मूल्य आदमी का निठल्लापन नहीं देखते वे देखते हैं उस की खरीद क्षमता कैसी है।
ReplyDeleteछोटे आदमी, छोटे संतोष, छोटे सुख। ये सुख स्थाई भाव के साथ मन में निवास क्यों नहीं करते जी! मन में कुछ है जो छोटाई को सम भाव से लेना नहीं चाहता।
ReplyDeleteबिना श्रम किए ही हम सब कुछ पाना चाहते हैं और दूसरों पर कीचड़ उछालना चाहते हैं। छोटी लेकिन सार्थक पोस्ट।
निठल्ला होना भी एक आर्ट है, यह हर किसी के बस की बात नहीं है।
ReplyDeleteविश्वास न हो तो किसी भी संसद सत्र पर नज़र भर उठा कर देख लिजिए.....जहाँ हर एक मिनट के लाखों रूपए खर्च हो रहे हों वहाँ उँघते हुए बैठना, किसी कार्यवाही के दौरान कब क्या कहा गया उसकी फिक्र छोड़ कर मन ही मन कुछ दूसरा सोच विचार करना,पांच साल का पूरा कार्यकाल बिना एक भी प्रश्न पूछे निकाल देना..... हंसी मजाक का काम नहीं हैं.....इसके लिए बहुत ही धैर्य और एक विशेष किस्म की चौंकात्मक मनोस्थिति की जरूरत होती है।
चौंकात्मक मनोस्थिति से तात्पर्य - जब कभी कुछ अपने फेवर की बात सुनाई पड़े जैसे वेतन भत्ते आदि के बढ़ाने की बात या किसी मुद्दे का राजनीतिक लाभ उठाने हेतु चिल्ल पौं मचाना हुआ तो ऐसे वक्त लगभग सभी को चौंकाते हुए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराना, सीधे स्पीकर के पास स्पीकते हुए चले जाना ताकि लोगों को लगे कि हाँ हम सब देख सुन रहे हैं, समझ रहे हैं......यह और इस तरह की निठल्लई कोई आसान काम नहीं है :)
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@ मन में कुछ है जो छोटाई को सम भाव से लेना नहीं चाहता। वह कुटिया में रहना चाहता है – पर एयरकण्डीशनर लगा कर! ---- बढ़िया रहा :)
कारपोरेट ट्रेनिंग के समय एक अजीबो - गरीब हिम्मती लडके से मुलाकात हुयी थी जो किसी भी क्लास में सबसे आगे वाली पंक्ति में ही बैठता था और वहीं सोता रहता था...
ReplyDeleteउसकी नींद अगर बीच में टूटती या कोई उसे बीच में उठाता तो वो झट से कोई सवाल पूछ लेता। :-)
’निट्ठल्ले’ होने को लेकर मेरे भी आजकल जो ख्याल बन रहे हैं वो मुझे ही कटघरे में रखते हैं और उनसे जूझने की कोशिश कर रहा हूँ.. :(
कभी अपने बेतरतीब बिस्तर की फोटो लगाता हूँ क्यूँकि आपका बिस्तर तो मुझे बहुत करीने से लगा लगता है.. मेरे बगल में तो ’पीसा की झुकी मीनार’ बनी हुयी है...
कुटिया में रहने की आस एसी के साथ. बहुत सुन्दर. आपकी पीड़ा समझ में आ रही है.
ReplyDelete@पंकज उपाध्याय -
ReplyDeleteमेरी पत्नीजी जब मायके जाती हैं, तो मेरे बिस्तर पर (और आस-पास भी) मीनारें बनने लगती हैं! :)
हिंदुस्तान ही ऐसा देश है जहाँ तमाम चिरकुटाई करते हुए आप शान से जिंदगी गुजार सकते है
ReplyDeleteकाफी दिन बाद आपको देख अच्छा लगा ...शुभकामनायें भाई जी !
ReplyDeleteनिठल्लेपन में दो तीन दिन तो मजा आता है, मगर फिर भयंकर सजा लगने लगता है.
ReplyDeleteआधुनिक संत महात्माओं वाली आस है, एसी युक्त कुटिया. बाबाजी को और क्या चाहिए? :)
बड़े सेवेन स्टार डीलक्स विचार हैं एसी वाली कुटिया।
ReplyDeleteसारे लोग काम करने लगें तो दुनिया स्वर्ग न बन जाए और सब स्वर्गवासी ।
chhoti post p a r
ReplyDeletechhoti pratikriya
gyan da kutiya me dikhe
antarman ho harkhit hua.
s k jha
chandigarh.
अगर होते सभी कर्मी तो निट्ठल्ले कहां जाते
ReplyDeleteदुनिया अगर चमन होती तो वीराने कहां जाते :)
@2401055232180750128.0
ReplyDelete>> संजय बेंगाणी - मैं जिन लोगों की बात कर रहा हूं, वे वर्षों/दशकों से निठल्ले हैं और अपने आपको जबरदस्त जस्टीफाई भी करते हैं! उन्हें गलत बताने का यत्न किया जाये तो बहुत नाराज/क्रोधित भी होते हैं! उनकी कामचोरी पर कोई सोशल स्टिग्मा भी नहीं है। उल्टे, उनकी सोशल नेटवर्किंग कहीं बेहतर है!
इस संक्षिप्त ,लघु कलेवर में जो आपने कही है... निःशब्द ही कर दिया....अब क्या कहूँ...
ReplyDeleteअभी कुछ दिनों पहले मोबाइल पर एक मैसेज आया कि किसी भी प्रकार के करप्शन के लिए सी बी आई को इस नंबर पर संपर्क कर खबर करें...बार बार हाथ नंबर डायल करने के लिए उठता है पर एक छोटी सी बटन दबा नहीं पाता...मन विश्वास नहीं कर पाता कि सचमुच कुछ सार्थक हो भी सकता है....
जिस सरकारी विभाग का काम चोर और चोरी पकड़ना है, उसी के अफसर ने काम देने के पहले चढ़ावा चढाने को खुलेआम कहा है..जिसका चढ़ावा सबसे भारी होगा ......
आज इमानदार लोगों की यही स्थिति है ,कुटिया तो है ही नहीं तो एयर ....थोडा तीकरमी हो जाइये फिर देखिये ..
ReplyDeleteसतुआ भरल रोटी हमारे इधर मकुनी कहलाता है!
ReplyDeleteनिठल्लों की कमी नहीं दुनिया में,दिनेश जी से ओर आप से सहमत है, वेसे हमे एक घंटा खाली बेठना केद लगता है
ReplyDeleteनिठल्लापन सबके बस की बात नहीं जी. घर बैठे तनख्वाह उठाना तो एक गुण है.
ReplyDeleteएसी वाली कुटिया बड़ा सही कम्बिनेशन है. हमारा भी मन ऐसे ही रहने का हो रहा है :)
पोस्ट से इतर केवल एक वाकया बयान कर रहा हूँ.
ReplyDeleteएक आई ए एस की पत्नी शौकिया पढ़ाती थीं. उन्हें केवल तीन हज़ार तनखा मिलती थी. उनके आने जाने के लिए दफ्तर का ड्राइवर और एम्बेसेडर थी जिसका पूरा खर्चा सरकारी खाते से जाता था. स्कूल शहर से बाहर था और पढ़ाकर आने में कुल पांच घंटे लगते थे. ड्राइवर और कार का बस इतना ही उपयोग था. उन मैडम को शौकिया पढ़ाकर तीन हज़ार वेतन दिलवाने के लिए सरकार के पच्चीस-तीस हज़ार रुपये यूं ही उड़ जाते थे.
हमारे यहाँ भी पुराने लोग सीखना नहीं चाहते. कहते हैं कि विन्डोज़ 98 और लोटस इंस्टाल करो तब काम करेंगे. कहते हैं कि कम्प्युटर पर टाइप नहीं कर सकते, मैनुअल टाइपराइटर चाहिए. अब मैनुअल तो सौ रूपये नग के भाव से नीलम हो गए. चूंकि वे काम नहीं करते इसलिए कोई गलती भी नहीं करते. उनकी ACR खराब नहीं होती. जो आदमी काम करने का जोखिम उठाता है उसे और भी काम से लादा जाता है और गलत कर बैठने पर या काम नहीं कर सकने की सूरत में उसकी अच्छी लानत-मलानत होती है. कोई काम आ जाने पर उसे ही याद किया जाता है भले ही वह पहले से ही बोझ तले दबा हुआ हो. जब वह शिकायत करता है कि बाकी लोग तो बिलकुल काम नहीं करते तो उसे सुनने को मिलता है "आप भी उनके जैसे नाकारा बनना चाहते हैं क्या?"
ऐसे लोग जब रिटायर होते हैं तब भी उनके प्रति बहुत सम्मान रखते हुए उनको रुखसत दी जाती है. कोई भी यह नहीं कहता कि आप पूरी ज़िंदगी दूसरों को अपना काम करते देखते रहे, आज आपको कैसा लग रहा है:)
इकोनोमिस्ट और बिजनेस मैगजीन के ऊपर अखंड ज्योति! हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा!
सर कृपया बुरा ना मानें आजकल के कर्मी कामचोर हो गए है ... यदि सरकारी हैं तो समझिये की वे काम करें या ना करें .... वे तो सरकारी दामाद हो जाते हैं ...बैठे ठाले पूरी की पूरी पक जाती है . सर ३४ वर्षो तक मैंने भी सरकारी नौकरी की है और पाया है की पहले के कर्मी निष्ठावान की भावना से सेवा कार्य करते थे हालत बदलने के साथ साथ आज के कर्मी काम नहीं करना चाहते है . निठल्लों की फौज अब हर सरकारी दफ्तर में भीड़ में तैनात हैं ....
ReplyDeleteआप 80-20 Rule के बारे में जानते होंगे?
ReplyDeleteकिसी भी सरकारी दफ़्तर में २० प्रतिश्त कर्मचारी, ८० प्रतिशत काम करते हैं।
प्राईवेट कंपनियों में भी ऐसा ही होता है लिकिन ये आँकडे सुधर जाते हैं।
मालिक के डंडे के डर से शायद 80-20 सुधरकर 70-30 या 67-33 बन जाते होंगे।
निठल्लेपन का एक इलाज है जो हर स्थिति में लागू नहीं हो सकता और वह है self-employment.
मुझे सरकारी (सार्वजनिक क्षेत्र), प्राईवेट और स्वयं अपना ही व्यवसाय चलाने का अनुभव है।
कर्मचारी 100 प्रतिशत योगदान तब देता है जब वह अपना खुद का काम करता है।
ब्लॉग की खांचे के लिए एक सर्वथा फिट पोस्ट ....मजा तो एक्दमै निताला बन जाने में है ! और एक बार मुझे महिला विद्यालयों की जांच मिली तो देखा प्रधानाचार्य (उम्रदार सह्रीफ महिलायें ) बेचारियां खीझ रही थी किसी न किसी बहाने से आधे से ज्यादा टीचर महिलायें मैटेर्निती ,लालन पालन अवकाश आदि पर ड्यूटी से अनुपस्थित थीं .. ...
ReplyDelete1. समाजशास्त्रियों को मानना है कि अध्यापा लोग मध्यवर्गीय मूल्य बांटते फिरते हैं, क्योंकि वे स्वयं इसी वर्ग से आते हैं. सो, उच्चवर्गीय मास्टरनियां समाजशास्त्रियों को झुठलाना नहीं चाहतीं.
ReplyDelete2. पेंशन के साथ बाइज़्ज़त रिहायी पाने वाले बाबूजन पहले से ही जानते हैं कि काम करने से ही तो पेंशन के साथ बाइज़्ज़त रिहायी पाने में अड़चन आ सकती है..
3. कुटिया और एअरकंडीशनर अभी उसी दौर में हैं जब टेलीविज़न ड्राइंग रूम में रखा जाता था.
वर्तमान सरकारों को देख कर ही यह असर हो रहा है.....यथा राजा तथा प्रजा:))
ReplyDeleteछोटे आदमी, छोटे संतोष, छोटे सुख। ये सुख स्थाई भाव के साथ मन में निवास क्यों नहीं करते जी! ...
ReplyDeleteबात तो सोचने की है ...!
1. समाजशास्त्रियों को मानना है कि अध्यापा लोग मध्यवर्गीय मूल्य बांटते फिरते हैं, क्योंकि वे स्वयं इसी वर्ग से आते हैं. सो, उच्चवर्गीय मास्टरनियां समाजशास्त्रियों को झुठलाना नहीं चाहतीं.
ReplyDelete2. पेंशन के साथ बाइज़्ज़त रिहायी पाने वाले बाबूजन पहले से ही जानते हैं कि काम करने से ही तो पेंशन के साथ बाइज़्ज़त रिहायी पाने में अड़चन आ सकती है..
3. कुटिया और एअरकंडीशनर अभी उसी दौर में हैं जब टेलीविज़न ड्राइंग रूम में रखा जाता था.
सर कृपया बुरा ना मानें आजकल के कर्मी कामचोर हो गए है ... यदि सरकारी हैं तो समझिये की वे काम करें या ना करें .... वे तो सरकारी दामाद हो जाते हैं ...बैठे ठाले पूरी की पूरी पक जाती है . सर ३४ वर्षो तक मैंने भी सरकारी नौकरी की है और पाया है की पहले के कर्मी निष्ठावान की भावना से सेवा कार्य करते थे हालत बदलने के साथ साथ आज के कर्मी काम नहीं करना चाहते है . निठल्लों की फौज अब हर सरकारी दफ्तर में भीड़ में तैनात हैं ....
ReplyDeleteकारपोरेट ट्रेनिंग के समय एक अजीबो - गरीब हिम्मती लडके से मुलाकात हुयी थी जो किसी भी क्लास में सबसे आगे वाली पंक्ति में ही बैठता था और वहीं सोता रहता था...
ReplyDeleteउसकी नींद अगर बीच में टूटती या कोई उसे बीच में उठाता तो वो झट से कोई सवाल पूछ लेता। :-)
’निट्ठल्ले’ होने को लेकर मेरे भी आजकल जो ख्याल बन रहे हैं वो मुझे ही कटघरे में रखते हैं और उनसे जूझने की कोशिश कर रहा हूँ.. :(
कभी अपने बेतरतीब बिस्तर की फोटो लगाता हूँ क्यूँकि आपका बिस्तर तो मुझे बहुत करीने से लगा लगता है.. मेरे बगल में तो ’पीसा की झुकी मीनार’ बनी हुयी है...
निठल्ला होना भी एक आर्ट है, यह हर किसी के बस की बात नहीं है।
ReplyDeleteविश्वास न हो तो किसी भी संसद सत्र पर नज़र भर उठा कर देख लिजिए.....जहाँ हर एक मिनट के लाखों रूपए खर्च हो रहे हों वहाँ उँघते हुए बैठना, किसी कार्यवाही के दौरान कब क्या कहा गया उसकी फिक्र छोड़ कर मन ही मन कुछ दूसरा सोच विचार करना,पांच साल का पूरा कार्यकाल बिना एक भी प्रश्न पूछे निकाल देना..... हंसी मजाक का काम नहीं हैं.....इसके लिए बहुत ही धैर्य और एक विशेष किस्म की चौंकात्मक मनोस्थिति की जरूरत होती है।
चौंकात्मक मनोस्थिति से तात्पर्य - जब कभी कुछ अपने फेवर की बात सुनाई पड़े जैसे वेतन भत्ते आदि के बढ़ाने की बात या किसी मुद्दे का राजनीतिक लाभ उठाने हेतु चिल्ल पौं मचाना हुआ तो ऐसे वक्त लगभग सभी को चौंकाते हुए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराना, सीधे स्पीकर के पास स्पीकते हुए चले जाना ताकि लोगों को लगे कि हाँ हम सब देख सुन रहे हैं, समझ रहे हैं......यह और इस तरह की निठल्लई कोई आसान काम नहीं है :)
-------
@ मन में कुछ है जो छोटाई को सम भाव से लेना नहीं चाहता। वह कुटिया में रहना चाहता है – पर एयरकण्डीशनर लगा कर! ---- बढ़िया रहा :)