Monday, August 16, 2010

मेला फिर!

मेला फिर लगेगा। अभी तड़के देखा – तिकोनिया पार्क में झूला लगने लगा है। लगाने वाले अपने तम्बू में लम्बी ताने थे। कल से गहमागहमी होगी दो दिन। सालाना की गहमागहमी।

अनरसा, गुलगुला, नानखटाई, चाट, पिपिहरी, गुब्बारा, चौका, बेलन, चाकू से ले कर सस्तौआ आरती और फिल्मी गीतों की किताबें – सब मिलेगा। मन्दिर में नई चप्पलें गायब होंगी और भीड़ की चेंचामेची में जेबें कटेंगी।

जवान लोग मौका पा छोरियों को हल्के से धकिया-कोहनिया सकेंगे। थोड़ा रिक्स रहेगा पिटने का! पर क्या!? मेला तो है ही मेल की जगह। थोड़ा रिक्स तो लेना ही होगा!

Mela2 झूले की तैयारी

Mela1 झूले की तैयारी

Mela3 सजता कोटेश्वर महादेव मन्दिर


26 comments:

  1. हमारे यहा एक लोकगीत है गौरी तू मेला देखन नाय जईयो तो को नोच नोच खाय जाये .

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  2. आपने मेरे शहर के मेले की याद दिलाई , बधाई

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  3. एक जमाना पहले हमारे घर में बृज के लोकगीतों की एक कैसेट हुआ करती थी। उसमें एक गीत था कि एक स्त्री अपने पति से मेला ले जाने की जिद कर रही है। शर्म आ रही है कि पांच मिनट तक दिमाग पर जोर डालने के बाद १ पंक्ति भी याद नहीं आयी।

    चाट के तो क्या कहने, वाह वाह...एक अरसा हुआ अच्छी चाट खाये।

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  4. जहाँ पर हल्के से धकिया लेने भर में वीरता, बुद्धि कौशल व पुरुषत्व के सारे मुहल्लायी कीर्तिमान स्थापित हो जायें तो फिर कलमाडीवत कॉमन वेल्थ खेलों का आयोजन किसलिये?

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  5. @ मेला है तो मेल की जगह ...थोडा रिस्क तो लेना होगा ...:):):):)
    आजकल के समझदार बच्चे मेले में नहीं जाते ...बाकी हम लोंग तो खूब मेला घूमे हैं ...बिना रिस्क लिए ...!

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  6. आप की भाषा के इस नये स्वरूप का स्वागत है। लगता है कोई इलाहाबादी लिख रहा है।

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  7. स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ.

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  8. आपने मेरे शहर के मेले की याद दिलाई , बधाई

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  9. @वाणी गीत - शब्द रिक्स है। देशज अंग्रेजी का फ्यूज़न! :)

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  10. मेला के पहले आपके शब्द चित्र ने उसे सजीव कर दिया ....
    मेला न जाने कितनी भूली बिसरी यादों को कुरेद डालता है ..
    बिसारती की दूकान ,चोटहिया जलेबी चाटती महिलायें(खायें हैं कभी आप या भाभी जी ?) , गोदना गुदवाती अंकवार भर भेट्तीं रोतीं महिलायें (अब शायद यह दृश्य न दिखे ..भला हो .आवागमन की सुविधाओं का ) ,
    फिफिहरी /पिपहरी /गुब्बारे /लट्टू /चरखी एक लम्बी फेहरिस्त ...
    और मैंने अपना गोदना इसी मेले में १९८२ में गुदवाया था -दाहिने हाथ में -एक जगह संध्या दूजे ॐ ....(शिनाख्त सनद रहे )
    इस बार आप भी गुदवायिये न -सिर्फ दो हर्फ़ "रीता "
    अक्लमंद को इशारा काफी .....

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  11. लाइफ में इतना/थोडा रिक्स तो लेना ही पड़ता है :)

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  12. मेला का रिपोर्टिंग का इन्तजार रहेगा. :)

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  13. युवा युवतियां धक्का देने और धक्का खाने के लिए ही मेले में जाती है. यार्ड में लूस शंटिंग.

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  14. लखीमपुर मेले में तो ’रामबाण का सूरमा’ भी मिलता था... लैका लोग मुफ़्त में सूरमा लगवाकर मेला घूमते थे.. और डांस पार्टियां भी आती थीं, कहीं तीन गाने तो कहीं पाँच.. फ़ोटू खीचने वाली दुकाने भी रहती थीं जहाँ सिर्फ़ बैकग्राऊन्ड चेंज करो और एफिल टॉवर के पास फोटो लो या ताजमहल के पास..

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  15. धकिया, कोहनिया कर दोस्तों में ऊंचा भी तो उठना है

    प्रणाम

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  16. मेला में जाने पर सबसे पहले जो चीज दिखती है वह गोल चक्कर वाला आसमानी झूला .....कभी किसी तस्वीर में भी देखिए तो वही झूला सबसे पहले दिखता है....स्काय लाईन तक चेंज करने की हैसियत होती है इस झूले में।

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  17. आज कुछ ज़्यादा कहने का मन नहीं है।
    बस यही कि
    ये मेले दुनिया में कम न होंगे,
    अफ़सोस उस में हम न होंगे!

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  18. @ अनरसा, गुलगुला, नानखटाई, चाट, पिपिहरी, गुब्बारा, चौका, बेलन, चाकू से ले कर सस्तौआ आरती और फिल्मी गीतों की किताबें –>> कुल मिलाकर सुन्दर मेलहा-बिम्ब बन रहा है .. !
    @ जवान लोग मौका पा छोरियों को हल्के से धकिया-कोहनिया सकेंगे। >> जवान-मनोबिग्गान कै सुघर तड़ाव .. ! @ .......... मेला तो है ही मेल की जगह। >> हियाँ साहित्त है !
    NOTE : हम ई सब बतकहीं बिना कौनौ पूर्वाग्रह के लिखेन हैं ! अगली प्रविष्टि कै इंतिजार अहै !

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  19. "जवान लोग मौका पा छोरियों को हल्के से धकिया-कोहनिया सकेंगे। "

    कोई लौटा दे मेरे बिते हुए दिन....:)

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  20. @अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी -
    हम त कहे रहे साहित्त से कि हमसे एक कोस दूर रह्यअ! ई कहां से चला आइ हम जैसे खर्बोटहा मनई के लग्गे!

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  21. वाह मेले का क्या "सटीक" डिस्क्रिपसन दिए हैं आप! पढ़कर मजा आ गया :)

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  22. मेले का यह सजीव सचित्र वर्णन बड़ा ही सुरुचिपूर्ण लगा...

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  23. पोस्ट पढ़कर मेले की याद आ रही है ...फोटो बहुत सुन्दर लगाए है ....आभार

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  24. @ हम त कहे रहे साहित्त से कि हमसे एक कोस दूर रह्यअ! ई कहां से चला आइ हम जैसे खर्बोटहा मनई के लग्गे!
    ऊ यक कबित्त कै यक लाइन है -
    ''काजर की कोठरी में कैसहूँ सयानो जाय ,
    एक लीक काजर की लागिहैं पै लागिहैं ! ''
    --- बांग्मय की किसन-कोठरिया में दाखिल केहू करिया हुवे से नाय बचा पावा , मनई चाहे खर्बोटहा हुवे चाहे उग्गर !

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  25. लगभग दो महीनों के बाद ब्‍लॉग देखना/पढना शुरु किया।

    आपकी यह पोस्‍ट तो बहुत ही सरल-सहज है। एक बार पढने में ही समझ तें आ जाती है। लगता ही नहीं कि यह आपने ही लिखी है।

    ऐसी 'अभिधा पोस्‍ट' के लिए मुझ जैसे तमाम 'कमसमझ' लोगों की ओर से धन्‍यवाद।

    इसी प्रकार हम लोगों का ध्‍यान रखिएगा।

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  26. majaa aa gaya padhkar, mela kahi ka bhi ho bas mela hi hota hai. apne shahar ke paas wale mele ka ullekh maine bapy wali post me kiya tha ki kaise us mele me bapy ki kya gat bani thi.

    sach kahu to post se jyada comments aur us par bhi aapki aur amarendra jee ki chuhalbaji me majaa aaya...

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय