कल सुकुल कहे कि फलानी पोस्ट देखें, उसमें बिम्ब है, उपमा है, साहित्त है, नोक झोंक है।
हम देखे। साहित्त जो है सो ढेर नहीं बुझाता। बुझाता तो ब्लॉग लिखते? बड़ा बड़ा साहित्त - ग्रन्थ लिखते। ढेर पैसा पीटते। पिछलग्गू बनाते!
ऊ पोस्ट में गंगा के पोखरा बनाये। ई में गंगा माई! एक डेढ़ किलोमीटर की गंगा आई हैं अपने हिस्से। उसी को बिछायें, उसी को ओढ़ें। अमृतलाल वेगड़ जी की तरह परकम्मावासी होते तो कहां कहां के लोग गोड़ छूने आते!
यदि होता किन्नर नरेश मैं! पर वह गाने में क्या - भाग में लिखी है लिट्टी और भावे मलाई-पूड़ी!
कौन बिम्ब उकेरें जी गंगा का। जब उकेरना न आये तो उकेरना-ढेपारना सब एक जैसा।
आदरणीय अमृतलाल वेगड़ की नर्मदामाई पर तीसरी किताब प्रकाशक मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल; मूल्य ७०/- |
नर्मदामाई से कम्पेयर करें तो गंगा बहती नदी नहीं लगतीं - गंवई/कस्बाई अस्पताल के आई.सी.यू. में भर्ती मरीज सी लगती हैं। क्या कहेंगे इस उपमा का? कहेंगे तो कह लें - कोई साहित्त बन्दन थोड़े ही कर रहे हैं!
अपडेट:
और वेगड़ जी की इसी किताब में भी लिखा मिला -
... नदियों को बेदखल करके उनके घरों में नालों को बसा रहे हैं। आबादी का विस्फोट इस सुन्दर देश को नरक बना रहा है। यह ठीक है कि हमने नर्मदा के प्रति वैसी क्रूरता नहीं दिखाई जैसी गंगा और यमुना के प्रति। (वे दोनों I.C.U. में पड़ी कराह रही हैं और उनमें पानी नहीं रासायनिक घोल बह रहा है।)
नर्मदामाई से कम्पेयर करें तो गंगा बहती नदी नहीं लगतीं - गंवई/कस्बाई अस्पताल के आई.सी.यू. में भर्ती मरीज सी लगती हैं। क्या कहेंगे इस उपमा का?
ReplyDeleteएक्दम आला दर्ज़े का स्वादिष्ट उपमा है जी।
@Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
ReplyDeleteबहुत बढ़िया टीप! अभी पूछता हूं, घर में सूजी हो तो नाश्ते में उपमा बनवाई जाये! :)
नर्मदा और गंगा माई दोनों के ही दर्शन करे दिन भये ...इसलिए कुछ कह नहीं सकते ..!
ReplyDeleteबरसात में तो दहाड़ मार के बह रही होंगी? लिट्टी पढ़ के खाने का मन हुआ आप उपमा में उलझा गए. बिम्ब से तो उत्तल/अवतल दर्पण जैसा कुछ याद आया.
ReplyDeleteप्रयुक्त प्रतीक व उपमा नए हैं और सटीक भी।
ReplyDeleteगंगा जी ने जब तक चट्टानी रास्ता अपनाये रखा, उनका स्वरूप बना रहा। मैदान पहुँचकर माँ सा शान्त, प्रेमवत्सल स्वरूप अपनाया, पुत्रों ने जीवन रस खींच कर उन्हे सुखा डाला।
ReplyDeleteनर्मदा बीच बीच में चट्टानी मार्ग अपना लेती हैं, अतएव बची हैं।
सर जी उपमा को बहुत समय तक मैं मौसी समझता था - उप-माँ।
ReplyDeleteबाद में उपमा को समझा, फिर ये जाना कि आप कहते कुछ भी रहें - सुनने वाले के कानों की कण्डीशनिंग के हिसाब से ही अर्थ निकलता है - और उसके तहत 'मौसी' के भी अर्थ कोई अच्छे नहीं होते - अभिधा के सिवा।
अब गंगा माई और नर्मदा में भी यही फ़र्क रह गया है कि अभी नर्मदा पर सलमान रुश्दी की नज़र नहीं पड़ी है - न डोमिनिक लेपियर की - सो बेस्ट्सेलर शायद न बन पाएँ।
आज बिकने से महत्व और श्रेष्ठता तय होती है, सो वेखड़ जी को दस-पाँच ब्लागिए ही प्रणाम कर सकेंगे।
बाक़ी निशात अली का ई-पता दे सकेंगे आप? बहुतै "माईडियर" शख़्स रहे हमरे संपर्कियों में से - और उत्तम हुमरैयासेंसी भी।
आप अपने डेढ़ किलोमीटरीय पहरे पर क़ायम रहें-हम शहर का ई छोर सँभाले हैं - दुरन्तो से लेकर राजधानी तक के समयपालन की गवाही आँखों-देखी कानों-सुनी।
हमारी तो अब यही गंगा हैं और यही नर्मदा।
गंवई/कस्बाई अस्पताल के आई.सी.यू. में भर्ती मरीज सी लगती हैं। क्या कहेंगे इस उपमा का?
ReplyDeleteइस उपमा के लिये यही कहेंगे कि कवि समय से पीछे की बातें करता है। गर्मी की दीन-हीन गंगा कवि के मन में इतना छाई है कि वह बरसात में उफ़नाती बाढ़ को देखते हुये भी उसे आई सी यू में भरती देखता है।
उपमा/बिम्ब मूलत: कवि/लेखक/व्यक्ति के मन की अवस्था होती है। जिस गंगा को आप आई सी यू में भर्ती सी देखते हैं वही गंगा सकता किसी के मन में ऐसे भाव उपजायें कि वह आई सी यू से उठ कर बाहर आ जाये।
निराला जी ने अपनी पुत्री का सौंदर्य वर्णन करते हुये लिखा:
नत नयनों से आलोक
उतर कांपा अधरों पर थर-थर।
वहीं अपनी पुत्री की खूबसूरती का जिक्र चलने पर
एक नामचीन फ़िल्म निर्माता ने कहा- अगर वह मेरी बेटी न होती तो मैं उसके साथ सोना चाहता।
ये अलग-अलग बातें अलग-अलग लोगों की मन:स्थिति का बयान करती हैं। अब यह दोनों प्रतिक्रियाओं को सुनने वाले की मानसिक स्थिति पर है कि कौन सा बिम्ब उसको किस तरह प्रभावित करता है।
साहित्यकार के बिम्ब कहीं अलग गमलों में नहीं उगते। वह अपने-आसपास की जिन्दगी से सब ग्रहण करता है। अब यह उसके ऊपर है कि उसकी नजर कैसी है।
जिस गंगा को एक व्यक्ति आईसीयू में भरती हुआ सा देखता है उसी को देखते हुये कोई इसे जीवन से ओतप्रोत भी कह सकता है। दोनों सही लग सकते हैं अपनी जगह। दोनों की नजर के इस अंतर में उनके जीवन अनुभव, पढ़ा हुआ साहित्य और उसके साथ देखे हुये बिम्ब कारण के रूप में होंगे।
देव , सुन्दर सी प्रविष्टि के लिए बधाई ! अमृत लाल बेगड़ की किताब पढने की उत्सुकता बढ़ गयी है !
ReplyDeleteपर कुछ बातें और कहना चाहूँगा ---
१ ) नहीं जानता कि 'सुकुल' ने किस पोस्ट को संदर्भित किया था और वाकया क्या है परन्तु कोई अपने आप को कवि/साहित्यकार बोलकर श्रेष्ठता का दावा करे और अपनी 'आइदेंतिती' को उससे जोड़े जबकि मूल में काव्यत्व/साहित्यिकता का छद्म हो तो निश्चय ही उसकी आलोचनात्मक पड़ताल होनी चाहिए ! हाँ पड़ताल , शब्द-प्रयोग , व्याकरण-संगति , उपमा , रूपक , बिम्ब आदि आदि औजारों को लेकर ! जैसे सामाजिक विषयों के आलोचक सामाजिक विषय को देखते हैं वैसे ही साहित्यिक विषय के आलोचक साहित्यिक विषय को भी |
२ ) न तो सम्पूर्ण वांग्मय साहित्य हो सकता है और न ही साहित्य सम्पूर्ण वांग्मय , इसलिए इस अंतर को देखते हुए चला जाना चाहिए ! साहित्य के लिए न तो साहित्येतर वांग्मय अछूत होना चाहिए और न ही साहित्येतर वांग्मय के लिए साहित्य | यहाँ अछूत की जगह 'निंदनीय' शब्द भी रखकर सोचा जा सकता है |
३ ) @ ..........बड़ा बड़ा साहित्त - ग्रन्थ लिखते। ढेर पैसा पीटते। पिछलग्गू बनाते! >> यह गलती तो साहित्यकारों की है इसके लिए साहित्य , शब्द-प्रयोग , व्याकरण-संगति , उपमा , रूपक , बिम्ब आदि आदि कहाँ दोषी हुए ! उलटे चुनौती ही यही है कि इसी अंतर को समझा/समझाया/दिखलाया जाय |
....................... [ जारी ,,,,,,,]
४ ) साहित्य क्या ? , कहना कठिन , '' गूंगे के गुड़ सा '' ! इसकी मिष्टान्नता/चारुता से कौन बच पाता है , सब चाहते भी हैं अपने अपने स्तर पर | इसमें तो व्यापक मानवीय सरोकार है | व्यापक जन-समूह को तो इस बात को और समझना चाहिए और जब साहित्य व्यापक मानवीय सरोकार से कटने लगे और लोगों को सुप्त-चेतन बनाने लगे तो व्यापक मानवीय विरोध भी होना चाहिए | यह तो सबका धर्म है | किसी एक के बस का नहीं | '' साहित्य जन समूह के ह्रदय का विकास है .'' (~बाल कृष्ण भट्ट ) |
ReplyDelete५ ) गंगा की गति से हमें सीखना चाहिए , जाने कितने दुर्गम को सुगम करती आयी | इसकी गति ऋजुरेखीय नहीं है | ऋजुरेखीय बही तो फिर क्या नदी ! .. इससे चुनौती स्वीकार का साहस सबको लेना चाहिए | और लोगों ने लिया भी है , पं. जगन्नाथ ने गंगालहरी लिखी , बाबू जगन्नाथ दास ने 'गंगावतरण' , इसके संघर्ष का बयान ही तो है यह सब | आपकी गांगेय प्रविष्टियों में भी गंगा और जन संघर्षों का प्रस्तुतीकरण/आह्वान ही तो है , जीवंत साहित्य क्या कम रहा है इसमें ! इससे कौन इनकार करेगा भला !
६ ) @ ........गंवई/कस्बाई अस्पताल के आई.सी.यू. में भर्ती मरीज सी लगती हैं। क्या कहेंगे इस उपमा का?........>> निश्चित रूप से गंगा की बेबसी को दिखलाती यह उपमा साहित्यिक है | 'पोखरा' होना भी एक उपमा थी और माँ होना भी सांस्कृतिक प्ररिप्रेक्ष्य में बेहद सारगर्भित उपमा है | परन्तु पूजा के समय गंगा वंदन करते हुए एक पंडित कहे कि 'हे गंगा माँ तू गंवई/कस्बाई अस्पताल के आई.सी.यू. में भर्ती मरीज सी लगती है , और मेरा कल्याण कर' तो हम यह उपमा वहाँ अप्रासंगिक मानेंगे , अनुपयुक्त मानेंगे | बस इसी तरह की बातें हैं , साहित्य कोई बहुत दूर दूसरी दुनिया की चीज नहीं है , इसी लोक की वस्तु है , हमारी , आपकी , सबकी | 'साहित्त' को लेकर नकार के भाव नहीं होने चाहिए |
--- सहज ही कुछ बातें विनम्रता के साथ निवेदित की है मैंने , अन्यथा न लीजिएगा !
आपके सुस्वास्थ्य की शुभकामनाओं के साथ ,
- अमरेन्द्र
कल सुकुल कहे कि फलानी पोस्ट देखें
ReplyDeleteदिखाने से ही देखी जा सकती है ऐसी पोस्टें...
>> अनूप शुक्ल - @ इस उपमा के लिये यही कहेंगे कि कवि समय से पीछे की बातें करता है।
ReplyDeleteबहुत सही कहा। असल में डाक्टर साहब ने नदी-तालाब से दूर रहने को कहा है, सो गंगा स्मृति फ्लैश बैक में है। पिछले दिनों पिताजी कस्बाई अस्पताल के आ.सी.यू. में थे तीन घण्टे, सो उसकी स्मृति गंगा माई से जुड़ गई!
>>उड़न तश्तरी - @ दिखाने से ही देखी जा सकती है ऐसी पोस्टें...
यह सही नहीं है। मेरे पू्छने पर कि क्या चल रहा है ब्लॉगजगत में, सुकुल ने बताया था। और फोन भी मैने किया था। पोस्ट का विज्ञापन किया हो , वैसा नहीं है। और विज्ञापन सा लगता तो मैं पोस्ट देखता ही नहीं!
@ अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी - बस इसी तरह की बातें हैं , साहित्य कोई बहुत दूर दूसरी दुनिया की चीज नहीं है , इसी लोक की वस्तु है , हमारी , आपकी , सबकी | 'साहित्त' को लेकर नकार के भाव नहीं होने चाहिए |
ReplyDeleteसही पकड़ा मेरे मन के नकार भाव को। और यह भाव दबा छिपा नहीं है। शायद यह भाव "साहित्य(कार) की स्नॉबरी" को एक "ब्लॉगर के जवाब" के रूप में लिया जाना चाहिये। लेकिन कई बार यह भी लगता है कि कई प्रकार के पूर्वाग्रह व्यर्थ हैं।
'बिंब को लेकर बोम्बाबोम्ब' जब तक चलेगा अपना तो ज्ञानवर्धन होता रहेगा।
ReplyDeleteअभी सुबह सुबह एक बिंब गार्डन में मॉर्निंग वॉक कर रहा था.....कम्बख्त ने अपने कानों में इयरफोन भी लगाया था और आश्चर्य यह कि कोई गाना भी सुन रहा था बिंब..... तू मिट्ठी मिट्ठी बोल....कानों विच रस घोल....कि तैनूं चाँद की चूड़ी पहिनावां ।
बताओ,
गाने में कह तो रहा है कि तैनूं चाँद की चूडी पहिनावां....लेकिन यह स्पष्ट नहीं कर रहा कि चाँद की चूड़ी से तात्पर्य नुक्कड पर बैठने वाले चाँद चूड़ीवाले से है कि सचमुच चाँद में होल कर उसे चूड़ी बनाकर अपनी प्रेयसी के हाथों में पहनाने से है
.......just kidng :)
इस गाने का संगीत तो पसंद है ही.... लिरिक्स भी मुझे बहुत पसंद आया है और ऐसे में बिंबात्मक विवेचन फिर कभी :)
हाँ, इतना जरूर देख रहा हूँ कि कुछ कमेन्टों में संबंधित पोस्ट वाली तल्खी और तरेरई अब तक जारी है। शायद जाते-जाते जाए :)
ांअपको पढना एक सुखद अनुभव की तरह है मगर अपनी व्यस्तता मे हम कितने सुखद ़ाण खो देते हैं?बहुत दिन बाद आने के लिये क्षमा चाहती हूँ क्या करूँ उम्र का भी तकाज़ा है कुछ भूलने की भी आदत है यही सच है। इस ब्लाग का आई डी। अब याद रहेगा । शुभकामनायें।
ReplyDeleteआईसीयू की याद जाते जाते जाती है
ReplyDeleteपढकर बताइएगा जरूर कि कहीं कोई खुरपेंच मिली कि नहीं?
ReplyDelete………….
सपनों का भी मतलब होता है?
साहित्यिक चोरी का निर्लज्ज कारनामा.....
बहुत सुंदर जी सब के विचार मिला ले ओर हमारे समझे, धन्यवाद
ReplyDeleteबिम्ब बिम्ब तो गहि लिए उपमा कहि गए खाय :-); सुकुल जी का टीका दृष्टांत बहुत सटीक रहा
ReplyDelete"उकेरना-ढेपारना सब एक जैसा।"
ReplyDeleteउकेअरने-ढेपारने की बात छोड़िये, अब नेताओं की तरह डकारने कि बात कहिए :)
आशा है अब पिताजी पूर्ण स्वस्थ हो गए होंगे। उनको हमारी शुभकामनाएं दें।
यह उपमा वुपमा समझ आती तो कही हिन्दी पढा रहे होते .
ReplyDeleteनर्मदामाई से कम्पेयर करें तो गंगा बहती नदी नहीं लगतीं - गंवई/कस्बाई अस्पताल के आई.सी.यू. में भर्ती मरीज सी लगती हैं। क्या कहेंगे इस उपमा का? कहेंगे तो कह लें - कोई साहित्त बन्दन थोड़े ही कर रहे हैं!
ReplyDeleteकोई कुछ ही कहे हमें तो ये उपमा एकदम सच्ची और अच्छी लगी । देस की नदियों मे सच ही हमने नाले बसाये हैं इतनी जनता इतने हाथ पर काम के लिये कोई नही । कि गरमियों में मेहनत से नदी ही साप करलें ताकि बारिश के बाद उसमें स्वछ्च सुंदर जल बहे ।
हमारे कस्बे के दक्खिन में रेलवे लाइन निकलती थी। उसी से कोई एक-दो फर्लांग में धरती से कुछ सोते फूटे पड़े थे। जिन से साफ, शीतल मीठा पानी निकलता रहता था जो कस्बे के पूरब में बहता हुआ आगे उत्तर की ओर निकल जाता था। इसी का नाम था बाणगंगा। बचपन से इसी में नहाए, तैरना सीखा।
ReplyDeleteअब वो बाणगंगा कस्बे से गायब है। आगे दक्खिन में कहीं पाँच सात किलोमीटर पर प्रकट होती है। कस्बे में बाणगंगा एक सड़ता हुआ नाला बन गई है। उस के लिए तो कोई आईसीयू भी नहीं है। यही बाणगंगा पहले पार्वती में, फिर पार्वती चंबल में, चम्बल जमुना में और जमुना गंगा में मिलती है। इस में से बहे पानी का कोई अंश तो इलाहाबाद संगम में जा मिलता होगा और इस की दुर्दशा पर बहाए आँसुओँ का भी।
विद्वानों को को मन लगाकर सुना -कृत्यार्थ हुए !
ReplyDelete४ ) साहित्य क्या ? , कहना कठिन , '' गूंगे के गुड़ सा '' ! इसकी मिष्टान्नता/चारुता से कौन बच पाता है , सब चाहते भी हैं अपने अपने स्तर पर | इसमें तो व्यापक मानवीय सरोकार है | व्यापक जन-समूह को तो इस बात को और समझना चाहिए और जब साहित्य व्यापक मानवीय सरोकार से कटने लगे और लोगों को सुप्त-चेतन बनाने लगे तो व्यापक मानवीय विरोध भी होना चाहिए | यह तो सबका धर्म है | किसी एक के बस का नहीं | '' साहित्य जन समूह के ह्रदय का विकास है .'' (~बाल कृष्ण भट्ट ) |
ReplyDelete५ ) गंगा की गति से हमें सीखना चाहिए , जाने कितने दुर्गम को सुगम करती आयी | इसकी गति ऋजुरेखीय नहीं है | ऋजुरेखीय बही तो फिर क्या नदी ! .. इससे चुनौती स्वीकार का साहस सबको लेना चाहिए | और लोगों ने लिया भी है , पं. जगन्नाथ ने गंगालहरी लिखी , बाबू जगन्नाथ दास ने 'गंगावतरण' , इसके संघर्ष का बयान ही तो है यह सब | आपकी गांगेय प्रविष्टियों में भी गंगा और जन संघर्षों का प्रस्तुतीकरण/आह्वान ही तो है , जीवंत साहित्य क्या कम रहा है इसमें ! इससे कौन इनकार करेगा भला !
६ ) @ ........गंवई/कस्बाई अस्पताल के आई.सी.यू. में भर्ती मरीज सी लगती हैं। क्या कहेंगे इस उपमा का?........>> निश्चित रूप से गंगा की बेबसी को दिखलाती यह उपमा साहित्यिक है | 'पोखरा' होना भी एक उपमा थी और माँ होना भी सांस्कृतिक प्ररिप्रेक्ष्य में बेहद सारगर्भित उपमा है | परन्तु पूजा के समय गंगा वंदन करते हुए एक पंडित कहे कि 'हे गंगा माँ तू गंवई/कस्बाई अस्पताल के आई.सी.यू. में भर्ती मरीज सी लगती है , और मेरा कल्याण कर' तो हम यह उपमा वहाँ अप्रासंगिक मानेंगे , अनुपयुक्त मानेंगे | बस इसी तरह की बातें हैं , साहित्य कोई बहुत दूर दूसरी दुनिया की चीज नहीं है , इसी लोक की वस्तु है , हमारी , आपकी , सबकी | 'साहित्त' को लेकर नकार के भाव नहीं होने चाहिए |
--- सहज ही कुछ बातें विनम्रता के साथ निवेदित की है मैंने , अन्यथा न लीजिएगा !
आपके सुस्वास्थ्य की शुभकामनाओं के साथ ,
- अमरेन्द्र
देव , सुन्दर सी प्रविष्टि के लिए बधाई ! अमृत लाल बेगड़ की किताब पढने की उत्सुकता बढ़ गयी है !
ReplyDeleteपर कुछ बातें और कहना चाहूँगा ---
१ ) नहीं जानता कि 'सुकुल' ने किस पोस्ट को संदर्भित किया था और वाकया क्या है परन्तु कोई अपने आप को कवि/साहित्यकार बोलकर श्रेष्ठता का दावा करे और अपनी 'आइदेंतिती' को उससे जोड़े जबकि मूल में काव्यत्व/साहित्यिकता का छद्म हो तो निश्चय ही उसकी आलोचनात्मक पड़ताल होनी चाहिए ! हाँ पड़ताल , शब्द-प्रयोग , व्याकरण-संगति , उपमा , रूपक , बिम्ब आदि आदि औजारों को लेकर ! जैसे सामाजिक विषयों के आलोचक सामाजिक विषय को देखते हैं वैसे ही साहित्यिक विषय के आलोचक साहित्यिक विषय को भी |
२ ) न तो सम्पूर्ण वांग्मय साहित्य हो सकता है और न ही साहित्य सम्पूर्ण वांग्मय , इसलिए इस अंतर को देखते हुए चला जाना चाहिए ! साहित्य के लिए न तो साहित्येतर वांग्मय अछूत होना चाहिए और न ही साहित्येतर वांग्मय के लिए साहित्य | यहाँ अछूत की जगह 'निंदनीय' शब्द भी रखकर सोचा जा सकता है |
३ ) @ ..........बड़ा बड़ा साहित्त - ग्रन्थ लिखते। ढेर पैसा पीटते। पिछलग्गू बनाते! >> यह गलती तो साहित्यकारों की है इसके लिए साहित्य , शब्द-प्रयोग , व्याकरण-संगति , उपमा , रूपक , बिम्ब आदि आदि कहाँ दोषी हुए ! उलटे चुनौती ही यही है कि इसी अंतर को समझा/समझाया/दिखलाया जाय |
....................... [ जारी ,,,,,,,]
@ अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी - बस इसी तरह की बातें हैं , साहित्य कोई बहुत दूर दूसरी दुनिया की चीज नहीं है , इसी लोक की वस्तु है , हमारी , आपकी , सबकी | 'साहित्त' को लेकर नकार के भाव नहीं होने चाहिए |
ReplyDeleteसही पकड़ा मेरे मन के नकार भाव को। और यह भाव दबा छिपा नहीं है। शायद यह भाव "साहित्य(कार) की स्नॉबरी" को एक "ब्लॉगर के जवाब" के रूप में लिया जाना चाहिये। लेकिन कई बार यह भी लगता है कि कई प्रकार के पूर्वाग्रह व्यर्थ हैं।
'बिंब को लेकर बोम्बाबोम्ब' जब तक चलेगा अपना तो ज्ञानवर्धन होता रहेगा।
ReplyDeleteअभी सुबह सुबह एक बिंब गार्डन में मॉर्निंग वॉक कर रहा था.....कम्बख्त ने अपने कानों में इयरफोन भी लगाया था और आश्चर्य यह कि कोई गाना भी सुन रहा था बिंब..... तू मिट्ठी मिट्ठी बोल....कानों विच रस घोल....कि तैनूं चाँद की चूड़ी पहिनावां ।
बताओ,
गाने में कह तो रहा है कि तैनूं चाँद की चूडी पहिनावां....लेकिन यह स्पष्ट नहीं कर रहा कि चाँद की चूड़ी से तात्पर्य नुक्कड पर बैठने वाले चाँद चूड़ीवाले से है कि सचमुच चाँद में होल कर उसे चूड़ी बनाकर अपनी प्रेयसी के हाथों में पहनाने से है
.......just kidng :)
इस गाने का संगीत तो पसंद है ही.... लिरिक्स भी मुझे बहुत पसंद आया है और ऐसे में बिंबात्मक विवेचन फिर कभी :)
हाँ, इतना जरूर देख रहा हूँ कि कुछ कमेन्टों में संबंधित पोस्ट वाली तल्खी और तरेरई अब तक जारी है। शायद जाते-जाते जाए :)