बारह बिस्वा में अरहर बुवाई थी। कुल बारह किलो मिली। अधिया पर बोने वाले को नफा नहीं हुआ। केवल रँहठा (अरहर का सूखा तना) भर मिला होगा। बारह किलो अरहर का अनुष्ठान चलने वाला है – कहुलने (तसला में गर्म करने) और फिर उसे चकरी में दलने का।
घर के कोने अंतरे में रखी चकरी फिर निकाली जायेगी। मेरी अम्मा तीन दिन व्यस्त रहेंगी। उनके अनुष्ठान की कॉस्टींग की जाये तो अरहर पड़ेगी ५०० रुपये किलो। पर ऐसी कॉस्टिंग शिवकुमार मिश्र जैसे चार्टर्ड अकाउण्टेण्ट कर सकते हैं। अपनी मामी को बताने की कोशिश करें तो डांट खा जायेंगे।
असली चीज है दाल दलने के बाद बचेगी चूनी – दाल के छोटे टुकड़े। उन्हे पानी में भिगो कर आटे में सान कर चूनी की रोटी बनती है। थोड़ा घी लगा दें तो चूनी का परांठा। उसे खाना दिव्य अनुभूति है गंवई मानुस के लिये।
हमारी चूनी तो अभी निकलनी है, पड़ोस की तिवराइन अपनी दाल दलने के बाद कुछ चूनी हमें दे गई थीं। रविवार दोपहर उसी की रोटी/परांठा बना। साथ में आलू-टमाटर की लुटपुटार सब्जी, कटा खरबूजा और मठ्ठा। वाह!
बोल लम्बोदर गजानन महराज की जै। यह खाने के बाद सोना अनिवार्य है – फोन की घण्टी का टेंटुआ दबा कर!
टेंटुआ दबाने की बात पर याद आया कि डिस्कस का इतना विरोध किया मित्रों ने कि उसका टेंटुआ दबाना पड़ गया। पिछली कुछ हंगामेदार पोस्टों के कमेण्ट मय लिंक संजोने का प्रॉजेक्ट अगले सप्ताहान्त पूरा किया जायेगा। कुल ५ पोस्टें हैं डिस्कस वाली जिनके कमेण्ट जमाने हैं।
पुरानी टिप्पणी व्यवस्था पुन: जारी। थ्रेडेड संवाद बन्द। थ्रेडेड संवाद का एक जुगाड़ पंकज उपाध्याय ने बताया है। पर उसमें मामला चमकदार नहीं है। लोगों के फोटो साइड में लाने का जुगाड़ और लगाना होगा। बक्से में बाईं ओर पैडिंग भी चाहिये। अन्यथा अक्षर दीवार से चिपके लगते हैं। पंकज जैसे ज्वान उस पर अपना जोर लगायें आगे बेहतर बनाने को।
गूगल फ्रेण्ड कनेक्ट एक थ्रेडेड टिप्पणी व्यवस्था देता है। मैने प्रयोग के तौर पर उसे नीचे जोड़ दिया है। यदि आप उसका प्रयोग करेंगे तो प्रत्युत्तर आसानी से दिया जा सकेगा(?)। यदि न देना चाहें, तो पुरानी टिप्पणी व्यवस्था है ही!
अपडेट – सॉरी, ब्लॉगर कमेण्ट व्यवस्था मिस बिहेव कर रही थी। अत: पुन: पब्लिश करनी पड़ी पोस्ट! और गूगल फ्रेण्डकनेक्ट की टिप्पणियां गायब हो गयीं!
चर्चायन – चौपटस्वामी युगों बाद जगे। चौपटस्वामी यानी श्री प्रियंकर पालीवाल। उन्हे फिक्र है कि जैसे लच्छन हैं हमारे, उसे देखते हमारा पोस्ट रिटायरमेण्ट समय जैसे बीतेगा, वैसे बीतेगा; पर हमारी पत्नीजी कैसे झेलेंगी फुलटाइम हमें! प्रियंकर जी का गद्य ब्लॉग “समकाल” हिन्दी के सशक्ततम पर डॉरमेण्ट ब्लॉगों में है!
jai ho...ab ki baar allahabad aate jaate aapke darshan ka prayas karoonga...
ReplyDeleteडिस्कस पर जाने-अनजाने एक दबाब भी बन जाता है कि हर कमेंट का जबाब दिया जाये। वर्डप्रेस पर आइये टहलकर। वैसे आराधना चतुर्वेदी का कमेंट बक्सा मुझे सबसे अच्छी लगता है। प्रियंकर का लेख अब बांच ही लेते हैं , देखते हैं चौपटस्वामी क्या गुल खिलाइन हैं।
ReplyDeleteअब कमेन्ट दिखने लगे. पहले तो लगा कि अब कमेन्ट व्यवस्था ही धाराशाही हो गई.
ReplyDeleteचक्की आपके यहाँ अभी भी है, देख कर सुखद अचरज हुआ.
चुनी की रोटी के साथ नीचे लुटपुटार सब्जी वाह ,सुबह सुबह छुधा स्वाद में लिप्त हो गई , अभी बनाती हू मैं भी ...। प्रियकर जी फिर लौटे अच्छी बात है, हम सब के लिए.
ReplyDeleteखेती हम करा रहे हैं लाइव रिपोर्ट आपसे मिलती है ,भाई वाह.
ReplyDeleteहमारी टिप्पणी कहीं गम हो गयी सो रिठेल:
ReplyDeleteचुनी की रोटी या परांठा कभी खाया हो याद नहीं पड़ता मगर विवरण और चित्र से ही काफी तृप्ति हुई. जारी रखिये...
चूनी की रोटी के बारे में मुझे नहीं पता था. है तो यह अरहर ही न?
ReplyDeleteऔर बहुत सी दालें हैं जिनमें से हम घर पर इक्का-दुक्का ही खाते हैं.
कई तरह के मोटे अनाज भी खाने को नहीं मिले कभी. बहुत समय पहले बाजरे की रोटी खाई तो पता चला बाजरे का स्वाद.
चक्की का फोटो देखकर दिल खुश हो गया. मेरी दादी क्या चक्की चलाती थीं! बिलकुल लट्टू के माफिक. हम तो उसे हिला भी नहीं पाते थे. चक्की चलाते समय उनकी बाँहों और जाँघों की पेशियाँ थल-थल करती थीं. ऊपर से झक गोरी!
फोन की घंटी का टेंटुआ दबाकर सोना अच्छी बात है. मैं ड्राइविंग करते और सोते समय फोन बंद रखता हूँ.
पुरानी टिप्पणियां कैसे संजोयेंगे? कॉपी-पेस्ट करके रखने का तरीका अपनाएंगे क्या?
प्रियंकर जी का ब्लौग देखा हुआ है. पता नहीं था कि वही चौपटस्वामी हैं. ब्लौगिंग के मजे यही तो हैं! उनका गद्य बहुत रोचक है. आशा है पुनः लिखने का क्रम चलायें.
इतना सुस्वादु भोजन खा नींद आना स्वाभाविक है । ऐसी स्थिति में हम कन्ट्रोलर महोदय से 2 घंटे का ब्रेक ले लेते हैं और विचारों की गाड़ी न्यूट्रल में डालकर, एफ एम का मधुरिम संगीत बजा अपनी ही अवचेतना में उतर जाते हैं । सप्ताह में एक दिन यह पावरपुल पावर नैप पर्याप्त है ।
ReplyDeleteशीर्षक में रूटी को रोटी कर लीजिये
ReplyDeleteही ही ही
ReplyDeleteखाके सो जाइयेगा.
अब टिप्पणी सही से है.
Maja aay gawa!
ReplyDeletejug jug jiya mere bhai! shetla mayee kai ashirwad bana rahai
@ Smart Indian - धन्यवाद अनुराग जी!
ReplyDeleteपालीवाल जी को चिंता करने की आवश्यकता नहीं है .
ReplyDeleteटिफ़िन में रूटी हाथ में कैमरा और गंगा किनारे जिंदाबाद
@ डॉ. महेश सिन्हा - पालीवाल जी मेरी नहीं, मेरी पत्नीजी की चिन्ता कर रहे हैं।
ReplyDeleteरूंटी की छिद्रान्वेषी च्यूंटी काटने के लिये धन्यवाद! बाकी, यह च्यूंटी काटने की आदत बना ली तो बहुत च्यूंटियां चाहियें होंगी ब्लॉगजगत में! :)
@ ज्ञान जी
ReplyDeleteआप मेरी टिप्पणी को विभाजित कर के देख रहे हैं .आप जब ये सब लेकर घर के बाहर होंगे रिटायर होने के बाद तो आपकी पत्नी को पता ही नहीं चलेगा की आप रिटायर हो गए हैं .
वैसे भी रिटायर होने के बाद खाली घर बैठना अच्छा नहीं होता है .
चूनी की रोटी पर एक शानदार गंवार पोस्ट।
ReplyDeleteफोन का टेंटुआ अच्छी तरह दबाइयेगा।
@ हमारी चूनी तो अभी निकलनी है,
ReplyDelete--- !!! ? ....
चुन्नी की रोटी, मरुआ की रोटी, मांड़ भात कितनों ने खाया है, जो इसे पढ़ रहे हैं, और कमेंट कर रहे हैं मुझे नहीं पता, हां मैंने बचपन इनके संग बिताया है। इसलिए कह सकता हूं कि यह पोस्ट जेठ की तपती दोपहरी में गांव की धूल भरी मिट्टी कि सड़कों पर वर्षा की पहली फ़ुहार से जो गंध निकलती है उसकी तरह ही है।
पर ....
पर.
डिस्कस, थ्रेडेड संवाद, गूगल फ्रेण्ड कनेक्ट जैसे बुद्धिजीवियों को रिझाने वाले शब्दों का इस पोस्ट के साथ चिपक जाना ... लगा चुन्नी की बर्गर खा लिया हो...!
@मनोज कुमार - आपने सही पहचाना व्यक्तित्व की डाइकॉटमी को। बौद्धिक और गंवई/सरल दो पहलू हैं व्यक्तित्व के। दोनो एक दूसरे से असंपृक्त नहीं हैं। यह भी पाया है कि ब्लॉगिंग की यात्रा में उनमें दूरी बहुत घटी है।
ReplyDeleteजो प्रारम्भ के साथी हैं वे सही कह सकते हैं इस डाइकॉटमी के बारे में।
प्रवीण त्रिवेदी प्रा.मा. साहब की गूगल फ्रेण्ड कनेक्ट पर टिप्पणी (जावा स्क्रिप्ट लोड होने में धीमे कनेक्शन में समय ले रहा था, सो यह जुगाड़ भी निकाल दिया :( ) -
ReplyDeleteप्रथम टीप - कर्ता के रूप में हमारा नाम दर्ज किया जाए |
lehsun ki chatni ( with mustard oil), bhi hoti to jyada tasty lagta.
ReplyDeleteखुशी हुई कि अब टिप्पणी करना आसान हो गया. चूनी की रोटी कभी खाई नहीं,लेकिन स्वादिष्ट होगी ऐसा अनुमान है.
ReplyDeleteखेती की दुर्दशा पर बहुत बढ़िया बखिया उधेड़ी है आपने। यह हाल अरहर की ही नहीं, बल्कि सभी फसलों की है। अगर लागत जोड़ी जाए तो घाटा। ये तो जीने की इच्छा और भगवान का भरोसा ही है कि कुछ विशुद्ध रूप से खेती पर निर्भर किसान जिए जा रहे हैं।
ReplyDeleteबस १२ किलो? ... १२ विस्वा में कुल उत्पादन २४ किलो !
ReplyDeleteबाकी मुझे तो पढ़ के ही नींद आने लगी :) मैं चला कॉफ़ी पीने वर्ना अभी सो जाऊँगा. घर जा रहा हूँ कुछ दिनों में तो इसका जुगाड़ बैठाया जाएगा.
नीचे की पोस्टों से तो टिपण्णी का आप्शन ही गायब है? पिछली तिपन्नियों को रिस्टोर करना में तो बड़ा परिश्रम लगेगा. और ना करने पर उसे भी षड्यंत्र का हिस्सा ना मानने लगे लोग :) कोई भरोसा नहीं.
चूनी की रोटी बड़ी स्वादिष्ट होती है. चटनी के साथ खाने में बहुत मज़ा आता है.
ReplyDeleteअब अरहर उगाने की कॉस्टिंग मैं क्या करूंगा? जब गाँव में था तो खेती का काम देखा और किया है. १५ बरस की उम्र तक सबकुछ सीख गया था. और सुनता हूँ कि आदमी दो बातें सीख जाए तो कभी नहीं भूलता. एक ब्लागिंग और दूसरी खेती. अरहर उगाने की सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि मौसम की मार का बड़ा खतरा रहता है. अगर कीड़ों से बच गए तो कई बार ओलों से बचना मुश्किल हो जाता है. हाँ, रहठा पक्का मिलता है. उसमें झमेला नहीं रहता. चकरी की फोटो बढ़िया है.
रूटी तो बांग्ला भाषा का शब्द है जिसका मतलब रोटी ही होता है.
वैसे एक सुझाव है. आप अंग्रेजी के शब्दों के लिए हिंदी शब्द खोजने की कोशिश किया करें.लोगों को समझने में मुश्किल होगी लेकिन आप हिंदी द्रोही नहीं रहेंगे...:-)
चूनी की रोटी...वाह !!!
ReplyDeleteपर यह सुख सौभाग्य तो शहर में रहते सपना ही रहेगा...
देव महराज , देसी बतकहीं पै खालिस देसी
ReplyDeleteटीप बनावै कै कोसिस किहेन है ---
'' चूनी-मकुनी , रहिला-बेझरा
खायन औ' दिल्ली चलि आयन |
जब टेस्ट किहेन पिज्जा-बर्गर,
हाथै मल - मल के पछतायन ||
सोंधी मिठास हथपोइया कै ,
दुसवार अहै रजधानी मा |
बीमार रहित, काँखत बाटेन ,
'रेड लाईट ' है पैखानी मा || ''
.........
बड़ी नीक लाग ई पोस्ट ! मजा आइ गा !
अउर , जौन आप चाहत हैं ऊ तौ डिस्कसै से ह्वै सकत है मुला
ऊका अबहीं पब्लिक हजम न कै पाए , अस लागत है !
..........
बड़ी मेहरबानी !!!
खाने के मामले में तो हम पण्डितों पर लम्बोदर महाराज का विशेष आशीर्वाद है। बाकी आप जो मर्जी व्यवस्था लगायें हम तो टिपियायेंगे ही।
ReplyDeleteडिस्कस में मजा नही आ रहा था
ReplyDeleteअब सही है जी
चूनी की रोटी के बारे में पहली बार जानकारी मिली
कभी खायेंगें आपके यहां आकर
साल भर पहले तो मेरे घर में अरहर की दाल ही नहीं बनती थी (शायद दादाजी को पसन्द नहीं थी) पिताजी को भी पसन्द नही है।
प्रणाम स्वीकार करें
अगर शुद्ध खाद्द्य पदार्थ की कास्टिंग निकालेंगे तो हमसे ज्यादा महंगा तो दुनिया मे कोई खाता ही नही होगा . आपके पास तो देशी अरहर है भी हम लोग तो आयतित अरहर दाल खा रहे है .
ReplyDeleteहम तो तरस गये भुनी अरहर को घर मे दल कर दाल बनाने को . क्योकि मां रही नही जब मां ही नही रही तो चक्की भी पता नही कहा पडी है .
चूनी की रोटी की तरह से अब टिपण्णी देने का मजा आया, अजी वो सिस्टम हम ने भी लगाया था दो घंटे मै ही निकाल फ़ेंका, आप की पोस्ट पढ कर मुझे हमारे घर की हाथ चक्की याद आ गई अगली बार गया तो उसे ढुढुगां कही सम्भाल कर रखी भी है या फ़िर पानी की टंकी पर जो छत है उसे भार देने के लिये ना रखी हो. चलिये अब हम जल्द ही चूनी की रोटी ज्रुरुर खायेगे
ReplyDeleteअब मुझे कोई शक नहीं कि आप खाना-खजाना ब्लॉग का स्वामित्व भली भांति सम्भाल सकते हैं. हम तो अभी तक मकुनी तक ही नहीं पहुंच सके. कल कोशिश की जाएगी.
ReplyDeleteतो हमें खिताब मिला मिस्टर गायब!
ReplyDeleteसबसे पहले तो हम वही कहना चाहेगे जो स्तुति ने बज़ पर कहा कि ऎसी तस्वीरे वर्जित होनी चाहिये... घर से दूर रहने वाले घर भागने को प्रेरित होने लगते है.. :)
ReplyDeleteचलिये हम दूर से ही चूनी की रोटी और आलू-टमाटर की लुटपुटार तरकारी का स्वाद लेते है, वाह :)
थ्रेडेड टिप्पणी वाले जुगाड मे कुछ कमियाँ तो हैं.. जो आपने बतायी वही ज्यादा बडी है.. कोशिश कर रहा हू कि थोडा कोड के भीतर घुसा जाय.. देखता हूँ .. शायद कुछ हो सके
डिस्कस निकाल फेका >>> बहुत अच्छा किया ...अनेक जगह इसके प्रयोग के बावजूद आप के यहाँ किसी प्रोफाइल से इस जालिम ने हमारी टीप स्वीकार ना की !
ReplyDelete.......बकिया हम क्या कहें ?
जलजला ने माफी मांगी http://nukkadh.blogspot.com/2010/05/blog-post_601.html और जलजला गुजर गया।
ReplyDeleteहम तो ललचिया गये...चूनी की रोटी से भी और ई पोस्ट से भी.
ReplyDeleteदिव्य अनुभूति पाने की इच्छा हम भी रखते है..चूनी का पराँठा खाने के लिए चाहे चक्की ही क्यों न पीसनी पड़ॆ..
ReplyDeleteइस सबके बाद भी किसान हमें खाना दे रहा है! ताज्जुब है... नक्सली यूं ही अपनी पैठ नहीं बना पा रहे... कारण सामने दिखाई दे गया... स्वाद कुछ कसैला नहीं हो गया क्या???
ReplyDeleteअच्छा लेख है
ReplyDeletesubah-subah muh mein paani aa gaya!!!
ReplyDeleteआनन्ददायक रिपोर्ताज ।
ReplyDeleteबाते चलताउ हैं पर जमीन से जुडी और अच्छी....सतीश कुमार चौहान भिलाई
ReplyDeletesatishkumarchouhan.blogspot.com
satishchouhanbhilaicg.blogspot.com
एक सवाल है!
ReplyDeleteआपने चित्र में जो चक्की दिखायी है वो हमारे घर की चक्की से थोडी भिन्न है । आखिरी बार चक्की घर में तकरीबन १५ साल पहले छूकर देखी होगी, जब नवरात्रि के अवसर पर मैं और मेरी बहन ने मौज मौज में कुट्टू का आटा पीसा था।
खैर, जो चक्की हमारे घर में थी उसमें इस प्रकार का अर्धवृत्ताकार छेद नहीं था। जहाँ चक्की कील/धुरी होती है, वहीं उसके चारों ओर एक वृत्ताकार सा छेद था जिसमें गेंहूं अथवा अन्य अनाज धीरे धीरे डालते थे, और चक्की की परिधि से धीरे धीरे पिसा हुआ आटा झडता रहता था।
किसी ने सही ही कहा है:
दो पाटन के बीच में साबुत गया न कोई,
या फ़िर,
पाटी पाटी सब कहें तीली कहे न कोय, जो तीली से भिड गया वाका बाल न बांका होय।
नोट करें कि दूसरा Quote हमारे घर वाली चक्की के डिजाइन पर कहा गया है।
क्या आपकी वाली चक्की के डिजाइन में कुछ फ़ायदा है? क्या इसमें मेहनत कम लगती है?
एक उत्तर दिमाग में आता है कि अगर अनाज डालने का छेद केन्द्र से दूर होगा तो Shear (For constant rpm, shear केन्द्र से दूरी के समानुपाती होगा) अधिक मिलेगा। हो सकता है, इसके चलते अनाज अधिक आसानी से पिस जाता है।
बहरहाल, इस प्रश्न पर कुछ प्रकाश डालियेगा।
@Neeraj Rohilla - आप शायद जांत की बात कह रहे हैं। यह चकरी है। आटा पीसने के काम नहीं आती। यह दाल आदि दलने के काम आती है। इससे बारीक पीसने का काम नहीं होता।
ReplyDeleteजांत मं गेंहूं या अन्य अनाज डालने का छेद केन्द्र के ज्यादा समीप होता है और पाट बड़े/भारी होते हैं!
मौलिक विचारों की कमी नहीं है आपके पास ...
ReplyDeleteचकरी माँ और सास दोनों के पास है ...कभी कभार चलायी भी है शौक से ...
चूनी की रोटी और चटनी का स्वाद घुल रहा है ...
बहुत अच्छी लगी यह प्रविष्टि ...!!
चूनी, बेर्रा की रोटी, तेल, नमक और प्याज....गांव और बचपन की याद दिला दी आपने। वरना शहर और रोजी रोटी की चक्की में तो हम पिस ही रहे हैं। आप अपने साथ साथ पाठक को भी जमीन से जोड्ते हैं, यह अच्छी बात है।
ReplyDelete@विनोद - धन्यवाद टिप्पणी के लिये विनोद जी। पर आपका प्रोफाइल न होने के कार आपके विषय में पता नहीं ल पा रहा!
ReplyDeleteबहुत-सी प्रविष्टियाँ एक साथ पढ़ीं ! कुछ पर तो अभी भी कमेंट न हो सका ।
ReplyDeleteयह सब दुर्लभ चीजें हो गयी हैं अब ! इन्हें खाने का मन भी दुर्लभ ही है ! बहुत से शायद मौका मिलने पर इस खायेंगे नहीं !
सही कहा आपने -"उसे खाना दिव्य अनुभूति है गंवई मानुस के लिये।"
एक सवाल है!
ReplyDeleteआपने चित्र में जो चक्की दिखायी है वो हमारे घर की चक्की से थोडी भिन्न है । आखिरी बार चक्की घर में तकरीबन १५ साल पहले छूकर देखी होगी, जब नवरात्रि के अवसर पर मैं और मेरी बहन ने मौज मौज में कुट्टू का आटा पीसा था।
खैर, जो चक्की हमारे घर में थी उसमें इस प्रकार का अर्धवृत्ताकार छेद नहीं था। जहाँ चक्की कील/धुरी होती है, वहीं उसके चारों ओर एक वृत्ताकार सा छेद था जिसमें गेंहूं अथवा अन्य अनाज धीरे धीरे डालते थे, और चक्की की परिधि से धीरे धीरे पिसा हुआ आटा झडता रहता था।
किसी ने सही ही कहा है:
दो पाटन के बीच में साबुत गया न कोई,
या फ़िर,
पाटी पाटी सब कहें तीली कहे न कोय, जो तीली से भिड गया वाका बाल न बांका होय।
नोट करें कि दूसरा Quote हमारे घर वाली चक्की के डिजाइन पर कहा गया है।
क्या आपकी वाली चक्की के डिजाइन में कुछ फ़ायदा है? क्या इसमें मेहनत कम लगती है?
एक उत्तर दिमाग में आता है कि अगर अनाज डालने का छेद केन्द्र से दूर होगा तो Shear (For constant rpm, shear केन्द्र से दूरी के समानुपाती होगा) अधिक मिलेगा। हो सकता है, इसके चलते अनाज अधिक आसानी से पिस जाता है।
बहरहाल, इस प्रश्न पर कुछ प्रकाश डालियेगा।
अच्छा लेख है
ReplyDeleteइतना सुस्वादु भोजन खा नींद आना स्वाभाविक है । ऐसी स्थिति में हम कन्ट्रोलर महोदय से 2 घंटे का ब्रेक ले लेते हैं और विचारों की गाड़ी न्यूट्रल में डालकर, एफ एम का मधुरिम संगीत बजा अपनी ही अवचेतना में उतर जाते हैं । सप्ताह में एक दिन यह पावरपुल पावर नैप पर्याप्त है ।
ReplyDeleteचूनी की रोटी के बारे में मुझे नहीं पता था. है तो यह अरहर ही न?
ReplyDeleteऔर बहुत सी दालें हैं जिनमें से हम घर पर इक्का-दुक्का ही खाते हैं.
कई तरह के मोटे अनाज भी खाने को नहीं मिले कभी. बहुत समय पहले बाजरे की रोटी खाई तो पता चला बाजरे का स्वाद.
चक्की का फोटो देखकर दिल खुश हो गया. मेरी दादी क्या चक्की चलाती थीं! बिलकुल लट्टू के माफिक. हम तो उसे हिला भी नहीं पाते थे. चक्की चलाते समय उनकी बाँहों और जाँघों की पेशियाँ थल-थल करती थीं. ऊपर से झक गोरी!
फोन की घंटी का टेंटुआ दबाकर सोना अच्छी बात है. मैं ड्राइविंग करते और सोते समय फोन बंद रखता हूँ.
पुरानी टिप्पणियां कैसे संजोयेंगे? कॉपी-पेस्ट करके रखने का तरीका अपनाएंगे क्या?
प्रियंकर जी का ब्लौग देखा हुआ है. पता नहीं था कि वही चौपटस्वामी हैं. ब्लौगिंग के मजे यही तो हैं! उनका गद्य बहुत रोचक है. आशा है पुनः लिखने का क्रम चलायें.