हम चाहें या न चाहें, सीमाओं के साथ जीना होता है।
गंगा किनारे घूमने जाते हैं। बड़े सूक्ष्म तरीके से लोग गंगा के साथ छेड़ छाड़ करते हैं। अच्छा नहीं लगता पर फिर भी परिवर्तन देखते चले जाने का मन होता है।
अचानक हम देखते हैं कि कोई घाट पर सीधे अतिक्रमण कर रहा है। एक व्यक्ति अपने घर से पाइप बिछा घर का मैला पानी घाट की सीढ़ियों पर फैलाने का इन्तजाम करा रहा है। घाट की सीढियों के एक हिस्से को वह व्यक्तिगत कोर्टयार्ड के रूप में हड़पने का निर्माण भी कर रहा है! यह वह बहुत तेजी से करता है, जिससे कोई कुछ कहने-करने योग्य ही न रहे - फेट एकम्प्ली - fait accompli!
वह आदमी सवेरे मिलता नहीं। अवैध निर्माण कराने के बाद यहां रहने आयेगा।
मैं अन्दर ही अन्दर उबलता हूं। पर मेरी पत्नीजी तो वहां मन्दिर पर आश्रित रहने वालों को खरी-खोटी सुनाती हैं। वे लोग चुपचाप सुनते हैं। निश्चय ही वे मन्दिर और घाट को अपने स्वार्थ लिये दोहन करने वाले लोग हैं। उस अतिक्रमण करने वाले की बिरादरी के। ऐसे लोगों के कारण भारत में अधिकांश मन्दिरों-घाटों का यही हाल है। इसी कारण से वे गटरहाउस लगने लगते हैं।
मैं अनुमान लगाता हूं कि पत्नीजी आहत हैं। शाम को वे सिर दर्द की शिकायत करती हैं। मुझसे समाज सुधार, एन.जी.ओ. आदि के बारे में पूछती हैं। मुझ पर झल्लाती भी हैं कि मैं पुलीस-प्रशासन के अफसरों से मेलजोल-तालमेल क्यों नहीं रखता। शुरू से अब तक वैगन-डिब्बे गिनते गिनते कौन सा बड़ा काम कर लिया है? मुझे भी लगता है कि सामाजिक एक्टिविज्म आसान काम नहीं है। एक दो लोगों को फोन करता हूं तो वे कहते हैं - मायावती-मुलायम छाप की सरकार है, ज्यादा उम्मीद नहीं है। पता नहीं, जब उन्हे मुझसे काम कराना होता है तो उन्हे पूरी उम्मीद होती है। लगता है कि उनकी उम्मीद की अवहेलना होनी चाहिये भविष्य में (इस यूपोरियन चरित्र से वितृष्णा होती है। बहुत बूंकता है, बहुत नेम-ड्रॉपिंग करता है। पर काम के समय हगने लगता है!)।हम लोग जाली सफाई वाला काम करा पाये - ऐसा फोन पर बताया श्री आद्याप्रसाद जी ने। उससे कुछ प्रसन्नता हुई। कमसे कम नगरपालिका के सफाई कर्मी को तो वे पकड़ पाये। थानेदार को पकड़ना आसान नहीं। एक व्यक्ति व्यंग कसते हैं कि उनकी मुठ्ठी अगर गर्म कर दी गयी हो तो वे और पकड़ नहीं आते! मैं प्रतिक्रिया नहीं देता - अगर सारा तन्त्र भ्रष्ट मान लूं तो कुछ हो ही न पायेगा!
अब भी मुझे आशा है। देखते हैं क्या होता है। हममें ही कृष्ण हैं, हममें ही अर्जुन और हममें ही हैं बर्बरीक!
मेरी हलचल का वर्डप्रेस ब्लॉग डुप्लीकेट पोस्ट पर गूगल की नीति के चलते नहीं चला। इधर ब्लॉगस्पॉट के अपने फायदे या मोह हैं! शायद डिस्कस (DisQus) इतना खराब विकल्प नहीं है। टिप्पणियां मॉडरेट करते समय बिना अतिरिक्त प्रयास के प्रतिक्रिया लिख देना बड़ी सुविधा की बात है।
कुछ दिनों से लग रहा है कि टिप्पणी का आकर्षण गौण है, सम्भाषण महत्वपूर्ण है। बहुत से लोग मुझे एकाकी रहने वाला घोंघा मानते हैं। अनिता कुमार जी ने तो कहा भी था -
पिछले तीन सालों में मैं ने आप को टिप्पणियों के उत्तर देना तो दूर एक्नोलेज करते भी कम ही देखा है। आप से टिप्पणियों के बदले कोई प्रतिक्रिया पाना सिर्फ़ कुछ गिने चुने लोगों का अधिकार था।
समस्या ये है की जो 'जागरूक' है.. जानते है गलत है.. वो मौको पर चुप रहते है.. 'एक्शन' का काम किसी और पर छोड़ कर आत्मसंतुष्टि पा लेते है..
ReplyDelete(मैं इसी केटेगरी में हूँ)
एक बर्फानी प्रदेश के अंतर की ज्वाला को धधकते हुए महसूसता हूँ -आप किसकी बात ले बैठे -जिन्होंने एक ब्लॉग पर नियमित टिप्पणी के अलावा कभी यह भी नहीं जाना कि और लोग भी कुछ लिख रहे हैं भले ही कूडा करकट और झाडू बुहारने के बहाने ही क्या मजाल की वे कहीं और पधार जाएँ -मुझे इस तरह की टिप्पणी का कोई नैतिक अधिकार नहीं था मगर आज आपकी पोस्ट ने दे दिया ...
ReplyDeleteऔर आप यकीन मानिए उन्हें यह भी भूल गया होगा की उन्होंने कभी ऐसी टिप्पणी भी की थी ....सीनियर सिटिज़न के बचाव में बहुत ढालें हैं ....समाज प्रदत्त और निसर्ग प्रदत्त भी .....टिप्पणियों का आदान प्रदान विचार विनिमय के साथ ही औदार्य और प्रत्युपकार का एक माध्यम है.....
चलिए एक लिहाज से ,प्रकारांतर से यह आपकी महिमा को बढ़ने वाला कमेन्ट है कि कहीं आप अपेक्षित हैं ...मुझे तो कोई ऐसे भी नहीं पूछता ....
बिलकुल जमीन पर फील होने वाली बात लिखी है, कई बार लेख पडा और यही सारांश निकाला की प्रयास कभी बंद नहीं करना चाहिए, बहुत मुस्किल होता है सिस्टम से लड़ना पर जितना हो सकता है उतना सुधार करते रहना चाहिए. अगर आप अपने डिपार्टमेंट को सही चला पाते है तो वो भी तो सबसे बड़ा योगदान है. जब भी इंडिया आता हूँ तो में खुद को भी जुगाड़ करके काम कराने की प्रवृत्ति में पाटा हूँ. पर साथ में छोटा सा मेसेज देने की कोसिस में भी रहता हूँ जिससे जुगाड़ नेक्स्ट टाइम सुधार में बदल जाए.
ReplyDeleteसचमुच सीमा निर्धारित होनी ही चाहिए सबके लिए। गंगा की दर्दशा भी चिन्तनीय है। एक सारगर्भित पोस्ट।
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
प्रयास कभी बंद नहीं करना चाहिए। व्यव्स्था से लड़ाई तो कठिन है ही।
ReplyDeleteहम लोग जाली सफाई वाला काम करा पाये - ऐसा फोन पर बताया श्री आद्याप्रसाद जी ने। उससे कुछ प्रसन्नता हुई।
ReplyDeleteसत्य वचन!
आशा पर आसमान टिका है..टिकाये रखिये...आशा है तो जीवन का अर्थ है.
ReplyDeleteपास पडौस में अक्सर अतिक्रमण होता रहता है पर पडौसी से कौन पंगा ले इस लिए लोग चुप रह जाते है | इसी का फायदा अतिक्रमण करने वालों को मिल जाता है | सरकार अतिक्रमण हटाने का अभियान चलाती है लोग उस अभियान के बाद फिर अतिक्रमण करने का अभियान छेड़ देते है | और ये सिलसिला जारी रहता है |
ReplyDeleteअतिक्रमण को लोग पुरुषार्थ का प्रतीक मान बैठे हैं । चाहे भाई के अधिकारों का हो, गंगा की निर्मलता का, घाटों के विस्तार का, चहुँ ओर यही पुरुषार्थ दृष्टिगत है ।
ReplyDeleteप्रतिकार आवश्यक है क्योंकि पुरुषार्थ को विकृत रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता । व्यवस्था के रक्षक अपनी पीढ़ियों के कुशलक्षेम की व्यवस्था में लगे हैं । भविष्य के योद्धा वर्तमान को देखते ही नहीं ।
इस स्थिति में आत्म को उबालने से कोई लाभ नहीं । मन की वेदना व्यक्त कर दी, प्रशासन को सूचित कर दिया और कर्तव्यों को कहाँ तक निचोड़ें, शरीर की भी एक क्षमता है । सीमाओं को बार बार टटोलते रहिये, कभी न कभी एक राह निकल आयेगी । आप के जैसा सोचने वाला आपकी सहायता करने चल चुका होगा । सरलमना की व्यग्रता तो ईश्वर से भी सहन नहीं होती है ।
मानव प्रवृत्ति का प्रतीक है अतिक्रमण
ReplyDeleteकोई और जीव बिना कारण ऐसा नही करता
abhi abhi aapki posterous wali post bhi dekhi... three claps for you, sir..
ReplyDeletedono hi achhe kaam poore hone ke liye badhai sweeekar karen.. :)
bahut bahut badhai... :):)
@ पंकज उपाध्याय -
ReplyDeleteहां, पंकज! मैने यह पोस्टरस वाली पोस्ट दफ्तर आते मोबाइल से पोस्ट की थी। यह निश्चय ही सुखद रहा। अपनी सीमायें टटोलना, निराशा और आशा के बीच झूलना, यह सब अच्छा अनुभव रहा!
अतिक्रमण हट गया है!
जी :)
ReplyDeleteअपनी टूटे फूटे घर की छत से लेटे हुए , चाँद को कई बार काले बादलों से जूझते देखा था.. पर हर बार उसे जीतता ही पाया था.. उजाले को कब कोई अँधेरा रोक पाया है.....
आज फिर काले बादलो को हारते और चाँद जैसी उम्मीदों को जीतते देखा..
A very beautiful feeling.. won't be able to describe..
इस यूपोरियन चरित्र से वितृष्णा होती है। बहुत बूंकता है, बहुत नेम-ड्रॉपिंग करता है। पर काम के समय हगने लगता है!)।....
ReplyDeleteइसलिए साहस उतना ही दिखाना चाहिए जितना हममे है ...!!
बधाई स्वीकार करें ज्ञान जी
ReplyDeleteवाणी जी क्षमा करें आप के जैसे विचारों से अतिक्रमण की संभावना बढ़ती है
अतिक्रमण की समस्या रही है और रहेगी।
ReplyDeleteकई हालिया बातें याद आ गयीं -
ReplyDelete1)भीष्म मौन न रहें - तो क्या न हो जाए?
2)किया हुआ लिखे हुए से, लिखा हुआ बोले हुए से, बोला हुआ सोचे हुए से ज़्यादा कारगर और महत्वपूर्ण होता है।
3)नियति को बदलने के लिए सबसे पहला प्रयास उसे "नियति" न समझने से ही शुरू होता है।
आशा और प्रयास तो साथ-साथ रहते ही हैं। अक्सर लोग आशा होने पर ही प्रयास करते हैं मगर यह भूल जाते हैं कि यदि प्रयास किया जाए तो आशा भी सहज ही उत्पन्न होगी। आशा-प्रयास से ही सफलता और विकास होता है, व्यष्टि का भी और समष्टि का भी।
"जाते समुद्रेऽपि हि पोतभंगे,
सांयात्रिको वाञ्छ्ति तर्तुमेव"
मुझे तो इसलिए अच्छा लगा कि आपने मेरे स्वीकृत और आधारभूत जीवनमूल्यों की ही बात, बात से नहीं - कर्म से कर दिखाई।
बहुत-बहुत बधाई!
* * *
एक बात और अच्छी लगी है, बहुत अच्छी - सो आज तक किसी पोस्ट पर टिप्पणी में कुछ कॉपी-पेस्ट नहीं किया मगर आज करता हूँ-
"पता नहीं, जब उन्हे मुझसे काम कराना होता है तो उन्हे पूरी उम्मीद होती है।"
जय हो!
आप लोग जाली सफाई वाला काम करा पाये, बधाई
ReplyDeleteथानेदार भी पकड में आ जायेगा
हम लोगों की समस्या यही है कि सारे तंत्र को भ्रष्ट मान कर कोशिश बंद कर देते हैं।
प्रणाम स्वीकार करें
Rita ji aur aapke efforts rang laye.
ReplyDeleteHum sabhi ke liye shubh samachaar hai.
Dhanyawaad Gyan ji
"जब उन्हे मुझसे काम कराना होता है तो उन्हे पूरी उम्मीद होती है। लगता है कि उनकी उम्मीद की अवहेलना होनी चाहिये भविष्य में" नहीं कर पायेंगे आप. अवहेलना करना सबके बस की बात नहीं.
ReplyDeleteउम्मीद पे दुनिया कायम है
ReplyDeleteअलख जगाये रखिये
आपकी इन गम्भीर बातों से असहमति जता भी कैसे सकते हैं?
ReplyDelete--------
पड़ोसी की गई क्या?
गूगल आपका एकाउंट डिसेबल कर दे तो आप क्या करोगे?
हमारा नियन्त्रण केवल स्वयम् तक सीमित है। यदि हम कुछ नहीं कर पाऍं तो दूसरों से कोई अपेक्षा करने का अधिकार हमें नहीं रह जाता।
ReplyDeleteहम कीमत चुकाने को तैयार नहीं जबकि 'देअर इज नो फ्री लंच।'
स्वर्ग देखने के लिए खुद को ही मरना होता है।
जिन्हे हराम की खाने की आदत हो वो ही ऎसी हरकते करते है, दुसरो का माल , धन हडपना ओर सुबह शाम माला जपना...भाभी जी को बोले खाम्खां मै सर ना खपाये
ReplyDelete@ ... अगर सारा तन्त्र भ्रष्ट मान लूं तो कुछ हो ही न पायेगा!
ReplyDelete------ सहमत हूँ आपसे ...
@ ... बर्बरीक! / पढ़ते ही याद आ गया , अपने ब्लॉग का एक
गद्य - टुकडा --- '' ... ज्यादा बोलने पर महाभारत
के पात्र 'बर्बरीक' जैसा गला कटवाना पड़ता है , और फिर भी महाभारत
देखने की इच्छा शेष रह जाती है ! धन्य है नियति ! ''
@ जाली की सफाई हो गई। कगरियाकर बहता जल अनुशासित हो गया।
--------- सफाई के बाद बहने का अनुशासन आ ही जाता है !
अनुशासन में बहाव यानी लय - बद्ध स्वच्छंदता ! [इतर-उक्ति भाव में ]
.
आभार
'अगर सारा तन्त्र भ्रष्ट मान लूं तो कुछ हो ही न पायेगा'
ReplyDelete- सारा नहीं तो लगभग सारा कहना गलत नहीं होगा. कुछ करने की चाह रखने वाला यदि सामान्य व्यक्ति है तो एक दिन हार थक कर बैठ जाएगा.
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteइसे 08.05.10 की चिट्ठा चर्चा (सुबह 06 बजे) में शामिल किया गया है।
http://chitthacharcha.blogspot.com/
बकौल 'काशी की अस्सी' - सेन्हुर पोत कर जगह कब्जियाना सबसे सरल इन्वेस्टमेंट है और वैसा ही कुछ यहां भी दिख रहा है...माध्यम अलग है बस।
ReplyDeleteअतिक्रमण का जवाब एक दिन गंगा खुद दे देगी, जब बहा ले जाएगी इन्हें अपने साथ.
ReplyDeleteबड़ा काम तो आप कर रहे हैं ।
ReplyDeletebahuthi gahari avams arthkta liye hui jagrkta ki taraf kadam badhane ko prerit karti post. sach me bahut hi achhi lagi.
ReplyDeletepoonam
शिवकुटी तो शहर के किनारे है। शहर के बीचो-बीच अतिक्रमण हो रहे हैं। बीच बाजार में लोग अवैध कब्जे कर रहे हैं। दुकान, मकान, फ़ुटपाथ,मंदिर और दूसरे समाज कल्याण के धंधे वाले भवन धक्काड़े से बन रहे हैं। पुलिस, प्रशासन देख रही है और सब काम हो रहा है।
ReplyDeleteऐसे में आप अगर यह आशा करें कि आपके एक-दो फ़ोन करने पर लोग भागते आयेंगे और अतिक्रमण गिराकर चले जायेंगे तो यह आपकी अपनी सोच है।
यह सब कराने के लिये अकेला आदमी काफ़ी होता लेकिन उसको कराने के लिये एक जुनून चाहिये। सब कुछ छोड़कर अतिक्रमण दूर कराने का काम मिशनरी जुनून से कोई करेगा तो होगा लेकिन इसके लिये जो जुनून चाहिये वो लाना होगा। शायद यह कराते-कराते आदमी पगला जाये और लोग कहें देखो ससुर जुटे हैं अवैध कब्जा हटवाने में।
जितने असहाय आप अपने को महसूस करते हैं उत्ते ही वे पुलिस अधिकारी भी हैं शायद। वे सब बेचारे अपने नियमित काम करते-करते इत्ते कंडीशंड हो गये होंगे कि उनके लिये आपकी शिकायत पर काम करना समझदारी की बात नहीं लगती होगी। उनको लगता होगा कि क्या फ़ायदा आज हटायेंगे कल फ़िर हो जायेगा।
आप अपना काम करते हैं रेलवे वैगन गिनने का वह भी तो कम महत्वपूर्ण नहीं है। उसके प्रति इत्ता हीन भाव क्यों? ये अच्छी बात नहीं है। जो काम आपको, आपके परिवार को रोजी-रोटी देता है, जीवन जीने का आधार देता है उसके प्रति इतना तिरस्कार भाव क्यों?
निराशा से निराशा का संचार होता है
ReplyDeleteआशा से आशा का
रायपुर में काफी अवैध निर्माण हटाये गए हैं
और आगे के लिए भी तैयारी है . सूप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद .
सामने कुछ गलत होते देखकर मन में उबाल आता है, इतना भी कम नहीं है। हर काम के लिए खुद पहल करना संभव भी नही हो पाता।
ReplyDeleteअतिक्रमण जैसी किसी घटना के बारे में किसी पत्रकार मित्र को बोलकर अख़बार में फोटो वगैरह छपा दिया जाए, तो कई बार कार्रवाई हो जाती है।
ऊपर अनूप भाई के अलावा हिमान्शु मोहन की प्रतिक्रिया अत्यंत प्रासंगिक लगी।
आप के प्रयत्नों से अतिक्रमण टल गया जान कर अच्छा लगा। अतिक्रमण या कोई भी गलत कार्य होता देख मन का अशांत होना हमारे जिन्दा होने का सबूत है नहीं तो इस दौड़ती भागती जिन्दगी में हम महज एक मशीन ही होते।
ReplyDeleteसामाजिक एक्टिविज्म आसान नहीं, बहुत समय , ताकत और अन्य कई प्रकार की ऊर्जा चाहता है जो हम चाह कर भी नहीं दे सकते। ऐसे में टेक्नोलोजी ने सिटिजन जर्नलिस्म का अच्छा विक्लप दिया है।
आप ने मेरी टिप्पणी का रेफ़रेन्स दिया है, इस से एहसास हुआ कि आप ने मेरी बात गौर से सुनी, जान कर अच्छा लगा, पर अब ये भी लग रहा है कि कहीं आप को मेरी बात कही बुरी तो नहीं लगी थी। यकीन मानिए कि जो कुछ कहा था पूरी सदभावना के साथ कहा था।
पर आप ने सही कहा सम्भाषण महत्त्वपूर्ण है। हमने अपनी लास्ट पोस्ट में( जो शायद आप ने नहीं देखी) भी यही कहा कि ब्लोगिंग भी दो तरफ़ा सम्भाषण है- पोस्ट लिखने वाला और टिप्पणी देने वाला दोनों प्रतिक्रिया चाह्ते हैं। अगर प्रतिक्रिया में कहने के लिए कुछ न भी हो तो सिर्फ़ इतना कह देना कि मैं ने तुम्हारी बात सुनी सम्भाषण को पूर्ण कर देता है
(Closure of communication is as important as the initiation of communiction)
अरविन्द जी ने नाम तो नहीं लिखा है पर क्युं कि आप ने मेरी टिप्पणी का रेफ़रेंस दिया है तो मान कर चल रही हूँ कि वो मेरे ही बारे में कह रहे हैं। पर फ़िर लगता है कि नहीं किसी और के बारे में कह रहे होगें क्युं कि जिस टिप्पणी की वो बात कर रहे हैं…
"और आप यकीन मानिए उन्हें यह भी भूल गया होगा की उन्होंने कभी ऐसी टिप्पणी भी की थी ....सीनियर सिटिज़न के बचाव में बहुत ढालें हैं ....समाज प्रदत्त और निसर्ग प्रदत्त भी .....टिप्पणियों का आदान प्रदान विचार विनिमय के साथ ही औदार्य और प्रत्युपकार का एक माध्यम है....."
ये शब्द तो मेरे हो ही नहीं सकते। "प्रदत्त और निसर्ग प्रदत्त", "औदार्य और प्रत्युपकार", इतने कठिन शब्द? मेरी शब्दावली में तो ऐसे शब्द हैं ही नहीं। इन शब्दों का अर्थ भी मुझे पता नहीं।
और अगर हम एक ही ब्लोग पढ़ते है और टिपियाते हैं तो यकीनन आप के ही ब्लोग की बात कर रहे होगें हमारी टिप्पणियां यहां मौजूद है ये इस बात का सबूत हैं
"यह आपकी महिमा को बढ़ाने वाला कमेन्ट है कि कहीं आप अपेक्षित हैं "
इस बात से हम सहमत हैं…:)
@ अनिताकुमार > पर अब ये भी लग रहा है कि कहीं आप को मेरी बात कही बुरी तो नहीं लगी थी।
ReplyDeleteकतई नहीं। असल में यह मेरे लिये महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया थी। हर टिप्पणी करने वाले की टिप्पणी मैं महत्वपूर्ण मानता हूं। और यह भी कि टिप्पणियां शायद पोस्टं से कहीं बेहतर हैं - कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण!
हो क्यों नहीं सकता चाँद में छेद...
ReplyDeleteअनीता जी की बात से सहमति है। टिप्पणियों का जवाब देने से चिट्ठाकार (लेखक) और टिप्पणीकार (पाठक) में इण्टरैक्शन बढ़ता है, पाठक टिप्पणी के बाद दोबारा भी चिट्ठे पर आता है कि मेरी टिप्पणी का जवाब आया होगा (वैसे फॉलो अप कमैण्ट्स सुविधा ने ये काम अब आसान कर दिया है)। मैंने ये बात अमित गुप्ता से सीखी, वह अपने लगभग हर पाठक की टिप्पणी का उत्तर देते हैं, इससे पाठक को लगता है कि उसकी टिप्पणी को नोटिस किया जाता है तो वह आगे से हमेशा टिप्पणी करने की कोशिश करता है।
बात के मूल मुद्दे से हट कर गौण - प्रक्रिया को मुख्य बनाता हूँ।
ReplyDeleteमैं जो भी लिखता हूँ, ज़्यादातर स्वान्त: सुखाय है, परन्तु "क्वचिदन्यतोऽपि"
मुझे लगता है कि जिस बात से मुझे ख़ुशी मिली, उससे शायद किसी और को भी ख़ुशी मिले, और उस दशा में मेरी ख़ुशी कई गुना बढ़ जाती है।
इसीलिए, टिप्पणी देना मैं पसन्द करूँगा, पाना भी, यह मैंने अनुभव से समझा है, वर्ना शुरूआत से ही मैं टिप्पणी के प्रति उदासीन था।
संवाद स्थापित होने से सामाजिकता और सरोकार बढ़ते हैं, ऐसा लगता है, परन्तु अपेक्षाएँ नहीं बढ़नी चाहिए। टिप्पणी सिर्फ़ इसलिए नहीं होनी चाहिए कि हम भी यहाँ आए थे, या आप के आलेख पर टिप्पणी कर के जो एहसान मैंने किया है, उसके प्रत्युपकार में मेरा भी हक़ बनता है कि आप मेरे ब्लॉग पर आएँ और टिप्पणी करें। इसी उष्ट्र-गर्दभ-न्याय से हम एक दिन वोटों के समीकरण साध कर बहु-टिप्पणी-युक्त ब्लॉगर बनेंगे।
टिप्पणी सिर्फ़ इसीलिए नहीं होनी चाहिए कि मेरी सक्रियता दिखाई दे, मैं मुहल्ले के कार्पोरेटर या विधान-सभा क्षेत्र की तरह टिप्पणी स्वरूपी हाथ जोड़े, पौने-तीन इंच मुस्कान के साथ इण्टरनेट की जीप पर सवार ब्लॉग के गली-मुहल्ले के चक्कर लगाता रहूँ, कि मेरी पहचान बन जाए - गोया कोई चुनाव लड़ना है!
टिप्पणी अपनी पसन्द, सहमति या असहमति व्यक्त करने के लिए हो सकती है या फिर किसी तकनीकी या अन्यथा त्रुटि की ओर इशारा हो सकती है, या फिर सम्बद्ध पोस्ट अथवा साइट-पुस्तक-फ़िल्म-अन्य जानकारी स्रोत की ओर ले जा सकती है। टिप्पणीकार को यदि टिप्पणी पर उत्तर की अपेक्षा है, तो उसे स्वयं भी टिप्पणी की गरिमा और उत्तरदायित्व का निर्वहन करना सीखना चाहिए।
अन्यथा, शिकायत या तो न करें, या उपेक्षा की अपेक्षा सीख जाएँगे बहुत जल्द।
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इस विषय पर और बहुत कुछ है लिखने-कहने को, पर समय और स्थान के अतिक्रमण के भय से बन्द करता हूँ, यदि गुरुजी आप उचित समझें तो इसे एक पोस्ट क ही रूप दे दें, जिससे इस पर चर्चा होकर जन-मत समझा जा सके।
अतिक्रमण या बुरे काम करने वाले समाज के केवल कुछ प्रतिशत बुरे लोग हैं जो ताकती भी हैं और हिम्मती भी। समाज में अच्छे लोग अधिक हैं लेकिन वे ईजीगोइनंग हैं और बिखरे हुये हैं। सोचते हैं हम क्यों फालतू का बवाल लें। जब कभी भी ये अच्छे लोग संगठित हो जायेंगे उनमें हिम्मत अपनेआप आ जायेगी और उस दिन ढेरों समस्याएं अपनेआप हल हो जायेंगी।
ReplyDeleteअतिक्रमण वाले वोट बेंक हैं भाई साहब !आपके ब्लॉग पर टिपण्णी करने में पसीना आ गया !पिछले आधा एक घंटे से कोशिश कर रहा था .यकीन मानिए .
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