हिमांशु मोहन जी ने पंकज उपाध्याय जी को एक चेतावनी दी थी।
“आप अपने बर्तनों को भरना जारी रखें, महानता का जल जैसे ही ख़तरे का निशान पार करेगा, लोग आ जाएँगे बताने, शायद हम भी।”
हिमांशु जी का यह अवलोकन बहुत गहरे तक भेद कर बैठा है भारतीय सामाजिक मानसिकता को।
पर यह बताईये कि अच्छे गुणों से डर कैसा? यदि है तो किसको?
बात आपकी विद्वता की हो, भावों की हो, सेवा की हो या सौन्दर्य की क्यों न हो...........छलकना मना है।
आप असभ्य या अमर्यादित समझे जायेंगे, यदि छलकेंगे।
छलकना गुस्ताख़ी है ज़नाब
अपनी हदों में रहो,
जब बुलायें लब, तुम्हें ईशारों से,
तभी बहना अपने किनारों से,
क्या हो, क्यों इतराते हो,
बहकता जीवन, क्यों बिताते हो,
सुनो बस, किसने हैं माँगे जबाब,
छलकना गुस्ताखी है ज़नाब।
सह लो, दुख गहरा है,
यहाँ संवाद पर पहरा है,
भावों को तरल करोगे,
आँखों से ही निकलोगे,
अस्तित्व को बचाना सीखो,
दुखों को पचाना सीखो,
आँखों का काजल न होगा खराब,
छलकना गुस्ताखी है ज़नाब।
सौन्दर्य, किसका,
तुम्हारा या आत्मा का,
किसके लिये रचा है,
अब आप से कौन बचा है,
अपने पास ही रखिये,
सुकून से दर्पण में तकिये,
हवा में जलन है, छिपा हो शबाब
छलकना गुस्ताखी है ज़नाब।
आपको किसी का जुनून है,
रगों में उबलता खून है,
गरीबों के लिये होगा,
भूख का या टूटते घरों का,
उनका जीवन, आपको क्या पड़ी,
यहाँ पर सियासत की चालें खड़ीं,
आस्था भी अब तो माँगे हिसाब,
छलकना गुस्ताखी है ज़नाब।
कल कुश वैष्णव ने यह कहा कि एक ही पोस्ट को ब्लॉगर और वर्डप्रेस पर प्रस्तुत करना गूगल की नियमावली में सही नहीं है। लिहाजा मैं मेरी हलचल पर भी पोस्ट करने का अपना प्रयोग बन्द कर रहा हूं।
पत्नीजी कहती हैं कि मेरी हलचल पर कुछ और पोस्ट करो। पर उस ब्लॉग की एक अलग पर्सनालिटी कैसे बनाऊं। समय भी नहीं है और क्षमता भी!
बड़ी उँची और सटीक बात कह गये हिमान्शु जी टिप्पणी के माध्यम से और उतना ही जबरदस्त विस्तार प्रवीण जी दे गये, वाह!!
ReplyDeleteजब बुलायें लब, तुम्हें ईशारों से,
तभी बहना अपने किनारों से,
-बहुत समय तक गुँजेंगी यह पंक्तियाँ भीतर ही भीतर.
बहुत आभार इस पोस्ट का.
आप भी मेरी हलचल पर काव्यात्मक प्रवाह बनायें जी..आपमें क्षमता तो है ही!!
सही और सार्थक विवेचना ,सभी के लिए अनुकरणीय बातें /
ReplyDeleteआस्था भी अब तो माँगे हिसाब,
ReplyDeleteछलकना गुस्ताखी है ज़नाब।
भरा हुआ तो कम छलकता है, छलकता है खाली पात्र का जल क्योकि उसमे हिलोरे ज्यादा होती हैं.
सागर कब छलकता है
नदियाँ तूफान ला देती हैं
सह लो, दुख गहरा है,यहाँ संवाद पर पहरा है,
ReplyDeleteभावों को तरल करोगे,आँखों से ही निकलोगे,
अस्तित्व को बचाना सीखो....
दुखती राग को छेड़ने जैसी कविता है ...ये हाल तब है जब ये पढ़े -लिखों की दुनिया है ...
आम जन की तो छोडिये -यह पैमाना भी तो देखिये -
ReplyDeleteकोई दीवाना होठो तक जब अमृत घट ले आया
काल बली बोला हट तुझसे बहुतेरे देखे हैं (सोम ठाकुर )
मतलब बस एक सीमा तक ही श्रेष्ठता /महानता सह्य है समाज को भी और निसर्ग को भी
यादगार कविता निःसृत हुयी है .......
हिमांशु जी ने गहरी बात कही है।
ReplyDeleteछलकना एक तरह की गुस्ताखी है। बहुत सटीक बात।
कविता भी बढ़िया लगी।
सुंदर, बहुत सुन्दर कविता।
ReplyDeleteएकदम हड़का के धर दिया प्रवीण जी ने महानता को! सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी होगी उसकी।
ReplyDeleteवर्डप्रेस पर ही आ जाइये। धांस के टिपियाइये। क्वेशचनियाये-आन्सरियाये। मन लगा रहेगा। सब पर्सनालिटी बोले तो डाटा उधर ले जाइये।
और ये अपनी पोस्टों को दो दो जगह रखने वाली बात मुझे भी कुछ जंच नहीं रही है। कन्संट्रेशन लूज होने का खतरा रहता है :)
ReplyDeleteवैसे मैं जहां तक समझता हूँ कि वर्डप्रेस के वन टू वन कमेंट एण्ड रिप्लाई से पोस्ट लेखक पर एक अनचाहा, अनदेखा दबाव रहता होगा कि वह हर लिखने वाले को कुछ न कुछ रिप्लाई देता रहे...मसलन - सही है, सहमत...वगैरह वगैरह। जब कि ब्लॉगर में लिख दिये तो जब जिसे कुछ कहना हो तो @ कहकर काम चलाया जा सकता है और वर्डप्रेस की तरह वन टू वन कहने का अनचाहा दबाव भी नहीं झेलना पड़ता।
( वर्डप्रेस के वन टू वन रिप्लाई देने के बारे में अनचाहे दबाव से संबंधित यह मेरा अनुमान भर है, शायद गलत भी होउं )
विचार कीजिये कि दुसरे ब्लॉग की ज़रुरत क्यों पडी - शायद कुछ सहायता मिले. इत्ती बढ़िया कविता लिखे हैं, उस ब्लॉग को कविताई-ब्लॉग बना दें तो कैसा रहे?
ReplyDeleteपुष्प की सुगंध वायु के विपरीत कभी नहीं जाती लेकिन मानव के सदगुण की महक सब ओर फैल जाती है।
ReplyDeleteभरते रहिए, फैलाते रहिए। जो बाताने आएंगे वो भी इस सुघंध में सन जएंगे।
इधर फैलाइए या उधर, बस सुगंध फैलाते जाइए।
एक ही सामग्री को एक से अधिक स्थानों पर पोस्ट करने पर गूगल केवल पेज रैंक की पेनाल्टी लगाता है. जहाँ तक मैं समझता हूँ, आपको पेज रैंक कम-ज्यादा होने से कोई मतलब नहीं होगा. आप बेखटके 'मेरी हलचल' को जारी रख सकते हैं.
ReplyDeleteआप 'मानसिक हलचल' को सस्पेंड (नई पोस्टें रोकना) भी कर सकते हैं लेकिन यह आपकी अपनी जमीन है जिसे छोड़कर आप किराये के मकान में शायद न जाना चाहें.
भरा हुआ सराबोर होता है
ReplyDeleteउसे किसी का न चिंता होती है न खबर
अधजल गगरी ही छलकती है
समय की तंगी हो सकती है, मगर क्षमता की आपके पास
ReplyDeleteबात कुछ हजम नही हुई जी
प्रणाम
" छलकना गुस्ताखी है ज़नाब। "
ReplyDeleteGreat philosophy !
Commentrators hain daal-daal...to author bhi hain paat-paat !
I am enjoying the series. It really needs a minute analysis to bring out the best from an author.
By the way what is 'word press'? Author can reply here also. Can't he?
Congratulations to Himanshu ji, Praveen ji and Gyan ji for being his inspiration, for the wonderful creation and for publishing , respectively.
ReplyDeleteI wonder what is the relation between Gyan ji and Praveen ji?
ReplyDeleteMili-juli Sarkaar?
निशांत का कहना सही है.. गूगल की पेज रैंक पर इफेक्ट पड़ता है.. अब देखना आपको है कि पेज रैंक का आप पर कितना इफेक्ट पड़ता है :) परन्तु रेप्लीकेट ब्लॉग होने पर दोनों ही ब्लोग्स के लिए ऐसा होगा.. एक पर्सनल डोमेन की पेज रैंक को आप किसी जमीन से आंक सकते है.. जैसे बरसो पहले ली गयी जमीन के भाव बढ़ते है वैसे ही पेज रैंक डोमेन का भाव है.. वैसे यदि आप चाहे तो अपने इसी डोमेन पर वर्डप्रेस इंस्टाल करके वर्डप्रेस के फीचर इसी ब्लॉग पर इस्तेमाल कर सकते है.. ब्लोगर से आने वाले विसिटर अपने आप नए ब्लॉग पर रिडायरेक्ट हो जायेंगे कुछ भी नहीं बदलेगा.. बस कुछ नए फीचर्स के अलावा..
ReplyDeleteबहुत बढिया कविता है....बढिया प्रस्तुति। मन को छू गई यह कविता....
ReplyDeleteउनका जीवन, आपको क्या पड़ी,
यहाँ पर सियासत की चालें खड़ीं,
आस्था भी अब तो माँगे हिसाब,
छलकना गुस्ताखी है ज़नाब।
बहुत ही सुन्दर भाव भरी रचना…………॥वैसे सुना तो ये था कि अधजल गगरी छलकत जाये………………पूरा भरा हो जो वो तो सिर्फ़ प्यास ही बुझायेगा।
ReplyDeleteबहुत सुंदर जी
ReplyDeleteaap kavita bhi likhte hain ....ye bhi jaan liya! aur aapka ek aur blog hai ye bhi.baharhaal kavita badhiya likhi hai aapne!
ReplyDelete@ Udan Tashtari
ReplyDeleteआपने चढ़ा अवश्य दिया है पर हम छलकेंगे फिर भी नहीं :)
@ honesty project democracy
:)
@ M VERMA
पर क्या हो जब सागर का छलकना किनारों को खटक जाये । सागर को तो अन्तर नहीं पड़ता पर नदियाँ तो सहम जाती हैं ।
@ वाणी गीत
साम्य कठिन है । नीचे दया की आँच, ऊपर ईर्ष्या की जलन । आपको बीच में रहना है सिकुड़ कर ।
@ Arvind Mishra
काल ने लाखों सूरमा देखे अतः उसे तो जम्हाई आयेगी इन प्रयासों पर । समाज को पर क्यों सहन नहीं होता थोड़ा छलकना ।
@ सतीश पंचम
हिमांशु जी के साथ बैठिये । मन के तार झंकृतकर आपको विदा करेंगे ।
@ दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi
अहोभाग्यम्
@ अनूप शुक्ल
महानता पर चार पोस्टों के बाद यह नैसर्गिक उपसंहार था ।
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
ReplyDeleteब्लॉगर में विचारों को छलकने के लिये स्थान की कमी आदरणीय ज्ञानदत्त जी को वर्डप्रेस पर ले गयी । वर्डप्रेस पर न छलक कर यह कविता स्वयं को जी गयी । :)
@ मनोज कुमार
इस छलकाव में उनको डुबो दिया जाये पूरी तरह ।
@ निशांत मिश्र - Nishant Mishra
गूगल व वर्डप्रेस से आग्रह किया जा सकता है कि या तो वे एक दूसरे को अधिगृहीत कर लें या आदरणीय ज्ञानदत्त जी को बिना पेनाल्टी लगाये विचार विनिमय करने दिया जाये ।
@ डॉ महेश सिन्हा
किसी भी प्रगतिशील समाज में पर छलकना बुरा क्यों माना जाये ? बच्चे तो हमेशा उत्साह में छलकते हैं, उनसे तो हम प्रसन्न रहते हैं । ऐसा कुटुम्बीय भाव समाज में क्यों नहीं ?
@ अन्तर सोहिल
आदरणीय ज्ञानदत्त जी के पास न समय की कमी है न क्षमता की पर इतनी हलचल से औरों को कष्ट हो जाये तो ।
@ zeal
जो बेस्ट था वो निकल गया । रेस्ट कुछ नहीं बचा है ।
महाजनाः येन गता सा पन्था । पीछे पीछे चल रहे हैं और अनुभव से सीख ले रहे हैं । मिलीजुली सरकार आशीर्वादात्मक रूप में कहाँ कार्य करती है ?
@ कुश
पेज रैंक इत्यादि झुनझुने बचपने में सुहाते हैं । स्वान्तः सुखाय लिखा जाये और तदानुसार पढ़ा जाये तो ही आनन्द । गूगल जी कुछ बोले नहीं, आप डरा दिये । समय आने पर गूगल जी से चिरौरी कर ली जायेगी । वैश्विक मानसिकता रखते हैं, मान जायेंगे ।
@ परमजीत सिँह बाली
आपको भायी । कविता छलक पायी ।
@ वन्दना
सम्भवतः हम इसीलिये छलक गये ।
@ राज भाटिय़ा
:)
सत्य वचन।
ReplyDeleteजवाब आपकी टिप्पणी में ही छिपा है :)
ReplyDeletewaah praveen , kya khoob likha hai !
ReplyDeleteJo kabhi nahi chhalkin,Unhe bhi chhalka diya !
Pehli baar samjha 'chhalakne' ka marm !
सुबह सुबह ही आपकी इस कविता को पढे थे और बस चुपचाप बर्तन सम्भालते हुये ओफ़िस चले गये :)
ReplyDeleteहिमांशु मोहन जी बडे ज्ञानी पुरुष है.. उस कमेन्ट पर जैसे ही उन्होने ये बात बोली थी हमने गान्ठ बाँध ली थी कि भैया अब बर्तन भरने शुरु करने पडेगे.. बरतन कितने खाली है वो बताने के लिये तो दुनिया (काफ़ी तो यही की जनता) है ही :) बरतन कितने भरे है, वो बताने के लिये कुछ लोग ही है :)
हमने हिमांशु जी से कहा था कि किसी महान ब्लागर को हम जल्द ही अपनी पोस्ट मे लपेटेगे.. शायद वही सबसे आसान तरीका है महानता भरी मार्केट मे अपने आप को लांच करने का.. :P लेकिन आप तो हमसे फ़ास्ट निकले.. आप एक साथ दोनो को लपेट दिये - हिमांशु जी को और मुझे भी :) हे हे.. kidding..
हवा में जलन है, छिपा हो या लो शबाब??
सारे ही पैरा कुछ न कुछ बडी बात करते है.. और मै अपने खाली बरतनो मे उन्हे भरने की कोशिश कर रहा हू..
बहुत ही प्यारी कविता.. लेकिन अभी भी आपकी लिखी हुयी मेरी फ़ेव कविता ’भीष्म’ वाली ही रहेगी..
P.S. आपसे शायद टाईटिल रखने मे एक चूक हो गयी.. इस पोस्ट का टाईटिल होना चाहिये था - "हिमांशु मोहन जी की पंकज उपाध्याय जी को एक चेतावनी" :)
@Zeal:
Even I agree with Gyaan ji that you are a very sincere reader.
I have seen you replying even at those places where I would prefer to shy away.. Trust me, whoever is a blogger doesn't matter but its always a treat to read your honest comments...
Hope you will continue the same and keep your pots empty :P
ओह, मैं इस शानदार कविता के सुख से अबतक वंचित था। पछता रहा हूँ। थोड़ा व्यस्त और ज्यादा आलसी होने का यह नतीजा तो होना ही था।
ReplyDeleteमुझे तो अचम्भित कर गयी इस कविता में कही गयी बात। बड़े की मर्यादा भी बड़ी होती है। इसीलिए तो भरी हुई गागर शान्त होती है और अधजल गगरी...
ओह। जबरदस्त कविता। भावों में बहुत सुंदर तारतम्य है। और ये तो बहुत अच्छी लगी-
ReplyDeleteअपनी हदों में रहो,........तभी बहना अपने किनारों से,
क्या हो, क्यों इतराते हो,
बहकता जीवन, क्यों बिताते हो,
.........आँखों का काजल न होगा खराब,
छलकना गुस्ताखी है ज़नाब।
छलकना गुस्ताखी है ज़नाब।
@-Pankaj Upadhyay ji-
ReplyDeleteAmidst chhalakte comments, your kind words came across as 'Swati boond'.Thanks a lot.
I have always read/enjoyed your comments, and hold the same views about you. You are a wonderful person.
Would love to read your favourite poetry 'Bheeshm'.
Regards,
Divya
वाह ! बहुत सुन्दर रचना है !
ReplyDeleteआपने एक ज़बरदस्त सवाल उठाया है !
@ pallavi trivedi
ReplyDeleteकविता भले ही न लिख पाऊँ पर प्रयास तो कर ही सकता हूँ । कविता लिखना अच्छा लगता है क्योंकि संगीत सुहाता है, संसार में लय दिखती है ।
ब्लॉग का नाम पैटेन्ट करा लिया है । निष्ठुर जीवनचर्या समय नहीं दे रही है अधिक लिखने के लिये ।
@ ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
:)
@ डॉ महेश सिन्हा
जब प्रश्न उत्तर समेटे हो तब भ्रम पूर्ण होता है । संसार के प्रश्नों के उत्तर उन्ही प्रश्नों में छिपे हैं । दृष्टि चाहिये भेदती हुयी ।
@ zeal
निष्प्राण हो नहीं जिया जा सकता है । जिज्ञासा व उत्सुकता में छलकना स्वाभाविक है । हम छलकते रहेंगे, मर्यादा अपनी सीमायें तदानुसार परिभाषित कर ले ।
@ Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय)
हम तो अपना बर्तन घर में ही रखते हैं, वह भी बच्चों से छिपा कर । आप ऑफिस ले जाते हैं, शुभकामनायें ।
आप कहाँ आयेंगे लपेटे में । उन्मुक्तता को कौन लपेट सका है ?
'छिपा हो' में सार्वजनिक चेतावनी है, 'छिपा लो' में व्यक्तिगत सलाह ।
भीष्म कविता बताती है कि कब बोलना चाहिये और यह बताती है कि कब नहीं । छोटी बातों में टोकना और बड़ी बातों में साँप सूँघ जाना । बहुत नाइंसाफी है ।
@ सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
प्रतिभा उमड़ते जल की तरह है । यदि राह पाकर नदी नहीं बनी तो डुबो कर रख देगी । कनिष्ठों के गुण देखने का गुण हम सबमें होना चाहिये ।
@ जितेन्द़ भगत
:)
@ Indranil Bhattacharjee ........."सैल"
एक अवलोकन प्रस्तुत किया है मात्र ।
@प्रवीण जी
ReplyDeleteस्वान्तः सुखाय लेखन पर भी पाठक और उनकी प्रतिक्रियाव की लालसा तो मन में रहती ही है.. फिर बात ये बनती है कि हमारे ब्लॉग पर शुद्ध पाठक है या ऐसे लेखक है जिनका खुद का ब्लॉग है.. जब टिप्पणियों में देखा जायेगा तो मिलेगा कि नब्बे प्रतिशत वही लोग है जो ब्लॉगजगत में अपना ब्लॉग लेके बैठे है.. ऐसे में शुद्ध पाठक तो गूगल से ही आयेंगे.. और यदि साईट पेनलाईज हो जाये तो फिर सर्च इंडेक्स में भी नहीं आएगी.. ऐसे में कोई स्वान्तः सुखाय पढने वाला व्यक्ति ब्लॉग तक कैसे पहुचेंगा.. आखिर हम ब्लॉग का यु आर एल अखबारों में तो नहीं छपवा सकते ना.. इसलिए गूगल की सर्च इंडेक्स रुपी झुनझुने का मूल्य समझना ही पड़ेगा..
बाकी हम डंडा लेकर थोड़े ही कह रहे है.. वो तो ज्ञान जी को हम खालिस ब्लोगर की श्रेणी में रखते है जिनके लिए ऐसे झुनझुने बजाना अनिवार्य है.. तो कह दिया.. :) (ये ईस्माईली भी बड़ी कमाल की चीज़ बनायीं है बनाने वालेने..)
@ Praveen ji-
ReplyDelete" निष्प्राण हो नहीं जिया जा सकता है "
I very strongly believe in this. Realized the fact a couple of years ago.
Jab tak jeevit hain, chhalakte hi rahenge.
'Chhalakna ' has its own beauty.
@ कुश
ReplyDeleteआपसे पूर्णतया सहमत । आपका निष्कर्ष तर्कसंगत है । इसे ही मेरे पुराने भ्रम का खंडन समझ लिया जाये, मुझे गूगल महाराज की गुगली समझ नहीं आती है ।
अब तक नहीं पढ़ पाया था, अभी आकर पढ़ा। लगा भाई बड़ा हो गया है। कविता करने लगा है। अच्छी और सार्थक रचना के लिए बधाई!
ReplyDeleteअब अच्छा लगा, तो टिप्पणी तो मैं अपने अंदाज़ में ही दूँगा -
सिर्फ़ छलकें या न छलकें, नहीं मुद्दा ये जनाब।
काम वो कीजिए जिस काम से होता हो सवाब*।
न हो दामन पे दाग़, तो है जवानी नाकाम-
क्या है वो हुस्न के नीयत ही न जिसपे हो ख़राब
दिल वो दिल ही नहीं जिसमें किसी का दर्द न हो
ग़र्क है वो नज़र जिसमें कभी छलका न हो आब*
पीने वाला अगर छलकाए तो कमज़र्फ़ है वो-
गर न छलके तो पिलाने पे ये तोहमत है जनाब
बात कुछ और भी कहनी है इसी सोच के साथ
आपकी शायरी -वल्लाह! करिश्मा-ए-तराब*!
-------------------------------
सवाब = पुण्य
आब=पानी,चमक
करिश्मा-ए-तराब=आनन्द का चमत्कार
न हो दामन पे दाग़, तो है जवानी नाकाम-
ReplyDeleteक्या है वो हुस्न के नीयत ही न जिसपे हो ख़राब
दिल वो दिल ही नहीं जिसमें किसी का दर्द न हो
ग़र्क है वो नज़र जिसमें कभी छलका न हो आब*
Chhalakne ka ye andaaz bhi nayaab hai janaab !
हुस्न छलकता है तो लोग कटोरी लेकर आ जाते हैं रस
ReplyDeleteबटोरने , पर ऐसा छलकती हुई महानता के साथ नहीं
होता , जाहिर है - 'बहुत कठिन है डगर पनघट की ' !
..................................................................................
@ हिमांशु जी ,
@ पीने वाला अगर छलकाए तो कमज़र्फ़ है वो-
गर न छलके तो पिलाने पे ये तोहमत है जनाब !
----------- क्या बात कही है ! 'महानता' से अलग होकर
देखने में इस शेर की महानता और दिलकश लगने लगती है !
निस्सन्देह सुन्दर कविता। उपयोगी भी है। काम आएगी।
ReplyDeleteधन्यवाद।
@ हिमान्शु मोहन
ReplyDeleteलगा के गये थे आप, बुझाने भी आयेंगे,
झुलसा हुआ था दिल, फिर से जला गये ।
दिलचस्प सा फसाना, यूँ छेड़ना नहीं,
सोचा बहारें आ रहीं, कमायत ही आ गयी ।
हम देखते तनहाई में दिल को उड़ेलकर,
बेदर्द बन क्यों आज परदा हटा दिया ।
वो मुस्कराते देखकर, एक खेल हो रहा,
मैं भीगता रहा हूँ ऐसे छलक छलक ।
हम तो उछल रहे थे, पाने ऊँचाईयाँ,
लुत्फ पूरा ले रहे, खूँटी पे टाँग कर ।
@ zeal
छलकना संक्रामक है । देखिये हम भी छलक गये ।
@ अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
हुस्न छलकता है तो लोग कटोरी लेकर आ जाते हैं रस
बटोरने , पर ऐसा छलकती हुई महानता के साथ नहीं
होता , जाहिर है - 'बहुत कठिन है डगर पनघट की ' !
आँखों को ही कटोरी बना देते हैं, हुस्न के छलकावे ।
@ विष्णु बैरागी
मैं अभिभूत हुआ ।
@-छलकना संक्रामक है ।
ReplyDeleteDo not worry. Just use broad spectrum antb. [ie-an innocent smile]
@- देखिये हम भी छलक गये ।
aapke chhalakne ka har andaaz hume bhata hai,
Ye andaaz hi to hai jo fir-fir hume bulata hai !
सबसे पहले तो वर्डप्रैस.कॉम को वर्डप्रैस नहीं लिखा/कहा जाना चाहिये।
ReplyDeleteमुफ्त के औजारों में ब्लॉगर वर्डप्रैस.कॉम से बेहतर है तथा पेड में वर्डप्रैस ब्लॉगर से बेहतर है। यदि आपने वेब स्पेस नहीं ले रखा तो ब्लॉगर पर ही जारी रहें, वर्डप्रैस.कॉम दिखने में भले ही आकर्षक लगे पर उसमें कई बन्दिशें होती हैं मसलन जावास्क्र्पिट् का प्रयोग नहीं कर सकते (कोई विजेट वगैरा लगाने के लिये)। दूसरी ओर यदि वेब स्पेस हो तो वर्डप्रैस प्रयोग करना चाहिये, वर्डप्रैस ब्लॉग के हर पहलू को कण्ट्रोल करने की सुविधा देता है।
@ E-Pandit - शायद मन में यही कारण थे कि मैने ब्लॉगर वाला ब्लॉग नहीं छोड़ा और डिस्कस जोड़ लिया उससे! :)
ReplyDeleteसबसे पहले तो वर्डप्रैस.कॉम को वर्डप्रैस नहीं लिखा/कहा जाना चाहिये।
ReplyDeleteमुफ्त के औजारों में ब्लॉगर वर्डप्रैस.कॉम से बेहतर है तथा पेड में वर्डप्रैस ब्लॉगर से बेहतर है। यदि आपने वेब स्पेस नहीं ले रखा तो ब्लॉगर पर ही जारी रहें, वर्डप्रैस.कॉम दिखने में भले ही आकर्षक लगे पर उसमें कई बन्दिशें होती हैं मसलन जावास्क्र्पिट् का प्रयोग नहीं कर सकते (कोई विजेट वगैरा लगाने के लिये)। दूसरी ओर यदि वेब स्पेस हो तो वर्डप्रैस प्रयोग करना चाहिये, वर्डप्रैस ब्लॉग के हर पहलू को कण्ट्रोल करने की सुविधा देता है।
@ हिमान्शु मोहन
ReplyDeleteलगा के गये थे आप, बुझाने भी आयेंगे,
झुलसा हुआ था दिल, फिर से जला गये ।
दिलचस्प सा फसाना, यूँ छेड़ना नहीं,
सोचा बहारें आ रहीं, कमायत ही आ गयी ।
हम देखते तनहाई में दिल को उड़ेलकर,
बेदर्द बन क्यों आज परदा हटा दिया ।
वो मुस्कराते देखकर, एक खेल हो रहा,
मैं भीगता रहा हूँ ऐसे छलक छलक ।
हम तो उछल रहे थे, पाने ऊँचाईयाँ,
लुत्फ पूरा ले रहे, खूँटी पे टाँग कर ।
@ zeal
छलकना संक्रामक है । देखिये हम भी छलक गये ।
@ अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
हुस्न छलकता है तो लोग कटोरी लेकर आ जाते हैं रस
बटोरने , पर ऐसा छलकती हुई महानता के साथ नहीं
होता , जाहिर है - 'बहुत कठिन है डगर पनघट की ' !
आँखों को ही कटोरी बना देते हैं, हुस्न के छलकावे ।
@ विष्णु बैरागी
मैं अभिभूत हुआ ।
हुस्न छलकता है तो लोग कटोरी लेकर आ जाते हैं रस
ReplyDeleteबटोरने , पर ऐसा छलकती हुई महानता के साथ नहीं
होता , जाहिर है - 'बहुत कठिन है डगर पनघट की ' !
..................................................................................
@ हिमांशु जी ,
@ पीने वाला अगर छलकाए तो कमज़र्फ़ है वो-
गर न छलके तो पिलाने पे ये तोहमत है जनाब !
----------- क्या बात कही है ! 'महानता' से अलग होकर
देखने में इस शेर की महानता और दिलकश लगने लगती है !
अब तक नहीं पढ़ पाया था, अभी आकर पढ़ा। लगा भाई बड़ा हो गया है। कविता करने लगा है। अच्छी और सार्थक रचना के लिए बधाई!
ReplyDeleteअब अच्छा लगा, तो टिप्पणी तो मैं अपने अंदाज़ में ही दूँगा -
सिर्फ़ छलकें या न छलकें, नहीं मुद्दा ये जनाब।
काम वो कीजिए जिस काम से होता हो सवाब*।
न हो दामन पे दाग़, तो है जवानी नाकाम-
क्या है वो हुस्न के नीयत ही न जिसपे हो ख़राब
दिल वो दिल ही नहीं जिसमें किसी का दर्द न हो
ग़र्क है वो नज़र जिसमें कभी छलका न हो आब*
पीने वाला अगर छलकाए तो कमज़र्फ़ है वो-
गर न छलके तो पिलाने पे ये तोहमत है जनाब
बात कुछ और भी कहनी है इसी सोच के साथ
आपकी शायरी -वल्लाह! करिश्मा-ए-तराब*!
-------------------------------
सवाब = पुण्य
आब=पानी,चमक
करिश्मा-ए-तराब=आनन्द का चमत्कार
@प्रवीण जी
ReplyDeleteस्वान्तः सुखाय लेखन पर भी पाठक और उनकी प्रतिक्रियाव की लालसा तो मन में रहती ही है.. फिर बात ये बनती है कि हमारे ब्लॉग पर शुद्ध पाठक है या ऐसे लेखक है जिनका खुद का ब्लॉग है.. जब टिप्पणियों में देखा जायेगा तो मिलेगा कि नब्बे प्रतिशत वही लोग है जो ब्लॉगजगत में अपना ब्लॉग लेके बैठे है.. ऐसे में शुद्ध पाठक तो गूगल से ही आयेंगे.. और यदि साईट पेनलाईज हो जाये तो फिर सर्च इंडेक्स में भी नहीं आएगी.. ऐसे में कोई स्वान्तः सुखाय पढने वाला व्यक्ति ब्लॉग तक कैसे पहुचेंगा.. आखिर हम ब्लॉग का यु आर एल अखबारों में तो नहीं छपवा सकते ना.. इसलिए गूगल की सर्च इंडेक्स रुपी झुनझुने का मूल्य समझना ही पड़ेगा..
बाकी हम डंडा लेकर थोड़े ही कह रहे है.. वो तो ज्ञान जी को हम खालिस ब्लोगर की श्रेणी में रखते है जिनके लिए ऐसे झुनझुने बजाना अनिवार्य है.. तो कह दिया.. :) (ये ईस्माईली भी बड़ी कमाल की चीज़ बनायीं है बनाने वालेने..)
एक ही सामग्री को एक से अधिक स्थानों पर पोस्ट करने पर गूगल केवल पेज रैंक की पेनाल्टी लगाता है. जहाँ तक मैं समझता हूँ, आपको पेज रैंक कम-ज्यादा होने से कोई मतलब नहीं होगा. आप बेखटके 'मेरी हलचल' को जारी रख सकते हैं.
ReplyDeleteआप 'मानसिक हलचल' को सस्पेंड (नई पोस्टें रोकना) भी कर सकते हैं लेकिन यह आपकी अपनी जमीन है जिसे छोड़कर आप किराये के मकान में शायद न जाना चाहें.
और ये अपनी पोस्टों को दो दो जगह रखने वाली बात मुझे भी कुछ जंच नहीं रही है। कन्संट्रेशन लूज होने का खतरा रहता है :)
ReplyDeleteवैसे मैं जहां तक समझता हूँ कि वर्डप्रेस के वन टू वन कमेंट एण्ड रिप्लाई से पोस्ट लेखक पर एक अनचाहा, अनदेखा दबाव रहता होगा कि वह हर लिखने वाले को कुछ न कुछ रिप्लाई देता रहे...मसलन - सही है, सहमत...वगैरह वगैरह। जब कि ब्लॉगर में लिख दिये तो जब जिसे कुछ कहना हो तो @ कहकर काम चलाया जा सकता है और वर्डप्रेस की तरह वन टू वन कहने का अनचाहा दबाव भी नहीं झेलना पड़ता।
( वर्डप्रेस के वन टू वन रिप्लाई देने के बारे में अनचाहे दबाव से संबंधित यह मेरा अनुमान भर है, शायद गलत भी होउं )
आस्था भी अब तो माँगे हिसाब,
ReplyDeleteछलकना गुस्ताखी है ज़नाब।
भरा हुआ तो कम छलकता है, छलकता है खाली पात्र का जल क्योकि उसमे हिलोरे ज्यादा होती हैं.
सागर कब छलकता है
नदियाँ तूफान ला देती हैं
सही और सार्थक विवेचना ,सभी के लिए अनुकरणीय बातें /
ReplyDelete