अस्थि-पंजर ढ़ीले हैं उन चौकियों के। बीच बीच के लकड़ी के पट्टे गायब हैं। उन्हे छोटे लकड़ी के टुकड़ों से जहां तहां पैबन्दित कर दिया गया है। समय की मार और उम्र की झुर्रियां केवल मानव शरीर पर नहीं होतीं। गंगा किनारे पड़ी चौकी पर भी पड़ती हैं।
शायद रामचन्द्र जी के जमाने में भी रही हों ये चौकियां। तब शिवपूजन के बाद रामजी बैठे रहे होंगे। अब सवेरे पण्डाजी बैठते हैं। पण्डा यानी स्वराज कुमार पांड़े। जानबूझ कर वे नई चौकी नहीं लगते होंगे। लगायें तो रातोंरात गायब हो जाये।
संझाबेला जब सूरज घरों के पीछे अस्त होने चल देते हैं, तब वृद्ध और अधेड़ मेहरारुयें बैठती हैं। उन चौकियों के आसपास फिरते हैं कुत्ते और बकरियां। रात में चिल्ला के नशेडी बैठते हैं। अंधेरे में उनकी सिगरेटों की लुक्की नजर आती है।
बस, जब दोपहरी का तेज घाम पड़ता है, तभी इन चौकियों पर कोई बैठता नजर नहीं आता।
दो साल से हम आस लगाये हैं कि भादों में जब गंगा बढ़ें तो इन तक पानी आ जाये और रातों रात ये बह जायें चुनार के किले तक। पर न तो संगम क्षेत्र के बड़े हनुमान जी तक गंगा आ रही हैं, न स्वराजकुमार पांड़े की चौकियों तक।
रविवार की शाम को कैमरा ले कर जब गंगा किनारे घूमे तो एक विचार आया - घाट का सीन इतना बढ़िया होता है कि अनाड़ी फोटोग्राफर भी दमदार फोटो ले सकता है।
नीचे के चित्र में भादौं मास के अन्त में बढ़ी गंगाजी के पास चौकियां। पण्डाजी आई-नेक्स्ट की छतरी लगाये खड़े हैं।
चौकियों की उपस्थति ज़रूर बयान करती है पण्डा जी का गंगा से गहरा नाता वरना कहां कहीं और यूं रखी मिलती हैं चौकियां नदियों के किनारे...
ReplyDelete'दो साल से हम आस लगाये हैं कि भादों में जब गंगा बढ़ें तो इन तक पानी आ जाये और रातों रात ये बह जायें चुनार के किले तक। पर न तो संगम क्षेत्र के बड़े हनुमान जी तक गंगा आ रही हैं, न स्वराजकुमार पांड़े की चौकियों तक।'
ReplyDeleteकभी-कभी आप भी गजब की अपेक्षाऍं कर लेते हैं। तनिक बताइए भला स्वराज कुमार पाण्डे की चौकियॉं आपकी ऑंखों में क्यो खटकने लगीं।
ये आप जो आस लगाए बैठे हैं. वैसी आस हम भी हर साल लगाते हैं कि हमारे गाँव में घर के सामने खेतों में चारों तरफ जल ही जल हो जाए. नहीं हो पाता कभी.
ReplyDeleteऔर ये आई-नेक्स्ट वाले छतरी भी बाँटते हैं. अगली बार ओझाजी मिले तो एक जुगाड करता हूँ :)
वाह राम जी की जमाने की चौकियां और आइ नेक्स्ट की मुद्रा मे खडे पांडे जी क्या कहने ।
ReplyDeleteसही कहे हैं..फोटो दमदार आ गई. :)
ReplyDeleteस्वराज जैसी ही आस है स्वराज पाण्डे की चौकी तक गंगा जी का पानी लाने की...न ऊ आयेगा, न ई आयेगा. नाम की बड़ी माया होती है...जय श्री राम!
@ काजल कुमार जी..
ReplyDeleteआपसे बिलकुल सहमत हूँ
आपका आलेख गहरे विचारों से परिपूर्ण होता है।
ReplyDeleteप्रयाग की गंगा जी आपको बाँध रखा है और आपने हम सबको। आनंद ही आनंद।
ReplyDeleteयहाँ वर्धा में ब्लॉगर्स ने पवनार नदी के घाट पर फोटुएं खिचाई हैं। यत्र-तत्र उनके दर्शन होने चाहिए।
@ श्री मनोज कुमार - आप मजाक कर रहे हैं? गहरे विचारों से परिपूर्ण? बकरी/कुकुर/नशेड़ी/पुरानी चौकी/अधेड़ मेहरारू - इनमें गहरे विचार? मुझे तो लिखना चाहिये था - पौराणिक काल से चौकियों की बनावट का उद्भव और विकास! :)
ReplyDeleteगंगा मैया की जय ...चौकियां बनी रहें ...!
ReplyDelete@ आप मजाक कर रहे हैं?
ReplyDelete*** मज़ाक और आपसे। जिनकी हम इज़्ज़त करते हैं उनसे मज़ाक़ कर ही नहीं सकते। आपकी मैं दिल से इज़्ज़त करता हूं। ... और आपसे प्रेरणा भी ग्रहण करता हूं।
आपने जिस दिन मेरी कैटरपिलर पर लिखा था ... आपकी सोच कुछ अलग है बंधुवर! उस दिन से यह दायित्व का बोध लिए इस ब्लॉगजगत में फिर रहा हूं कि मेरे प्रति आपकी सोच न बदले।
आज अगर मेरी इस टिप्पणी से आपकी धारणा बदल गई हो तो उसे डिलिट कर दूं?
या विस्तार से अपनी बात रखूं?
दोनों ही हालत में इस संक्षिप्त पर सारगर्भित पोस्ट के प्रति ना-इंसाफ़ी होगी। फिर भी एक उदाहरण ...
@ संझाबेला जब सूरज घरों के पीछे अस्त होने चल देते हैं, तब वृद्ध और अधेड़ मेहरारुयें बैठती हैं। उन चौकियों के आसपास फिरते हैं कुत्ते और बकरियां।
इस सांस्कृति अस्ताचल सूर्य) अवनयन के काल में ये चकियां ही तो हैं जो हमें गिरनए नहीं दे रहीं। कुती ... वफ़ादारी, बकरियां ... मनवता, इंसानियत!!
देश काल समय के अनुसार इन चौकियों की बैठिकी बदलती रही होगी।
ReplyDeleteकायम रहें चौकियां, जमा रहे आसन, बनी रहे छत्रछाया गंगा मैया की.
ReplyDeleteचौकियों का महात्म और महत्व समसामयिक नहीं है. चौकियाँ बैठने वालों की मंशा से चौकती भी होंगी.
ReplyDeleteज्ञानजी,
ReplyDeleteकिसीने आपको Morning Blogger कहा था।
हम तो आपको Ganga Blogger कहेंगे जो लिखते हैं Ganges Pande की मानसिक हलचल।
कभी नाव में सफ़र करते करते कुछ तसवीरें खींचिए।
इस तट से गंगा को बहुत देख लिया।
क्या कभी उस पार से लिए गए तसवीरें देखने को मिलेगी?
नदी के बीच से तट कैसा लगता है, यह भी देखना चाहता हूँ।
केवल सुबह की तसवीरें क्यों? शाम को गंगा कैसी लगती है, यह भी हम देखना चाहते हैं।
कभे अवसर मिला तो अवश्य छापिए।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
सर अगर यह मज़ाक़ है तो देखिए न मज़ाक़-मज़ाक़् में एक् कविता कर् डाली है~
ReplyDeleteकभी जिनके सभी पाए थे दुरुस्त
आज् उन्हीं चौकियों का हो गया क्षरण
फिर् भी स्ंभाले तो है मुझे,
मेरी हस्ती को
बैठा हूं इसी पर् तो
ग्ंगा के निर्मल् तट पर
देखता हुआ अस्त् होते सूर्य को
होने वाला है गहन तिमिर् का आगमन
व्याकुल और् अशांत मन
प्रतिपल
बढती जा रही मनसिक् हलचल
आओ ना
ज्ञान!
करो मेरी समस्याओं का समाधान
बैठो इसी टूटी चौकी पर्
साथ मेरे
जब् तुम् बैठे थे साथ
रत्नाकर् के, तो उसे
वाल्मीकि बना दिया
बैठे जब् गौतम् के पास
तो वह् हुआ बुद्ध
आज् इस् निशागमन से
ग्ंगा की धार है अवरुद्ध
करो निदान!
करो निगान!!
आओ ना ज्ञान!!
`शायद रामचन्द्र जी के जमाने में भी रही हों ये चौकियां।'
ReplyDeleteशायद बाबरी मस्जिद की खुदाई में मिली हों :)
चौकियों का स्वरुप बदलेगा. आइ नेक्स्ट ही दिखेगा. लेकिन आसन जमाने वाले वही लोग होंगे.
ReplyDelete@ श्री जी. विश्वनाथ> किसीने आपको Morning Blogger कहा था।
ReplyDeleteअगर मेरी पत्नी की कही मानी जाये तो मैँ एक Frowning Blogger हूं। हमेशा सड़ा सा मुंह बनाये रहने वाला। उनके अनुसार जब मैं रिटायर हूंगा और मेरे छिद्रांवेशी व्यक्ति को कोई काम नहीं रहेगा तो घर की शांति भंग हो जायेगी!
तभी मैं ब्लॉग के हेडर के बैकग्राउण्ड में अपना स्माइलिंग फेस लगाने का काम कर रहा हूं - उसी से व्यवहार बदले शायद!
@ inext Chatari: Branding ka jamana hai to i next ki chatari to har jagah dihkegi. Gyan ji ki railway ki 'Push Trolley' per bhi inext ki chatari nazar aye to chaukiga nahi. :-)
ReplyDelete'दो साल से हम आस लगाये हैं कि भादों में जब गंगा बढ़ें तो इन तक पानी आ जाये और रातों रात ये बह जायें चुनार के किले तक......
ReplyDeleteअजी शुभकाम मे देरी केसी, हम होते तो यह चोकिया कब की गंगा जी मे बह जाती :) चलिये कल सुबह ही यह नेक् काम कर दे, वेसे अगर इस साल नही बही तो फ़िर कब बहेगी
चौकियों की चर्चा...और ये 'घाम' शब्द बहुत दिनों बाद सुना...
ReplyDeleteजब बच्चे बहुत छोटे थे ,एक बार गाँव गयी थी...जमीन पर पानी गिरा देख, मैने बेटे को कहा चौकी पर चढ़ जाओ..वो वैसे ही खड़ा रहा..जब उसे ऊँची आवाज़ में डांटा तो रुआंसा होकर बोला, कहाँ है चौकी??...यह तो लुप्त होती जा रही है अब.
हमेशा की तरह एक मनभावन पोस्ट...
इस तरह की चौकीयों का इस्तेमाल अक्सर गाँवों में स्टेज के रूप में होता है लेकिन अब विवाह आदि के अवसर पर होने वाले बिरहा और तमाम नौटंकी आदि के कार्यक्रम अब धीरे धीरे कम होते जा रहे हैं।
ReplyDeleteवो तो पुराने जमाने वाले विचारों के कुछ लोग अब भी हैं जो कि चौकी की डिमांड तेज किए हैं न अब तक तो इनका लोप हो गया होता।
इस चौकी के डिमांड पर एक घटना बहुत रोचक घटी है मेरे गाँव से कुछ दूरी पर स्थित एक दूसरे गाँव में।
हुआ यूं कि, विवाह में मसहरी-गद्दा देने की एक परंपरा रही है। लेकिन लड़के के दद्दा यानि दादाजी ने कहा कि कहला दो लडकी वालों से जितने में एक मसहरी बनेगी उतने में दो चौकी बन जाएगी। हमें चौकी पठवा दो...मसहरी की कौनो जरूरत नहीं है :)
लडकी वालों ने लिहाजन न सिर्फ दो चौकी सामान के साथ भिजवा दी बल्कि मसहरी भी भिजवाई। बाद में लोगों ने मजाक मजाक में बुढऊ की बहुत खिंचाई भी की कि- अरे ऐनका कम जिन जानअ....ई पोता के भूँई सुता के अपुना चौकी पे सोवे वाला बूढ़ हउवे :)
उधर पोते के यार दोस्त अलग ही उसका मजा ले रहे थे....कि यार तुम एकदम कठफोरवा दूल्हा हो जो काठ की चौकी पर सेज सजाओगे :)
इस घटना को देखने के बाद मन मानने लगा है कि - सचमुच पुरनिया लोग लंठ तो होते ही थे लेकिन अपनी लंठई के साथ साथ चालाकी की छौंक भी यदाकदा लगाते रहते थे :)
लग रहा है पण्डा जी को आपकी मनोकामना की जानकारी देना पड़ेगी...
ReplyDeleteपाण्डेय जी, प्रणाम स्वीकार कीजिए.
ReplyDeleteएक तो आईडिया आ रहा है : अभिषेख बच्चन वाला नहीं, अपना है- पिच्छले कई सालों से ई वाला गंगा घाट देख रहे हैं - अभी तक सिर्फ हरिद्वार ही में गंगा मैया देखि है. मन करता है - आपके यहाँ आया. जाये. और झोपड़ा बना कर ३-४ दिन यहीं रहा जाए - इसी घाट पर.
बनाइये कोई प्रोग्राम - कई लोग तैयार हैं. कसम से.
@ दीपक बाबा - अच्छा, लगता है मेरा ब्लॉग इस जगह की पर्यटन वैल्यू बना रहा है! पता करता हूं कि क्या रुकने-ठहरने का इंतजाम हो सकता है।
ReplyDelete
ReplyDeleteमॉडरेशन है तो क्या..
बहुत कुछ सोचने को मज़बूर करती है, आपकी यह पोस्ट !
इतना लिखा तो पास किया ही जा सकता है, न ?
कि, आपके दृष्टि की गहनता अभिभूत करती है ।
सादर प्रणाम !
वह रात मे नशेड़ियों की जलती सिगरेट वाला चित्र मिल जाता तो.......
ReplyDeleteसर अगर यह मज़ाक़ है तो देखिए न मज़ाक़-मज़ाक़् में एक् कविता कर् डाली है~
ReplyDeleteकभी जिनके सभी पाए थे दुरुस्त
आज् उन्हीं चौकियों का हो गया क्षरण
फिर् भी स्ंभाले तो है मुझे,
मेरी हस्ती को
बैठा हूं इसी पर् तो
ग्ंगा के निर्मल् तट पर
देखता हुआ अस्त् होते सूर्य को
होने वाला है गहन तिमिर् का आगमन
व्याकुल और् अशांत मन
प्रतिपल
बढती जा रही मनसिक् हलचल
आओ ना
ज्ञान!
करो मेरी समस्याओं का समाधान
बैठो इसी टूटी चौकी पर्
साथ मेरे
जब् तुम् बैठे थे साथ
रत्नाकर् के, तो उसे
वाल्मीकि बना दिया
बैठे जब् गौतम् के पास
तो वह् हुआ बुद्ध
आज् इस् निशागमन से
ग्ंगा की धार है अवरुद्ध
करो निदान!
करो निगान!!
आओ ना ज्ञान!!
ज्ञानजी,
ReplyDeleteकिसीने आपको Morning Blogger कहा था।
हम तो आपको Ganga Blogger कहेंगे जो लिखते हैं Ganges Pande की मानसिक हलचल।
कभी नाव में सफ़र करते करते कुछ तसवीरें खींचिए।
इस तट से गंगा को बहुत देख लिया।
क्या कभी उस पार से लिए गए तसवीरें देखने को मिलेगी?
नदी के बीच से तट कैसा लगता है, यह भी देखना चाहता हूँ।
केवल सुबह की तसवीरें क्यों? शाम को गंगा कैसी लगती है, यह भी हम देखना चाहते हैं।
कभे अवसर मिला तो अवश्य छापिए।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
कायम रहें चौकियां, जमा रहे आसन, बनी रहे छत्रछाया गंगा मैया की.
ReplyDelete@ आप मजाक कर रहे हैं?
ReplyDelete*** मज़ाक और आपसे। जिनकी हम इज़्ज़त करते हैं उनसे मज़ाक़ कर ही नहीं सकते। आपकी मैं दिल से इज़्ज़त करता हूं। ... और आपसे प्रेरणा भी ग्रहण करता हूं।
आपने जिस दिन मेरी कैटरपिलर पर लिखा था ... आपकी सोच कुछ अलग है बंधुवर! उस दिन से यह दायित्व का बोध लिए इस ब्लॉगजगत में फिर रहा हूं कि मेरे प्रति आपकी सोच न बदले।
आज अगर मेरी इस टिप्पणी से आपकी धारणा बदल गई हो तो उसे डिलिट कर दूं?
या विस्तार से अपनी बात रखूं?
दोनों ही हालत में इस संक्षिप्त पर सारगर्भित पोस्ट के प्रति ना-इंसाफ़ी होगी। फिर भी एक उदाहरण ...
@ संझाबेला जब सूरज घरों के पीछे अस्त होने चल देते हैं, तब वृद्ध और अधेड़ मेहरारुयें बैठती हैं। उन चौकियों के आसपास फिरते हैं कुत्ते और बकरियां।
इस सांस्कृति अस्ताचल सूर्य) अवनयन के काल में ये चकियां ही तो हैं जो हमें गिरनए नहीं दे रहीं। कुती ... वफ़ादारी, बकरियां ... मनवता, इंसानियत!!
आपका आलेख गहरे विचारों से परिपूर्ण होता है।
ReplyDelete'दो साल से हम आस लगाये हैं कि भादों में जब गंगा बढ़ें तो इन तक पानी आ जाये और रातों रात ये बह जायें चुनार के किले तक। पर न तो संगम क्षेत्र के बड़े हनुमान जी तक गंगा आ रही हैं, न स्वराजकुमार पांड़े की चौकियों तक।'
ReplyDeleteकभी-कभी आप भी गजब की अपेक्षाऍं कर लेते हैं। तनिक बताइए भला स्वराज कुमार पाण्डे की चौकियॉं आपकी ऑंखों में क्यो खटकने लगीं।