कारों की विविधता, गति, शक्ति और अन्दर की जगह और सुविधाएं देखकर मैं तो दंग रह गया।
शायद ही कोई है जिसके पास अपनी खुद की कार न हो।
औसत मध्यवर्गीय परिवार के तो एक नहीं बल्कि दो कारें थी। एक मियाँ के लिए, एक बीवी के लिए।
यह श्री गोपालकृष्ण विश्वनाथ की उनकी कैलीफोर्निया यात्रा के दौरान हुये ऑब्जर्वेशन्स पर आर्धारित चौथी अतिथि पोस्ट है।
गैराज तो इतने बडे कि कम से काम दो कारें अगल बगल इसमें आसानी से खड़ी की जा सकती हैं।
गैराज के अन्दर जगह इतनी कि भारत में तो इतनी जगह में एक पूरा घर बन सकता था।
हवाई अड्डे से पहली बार जब घर पहुँचे थे, बेटी ने कहा कि गैराज का दरवाजा, पास आते ही अपने आप खुल जाएगा। हमें याद है हमने उस समय क्या कहा था - "हद है आलस्य की भी। गाडी के बाहर निकलकर झुककर दरवाजा उठा भी नहीं सकते क्या, जैसा हम भारत में करते हैं?"
फ़िर जब गैराज का दरवाजा देखा तो समझ गया। इतना बडा था कि इसे खोलने के लिए बिजली की जरूरत पडती थी। हम उठा नहीं सकते थे।
चित्र देखिए। एक में बन्द गैराज के सामने हम खडे हैं, दूसरे में खुली हुई खाली गैराज और तीसरे में गैराज में गाडीयाँ खडी हैं।
टी वी देखने के लिए तो अपने पास बहुत समय था पर वहाँ के प्रोग्राम को हमें देखने में कोई रुचि नहीं थी। वहाँ भी बहुत ज्यादा समय विज्ञापन (ads) खा जाते हैं। भारत के समाचार तो बिलकुल नहीं के बराबर थे वहां। सारा समय या तो Mexico gulf Oil spill या ओबामा पर केन्द्रित था।
टी वी सीरयल देखने की कोशिश की पर अच्छे सीरयल भी हम देखकर आनन्द नहीं उठा सके क्योंकि सिचयुयेशन और पात्रों के साथ हम अपने को आइडेण्टीफाई नहीं कर पाए।
बस एक विशेष सीरियल नें हमारा दिल जीत लिया और वह है "Everybody Loves Raymond"| केवल इस सीरियल में सिचयुयेशन्स हमारे भारतीय परिवारों जैसी ही थीं और हमने इस सीरियल के ४० से भी ज्यादा एपीसोड्स देखे।
इसके अलावा सार्वजनिक लाईब्ररी से DVD मंगाकर देखते थे। समय बहुत था यह सब देखने के लिए।
ईंटर्नेट के माध्यम से भी हम फ़िल्में सीधे स्ट्रीमिंग (Direct Streaming) करके, टी वी पर देखते थे।
एक और बात हमने नोट की; इतने घर देखे पर कहीं भी कपडे घर के बाहर रसी (clothesline) पर टंगे नहीं देखे। धूप होते हुए भी लोग वाशिंग मशीन के बाद ड्रायर (dryer) का प्रयोग करते थे। मुझे लगा कि व्यर्थ में उर्जा बरबाद हो रही है। क्यों घर के पीछे खुली हवा और धूप में कपडों को सूखने नहीं देते?
कपडे भी हफ़्ते में एक बार ही धोते थे। हर दिन मैले कपडे इकट्ठा करके एक साथ धोते थे।
हमें तो यह अच्छा नहीं लगा। भारत में हम तो रोज कपडे धोते हैं।
वहां घर/मकान मजबूत नहीं बनाते हैं। लकड़ी और काँच का प्रयोग कुछ ज्यादा होता है। ईंट, कंक्रीट वगैरह बहुत कम प्रयोग करते हैं। घर का चिरस्थायितत्व/ टिकाऊपन की किसी को परवाह नहीं। घर केवल अपने लिए बनाते हैं, अगली पीढी के लिए नहीं। किसी को अपने मकन/घर से लगाव नहीं होता। कोई यह नहीं सोचता कि अगली पीढी के लिए विरासत में घर छोडें।
जैसा हम कार/स्कूटर खरीदकर कुछ साल बाद बेच देते हैं वैसे ही यह लोग घर बदलते हैं। कारें तो अवश्य बार बार बदलते हैं।
बच्चे १८ साल की आयु में घर से बाहर रहने लगते हैं। माँ बाप के साथ रहना उन्हें अच्छा नहीं लगता। एक उम्र के बाद परिवार में आपसी रिश्ते कच्चे होने लगते हैं।
बिना शादी किए लोग माँ बाप भी बन जाते हैं और समाज में उन्हें किसी से मुँह छुपाने की आवश्यकता नहीं होती।
आज बस इतना ही। हम तो लगातार लिखते रह सकते हैं पर अब सोचता हूँ बहुत लिख लिया। अगली कडी अन्तिम कडी होगी।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
हमें तो लग रहा है कि आपके सहारे हम भी कैलीफोर्निया घूम रहे थे .....वह भी कोई अधन्नी खर्च किये बगैर !
ReplyDeleteउनके गैराजों के बराबर हमें हमारे हृदय का आकार होने का अहंकार था जिसमें एक साथ सारी धरा समा सकती थी। अब तो वह भी नहीं रहा हमारे पास।
ReplyDeleteघरों का मोह, स्मृतियों का मोह। जब विस्मृतियों में भोग का ऐश्वर्य चिपा हो तो घरों से मोह कैसा?
वहां के रिश्तों हमारे लिए वाक़ई अजूबे हैं.
ReplyDeleteसुना थी कुछ कंपनियों जैसे याहू वगैरह की स्थापना गैराज में हुई तब सोचता था कि गैराज से कोई कंपनी कैसे चला सकता है है अब तो लग रहा है कि हम जैसे तो अपना पूरा घर ही चला सकते हैं गैराज से।
ReplyDeleteलेकिन जो सुख अपने भारत मै हे, जो शांति भारत मै हे वो यहां नही, इस लिये देख पराई चुपडी मत ललचाये जी, भारत वासियो आप भी मस्त रहो,हम कही से भी इन से गरीब नही, बल्कि अमीर है
ReplyDelete`शायद ही कोई है जिसके पास अपनी खुद की कार न हो'
ReplyDeleteजब नमक लाने के लिए भी मीलों जाना पडे तो कार की आवश्यकता तो होगी ही :)
रोचक जानकारी लगी।
ReplyDeleteबडे अर्थोंवाली छोटी-छोटी जानकारियॉं विस्मित करती हैं। ऐसी ही बातों से किसी देश का सामाजिक ताना-बाना समझ में आता है।
ReplyDeleteलोगों को पढनेवाले नहीं मिलते जबकि आपको पढनेवालों की संख्या अच्छी-खासी है। कृपया अपने अनुभवों और सर्वेक्षणों को कडियों मे मत बाँधिये। यदि आपको कोई विशेष असुविधा न हो तो इस क्रम को तब तक निरन्तर कीजिए जब तक कि जानकारियॉं समाप्त न हो जाऍं।
कृपया अपने अनुभवों और सर्वेक्षणों को कडियों मे मत बाँधिये। यदि आपको कोई विशेष असुविधा न हो तो इस क्रम को तब तक निरन्तर कीजिए जब तक कि जानकारियॉं समाप्त न हो जाऍं
ReplyDeleteविष्णु जी की बात से पूर्ण सहमति! जारी रखिये!
संसार में विभिन्न सभ्यतायें है उनके बारे में जानना अच्छी बात है ।
ReplyDeleteजी पी एस का सिस्टम हमारे यहाँ पाबला जी के पास भी है उनके साथ कार चलाते हुए इसका आनन्द हम लेते हैं ।
सही कह रहे हैं आप विश्वनाथ जी । आधुनिकता में सबके आगे है अमेरिका । दुख की बात है कि भारत इसी आधुनिकता की दौड में अपनी अच्छी बातें और संस्कार छोडता जा रहा है । यह बनाये रखने की बहुत जरूरत है ।
ReplyDeletemazeddar jaankari :)
ReplyDeletehttp://liberalflorence.blogspot.com/
mazeddar jaankari :)
ReplyDeletehttp://liberalflorence.blogspot.com/
सभी मित्रों को टिप्प्णी के लिए धन्यवाद।
ReplyDelete@ विष्णु बैरागी जी और स्मार्ट इन्डियनजी :
इस प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद।
पाँचवी किस्त भी तैयार है और उसमें मैंने लिखा था कि यह अन्तिम किस्त है पर आपकी की बात मानकर आगे भी लिखूंगा।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
अच्छा लग रहा है, संस्मरण पढना...भले ही बातों की जानकारी हो किन्तु हर व्यक्ति का चीज़ों को देखने का नजरिया अलग होता है...और यही संस्मरण को रोचक बना देता है.
ReplyDeleteअगली कड़ी/कड़ियों का इंतजार है मुझे तो!
ReplyDeleteवहाँ सर्व सामान्य के लिए यातायात के साधन प्रचुर मात्रा में नहीं हैं तो कार रखना उनकी मजबूरी है, यदि कार नहीं होगी तो वे घर से भी बाहर नहीं निकल सकते। भारत की तरह नहीं है कि घर के बाहर ही ऑटो मिल जाता है। इसीलिए प्रत्येक सदस्य को गाडी रखनी ही पडती है। कपड़े धोकर उन्हें धूप में सुखाने की मनाही है, इसलिए सभी ड्रायर का ही सहारा लेते है। आप समाप्त मत करिए लिखते रहिए।
ReplyDelete"लोगों को पढनेवाले नहीं मिलते जबकि आपको पढनेवालों की संख्या अच्छी-खासी है। कृपया अपने अनुभवों और सर्वेक्षणों को कडियों मे मत बाँधिये। यदि आपको कोई विशेष असुविधा न हो तो इस क्रम को तब तक निरन्तर कीजिए जब तक कि जानकारियॉं समाप्त न हो जाऍं।"
ReplyDeleteमैं भी मित्रों की बात से सहमत हूं. अपने सीरियल्स को और बडा करने की कृपा करें. अब आगे जानने का धैर्य चुकता जा रहा है.
विष्णु बैरागीजी, स्मार्ट इन्डियनजी, अजीत गुप्ताजी, अनूपजी और विनोद शुक्लाजी की बात मानते हुए आगे भी लिखता रहूँगा।
ReplyDeleteप्रोत्साहन के लिए धन्यवाद। पाँचवी किस्त भी हमने ज्ञानजी को भेज दी है। कृपया प्रतीक्षा कीजिए।
शुभकामानाएं
जी विश्वनाथ