टल्लू का भाई भोला बिजनिस करता है और बचे समय में दारू पीता है। टल्लू दारू पीता है और बचे समय में अब तक माल ढोने की ट्राली चलाता था। दारू की किल्लत भई तो नौ सौ रुपये में ट्राली बेच दी। अब वे नौ सौ भी खतम हो चुके हैं।
उस दिन भरत लाल से मिला टल्लू। मिलते ही बोला – भाइ, एठ्ठे रुपिया द। राजस्री खाई, बहुत टाइम भवा। एठ्ठे अऊर होइ त तोहरे बदे भी लियाई (भाई, एक रुपया देना। राजश्री (गुटखा की एक ब्राण्ड) खानी है, बहुत समय हुआ है खाये। एक रुपया और हो तो तुम्हारे लिये भी लाऊं!)।
टल्लू को दारू के लिये पैसा मिलने की उम्मीद हो तो आपके पीछे पीछे सात समन्दर पार भी जा सकता है।
भोला ने टल्लू को घर से निकाल दिया है। घर से चोरी कितना बर्दाश्त करता। अब कैसे जीता है टल्लू? जितना मासूम यह सवाल उतनी रोचक रही तहकीकात!
रात नौ बजे वह गंगा के किनारे मछरी (मछली) मारने जाता है। गंगा उफान पर हैं, सो खूब मछलियां मिल जाती हैं। एक दो बचा कर शेष गुड़ से शराब बनाने वालों को बेच देता है। बदले में उनसे लेता है देसी शराब। यह सब कारोबार गंगा किनारे होता है। मध्य रात्रि तक बची मछलियां भून कर शराब के साथ सेवन करता है। फिर खा पी कर वहीं रमबगिया में सो जाता है।
सरल आदमी। सरल जिंदगी। गंगामाई सब तरह के लोगों को पाल रही हैं। टल्लू को भी!
उफान पर गंगामाई
कल फिर वहीं हनुमान मन्दिर के पीपल के थाले पर जगदेव पुरी जी से मिला। उन्हे अपने नेट बुक के माध्यम से उनके ऊपर लिखी पोस्ट दिखाई और तय किया कि हफ्ते में एक दिन उनसे मिल कर इस क्षेत्र का इतिहास नेट-बद्ध करेंगे हम लोग।
मुझे लगा कि पोस्ट देख कर जगदेव जी में रुचि जगी है। और हर सप्ताह एक पोस्ट उनके सानिध्य में बन सकेगी!
जय गंगा मैया की और जय टल्लू भैया की ।
ReplyDeleteवस्तु विनमय की परम्परा तो पौराणिक है . इस हाथ दे उस हाथ ले . और मछ्ली के बदले शराब तो सोने मे सुहागा है
ReplyDeleteधन्य हैं आप - हिन्दी ब्लॉगिंग का सार्थक प्रयोग कोई आपसे सीखे।
ReplyDeleteराजश्री वालों का पता ढूँढ़ रहा हूँ। यह पोस्ट उन्हें भेजनी है।
ReplyDeleteएक दोहा भूल सा गया है जिसमें मेघों के सबके ऊपर समान रूप से बरसने की बात है। आप की गंगा माई वैसी ही हैं। संत भी ऐसे ही होते हैं। बहुत ऊँचाई पर
सही है...गंगा माई और धरती माई सबको पाल रही हैं..पल ही जा रहे हैं सब!
ReplyDeleteटल्लू लोगों को गंगा की ही ज़रूरत नहीं रहती, कहीं भी पल लेते हैं.
ReplyDeleteमुझे जंगल में मिला गड़रिया याद आया जो दूध पीता था, गाय-भैंस चराता था और बंसी बजाता था। उस के जीवन में कोई राजश्री नहीं थी।
ReplyDeleteआदमी तो सरल ही है. अपनी तरह की मौत चुनने की स्वतंत्रता तो सभी की है.
ReplyDeleteटल्लू द्वारा मछलीयों के सानिध्य में रहना और उन्हें बेच बाचकर अपना गुजर बसर करना, दारू पीना.... काम चलाना देखकर लगता है कि जरूर टल्लू कभी तनहाई में अपनी उन मछलियों से अमिताभ बच्चन की तरह बतियाता होगा -
ReplyDeleteकभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है
कि तुम थोड़ा और होती तो एक नाव खरीदता
थोड़ा और होती तो एक घर बनाता
कुछ औऱ भी ज्यादा होतीं तो कार लेता
मैं ऐसा करता....मैं वैसा करता
कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है
लेकिन साला ये खयाल कभी कभी ही क्यों आता है :)
"टल्लू को घर से निकाल दिया है"
ReplyDeleteटल्लु घर से और लल्लु बिहार से :)
टल्लू भैया की जय !!
ReplyDeleteयहाँ भी पधारें:-
अकेला कलम
गंगा मैया में जब तक के पानी रहे,
ReplyDeleteटल्लू भैया तेरी ज़िन्दगानी रहे!
वाह टल्लू महाराज...
ReplyDeleteसर्वप्रथम तो आपका प्रसन्न मुखमण्डल देखकर मन प्रसन्न हो गया है। सरल जीवन यदि टिल्लू का है तो गरल काहे चढ़ाये रहते हैं। जीविका वैसे अच्छी है पर गंगा मैया उतर गयीं तब क्या करेंगे? पर यदि इतना सोचे तो टिल्लू नहीं रहेंगे।
ReplyDeleteये टल्लू जैसे लोग बडे भाग्यशाली हैं जी।
ReplyDeleteहम (जो अपने आप को मध्य वर्गीय बुद्धिजीवी समझते हैं) टल्लू पर तरस खाने की गलती करते हैं
उसे हमारी सहानुभूती की कोई आवश्यकता नहीं।
मस्त रहता है और आजीवन मस्त रहेगा।
थोडे में ही गुजारा करना सीख लिया है।
"ऊफ़ान पर गंगामाई" तसवीर बहुत ही आकर्षक लगी।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
काश गंगा माई के किनारे हमरा भी एक तो .. कुटिया होती ......... वहीँ बैठ कर लिखते और तिपायाते रहते...........
ReplyDeleteऔर हाँ शाम को भोला कि संगत भी हो जाती....
भाई भोला एक तो टिप्पी हमरे ब्लॉग पर दो .... दारू का इंतज़ाम हमही करते हैं.
और एक बात तो पक्की ही ज्ञानदत्त जी की अगली पोस्ट के हीरो हमही होते.
मछली पकड़ने जितनी मेहनत भी काहे करनी, बस संसार से विरक्त हो गया हूँ, घोषित कर दो. लोग ही ट्ल्लू का पेट पाल देंगे. जै हो ट्ल्लू बाबा की.
ReplyDeleteभारी श्रद्धा उमढ रही है टिल्लू बाबा के प्रति हमारे मन में. पोस्ट पर राग दरबारी की छाप है. मस्त.
ReplyDeleteअपरिग्रही टल्लू ने जीवन के सत्य का संधान कर लिया है और आपने टल्लू का, बधाई. जगदेव पुरी जी से आपकी मुलाकात होती रहे. अब आपसे क्या कहें कि एक थे शिव प्रसाद मिश्र रूद्र काशिकेय.
ReplyDeleteएक बचे समय में बिजनेस करता है दूसरा बचे समय में दारु. दोनों ही दोनों काम करते हैं... पर बहुत फर्क लग रहा है आउटपुट में. बाकी गंगामाई तो हैं ही सबके लिए.
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ReplyDeleteटल्लू तो ’लगा कर’ चैन से सो रहा होगा,
उसे भला हमारी टिप्पणी की चिन्ता क्यों होने लगी ?
वह ठहरा फ़क्कड़, जिन्दगी की अपनी परिभाषाओं को जी रहा है ?
परेशान तो हम हैं, कि आजकल फलाँना ढेर बुद्धि का जाल क्यों बुन रहा है ?
सबकी अपनी चिन्तायें, सबकी अपनी अपनी बीमारियाँ, उसने तो स्वेट मार्टेन का नाम भी न सुना होगा ।
नया कलेवर बहुत जम रहा है।
ReplyDeleteरमबगिया की याद अच्छी दिलाई आपने। जल्दी ही जाता हूँ एक चक्कर लगाने…
और जगदेव पुरी जी के सान्निध्य में आप से और भी रोचकता अपेक्षित है।
आपका नया प्रोफाइल तो बिलकुल आर्मी के कर्नल या जनरल जैसा लग रहा है. शायद crew cut hair की वज़ह से. लेख अच्छा लगा. जैसा की ज्ञानी लोग सिखाते है वर्तमान में जीयो तो टल्लू भी शुद्ध रूप से वर्तमान का ही प्राणी है मज़े की बात ये है कि टल्लू मेरे छोटे भाई का nick name है जो यहाँ मुंबई में ONGC में Chief Engineer है और उसकी छोटी सी बेटी भी अपने पापा के इस नाम पर हँसती है. टल्लू को भी आपका लेख पड़वाऊंगा :-))
ReplyDeleteआप वह इतिहास लिख रहे हैं जो किसी विश्व विद्यालय के पाठ्यक्रम में कभी नहीं मिलेगा - जीवन का पाठ्यक्रम।
ReplyDeleteलिखते रहिए। ईश्वर आपको पूर्ण स्वस्थ बनाए और और बनाए रखे - आपके लिए नहीं, हम सब के लिए।
जितना सरल टल्लू, उतना सरल उसका जीवन. काश ! इतनी सरलता हममें भी होती... जिंदगी इतनी उलझी हुयी ना होती.
ReplyDeleteगंगा मैया सच में बहुत लोगों को पाल रही हैं और आप हम तक उनकी बातें पहुँचा रहे हैं. अपने आस-पास की जिंदगी के प्रति संवेदनशीलता... यही तो ब्लोगिंग है...
अब कैसी तबीयत है आपकी. मैं भी काफी दिनों से ब्लॉगजगत से दूर थी, तो इधर नहीं आ पा रही थी.
धरती माँ कभी पीछे नहीं हटती.. चाहे उसके बनाए हुए मानव या मानव के बनाए सरकार हट जाएँ..
ReplyDeleteजय गंगा मैया!!
वाह ...जबरदस्त जुगाड़ है........
ReplyDeleteसही है, माँ कभी किसी को भूखा नहीं रहने देती.......
शिवकुटी का इतिहास रोचक भी होगा और महत्वपूर्ण भी। इसे जरूर पूरा करें। जगदेवपुरी जी निश्चित रूप से इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभायेंगे। यह साहित्य, संस्क्रिति और पाठक सभी के लिये बहुत जरूरी है। आपकी फोटोग्राफी भी अद्भुत है, यह शिवकुटी के इतिहास को और सम्रिद्ध करेगी।
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