Tuesday, September 14, 2010

हिन्दी में पुस्तक अनुवाद की सीमायें

दो पुस्तकें मैं पढ़ रहा हूं। लगभग पढ़ ली हैं। वे कुछ पोस्ट करने की खुरक पैदा कर रही हैं।

खुरक शायद पंजाबी शब्द है। जिसका समानार्थी itching या तलब होगा।

पहली पुस्तक है शिव प्रसाद मिश्र “रुद्र” काशिकेय जी की – बहती गंगा। जिसे पढ़ने की प्रेरणा राहुल सिंह जी से मिली। ठिकाना बताया बोधिसत्त्व जी ने। विलक्षण पुस्तक! इसके बारे में बाद में कहूंगा। आगे किसी पोस्ट में।

Rozabal दूसरी पुस्तक है अश्विन सांघी की “द रोज़ाबल लाइन”। जबरदस्त थ्रिलर। यह पुस्तक शिवकुमार मिश्र ने मुझे दी। मैं सबके सामने शिव को धन्यवाद देता हूं!

इस्लाम और क्रिश्चियानिटी की विध्वंसक मिली भगत; कर्म-फल सिद्धान्त; पुनर्जन्म की अवधारणा, बाइबल के चरित्रों के हिन्दू साम्य इत्यादि ऐसे खम्भे हैं, जिनसे एक इतना स्तरीय उपन्यास बुना जा सकता है – यह देख अश्विन की कलम का लोहा मानना पड़ता है। कितनी डीटेल्स भरी हैं इस उपन्यास में! तथ्य कहां खत्म हुये और कल्पना का इन्द्रधनुष कहां तना – वह सीमा तय करने में आम पाठक बहुधा गच्चा खा जाये।

मैं अर्थर हेली का प्रशंसक रहा हूं। तब के जमाने से कोई इस तरह की पुस्तक पढ़ता हूं, तो यह सोचने लगता हूं कि इसका हिन्दी अनुवाद किया जायेगा तो कैसे? और हमेशा मुझे अपने जमाने की हिन्दी में एक्सप्रेशन की तंगी नजर आती है! इस पुस्तक के बारे में भी मैने सोचा। हिन्दी अनुवाद? मेरी अपनी शंकायें हैं।

एक अद्वितीय कैल्क्युलस की किताब या मेरी सुग्राह्य अभियांत्रिकी की पुस्तकें अभी भी हिन्दी में नहीं बन सकतीं। एक खांची अप्रचलित अनुवाद के शब्द उंड़ेलने होंगे। और उनके प्रयोग से जो दुरुह पुस्तक बनेगी, उसे पढ़ने वाला विरला ही होगा।

हिन्दी में टेरर/इण्ट्रीग/थ्रिलर/जासूसी (terror/intrigue/thriller/espionage) डीटेल्स के बारे में लेखन लुगदी साहित्य से ऊपर नहीं ऊठा हैं। किसी में कोई शोध नजर नहीं आता। भावनाओं – विचारों का वर्णन तो ठीकठाक/अप्रतिम/अभूतपूर्व है हिन्दी में, पर इन (टेरर/इण्ट्रीग/थ्रिलर/जासूसी) विधाओं का तकनीकी विस्तार तो कुंद पड़ा है। "द रोज़ाबल लाइन" में जुगराफिये और इतिहास के साथ तकनीकी तत्वों का जो कलियनृत्य है, वह झौव्वा भर अटपटे शब्द मांगेगा अनुवाद में। साथ ही हिन्दी पाठक को झट से बोर कर देने के विषतत्व इंजेक्ट करने की सम्भावना युक्त होगा।

इस पुस्तक की अगर हिन्दी में रीडेबिलिटी बनाये रखनी है तो इसके कई अंशों का हिन्दी में पुनर्लेखन करना होगा। बहुत सी डीटेल्स निकालनी होंगी और कई स्थानों पर हिन्दी पाठक के सुभीते के लिये विस्तार भी करना होगा। तब भी, हिन्दी में वह बोझिल किताब नहीं, रोंगटे खड़ा करने वाला थ्रिलर बनेगा, इसकी गारंटी पर दाव नही लगाऊंगा मैं!

अनुवाद के लिये जो करना होगा, “चुनौती भरा” उसके लिये हल्का शब्द लगता है।

(और अगर यह किताब किसी शूरवीर ने हिन्दी में अनुदित भी की तो इस्लाम-ईसाइयत की सांठगांठ, ईसा का कश्मीर में जीवन, "इल्युमिनाती" का शैतानिक/क्रूर रूप आदि को ले कर हिन्दी में पांय-पांय खूब होगी! यहां पांय पांय थोड़ी ज्यादा ही होती है!)


39 comments:

  1. पांय पांय भी हो और कांय कांय भी हो तभी लगता है कि हिन्दी साहित्य पर विमर्श चल रहा है।

    अभी कुछ स्रोतों से पाकिस्तान में रहने वाले कुछ युवाओं के अंग्रेजी ब्लाग्स मिले हैं जिनकी आर्काइव खंगालने में समय जा रहा है। एक अलग एहसास सा है और बिल्कुल भी जुदा नहीं।

    कालेज के जमाने में वेद प्रकाश शर्मा के थ्रिलर भी पढे हैं और सच बतायें तो बुरे नहीं लगे।

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  2. एक भाषा से दूसरी में अनुवाद की सीमायें होंगी हीं। हिन्दी से अंग्रेजी में अनुवाद किया जाये तब भी होंगी। किसी भी भाषा में होंगी। यह सीमा अनुवादक की क्षमता और कौशल की होंगी। खाली अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद की सीमाओं के बारे में सोचना/बताना जबरदस्ती की पांय-पांय ही तो है।

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  3. कॉलेज के दिनों में मुझे ईएच कार की ‘व्‍हॉट इज हिस्‍ट्री’ और एएल बॉशम की ‘वंडर दैट वाज इंडिया’ पढ़ने की जरूरत पड़ी थी। बाजार में उन पुस्‍तकों का हिन्‍दी अनुवाद उपलब्‍ध था और इसलिए मैंने उन्‍हें खरीद लिया। लेकिन पढ़ने पर महसूस हुआ कि मैंने पैसे ही बरबाद किए हैं। आखिरकार मुझे मूल अंगरेजी पुस्‍तकें खरीदनी पड़ीं।

    दरअसल अनुवाद मूल रचना के कम चुनौती भरा कार्य नहीं है। लेकिन हिन्‍दी में इसकी भी खानापूरी कर दी जाती है और उसी पर पुरस्‍कार झटक लिए जाते हैं।

    शाब्दिक अनुवाद अक्‍सर जोखिम भरा होता है। यह काम तो अब कंप्‍यूटर भी कर रहा है। स्रोत भाषा से लक्ष्‍य भाषा में समतुल्‍य भाषिक स्‍तर पर समूचे भाव को ट्रांसफर किए बिना अच्‍छा अनुवाद संभव नहीं है। इस‍के लिए एक तरह से पुन:सृजन ही करना होता है।

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  4. oh my father को ऎ मेरे बाप पढना क्या सही लगता है ? लेकिन अनुवाद तो ऎसा ही होता है .
    अशोक जी की बात मे दम है

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  5. किसी भी रचना के अनुवाद का काम उस की पुनर्रचना करना है। उस के लिए अनुवादक को भी एक रचयिता होना पड़ता है। कोई रचना ऐसी नहीं जिस का स्तरीय अनुवाद संभव नहीं हो।

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  6. एक बात और...
    हिन्दी कोई अक्षम भाषा नहीं है। उस में सभी तरह के साहित्य का अनुवाद संभव है। यदि अक्षमता है तो अनुवादकों में है। यह कहना कि हिन्दी की क्षमता सीमित है कहना वैसा ही है जैसे कोई कहे कि आंगन टेड़ा है मैं नाच नहीं सकता। आप अच्छे अनुवादक को समय और वांछित पारिश्रमिक की व्यवस्था करवा दें वह किसी भी पुस्तक का अच्छा अनुवाद कर सकता है।
    फिर यदि किसी को हिन्दी अक्षम प्रतीत होती है तो उसे विकसित करने का दायित्व भी तो हिन्दी भाषियों का है। हिन्दी को अक्षम बताना क्या उस से मुहँ मोड़ लेना नहीं है?

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  7. एक पैरा चिपकाए होते.. तो पता चलता अनुवाद मुश्किल क्यों है?

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  8. बहती गंगा पर आपका लिखा पढ़ने की प्रतीक्षा है. मैं तो दंग हूं, आपकी तत्‍परता देखकर. ऐसी मानसिक हलचल (व्‍यग्रता) तो शायद टीन एज में ही होती है. गंगा मैया का पुण्‍य प्रताप.

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  9. ’इलुमिनाती’ के बारे में पढना ही रोमांच और थ्रिल पैदा कर देता है। ’डैन ब्राउन’ ने एक तरीके से इस ग्रुप को सबके सामने रखा और ’साईन-लैंग्वेज’, कोड-ब्रेकिंग यह उनकी स्पेशियलटी है...

    इलुमिनाती के बारे में सबसे पहले उन्होने ’एन्जेल्स एन डेमन्स’ में लिखा फ़िर ’डा विंची कोड’.. ’द डिजिटल फ़ोर्ट्रेस’ एक वैज्ञानिक थ्रिलर था जहाँ कोड ब्रेकिंग और हैकिंग की सारी डीटेल्स थीं। अभी उनकी नयी किताब ’द लॉस्ट सिंबल’ आयी है जिसे पढने का सौभाग्य अभी तक नहीं मिला है।

    न जाने क्यूं मुझे पूर्वाग्रह होता है कि यह किताब भी डैन ब्राउन से ही ’इंसपायर्ड’ होगी.. अगर आपने डैन ब्राउन को पढा हो तो मेरे इस पूर्वाग्रह को निकाल फ़ेंकने में मेरी मदद करें..

    रही बात हिंदी में मौलिक और अनुवादित थ्रिलर नॉवेल्स की तो लगता है जेम्स हेडली चेज और वेद प्रकाश शर्मा की तरफ़ आपका ध्यान नहीं गया है :-)

    कुछ साल पहले सत्यजीत रे की लघुकथायों का एक कलेक्शन पढा था। वो किताब बच्चों को टार्गेटेड थी और विज्ञान गल्पों से भरी पडी थी.. वो किताब बंगाली से अंग्रेजी में अनुवादित की गयी थी..

    http://timesofindia.indiatimes.com/articleshow/42443247.cms

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  10. बड़ी तेजी में पढ़ गए आप ! रोज़ाबल का रिव्यू शिव भैया के ब्लॉग पर आने के बाद अगर आपने पढना चालु किया हो तो.
    रोज़ाबल को तो अब पढना ही पड़ेगा.

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  11. 'हिन्दी में एक्सप्रेशन की तंगी नजर आती है!'

    हिंदी इतनी कंगाल भी नहीं है, शर्त यह है की मूल भाषा के मूल को पकडे :)

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  12. अनुवाद शब्दों का नहीं भावों का होता है. अन्यथा शब्दानुवाद तो मूल रचना के साथ बलात्कार समान होता है.

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  13. मैं अनुवाद में विश्वास तभी रखता हूँ जब विषय सीधी साधी हो।
    उदाहरण: दफ़्तर की चिट्टियाँ और दस्तावेज, अखबार में छपे समाचार, नोटिस वगैरह वगैरह।
    कभी कभी विज्ञान, अर्थ शास्त्र, कानून सम्बंधी सामग्री का भी अनुवाद सफ़ल हो सकता है और इसके लिए कोई विशेष हुनर की आवश्यकता नहीं। कंप्यूटर और शब्दकोश का सहारा लिया जा सकता है।

    पर साहित्य, (खासकर कविता) के अनुवाद में मुझे विश्वास नहीं।
    साहित्य एक कला है। इसे मूल भाषा में ही रहने दीजिए।
    अनुवाद करना हो, तो इस बात से समझौता कर लीजिए कि कुछ न कुछ छूट जाएगा।
    शिल्पकला का उदाहरण को लीजिए।
    क्या पत्थर की मूर्तियों को हम मिट्टी या प्लास्टर ओफ़ पैरिस में दोबारा बना सकते है?
    अवश्य बना सकते हैं पर केवल आकार का, कला पीछे छूट जाती है।
    क्या हिन्दुस्थानी शास्त्रीय संगीत को पियानो पर पेश कर सकते है?
    अवश्य कर सकते हैं पर केवल आवाज को, गमक वगैरह छूट जाएंगे।

    हिन्दी भाषा की कमी नहीं है। अच्छे अनुवादक अच्छी अनुवाद कर सकते हैं पर सबसे श्रेष्ठ अनुवादक भी पर्फ़ेक्ट ट्रान्स्लेशन नहीं कर पाएगा यदि वह किसी साहित्यकार की रचना का अनुवाद करता है।
    हमारे भारतीय भाषाओं में भी साहित्य उपलब्ध है जिसका अनुवाद अंग्रेज़ी में हुआ है पर मूल लेख पढ़ने में जो मज़ा है वह अनुवाद में कहाँ।

    उर्दू में शायरी का उदाहरण को लीजिए।
    अंग्रेज़ी में अनुवाद करके पढ़ने सी हमें सिर्फ़ यह मालूम हो जाता है कि शायर क्या कह रहा है।
    उसकी क्ला का मज़ा हमें नहीं मिलता।

    एक और बात कहना चाहता हूँ।
    साहित्य का कल्चर से गहरा सम्बन्ध है। अनुवादक शब्द का अनुवाद तो कर लेगा, पर कल्चर का क्या होगा?

    मै किसी साहित्यकार की रचना का अनुवाद पढ़ता ही नहीं।
    अंग्रेज़ी और हिन्दी में साहित्य का पूजारी हूँ और अंग्रीजी विषय, तकनीकी विषय, अंग्रेज़ी में पढ़ना चाहता हूँ पर भारतीय संस्कृति के बारे में हिन्दी में पढ़ना पसन्द करता हूँ।

    शुभकामनाएं
    जी विश्वनाथ

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  14. शब्दानुवाद और भावानुवाद अलग अलग बाते हैं । भावानुवाद के लिए लेखक के काल और सोच तक डूबना जरूरी होगा जोकि असंभव तो नहीं लेकिन आसान भी नहीं ।
    तकनीकी शब्दकोश या अनुवाद में हम पीछे इस लिए रह गए क्योंकि हमने अँग्रेजी को आत्मसात कर लिया ॰

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  15. मंजुल प्रकाशन हाउस भोपाल वाले अंग्रेजी पुस्‍तकों का बहुत अच्‍छा अनुवाद कर रहे हैं...कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि यह अनुवादित पुस्‍तक मूल हिंदी में ही लिखी गई है...डेल कारनेगी की एक पुस्‍तक लोकव्‍यवहार नाम से हिंदी में 'हाउ टू विन फ्रेंड्स एंड इन्‍फ्लुएंस पीपुल' मेरे पास है, वाकई लाजवाब अनुवाद..

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  16. कोई भी रचना जिस परिवेश में लिखी होती है, अनुवादक को उसका या तो अनुभव हो और मूल भाषा में भी वह सहज हो तो अनुवाद सही हो सकता है.

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  17. अनुवाद के लिये दोनों भाषाओं के ऊपर सहृदयता से विचार कर ही कोई करना चाहिये। अंग्रेजी के शब्दों और वाक्यों को हिन्दी के अझेल शब्दों में डुबों देने की प्रक्रिया कई अनुवादों के माध्यम से झेल चुका हूँ। हिन्दी पढ़ने वालों को निर्दयता से उनका अज्ञान बताया गया है। पता नहीं सम्प्रेषण को कहाँ गिरवी रख कर आये थे।
    इस पुस्तक का अनुवाद हो, बिना कुछ काटे छाँटे। सबको पूरी पुस्तक पढ़ने का अधिकार है। जो विचार कठिन हो, उन्हे सरल ढंग से बताने के लिये पुस्तक का आकार बढ़ा देना भी स्वीकार्य है।
    हिन्दी अपने में इतनी समर्थ है कि किसी भी जटिल विचार का संप्रेषण कर सकती है अगर पहेली बुझाने वाला खेल न खेला जाये।

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  18. आप ही कोशिश कर के देखे आनुवाद करने कि. बाकी बाते तो सब ने कह ही दी, धन्यवाद

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  19. आपने बहुत अच्छा प्रश्न उठाया है , दरअसल हर भाषा की अभिव्यक्ति की पहुँच अलग अलग होती है , इसे समृद्ध करते हैं साहित्यकार । सहज , सरल बहाव , मूक परिस्थितियों को जुबान , संवेदनशीलता को अलफ़ाज़ ...क्या हमारी हिंदी भाषा इसमें समृद्ध नहीं है ? जो जिस भाषा का प्रयोग ज्यादा करता है वो उसी में ज्यादा आराम दायक महसूस करता है , उसी भाषा में प्रस्तुति भी बेहतरीन होगी ।
    हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद में भी रचना को वो अभिव्यक्ति नहीं मिलती , जितनी उसके मूल स्वरूप में होती है । तो ये स्वाभाविक सा है , पठनीयता की चुनौती तो हमेशा से सामने होती ही है ।
    काय काय को झमेला खड़ा होना या विवाद में पड़ना जैसे शब्द दिए जा सकते हैं , कहाँ सीमित है हिन्दी का शब्दकोष , ये अलग बात है कि दुनिया ग्लोबलाईज होती जा रही है और बहुत सारी भाषाओँ का ज्ञान होने से हम भी मिली जुली भाषा में संवाद कर लेते हैं
    तो हिन्दी दिवस पर जय हिन्दी ....

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  20. जब मक्सिम गोर्की की 'माँ' और टॉल्सटॉय की आन्ना कैरेनिना के सक्षम अनुवाद किए जा सकते हैं तो फिर अन्य पुस्तकों के क्यों नहीं किए जा सकते?
    फिर करोड़ों लोग जो पुस्तकों की मूल भाषा को नहीं जानते या जानते हैं तो उतनी अच्छी तरह नहीं उन के लिए मूल पुस्तकें रद्दी के ढेर से अधिक कुछ नहीं चाहे कोई उन की कितनी भी तारीफ क्यों न कर ले।

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  21. @ दिनेशराय द्विवेदी > जब मक्सिम गोर्की की 'माँ' और ... सक्षम अनुवाद किए जा सकते हैं तो फिर अन्य पुस्तकों के क्यों नहीं किए जा सकते?

    कृपया मेरी ये पंक्तियां पढ़ें - भावनाओं – विचारों का वर्णन तो ठीकठाक/अप्रतिम/अभूतपूर्व है हिन्दी में, पर इन (टेरर/इण्ट्रीग/थ्रिलर्स/जासूसी) विधाओं का तकनीकी विस्तार तो कुंद पड़ा है।

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  22. द्विवेदी जी से सहमत. विश्वनाथ जी भी पते की बात कहते हैं.

    हाल में ही डी डी बसु की पुस्तक 'The Constitution of India : An Introduction' का हिंदी अनुवाद देखने को मिला. विषय की गहनता के अनुरूप उसमें भाषा की कुछ क्लिष्टता तो है पर अनुवाद उच्च कोटि का है.

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  23. @ ज्ञानदत्त पाण्डेय Gyandutt Pandey
    (टेरर/इण्ट्रीग/थ्रिलर्स/जासूसी) विधाओं का तकनीकी विस्तार तो कुंद पड़ा है।
    इस कथन पर आप से सहमति है। वस्तुतः इस तरह का अनुवाद बहुत कुछ बाजार पर निर्भर करता है। इस तरह की पुस्तकों के सर्वाधिकार कुछ समय के लिए प्रकाशक के पास होते हैं। यदि उस को लगता है कि वह हिन्दी अनुवाद बेच कर मुनाफा बना सकेगा तो सक्षम अनुवादक भी तलाश लेता है। अनुवादकों के पास पर्याप्त काम नहीं है। इन विधाओं में हिन्दी मौलिक लेखन भी कम है। उस का कारण सस्ते उपन्यासों से बाजार का पटा होना है। ये सस्ते उपन्यास उस क्षेत्र की पहचान बन गए हैं जिन का एक असर यह हुआ है हिन्दी के अच्छे लेखक इस क्षेत्र में आने से कतराते हैं। मैं प्रकाशक या अनुवादक होता तो शायद इस पर अधिक प्रकाश डाल सकता था। इस कमी का बाजार की शक्तियों से गहरा संबंध है। इस के लिए हिन्दी को दोष देना उचित नहीं है। माँ और आन्ना कैरेनिना के अनुवाद भी इस लिए अच्छे हुए थे कि तत्कालीन सोवियत सरकार ने इस में रुचि प्रदर्शित कर अनुवादकों को अच्छा पारिश्रमिक दिया था और फिर अनुदित पुस्तकों के सस्ते संस्करण बाजार में उपलब्ध कराए थे।

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  24. बहुत सीरियसली सोच रहा हूं कि किंडल या आई पैड जैसा कुछ ख़रीदना ही पड़ेगा..

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  25. द रोजाबेल अभी तक पहुँची नहीं है मेरे पास..अत्यधिक उत्सुक हूँ पढने के लिए...
    हिन्दी में भी ये या ऐसी ही पुस्तकें लिखी जाएँ ,मैं तो यही चाहती हूँ...

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  26. sabse pahle aur fatak se apan neeraj bhai sahab se 100 take sehmat hote hain ye sunkar ki "पांय पांय भी हो और कांय कांय भी हो तभी लगता है कि हिन्दी साहित्य पर विमर्श चल रहा है। "

    ahaa, ahaa, kitnaa sahi pehchana bhaiya ne... ekdam satik.


    are wah rahul bhaiya ne kitaab sujhaai aur aapne lapak bhi li, lo ji kallo baat matbal ki ham hi pichhe ho gaye, bhale hi kal rahul bhaiya ke saath 2 ghante baithe rahe.....

    vaise anuvaad ki sabse badi dikkat agar mamla takinki ho to yahi par aa kar atak jata hai...sahitya ka anuvaad to ho hi jata hai lekin takniki aur taknik ka....... afsos ki kam hi milte hain..

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  27. साहित्य का कल्चर से गहरा सम्बन्ध है। अनुवादक शब्द का अनुवाद तो कर लेगा, पर कल्चर का क्या होगा?

    जी विश्‍वनाथ जी की उपरोक्‍त बात में दम है। हरेक भाषा का अपना सांस्‍कृतिक संदर्भ होता है, और ये सांस्‍कृतिक संदर्भ भिन्‍न-भिन्‍न होते हैं। आप शब्‍दों का अनुवाद तो कर लेंगे, लेकिन समान सांस्‍कृतिक प्रतीक कहां से ढूंढेंगे?

    उदाहरण के तौर पर आप इस छोटे-से वाक्‍य का अंगरेजी में अनुवाद कर के देख लें : ‘मेरी लड़की गाय है।‘

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  28. @Ashok Pandey


    1)My girl is a cow!

    2)My girl is a guy!

    G Vishwanath

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  29. पोस्‍ट पढ कर काफी कुछ कहने का जी हुआ था किन्‍तु टिपपणियॉं पढीं तो पाया कि दिनेश रायजी द्विवेदी, सीएम प्रसादजी, डॉ. महेशजी सिन्‍हा और सुब्रमनियनजी ने मेरी भावनाऍं मुझसे बेहतर स्‍वरूप में व्‍यक्‍त कर दी हैं।

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  30. सुरेन्द्र मोहन पाठक जी ने अंग्रेजी उपन्यासों का हिन्दी अनुवाद किया है और बहुत अच्छा किया है.
    भारत में टेक्नोलाजी का एक अच्छे ढंग से प्रवाह पिछले पांच वर्षों से प्रारम्भ हुआ है, अत: इस स्तर के थ्रिलर/जासूसी उपन्यासों के लिये निराश होना स्वाभाविक है.
    डैन ब्राउन के उपन्यासों के बारे में ऊपर दी हुई टिप्पणी बिल्कुल ठीक है.
    हिन्दी अनुवाद का काम हिन्दी और अंग्रेजी में डिग्री धारक ऐसे हिन्दी अनुवादक करते हैं जिन्हें शाब्दिक अर्थ पता होता है लेकिन वाक्य में प्रयोग के सम्बन्ध में ज्ञान नहीं होता. "A person whose whereabouts are not known" का अनुवाद "ऐसा व्यक्ति जिसका पता न मालूम हो" किया जाता है तो वितृष्णा होना स्वाभाविक है.

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  31. एक बात और...
    हिन्दी कोई अक्षम भाषा नहीं है। उस में सभी तरह के साहित्य का अनुवाद संभव है। यदि अक्षमता है तो अनुवादकों में है। यह कहना कि हिन्दी की क्षमता सीमित है कहना वैसा ही है जैसे कोई कहे कि आंगन टेड़ा है मैं नाच नहीं सकता। आप अच्छे अनुवादक को समय और वांछित पारिश्रमिक की व्यवस्था करवा दें वह किसी भी पुस्तक का अच्छा अनुवाद कर सकता है।
    फिर यदि किसी को हिन्दी अक्षम प्रतीत होती है तो उसे विकसित करने का दायित्व भी तो हिन्दी भाषियों का है। हिन्दी को अक्षम बताना क्या उस से मुहँ मोड़ लेना नहीं है?
    मै दिनेशराय द्विवेदी जी के बातों से सहमत हूँ.........

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  32. जब से शिव ने इसके बारे में अपने ब्लॉग पर लिखा था तब से ही इस किताब को पढ़ने की ललक जाग गयी है...कोई ज़माना था जब अंग्रेजी के खूब उपन्यास किताबें पढ़ीं लेकिन बाद में रुझान हिंदी की और हुआ तो हिंदी की न जाने कितनी किताबें पढ़ डालीं...हमारा पालन पोषण क्यूँ की हिंदी में हुआ प्राथमिक शिक्षा और घर में बोलचाल की भाषा भी हिंदी रही तो हिंदी के प्रति अनुराग बढ़ गया, अंग्रेजी में पढ़ सकते हैं लेकिन तारतम्य नहीं बनता...खैर अब सुना है शिव इसके अनुवाद के बारे में सोच रहे हैं तब से इसको हिंदी में पढ़ने का ख्वाब संजोये बैठे हैं...

    बस इतना सा ख्वाब है...कभी तो पूरा होगा...

    इन दिनों आपकी पोस्ट पढ़ी नहीं मुझे लगा आप लिख ही नहीं रहे शिव से अपनी चिंता ज़ाहिर की तो पाता चला के आप लिख रहे हैं लेकिन यहाँ वहां टिपण्णी करने से बच रहे हैं...

    अब इतना भी क्या बचना..पुराने रंग में लौटिये...आनद आएगा...

    नीरज

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  33. अनुवाद के संदर्भ में आपकी चिंता जायज है. इस किताब की चर्चा तो सुनी थी, समीक्षाएं भी पढ़ी थीं और मूल कथ्य की आलोचना भी. वही धर्मनिरपेक्षताई झैं-झैं. लेकिन इसके प्रति आकर्षण मेरा भी शिवकुमार जी ने ही जगाया. इसके लिए वे धन्यवाद और बधाई (वध धातु में नहीं) दोनों के पात्र हैं. अब जहां तक सवाल अनुवाद के लिए झौवा भर शब्दों की ज़रूरत की बात है, तो यह कोई मुश्किल बात नहीं है. हिन्दी में न तो शब्द भंडार की कमी है और शब्दों में सामर्थ्य की. कमी है तो सिर्फ़ अच्छे अनुवादकों की और जो अच्छे अनुवादक हैं उन्हें अपेक्षित स्वतंत्रता की. अगर किसी अच्छे अनुवादक को भरपूर आज़ादी दी जाए (लगभग पुनर्सृजन के हद तक) तो कहीं कोई दिक्कत नहीं आएगी. यहां तक कि एक भी नया शब्द तक नहीं गढ़ना पड़ेगा और न कोई बोझिल शब्द लेना पड़ेगा. हां, कोई दुराग्रहग्रस्त व्यक्ति हो, जिसे हिन्दी के हर शब्द को बोझिल और अबूझ बताने में ही अपने अस्तित्व की सार्थकता दिखती हो, तो बात अलग है.

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  34. क्या हिन्दी में किताबों को अनुवाद करना इतना कठिन हो सकता है?
    माना कि कुछ शब्द थोड़े कठिन हो सकते हैं पर अगर अंग्रेजी पुस्तक भी देखें तो वो हर कोई नहीं पढ़ सकता है.. जिसकी अंग्रेजी ठीक-ठाक होगी, वही उसका वाचन करेगा..

    तो इसी तरह अगर हिन्दी में अनुवाद किया जाए तो वह केवल कुछ चुनिंदे पाठकों के लिए ही होगा जिनकी हिन्दी ठीक-ठाक है..

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  35. हिन्दी अनुवाद के बारे में कुछ कहना चाहता था पर सारी टिप्पणियों को पढ़ते-पढ़ते मन तृप्त सा हो गया है.

    थ्रिलर की बात करुं तो जेफ़्री आर्चर का "Shall we tell the president?" कल ही समाप्त किया है. पहली बार पढ़ा उन्हें, हालांकि नाम कम से कम बीस बरसों से सुनता आया हूं. नॉवल अच्छा लगा पर कहीं कहीं कुछ अधिक ही अमेरिकन पॉलिटिकल सिस्टम में घुस गया था.

    आर्थर हीले को भी पढ़ने की इच्छा है. कहां से शुरु करूं? कोई सुझाव?

    जेम्स हेडली चेईज को बचपन से हिन्दी अनुवाद में पढ़ते आए हैं अभी कुछ वर्षों से ही अंग्रेजी में पढ़ना शुरु किया है, काफ़ी सारे पढ़ डाले.

    लेकिन सांस रोक देने वाले थ्रिलर के मामले में "डेसमण्ड बेग्ले" जैसा लेखक कोई नहीं लगा. शायद आपने कभी पढ़ा हो.

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  36. dadda yun hi vimarsh aage badhate rahen ..... hum apne alp-gyan me
    thora gyan badhate rahenge.

    pranams.
    post ke lye aur shreshth comment ke
    liye.

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  37. अनुवाद कोई बड़ी समस्या नहीं है। हिन्दी भाषा भी सक्षम है और अनुवादक भी। फिर भी जैसा एक ऑडियो या वीडियो सीडी की प्रतिलिपि बनाने में जनरेशन लॉस (अब इसका अनुवाद क्या होगा?) होता है वैसा ही अनुवाद में होता है। वास्तव में ऐसे विषयों के लिए अनुवाद नहीं अनुसृजन शब्द प्रचलित है। निश्चित रूप से अनुवादक को कुछ बाते छोड़ना होंगी और कुछ अपने परिवेश के हिसाब से जोड़ना भी होंगी। वरना 'मुंहझौसा' और 'निगोड़ा'का क्या अंग्रेजी अनुवाद होगा?
    अनुवाद भी तब बोधगम्य और संप्रेषणीय होगा जबकि अनुवादक को गंतव्य भाषा के साथ-साथ स्रोत भाषा के देश, परिवेश, संस्कृति आदि के बारे में भी पर्याप्त जानकारी हो। साथ ही अनुवाद भी तब अच्छा बन पड़ेगा जब अनुवादक को उस कन्टैंट को पढ़ने और उसे गंतव्य भाषा में ढालने में मज़ा आ रहा हो। अनुवादक का मूल सामग्री में डूबना आवश्यक है तभी वह तरेगा। अनुवादक के पास समय होना चाहिए और सामग्री के प्रति कुछ स्वतंत्रता भी होनी चाहिए।
    रही बात मूल भाषा में पढ़ कर आनंद लेने की बात, सो वह तो हम आंग्ल भाषा को लेकर कह देते हैं अन्यथा हम कितनी भाषाओं में मूल लेखन पढ़ सकेंगे। पाउलो कोएलो की 'द अलकेमिस्ट' हो या पाब्दो नेरूदा की कविता, इनके तो अनुवाद ही पढ़ने होंगे। वैसे सुना था कभी कि 'चंद्रकांता' और 'गीतांजली' पढ़ने के लिए लोगों ने हिन्दी और बांग्ला सीखी थीं।

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  38. इस पुस्तक की अगर हिन्दी में रीडेबिलिटी बनाये रखनी है तो इसके कई अंशों का हिन्दी में पुनर्लेखन करना होगा।
    हाँ अनुवाद एक दोहरी चुनौती का कार्य है ....सो अधिक श्रम साध्य !

    अनुवाद के लिये जो करना होगा, “चुनौती भरा” उसके लिये हल्का शब्द लगता है।
    .हाँ ...क्योंकि मूल लेखन और अनुवाद एक ही धरातल में नहीं हो सकते ...चाहे अनुवादक कितना भी उच्च-स्तरीय क्यों ना हो ? इस अंतर को महसूस करना होगा ....अनुवाद उस मूल के आस-पास तो हो सकता बराबर कभी नहीं !

    यहां पांय पांय थोड़ी ज्यादा ही होती है!
    मुझे लगता पायं पायं सब जगह है ......और अपना विचार तो यह है हिन्दी साहित्य में गर कायदे से पायं पायं हो ...तो शायद रीड़ेबिलिटी बाढ़ जाय ? :-)

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हिन्दी या अंग्रेजी में टिप्पणियों का स्वागत है|
--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय